भय (कहानी) : राजनारायण बोहरे

Bhay (Hindi Story) : Rajnarayan Bohare

कॉलेज से चौराहा दो किलोमीटर से भी ज्यादा दूर था।
इस दूरी को पाटती थी सड़क । तारकोल की उम्दा सड़क ! सड़क पर सब था, पेड़ , परिन्दे , माइल स्टोन व टेलीफोन के खम्भे भी! पर आदमी न थे। सड़क सुनसान थी और इसी कारण प्रोफेसर रवि के मन में भय था कि पीछे लगे लड़के कहीं शुरू हो गये तो...! वैसे तो सब ठीक-ठाक चल रहा था। आज ही सुबह जब वह कॉलेज के लिए निकले थे तो रोज की तरह प्रसन्न और शान्त थे । उन्हें याद है कि रास्ते में उन्हें एक छात्र किताबों का पुलिन्दा दबाए मिला था-“सर , मेरी परीक्षाएँ निपट चुकीं हैं ये आपकी पुस्तकें वापस देने घर ही आ रहा था।”

रवि बाबू ने न उससे धन्यवाद की अपेक्षा की थी और न उसने धन्यवाद दिया था। हर्ष और विषाद से मुक्त मनःस्थिति से उन्होंने उस छात्र की बात सुनी और उसके हाथ का वजन अपने हाथों में ले लिया था। वे मुस्कराते हुए चल पड़े थे कालेज के लिए बगल में दस -बारह किताबों का बण्डल दबाए। वे रोज ऐसे ही लद जाते थे किताबों से। कॉलेज पहॅुचकर अपना कमरा खोलते थे, रजिस्टर पर किताबें चढ़ाकर अलमारी में रखते थे फिर अपनी ड्यूटी का कमरा तलाश करते थे। आज भी उनकी तीनों पालियों में ड्यूटी थी। और एसा प्रायः होता था।

आज कई विषयों की परीक्षा दिख रही थी। कॉलेज कैम्पस में सैकड़ों छात्र इकट्ठा थे । छात्रों का नमस्कार स्वीकारते , कुशल-क्षेम पूछते वे अपने कमरे में पहुँचे, फिर कुछ सोचकर हाथ की किताबें यूँ ही पटक कर ताला लगा दिया था और परीक्षा कार्यालय की ओर बढ लिए थे। वैसे ही साथी प्रोफेसर कहा करते हैं कि वे छात्रों को कुछ ज्यादा ही छूट दिए हैं और उनकीं आदतें खराब कर रहे हैं! आज कहीं किसी प्रोफेसर ने किताबों का पुलिन्दा देख लिया होगा तो फिर टोकेगा।

रवि बाबू इसमें कोई हर्ज नहीं मानते कि किसी जरूरतमन्द गरीब छात्र को अपने खाते में पुस्तकें चढ़ाकर खुद ही जाकर दे दीं और जब वापस मिलीं तो खुद ही कॉलेज लेते चले आए। इसमें कौन सी शान घट गई ! उल्टे छात्रों के मन में इज्जत बड़ ही गई कुछ। वो तो शुकर है कि इस बात का किसी को पता नही लगा कि कॉलेज के दर्जनों छात्र वक्त-जरूरत पर रवि बाबू से कुछ-न-कुछ नगदी भी लिए बैठे हैं। यदि कॉलेज में प्रोफेसरों को इसकी भनक भी लग गई तो बावेला मच जाएगा बैठे- ठाले। वैसे यदा-कदा गाँव- जवार के छात्रों की मदद कर देना रवि बाबू को गलत नहीं लगता और बहुत बड़ा अहसान भी नहीं।

उनकी बहुत कम अध्यापकों से पटती है। कभी- कभी वे सोचते हैं कि अपने ज्ञान और विशिष्टता-बोध के दम्भ से चूर इन प्रोफेसरों से कोई पूछे तेा भला कि भाई तुम इतराते किस बात पर हो? दूसरी बातें तो रही दर किनार ,तुम लोग अपना काम भी करते हो कभी। साल भर में कितने पीरियड पढ़ाए तुमने बच्चों को? अगर उनसे पूछा जाय तो वे खींसे निपोरते रह जाएँगे। इन लोगों पर बहुत दया आती है रवि बाबू को उनके लिए एक ही शब्द याद आता है उन्हें-बिचारे!

