भाग्य का खेल : तमिल लोक-कथा

Bhagya Ka Khel : Lok-Katha (Tamil)

जिंदगी की दौड़ में वेलायदन भी शामिल हो गया। मैंने उसे छोटा-मोटा कारोबार करते देखा था, जिसमें वह खुश था। शाम को उसकी पत्नी उसके लौटने की बाट जोहती, बच्चे पापा के साथ सैर-सपाटे पर जाते। वे हँसते, गाते, खिलखिलाते, एक दूसरे को प्यार करते जीवन गुजार रहे थे। सीमित आमदनी में असीमित खर्च कभी उनकी खुशियों में बाधक नहीं बना।

फिर उसने एक कारखाना खोला। विस्तार हुआ, मजदूरों की संख्या बढ़ी, साथ में आमदनी भी। जिम्मेदारियाँ भी कई गुना बढ़ीं। अब उसका अधिकतर समय कारखाने में ही लगता। घर पर रहता, तब भी मानसिक रूप से कारखाने में ही होता। बच्चे साथ घूमने की प्रतीक्षा करते, पत्नी मीठे बोलों को तरस गई। सुख-सुविधाएँ, मुक्त हस्त से खर्च करने की सीमा बढ़ गई, पर आपस में प्यार घट गया। रिश्तों से स्नेह की गरमी रिसने लगी। दुनिया की निगाहों में कद बढ़ गया, किंतु सुख घटता गया, छिनता गया।

कभी-कभी वह मेरे पास आता। अपने वैभव के गीत गाता, किंतु मुझे उत्साहित न पाकर सोचता, यही कुछ गलत है, कुछ छूट रहा है। मैं उसकी परेशानी समझता, पर चुप रहता।

अंत में मेरे धैर्य ने मेरा साथ छोड़ दिया। एक दिन मैंने उसे बुलाया और एक छोटी सी कहानी हाथ में थमा दी। वह जाने लगा। मैंने कहा, 'नहीं! यही बैठकर पढ़।' उसने पढ़ा।

तमिल प्रदेश में एक महान् संत थे। एक युवा ब्राह्मण उनके शान की खुशबू से अभिभूत हो उनके पास पहुँचा। संत ने ब्राह्मण के अंदर ज्ञान प्राप्ति की ललक-लौ देखी और अपना शिष्य बना लिया। युवाब्राह्मण अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने पूर्ण निष्ठा से साधना की। शीघ्र ही वह गुरु के मनोनुकूल शिक्षा अर्जित करने लगा। एक दिन गुरु को तीर्थाटन की तीव्र इच्छा हुई। उसने अपनी इच्छा शिष्य के सम्मुख रखी। संत की पत्नी गर्भावस्था में थी। उस पर विशेष ध्यान की आवश्यकता थी।

शिष्य ने सभी उत्तरदायित्व अपने कंधों पर ले लिये। संत तीर्थ यात्रा पर चले गए।

समय आने पर गुरु की पत्नी को प्रसव पीड़ा प्रारंभ हुई। शिष्य कुटिया के बाहर बैठ गया। उसने देखा, एक व्यक्ति उसकी कुटिया की ओर बढ़ा चला आ रहा है। उसने उसे द्वार से पहले ही रोक लिया। आगंतुक ने कहा, मुझे रोको मत । तुम्हारी गुरु-पत्नी की प्रसव वेदना बढ़ रही है।

'पर तुम कौन हो?' शिष्य ने पूछा।

'देखो, अब बालक जन्म लेना ही चाह रहा है, मुझे अंदर जाने दो।'

'किंतु पहले अपना परिचय दो।'

मैं ब्रह्मा हूँ, मुझे शीघ्र ही अंदर पहुँचना चाहिए।'

"लेकिन क्यों?'

'क्योंकि मुझे जन्म लेने वाले बालक का भाग्य लिखना है।'

'तो मुझे बताकर जाओ, क्या लिखने वाले हो उसके भाग्य में?'

