बहन लोमड़ी, भाई भेड़िया : यूक्रेन लोक-कथा

Behan Lomdi, Bhai Bhedia : Lok-Katha (Ukraine)

एक लोमड़ी थी । उसने अपने लिए झोंपड़ी बनाई और उसमें रहने लगी । जाड़े का मौसम था । लोमड़ी का ठंड के मारे बुरा हाल था । ठण्ड से थर-थर कांपने लगी। वह गांव में अपने चूल्हे के लिए आग लेने गई । लोमड़ी ने एक बूढ़ी औरत के पास आकर कहा :

"दादी मां, नमस्ते ! मुझे अपने चूल्हे से थोड़ी-सी आग दे दो। कभी अवसर आने पर इस उपकार का बदला चुका दूंगी ।"

"लोमड़ी बहन, बैठ जाओ, जरा सुस्ता लो, आग ताप लो । तब तक मैं कचौड़ियां बना लूं ।"

बुढ़िया खसखस की कचौड़ियां बना रही थी। उन्हें चूल्हे से उतार-उतारकर मेज पर रखती जा रही थी। लोमड़ी ने ताजी कचौड़ियों पर एक ललचाई नजर डाली और एक बड़ी-सी कचौड़ी चुपके से उठाकर भाग गई। उसने कचौड़ी के भीतर भरे हुए खसखस के दाने बीन - बीनकर खा लिए और उसके अंदर भूसा भर दिया । फिर भागती हुई अपनी राह चल दी ।

वह दौड़ी चली जा रही थी कि रास्ते में उसे चरवाहे छोकरे मिले । वे गायों के झुण्ड को पानी पिलाने के लिए नदी की तरफ़ हांककर ले जा रहे थे ।

"नमस्ते, छोकरो ! "

"नमस्ते लोमड़ी दीदी !"

"यह कचौड़ी ले लो, बदले में एक बछड़ा दे दो ।"

"मंजूर है," लड़कों ने कहा ।

"लेकिन इसे अभी न खाने लगना, जब मैं गांव से चली जाऊं, तभी इसे खाना।"

खैर, अदला-बदली हो गई । लोमड़ी ने बछड़े की रस्सी थामी और झट से जंगल की तरफ़ भाग निकली।

लड़के कचौड़ी खाने लगे तो देखा कि वहां भूसा ही भूसा भरा हुआ है ।

उधर लोमड़ी झट से अपनी झोंपड़ी पर पहुंची। उसने पेड़ काटा और अपने लिए बर्फ पर चलनेवाली स्लेज गाड़ी बनाई । उसमें बछड़े को जोतकर चल दी ।

तभी एक भेड़िया उधर निकल आया ।

"लोमड़ी बहन, नमस्ते !"

"भेड़िये भाई, नमस्ते !"

"अरे, यह बछड़ेवाली स्लेज गाड़ी कहां से मिल गई ?"

"मैंने इसे खुद बनाया है। "

"मुझे भी अपनी स्लेज पर बिठा लो ।"

"तुम्हें कहां बिठाऊं ? तुम तो मेरी गाड़ी ही तोड़ दोगे ।"

"नहीं, मैं तुम्हारी गाड़ी पर बस एक पैर टिका लूंगा ।"

"ठीक है, रख लो।"

थोड़ा आगे चलने के बाद भेड़िये ने कहा :

"लोमड़ी बहन, क्या में दूसरा पैर भी रख लूं ?"

"भाई, तुम तो मेरी गाड़ी तोड़ डालोगे !"

"नहीं, बहन तुम्हारी गाड़ी टूटेगी नहीं ।"

"ठीक है, दूसरा पैर भी रख लो।"

भेड़िये ने अपना दूसरा पैर भी स्लेज गाड़ी पर रख लिया । इस तरह दोनों चलते रहे, चलते रहे ।

अचानक चरचराने की तेज़ आवाज हुई।

"भाई, तुम तो मेरी स्लेज ही तोड़े दे रहे हो !"

"नहीं, लोमड़ी बहन, यह तो मैं दांत से अखरोट फोड़ रहा हूं ।"

"देखो, जरा ध्यान रखना ! "

फिर वे आगे चल दिए ।

"लोमड़ी बहन, क्यों न मैं तीसरा पैर भी रख लूं ?"

"कहां पैर रखोगे ? स्लेज टूट जाएगी। तब मैं लकड़ी किस पर ढोऊंगी ! "

"नहीं, बहन, गाड़ी को कुछ नहीं होगा ।"

"अच्छा, तो पैर रख लो !"