इस बात का गहरा आत्मसन्तोष है रवि बाबू को कि उनके पढ़ाए छा़त्र सदैव अच्छे नम्बरों से पास हुए हैं, उनके तमाम छात्र आज ऊँची नौकरियों में हैं। अपने विषय पर खूब अधिकार है, रवि बाबू का! उनका सारा समय छात्रों के लिए ही सुरक्षित रहता है। चाहे जब आकर छा़त्र पाठयक्रम से सम्बन्धित बातें पूछते रहते हैं उनसे। वे भी अपने आपको अलग नहीं समझते इन छात्रों से । इसी कारण उन्होंने राष्ट्रीय सेवा योजना का भी काम ले रखा है कॉलेज में। बहुत गम्भीर बने रहने पर भी तमाम लड़के बेहद अत्मीय हेा गये हैं उनसे। ये बात जरूर है कि इसका खामियाजा भी खूब भुगता है उन्होंने। पिछली बार जब लाइब्रेरी में में पुस्तकों का भौतिक सत्यापन हुआ तो उनके नाम जारी हुई अनेक किताबें जमा नहीं मिली थी और उन्हें किताबों की कीमत भरनी पडी थी -लाइब्रेरियन के पास। वे किताबें होंगी भी कहाँ? रह गई होगीं किन्हीं लडकों के पास और छात्र भी जान-बूझकर क्यों रखेंगे, अनजाने में ही कहीं खो- खा गई होंगी किसी से, वे आज भी यही मानते हैं ।

शाम को कमरा नम्बर तेरह में उनकी तीसरी ड्यूटी थी। ऐसा संयोग रहा कि इस वर्ष इसी कमरे में ज्यादा इन्विजीलेशन किया है उन्होंने। प्रोफेसर सिंह आज उनके साथी इन्विजीलेटर थे। तब आधा घण्टा बीत चुका था परीक्षा आरम्भ हुए, जब उन्होंने देखा कि कोने में बैठा छात्र पूरे इत्मीनान से नकल टीप रहा है। वे खाँसते हुए दो-तीन बार उसके पास से निकले, पर वह लड़का इतना बेशऊर , ऐसा बेशर्म और इतना उजड्ड दिखा कि आँखों का पर्दा भी नहीं किया उसने । रवि बाबू ने कनखियों से इधर-उधर देखा तो पाया कि आसपास के तमाम लड़के टुकर-टकर उन्हें ही ताक रहे हैं। जैसे कि वे चुनौती दे रहे हों मन-ही-मन, “क्या कर पाते हो गुरूजी इस लड़कों का। देखें तो!”

रवि बाबू ऐसे तुनकमिजाज भी नहीं कि कुछ छात्रों की आँखों में चुनौती के भाव देखकर तपाक से हमला कर दें उस छात्र पर। एक कोने में खड़े हो उन्होंने परिस्थिति पर गम्भीरता से विचार किया। प्रोफेसर सिंह से बात करने का मन बनाया तो पता लगा कि वे जाने कहाँ खिसक गए हैं। रवि बाबू इस साल एक भी नकल नहीं पकड़ सके - दरअसल वे नकल पकड़ने के लिए दीवाना हो जाने की हद तक उतावले नहीं बने रहते ।सूघंते नहीं फिरते नकलचियों को। पर इसका यह मतलब भी नहीं न कि छात्र उन्हें बेवकूफ समझने लगें। खुले आम नकल की पर्ची रखकर आखिर क्या दिखाना चाह रहा है यह छात्र ? शायद खुद की ताकत या फिॅर प्रोफेसर की कमजोरी !

कमजोर वे कभी नहीं रहे। लेकिन किसी छात्र का साल बरबाद करने में मर्दानगी दिखाना तो एक तरह की कायरता है न वैसे नये परीक्षा अधिनियम में तो नकलचियों को गिरफ्तार तक करा देने की शक्ति मिल गयी है प्रोफेसर को। पर आम तौर पर इन अधिकारों का उपयोग कोई नहीं करता। लड़के भी कहाँ हील-हुज्जत करते हैं फॉर्म भरते समय। उन्हें पता है कि इस प्रकरण का यूनिवर्सिटी में अंतिम निर्णय होना है, अब निपट-सुलट लेंगे वहीं, यह सोचकर वे चुपचाप हस्ताक्षर कर देते हैं ! बाद में निपट-सुलट भी लेते हैं।

