भूत की मुसीबत : लोक-कथा (बंगाल)

Bhoot KI Museebat : Lok-Katha (Bangla/Bengal)

बहुत साल पहले एक छोटे से गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ रहता था। उसका नाम था बाचू और पत्नी का राना। बाचू देवी का परम भक्त था। वह सुबह-शाम पूजा करता था और उसके बाद ही अन्न-जल ग्रहण करता था। अपनी पत्नी के साथ छोटा-मोटा काम करके वह अपना जीवन निर्वाह करता था। पर वह कितनी भी मेहनत करता फिर भी आज तक उसे एक दिन भी पेट भरकर खाना नहीं मिला था।

गांव के ज़मींदार सुबोध बाबू के घर बेटा पैदा हुआ, उसी ख़ुशी में सुबोध बाबू ने अपनी हवेली में पूरे गांव को न्योता दे दिया और ऐलान करवाया-'किसी के घर चूल्हा नहीं जलेगा।' सुनते ही बाचू को तो मन की मुराद मिल गई। उसने अपनी पत्नी से कहा, “वह ज़रूर जाएगा।” अगले ही पल उसे अपनी दरिद्रता याद आई। वह सोचने लगा-'एक तो हवेली जाने लायक़ उसके पास ढंग के कपड़े नहीं हैं, जो हैं उनमें भी पैबंद लगे हुए हैं और बुरी हालत में हैं और ना ही बच्चे को देने के लिए शगुन ही है।' पत्नी ने तुरंत बाचू के पुराने कपड़े सिल दिए और साफ़ पानी से मलकर धो दिए। फिर बाचू से बोली, “अच्छे से जाइए, वे बड़े लोग हैं, आपका आशीर्वाद ही उनके लिए बहुत है।” दूसरे दिन बाचू सुबह जल्दी उठकर नहाया और जल्दी पूजा करके थोड़ा सा गुड़ और एक लोटा पानी पीकर हवेली चल पड़ा। बाचू जल्दी हवेली पहुंचना चाहता था। हवेली पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई पर बाचू को खाने की जगह मिल ही गई। चारों तरफ़ स्वादिष्ट खाने की सुगंध फैली थी। मगन होकर बाचू खाने का आनंद उठा रहा था। इससे बढ़िया खाने की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। एक दही की हांडी उसके सर के ऊपर लटकी हुई थी। आते-जाते किसी का सर हंडिया से टकराया और हांडी अचानक टूटकर बाचू के पत्तल पर गिरी। सारा खाना ख़राब हो गया। हाथ धोकर दुखी मन से पत्तल उठाकर वह चल पड़ा।

बाचू मरा-मरा सा जा रहा था। रास्ते में सुबोध बाबू ने पूछा, “बाचू मोशाय खाना ठीक से खाया ना?" बाचू ने आज का वाक़ेया और अपनी दरिद्रता की पूरी बात बता दी। जिसे सुनकर सुबोध बाबू बहुत दुखी हुए। उन्होंने बाचू से रात को रुकने का अनुरोध किया और कहा कि कल वह अपनी निगरानी में खाना बनवाएंगे, उसे खाए बिना वह ना जाए। रातभर बाचू यही सोचता रहा कि सुबह एक बार फिर ख़ूब स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा। कुछ भी हो जाए, इस बार तो पूरा पेट भरकर खाना खाऊंगा। यही सोचते हुए सुबह और जल्दी उठा। नहाकर नए कपड़े पहने, पूजा अर्चना करने के बाद खाने के लिए तैयार हो गया। थोड़ी देर में सुबोध बाबू की देखरेख में तैयार खाना बाचू को परोसा गया।

बाचू अपने आपको साभाग्यशाली महससू कर रहा था। आज वह ख़ास मेहमान है। इतना खाना सिर्फ़ उसके लिए ही बना है। वह ख़ूब चाव से खाना खा रहा था। पहली बार पेट तो भर गया, पर मन नहीं भरा था। खाना और बातें चल रही थीं।

हवेली के बाहर पीपल के पेड़ पर एक पीला भूत अपनी पत्नी व बेटे के साथ रहता था। भूत बड़ा शैतान था, उसने बाचू को इतनी देर से खाना खाते देखा तो उसे शरारत सूझी। उसने झट से ख़ुद को एक छोटा सा मैंठक बनाया और पत्तल में रखे हुए भात में कूद गया। बाचू बातों में व खाने में इतना मगन था कि उसे पता ही नहीं चला और मेंढक को बाचू भात के साथ पेट में निगल गया। तृप्त होकर और दान-दक्षिणा लेकर ख़ुशी-ख़ुशी बाचू घर को निकल पड़ा।

रास्ते में मेंढक बाचू के पेट में कृद-फांद करने लगा तो बेचारे बाचू ने सोचा, 'ज़िंदगी में पहली बार तो पेट भरकर खाना खाया है। शायद इसीलिए पेट में अगड़म-बगड़म हो रही है।' पेट में मेंढक ने थोड़ी देर कूद-फांद करी फिर उसने बाचू के पेट में गुदगुदी करनी शुरू कर दी। बाचू ने हंसते-हंसते ठाकुर को हाथ जोड़कर धन्यवाद किया कि बड़े दिन बाद हंसाया भगवान। भूत ने सोचा, 'ये क्या हो रहा है? मैंने इसके पेट में इतनी उठा-पटक और धमा-चौकड़ी मचाई। पूरे पेट में इतनी गुदगुदी करने पर भी इसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है तो मेरा क्या काम? अब चलना चाहिए।'