भेड़िये ने तीसरा पैर भी स्लेज गाड़ी पर रख लिया । फिर चरचराने की तेज आवाज हुई।

"अरे, तोबा !" लोमड़ी बोली । "भाई, अब तुम मेहरबानी करके उतर जाओ। तुम मेरी गाड़ी का कचूमर निकाल दोगे !"

"अरे, बहन, तुम नाहक परेशान होती हो। मैंने तो दांत से अखरोट फोड़ा है।"

"लाओ, मुझे भी दो !"

"खतम हो गया। बस आखिरी बचा था।"

फिर वे आगे चलते रहे चलते रहे ।

"लोमड़ी बहन मुझे अब अपनी गाड़ी पर बैठ ही जाने दो!"

"तुम्हीं बताओ, कहां बैठोगे ? वैसे ही मेरी गाड़ी चरचरा रही है। अब क्या उसे तोड़कर ही मानोगे ? "

"मैं बस हौले से बैठूंगा !"

"ठीक है, तुम्हीं जानो !"

बस, फिर क्या ! भेड़िया जैसे ही बैठा, स्लेज गाड़ी चरचराकर टूट गई । लोमड़ी ने उसे खूब बुरा-भला कहा । जब उसे कोस-कोसकर थक गई तो बोली :

"जाओ, लकड़ियां चीरकर लाओ और नई स्लेज के लिए पेड़ गिराओ । और उसे ढोकर यहां लाओ । "

"मैं पेड़ कैसे गिराऊंगा, मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि स्लेज के लिए कैसी लकड़ी चाहिए ?"

"तो यह बात है, स्लेज तोड़नी तुम्हें आती है, पर लकड़ी का इन्तजाम करने में तुम्हारी अक्ल चरने चली गई । "

फिर उसे पहले की तरह कोसने लगी । जब कोस-कोसकर खूब थक गई तो बोली :

"हां, तो सुनो, जंगल में पहुंचने के बाद यह कहना : "खुद कटकर गिर जाए पेड़, सीधा पेड़, टेढ़ा पेड़ ! खुद कटकर गिर जाए पेड़, सीधा पेड़, टेढ़ा पेड़ !"

यह सुनकर भेड़िया वहां से चल दिया ।

जंगल में पहुंचने के बाद वही बातें दोहराने लगा जो लोमड़ी ने बताई थीं :

"खुद कटकर गिर जाए पेड़, टेढ़ा पेड़, टेढ़ा पेड़ ! खुद कटकर गिर जाए पेड़, टेढ़ा पेड़, टेढ़ा पेड़ ! "

और पेड़ कटकर गिर पड़ा। पेड़ भी क्या था - टहनियां ही टहनियां। एक सीधी छड़ी तक न बने ऐसे पेड़ से - स्लेज की पटरियों की तो बात ही दूर रही ।

ऐसा पेड़ भेड़िया उठा लाया था। उसे देखते ही लोमड़ी आग-बबूला हो उठी । फिर क्या ? शुरू हो गया उसे डांटने-फटकारने का नया दौर :

"अरे, अक्ल के दुश्मन तुझे जैसा मैंने बताया था, उसे तूने सही-सही न दोहराया होगा !"

"मैंने तो, लोमड़ी बहन वहां खड़े होकर यही दोहराया था :"खुद कटकर गिर जाए पेड़, टेढ़ा पेड़, टेढ़ा पेड़ ! "

"मैं पहले ही जानती थी !"

"भाई, तुम तो निरे काठ के उल्लू हो ! बैठ जाओ यहां, अभी मैं खुद पेड़ काटकर लाती हूं। और वह जंगल की ओर चल दी । "

भेड़िये को बैठे-बैठे भूख लग आयी। उसने लोमड़ी के घर को छान मारा वहां खाने के लिए कुछ न था । भेड़िया सोचता रहा, जुगाड़ बैठाता रहा ...

"आओ, फिर बछड़े को ही मारकर खा डालें और यहां से रफू- चक्कर हो जाएं ।"

भेड़िये ने बछड़े की बग़ल में एक सुराख बनाया और अन्दर ही अन्दर उसे खाकर खोखला कर दिया। बीच की खाली जगह में उसने गौरैयां भर दीं और सूराख को फूस से ढंक दिया। और खुद नौ दो ग्यारह हो गया।

घर लौटकर लोमड़ी ने नई स्लेज बनाई और उसमें बैठकर बोली :

"चल रे, बछड़े, चल ! "

लेकिन बछड़ा अपनी जगह से न हिला । लोमड़ी ने उसे चाबुक मारा ... चाबुक मारते ही फूल का गुच्छा बाहर गिर पड़ा और फुर्र-फुर्र करती गौरैयां उड़ गई।