चपरासी को बुलाकर रवि बाबू ने दो गिलास पानी पिया, और एक नजर पूरे कक्ष पर दौड़ाई, फिर कमरे में चक्कर लगाने लगे । परीक्षा-अवाँ में तरुणाई पक रही थी। छात्रों के चेहरे पर अजीब-अजीब भाव मौजूद थे-कोई अपनी अन्तर्धारा में डूबा हुआ लिखे चला जा रहा था ,तो कोई आँख मूँदकर अपना पुराना रटा हुआ याद करने की कोशिश कर रहा था। किसी की आँखें फर्श से चिपकी थीं ,तो कोई कमरे की छत रोशनदानों और पखों का मुआयना कर रहा था। पर वह कोने में बैठा लड़का पूरे इत्मीनान से नकल टीपे जा रहा था,यह याद आते ही रवि बाबू को थोड़ा तनाव हुआ। उस लड़के के आसपास के तीन-चार लड़कों ने फुसफुसाना शुरु कर दिया था, कक्षा में भिनभिनाहट सी गूँज रही थी। उधर प्राचार्य का राउंड पर आने का वक्त हो रहा था।

रवि बाबू ने एक क्षण निर्णायक ढंग से सोचा,फिर बिजली की तरह छात्र के सिर पर जा धमके थे।

एक हाथ में पर्ची, और दूसरे हाथ में कॉपी लेकर उन्होंने छा़त्र को परीक्षा कार्यालय चलने का आदेश दिया तो एकाएक वह लड़का बिगड़ गया था। बाहर तैनात पुलिस - कानिस्टबल ने भीतर झाँका। एक छात्र को गुरूजी से हाथापाई की कोशिश करते देख,उसे अपना कर्तव्य-बोध याद हो आया था, और वह बरामदे में खड़े अपने एक और साथी को आने का इशारा करके कमरे में आया था।

आगे-आगे प्रोफेसर रवि और पीछे-पीछे दो सिपाहियों की गिरफ्त में जकड़ा वह लड़का उछल-कूद करता हुआ ही बरामदे से होकर परीक्षा -कक्ष तक गया तो अनेक छात्रों ने यह तमाशा देखा था।
माहौल मे एक पैना और धारदार सन्नाटा व्याप्त होने लगा था। केन्द्राध्यक्ष अपनी औपचारिकताओं में व्यस्त हुए तो प्रोफेसर रवि छात्र के फॉर्म पर अपनी टीप लगा, अपने हस्ताक्षर करके कक्ष में लौट आये थे। प्रोफेसर सिंह अब तक कक्ष में से गायब थे, लेकिन कमरे में एकदम शान्ति थी।सब परीक्षार्थी अपनी उत्तर -पुस्तिका में तल्लीन नजर आ रहे थे। अब रवि बाबू निस्पृह भाव से टहलने लगे।

काफी देर बाद पसीना-पसीना होते प्रोफेसर सिंह कमरे में दाखिल हुए और रवि को एक तरफ ले गये,“यार तुम भी एकदम ना समझ आदमी हो। काहे को नकल पकड़ ली सुरेन्द्र की ? जानते हो कौन है वो!”एक पल रुककर रवि के चेहरे पर वही निरीह उत्सुकता देखकर आगे बोले ,“हॉस्टल का प्रेसीडेंट है वो आजकल।”

“तो !”रवि बाबू अब भी बात नहीं समझ पाए थे।
“तो यही कि अब भुगतना अपना करा धरा।” तैश में आकर प्रोफेसर सिंह थोड़ी ऊँची आवाज में बोले थे।

रवि ने आहिस्ता से नजरें फेरकर अपने कक्ष के परीक्षार्थियों की ओर देखा तो उनकी आशंका सही निकली थी-तीन लड़के कनखियों से उन दोनों की ओर ही ताक रहे थे।
“ठीक है वह भी देखूँगा।”कहते हुए सिंह से पीछा छुड़ा कर रवि ने अपने कमरे में घूमना शुरु कर दिया ।

प्रशान्त सरोवर में कंकड़ फेंकके लहरें पैदा कर प्रोफेसर सिंह फिर गायब हो गए थे,और रवि बाबू यह समझने का यत्न करने लगे थे कि आज आखिर उन्होंने क्या गलत कर दिया। हर साल इम्तिहान होते हैं, हर साल वे कुछ नकलें पकड़ते हैं, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी प्रोफेसर ने उन्हें धमकाया हो। उन्हें अचानक ऐसा लगा कि प्रोफेसर सिंह की संवेदना के कोई तार छात्र सुरेन्द्र से जुड़े हैं और वे इस प्रकरण को अपनी शह से जबरन कुछ रंग देने को सोच रहे हैं । प्रो. सिंह का आज वहॉ शुरु से गायब रहना, फिर नकल पकड़

