भला बुरा (बांग्ला कहानी) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Bhala Bura (Bangla Story in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

अविनाश घोषाल कुछ वर्ष और नौकरी कर सकते थे, लेकिन संभव नहीं हुआ। खबर आई कि इस बार भी उन्हें धत्ता बतलाकर कोई जूनियर मुंसिफ सब-जज बन गया। दूसरी बार की तरह इस बार भी अविनाश खामोश रहे। फर्क केवल इतना ही था कि इस बार उन्होंने डॉक्टर के सर्टिफिकेट के साथ जल्द-से-जल्द मौका लेने के लिए दरख्वास्त भेज दी। दरख्वास्त मंजूर होगी ही, इसमें उन्हें कोई शक नहीं था।

अविनाश के काम करने की फुरती से सभी खुश थे, भद्र आचरण की प्रशंसा सभी करते हैं, फिर भी उनकी यह दुर्गति हुई। इसके पीछे के गुप्त इतिहास को बहुत कम लोग जानते हैं, उसे बतला दूँ। उनकी नौकरी की शुरुआत में एक बार एक नौजवान आई.सी.एस. जिले का जज होकर दफ्तर का इंस्पेक्शन करने आया। छोटी सी बात को लेकर दोनों में पहले मतभेद हुआ और बाद में इसी ने बड़े झगड़े का रूप ले लिया। लौटकर जज लगातार उसके काम के छिद्रान्वेषण में लगे रहे, लेकिन छिद्र का पाना सहज नहीं था। जज साहब इससे तनिक प्रसन्न नहीं हुए। उनके फैसले को काटकर देखा कि हाईकोर्ट में वह नहीं टिकता, खुद ही अधिक शर्मिंदा होना पड़ता है। तबादले का समय हो गया था, अविनाश दूसरे जिले में चले गए, लेकिन जज से मुलाकात करके नहीं गए। श्रद्धा निवेदन की प्रचलित रीति में उनसे बहुत बड़ी त्रुटि हुई। इसके बाद कितने ही वर्ष बीत गए। बात को अविनाश भूल गए थे, मगर वह नहीं भूले थे। इसका प्रमाण मिला कुछ दिन पहले। वह नौजवान जज अब हाईकोर्ट में आए हैं मुंसिफ वगैरह के विधाता बनकर। अविनाश सीनियर आदमी था, काम के लिए काफी मशहूर था, उसकी उन्नति का पथ संपूर्ण रूप से बाधाहीन था। अचानक देखा गया कि उसकी जगह नीचे का आदमी सब-जज हो गया और मामला यहीं समाप्त नहीं हुआ। एक-एक करके और भी तीन व्यक्ति उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ गए। जो लोग नहीं जानते, वे कहेंगे कि कहीं ऐसा भी होता है? यह तो सरकारी नौकरी है और उस पर इतनी बड़ी नौकरी है! यह क्या काजियों का जमाना है? लेकिन अनुभवी कहेंगे, उससे भी अधिक ज्यादतियाँ होती हैं। अतएव अविनाश मन ही मन समझ गया कि अब इससे छुटकारा नहीं। आत्मसम्मान और नौकरी इन दो नावों पर पैर नहीं रखा जा सकता, दोनों में से एक को चुनना होगा। उसी बात को इस बार उन्होंने पूरा किया। परिवार में अविनाश की भार्या आलोकलता, आई.ए. फेल पुत्र हिमांशु और कन्या शाश्वती यही तीन प्राणी। नौकर, नौकरानियों की संख्या इतनी थी कि अनगिनत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

उस दिन अविनाश अदालत से प्रसन्नचित्त लौटे, यथानियम कपड़े बदले, हाथ-मुँह धो, जलपान करने के लिए बैठते हुए बोले, “जाने दो, इतने दिनों के बाद आजादी मिली छोटी बहू। सरकारी समाचार न आने पर भी हाईकोर्ट के एक मित्र का तार मिला है कि मेरी जेल की मियाद समाप्त हो चली। अधिक देर करना ठीक नहीं होगा। विलंब नहीं होगा, इस बात को खुद ही जानता था।"

आलोकलता निकट ही एक कुरसी पर बैठी सिलाई कर रही थी और कन्या शाश्वती पिता के बगल में बैठी उन्हें पंखा झल रही थी। सुनकर दोनों चौंक उठीं।
स्त्री ने प्रश्न किया, "इसका मतलब?"

