Binu Bhagat (Hindi Novel) : Agyeya

बीनू भगत (उपन्यास) : अज्ञेय

मैंने शीशे में झाँका। झाँकते-झाँकते बड़ी तेजी से मेरे मन में से यह विचार दौड़ा कि मैं इतने दिन इतना व्यस्त रहा हूँ कि शीशे में देखने की फ़ुरसत भी नहीं मिली जब कि मामूली तौर पर मैं दिन में अधिक नहीं तो दो-चार बार तो शीशे में झाँक ही लेता हूँ।

लेकिन शीशे में झाँकते ही मैं थोड़ी देर के लिए अचकचा गया। वहाँ जो चेहरा मुझे दीखा वह कुछ अनपहचाना-सा लगा। अपनी अचकचाहट को छिपाने के लिए मैंने अपने चेहरे पर थोड़ी हँसी बिखेरते हुए उससे पूछा, “तुम कौन हो जी?”

सवाल पूछने तक उसके चेहरे पर भी वैसी ही मुस्कान थी। लेकिन मेरे सवाल पर उसका चेहरा कुछ गम्भीर हो आया। उसने कहा, “क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि यह सवाल पूछने वाले तुम कौन हो?”

मैं कौन हूँ? ऐसा तो नहीं है कि यह सवाल मेरे मन में कभी उठा न हो, लेकिन आईने में दीखता हुआ मेरा प्रतिबिम्ब मुझसे यह सवाल पूछ बैठे, यह कुछ अजीब बात थी। मैं जो भी हूँ, मैं हूँ, असल और ओरिजिनल मैं। मैं मूल सत्ता हूँ और मेरे ही कारण तो मेरा प्रतिबिम्ब है। अपने इस सोच से कुछ आत्मविश्वास पाकर मैंने कहा, “नहीं, यह सवाल मेरे ही पूछने का है। मैं तो स्वत:प्रमाण हूँ। तुम केवल प्रतिछवि हो।”

“स्वत: प्रमाण!” उसकी हँसी में काँच की सी खनखनाहट थी। “हाल तो तुम्हारा यह है कि दिन में चार-छ: दफे मुझ से प्रमाणपत्र पाये बिना तुम्हें अपने होने पर भी विश्वास नहीं होता-और तुम स्वत: प्रमाण! सबेरे हजामत बनाते हो, टाई-वाई लगाते हो; लेकिन न तुम्हें अपने किये हुए कर्म पर भरोसा होता है और न अपने अनुभव पर। मैं कह दूँ कि हाँ हजामत ठीक बन गयी, तो ठीक है। कह दूँ कि हाँ टाई ठीक बँधी है, गाँठ ठीक जैसी होनी चाहिए वैसी ही है, कुछ बाँकपन, कुछ लापरवाही और कुछ हल्की-सी ढिठाई लिए हुए, तो हाँ टाई भी ठीक बँधी है। कुछ भी तो तुम अपने भरोसे न जानते हो, न पहचानते हो, यहाँ तक कि अगर दिन में बॉस का सामना करना है तो उसके लायक आत्मविश्वास भी तुममें है या नहीं, यह जानने के लिए भी तुम को मेरी गवाही की जरूरत पड़ती है। फिर स्वत: प्रमाण तुम हो या मैं?”

मैंने एक बार घड़ी की ओर देखा, फिर कहा, “चलो, आज इसका ही फैसला हो जाए।”

उसने कहा, “चलो।”

मैं मुडक़र बाहर की ओर चला। मैंने नहीं देखा कि वह साथ आ रहा है या नहीं या मुकुर के पिंजरे में से कैसे निकल पाता है। चलते-चलते ही मैंने कहा, “क्लब चलते हैं, वहीं फैसला होगा।”

मेरे कन्धे के बिलकुल पास से उसकी आवाज आयी, “हाँ, क्लब चलते हैं, वहीं फैसला होगा।”

मैंने सोचा था, क्लब में पहुँचकर बैठकर बियर पी जाएगी और फिर इसके साथ आगे बहस होगी और मामले का निबटारा होगा। लेकिन क्लब में घुसा तो हॉल की डेस्क पर खड़े बैरा के सलाम का जवाब देते-देते ही मैंने देखा कि उसके पीछे दीवार में लगे हुए बड़े शीशे में एक धुँधली-सी छवि दीख रही है जो है तो शायद मेरी ही लेकिन पहचानी हुई नहीं जान पड़ी। या शायद बात उलटकर कहनी चाहिए कि वह शक्ल है तो पहचानी हुई ही, लेकिन मेरी नहीं जान पड़ी। मैंने बैरे के सलाम का जवाब देते हुए पूछा, “अभी वक्त तो नहीं हुआ, लेकिन इस वक्त भी क्या बियर मिल जाएगी?”

“आप लाउंज में चलकर बैठिए, मैं पता करता हूँ। आप पुराने मेम्बर हैं, आपके लिए तो-”

मेरे कन्धे के पास से आवाज आयी, “लाउंज में चलकर बैठिए, वहाँ भी एक बहुत बड़ा शीशा लगा हुआ है, वहीं फैसला हो जाएगा।”

मैंने कुछ खीझा हुआ-सा जवाब देना चाहा, लेकिन जवाब कुछ सूझा नहीं। खीझ बिलकुल सतह तक आकर रह गयी।

लाउंज में पहुँच कर मैंने एक कुर्सी उसके लिए खींची और एक अपने लिए खींचते हुए बैठे-बैठै मैंने कहा, “बैठो।”

जहाँ मैं बैठा था वहाँ से दूर पर लगे हुए पूरी दीवार छींकने के लिए शीशे में हमारी ही प्रतिछवियाँ क्यों, पूरा-का-पूरा लाउंज दीख सकता था। हाँ, सब कुछ जरा धुँधला दीखता था और काँच में जहाँ-तहाँ थोड़ी लहर होने के कारण थोड़ा-सा विकृत भी; बल्कि वह विकृति भी एक स्थिर विकृति नहीं थी; जरा-सा भी हिलने-डुलने पर उस लहर के कारण वह विकृति भी तरह-तरह से और विकृत होती जाती थी, मानो प्रतिबिम्बित सारा का सारा यथार्थ लगातार बल खाता हुआ नए से नए रूप लेता जा रहा हो।

उसने कहा, “तो यहाँ फैसला होगा। लेकिनफैसला होगा कैसे?”

मैंने कहा, “पहले बियर आ जाने दो, फिर प्रक्रिया और प्रवृत्तियों की बात होगी।” “क्यों? फैसला क्या बियर का गिलास करेगा? या कि हम-तुम करेंगे? या अगर तुम्हें यह आपत्ति है कि हम-तुम तो वादी-प्रतिवादी हैं इसलिए न्यायदाता कैसे हो सकते हैं, तो चलो, बड़े आईने में जो छवि दीखती है उसी को न्यायाधीश के आसन पर बिठाते हैं।”

मैंने कुछ चौंक कर कहा, “किस की छवि?”

“छवि। छवि यानी छवि। किसकी छवि का सवाल उठाकर तुम क्या मेरे साथ फरेब करना चाहते हो? जब मामला ही यही है कि मुकुर में दीखती छवि तुम्हारी प्रतिछवि है और तुम स्वत: प्रमाण हो, या कि छवि स्वत: प्रमाण है और तुम-तुम चाहे जो हो-तब फिर किसकी छवि का क्या मतलब होता है? अगर वहाँ भी तुम्हारी प्रतिछवि है और मैं भी तुम्हारी प्रतिछवि हूँ तो फिर इस सारे ढकोसले का प्रयोजन ही क्या रह जाता है? तुम अपने आप ही फैसला न दे लेते? वह तुम्हारे बस की बात नहीं थी, तभी तो हम यहाँ आये।”

इसकी दलील तो बिलकुल दुरुस्त है, लेकिन बात उतनी ही गलत-या कि बात बिलकुल सही है और दलील बिलकुल चौपट, यह सोचते हुए मैंने दीवार पर लगे हुए बड़े आईने की ओर झाँकते हुए यह पाया कि पूरा लाउंज और मेज के पास बैठे हुए हम दोनों भी प्रतिबिम्बित थे मानो जिस कचहरी में हमारा मुकदमा था उसका पूरा इजलास उस शीशे में दीख रहा था। मेरे उधर ताकते ही शीशे के भीतर से एक छवि ने कहा, “खामोश! हम मामले से इधर-उधर की निजी बातें या पूर्वग्रहों का ब्यौरा नहीं सुनना चाहते, तथ्य क्या हैं, यह हमारे सामने आना चाहिए।”

मैंने कहा, “असल मुद्दा तो यही है कि जिन्हें हम तथ्य समझते रहे हैं वे पूर्वग्रह हैं या कि जिन्हें हम पूर्वग्रह मान रहे हैं वे तथ्य हैं। मेरा कहना है-”

“और मेरा सवाल यह है कि क्या दोनों ही बातें सही नहीं हो सकतीं?”