'भाग्य मैं नहीं, मेरी यह शलाका लिखती है उसके पूर्व कर्म के अनुसार। इसलिए जब तक यह न लिखे, मैं बता नहीं सकता।'

'ठीक है, तुम अंदर जा सकते हो, लेकिन एक शर्त पर।'

'क्या है वह, जल्दी बोलो?'

'उस नवजात का भाग्य मुझे बताकर जाना।'

'ब्रह्मा ने आश्वासन दिया और लौटकर बताया कि उसकी गुरु-पत्नी ने बालक को जन्म दिया है। इस बालक का कठिन जीवन है। एक गधा और एक बोरी चावल ही उसके भाग्य में लिखा है जीवन-यापन हेतु।'

'फिर ब्रह्माजी ने कहा, "तुम यह बात किसी को मत बताना, वरना बताते ही तुम्हारे सिर के टुकड़ेटुकड़े हो जाएँगे।' यह कहकर ब्रह्माजी चले गए।

कुछ वर्षों तक सब कुछ यथावत् चलता रहा। शिष्य की साधना बढ़ती गई। पुनः गुरुजी को तीर्थाटन की इचछा हुई। इस बार भी उनकी पत्नी गर्भवती थी।

प्रसव का समय आया। फिर ब्रह्माजी प्रकट हुए। लौटते हुए उन्होंने बताया कि इस बार कन्या ने जन्म लिया है। उसके भाग्य में वैश्यावृत्ति लिखी है। शरीर बेचकर ही उसका जीवन-यापन होगा। ब्रह्माजी ने पुनः उसे चेतावनी दी कि वह यह बात भी किसी से न कहे, अन्यथा उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे।

शिष्य ने सोचा, कितने महान् संत की संतान, किंतु भाग्य ऐसा? फिर यह सोचकर मन को संतुष्टि दी कि पूर्व जनमों का कर्मफल भोगना ही पड़ता है।

कालचक्र रुकता नहीं। ब्राह्मण की शिक्षा पूर्ण हुई। वह भ्रमण को निकल गया। वर्ष पर वर्ष बीतते गए। इसी बीच गुरु तथा उनकी पत्नी दोनों परलोकवासी हो गए।

भ्रमण करते-करते एक दिन वह ब्राह्मण एक नगर पहुँचा। उसने देखा, एक युवक गधे पर बोझा ढोकर मजदूरी कर रहा है। शक्ल पहचानी सी लगी। वह युवक के पास गए और गुरु का नाम लेकर पूछा कि वह उनका ही पुत्र है ? युवक संकोच में पड़ा, तब ब्राह्मण ने अपना परिचय दिया। युवक उन्हें अपने घर ले गया।

घर पहुँचकर युवक ने ब्राह्मण को अपनी कठिनाइयों से अवगत कराया। ब्राह्मण ने कहा, 'चूंकि तुम मेरे गुरु के पुत्र हो, मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। पर जैसे मैं कहूँ, वैसा ही करना।' युवक ने हामी भरी। इतने में युवक की पत्नी ने ब्राह्मण के समक्ष जल प्रस्तुत किया।

ब्राह्मण ने कहा, कल प्रातः होते ही तुम अपना गधा बेच आओ और एक बोरी चावल तथा अन्य खाद्य-सामग्री खरीद लाओ। फिर अपने परिवार के लिए, सुबह-शाम मात्र के लिए, चावल रखकर शेष चावलों से यहाँ के उच्च कोटि के सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित कर शाम को भोजन करा दो। लेकिन याद रखना, चावल की बोरी बिल्कुल खाली हो जानी चाहिए। एक दाना भी शेष नहीं रहना चाहिए।

युवक सुनकर चकराया। एक दिन तो गुजारा हो जाएगा, किंतु उसके अगले दिन क्या होगा? ब्राह्मण ने कहा, यह फिक्र छोड़ दो और जैसा मैं कह रहा हूँ, वैसा ही करो। युवक ने अपनी पत्नी से सलाह की। उसकी पत्नी ने कहा, 'तुम्हारे पिता के शिष्य हैं, इसलिए विश्वास करने में हर्ज नहीं। उनके कहे अनुसार करके देख लिया जाए।'

दूसरे दिन प्रातः युवक ने वही किया जो ब्राह्मण ने कहा। शाम को करीब पचास ब्राह्मणों ने भोजन किया, वे तृप्त हुए और युवक को आशीर्वाद दिया। अब घर में न तो चावल था, न गधा ही, जिसके सहारे जैसे-जैसे आजीविका चल रही थी। युवक को इस चिंता में नींद ही नहीं आई। वह बाहर सो रहे ब्राह्मण के पास पहुंचा और कहा, तुमने जैसा कहा, मैंने किया। अब कल क्या होगा? मेरे बीबी-बच्चे भूखे रह जाएँगे।

ब्राह्मण ने कहा, 'ईश्वर पर भरोसा रख। जाकर सो जाओ।'

लेकिन उसे नींद कहाँ? भोर से पहले ही उठ गया। सीधे गधा बाँधने के स्थान की ओर चला। फिर रास्ते में ही रुक गया, यह सोचकर कि गधा तो उसने कल बेच दिया था। अब वहाँ कौन होगा? लेकिन जैसे ही लौटने लगा, उसे लगा वहाँ कोई है। क्योंकि अँधेरा था, स्पष्ट दिख नहीं रहा था। वह घर आ गया। मुँह धोया और दीपक लेकर वापस लौटा तो देखा, खूटे पर गधा बँधा है और उसके पास ही चावल का एक बोरा रखा है।

उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने तुरंत ब्राह्मण को जाकर बताया। ब्राह्मण खुश हुए कि उनकी तरकीब काम आ गई। उसने उस युवक से कहा, 'आज भी वैसा ही करो, जैसा कल किया था।'

युवक पसोपेश में पड़ा। ब्राह्मण ने कहा, मेरा कहा मानने में क्या आपत्ति? युवक ने फिर से वैसा ही किया। अब वह हर रोज गधा बेच देता और ब्राह्मणों को भरपेट भोजन कराकर चावल की बोरी खाली कर देता। ब्राह्मण ने देखा और सोचा, वह जो चाहता था, वैसा ही हो रहा है। ब्राह्मणों को भोजन कराकर युवक अपने पूर्व कर्मों का न केवल फल काट रहा है अपितु अगले जन्म के लिए पुण्य भी अर्जित कर रहा है। अब उसका जीवन स्थिर हो रहा है, अतः मुझे चलना चाहिए।

उसने युवक से अपने प्रस्थान के बावत कहा और उसकी बहन के बारे में पूछा। युवक पहले तो सकुचाया, फिर उस नगर का नाम बताकर पता दे दिया, जहाँ वह वेश्यावृत्ति करके अपना जीवन-यापन कर रही थी।

युवक के अंतर्मन ने उससे कहा, अब शायद, तुम्हारी बहन का जीवन भी सुधर जाए।

ब्राह्मण ने कहा, ठीक है, मैं चलता हूँ, लेकिन देखो, जैसे मैंने कहा है, जीवन-भर ऐसा ही करते चलना, कोई कठिनाई नहीं होगी जीवन में।

युवक और उसकी पत्नी ने श्रद्धापूर्वक उसे प्रणाम किया। ब्राह्मण अब उस नगर की ओर चल पड़ा, जहाँ उसकी गुरु पुत्री अभिशप्त जीवन जीने को विवश थी।

वह गुरु पुत्री से मिला और उसे अपना परिचय दिया। उसने लज्जापूर्वक ब्राह्मण को अपनी कहानी द्वारा बताया कि कैसे विवश होकर उसे यह वृत्ति अपनानी पड़ी।

ब्राह्मण ने कहा, मैं तुम्हारी सहायता करने आया हूँ। मैं जैसे कहूँ, यदि तुम वैसे ही करोगी तो तुम्हें यह वृत्ति नहीं करनी पड़ेगी और तुम्हें पति तथा प्रेमी के रूप में ईश्वर की प्राप्ति होगी।

उसने स्वीकार किया। रात में जब लोगों ने उसका द्वार खटखटाया तो उसने कहा, 'जो व्यक्ति स्वाति की बूंदों से बने मोती लेकर आएगा, दरवाजा उसी के लिए खुलेगा।' यह सुनकर लोग हैरान रह गए। उन्होंने कहा, 'या तो इसका दिमाग फिर गया है या पगला गई है। कौन लाएगा मोती? भूखों मरेगी भूखों।' यह कहकर सब लौट गए।

आहिस्ता-आहिस्ता रात अंतिम प्रहर की ओर चली। गुरु-पुत्री भी निराश सी हो गई कि रात्रि को अंतिम प्रहर में द्वार की साँकल बज उठी। उसने अपनी कीमत बताई। बाहर से उत्तर आया, 'द्वार खोलो। मैं मोती लेकर आया हूँ।' गुरु-पुत्री खुश हो गई और उसने द्वार खोल दिया।

अब अन्य कोई नहीं आता उसके द्वार। रात के अंतिम प्रहर वही सुदर्शन युवक मोती लेकर आते, जो शैन:-शैनः उसके पति तथा प्रेमी के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।

एक रात उसने गुरु पुत्री से कहा, अब मैं चलता हूँ। मेरा काम पूरा हो गया और तुम्हारा जीवन भी सुधर गया है। पति और प्रेमी के रूप में तुम्हें ईश्वर मिला है। लेकिन याद रखना, मैंने जैसा कहा है, वैसा ही करती रहोगी तो जीवन में फिर बीते दिन देखने को नहीं मिलेंगे।

उसने कृतज्ञतापूर्वक स्वीकारोक्ति दी।

नगर के बाहर ब्राह्मण ने देखा, एक व्यक्ति एक हाथ में गधे की डोर थामे दूसरे में एक डोलची लिये तथा सिर पर चावलों की बोरी लिये तीव्र गति से चला जा रहा है। ब्राह्मण ने उसे रोका और पूछा, 'भाई कौन हो? और यह सब लिये किधर जा रहे हो?'

ब्रह्माजी ने उस ब्राह्मण को पहचान लिया और बोले, 'मैं ब्रह्मा हूँ, देखो, तुमने मेरी क्या हालत बना दी है। पहले चावलों की बोरी और यह गधा तुम्हारे गुरु-पुत्र के यहाँ रोज रात को पहुंचाता हूँ और फिर नहा-धोकर यह मोती की डोलची लेकर रात के अंतिम प्रहार तक गुरु-पुत्री के यहाँ पहुँचता हूँ अभिसार के लिए।'

'तो इसमें मेरा क्या दोष? भाग्य तो आपने ही लिखा है उन दोनों का।'

'किंतु तुमने अपनी चतुराई से उस भाग्य को मात दे दी न। अब कृपया, मुझे बख्शो। देखो, चावल की बोरी ढोते-ढोते मैं गंजा हो चला हूँ।'

'तो मैं क्या करूँ? सबकुछ तुम्हारे हाथ में है। पूर्व जन्म के कर्म बंधन अब तक तो कट गए होंगे। दोनों को सुखमय जीवन प्रदान कर दो, तुम्हारे कष्ट भी दूर हो जाएंगे।'

ब्रह्माजी ने प्रसन्नतापूर्वक उसकी बात मान ली।

क्या पढ़ कर उसने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी ओर। शैन:-शैनः उसकी आँखों की स्वाभाविक चमक लौटने लगी, जो आपा-धापी में जाने कहाँ खो गई थी!

वेलायदन सोचने लगा कि आखिर इस दौड़ का अंत कहाँ है, और इसका गंतव्य क्या है ? मनुष्य सुकर्म करे तो जितना लिखा है उसके भाग्य में, वह तो उसे अवश्य ही मिलेगा। इस कथा की भी यही शिक्षा है। फिर आडंबर भरा यह वैभवशाली जीवन, संतोष-सुख और नेह की कीमत पर क्यों?

(साभार : डॉ. ए. भवानी)

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