अविनाश ने कहा, "संभवत: सुना होगा कि कोई गोविंदपद बाबू इस बार भी मुझे पीछे छोड़कर छह महीने के लिए छोटे जज हो गए। साहब के हाईकोर्ट में आने के बाद से पिछले तीन वर्षों से यही होता आ रहा है। मैंने एक शब्द भी नहीं कहा। सोचा था कि अपने अन्याय को किसी दिन वह खुद समझेंगे, लेकिन देखा, यह नहीं होने का। कम-से-कम उस आदमी के रहते तक तो नहीं। अविचार को इतने दिनों तक सहता रहा, लेकिन सहन करने से मनुष्यत्व नहीं रहेगा।"

कल शाम को सदराला के यहाँ घूमने जाकर आलोकलता इसी तरह की बात का आभास इशारे से सुन आई थी, लेकिन उसका मतलब समझ में नहीं आया था और इस समय भी नहीं समझ पाई। बोली, "तदबीर-तगादे के बगैर आज के जमाने में कौन सी बात होती है? मनुष्यत्व कायम रखने के लिए क्या किया है, सुनूँ तो जरा?"
अविनाश ने कहा, “तदबीर-तगादा नहीं किया जाता, मगर जो कर सकता था, उसे जरूर ही किया है।"
आलोकलता पति के मुँह की ओर देखती रहीं, अभी तक तात्पर्य उनकी समझ में नहीं आया। वह डर गई और बोली, “सुनूँ भी, क्या किया है, बतलाओ भी तो सही?"
अविनाश ने कहा, "वह है काम से इस्तीफा देना, और इस्तीफा भी दे दिया है।"

आलोकलता के हाथ से सिलाई का सामान जमीन पर गिर पड़ा। वजाहत की भाँति कुछ देर तक खामोश रहकर बोली, “यह क्या कह रहे हो! इतने प्राणियों को भूखों मारने का संकल्प किया है क्या? काम छोड़ा तो तुम्हारी कसम खाकर कहती हूँ, मैं उसी दिन आत्महत्या कर लूंगी।"
अविनाश चुप बैठे रहे, कोई जवाब नहीं दिया। "दरख्वास्त अगर दे ही दी है, तो वचन दो कि कल ही वापिस लोगे।"
"तो तुम चाहते हो कि मैं मर जाऊँ?"
"तुम तो जानती हो छोटी बहू कि मैं इसकी कामना नहीं करता। तुम पत्नी होकर अगर पति की मर्यादा को इस तरह से समाप्त करती हो कि लोगों के सामने मस्तक ऊंचा करके खड़ा भी न हो सकूँ तो"।"

बात अविनाश के मुँह में अचानक रुद्ध हो गई, पर खत्म नहीं हुई। आलोकलता ने कहा, "तो क्या कहते हो?"
जवाब में एक कठोर बात उनकी जबान पर आई थी, मगर इस बार भी वह उसे नहीं बोल पाए, लड़की ने बाधा डाल दी। अब तक वह सबकुछ चुपचाप सुन रही थी, लेकिन अब उससे नहीं रहा गया। बोली, "नहीं पिताजी, इस समय माँ में सोचने-विचारने की ताकत नहीं है। तुम उन्हें कोई जवाब नहीं दे सकते।"

लड़की की हिमाकत देखकर माँ कुछ पहले हतबुद्धि सी हो गई। दूसरे ही पल बड़े जोरों की फटकार लगाकर बोल उठी, “शाश्वती, जा यहाँ से, चली जा, कहती हूँ।"
लड़की बोली, "अगर चला ही जाना पड़ता है तो पिताजी को साथ ले जाऊँगी माँ। तुम्हारे पास छोड़कर नहीं जाऊँगी।"
"क्या कहा?"