लेने के बाद ऐसी बदतमीजी से पेश आना और निराश होकर दुबारा गायब हो जाना , लगता था भीतर-भीतर इन सब हरकतों में एक सूत्र जुड़ा है।

लम्बी घण्टी बजी तो रवि बाबू ने कॉपियाँ बटोरनी शुरु कर दीं। अब आकर दुबारा सिंह की शक्ल दिखी थी । उन्हें सारी सामग्री सौंपकर रवि कैण्टीन की ओर चल दिए । उन्हें चाय की बेहद तलब महसूस हो रही थी। आज दिन भर में उन्हें चाय भी नसीब नहीं हो पाई थी
“एक चाय!”काउटंर पर आदेश देकर वे एक टेबुल की ओर बढ़े ।

कुछ दिनों से वे देख रहे हैं कि लड़कों की हरकतें कुछ ज्यादा ही उग्र होती जा रहीं हैं । जब से कॉलेज में दुबारा चुनाव शुरु हुए हैं, पिछले दरवाजे से कॉलेज कैम्पस में राजनीति आ घुसी है और राजनीति के साथ वे तमाम आवश्यक बुराइयॉ भी आ गई हैं जो उसकी हमजोली हैं ।

गर्मी चरम सीमा पर थी । पर रवि बाबू को अपनी आँखें सुलगती सी लग रहीं थीं । आखों केा बन्द कर उन्होंने अपनी तर्जनी आहिस्ता से दोनों पलकों पर फेरी । बन्द आँखों के आगे लाल-पीले-केशरिया धागे खिच आए, अधर में तैरते –से!

दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर पवित्र प्रायः कहा करते हैं कि आँख के आगे खिच आये रँग –बिरंगे रेखाचित्र अँधेरा और यह धागे, मनुश्य के मन की परछाई हैं। सब के अलग-अलग प्रतीक हैं। बन्द आँख के आगे यदि अंधेरा दिखे , तो समझ लो कि मन आराम चाहता है , और यदि उजाला झांके तो मन में बहुत प्रसन्न होने का अनुमान लगता है। आँखों के आगे लाल- पीले केशरिया धागों का मतलब कि मन विचलित -सा-है -द्वन्द्व में मं उलझा -सा। बिना सायलेंसर के स्कूटर की भौड़ी आवाज ने रवि बाबू का ध्यान भंग किया तो उन्हें उत्सुकता हुई कि देखें -प्रोफेसर सिंह कहाँ से लौट रहे हैं ।

केण्टीन की खिड़की से देखा तो पता चला कि कॉलेज के ठीक सामने बने हॉस्टल के कैम्पस से अपने खटारा स्कूटर पर सवार प्रोफेसर सिंह लौट रहे थे। रवि के दिमाग में एक ही शब्द टुनका-गद्दार!

उन्होंने चाय का प्याला उठाकर घूँट भरा तो मुँह का स्वाद बिगड़ गया। चाय बिल्कुल ठन्डी हो गई थी।“अरे भाई जैन, गर्म चाय भेजो यार।” कैन्टीन वाले को आवाज देकर ठन्डी चाय एक ओर सरका दी उन्होंने।

चाय पीकर घड़ी देखी तो पता चला कि सात बज गये हैं।यानि कि कैंण्टीन में पूरा एक घण्टा गुजर गया है।

शाम घिर आई थी। कैण्टीन से बाहर निकलते समय उन्होंने पाया कि कॉलेज में एकदम सन्नाटा है, स्टाफ कभी का जा चुका है और अब तो चपरासी मुख्य दरवाजा भी बन्द कर रहे हैं।

रवि ने बाहरी गेट की ओर तरफ बढते हुए सोचा,आज तो सचमुच बहुत देर हो गई। यहाँ से बस्ती दो किलोमीटर से भी ज्यादा दूर है और तो कोई बात नहीं है,पर ... पर सन्नाटे में गूजती खुद की पदचाप भी मनहूस लगती है न ,तो रवि ने लम्बे डग भरना शुरु कर दिया।