भूत ने धीरे से आवाज़ दी, "मुझे जाने दो।” बाचू ने सोचा शायद पीछे से कोई बोल रहा है। कुछ देर बाद भूत थोड़ा ज़ोर से बोला। इस पर बाचू थोड़ा डर गया। वह मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा। इस पर भूत ज़ोर से बोला, “भईया मैं आपके पेट मेँ हूं। गलती से चला गया हूं। अब बाहर आना चाहता हूं।” अब तो बाचू की सांस रुकने लगी, वो घबराकर भागने लगा। इससे पेट में भूत की भी सांस फूलने लगी। थोड़ी देर बाद बाचू कुछ सामान्य हुआ तो उसे उस भूत पर बड़ा गुस्सा आया। वह गुस्से से बड़बड़ाया, “तुम पेट से परेशान हो रहे हो तो मेरी बला से।” जल्दी से घर पहुंचकर उसने अपनी पत्नी को बुलाया और कहा, “मेरा हुक़्क़ा ख़ूब गर्म करके लाओ।” देखते ही देखते गर्म हुक़्क़ा आ गया तो बाचू ने हक़्क़े को ख़ूब ज़ोर से गुड़गड़ाया। दो-तीन गुड़गुड़ाहट के बाद बाचू ने हुक़्क़े को ख़ूब ज़ोर से गुड़गुड़ाया। दो-तीन गुड़गुड़ाहट के बाद धुआं भूत की आंख-नाक में ख़ूब घुस गया। पेट में भूत का खांसते- खांसते और आंखें पोंछते-पोंछते बुरा हाल हो गया। अब भूत अपनी शरारत पर बड़ा पछता रहा था।

वहां जब काफ़ी देर हो गई और भूत वापस नहीं आया तो उसकी पत्नी और बेटा परेशान हो गए। भूतनी ने जल्दी से एक सुंदरी का रूप बनाया और जा पहुंची बाचू के घर। हाथ जोड़कर पति की गलती की माफ़ी मांगते हुए आज़ादी की गुहार लगाई। उसे देखते ही बाचू का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उसने पास में पड़ा डंडा ज़ोर से ज़मीन पर पटका और उसकी तरफ़ दौड़ा और चिल्लाया, “उस समय कहां थी जब तुम्हारा पति मेरे पेट में गया था। मेरा सारा धर्म भ्रष्ट कर दिया और जब से पेट में है, मुझे तंग कर रहा है। मैंने तो डंडा रखा है, तुम्हारे पति के लिए। उसने ज़रा सा निकलने की कोशिश करी तो डंडे से मार-मारकर उसका भुर्ता बना दूंगा। भागो यहां से नहीं तो तुम्हारा भी वही हाल करूंगा। बड़ी आई भूत की वकालत करने! मेरे पेट में तुमसे पूछकर गया था।” बेचारी भूतनी अपना सा मुंह लेकर वापस लौट गई। मां को अकेले देखकर बेटा समझ गया, पिताजी को लाने में मां को सफलता नहीं मिली। इस पर छोटे भूत ने मां से कहा, “मैं जा रहा हूं और पिताजी को लेकर आऊंगा।”

वह एक मासमू बच्चे का रूप बनाकर बाचू के घर पहुंच गया। उसने हाथ जोड़ विनती करी कि मेरे पिताजी को छोड़ दो। बच्चे को देखकर भी बाचू का गुस्सा शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसने फिर अपना डंडा उठाया और भागा बच्चे की ओर। बच्चा तो सरपट भाग गया पर अपनी शैतानी पर पेट वाला भूत बहुत पछता रहा था। जब छोटे भूत ने देखा कि उसकी दाल नहीं गल रही है तो फ़ौरन उसे एक उपाय सूझा। उसने ख़ुद को एक मच्छर के रूप में ढाला और पहुंच गया फिर बाचू के पास। उसने भी शरारत शुरू कर दी। कभी बाचू के गाल को काटता तो बाचू उसे भगाने के लिए अपने ही मुंह पर थप्पड़ मार लेता था। कभी मच्छर उसके कान के आसपास, कभी उसके कान में घूं-घूं करता। बाचू जितना झल्लाता, मच्छर को उतना ही मज़ा आता। थोड़ी देर बाद मच्छर बाचू की नाक में घुस गया। अब तो बाचू की नाक में सुरसुरी- घुरघुरी सब होने लगी। आ... छीं... आ... छीं... करते-करते उसका बुरा हाल हो गया। इस बार छींक इतनी तेज़ थी कि पेट का मेंढक वाला भूत मुंह के रास्ते बाहर कूद गया और सरपट भागकर चैन की सांस ली।

(सरोजिनी)

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