इसी बीच बैरा दबे पाँव आकर दो गिलास हमारे सामने रखते हुए धीरे से बोला, “आपने पानी माँगा था...” और वैसे ही दबे पाँव चला गया।

लेकिन गिलासों में पानी नहीं था; थी बियर ही, लेकिन उसके झाग काफ़ी बैठ चुके थे-या तो देर के कारण या ढालने की सफाई के कारण। कचहरी में बियर तो नहीं पी जाती, परन्तु पानी की जगह बियर सामने रखने का ढकोसला क्या चल जाएगा? और अगर पकड़ा गया तो वह क्या अदालत की तौहीन होगी? और तौहीन की बात न भी सोची जाए तो क्या उसके कारण विचारक का रवैया बदल जाएगा?

मुकुर की छवि ने पूछा, “तुम लोग फैसले के लिए मेरे सामने क्यों आये? क्या इस अदालत को इस मामले का विचार करने का अधिकार है? क्या उसको इसकी अर्हता प्राप्त है? दोनों पक्षों में से कोई अगर यह सवाल उठाना चाहता है तो पहले उसी पर बहस होगी।”

“जी नहीं, मुझे कोई एतराज नहीं है और इस अदालत की सम्पूर्ण अर्हता मुझे स्वीकार है।”

“सम्पूर्ण अर्हता मुझे स्वीकार है।” मानो मेरी बात को प्रतिध्वनित करते हुए वह बोला, “अर्हता की बात हम लोग नहीं उठा रहे हैं। हम मान लेते हैं कि इस मामले की मूल परिस्थितियों में से ही आपकी अर्हता सिद्ध है- वह अर्हता स्वत: प्रमाण है।”

“तो।” केवल इतना ही कह कर छवि हम दोनों की ओर देखने लगी मानो इससे आगे कुछ कहने की जरूरत उसे नहीं है और वादी-प्रतिवादी को ही मामला आगे बढ़ाना है। कुछ ऐसी ध्वनि इस 'तो' में थी मानो वही अदालत का फैसला है।

मैंने कुछ सोचते-सोचते कहा, “मैं समझता हूँ कि मुझे और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मामला आपके सामने है और जो भी तथ्य हैं या हो सकते हैं, आपके जाने हुए हैं। निर्णय आपके विवेक पर छोड़ कर मैं सन्तुष्ट हूँ।”

“मैं सन्तुष्ट हूँ”, उसने फिर मेरी बात की गूँज की तरह कहा, “तथ्य ही नहीं, जो भी दलीलें हैं या हो सकती हैं वे सब भी आपकी जानी हुई हैं। अदालत में तो आपके सामने हम लोगों की पेशी केवल प्रक्रिया का एक अंग है-खानापूरी है। इसके बिना आगे कार्यवाही चल नहीं सकती। आप बहस को समाप्त समझें और फैसला दें।”

मैंने मुडक़र कुछ सन्देह की दृष्टि से इस प्रतिवादी की ओर देखना चाहा-क्या इस तरह बहस बन्द कर देने में कोई चाल है? या कि क्या मुझे ही अपनी बात इतनी जल्दी समाप्त नहीं करनी चाहिए थी? लेकिन वह मुझे तत्काल दीखा नहीं, मुझे लगा कि लाउंज में रोशनी कुछ कम हो गयी है। फिर मैं बड़े शीशे की ओर मुड़ा जिसके पार कचहरी बैठी थी। मुझे लगा कि उधर भी रोशनी कुछ कम हो गयी है, लेकिन फिर भी इतना मैं देख पाया कि मेरे दूसरी ओर मुड़ते ही आईने वाली छवि भी कुछ विमुख हो गयी थी। ऐसी विमुखता से काम नहीं चलेगा। जब तक कचहरी में हूँ पूरा अवधान रहना चाहिए, यह सोचते हुए मैं पूरा सीधा होकर बैठ गया।

लेकिन मेरा ध्यान सामने रखे हुए गिलास की ओर गया और मैंने मानो अचेतन भाव से उसे उठाया और गटगट पी लिया। मैंने देखा कि उसने भी उसी तरह एक साँस में गिलास खाली करके धीरे से मेज पर रख दिया है।

मैंने चोर हाथ से मुँह पोंछा और शीशे में छवि की ओर देखने लगा।

छवि ने कहा, “ठीक है, तुम दोनों ने बहस बन्द कर दी है और मामला पूरी तरह मुझे सौंप दिया है। लेकिन फैसला देने से पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि स्वत: प्रमाणता का यह झगड़ा क्यों और कैसे हुआ?” मेरी ओर मुखातिब होकर छवि ने पूछा, “शीशे में तो तुम अक्सर देखते हो, क्या हमेशा यह सवाल तुम्हारे मन में उठता है? या कि केवल इस एक बार उठा? जाहिर है कि हमेशा तो नहीं उठता रहा होगा। तब अगर अभी एक बार उठा तो क्या इस सन्देह का कारण नहीं बनता कि तुम्हारी स्वत:प्रमाणता केवल एक समय है, एक मान्यता है जिसकी परख कभी नहीं हुई, जिसकी सच्चाई को स्वयंसिद्ध नहीं माना जा सकता?”

छवि मेरी ओर वैसी ही तीखी नजर से देख रही थी जैसे नजर से मैं उसकी ओर। क्या मुझसे पूछे गये इस सवाल में प्रतिकूल फैसले की भनक है, यह सोचते हुए मैं जवाब देने के पहले थोड़ी देर रुक गया। इस बीच छवि ने उसी तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए उससे पूछा, “और तुम्हारे प्रतिवाद का क्या आधार है? तुम कैसे अपने को स्वयंसिद्ध मान सकते हो जब कि तुम कभी बिना वादी के आह्वान के प्रकट ही नहीं होते?”

प्रतिवादी से पूछे गये इस सवाल पर मुझे हल्की-सी तसल्ली हुई। लेकिन हम दोनों में से किसी के भी कुछ कहने से पहले, छवि ने ही फिर एक बड़ी सूक्ष्म कुटिल मुस्कान के साथ अपना सवाल जारी रखा, “या कि तुम्हारा दावा भी आजकल की बेनामी सम्पत्ति के सिद्धान्त पर आधारित है?”

क्या सवाल के इस रूप पर मुझे सन्तोष होना चाहिए या और अधिक चिन्ता? क्या मैं मूल सत्ता हूँ और वह प्रतिमुकुरित होने के कारण गौण, मुझ पर निर्भर और इसलिए पूरी तरह मेरे अधीन; या कि बेनामी मालिक होने के कारण वही अदृश्य लेकिन असली सत्ता और मैं ठोस और पूरी तरह दृश्य होकर भी उसका कठपुतला-यथार्थ के खेत में टँगा हुआ एक डरौना?

क्या कुछ बोलू्ँ? या कि थोड़ी देर और चुप रह कर देखूँ? मैंने उसकी ओर देखा और उसने वैसे ही भाव से मेरी ओर। फिर हम दोनों ने अपना ध्यान शीशे की छवि पर टिकाया। छवि ने कहा, “तुम दोनों ने मुझे पूरी अर्हता दे दी और स्वत:प्रमाण मान लिया, लेकिन किस आधार पर? क्या बिना आस्था के, केवल अनुकूल फैसले के लिए? या अगर पूरी आस्था के साथ, तो सवाल उठता है कि अगर मेरे पास आस्था हो सकती है तो एक दूसरे पर क्यों नहीं हो सकती थी? यह मामला मेरे सामने आना ही क्यों चाहिए था?”

इस सवाल के बाद तो चुप नहीं रहा जा सकता। कुछ न कुछ जवाब तो देना ही होगा। जल्दी ही ठीक जवाब नहीं सूझा। मैंने कहा, “साधारण स्थिति में वैसे ही होता है, या यों कहूँ कि वैसा ही होता होगा अथवा होना चाहिए क्योंकि असाधारण स्थिति में तो यह सवाल उठता ही नहीं। सवाल उठा, यही तो असाधारण स्थिति का सबूत है और असाधारण स्थिति में फिर एक तटस्थ निर्णायक की जरूरत होती है।”

“लेकिन असाधारण स्थिति में निर्णायक की तटस्थता की क्या जरूरत है? स्थिति असाधारण है तो निर्णायक की तटस्थता क्या असाधारण बात नहीं होगी। मैं तटस्थ हूँ कि नहीं, हूँगा कि नहीं, यह तुम कैसे जान सकते हो?”