सौ मीटर भी नहीं चले थे कि उन्हें एकाएक अहसास हुआ जैसे कुछ लड़के उनके पीछे आ रहे हैं।दिन की घटना की स्मृति शेष थी ही , इसलिए अनजाने में ही उनकी ज्ञानेन्द्रिय सतर्क हो गई । कान का केचमेंट एरिया बढ़ाने का प्रयास किया उन्होंने। आँख के पिछले सिरों पर अपने गोलक टिकाकर देखने का यत्न किया तो बेचैनी बढ़ी । अचानक एक पल को भय की अनुभूति विद्युत -तरंग की तरह मस्तिष्क से होती हुई दिल तक आई।

सोचने लगे...तो...तो आज बन गया मैं भी निशाना! अहसास हुआ कि यह सोचते-सोचते उनका समूचा शरीर एकबारगी पसीने से नहा उठा है। लगा कि पैरों की शिराएँ सुन्न सी हो रही हैं साइटिका के मरीज की तरह। मन बैठता-सा जा रहा है। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिन्दगी में ऐसी स्थिति से दो-चार होना पड़ेगा। औरों की बात अलग है...पर वे ...वे तो (यानी कि लड़कों के चहेते प्रोफेसर ) रवि सर हैं और "उनके खिलाफ भी कोई खड़ा हो सकता है" यह तो कभी सोच भी नहीं सकता कोई । खुद भी नहीं सोचा था, वे तो गहरे हमदर्द हैं छात्रों के ,मित्र हैं उनके ।...और आज उनके खिलाफ भी...!खिलाफ भी नहीं बल्कि इस हद तक...। उनके पैरों की गति मन्द सी हो गई, भीतरी तनाव के कारण।

आज अगर उनके साथ कोई हादसा हो गया तो कल कस्बे में हर जुबान पर उनका नाम होगा। अखबारों तक पहुँचने में भी देर नहीं लगेगी।वैसे भी यहाँ तिल का ताड़ बनते देर कहाँ लगती है(खास कर कॉलेज से जुडे मामलो में)? और फिर इनके साथ तिल नहीं ताड़ ही घटित होने जा रहा है। इधर मार पिटाई तो दूर की बात ,लड़के उन्हें छू भी लेंगे तो रवि बाबू की ऐसी बदनामी होगी कि सिर उठाकर चलने के काबिल भी नहीं रहेंगे। कॉलेज के साथी अध्यापक सुनेंगे तो बाछें खिल जाएगी उनकी“अच्छा रहा! लड़कों के हिमायती बनकर घूमते थे बड़े । अब अक्ल आई ठिकाने ।” स्टाफ क्लब में उनका बैठना मुहाल हो जएगा। यह समाचार जब घर पहुँचेगा तो उनकी पत्नी क्षिप्रा भी बहुत नाराज होगी। नाराज क्या बाकायदा युद्ध की मुद्रा में ही आ जाएगी वह -“मैं कहती थी तो मानते कहाँ थे?देख लिया लड़कों से दोस्ती का परिणाम!नकल पकड़ने के लिए भी कितना मना करती थी मैं, पर अपने आगे सुनते ही कहाँ थे। अब मेरी तो नाक कट गई न, कल को कॉलानी की औरतें पूछेंगी तो क्या जबाब दूँगी !”

नाते रिस्तेदारों तक बात जाएगी, कस्बे के मित्र परिचितों तक बात जाएगी और इन सबके उल्टे-सीधे उत्तर देते-देते हलाकान हो जाएँगे वे। पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे तो कोर्ट में पेशियाँ करते-करते परेशान हो उठेंगे।यदि रिपोर्ट नहीं करेंगे तो दोहरी दिक्कतों में फँस जाएँगे, एक तो वे लड़कों और प्रोफेसर मूँछ उमेठते घूमेंगे,दूसरे,जो भी सुनेगा यही कहेगा कि रवि बाबू की ही कोई गल्ती होगी , तभी तो पुलिस में रिपोर्ट नहीं की।

दरअसल आज यदि मारपीट हेाती है तो उसकी चोटों का डर नहीं है, उन्हें ,बल्कि आज के बाद जो भोगना पड़े गा वह ज्यादा पीड़ा दायक होगा।