"अरे, शैतान कहीं के! देखना कैसा सबक सिखाती हूं तुझे ! "

लोमड़ी जाकर रास्ते में लेट गई। थोड़ी देर में मछेरे अपनी गाड़ी पर मछलियां लादे उधर से निकले। उन्हें आता देखकर लोमड़ी ने अपनी सांस रोक ली, जैसे कि मर गई हो । मछेरों ने रास्ते में लोमड़ी को पड़ी देखा तो बोले :"इसे भी गाड़ी में डाल लेते हैं। बेच देंगे अच्छे पैसे मिल जाएंगे ! लोमड़ी को गाड़ी में डालकर वे आगे बढ़ लिए। वे चलते रहे, चलते रहे। इस बीच लोमड़ी ने एक- एक करके मछलियां फेंकनी शुरू कर दीं। जब ढेर सारी मछलियां फेंक चुकी तो खुद भी चुपके से खिसक ली। मछेरे अपनी गाड़ी हांकते हुए बढ़ते चले गए। इधर लोमड़ी ने सारी मछलियों को बटोरकर एक ढेर बनाया और मजे से उन्हें खाने बैठ गई ।

इसी बीच वह भेड़िया भागता हुआ आया :

"नमस्ते लोमड़ी बहन !"

"नमस्ते, भेड़िये भाई ! "

"यहां तुम क्या कर रही हो, लोमड़ी बहन ?"

"देखते नहीं, मछलियां खा रही हूं। "

"मुझे भी दो न !"

"जाओ, खुद ही मछलियां पकड़ लाओ ।"

"पर मुझे तो मछलियां पकड़ना नहीं आता ।"

"नहीं आता तो मैं क्या करूं? मैं तो तुम्हें एक छोटा टुकड़ा तक न दूंगी !"

"अच्छा, तो मछली पकड़ना ही सिखा दो !"

और लोमड़ी ने मन में सोचा : "ठहर जरा ! तूने मेरा बछड़ा मार डाला । अब मैं तुझे बढ़िया - सा इनाम दूंगी !"

"तुम नदी पर जाओ, वहां लोगों ने पानी निकालने के लिए जो सूराख बना रखा है उसमें अपनी दुम लटका दो और वहीं बैठ जाओ। फिर धीरे-धीरे दुम हिलाते हुए यह कहते जाओ :"छोटी-बड़ी मछलियां आएं, मेरी दुम में फंसती जाएं ! छोटी-बड़ी मछलियां आएं, मेरी दुम में फंसती जाएं ! बस यही बार-बार दोहराते रहना, मछली तुम्हारी दुम में फंस जाएंगी। "

"ऐसी बढ़िया तरकीब सुझाने के लिए धन्यवाद," भेड़िये ने कहा ।

झटपट भेड़िया नदी किनारे पहुंचा और बर्फ से जमी नदी पर सूराख ढूंढा और उसमें अपनी दुम लटकाकर मजे से बैठ गया । इस तरह धीरे- धीरे दुम हिलाता हुआ लोमड़ी का सिखाया पाठ दोहराने लगा :"छोटी-बड़ी मछलियां आएं, मेरी दुम में फंसती जाएं! छोटी-बड़ी मछलियां आएं, मेरी दुम में फंसती जाएं!" लोमड़ी सरकंडे के पीछे से यह रट लगाती जा रही थी : ढम- ढम ढम, भेड़िये की दुम जाए जम- जम-जम ! जाड़ा तो कड़ाके का था ही, सब कुछ जमा जा रहा था । "

मछली पकड़ने के लालच में भेड़िये ने अपनी रट जारी रखी : "छोटी-बड़ी मछलियां आएं, मेरी दुम में फंसती जाएं !" लोमड़ी दूसरी ही रट लगा रही थी : "ढम-ढम-ढम, भेड़िये की दुम जाए जम-जम-जम !"

इस तरह भेड़िया सुराख में दुम डाले बैठा रहा । लोमड़ी की चाल सफल हुई। आखिर सूराख का पानी भी जम गया और उसमें भेड़िये की दुम जकड़ गई।

तब लोमड़ी भागकर गांव पहुंची :

"अरे, लोगो, भेड़िया आया रे ! अरे, मारो भेड़िये को रे !"

गांव के लोग बल्लम, लाठियां और कुल्हाड़े लेकर नदी की ओर भागे। उन सबने मिलकर भेड़िये को मार डाला । लोमड़ी आज भी मजे से अपनी झोंपड़ी में रह रही है ।

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