हम दोनों ने एक साथ ही कहा, “क्यों नहीं जान सकते? आपकी तटस्थता पर हमें पूरा विश्वास है, इसलिए हम आपके पास आये।”

“ऐसा तो है नहीं कि यह कचहरी पहले से थी या इजलास पहले से हो रहा था और तुम सामने आये। तुमने बुलाया इसलिए कचहरी की नियुक्ति हो गयी।” थोड़ी देर रुककर छवि ने फिर कहा, “अगर बुलाये जाने से पहले हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं था-बल्कि हम कह सकते हैं कि हम तीनों में से किसी का कोई अस्तित्व नहीं था, तो अगर हम सबसे पहला सवाल यही पूछें कि तुम कौन हो, तो क्या अनुचित होगा?” थोड़ा रुककर उसने अपना सवाल जारी रखा, “क्योंजी, तुम कौन हो?”

“धत्तेरे की! सारी बात ही तो इसी सवाल से शुरू हुई थी।” मैंने एकाएक औसान खोकर गिलास उठा कर काँच की ओर दे मारा।

न वहाँ छवि होगी, न मुकदमा। न वह होगा और- न मैं। या कि मैं हूँगा? क्योंकि जब मैं उठा तो बैरा एक शरारत भरी मुस्कान के साथ मेरी ओर ताकते हुए पूछ रहा था, “साहब, आपने तो एक गिलास पानी माँगा था, पानी भी क्या चढ़ जाता है?”

सपने की दुनिया को लोग झूठी दुनिया बताते हैं। वह सच्ची है कि झूठी, इस बहस में मैं नहीं पडऩा चाहता। यों तो बहस इस बात पर भी हो सकती है कि झूठ क्या सच से कम यथार्थ होता है। वैदिक लोग भी यह जानते थे, तभी तो कहते थे “यथार्थ सत्यं चान्नृतं च न विभीतो ऋष्यत: एवा मे प्राण मा विर्भ:”, सत्य और मिथ्या दोनों को वह एक-सा निर्भय मानते थे। लेकिन सपनों की दुनिया सच्ची होती हो या झूठ, सपने में कभी-कभी जो चित्र दीखते हैं उनके बारे में क्या कहा जाए? कुछ सपने तो हम जानते हैं हमारी शारीरिक अवस्था का सीधा परिणाम होते हैं-नशे के सपने, भूख के या अति-भोजन के सपने, थकान के सपने इत्यादि। ऐसे सपने हम नींद से जागते ही भूल जाते हैं या मन से निकाल देते हैं। फिर कुछ सपने हमारी वासना या कामना का परिणाम होते हैं-इच्छा-पूर्ति के सपने-और इस बात को भी हम जानते ही हैं। दूसरों के सामने अपनी वासनाओं की बात न भी कर सकें तो भी अपने सामने तो पहचानते ही हैं।

लेकिन इनसे अलग एक कोटि के सपने होते हैं जिनका हमारे स्नायविक तनावों या हमारी वासना से कोई सम्बन्ध नहीं होता-उनमें मानो एक नि:संग दूसरी दुनिया की कहानी हमारी आँखों के सामने अभिनीत होती चलती है। ऐसे सपने कभी-कभी बहुत लम्बे भी होते हैं। उनमें कई चित्र हमारे सामने आते हैं जिनका हमारे जीवन की घटनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता, जो हमारे जाने-पहचाने किसी व्यक्ति से नहीं मिलते, न जिनके कर्म-व्यापार हमारी अपनी कल्पना से उपजे जान पड़ते हैं, लेकिन जो फिर भी बड़े जीवन्त चरित्र होते हैं और एक मार्मिक प्रभाव हम पर छोड़ जाते हैं। मैं ऐसे ही सपनों की बात अक्सर सोचता हूँ।

इन सपनों में ऐसा भी होता है कि कहानी अधूरी रह जाती है, हम जाग जाते हैं और एक जीवन्त चित्र हमारी स्मृति में बना रहता है। हम जानना चाहते हैं कि कहानी जहाँ रुक गयी-जाग जाने से जहाँ उसमें व्याघात हो गया-उससे आगे क्या हुआ? लेकिन अधूरे सपने को पूरा करने का तो कोई उपाय है नहीं। इच्छा करके हम उसका शेष अंश नहीं देख सकते, बल्कि जितना ही इच्छा करते हैं उतना ही उससे आगे देखने की सम्भावना कम हो जाती है क्योंकि सपने में तो उन्हीं इच्छाओं की छायाएँ प्रकट होती हैं जिन्हें हमने अपने से छिपाया है, जिन्हें हमने दबा कर रखा है या नकारा है। जिस इच्छा को हमारा जाग्रत मन स्पष्ट स्वीकारता है वह मानो हमारे स्वप्न संसार से निर्वासित हो जाती है।

आजकल लोग अधूरे चरित्रों की बात भी करते हैं। कुछ लोगों की राय में तो समाज ही आधे-अधूरे लोगों का समाज है। मुझे लगता है कि यह भी एक पूर्वग्रह ही है कि हमारी दुनिया तो भरी-पूरी है और उसमें बसने वाले लोग सब आधे-अधूरे हैं। स्वप्न में दीखते हुए ऐसे जीवन्त चरित्रों को कैसे अधूरा कहा जाए, मेरी समझ में नहीं आता। उनकी कहानी हम पूरी न जान पाएँ, यह अलग बात है, इसी से क्या वह चरित्र अधूरा हो गया? अपनी अधूरी जानकारी का आरोप हम ऐसे जीवन्त बल्कि प्राणवत्ता से थरथराते हुए चरित्र पर किस अधिकार से कर सकते हैं? अगर यह कहा जाए कि वे चरित्र तो भरे-पूरे हैं, लेकिन जिस दुनिया में वे रहते हैं, जिस यथार्थ के फन्दे में फँसे हुए वे अपने को अभिव्यक्ति कर रहे हैं वह यथार्थ, वह दुनिया ही वास्तव में अधूरी है, तो कैसे रहे? आधे-अधूरे नहीं, आधी-अधूरी दुनिया में जीते हुए वे भरे-पूरे चरित्र...

मेरे पास कई ऐसे चरित्र हैं। अक्सर उनके आगे के जीवन के बारे में सोचता हूँ। कभी-कभी उनसे बातचीत भी करता हूँ। सोचता हूँ कि शायद इसी तरह कभी उनके शेष जीवन की कुछ झाँकियाँ, उसके कुछ संकेत मुझे मिल जाएँ। कभी-कभी उनमें से एक-आध को बुलाकर मैं अपने सामने बिठा लेता हूँ और पूछ भी बैठता हूँ : “अच्छा, तुम ही बताओ, इससे आगे क्या हुआ?”

बीनू भगत के बारे में यही बात सच है। मैंने उसे पहले पहल इसी तरह के एक लम्बेकथा-सपने में देखा था। उसके बाद मेरी जाग्रत दुनिया में कई दिनों तक उसकी मेरी बातचीत होती रही। जिस बिन्दु पर उसका सपना टूट गया था वहाँ उसने मुझसे पूछा था, “क्या तुम मेरे लायक काम नहीं बता सकते? मेरे सामने क्या विकल्प हैं, तुम कुछ सुझा सकते हो?” सवाल में यह बात साफ-साफ कही नहीं गयी थी, लेकिन उसका निहित भाव यही था, “तुम तो कवि हो, कहानीकार हो, तुम्हारे पास सर्जक कल्पना है, तो क्या तुम सारे विकल्प उखाड़ कर मेरे सामने नहीं रख सकते।”

बीनू का सवाल और उसका दर्द अभी तक मेरे पास बना है। अब भी मैं अक्सर उसे अपनी स्टडी में बुला कर सामने बिठा लेता हूँ और सोचता हूँ कि उसके सवाल का कोई जवाब जरूर खोज कर उसे बता दूँगा। नहीं तो उसकी यह अधूरी दुनिया आगे चलेगी कैसे?