सोचते-सोचत भय का बुखार सा चढ़ आया उनक बदन में । शरीर शिथिल सा होने लगा फिर से उनका। पर मन और ज्यादा सक्रिय हो रहा था क्षण-क्षण। दस वर्ष हो गये उन्हें इस कॉलेज में पढ़ाते हुए , पर ऐसी स्थिति कभी नही आई।उन्होंने सोचा तो भय का अंतरग हिस्सा बनकर मन में एक उत्सुकता ने करवट ली- देखें तो आखिर कौन से लड़के हैं जो उन पर हमला कर सकते हैं। पीछे मुड़ना चाहा पर मुड़ नही पाए। तो मन -ही- मन उन सम्भावित लड़कों के चेहरों की कल्पना की । कुछ सेकिण्ड में ही उनके सामने कॉलेज और खासकर हॉस्टल के सभी शरारती लड़कों के चेहरे घूम गए...अरुणसिंह, शिव प्रताप, जाहिद,जसपाल, भोला ये ही तो हैं और इनमें एक भी तो ऐसा नहीं है जो उनके सामने आकर तेवर बदल सके । इस विचार से लगा कि मन में कुछ हिम्मत बंधी है। हिम्मत बँधी तो यह भी प्रश्न उभरा कि क्या उन्हें सचमुच डरना चाहिए!न...न आज उन्होंने कोई गलत और बेजा काम नहीं किया। पिछले दस वर्षों में तो दर्जनों नकलें पकड़ी होंगीं उन्होंने,पर कभी कोई लड़का ऐसा फिरंट नहीं हुआ। वे विस्मित भी थे कि आज ये लड़के क्यों उनके पीछे-पीछे हैं ।भय का एक तिलंगा दहका उनके मन में , तो आज ये लड़के सिर्फ थोड़ा सा बेइज्जत करना चाहते हैं उन्हें...या उससे भी ज्यादा...मनसूबा तो खराब ही दिखते हैं इनके।

ये सब तो तय है कि ये सब सुरेन्द्र के ही साथी होंगे । सुरेन्द्र के पकड़े जाने का क्षोभ भी होगा उनके मन में । सच तो यही है कि हाथापाई तो सुरेन्द्र ने ही की थी तभी पुलिस केस बना। यदि चुपचाप संग चल देता और अपने फॉर्म पर दस्तखत कर देता तो कोई दिक्कत ही न थी।

रवि बाबू विचारों में खेाए रहने की वजह से बडे धीमे चलने लगे थे वे तब चौंके, जब कि पीछे आ रहे लड़कों की पदचाप और आपसी बातचीत के छिटके हुए से स्वर उन तक आने लगे । अनजाने में सतर्क होते रवि बाबू की गति कुछ बढ़ी और लड़के पिछड़ने लगे । सिर पर आ गया संकट कुछ दूर सरकता अनुभव किया रवि बाबू ने। वे सोच रहे थे कि पीछे आ रहे छा़त्र निहत्थे तो आऐ नहीे होंगे निपटने, हरेक के हाथ में कुछ-न-कुछ जरुर होगा-हॉकी, चैन,सरिया और ...हो सकता है चाकू और कट्टा भी। यह याद करते -करते एक बार फिर पसीने से नहा गए वे। लगभग दौड़ने के ढंग से सरपट कदम बढ़ा दिए उन्होंने, भय के अजगर ने बुरी तरह लपेट रखा था उन्हें और इस कारण जल्दी हांपने लगे थे ।

तभी शाम के सुरमई अंधेरे को बेधती किसी छोटे वाहन की हैडलाइट से एकाएक उनकी आँखें चौधिया गईं।उन्होंने आँखें मिचमिचाई। सामने देखने में परेशानी होती थी।इस कारण नजरें सड़क से चिपका लीं और बढ़ते रहे। चलो, आसपास कोई तीसरा निष्पक्ष व्यक्ति भी मौजूद है इस अहसास से मन कुछ आश्वस्त हुआ।

निकट आने पर पता चला कि वह एक जीप थी। सरकारी जीप के ऊपर पीली बत्ती लगी थी और सामने पीतल के मोटे अक्षरों में लिखा था-एस. डी. ओ.पी.। वे और अधिक आश्वस्त हो गये । अचानक ही जीप को रोकने के लिए उन्होंने पुकारने का यत्न किया तेा गला अवरुद्ध पाया। वे घबराए। ये नई आफत क्या आ गई!एक दो लम्बी सांस ले कर उन्होंने गले की खरास को ठीक किया...और तब तक ...तब तक उनके बगल से निकलकर वह जीप कॉलेज की तरफ बढ़ चुकी थी ।खुद को बड़ा निरीह महसूसते रवि बाबू फिर से भय के अन्धे लोक आ गिरे थे।