"कहा कि तुम्हारे पास उन्हें अकेला छोड़कर मैं नहीं जाऊँगी, कभी नहीं जाऊँगी। चलो पिताजी, हम जरा नदी के किनारे घूम आएँ। शाम के पश्चात् मैं खुद तुम्हारा खाना बना दूंगी। इस समय खाना रहने दो। उठो, चलो पिताजी।" यह कहकर उसने उनका हाथ पकड़कर खड़ा कर दिया।

दोनों सचमुच ही चले जा रहे हैं, देखकर आलोकलता ने अपने को कुछ संभालकर कहा, “जरा रुको। सचमुच ही क्या एक बार भी नहीं सोचा कि नौकरी छोड़ देने पर तुम्हारे परिवार के इतने प्राणी क्या खाएँगे?"

अविनाश ने जवाब देना चाहा, मगर इस बार भी लड़की ने रुकावट डाल दी। वह बोली, “खाने की क्या सचमुच ही तुम्हें फिक्र हो गई है माँ? लेकिन रोना तो नहीं चाहिए। नौकरी छोड़ने पर भी पिताजी को पेंशन मिलेगी और वह भी तीन सौ से कम क्या होगी। बगल वाले मकान के संजीव बाबू साठ रुपए तनख्वाह पाते हैं, खाने वाले उनके यहाँ भी नौ-दस हैं। कितनी बार देख आई हैं, उनके यहाँ का खाना हमारे यहाँ से बुरा नहीं होता। उनका चल रहा है, तो हम तीन-चार जनों का खाना-पहनना नहीं चलेगा?"

माँ के धीरज का बाँध टूट गया। कटु व्यंग्य के स्वर में चिल्ला उठी, "जा भाग मेरी नजरों के सामने से। जब अपना परिवार बसाना, तब गृहस्थीपना दिखाना। मेरी गृहस्थी में दखल दिया तो तुझे घर से निकाल बाहर खड़ा कर दूंगी।"

लड़की ने जरा हँसकर कहा, "अच्छी बात है माँ, वही करो। पिताजी का हाथ पकड़कर मैं चली जाऊँगी। तुम और भैया पिताजी की पेंशन के सारे रुपए लेकर जो चाहो करो, हम कुछ भी नहीं कहेंगे। मैं लड़कियों के किसी स्कूल में नौकरी करके वृद्ध पिताजी का खर्च चला लूँगी।"
माँ आगे कुछ नहीं बोली। देखते-देखते उनकी दोनों आँखों से आँसुओं की धारा बह चली।
लड़की ने पिता का हाथ किंचित् दबाकर कहा, "चलो पिताजी, चलें। सायं का समय हो जाएगा।"

अविनाश के पग बढ़ाते ही आलोकलता आँचल से आँखें पोंछकर, रुंधे गले से बोली, "जरा और रुको। यह तुम्हारी कैसी भीष्म प्रतिज्ञा है? क्या इसमें फेरबदल नहीं होने का?"
अविनाश ने गरदन हिलाकर कहा, "नहीं! ऐसा नहीं होने का।"
"देखो, मैं तुम्हारी स्त्री हूँ, तुम्हारे सुख-दुख की साथिन हूँ।"
अविनाश बाधा देकर बोले, "अगर यह सच है तो इतने दिनों तक मेरे सुखों का हिस्सा मिला है, अब मेरे दु:खों का हिस्सा लो।"
आलोकलता ने कहा, “तैयार हूँ, मगर सारी इज्जत आबरू कायम रखने के लिए इतने रुपए काफी नहीं हैं तो पेंशन के थोड़े से रुपयों से काम कैसे चलेगा?"
अविनाश बोले, "इज्जत-आबरू का मतलब अगर अमीरी-ठाट समझ रखा है तो वह नहीं होने का, मैं इसे मानता हूँ। नहीं तो यों संजीव बाबू का भी चल जाता है।"
"लेकिन तुम्हारी लड़की उन्नीस-बीस की हो गई, उसकी शादी कब करोगे?"

माँ की समस्या का समाधान किया शाश्वती ने, बोली, "माँ! मेरी शादी के लिए तुम चिंता न करो। अगर सोचना ही चाहती हो तो यह सोचो कि संजीव बाबू ने दो बेटियों का ब्याह कैसे किया?"
जवाब सुनकर माँ का धीरज फिर टूटा। सजल आँखें दृप्त हो उठी, रुंधे गले का स्वर पंचम पर पहुँच गया और बोली, "शाश्वती, मुँहजली। मेरी नजरों के सामने से अब क्यों नहीं हटती? जा हट जा, मैं कहे देती हूँ।"
"जाती हूँ माँ! चलो न पिताजी।"

बगल वाले कमरे में हिमांशु कविता करने में लगा हुआ था। आई. ए. परीक्षा के तीसरे प्रयास में अब भी कुछ देर है। उसकी कविताएँ 'वातायन' पत्रिका में छपती हैं। दूसरी कोई पत्रिका नहीं लेती है, वातायन संपादक उत्साहित करते हुए चिट्ठी लिखते हैं, 'हिमांशु, आपकी कविता अच्छी बन पड़ी है। अगली बार एक कविता और भेजें, कुछ छोटी और साथ ही शाश्वती देवी की एक रचना अवश्य ही भेजें।' नहीं जानता, वातायन संपादक सच लिखते हैं या मजाक करते हैं, या उनके मन में कोई दूसरी बात है।

शाश्वती देखकर हँसती हुई कहती है, “भैया, यह चिट्ठी दोस्तों को दिखाते न फिरना।"
"क्यों, बतला तो?"
"नहीं, यों ही कह रही हूँ। अपने मुँह मियाँ मिठू बनते फिरना क्या अच्छा लगता है?"

कविता भेजने के पहले बहिन को पढ़ाने के बहाने अपनी गलतियों को वह सुधार लेता है। संशोधन की मात्रा कुछ अधिक हो जाने पर शरमाकर कहता है, "तेरी तरह मैंने तो पिताजी से संस्कृत, व्याकरण, काव्य, साहित्य नहीं पढ़ा है। मेरा क्या दोष है! लेकिन शाश्वती, तू जान ले, यह कुछ भी नहीं है, दस रुपए महीना पर एक पंडित रख लेने से सबकुछ बन जाता है। कविता का यथार्थ जीवन है कल्पना में, भाव में, उसकी अभिव्यंजना में। वहाँ तेरे मुग्धबोध के बाप की क्या मजाल कि बाधा पहुँचाए।"
"यह बिलकुल सच बात है, भैया।"

हिमांशु की कलम की नोक पर एक अच्छी तुक आ गई थी, लेकिन माँ की कठोर आवाज ने सबकुछ छितरा दिया। कलम रख बगल वाले दरवाजे को ठेलकर इस कमरे में पैर रखते ही माँ चिल्ला उठी, "जानता है हिमांशु, हमारा कितना बड़ा सत्यानाश हो गया। उन्होंने नौकरी छोड़ दी, नहीं तो उनका मनुष्यत्व खत्म हो रहा था। जानता है क्यों? इसलिए कि उनकी जगह कोई दूसरा आदमी सब-जज बन गया है, वे नहीं हो सके। मैं साफ कहे देती हूँ, यह डाह के अलावा और कुछ भी नहीं है, निरी डाह।"
हिमांशु ने अचरज से आँखें फाड़कर कहा, “तुम यह क्या कह रही हो माँ! नौकरी छोड़ दी, व्हाट नॉनसेंस!"

अविनाश का मुँह पीला जर्द पड़ गया। दाँतों तले होंठ चबाकर वह चुप खड़े रहे। आसन्न संध्या की मलिन छाया में उनका चेहरा अनोखा लग रहा था।
शाश्वती पागलों की तरह चिल्ला उठी, "ओफ! संसार में धृष्टता की कोई सीमा भी है! तुम चलो, जल्दी चलो, नहीं तो मैं सिर पीटकर मर जाऊँगी।" कहकर अर्द्ध-अचेत पिता को लेकर वह घर से बाहर चली गई।

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