लेकिन पहले कहानी जहाँ तक पहुँची वहाँ तक उसे ले जाना तो ज़रूरी है। उस ऐतिहासिक नगर में पहुँचकर न जाने क्यों मुझे एक काम करने की सूझी थी जो मैंने ऐसी स्थिति में पहले कभी नहीं किया था। ऐतिहासिक नगर मैंने बहुत से देखे हैं, लेकिन कभी गाइड लेकर घूमने निकला हूँ, ऐसा नहीं हुआ। बल्कि गाइड खुद आगे बढ़ कर आये हैं और मैंने उन्हें दुत्कार दिया है। कई बार नगर में जाने से पहले उसका इतिहास और ऐतिहासिक स्थलों का ब्यौरा पढ़ गया हूँ जिससे गाइड की जरूरत ही न पड़े। लेकिन इस शहर में आते ही मैंने पर्यटक ब्यूरो में जाकर गाइड माँगा और उन्होंने एक युवा मूर्ति को मेरे सामने कर दिया। यही युवा मूर्ति थी बीनू भगत।

मैंने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा। बुशर्ट और पैंट, पैरों में बिना मोजे के सैंडल, हाथ में एक छोटा-बस्ता जैसा आजकल विश्वविद्यालय के विद्यार्थी कभी-कभी लिये रहते हैं। मैंने फिर उसके चेहरे की और ध्यान से देखा, युवा चेहरा, रेख अभी फूटी नहीं थी इसलिए सत्रह-अठारह वर्ष की उम्र का अनुमान होता था, लेकिन जरा ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता था कि यह अनुभव-संग्रह 22-24 से कम का नहीं है और आँखों में जो संयत, तटस्थ पर्यवेक्षण का भाव था वैसी आँखें मैंने उन्हीं की देखी हैं। जिन्होंने युवा वय में ही बहुत दु:ख और यन्त्रणा सही-वैसा दु:ख जो लोगों को खुद अपने अनुभव से तटस्थ कर देता है, जिसके कारण लोग भोक्ता न रह कर साक्षी हो जाते हैं... और इसलिए जिनकी उम्र के बारे में कोई अनुमान कठिन हो जाता है-ये बीस की उम्र में चालीस के या चालीस की उम्र में बीस के भी दीख सकते हैं।

चेहरा सुन्दर, हल्की पदचाप और मुद्रा ऐसी कि भावुकता उसमें बिलकुल न हो, लेकिन एक नि:संग भाव-यह सब मुझे अच्छा लगा। ऐसे गाइड के साथ दिन-भर उस ऐतिहासिक नगर की सैर की बात मुझे अच्छी लगी-उसके पूर्वास्वादन से ही मुझे तृप्ति का अनुभव हुआ। नाम तो मुझे बता ही दिया गया था, मैंने पूछा, “आप दिन-भर में पूरा नगर मुझे घुमा देंगे? मैं बहुत ज्यादा सवाल नहीं पूछूँगा, लेकिन जितनी जानकारी आप देंगे वह प्रामाणिक तो होगी।”

उसने कहा, “बहुत से गाइड बड़े अच्छे किस्सागो होते हैं, मुझे मालूम है। किस्सागोई की अपेक्षा आप मुझसे न करें। जो भी जानकारी मुझसे मिलेगी, सही होगी और-” और थोड़ा रुककर उसने जोड़ दिया, “और ऐसी भी होगी कि बाद में याद करने पर एक प्रीतिकर भाव ही पैदा करे, ऐसी मेरी भरपूर कोशिश होगी।” उसका स्वर भी मधुर था और बात करने का ढंग भी मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, “तो चला जाए।”

'चलिए”, कहकर वह फुर्ती से मेरे साथ हो लिया।

बीनू भगत और मैं दिन-भर न जाने कहाँ-कहाँ घूमे। और कुछ अजीब बात थी कि उस ऐतिहासिक नगर के विलक्षण खंडहरों में घूम-घाम कर शाम तक मैं थक गया और मैंने प्रस्ताव किया कि थोड़ी देर कहीं बैठ कर कुछ नाश्ता-पानी किया जाए, तो मैंने देखा कि मुझ पर देखे हुए दृश्यों की जितनी गहरी छाप है उससे कुछ अधिक गहरी छाप बीनू भगत की ही है-उसकी बातों की, उसके कंठ स्वर के उतार-चढ़ाव की और स्वयं उसकी मौजूदगी की ही। एक छोटे से कहवाघर में गोल तिपाई के पास हम लोग आमने-सामने बैठ गये। एक बार फिर मैंने उसे निहारा। हाँ, ऐतिहासिक नगर इस वक्त पीछे छूट जाए, कोई मुजायका नहीं है। बीनू भगत में कुछ है जिसकेकारण उसकी उपस्थिति को उससे अलग करके भी देख सकता हूँ, मानो उसके उठकर चले जाने पर भी उसकी मौजूदगी का यह भाव बना रहेगा। अँग्रेज़ी में इसे प्रेज़ेन्स कहते हैं : हिन्दी में इस भाव को कैसे प्रकट करूँ , मैं नहीं सोच पाया, सोचता हुआ उसकी ओर निहारता रहा। थोड़ी देर बाद उसे एकाएक ध्यान हुआ कि मैं एकटक उसकी ओर देख रहा हूँ; वह खुली आँखों से मेरी ओर मुस्करा दिया और मैंने थोड़ा झिझक कर नजर फिरा ली।

मैंने कहा, “ऐसा गाइड तो मुझे कभी नहीं मिला। यों यह नहीं है कि मैं अक्सर गाइड रखता हूँ, लेकिन दूसरी टोलियों के साथ मैंने बहुत गाइड देखे हैं-बहुत घूमा हूँ।”

वह कुछ नहीं बोला। मैंने फिर पूछा, “लेकिन यह गाइड का काम तुम्हें अच्छा लगता है? ऊबते नहीं?”

“नहीं।” फिर मानो उसे ध्यान आया हो कि प्रश्न के दो हिस्से थे और एक के जवाब का नहीं, दूसरे का जवाब हाँ हो जाता है, इसलिए उसने कहा, “कुछ खास अच्छा भी नहीं लगता और कोई ऊब भी नहीं होती।” एक निश्छल आत्म-स्वीकार की मुस्कान उसके चेहरे पर थी।

थोड़ी देर बाद मैंने कहा, “व्यक्तिगत सवाल पूछने का मेरा कोई अधिकार तो नहीं है, और शायद समझदारी भी नहीं है, लेकिन तुम पढ़े-लिखे भी जान पड़ते हो और संस्कारवान भी-निश्चय ही तुम्हारी जानकारी का हलका बहुत बड़ा रहा होगा, तो क्या कोई दूसरा काम नहीं मिल सकता था? आजकल तो जान-पहचान केसहारे ही होता है।” उसने अपनी भोली और बड़ी-बड़ी आँखें एकटक मुझ पर टिका कर कहा, “मेरे पास और क्या विकल्प हो सकता था, आप कुछ बता सकते हैं? हाँ, शिक्षा तो मेरी पूरी हो चुकी है।”

यहाँ तक कि तो सारी बातचीत मुझे बड़ी साफ और मुसलसल याद है लेकिन इससे आगे पता नहीं कब, क्या उलट-फेर हो गया। बातें मुझे सब याद हैं, लेकिन किस क्रम से, यह मैं निश्चय के साथ नहीं कह सकता। और एकाएक अन्तरंग बात पहले और औपचारिक बात बाद में कैसे हुई, हो सकती है इसका भी कोई जवाब मैं नहीं जानता। और सारी बात सपने की दुनिया में हुई इस युक्ति की ओट मैं नहीं लेना चाहता क्योंकि मैं पहले ही कह चुका हूँ कि बातचीत जिस भी दुनिया में हुई वह भी एकदम यथार्थ थी-उसका यथार्थ मेरी जाग्रत रोजमर्रा जीवन की दुनिया के यथार्थ से किसी तरह कम नहीं था। और स्वयं बीनू भगत-उससे ज्यादा यथार्थ और जीवन्त प्राणी कभी मेरे परिचित संसार में आया हो, मुझे नहीं जान पड़ता। उसकी ओर एकटक देखते हुए और मन ही मन सोचने का समय निकालने भर के लिए जवाब टालने की नीयत से मैंने कहा, “आम तौर पर तो जब यह स्थिति होती है कि शिक्षा पूरी हो चुकी हो और आगे कोई लक्ष्य न दीखता तो तब लोगों को एक ही विकल्प बाकी रह गया जान पड़ता है। वही लोग बता देते हैं; हाँ कुछ लोग शोध का भी हिला निकालते हैं। लेकिन असल में तो वह विकल्प नहीं है, वह अपने साथ धोखा ही है, सवाल की जवाबदेही से बचने का एक तरीका।”

एकाएक मुझे अपने कन्धे के पास उसकी आवाज सुनाई दी, “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प हो सकता है?” मैंने कहाँ, “मैंने अभी कहा न-सवाल जब इस रूप में पूछा जाता है तब लगता है कि एक ही विकल्प है-शादी कर लो।”

उसका सिर मेरे कन्धे पर टिका था। उसके साफ-सुथरे केशों की हल्की गन्ध मुझ तक पहँुच रही थी, बल्कि सिर टेकते हुए ही उसने सवाल किया था, “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प हो सकता है?”