ब्रेक चरमराने की आवाज से लगा कि लगभग पचास कदम आगे जाकर वही जीप रुकी है फिर उल्टी चलती हुई उनकी तरफ आ रही है । वे रुके और तनिक सा मुड़कर पीछे देखा। जीप उनके बराबर तक आ चुकी थी और सड़क के उस पार रुक गई थी। जीप में से पुलिस अफसर की वर्दी में सजा-धजा एक युवक उतर रहा था साँझ के भुकभुके में भी उस नौ जवान पर नजर पड़ते ही रवि बाबू के मस्तिष्क में एक ही नाम अचानक कौंधा था- कुणाल वर्मा ! निःसन्देह वह कुणाल ही था।

बीस डग की दूरी पार करता हुआ कुणाल जब तक रवि तक पहुँचे , रवि का मस्तिष्क जाने क्या-क्या सोच चुका था। कुणाल भी कभी इस कॉलेज का छा़त्र रहा है और यह भी एक इत्तिफाक है कि कुणाल को भी उन्होंने बी.ए.फाइनल में टेबुल के पास पड़ी

नकल की पर्चियों के साथ पकड़ा था। तब रुआँसा होता कुणाल उनके पैरों में गिर पड़ा था और बोला था,“सर , ये पर्चियां में नहीं लाया। न मैने किसी से माँगी हैं। पता नहीं किसने फेंक दीं, ये मेरे पास। प्लीज सर, छोड़ दीजिए मुझे ,मेरा एक साल बरबाद हो जाएगा ।”

निरपेक्ष भाव से रवि ने तब इतना ही कहा था- “मैं चाहता हूँ, कि तुम्हारा एक साल भले ही बरबाद हो जाए, पर जिन्दगी तो बरबाद न हो । एक बात बताऊँ कुणाल तुम्हें , कि जिन्दगी बहुत लम्बी है और जिन्दगी की सफलता में एक साल का कोई महत्व नहीं होता।ईमानदार होना बड़ी बात है।”
" ईमानदारी का ठेका आपके पास है क्या सर! इस दुनिया मे रोज ईमानदारी टूटती है।"
"बेशक टूटती है, लेकिन कोई न कोई ईमानदारी को सम्हाल ही लेता है कुणाल वर्मा माय सन।"

हालाँकि उस घटना के पहले कुणाल का ऐसा कोई रिकार्ड नहीं था कॉलेज में ! पर प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?अलबत्ता उस दिन के बाद कुणाल और ज्यादा गम्भीर हो गया था पढाई के प्रति और ज्यादा परिश्रमी । यूनिवर्सिटी से उसका वह प्रकरण बिना किसी प्रतिबन्ध के निपट गया था अगले वर्ष कुणाल ने फिर परीक्षा दी थी और अच्छे नम्बरों से पास हो गया था।

जल्दी ही अपने पिता का तबादला होने की वजह से वह यहाँ से चला गया था।बाद में सुना था कि वह डी.एस.पी. के लिए चुन लिया गया है।

आज पूरे पाँच साल बाद उनके सामने था वही कुणाल । एकाएक रवि बाबू के भीतर कुण्डली मारे बैठे भय के नाग का फन फिर फैला- वही कुणाल भी मौका देखकर आज उस दिन का बदला...।

“प्रणाम सर !” उन्हें चौकाता हुआ कुणाल उनके पैरों पर झुका था और अन्तर्द्वन्द्व में जकड़े रवि के मुँह से बेतुका सा जबाब निकला था-हैलो!”

रवि के चेहरे को देखकर कुणाल को शायद कुछ असामान्य सा लगा था और उसने रवि से पचास फिट दूर खड़े लड़कों पर एक उड़ती सी नजर डाली थी । रवि से एक मिनट की मुहलत माँगकर वह उन लडकों की ओर लपका तो जीप के पास खडे ड्राइवर और सिपाही ने भी मुस्तैदी से कुणाल का अनुसरण किया था रवि का माथा ठनका था । वे परेशान से होकर उधर ही ताकने लगे थे । एक अजीब सी उदासी धुआँ-धुआँ होकर उनकी आँखों से रिसने लगी थी । बाद में उन्होंने देखा कि कुणाल उन लड़कों के बीच खड़ा उनसे बातचीत कर रहा है और वे लड़कों सहमति में सिर हिला रहे हैं!