मेरे जवाब पर उसने कहा, “शादी! वह विकल्प था, अब नहीं है। मेरा विवाह हो चुका और टूट भी चुका।” उसका स्वर इतना सम और भावनारहित था कि मुझे संवेदना की कोई गुंजाइश नहीं दीखी और प्रकट कौतूहल भी ऐसे मौके पर ठीक नहीं होता। मैंने भी अपने स्वर को सम बनाये रखने की कोशिश करते हुए पूछा, “इतना सब इतनी जल्दी हो गया, मुझे तो अचरज होता है। तुम्हारे चेहरे पर तो-'

“मेरा चेहरा!” अबकी बार उसके स्वर में व्यथा थी और यत्नपूर्वक दबायी हुई कटुता। “चेहरा कितना बड़ा धोखा होता है, आप जानते हैं?”

मैंने उसे परे हटाये बिना उसका चेहरा देखने की कोशिश की, लेकिन इस कोण से एक तिरछी झलक ही मिल सकती थी, चेहरे का भाव नहीं पहचाना जा सकता था। “मैं उन्नीस वर्ष की थी जब मेरा विवाह कर दिया गया, इक्कीस की होते-होते मुझे घर से निकाल दिया गया, क्योंकि मुझ में बच्चे पैदा करने की क्षमता नहीं थी।”

अबकी बार मैं बहुत गौर से चौंका। छिटककर दूर हटते हुए मैंने उसे भरपूर ताका और अचकाचाये स्वर में पूछा, “थी? तुम लडक़ा हो कि लडक़ी? मेरी कुछ समझ में नहीं आया।” उसने कहा, “मैंने कहा न, चेहरे बहुत बड़ा धोखा होते हैं। हाँ, मैं स्त्री ही हूँ-अगर-” और वह कटुता उसके चेहरे पर झलक आयी, “अगर उसे स्त्री कहा जा सकता है जो बच्चे नहीं पैदा कर सकती।”

“लेकिन-यह नाम बीनू भगत-और दिन-भर का कार्यक्रम-” वह रूखी-सी हँसी हँस दी। मेरे स्वर को दोहराती हुई बोली, “हाँ, यह नाम बीनू भगत। मैंने ऐसा ही नाम चुना जो पुरुष या स्त्री किसी का भी हो सकता है। बिना-विनय कुमार, वीणा, विनीता! पोशाक भी ऐसी ही चुनी। यों तो आजकल लडक़े-लड़कियाँ सब एक-सी पोशाक पहनते हैं-नया फैशन है।”

मैंने दिन की बातें याद करते हुए कहा, “यह बात तो मेरे मन में भी उठी थी कि तुम्हारा चेहरा पुरुष गाइड के लिहाज से ज्यादा कोमल है, लेकिन उसे मैंने सुन्दरता का अंग मान कर ही आगे नहीं सोचा।” बीनू मुस्करा कर कुछ पूछने को हुई और रुक गयी; मैं कहता गया, “लेकिन-लेकिन तुम्हारी बात मेरी समझ में नही आयी। क्या डॉक्टरी जाँच हुई थी?” “हाँ। उसी के आधार पर तो विवाद रद्द करने का फैसला हुआ। मेरी शरीर रचना ही ऐसी है।” हम दोनों एक लम्बी चुप में डूब गये। मैं नजर नीचे किये हम दोनों के बीच की मेज की ओर ताकता रहा-उसका रेशा-रेशा मैंने गिन डाला होगा। उससे नजर मिलाने से मैं कतरा रहा था, लेकिन उसकी उपस्थिति का बोध मुझ पर मानो और गहरा छाता जा रहा था। किसी की भी उपस्थित की इतनी गहरी और थरथरा देनेवाली छाप मुझ पर पड़ी हो, यह मुझे याद नहीं आता।

देर के बाद उसी ने पहले नज़र उठायी। उसके चेहरे में एक कोमल और कारुण्य भरा भाव था जिसमें सबसे पहले के पुरुष रूपी बीनू भगत की छवि कहीं घुल गयी थी। यह चेहरा, यह मुद्रा, छटे हुए बालों और मर्दानी पोशाक के बावजूद, एक युवती का चेहरा था और कहना होगा कि सुन्दर चेहरा था-अगर उसमें कहीं लड़कियों जैसी कोई छाया थी तो वह युवती के अल्हड़पन में योग देती ही जान पड़ती थी। मैंने न जाने कैसे (और क्यों) कहा, “तो, बीनू, अब?”

उसने फिर मेरी ओर झाँकते हुए धीमे किन्तु तनाव से काँपते स्वर में पूछा, “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प है?” ठीक यहीं पर मैं सपने से जाग गया।

और तब से बीनू भगत मेरे साथ है और साथ रहती है और उसका प्रश्न बार-बार मेरे मन में गूँजता है। “बताओ, मेरे लिए क्या विकल्प है?” और यह बीनू एक सम्पूर्ण और सजीव चरित्र है-मैं किसी तरह नहीं मान सकता कि वह चरित्र अधूरा है। उसकी कहानी जरूर अधूरी है,लेकिन उसी तरह अधूरी जिस तरह कोई किसी के हाथ से उपन्यास पढ़ते-पढ़ते किसी सन्धि-स्थल पर छीन कर ले जाए। तब कहानी अधूरी रह जाती है-छटपटाहट-भरी लेकिन अधूरी। मुझसे कोई उपन्यास किसी ने नहीं छीना। यह भी नहीं है कि नींद से किसी ने या बाहरी आहट ने जगा दिया हो। मैं इसी बिन्दु पर जाग गया, बस। क्यों जाग गया, यह भी नहीं जानता। यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि उसके सवाल का जवाब देने से बचने के लिए मेरे मन ने मुझे जगा दिया क्योंकि उसकी कहानी तो मैं आगे जानने को व्याकुल हूँ, बल्कि उसकी कहानी भी नहीं, उसका वास्तविक जीवन। इसीलिए बात अधूरे पढ़े उपन्यास जैसी होकर भी, उपन्यास की नहीं है, वास्तविक जीवन की है। इसलिए कहूँ कि चरित्र आधे-अधूरे नहीं बल्कि वह दुनिया ही आधी-अधूरी है जिसमें एक पूरे विकसित चरित्र को आगे अपना जीवन जीने का रास्ता नहीं मिला है।

लेकिन बीनू के लिए मेरे पास क्या विकल्प है? मेरे लिए ही क्या विकल्प है बीनू का सामना करने का?

“मेरा नाम बैनसन है-जॉन बैनसन विदेश मन्त्रालय से”, कहते हुए उसने मेरी ओर हाथ बढ़ाया।

मैंने तपाक से हाथ मिलाते हुए पूछा, “आप ही स्वागताधिकारी हैं जिनका सन्देशा कल आया था? मुझे आपसे मिलकर खुशी हुई।”

“नहीं, स्वागताधिकारी मैं नहीं हूँ,” बैनसन बोले, “मैं एक-दूसरे विभाग में काम करता हूँ, लेकिन कल मुझे कहा गया कि मेरी साहित्य में रुचि है इसलिए मेरा ही आप से मिलने जाना ठीक रहेगा, इसलिए यह सौभाग्य मुझे मिला है।”

“तब तो सौभाग्य मेरा है”, मैंने कहा, “स्वागताधिकारी तो सभी के लिए एक-सी मुस्कान बिछाते-बिछाते ऊब जाते होंगे। आप को मैं साधारण इनसान लगूँगा, ऐसी आशा करता हूँ।” मैं एक शरारत-भरी हँसी हँस दिया। मेरे मूड में साझा बँटाते हुए उसने भी कहा, “लेकिन मेहमान तो मेहमान ही होता है! हाँ, मैं जरूर आशा करूँगा कि आपका प्रवास समाप्त होने पर मेरी कोई याद आपके पास बनी रही तो वह जॉन बैनसन की होगी, एक नामहीन स्वागताधिकारी की नहीं।”

हम लोगों ने बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ कार्यक्रम बनाया। मैं क्योंकि सूचित कर चुका था कि मेरी रुचि नाटक और रंगमंच में भी है, बैनसन ने पूछा, “दूसरी शाम के लिए अभी कोई पक्का प्रस्ताव नहीं है, मेरी राय है कि उस शाम आप एक नाटक देखने चलें। अच्छा नाटक है और हमारे देश में पहली बार खेला जा रहा है। जिस उपन्यास पर आधारित है वह शायद आपने पढ़ा भी हो।” उसने एक प्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार का नाम लिया।

“आप भी चलना पसन्द करेंगे-यानी अपनी रुचि से या कि केवल आतिथ्य के नाते मेरे साथ रहेंगे?”

“मैं तो प्रस्ताव ही कर रहा हूँ, यह विदेश मन्त्रालय का सुझाव नहीं है बल्कि मेरा है। विदेश मन्त्रालय की ओर से तो मैं कहता कि आप हमारे किसी नाटककार का नाटक देखिए!” वह थोड़ा हँस दिया। मैंने कहा, “ठीक है, तो नाटक ज़रूर देखा जाए। आप टिकट मँगा लीजिए।”

कार्यक्रम तय हो जाने पर बैनसन ने कहा, “तो मैं अभी थोड़ी देर में इसकी टंकित प्रति आपके पास भिजवा दूँगा। कोई परितर्वन करना चाहें तो नि:संकोच मुझे सूचना दे दीजिएगा। नीचे डेस्क पर मैंने अपने टेलीफोन नम्बर छोड़ दिये हैं दफ्तर का भी और घर का भी।” उपन्यास मैंने कई वर्ष पहले पढ़ा था। उसकी धुँधली-सी स्मृति थी, लेकिन नाटक का प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा था और मुझे सन्तोष हुआ कि बैनसन ने सही प्रस्ताव किया था। लेकिन नाटक देखकर हम लोग बाहर निकले तो गलियारे में भीड़ के साथ-साथ चलते-चलते मेरे मन में विचार उठा कि बैनसन की साहित्य में रुचि है, यहाँ तक तो ठीक; लेकिन इस नाटक में उसकी दिलचस्पी क्यों हुई होगी, उसने मुझे वह क्यों दिखाना चाहा होगा?

और बाहर आते ही मानो मेरा मन पढ़ कर बैनसन ने कहा, “आप सोचते होंगे, मैं आपको यह नाटक देखने क्यों लाया। वास्तव में मेरी अपनी रुचि भी इसमें थी, लेकिन आशा है कि आपको भी नाटक अच्छा लगा होगा-नहीं तो मेरे लिए बड़ी शर्मिन्दगी की बात होगी।”

“यह नाटक सचमुच बहुत अच्छा लगा, “मैंने तपाक से कहा, “एक बार यह विचार जरूर मन में आया कि यह शायद विदेशी मेहमानों को दिखाने का नाटक नहीं है, लेकिन वह तो स्वागताधिकारी का दृष्टिकोण होगा। कथा सचमुच बहुत मार्मिक है।”

बैनसन कुछ नहीं बोला। हम लोग विदेश मन्त्रालय की गाड़ी पर सवार हो गये और गाड़ी तेजी से चल दी। भोजन हम दोनों को साथ ही करना था-उस दिन कोई औपचारिक भोज नहीं था और शायद यह भी सोचा गया था कि मेहमान को अकेला नहीं छोड़ देना चाहिए।

लेकिन हमारी बातचीत सचमुच वैसी नहीं थी जैसी एक बेगारी स्वागताधिकारी और अतिथि के बीच होती है। बैनसन पढ़ा-लिखा व्यक्ति था; साहित्य में उसकी गहरी रुचि थी और मानवीय समस्याओं की उसकी पकड़ भी अच्छी थी। भारत में भी वह चार वर्ष रह चुका था और कई साहित्यकारों से भी उसकी जान-पहचान रही थी। हम लोगों की बातचीत जल्दी ही औपचारिकता के स्तर से हट कर साहित्य के उन पहलुओं पर जा टिकी जिन में कड़ी पक्षधरता और गरमागरम बहस की गुंजाइश हो सकती है, यहाँ तक कि बीच-बीच में हम दोनों को एक-दूसरे को याद दिलाने की आवश्यकता आ जाती कि सामने रखा भोजन ठंडा हो रहा है।

घूम-फिर कर बात फिर नाटक के विषय पर लौट आयी। नाटक में प्रस्तुत की गयी समस्या सीधी, लेकिन मार्मिक थी। एक नि:सन्तान दम्पती: पति की तीव्र इच्छा है कि उसकी सन्तान हो और उसकी इस उत्कट कामना को जानते हुए उसकी स्त्री उसके एक सहकारी से नियेाग द्वारा गर्भ धारण करती है क्योंकि पति को स्वयं यह ज्ञात नहीं है कि पत्नी के नि:सन्तान होने के कारण पत्नी में नहीं बल्कि स्वयं उसमें हैं। पत्नी उसके मोह को तोडऩा भी नहीं चाहती, उसे डर है कि उसके बाद वह जी न सकेगा। सहकारी, जो कुछ ही दिन के लिए था और फिर निकाल दिया गया था, वर्षों बाद लौटता है और वास्तविक स्थिति का भंडाफोड़ करने की धमकी देता है। स्त्री अपनी गृहस्थी की और उससे भी अधिक अपने पति की रक्षा के लिए बाघिन हो जाती है और अन्तत: उसका पति-प्रेम आसन्न संकट पर विजय पाता है। कथानक मार्मिक था और प्रस्तुतीकरण उसके अनुरूप; यों नाटकीयता और सच्चाई को लेकर कई तरह के प्रश्न उठाए जा ही सकते थे। बल्कि ऐसे प्रश्नों का तनाव न हो तो नाटक ही कैसे बनता है। मैंने कहा, “उपन्यास या नाटक में हम बहुधा ऐसी बातें स्वीकार कर लेते हैं जो वास्तविक जीवन में हमें स्वीकार न होतीं। अब इसी नाटक में अगर स्त्री की समस्या को हम नैतिक बनाम मानवीय के रूप में देखें तो सभी का फैसला मानवीय पक्ष में होगा और नैतिक दृष्टि से अपराध पर विचार करने की बात ही सामने न आएगी। लेकिन वास्तव में कहीं ऐसी घटना हुई होती तो-” थोड़ा रुक कर मैंने कहा, “कम से कम हमारे देश में तो समाज उस स्त्री को कभी क्षमा न करता। बल्कि नाटक जहाँ तक जाता है वहाँ तक घटना के बढऩे को कभी नौबत ही न आती-इससे कहीं पहले स्त्री को मार-पीटकर घर से निकाल दिया गया होता। पति के घर में पति के एक नौकर के साथ व्यभिचार-बस, इस निरूपण के आगे कोई सोचने को भी तैयार न होता।”

बैनसन ने कुतूहल से पूछा, “आप सोचते हैं आपके देश में यह नाटक न दिखाया जा सकता? या कि उपन्यास न पढ़ा जाता?”

मैंने कुछ सोचते हुए कहा, “नहीं, ऐसी बात तो नहीं है। यों, नाटक कभी खेला तो नहीं गया और उपन्यास-लेखक के और सभी उपन्यास मेरे देश में खूब प्रसिद्ध हैं और बराबर चर्चित होते हैं, इसी उपन्यास का नाम मैंने वहाँ कभी नहीं सुना। मैंने भी पढ़ा तो इसलिए कि विदेश में कहीं देखा था और खरीद लिया था।”

“ऐसा!” बैनसन थोड़ी देर चुप रहा। फिर उसने कहा, “लेकिन आधुनिक सभ्यता की परिस्थितियाँ हमारी नैतिक धारणाओं की भीतरी वस्तु को, उनके असल मूल्य को कितना बदल दे रही हैं, क्या आपके इंटेलेक्चुअल इस पर विचार नहीं करते?”

मैंने कहा, “इंटेलेक्चुअल तो विचार करते हैं, लेकिन जनसाधारण की मान्यताएँ इंटेलेक्चुअल के विचार के साथ-साथ थोड़े ही बदल जाती हैं और फिर इंटेलेक्चुअल भी जो विचार करता है और जीवन में करता है उसमें बड़ा फ़र्क़ होता है। कभी-कभी तो लगता है कि इंटेलेक्चुअल का मतलब ही पाखंडी नहीं है, नहीं तो कम-से-कम पलातक तो है ही। जीवन की यथार्थता से भाग कर वह सोच की धुन्ध में छिपना चाहता है।” बैनसन के चेहरे पर हल्की-सी शरारत खेल गयी, बोला “यह कहते हुए निश्चय ही आप अपने को इंटेलेक्चुअल नहीं मान रहे हैं। और मैं आशा करता हूँ कि मुझे भी आपने उस दरबे में नहीं डाल दिया है।”

मैंने हँस कर कहा, “यह दाँव आपका रहा, लेकिन सीरियसली क्या यह बात सच नहीं है कि चिन्तन के स्तर पर हम सब मानते हैं कि दाम्पत्य ही क्यों, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर बिलकुल नए सिरे से विचार होना चाहिए। लेकिन जब व्यवहार की बात आती है तो प्रचलित रीतियों से जरा भी इधर-उधर जाने को तैयार नहीं होते। या अगर होते भी हैं तो उन्हीं रिवाजों को बदलने के लिए जिन्हें हम खुद कोई महत्त्व नहीं देते-यानी इस तरह हमें मॉडर्न और प्रोग्रेसिव होने का श्रेय भी मिल जाता है और सचमुच कुछ भी बदलने की जहमत भी नहीं उठानी पड़ती।” बैनसन फिर थोड़ी देर चुप रहा। फिर उसने कहा, “आपके देश के बारे में मेरी जानकारी बहुत कम है। हमारा समाज तो-शायद इसलिए कि हमारा देश ही नया देश है-”

मैंने उसकी बात काटते हुए कहा, “देश तो आपका भी उतना ही पुराना है जितना और कोई देश-” “आप ठीक कहते हैं। मेरा मतलब उसकी औपनिवेशिक बसाई से ही था। उस दृष्टि से देश नया है और यह समाज भी नया ही है-बल्कि अभी तो कह सकते हैं, बन ही रहा है। यहाँ रूढिय़ों का वह महत्त्व नहीं है जो-” वह थोड़ा सकुचाया, “इसे आप अभद्रता न समझें-जो आपके देश में होता है।”

मैंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, “इतने अधिक शिष्टाचार की जरूरत नहीं है। आपका कहना ठीक है कि हमारे देश में रूढिय़ों को यहाँ की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्व दिया जाता है। लेकिन आप क्या सोचते हैं-नाटक वाली स्थिति आपके समाज में सहज ही हो सकती है?” बैनसन उत्तर देने को हुआ और रुक गया। एक बार उसने चारों ओर नजर दौड़ायी और फिर मेरी प्लेट की ओर देखते हुए बोला, “मीठे में आप क्या लेना पसन्द करेंगे? आपकी इजाजत हो तो यहाँ की दो-एक खास चीज़ों की मैं सिफारिश करूँ?”

मैंने जाना कि उसने विषय बदल दिया है। मैंने भी फिर उसी पर लौटने की कोई जरूरत नहीं समझी और कहा, “हाँ, आप ही चुन लीजिए।” गाड़ी में होटल की ओर लौटते हुए उसने पूछा, “कल मेरी आधी छुट्टी है और मैं दोपहर के बाद अपने फार्म पर जाऊँगा रात उधर ही रहूँगा, आप फार्म तक की सैर करना पसन्द करेंगे? ड्र्राइव भी बहुत सुन्दर है और मेरी पत्नी को आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होगी।”

मैंने कहा, “मुझे तो बहुत अच्छा लगेगा, लेकिन आपको और मिसेज बैनसन को कोई कष्ट न हो।” “मेरी पत्नी को तो बहुत अच्छा लगेगा। फार्म वही सँभालती है और वहाँ शायद ही कभी कोई आता-जाता होगा। आपसे मिलकर उसे सचमुच बहुत अच्छा लगेगा।”

“तो ठीक है।” मैंने कहा, “कल के कार्यक्रम' में तो सिर्फ किताबों की दुकानों की सैर ही थी-वह फिर किसी दिन हो जाएगी।' यह तय हुआ कि अगले दिन लंच के बाद बैनसन मुझे लेने आएँगे, और हमने एक दूसरे से विदा ली।

मेरे लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोलते हुए बैनसन ने कहा, “आज की यात्रा के लिए इस छोटी गाड़ी की व्यवस्था के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ।” मैं कुछ कहूँ, इससे पहले ही वह दूसरी तरफ़ से आकर स्टियरिंग पर बैठते हुए बोला, “आज मैं छुट्टी मना रहा हूँ, इसलिए अपनी गाड़ी लाया हूँ। आशा है आपको अधिक कष्ट नहीं होगा।” “मुझे तो अच्छा ही लगेगा। वर्दीधारी शोफरों का मैं अभ्यस्त नहीं हूँ और न होना चाहता हूँ, और बातचीत के लिए भी यही स्थिति ठीक है।”

जल्दी ही हम लोग बस्ती से निकल गये और गाड़ी खुले जंगली या देहाती इला$के में दौडऩे लगी। बैनसन ने कहा, “मेरी पत्नी अँग्रेज है। तीन वर्ष हुए, मैं इंग्लैंड गया था और वहाँ से विवाह करके लौटा।” थोड़ा रुककर उसने पूछा, “आपके देश में तो विवाह माता-पिता ही तय करते हैं न?” मैंने कहा, “अधिकतर। लेकिन पढ़े लिखे लोगों में प्रेम-विवाह का चलन बढ़ता जा रहा है। यों तो जिन्हें प्रेम-विवाह कहते हैं उनमें भी माता-पिता का कितना योग होता है, यह सवाल पूछा जा सकता है। और दूसरी तरफ़ यह भी पूछा जा सकता है कि जहाँ माता-पिता ही बात तय करते हैं वहाँ लडक़े-लडक़ी का कितना योग होता है?” बैनसन थोड़ा-सा हँसा। “पश्चिम के देशों में भी तथाकथित प्रेम की परिस्थितियाँ पैदा करने में माँ-बाप का योग कुछ कम नहीं होता, यह तो आप जानते ही होंगे।”

थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे। फिर मानो आत्म-स्वीकार के स्वर में बैनसन ने कहा, “आपको अचरज होगा, हमारा विवाह भी कुछ हिन्दुस्तानी ढंग से हुआ-विज्ञापन के सहारे।” मैंने कहा, “सच?”

“हाँ”, कहकर बैनसन थोड़ा रुका। “यों तो पश्चिम में विज्ञापन की प्रवृत्ति बढऩे लगी है-यह दूसरी बात है कि विज्ञापन दूसरे ढंग के होते हों या अख़बारों का सहारा न लेकर एजेंसियों और उनके कम्प्यूटरों का सहारा लिया जाए। लेकिन जहाँ एक तरफ़ लडक़े-लड़कियों का मिलना बिलकुल निर्बन्ध है वहाँ दूसरा पक्ष यह भी है कि ऐसे लडक़े-लड़कियों का परिचय कठिनतर हो गया है जो विवाह के लिए एक-दूसरे के उपयुक्त हों। मिलना-जुलना बहुत होता है, लेकिन विवाह को ध्यान में रखकर नहीं। उसके लिए तो...” थोड़ा रुककर उसने वाक्य पूरा किया, “उसके लिए तो अब भी बाहर से स्त्री की जरूरत पड़ती है।” मैं चुप ही रहा। थोड़ी देर बाद उसने अपनी बात जारी रखी, “हमारे देश में तो विशेष समस्या है। पढ़े-लिखे नौजवानों को लड़कियाँ नहीं मिलतीं-यहाँ लड़कियों की कमी है। इसलिए प्राय: बहुएँ विलायत से आती हैं और यह तो आप सोच सकते हैं कि हज़ारों मील दूर से प्रेमालाप नहीं हो सकता।” मैंने कहा, “हाँ, टेलीफोन तो है। वह तो कभी-कभार की बात है और उसके लिए भी तो प्रेम पहले होना चाहिए।”

“इसीलिए यहाँ चिट्ठी-पत्री से दोस्ती का भी काफ़ी प्रचार है। पत्राचार से दोस्ती कराने वाली एजेंसियाँ हैं, क्लब हैं। लेकिन मैं आपको बोर तो नहीं कर रहा?” “नहीं-नहीं”, मैंने कहा और अपनी बात को पुष्ट करने के लिए सवाल जोड़ दिया, “लेकिन इंग्लैंड से आकर आपकी पत्नी को देहात में रहते हुए ऊब नहीं होती होगी?” क्षण भर रुक कर मैंने सोचा, बाल-बच्चों के बारे में सवाल पूछने का रिवाज यहाँ नहीं है, लेकिन इस सन्दर्भ में क्या वह पूछना अनुचित होगा? फिर मैंने कहा, “ऊब नहीं भी हो सकती अगर कोई शिशु हो-” इस रूप में सवाल निश्चय ही अशिष्ट नहीं हो सकता।

“हमारे कोई सन्तान नहीं है। हो भी नहीं सकती।” बैनसन ने यह बात सहज भाव से ही कही, लेकिन मैं कुछ असमंजस में पड़ गया। उसकी बात का क्या अर्थ लगाऊँ और कुछ भी अर्थ लगाऊँ, इस अन्तरंग सूचना को कैसे ग्रहण किया जाए। गाड़ी तेज रफ्तार से दौड़ रही थी। अपनी नजर सडक़ पर टिकाये हुए ही बैनसन ने कहा, “मुझे आपके सामने कनफेशन करना है-और मुझे क्षमा भी माँगनी चाहिए। मैं आपका नाटक देखने के लिये गया था। उसमें मेरी दिलचस्पी अधिक थी-मेरे लिए उसका खास मतलब था। नाटक के नायक जैसी स्थिति मेरी भी है।” मेरा असमंजस और बढ़ गया। लेकिन कोई, और वह भी कोई विदेशी, इस स्तर की आत्म-स्वीकारोक्ति कर बैठे तो उसे उदासीन भाव से लेना उसका अपमान होगा। उसे आत्मीय भाव से ग्रहण करना ही होगा। मैंने पूछा, “लेकिन- लेकिन यह निश्चयपूर्वक जाना कैसे जा सकता है और आप क्या विवाह से पहले...”

बैनसन ने कहा, “हाँ, मुझे विवाह से पहले यह बात मालूूम थी। मैंने ऐन-मेरी पत्नी का नाम ऐन है-को यह बता भी दिया था, हमारे पत्र-व्यवहार के शुरू में ही। बल्कि सच बात यह है कि यह जानते हुए ही मैंने विवाह की बात सोची थी। मेरी माँ तो नहीं हैं, लेकिन मेरे पिता फार्म पर ही रहते हैं। अभी तो शरीर से समर्थ हैं, लेकिन बूढ़े तो हो ही जाएँगे। फार्म उनसे नहीं सँभलेगा-और मैं भी नौकरी छोड़े बिना उसे नहीं सँभाल सकता।” मैंने कहा, “लेकिन फार्म की देखभाल तो विशेष अनुभव माँगती है। आपकी पत्नी...”

“वह फार्म वाले ही एक परिवार की है-बचपन से ही फार्म की देखभाल से परिचित है। उसे मैंने शुरू में ही अपनी पूरी स्थिति समझा दी थी।”

थोड़ी देर फिर चुप्पी रही। फिर बैनसन ने कहा, “मुझे बचपन में मम्प्स हुए थे, बड़ा जबरदस्त अटैक था। उससे कभी-कभी तो दिमाग भी ख़राब हो जाता है। और पुंसत्व नाश तो अक्सर होता है शरीर की शुक्र-कीट बनने की क्षमता नष्ट हो जाती है।” इस बात की कोई जानकारी मुझे नहीं थी; लेकिन बैनसन उसे एक प्रामाणिक वैज्ञानिक सत्य के रूप में ही बता रहा था। मैंने कहा, “मुझे यह बात मालूम नहीं थी, लेकिन इसका क्या कोई इलाज नहीं है?”

“नहीं। कम-से-कम अभी तक तो विज्ञान नहीं जानता। फाइनल इज फाइनल। लेकिन मैं नहीं समझता कि इसके बाद विवाहेतर जीवन सुखी नहीं हो सकता। असम्भव होता है, यह तो मैं मान ही नहीं सकता।” बात अनुक्षण अधिक काँटेदार होती जा रही थी। मैं चुप रहा। बैनसन ही फिर बोला, “पुरुष बड़े स्वार्थी होते हैं, लेकिन असल में तो क्या पुरुष क्या स्त्री सभी बड़े स्वार्थी होते हैं और शायद गहरे स्तर पर इन स्वार्थों के मामले में समझौता नहीं करते- करना चाहें भी तो कर नहीं पाते- बुद्धि जिसे ठीक मानती है, अवचेतन मन या कि कह लीजिए, शरीर उसे स्वीकार नहीं कर पाता। बात स्वार्थ छोडऩे या त्याग करने से नहीं बनती। सुख की शर्त शायद यही है कि दोनों के स्वार्थ मिट जाएँ।” एकाएक उसने मेरी ओर मुड़ कर पूछा, “आप विवाहित हैं?”

मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, “हाँ।” मैं नहीं चाहता था कि मेरा उत्तर अशिष्ट हो, मैं यह भी नहीं चाहता था कि बातचीत मेरे दाम्पत्य जीवन की ओर मुड़ जाए। बैनसन ने कहा, “जहाँ तक मैं जानता हूँ-ईमानदारी से पड़ताल करके समझ पाया हूँ-ऐन सुखी है और मैं तो बहुत सुखी हूँ। मेरे पिता भी ऐन से बहुत प्रसन्न हैं और जबसे वह आयी हैं, ऐसा लगने लगा है कि उनकी आयु कुछ बढ़ जाएगी।”

मैंने बात को कुछ हल्के स्तर पर लाने के लिए कहा, “तो मानना होगा कि पत्राचार के द्वारा भी सफल सगाइयाँ हो सकती हैं। हमारे देश में इसका चलन अभी बढ़ा नहीं है-एजेंसियाँ तो चलने लगी हैं।” “कोई भी तरीका कम या ज्यादा सफल क्यों होना चाहिए?” “आप का दाम्पत्य सुख जिन अनगिनत घटनाक्रम पर निर्भर करता है उनमें से थोड़ी-सी बातें किसी भी एक पद्धति से जान सकते हैं। जिसे प्रेम-विवाह कहते हैं जिसमें युवक और युवती थोड़ी-सी बातें जान लेते हैं लेकिन भविष्य को सफल कौन-सी चीज़ें बनाती हैं उनका उनको कुछ पता ही लगता-उनकी ओर उनका ध्यान भी नहीं जाता। और जब माता-पिता या बिचौलिए या ज्योतिषी रिश्ते करते हैं तब वे कुछ दूसरे महत्त्व की बातें जान लते हैं; लेकिन उतनी ही महत्त्व की और कई बातों को अनेदखा कर जाते हैं। आजकल कम्प्यूटरों का चलन इसीलिए बढऩे लगा है कि ज्यादा लम्बे और जटिल समीकरणों का हल उनसे पाया जा सके। लेकिन मशीन आख़िर मशीन है-जो उसे खिलाया जाता है उसी के आधार पर वह भविष्य बताती है।”

मैंने कहा, “यह तो है।”

हरियाली की ओर बढ़ते हुए गाड़ी ने मोड़ लिया और बैनसन ने कहा, “अब थोड़ी ही दूर और है। आप थक तो नहीं गये हैं?” मुझे तसल्ली हुई कि मैं अब पूरे उत्साह से कह सकता हूँ, “बिलकुल नहीं-मुझे तो इस सैर में बहुत मजा आया और आपकी ड्राइविंग भी बहुत सधी हुई है। आपको इतनी ड्राइविंग का अवसर कैसे मिलता है?”

“थैंक्स” कहते हुए बैनसन थोड़ा हँसा, “आपकी बात तो बिलकुल ठीक है। तजुरबा तो मुझे फार्म के छकड़े या ट्रक हाँकने का ही होना चाहिए।”

मानो बैनसन की बात का स्मरण करते हुए कुछ दूर पर ट्रैक्टर की आवाज सुनाई दी। बैनसन बोला, “वह ऐन होगी, ट्रैक्टर बहुत अच्छा चलाती है, बल्कि बोवाई, कटाई सबमें बहुत कुशल है।” थोड़ा रुक कर उसने जोड़ा, “इतनी बड़ी मशीन के शिखर पर बैठ कर नारी को शायद विशेष सुख मिलता है- सत्ता शायद नारी का सहज लक्ष्य है।” मैंने आँख बचाकर ध्यान से बैनसन की ओर देखा। लेकिन नहीं, उसके स्वर में कटुता का लेश भी नहीं था। यह ऐन पर या अपने दाम्पत्य जीवन पर टिप्पणी नहीं थी, सहज दार्शनिकता की उक्ति ही थी।

बात को उसी मजाक के स्तर पर लौटाते हुए मैंने कहा, “तो इस देहाती दार्शनिकता से मान लिया जाए कि हम लोग ठिकाने पहुँच गये।” बैनसन भी हँसा, “हाँ, दफ्तर से देहात-फॉरेन हाउस से फार्म फिलोसोफी!” हम लोग एक बड़े फाटक में घुसे।

(अधूरा उपन्यास)

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