उनकी सारी आशंकाएं तिरोहित हो गईं थीं एक साथ, जब वे आठों लड़के पीछे मुड़े थे और पराजित से हॉस्टल लौट गये थे । सिपाही वगैरह भी वापस चल दिए थे और कुणाल , रवि बाबू की तरफ चला आ रहा था - सूने माहौल सूने में अपने पुलिसिया जूते खटकाता हुआ । रवि बाबू ने याद करने की कोशिश की कि वे लड़के कौन -कौन थे ।

“वे लोग लौट गये सर !”कुणाल के तरल हो आए स्वर ने चैतन्य सा किया । ऐं ...हाँ...हाँ...चले गए!अटकते से वे बोले । फिर एकाएक उन्हें याद आया तो कुणाल से पूछने लगे-आप...तु...तुम यहाँ कैसे ?ये पता लगा था कि तुम डी. एस. पी. हो गए हो पर अचानक ...”

“सर मैं यहीं आ गया हूँ इन दिनों । कल ही ज्वाइन किया है मैंने ।” कुणाल के स्वर में उमग रहा था- “आइए सर , मैं आपको घर छोड़ दूँ।”
“न...न रहने दो । चला जाऊँगा मैं ! तुम चलो।” कहते हुए रवि आहिस्ता चल दिए थे ।

पीछे से कुणाल ने उन्हें फिर टोका और बोला-“ सर, लगता है, आप बहुत परेशान हैं । आप निश्चिन्त रहिए। उन लडकों में अब इतनी हिम्मत नहीं आइन्दा आपसे बात करें ।लेकिन ...कुणाल ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी।

रवि की निगाहें उत्सुकता और व्यग्रता से कुणाल के चेहरे की तरफ उठ गईं ।वे अन्दाज लगा रहे थे कि’लेकिन‘शब्द से छूट गऐ । वाक्य को कुणाल इसी तरह पूरा करेंगा कि “लेकिन मैं आपसे यही कहूँगा सर ,कि आयंदा आप इस तरह के झंझटों नहीं पड़ें तो ठीक रहेगा।” उन्होंने खुद की सारी चेतना कानों में केन्द्रित कर ली । बात पूरी करने के लिए कुणाल का इन्तजार करने लगे ।

...और वे पुलकित हो उठे । उनके अनुमान को ध्वस्त करना कुणाल लगातार कह रहा था। “ क्षमा करें सर,अक्सर आपकी ही कही हुई बात को दुहरा रहा हूँ कि सच भले ही दुनिया में हर जगह सुरक्षित नहीं है, उसे तोड़ा जाता है , लेकिन सच कभी भी दुनिया से पूरी तरह खत्म नहीं होता । कोई-न-कोई इसको बचाए रखता है। सर, मैने अभी तक के जीवन में सबसे ज्यादा आपसे श्रद्धा की है, इसलिए और भी खुलकर अपने मन की बात आपसे कहना चाहता हूँ !"

रवि सर की आँखों को गहराई तक बेधती नजरे गढ़ाकर कुणाल फिर बोला-“मैं यह चाहता हूँ सर कि आइन्दा भी ऐसी स्थितियों में नितान्त अकेले आप सच की एसी ही हिफाजत करते रहें , ताकि मुझ जैसे कई लोगों को सच्चाई के कदमों पर इसी झुकते रहने की प्रेरणा मिलती रह सके , .... और!!!"

अपनी बात पूरी नहीं कर पाया वह, और सजल नेत्रों से रवि बाबू के पैरों में झुक गया। पाँव पर गिरी कुणाल के ऑसू की बूँद ने बहुत सुख दिया रवि बाबू को । उनका हृदय विगलित हो उठा। उन्होंने हौले से कुणाल के सिर को सहलाया और बाँह पकड़कर सीधा खड़ा किया उसे।

नत नयनों से कुणाल मुड़ा और अपनी जीप की ओर बढ़ गया। आशंका और भय के कुहासे से निकलकर प्रेम की स्निग्ध हवा से सराबोर होते रवि बाबू अपनी स्वाभाविक चाल से घर को चल पड़े ।

  • मुख्य पृष्ठ : हिंदी कहानियां ; राजनारायण बोहरे
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां