Barahkhamba (Hindi Novel) : Agyeya

बारहखम्भा (उपन्यास) : अज्ञेय

बारहखम्भा (उपन्यास) : भूमिका

मुखपृष्ठ पर 'बारहखम्भा' को एक 'उपन्यास-प्रयोग' कहा गया है। एक हद तक तो उसकी प्रयोगधर्मिता मुखपृष्ठ से ही स्पष्ट हो जाएगी जहाँ उन लेखकों के नाम भी दिये गये हैं जिन्होंने इस (उस समय तक अनूठे) सहकारी अनुष्ठान में भाग लिया। लेकिन सहकारिता का प्रयोग इतने तक सीमित नहीं था कि उपन्यास का एक-एक अंश एक-एक व्यक्ति लिखेगा। प्रयोग में अनिवार्यतया यह जिज्ञासा भी शामिल थी कि पूरा उपन्यास यदि एक कलाकृति है तो उसमें योग देने वाले प्रत्येक लेखक के सामने यह प्रश्न भी रहेगा ही कि जहाँ से वह कथासूत्र उठाता है वहाँ तक की कथा का आभ्यन्तर तर्क क्या बनता है, संरचना के उतने अंश की कलात्मक माँग होती भी है; या कहीं से भी आगे कहानी को मनमानी दिशा में ले जाया जा सकता है? 'मनमानी' तो वह हर हालत में होती ही है -लेकिन कलाकार का कला-विवेकी मन जो मानता है वह कहाँ तक उसके विकल्पों को मर्यादित करता है?

समस्या को रूपायित करने के लिए हम एक दूसरे क्षेत्र का उदाहरण ले सकते हैं। एक अधूरा बना हुआ मकान सामने पा कर कोई स्थपति क्या उसमें जैसे-तैसे कमरे और मंजिलें जोड़ता हुआ चल सकता है? क्या किसी भी चरण में एक 'दिया हुआ' नक्शा उसे एक साथ ही दिशा-संकेत भी नहीं देता और उपलब्ध विकल्पों की सीमा भी नहीं बाँध देता? रचनात्मक प्रतिभा के लिए विकल्प तो निश्चय ही और हर चरण में रहते हैं, लेकिन उनके स्वरूप का निर्धारण पहले का रचा हुआ भी होता है और पहले के रचनाकारों की भविष्य-कल्पना भी हुआ करती है।

प्रयोग की योजना बनाते समय यह माना गया था कि उपन्यास-रचना का यह पक्ष प्रयोग में भाग लेने वाले सभी उपन्यासकारों के लिए तो रोचक होगा ही, पाठकों के लिए भी लगातार दिलचस्पी का कारण बना रहेगा। और प्रयोग पूरा हो जाने के बाद उपन्यास लिखना चाहने वाले दूसरे लेखक भी प्रयोग को दिलचस्पी के साथ पढ़ेंगे और उपन्यास की विधा को, उसके शिल्प को और समग्र रूप-रचना की सभी समस्याओं को समझने के लिए उपयोगी पाएँगे। ऐसा समझा गया था कि यह प्रयोग आलोचक के लिए भी उपयोगी होगा - न केवल उपन्यास-विधा के सैद्धान्तिक विवेचन में बल्कि - और शायद उससे अधिक - प्रयोग में भाग लेने वाले उपन्यासकारों की विशेष प्रवृत्तियों को समझने में भी।

मूल योजना में उपन्यास बारह किस्तों में लिखा जाने वाला था - बारह इसलिए कि प्रतिमास एक किस्त प्रकाशित करते हुए एक वर्ष में योजना पूरी हो जाती। इसीलिए उसका नाम भी 'बारहखम्भा' सोच लिया गया था। मूल योजना में जिन लेखकों ने उसमें भाग लेना स्वीकार किया था, प्रयोग के चलते उनमें से कुछ उससे अलग हो गये। प्रतिमास एक अध्याय छपता रहे, इसकी जिम्मेदारी प्रयोग के संयोजक से अधिक मासिक-पत्र (प्रतीक) के सम्पादक पर आ गयी थी और इसलिए बीच में एक बार पहले अध्याय के लेखक को फिर एक अध्याय लिखना पड़ा। इसके बावजूद 'बारहखम्भा' का बारहवाँ खम्भा यथाक्रम खड़ा नहीं हुआ क्योंकि प्रतीक का प्रकाशन ही स्थगित हो गया।

प्रयोग सफल हुआ या कि असफल? अधूरे उपन्यास के आधार पर भी इस प्रश्न का उत्तर खोजा जा सकता था; और उत्तर दिया भी गया। पाठकों की अटूट दिलचस्पी तो एक कसौटी थी ही; दूसरी कसौटी यह रही कि उसके बाद ऐसे प्रयोग और भी हुए। तीसरी कसौटी इसे भी माना जा सकता है कि उस अधूरे प्रयोग के दसियों और बीसियों बरस बाद प्रतीक की पुरानी फाइलों के पाठकों की ओर से यह माँग उठती रही कि बारहवीं किस्त भी पूरी करके उपन्यास को पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया जाए। ऐसा ही आग्रह कारण बना कि बारहवीं किस्त भी उसी व्यक्ति को लिखनी पड़ी जिसने पहला अध्याय लिखा था। यों तो यह युक्तिसंगत भी है कि जिसने संरचना की नींव डाली थी वही उसे पूरा भी करे; लेकिन यहाँ इस युक्ति को 'आवश्यकता का तर्क' मान लेना ही उचित होगा - मूल योजना ऐसी नहीं थी। अब बारह किस्तों अथवा अध्यायों में पूरा किया गया यह उपन्यास पाठकों के सामने है। पहला, छठा और बारहवाँ अध्याय एक ही व्यक्ति द्वारा लिखा गया; इस प्रकार प्रयोग में केवल दस व्यक्तियों ने भाग लिया। अब पूरे उपन्यास को सामने रखकर पाठक चाहे तो एक बार फिर प्रयोग की सफलता-असफलता का प्रश्न उठा सकता है। उसमें उसकी रुचि न हो तो वह रचनाकारों की नाम-सूची एक तरफ रख कर उपन्यास को केवल उपन्यास की नजर से ही देख सकता है।

प्रयोग की सफलताओं में इसे नहीं गिनाऊँगा कि बारह किस्तें पूरी तो हुईं - वैसा तो उसे असफल मानते हुए भी किया जा सकता था! न ही आज यह बात विशेष महत्त्व की जान पड़ती है कि वैसे प्रयोग और भी हुए - वैसा भी असफलता के बावजूद हो सकता है। बल्कि अब भी कोई पत्रिका ऐसा प्रयोग कर सकती है। एक बिल्कुल ही असम्बद्ध क्षेत्र से फिर एक उदाहरण लें (यद्यपि प्रयोग को एक क्रीड़ा मानकर हम सीधा सम्बन्ध भी जोड़ सकते हैं, और मैं तो उन लोगों में से हूँ जो क्रीड़ा अथवा लीलाभाव को साहित्य-रचना का ही नहीं, संस्कृति के विकास का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं।) कह सकते हैं कि जैसे क्रिकेट में 'वेस्टइण्डीज बनाम शेष दुनिया' के आयोजन में असल सवाल यह नहीं रह जाता है कि टीम में किन-किन को सम्मिलित किया जाएगा, उसी तरह आज भी ऐसा एक सहप्रयोग हो सकता है जिसका मुख्य आकर्षण यही होगा कि कौन-कौन उसमें सम्मिलित हो सकते हैं या हो रहे हैं।

लेकिन सफलता की जो दूसरी कसौटियाँ हैं वे सर्वकालिक हैं। उपन्यास बना कि नहीं बना? प्रत्येक अध्याय का उसमें क्या योग रहा? वह लगातार आगे बढ़ता रहा या नहीं? उपन्यास का आगे बढ़ना क्या केवल घटनाओं में घटना जुड़ते चले जाना ही है या कि इसके अलावा कोई अमूर्त संरचना भी होती है जो आगे बढ़ती है? उस दृष्टि से क्या बारहों अध्याय प्रवाह में योग दते हैं या कोई अध्याय केवल भँवर पैदा करता है? धारा को समग्रता में देखने पर भँवर ऐसे भी हो सकते हैं जो गति का ही एक रूप हों - लेकिन ऐसे भी हो सकते हैं कि धारा से कट जायें और गति का मिथ्या आभास देते रहें।

किस्तों की रचना के दौरान कम-से-कम एक बार ऐसी जिच की अवस्था आयी भी थी। आरम्भ में जो योजना बनी थी उसके अनुसार छठी किस्त चन्द्रगुप्त विद्यालंकार द्वारा लिखी जाने को थी। क्रम लेखकों से पूछकर उनकी सुविधा को ध्यान में रखते हुए ही बनाया गया था और छठी किस्त के लिए चन्द्रगुप्त जी की स्वीकृति थी। लेकिन ठीक समय पर उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की - बल्कि लिखने से इनकार किया। इसीलिए योजना को चालू रखने के लिए एक आपातिक व्यवस्था की गयी और छठा अध्याय भी अज्ञेय द्वारा लिखा गया।

चन्द्रगुप्त जी ने जिन कारणों से असमर्थता प्रकट की थी वे उस समय अप्रासंगिक नहीं थे और शायद पूरे उपन्यास के एक प्रयोग के रूप में मूल्यांकन में आज भी उनकी प्रासंगिकता है। उस समय चन्द्रगुप्त जी ने उपन्यास की तब तक की प्रगति पर अपना असन्तोष प्रकट करते हुए यह मन्तव्य दिया था कि जिस वर्ग के जीवन का चित्र सहभागी लेखक खींच रहे हैं उसकी यथार्थता से वे परिचित नहीं हैं, फलतः वर्णन अस्वाभाविक हो गया है। उस चरण में आ कर स्थिति का सुधार असम्भव मान कर उन्होंने राय दी थी कि धारावाहिक उपन्यास के प्रयोग को बन्द कर दिया जाए - प्रयोग को असफल मान लिया जाए।

चन्द्रगुप्त जी की आलोचना से बहुत दूर तक सहमत होते हुए भी प्रतीक सम्पादक ने योजना को आगे बढ़ाया, क्योंकि प्रयोग का उद्देश्य केवल इतना तो नहीं था कि एक ऐसा उपन्यास बन जाए जिसकी घटनाओं की यथार्थता पर पाठक की प्रतीति हो सके। उद्देश्यों में यह भी तो था कि देखा जाए, परिस्थिति को कौन, कैसे सँभालता है, कैसे किसी स्पष्ट होते हुए लक्ष्य की ओर ले जाता है। जैसा उस समय प्रतीक सम्पादक ने छठी किस्त के आरम्भ में दी गयी टिप्पणी में लिखा था:

"इस प्रकार के साझे के खेल में टीम के सदस्यों को पूरा अवसर मिलना चाहिए; कोई गिरता-पड़ता भी चले तो दूसरों को सँभालना चाहिए। खेल में खिलाड़ियों को भी रस मिलता है और खेल देखने वालों को भी - और उन्हें खिलाड़ियों की हार में भी रस मिलता है। खेल में एक पक्ष तो हारेगा ही, इसलिए वह न खेले, इस तर्क को किस टीम ने माना और किस दर्शक ने उसका अनुमोदन किया? यह भी जान पड़ता है कि इस प्रकार के प्रयोगों से लेखकों की विशेष रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ और गुण-दोष भी किसी हद तक प्रकट होते हैं, हिन्दी के औपन्यासिक कृतित्व की अवस्था का प्रतिबिम्बन होता है। यह भी उसका एक महत्त्व है और इस दृष्टि से प्रयोग के एक पहलू की असफलता एक दूसरे पहलू की सफलता है।"

इस प्रकार उपन्यास आगे बढ़ता रहा। बारहवीं किस्त उसी क्रम में यथासमय प्रकाशित नहीं हुई तो उसके कारण दूसरे थे, जिनका उल्लेख हो चुका है। बीच की अवधि में पाठकों के जो भी पत्र आते रहे थे वे इस बात का स्पष्ट संकेत करते थे कि वह समुदाय बड़ी दिलचस्पी से प्रयोग का अनुसरण कर रहा है।

अब बारहवीं किस्त समेत पूरा उपन्यास पाठकों के सामने है। सम्पादक का यह विश्वास अब भी बना हुआ है कि यह उपन्यास (और यह प्रयोग) पाठकों के लिए अत्यन्त रोचक होगा; और इतना ही नहीं, उपन्यास की विधा के सभी अध्येताओं के लिए (इनमें उपन्यास-लेखक भी शामिल हैं) अत्यन्त उपयोगी होगा। दूसरे शब्दों में, सम्पादक की राय में प्रयोग सफल, रोचक और उपयोगी सिद्ध हुआ। रही उपन्यास की सफलता की बात; अगर प्रयोग की इस त्रिविध सफलता को स्वीकार कर लिया जाए और उसके साथ ही उपन्यास अन्त तक पठनीय रहे - पाठक की उत्कंठा को बनाये रखता चले - तो उसे उपन्यास की भी सफलता मान लेना चाहिए। कथावस्तु की सामाजिक मूल्यवत्ता का निर्धारण इससे अलग विषय है। हो सकता है कि चन्द्रगुप्त जी द्वारा उठाई गयी आपत्ति आज भी सही जान पड़े। दूसरी ओर यह भी अपने आपमें एक रोचक और उपयोगी जानकारी हो सकती है कि छठे दशक के आरम्भ के उपन्यासकार उस सामाजिक यथार्थ के बारे में कितना कम जानते थे जिसके बारे में वे लिख रहे थे! और इन उपन्यासकारों में वे भी थे जो अपने को सामाजिक यथार्थवादी आदि भी कहते थे और वे भी थे जिन पर परवर्ती आलोचकों ने रोमांटिक अथवा कलावादी इत्यादि होने का आरोप लगाया।

इस रोचक प्रयोग को पाठकों, आलोचकों और उपन्यास-विधा के इतिहासकारों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता है।

- सच्चिदानन्द वात्स्यायन

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-1

हेमचन्द्र ने कुछ प्रत्यक्ष विस्मय और कुछ अप्रत्यक्ष उदासीनता के साथ मुड़ते हुए कहा, “तुम लौट आयीं?”

श्यामा ने कुछ मान-भरे स्वर में कहा, “मैं अकेली नहीं जा सकती, तुम मुझे पहुँचा कर आओ।”

हेमचन्द्र ने बड़ी विवशता से दोनों हाथ उठाये और गिर जाने दिये। बोला, “श्यामा जी, मैं एक बार क्या दस बार पहुँचा आता, पर आप देख तो रही हैं कि गाड़ी चल नहीं रही है” - और उसने एक स्थिर दृष्टि से सामने रुकी हुई गाड़ी की ओर देखा।

श्यामा ने भी स्थिर दृष्टि से एक लम्बे क्षण तक हेमचन्द्र की ओर देखा। फिर बोली, “जब चल नहीं रही है, तो तय है कि भाग नहीं जाएगी। क्या आप इसे छोड़ कर मुझे ताँगे में नहीं पहुँचा आ सकते?”

“हाँ, सो तो सकता हूँ” - हेमचन्द्र ने कुछ सोचते-से, और कुछ आहत से स्वर में कहा; मानो कहना चाहता हो कि हाँ, यह सम्भावना तो जरूर है, पर बुद्धिमानी शायद नहीं है; बहरहाल ऐसी उल्टी बात के अलावा और स्त्री-बुद्धि सोच क्या सकती है! फिर सँभल कर बोला, “अच्छा, चलिए मैं पहुँचा आता हूँ।”

अब की बार श्यामा ने रुखाई से कहा, “अब रहने दीजिए, हेम बाबू, जैसे इतने दिन बिना किसी के पहुँचाये पहुँचती रही हूँ, वैसे ही आज भी पहुँच जाऊँगी। यह स्त्री का दुर्भाग्य है कि वह पुरुष का सहारा आवश्यक मानती है, नहीं तो वह भी कोई सहारा है!”

“तो आप लड़ कर ही रहेंगी? कह तो रहा हूँ, चलिए पहुँचा आता हूँ - ऐ, ताँगा!” हेमचन्द्र ने हाथ के इशारे से ताँगा बुलाया।

ताँगा पास आते ही श्यामा उसमें सवार हो गयी। बैठने से पहले ही, ताँगे पर पाँव रख कर सवार होने के लिए हाथ बढ़ाते-बढ़ाते ही बोली, “चलो पहाड़गंज - “

हेमचन्द्र भौंचक-सा देखता रहा। ताँगेवाले ने आदेश पक्का करने के हेतु पूछा, “चलूँ बाबूजी?”

श्यामा ने फिर कहा, “चलो-चलो - “

ताँगा चलने लगा।

तब हेमचन्द्र ने हाथ जोड़ कर कहा, “नमस्कार, श्यामा जी - “

क्षण-भर श्यामा ने कोई उत्तर नहीं दिया। लगा, वह उपेक्षा करके बढ़ जाएगी। फिर उसने मानो इरादा बदलते दोनों हाथ उठा कर उनकी उँगलियों की अगली पोरें छुआते हुए एक विमुख-सा नमस्कार किया; और ताँगा आगे निकल गया।

हेमचन्द्र थोड़ी देर ताँगे की ओर देखता रहा। फिर उसने कन्धे कुछ सिकोड़ कर हथेलियाँ बाहर की ओर घुमायीं, मानो कह रहा हो, मर्जी आपकी। और फिर गाड़ी पर हाथ रख कर खड़ा हो गया।

थोड़ी देर बाद उसने गाड़ी को दो-चार बार हिलाया, फिर सवार हो कर उसे स्टार्ट करने की कोशिश की, लेकिन दो-तीन बार के यत्न पर भी जब सेल्फस्टार्टर केवल घर्र-घर्र करके रह गया, तब वह फिर उतर कर असहाय-सा चारों ओर देखने लगा।

एकाएक उसे अपने अत्यन्त अकेलेपन का तीखा बोध हो आया। यों उस समय सड़क अभी चल रही थी; घंटा-भर पहले, जब पहली बार मोटर बारहखम्बा रोड के सिरे पर कनॉट सर्कस में प्रवेश करते-न-करते रुक गयी थी, तब उसने सोचा था कि शायद पेट्रोल समाप्त होने से रुकी है और उसे यह याद करके तसल्ली भी हुई थी कि बिल्कुल पेट्रोल पम्प के आगे ही आ कर रुकी है - क्योंकि बारहखम्बा रोड पर ही तनिक आगे बायें हाथ को पम्प उसे दीख रहा था। गाड़ी को ठेल कर वहाँ पहुँचा कर पेट्रोल उसने डलवा लिया था, और बड़े इत्मीनान से फिर स्टार्ट करने बैठ गया था। पर गाड़ी नहीं चली; पम्पवाले से मदद माँग कर उसने दो आदमियों से गाड़ी ठिलवायी भी पर उससे भी लाभ न हुआ; दोनों आदमी थोड़ी देर बाद भुनभुनाते हुए लौट गये कि 'अजी साहब... ऐसे नहीं चलने की...'

तभी उसने पास बैठी हुई श्यामा से कहा था, “श्यामा, गाड़ी तो यहीं अटक गयी; तुम ताँगा ले कर घर लौट जाओ।”

“और तुम?”

“मैं गाड़ी का कुछ करूँगा - शायद थोड़ी देर में चल पड़ेगी - उसके पेट्रोल सिस्टम में कुछ दोष है। जब-तब ऐसे ही तंग किया करती है।”

“और जब मैं घूमने आयी तभी उसे रुकना सूझा! मेरी तकदीर - “

श्यामा की उदासी को कुछ हल्का करने की नीयत से हेमचन्द्र ने कहा, “तुम से ईर्ष्या है न उसे - स्त्री-जाति का गुण है।”

लेकिन श्यामा ने और बिगड़कर कहा, “रहने दीजिए - रास्ते में ला कर मुझे उतार दिया और ऊपर से स्त्री-जाति की बुराई करने लगे।” पर फिर सँभल कर दूसरे दिन मिलने की बात तय करके वह चली गयी - ताँगा कुछ आगे से ले लेगी यह कह कर।

उस वक्त भी हेमचन्द्र को कुछ अकेलेपन का बोध हुआ था, पर इतना विकट नहीं। श्यामा अकेली है, सरकारी नौकरी करती है, 'इंडिपेंडेंट वुमन' है और इससे उसकी तबियत में भी एक विशेष प्रकार की अहंता है, पर यों वह खुश-तबियत है और उसके साथ बिताया हुआ समय बड़ा रोचक होता है - हेमचन्द्र के दिनों में वे घंटे चमक उठते हैं। श्यामा के चले जाने से कुछ सूनापन होना तो स्वाभाविक था। पर उस बार इतना अधिक नहीं हुआ था। हो सकता है कि इसका कारण यह रहा हो कि तब लोग अधिक आ-जा रहे थे, यह भी हो सकता है कि तब वह नाराज हो कर नहीं गयी थी और अब की बार तो कुछ नाराज हो कर गयी है। पर नहीं, वह सहायक कारण रहा हो भले ही, असली कारण वह नहीं हो सकता। हेमचन्द्र ने स्वयं अपने से पूछा, 'तब कारण क्या हो सकता है?' और स्वयं ही उत्तर दिया, 'दुनिया में उस आदमी से ज्यादा अकेला आदमी कौन होगा जिसके पास मोटर है पर चलती नहीं...'

और जब श्यामा लौट कर फिर मान कर के दुबारा चली गयी, तब एकाएक उसे लगा कि हाँ, यही सम्पूर्ण सत्य है। बल्कि इतना ही नहीं, इसमें ज्ञान का कोई गम्भीरतर रत्न उसने पा लिया है। सहसा आदमी, अकेलापन, मोटर, सब उसकी दृष्टि में प्रतीक हो गये और पूरे वाक्य का एक नया प्रतीकार्थ उसके सामने आ गया। इस यान्त्रिक सभ्यता में मानव और यन्त्र का सहकार बहुत अच्छा है, लेकिन तभी जब तक यन्त्र मानव का वशंवद है, जब वैसा नहीं रहता तब मानव कितना अतिरिक्त असहाय हो जाता है क्योंकि यन्त्र के बिना रह सकने की क्षमता वह पहले ही खो चुका है... मोटर वाला आदमी - यन्त्र का गुलाम मानव... और जब यन्त्र नहीं चलता तो -

हेमचन्द्र ने मोटर की ओर नयी दृष्टि से देखा। क्या सचमुच वह इस बेडौल यन्त्र का गुलाम हो गया है, इस... इस छकड़े का! मोटर के प्रति यह अवज्ञा करके उसे कुछ शान्ति मिली, पर प्रश्न फिर उभर कर आया - 'क्या मैं सचमुच छकड़े का गुलाम हो गया हूँ?'

प्रश्न ने एक नयी विचार-माला शुरू कर दी। यह गाड़ी उसने कोई छः महीने पहले सैकेंड हैंड खरीदी थी। यों गाड़ी खरीदने की उसकी हैसियत नहीं थी, जब उसने खरीदी थी तब बहुतों को अचम्भा हुआ था कि आखिर कैसे, और गाड़ी के साथ जो 'स्टाइल' रहता है उसे वह कैसे किस बूते पर सँभालेगा? लेकिन असल में गाड़ी, वह भी सैकेंड हैंड, और सैकेंड हैंड तो मुहावरा है, हो सकता है वह पहले चार-छः बार हाथ बदल चुकी हो - खरीदना कोई मुश्किल बात नहीं है, असल बोझ होता है बाद की खातिर का, और स्टाइल का; और जो गाड़ी खुद चलाता है, खुद धोता-पोंछता है, खुद ही छोटी-मोटी मरम्मत कर लेता है - और यह नहीं सोचता कि गाड़ी है तो अमुक सामाजिक स्तर में घुसना चाहिए और रहना चाहिए, क्लब जाना चाहिए, वगैरह-उसके लिए स्टाइल कोई माने नहीं रखता। लोग उससे फिजूल ईर्ष्या करते थे और उस पर बोलियाँ कसते रहते थे; हैसियत की बात का सीधा-सा जवाब यह है कि उसकी हैसियत के लोग महीने में पान-सिगरेट पर जितना खर्च करते हैं, उतने में मोटर 'मेंटेन' की जा सकती है और वह पान-सिगरेट की लत से मुक्त है। किसी सिगरेट पीने वाले से तो कोई नहीं पूछता कि तुम्हारी सिगरेट पीने की हैसियत भी है? बल्कि उसके लिए तो बड़ी हैसियत चाहिए, क्योंकि सिगरेट पीना तो सचमुच पैसा फूँकना है, मोटर तो काम आती है और आमदनी करने में भी सहायक होती है।

ठीक है। सिगरेट लत है, मोटर लत नहीं है। लेकिन -

'लेकिन' पर उसका मन अटक गया। फिर उसने जोर करके अपने से पूछ ही तो डाला : 'लेकिन क्या उसने भी मोटर शौक के लिए नहीं ली थी, इसलिए क्या वह भी मूलतः लत ही नहीं है?'

अपना ही प्रश्न उसे चुभा। पर वह उसे और गहरे चुभाता ही गया। छः महीने पहले उसने मोटर खरीदी थी। लगभग तभी श्यामा से उसका परिचय हुआ था। लड़कियों के सम्पर्क में वह पहले न आया हो, यह बात नहीं थी; पर श्यामा लड़कियों में कुछ भिन्न थी : लड़की नहीं, स्त्री थी, और वह भी स्वाधीन, आत्म-निर्भर स्त्री-और आत्म-निर्भरता चरित्र को कितना बदल देती है वह देख कर ही समझा जा सकता है।

श्यामा वैसी स्त्री है जिसे मोटर आदमी की पर्सनैलिटी का अवश्यक अंग मालूम होती है, यह कहना सरासर अन्याय होगा। बल्कि हेमचन्द्र के अलावा उसके जितने मित्र थे सब मोटरहीन थे; और हेमचन्द्र को भी लगता था कि वे किसी हद तक श्यामा के पद से नीचे हैं, उसके मुखापेक्षी हैं, उस पर निर्भर हैं। इस भावना को वह ठीक-ठीक नहीं समझ पाता था। यह बात नहीं थी कि वास्तव में ये हीन-पदस्थ हों या निःसाधन हों, शायद वह केवल मानसिक परिपक्वता, उनके परस्पर आध्यात्मिक सम्बन्ध की बात थी कि श्यामा बड़ी है और वे छोटे हैं। लेकिन श्यामा से परिचय होने के बाद हेमचन्द्र ने ही स्वयं अनुभव किया कि मोटर पर्सनैलिटी का अंग न हो, पर्सनैलिटी का आनुषंगिक अवश्य हो सकती है, उसे नया विस्तार दे सकती है, अभिव्यक्ति की नयी दिशाएँ खोल सकती है। और वह अपने से नहीं छिपाएगा कि इस नये विस्तार का श्यामा से कुछ सम्बन्ध अवश्य था। श्यामा से ही एक दिन बात हुई थी कि किसी छुट्टी के दिन मथुरा देखने चला जाय; ठहरा यही था कि सुबह की गाड़ी से जायेंगे और रात की गाड़ी से लौट आएँगे, पर इस बीच उसने एक दिन जा कर मोटर खरीद ही डाली, एक-दो दिन में उसे देख-भाल कर, चेक करके छोटे-मोटे नुक्स ठीक कर दिये और जाने के दिन सवेरे ही गाड़ी ले कर श्यामा के क्वार्टर पर पहुँच गया। श्यामा ने पूछा, “गाड़ी किसकी ले आये?” तो वह लखनवी विनय से बोला, “जी, आप ही की है...”

और उनकी मैत्री के बढ़ने में गाड़ी सहायक भी हुई थी, क्योंकि यह उसी के कारण सम्भव हुआ था कि दोनों बराबर मिल सकें और मुक्त भाव में मिल सकें। साधारणतया नयी दिल्ली में मिलने का मतलब है किसी भड़कीले चाय-घर में भीड़-भड़क्के में बैठ कर जाजबैण्ड के पीठ-संगीत के साथ उखड़ी-उखड़ी बात करना, या जब तब किसी के ड्राइंग रूम में उससे भी अधिक गलघोंटू भीड़ में उससे भी अधिक उखड़ी बात कर लेना। पर गाड़ी के सहारे वे दोनों भीड़ों से अलग घूम-घाम सके थे, और एक-दूसरे को अधिक पहचान सके थे। और गाड़ी के बिना शायद यह सम्भव न होता-या इतने समय में सम्भव न होता।

हेमचन्द्र ने फिर गाड़ी की ओर देखा। तो क्या वह प्रकारान्तर से स्वीकार कर रहा है कि वह गाड़ी का गुलाम है? उसे अपने पर झल्लाहट हो आयी। नहीं, वह इस फिसलन पर नहीं रपटेगा; अगर वह असावधानी से मोटर पर इतना निर्भर करने लग गया है तो उससे जैसे भी होगा, मुक्ति पाएगा। निश्चयपूर्वक वह फिर गाड़ी की ओर बढ़ा; उसे फिर स्टार्ट करेगा, अब की बार न हुई तो वह उसे वहीं छोड़ कर ताँगा ले कर पहले श्यामा के घर जाएगा, उसे सिनेमा के लिए निमन्त्रित करेगा, रात के शो के लिए, और फिर ताँगे में - या पैदल भी - उसे घर पहुँचा कर जाएगा। तब तक गाड़ी बेशक यहीं पड़ी रहे। आखिर बारहखम्भे का एक बड़ा चौराहा है, पेट्रोल पम्प के पास है; कौन जानेगा कि लावारिस खड़ी है?

गाड़ी पर सवार हो कर उसने सेल्फ दबाया; दूसरी-तीसरी बार घर-घराकर इंजन स्टार्ट हुआ और थोड़ा-सा चल कर बन्द हो गया। इससे उसे आशा बँधी, उसने दो-एक बार फिर प्रयत्न किया - फिर सहसा इंजन स्टार्ट हुआ और ठीक से रेस करने लगा। हेमचन्द्र ने एक खिसियानी-सी मुस्कराहट के साथ क्लच दबाया, गाड़ी गियर में डाली, और चल पड़ा।

लेकिन गाड़ी को सड़क पर सीधा करते-करते ही उसकी गति अनिश्चय से धीमी हो गयी। कहाँ जाए? पर उसने नये निश्चय से एक्सेलेरेटर दबाया, गाड़ी फायर स्टेशन के सामने से मुड़ी और उसी रास्ते पर दौड़ पड़ी जिधर श्यामा का ताँगा गया था। श्यामा अब तक तो घर पहुँच गई होगी - और अभी उसने सो जाने की तैयारी थोड़े ही कर ली होगी?

छकड़ा ही सही, दौड़ती मोटर का एक अपना मजा है... स्पीड का नशा - लत-नहीं, आन्तरिक उल्लास, अनुशासित यन्त्र से मिलने वाली स्फूर्ति...

रास्ते में उसे कहीं श्यामा का ताँगा नहीं दीखा। निश्चय ही वह इतनी देर में घर पहुँच गयी होगी। हेमचन्द्र ने मोटर की गति और तेज कर दी। पर क्वार्टर के बाहर से ही उसने देखा, उसमें बिल्कुल अँधेरा है। तब क्या श्यामा आ कर इतनी जल्दी सो भी गयी? या कि -

उसे बारहखम्भे में छोड़ कर आते समय का श्यामा का क्रोध उसे स्मरण हो आया। सम्भव है कि वह क्रोध-भरी यहाँ लौटी हो, और लौट कर क्वार्टर में आ कर उसका क्रोध सहसा बदल कर करुणा बन गया हो - अपने ऊपर करुणा - क्योंकि सिर्फ मोटरवाले ही तो अकेले नहीं होते, बगैर मोटर वाले भी उतने ही अकेले हो सकते हैं, बल्कि अधिक अगर वे स्त्री हों... हेमचन्द्र को हल्का-सा ध्यान हुआ कि इस वाक्य का व्याकरण ठीक नहीं बैठा है शायद, पर श्यामा भी उसी की भाँति अकेली हो सकती है यह विचार उसे इस समय नया-सा लगा और वह उसी में व्याकरण की चिन्ता भूल गया। कहीं श्यामा आ कर खीझ कर रोने तो नहीं बैठ गयी? वह लपक कर मोटर से उतरा, बरामदा पार करके किवाड़ खटखटाने को ही था कि उसने देखा, उसमें बड़ा-सा ताला लगा है।

तो श्यामा नहीं लौटी! रास्ते में भी नहीं मिली। शायद दूसरे रास्ते से आ रही हो; हेमचन्द्र उतर कर क्वार्टर के सामने टहलने लगा। थोड़ी ही देर में वह इससे ऊब गया; किसी भी रास्ते से श्यामा लौट रही हो, इतनी देर तो नहीं लग सकती... वह फिर कार में जा बैठा; क्षण-भर सोचता रहा कि क्या करे, फिर उसने मोटर स्टार्ट कर दी और एक ओर को चल पड़ा।

अकेले सिनेमा जाने में कोई सेन्स नहीं है। लेकिन श्यामा तो न मालूम कहाँ गयी - क्या गुस्से में अभी यों ही ताँगे में भटक रही होगी? खुली हवा शान्तिकर तो होती है... पर घर भी अभी लौटने की उसकी इच्छा नहीं; देर तो हो गयी है पर एक बार सिनेमा जाने की बात सोच लेने पर फिर कोरे वापस आना रुचता नहीं, पिटे हुए कुत्ते की-सी बात लगती है, टाँगों में दुम छुपाये लौट आना और दुबक रहना।

वह फिर बारहखम्भे में आ गया था। कनॉट सर्कस का चक्कर काटता हुआ वह पश्चिम की ओर एक तिमंजिले मकान के नीचे रुक गया। क्यों? उसे स्वयं कुछ अचम्भा भी हुआ। पर वह गाड़ी से उतरा, और धीरे-धीरे जीना चढ़ने लगा। निचली दोनों मंजिलों में अँधेरा था - स्वाभाविक ही था, क्योंकि नीचे दूकानें हैं, दुमंजिले पर कोई दफ्तर है शायद, पिछवाड़े में कोई रहता भी है - पर तिमंजिले में रोशनी थी, और वहाँ से कुछ आवाजें भी आ रही थीं, अस्पष्ट किन्तु सौहार्द-भरी, प्रसन्न, खुली...

रमानाथ रेडियो-आर्टिस्ट है। रेडियो-आर्टिस्ट के आज कोई माने नहीं है, जो एक बार रेडियो पर गा आता है वह अपने को रेडियो-आर्टिस्ट कहता है और दिल्ली में खास कर ऐसी आर्टिस्टाओं की तो भरमार है - हेमचन्द्र ने कहीं एक-आध साइनबोर्ड भी देखे, 'मिस अमुका, रेडियो-आर्टिस्ट' - पर रमानाथ वास्तव में आर्टिस्ट है और बाकायदा नौकरी करता है। खुश-तबियत, मिलनसार आदमी है, पढ़ा-लिखा भी है, और हँसने-हँसाने में भी कमाल रखता है; पॉलिटिक्स में भी थोड़ा-बहुत दखल रखता है, जेल हो आया है, अखबारनवीसी भी करता रहा है, अब रेडियो-आर्टिस्टों की यूनियन बनाने में संलग्न है।

यह सब तो ठीक है, लेकिन हेमचन्द्र इस वक्त उसके यहाँ क्यों जा रहा है? उससे कोई घनिष्ट परिचय तो है नहीं; चार-छः बार मिला है, बस। तब? लेकिन थोड़ी-सी हँसी-दिल्लगी, कुछ मन बहलाव के लिए कहीं जाने में क्या हर्ज है? फॉर्मेलिटी काहे की - और रमानाथ तो कोई फॉर्मल है भी नहीं। पर क्या वह कहेगा कि मैं मन बहलाने चला आया? कह भी दे तो क्या हर्ज है? यह तो कॉम्प्लिमेंट ही है कि तुम्हारे यहाँ इसलिए आया हूँ कि मन लग जाय। और -

और क्या?

और यही कि रमानाथ से उसका परिचय श्यामा ने ही कराया था : श्यामा गाती है और गाने के सिलसिले में ही उसका रमानाथ से पुराना परिचय था। तब क्या यहाँ आने में यह भी कारण है - श्यामा से यह सूक्ष्म-सा सिलसिला? हुँह, मुझे क्या; श्यामा ऐंठ कर चली गयी है तो चली गयी है, कल तक ठीक हो जाएगी, मेरा कोई दोष थोड़े ही था? ऐसे तुनकना तो स्त्री-स्वभाव का एक अंग है... रमानाथ के यहाँ कुछ मन लगेगा, वहाँ और भी लोग आते-जाते रहते हैं, रेडियो-आर्टिस्ट, गवैये, बजैये, तरह-तरह के कलावन्त-कभी छोटे-मोटे अभिनेता, नर्तक-नर्तकी भी आ जाते हैं, और कई तरह के एमेच्योर पॉलिटिशियन, जेबी रेवोल्यूशनरी, वगैरह...

तीसरी मंजिल। सामने ही दरवाजा था, भीतर से तीन-चार आवाजें आ रही थीं-हँसी की। कोई शायद शेर कह रहा है-सहसा हेमचन्द्र ठिठक गया। फिर वह दबे पाँव दरवाजे से आगे बढ़ कर खिड़की पर गया। खिड़की बन्द थी, परदा खिंचा था, पर उसमें भीतर का दृश्य झीना-सा देखा जा सकता था। सोफे पर रमानाथ से कुछ हट कर एक लड़की बैठी थी, चेहरा नहीं दीखता था पर यों भी हेमचन्द्र की परिचिता नहीं जान पड़ती थी; दूसरी ओर एक कुरसी पर काली अचकन पहने कोई शायर थे - यही शेर कह रहे थे - जिस पर सब की हँसी छूट रही थी; उनके बगल में एक और कुरसी पर एक युवक, जिसे हेमचन्द्र ने रमानाथ के साथ ही पहले-पहल देखा है, रेडियो में ही नौकर है शायद संगीत-विभाग में - हाँ, फ्लूटिस्ट है - और उसके बाद एक और कुर्सी पर, खिड़की से लगभग ठीक सामने श्यामा।

तो दिल-बहलाव की जरूरत अकेले उसे ही नहीं है, श्यामा को भी है! ठीक है, यहाँ से अब वह श्यामा को फिर लिवा ले जा सकता है; चाहे सिनेमा भी जा सकता है, नहीं तो मोटर में उसके घर तो पहुँचा ही दे सकता है - इस प्रकार श्यामा के मनमुटाव का मार्जन भी हो जाएगा, और श्यामा यह भी एप्रीशियेट करेगी कि वह उसे ढूँढ़ता हुआ यहाँ तक आया है...

हेमचन्द्र सीधा हो कर दरवाजे की ओर लौट आया। दाहिना हाथ उठा कर उसने तर्जनी और मध्यमा को मोड़ कर उनके जोड़ उभारे कि किवाड़ खटखटा सके। पर फिर उसका हाथ धीरे-धीरे नीचे गिर गया, वह मुड़ा और जीना उतर गया। गाड़ी में बैठ कर उसने मोटर स्टार्ट करके इंजन को खाहमखाह बड़े जोर से रेस किया, फिर क्लच छोड़ कर गाड़ी दौड़ा दी। कनॉट सर्कस - क्वींसवे - सिन्धिया हाउस, विंडसर प्लेस-सेंट्रलविस्टा - किधर जाएगा वह? किधर भी आगे, दूर खुले में कहीं, जहाँ गाड़ी तेज दौड़ सके, और तेज, और तेज, पुच्छल तारे की तरह, कटी पतंग की तरह, उल्का की तरह; नहीं, किसी की तरह नहीं, सिर्फ बेतहाशा दौड़ती मोटर की तरह, जिसका चालक हेमचन्द्र है, जो पेडल दबा कर इंजन को और गैस दे रहा है, और स्पीड, और गैस... यन्त्र बहुत अच्छा है, मानव का वशंवद यन्त्र; मानव की बलवती आकांक्षा का एक मूर्त प्रतीक...।

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-2

यद्यपि श्यामा ताँगे पर यही इरादा करके बैठी थी कि वह पहाड़गंज में अपने क्वार्टर में जा कर कोई किताब ले कर पढ़ते-पढ़ते सो जाएगी (वर्षों से वह सोने के इस नुस्खे को काम में लाती थी), पर जब ताँगा एक जगह मुड़ा और उसने अपनी कलाई-घड़ी की ओर दृष्टि डाली, तो वह सहसा चौंक पड़ी। जैसे उसने कोई महापातक कर डाला हो। घड़ी का छोटा वाला काँटा अभी नौ की संख्या से इधर ही खड़ा घूर रहा था, और बड़ा काँटा तो उससे भी पीछे कहीं अटका हुआ था। बिगड़ी हुई मोटर के सामने खड़ी हो कर उसे ऐसा प्रतीत हुआ था मानो रात अधिक हो गयी हो, पर अभी तो पौने नौ भी नहीं था। अपने क्वार्टर में इतना जल्दी लौटना उसे अच्छा मालूम नहीं हुआ।

उसके मन में एक बार इच्छा हुई कि वह लौट कर हेमचन्द्र के पास चले। करुणा-सी एक भावना का उद्रेक हुआ। चले तो दोनों एक साथ थे। यदि मोटर चलती, जैसा कि उसे चलना चाहिए था, तो दोनों न मालूम कितनी देर तक साथ रहते, कहाँ जाते! कोई प्रोग्राम तो था नहीं, पर बनते-बनते न जाने क्या प्रोग्राम बन जाता! शायद वे इंडिया गेट पहुँच जाते, और वहाँ कुछ गम्भीर, कुछ हलकी, कभी न खत्म होने वाली बातें छिड़ जातीं... रात अपनी ही थी, क्योंकि कल रविवार था।

केवल मोटर के बिगड़ने से सारी सम्भावनाएँ नष्ट हो गयीं। शनिवार की रात्रि की अज्ञात सम्भावनाएँ। वह मन-ही-मन खीझ उठी। यह मनहूस मोटर। उस बार भी ऐसा ही हुआ। हेमचन्द्र ने उस बार परिहास में मोटर के विषय में कहा था 'तुमसे ईर्ष्या है न' -बात तो कुछ ऐसी ही मालूम होती है। यद्यपि है यह हँसी की बात। जब-जब उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह हेमचन्द्र को खूब समझ पा रही है - थोड़ी ही देर में शायद उसका सम्पूर्ण अर्थ खुल जाय, तब-तब यह मोटर कम्बख्त इन दोनों के बीच में आ कर एक जड़ महापिंड की तरह खड़ी हो गयी, और फिर लाख कोशिशों के बाद भी रंचमात्र नहीं डिगी।

श्यामा की खीझ बढ़ी, और न मालूम कैसे उसमें यह भावना आयी कि इस प्रकार हेमचन्द्र को अकेला छोड़ कर नहीं आना चाहिए था। मोटर बिगड़ गयी, तो इसका सारा कसाला हमेशा बेचारा हेमचन्द्र अकेला ही क्यों झेले! यह तो करीब-करीब वैसा ही हुआ कि सुख में वह हेमचन्द्र के साथ है और दुःख में नहीं। मीठा-मीठा हप, कड़वा-कड़वा थू। ऐसी ही कितनी बातें उसके दिमाग में फिर गयीं, जिनका नतीजा यह हुआ कि जब ताँगा कनॉट सर्कस के भूलभुलैया को पार कर पहाड़गंज ले जाने वाली सड़क के रहस्यों में प्रवेश करने ही वाला था, तो श्यामा ने ताँगेवाले से करीब-करीब निर्वैयक्तिक तरीके से जल्दी में कहा - “लौटाओ।”

ताँगेवाला दिल्ली की मेमसाहिबाओं से सम्पूर्ण रूप से परिचित था, उसने बिना कुछ प्रतिवाद किये ताँगे को लौटाया मानो वह कोई विचार-शून्य यन्त्र हो। निश्चिन्त होने के लिए उसने पूछा, “वहीं चलें?”

ताँगेवाले ने बिलकुल स्वाभाविक-सरल रूप से प्रश्न पूछा था, क्योंकि उसे तो घोड़े को चला कर कहीं जाना था, पर श्यामा को ऐसा मालूम हुआ जैसे उसके स्वर में कुछ श्लेष था। शायद ताँगेवाला स्त्री-चरित्र में निश्चय के अभाव पर हँस रहा है। ताँगेवाला था तो ताँगेवाला, पर था वह पुरुष। श्यामा एक क्षण के लिए तिलमिला गयी। मानो उसे यह दिखाने के लिए कि वह भी स्वतन्त्र इच्छाशक्ति रखती है, बोली, “वहाँ क्यों? चलो - “ कह कर वह खुद ही रास्ता बताने लगी।

इस प्रकार से श्यामा रमानाथ के फ्लैट में पहुँची थी। यों तो उसके कई मित्र तथा जान-पहिचान वाले इस तरफ रहते थे, वह कहीं भी जा सकती थी। पर एक मात्र रमानाथ के विषय में ही यह निश्चय था कि वह इस समय घर पर ही होगा, क्योंकि हर शनिवार को उसके यहाँ एक निजी गोष्ठी-सी जमती थी जिसमें कविता-पाठ तथा गायन से ले कर राजनीतिक बहस तक कुछ भी हो सकती थी। हर तरह के लोग इसमें आते थे, कुछ स्त्रियाँ भी आती थीं।

श्यामा इस गोष्ठी में जा कर शामिल हो गयी। उस समय काली अचकन वाले युवक का परिचय शुरू हो रहा था। रमानाथ ने संक्षिप्त परिचय दिया जिसमें से श्यामा के पल्ले केवल इतना ही पड़ा कि इनका नाम अल्ताफ हुसैन है, और यह कोई प्रगतिशील कवि हैं।

कवि-परिचय के बाद स्वाभाविक रूप से कविता-पाठ हुआ। अल्ताफ साहब मानो शेर सुनाने के लिए उधार खाये बैठे थे। उन्होंने एक के बाद एक कई कविताएँ सुनायीं। श्यामा ने कुछ सुना, कुछ नहीं सुना। उसके मन का एक हिस्सा अभी बिगड़ी हुई मोटर के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा था। फिर भी जब लोग वाह-वाह करने लगे, तो उसे ध्यान देना पड़ा, और ध्यान देने पर उसे लुत्फ आ गया। अल्ताफ साहब की कविताएँ सचमुच अच्छी थीं। प्रगतिशील कविता के नाम से बाजार में जो चीज चलती थी, उसके प्रति श्यामा के मन में विशेष श्रद्धा नहीं थी; रमानाथ के कारण उसे बहुत से प्रगतिशील कवियों की रचनाएँ सुननी पड़ी थीं। इन लोगों में बहुत कम लोग इस मोटी बात को समझते ज्ञात होते थे कि प्रगतिशील कविता के लिए भी सबसे पहले कविता होना जरूरी है। पर अल्ताफ साहब तो अपवाद निकले। उनकी कविताएँ उर्दू की अच्छी परम्परा में होने के अतिरिक्त युग का मुकुर थीं। प्रत्येक शेर में युग-मन की तड़पन थी। चोरबाजारी पर उनकी कविता बहुत पसन्द की गयी क्योंकि उसमें अल्लामियाँ और सरकार को भी घसीटा गया था।

जब कविता हो चुकी, तो सब लोगों ने दिल से कवि की तारीफ की। श्यामा बोली, “यों तो आपकी सभी कविताएँ सुन्दर थीं, पर आप उन कविताओं में सबसे अधिक चमके हैं जिनमें किसी का विरोध करना है।” कह कर वह अपनी वाचालता से आप जोश में आ कर बोलीं, “यही शायद प्रगतिशील साहित्य का क्षेत्र है - किसी का विरोध करना।” उसने सबको निर्भीकता से घूरा।

'विरोध करना' शब्द पर श्यामा ने इस प्रकार जोर दिया, मानो वह कह रही हो खाहमखाह विरोध करना। गृहपति के नाते रमानाथ जरा सँभल कर बैठा। वह शायद कुछ कहने जा रहा था, पर अल्ताफ हुसैन ने उससे पहले कहा, “आप जो फरमा रही हैं, वह एक हद तक ठीक है; जब तक सारी दुनिया में सोशलिज्म नहीं हो जाता है, तब तक हमारे मुखालिफ हैं और हमें डट कर उनकी मुखालिफत करनी पड़ेगी। पर एक तो यह मुखालिफत महज मुखालिफत के लिए नहीं है, दूसरे हम इसके साथ ही एक नयी दुनिया की तामीर भी कर रहे हैं। नयी शायरी रजतपसन्द अनासरों की मुखालिफत के साथ-साथ नयी दुनिया की तामीर की आवाज भी बुलन्द करेगी।”

“पर आपकी कविता में विरोध के ही तत्त्व हैं”, श्यामा बोली। इसके बाद वह बिलकुल अप्रासंगिक रूप से बोली - (शायद बिगड़ी हुई मोटर कहीं उसके मन में करकरा रही थी) “और आप लोगों में मशीन के प्रति जो अगाध श्रद्धा है, वह मेरी समझ में नहीं आती। मैं कहती हूँ नयी दुनिया का सृजन मनुष्य करेगा, मनुष्य...”

रमानाथ ने उसकी उद्दीप्त वाक्यधारा पर ब्रेक-सी लगाते हुए कहा, “अवश्य, पर वह इस नये जगत् का निर्माण मशीनों के सहारे करेगा।”

अल्ताफ हुसैन ने बड़ी नम्रता से, मानो जिस दुश्मन को पछाड़ दिया उससे निष्ठुरता क्या की जाए इस भावना से, कहा, “जी हाँ, और क्या?”

पर उधर से वह दूसरी महिला केतकी, जो अब तक चुप बैठी थी, और जिसने अभी आलोचना में भाग नहीं लिया था, आवश्यकता से अधिक जोश में बोल उठी, “और इन मशीनों को आप मनुष्य से अलग कैसे कर सकती हैं श्यामाजी? क्या मशीन उसी प्रकार से मनुष्य जाति के युग-युग के कौशल का पुंजीभूत रूप नहीं है जिस प्रकार से हमारे पुस्तकालय मनुष्य जाति के युग-युग के ज्ञान के पुंजीभूत रूप हैं?”

“ज्ञान के, और अज्ञान के।” - श्यामा ने इतनी बात को निर्वैयक्तिक रूप से कह कर सहसा केतकी को चुनौती की दृष्टि से देखा, बोली, “क्या आप प्रगतिशील लोग यह मानते हैं कि सभी पुस्तकें ज्ञान की द्योतक हैं? क्या कोई-कोई पुस्तक अविद्या और अज्ञान की विराट् पहाड़ी के रूप में मनुष्य-जाति के मार्ग को रोक कर खड़ी नहीं हुई? और किसी पुस्तक का नाम लूँगी तो बात बढ़ेगी, इस कारण मैं नीत्शे की पुस्तकों को लेती हूँ। इन पुस्तकों ने मनुष्य-जाति को नहीं तो उसके एक हिस्से को भटकाया। ऐसी बहुत-सी पुस्तकों के नाम लिए जा सकते हैं।” कह कर उसने स्वर को कुछ नीचा किया। वह समझ रही थी कि उसने एक ऐसी बात कह दी है जिससे उसका पल्ला भारी पड़ गया है, बोली, “मैं यही मशीन के विषय में कह रही थी। सभी मशीनें अच्छी नहीं होतीं। जैसे एटम बम, क्या वह अच्छा है? क्या उसके बनाने में जो कौशल लगा है, उसे अपकौशल कहना अधिक उचित नहीं होगा? अपकौशल शब्द मैं इसलिए इस्तेमाल कर रही हूँ कि इससे तगड़ा शब्द मुझे नहीं सूझ रहा है।”

रमानाथ बोला, “पर अपकौशल भी तो एक कौशल है। जहाँ आदिम मनुष्य की मार करने की शक्ति उसकी पेशियों तथा स्नायुओं तक सीमित थी, वहाँ आधुनिक मनुष्य ने अपनी उस शक्ति को अकल्पनीय रूप से, पहले के युगों के लिए अकल्पनीय रूप से, बढ़ा लिया है।”

“पर क्या यह अच्छा हुआ है?” श्यामा ने तड़ाक से पूछा; फिर बोली, “मेरा इसीलिए कहना है कि मशीन पर भरोसा करना ठीक नहीं, मनुष्य अपने ही ऊपर भरोसा करे। मैं चाहती हूँ कि सब लोग चंडीदास की उस उक्ति पर विश्वास करें कि 'सबसे ऊपर मनुष्य सत्य है, उसके ऊपर कुछ नहीं है...”

केतकी ने उधर से कहा, “इसमें क्या शक है कि मनुष्य सत्य है, पर कौन-सा मनुष्य सत्य है, टाटा-बिड़ला-मोदी या उनके द्वारा शोषित कल्लू-हरकू-रमजान?”

रमानाथ ने देखा कि अब तो फिर वही बहस होने जा रही है जो इस कमरे में सैकड़ों बार हो चुकी है, जो बहस शायद अभी-अभी जो भारत स्वतन्त्र हुआ है, उसमें सर्वत्र-राजधानी के रंगमहलों से ले कर कृषक के कुटीरों तक हो रही है। यद्यपि वह स्वयं नरम प्रगतिशील था, उसे कुछ भय-सा हुआ क्योंकि सामने की घड़ी में दस बज रहे थे। उसने जल्दी से बीच-बचाव-सा करते हुए कहा, “हम लोग तो बड़े काँटे की बहस में पड़ गये। मैं यह नहीं कहता कि इन तर्कों का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं, सम्बन्ध तो है, और बहुत है - पर इन दोनों में कौन-सा पक्ष सही है, इसका इस बैठक में, और इस कारण किसी भी बैठक में निर्णय नहीं होने जा रहा है। इसलिए मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि केतकी जी एक गाना सुनावें, और उसके बाद - “ कह कर उसने आकस्मिकता के साथ लहजा बदल कर कहा, “दस बज चुके हैं, किसी को ख्याल है?”

सबको शेषोक्त बात पर आश्चर्य हुआ, यद्यपि प्रत्येक की कलाई पर एक घड़ी बँधी हुई थी, और सामने एक टाइमपीस भी रखा हुआ था। अल्ताफ तो एकदम उछल-सा पड़ा; बोला, “हाय, लोदी रोड की आखिरी बस तो छूट गयी होगी!” कह कर फिर केतकी की ओर देख कर मानो साहस संचय करता हुआ बोला, “गाइए, गाइए, जल्दी गाइए...”

यद्यपि केतकी दस बज जाने की खबर से चौंक पड़ी थी, फिर भी बहस के मँझधार में छूट जाने से उसे अफसोस हुआ था। गाने का प्रस्ताव उसे नापसन्द नहीं था, फिर भी बोली, “अब आपको जल्दी क्या है, आपकी बस तो छूट ही गयी...” वह मुस्करायी।

प्रथम परिचय के लिए कुछ अधिक जोश दिखाते हुए अल्ताफ ने कहा, “केतकी जी, बस की भली चलायी, अगर आपका गाना सुनने के लिए सौ बसें भी छूट जायें, तो कोई हर्ज नहीं।” कहकर वह अचकन की लम्बी आस्तीन को कुछ चढ़ा कर सँभल कर बैठ गया, मानो किसी लड़ाई के लिए तैयार हो चुका हो।

उसकी इस मुद्रा ने हँसी का उद्रेक किया। कम से कम केतकी खिलखिलाकर हँस पड़ी; बोली, “कवियों में बस यही बात बुरी है...”

सब लोगों ने इस पर कहकहा लगाया, केवल श्यामा नहीं हँसी, कवि को अजीब दृष्टि से घूरती रही। केतकी ने अपने वक्तव्य का स्पष्टीकरण करते हुए, पर अपनी झेंप को हँसी से ढकने की व्यर्थ चेष्टा करते हुए अल्ताफ से कहा, “आपने यह अच्छी कही। आपने कभी मेरा गाना नहीं सुना, और लगे यों ही तारीफों के पुल बाँधने!”

अल्ताफ समझ चुका था कि वह कुछ अधिक कह गया था। उसने कनखी से एक बार रमानाथ को देखा, फिर बोला, “माफ कीजिए, जब रमानाथ भाई ने आपसे गाने के लिए कहा, तभी मैं समझ गया कि हम आपसे क्या उम्मीद कर सकते हैं। रमानाथ भाई के टेस्ट पर मुझे काफी भरोसा है।” उसने ठहर कर मानो सारी बातों को हँसी में डुबा देने के लिए कहा, “अब तो मेरी बस छूट ही गयी है, सारी रात भी प्रोग्राम चले तो मैं तैयार हूँ... मुझे तो बहरहाल यहीं सोना है, अब इतनी रात को मुझसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि मैं तीन-चार मील चल कर लोदी रोड जाऊँ।”

रमानाथ ने अभय देते हुए कहा - “घबड़ाओ नहीं, तुम्हें या तो केतकी जी लोदी रोड तक लिफ्ट दे देंगी - “ फिर कुछ सोच कर बोला, “मैं भी साथ आऊँगा - या यहीं तुम्हारे सोने की व्यवस्था की जाएगी।”

अल्ताफ ने अचकन के एकमात्र बन्द बटन को ढीला करते हुए कहा, “रमानाथ भाई, तुम तो मुझे ऐसे इतमीनान दिला रहे हो मानो मैं किसी जंगल में शेरों के बीच फँस गया हूँ, और बचने के लिए गिड़गिड़ा रहा हूँ। तुम तो मुझे जानते हो, सन् ४२ से जहाँ रह गया, वहीं घर रहता है।”

रमानाथ को एकाएक कुछ स्मरण हो आया, सबकी तरफ देख कर क्षमा-याचना के स्वर में बोला, “मैं यह बताना भूल गया था कि अल्ताफ साहब मेरे साथ जेल में थे।”

श्यामा ने देर से कुछ नहीं कहा, मौका पाती हुई बोली, “आपने इस बात को ऐसे बताया मानो अल्ताफ साहब के और सब परिचय गौण हों, और वह जेल जाने वाला परिचय ही मुख्य हो।”

अल्ताफ ने स्वयं ही उत्तर दिया, “है भी यही।”

“क्यों?” श्यामा ने पूछा।

“इसलिए कि नहीं तो मैं कुछ भी नहीं रह जाता। जेल जाना कम से कम जाहिर करता है कि मैंने अपने ख्यालात के लिए तकलीफ उठायी, चाहे वह तकलीफ कितनी भी कम हो। अच्छे और ऊँचे ख्यालात अपने में अच्छे हैं, पर सिर्फ ख्यालात से क्या होता है? दुनिया को ऐसे लोगों की जरूरत है जो अपने ख्यालात के लिए तकलीफ उठा सकते हैं, फाँसी पर चढ़ सकते हैं। हमेशा ऐसे ही लोगों ने दुनिया को बदला है।”

रमानाथ ने देखा कि फिर मामला गम्भीर विषयों की ओर जा रहा है। क्योंकि वह जानता था कि अगले ही क्षण श्यामा कहेगी, दुनिया को केवल क्रूस और फाँसी पर चढ़ने वालों तथा जेल जाने वालों ने ही नहीं बदला है, बल्कि न्यूटन, गेटे, शेक्सपियर, रवीन्द्रनाथ, आइनस्टाइन ने भी उसे बदला है; इसलिए उसने जल्दी से बात को मोड़ देते हुए कहा, “भाई अल्ताफ, तुम अब तो बिल्कुल ही इनकारिजिबल हो गये; जब तक तुम कांग्रेसियों के साथ थे, इतने गये-बीते नहीं थे, पर जब से तुम पर प्रगतिशीलों का साया पड़ा तब से तुम हर समय अपने वेद का डंका बजाने के लिए तैयार रहते हो। कौन इनकार करता है कि बस छोड़ कर तुमने बहुत भारी कुर्बानी की है, पर अब कुर्बानी का नतीजा तो लो... गाना सुनो।”

अल्ताफ फिर भी कुछ कहने जा रहा था, पर रमानाथ ने उसकी तरफ कुछ आज्ञामूलक और कुछ प्रार्थनामूलक इंगित किया, और वह मुँह बा कर चुप रह गया।

रमानाथ ने केतकी से कहा, “केतकी जी, आप गाना शुरू करिए नहीं तो - “ आगे उसने स्पष्ट नहीं किया।

केतकी बोली, “गाऊँगी, गाती हूँ, पर एक शर्त है, आप भी गाएँगे...”

सबने इसका जोरों से समर्थन किया। फिर सब लोग चुप हो गये। थोड़ी देर में कमरा मधुर गायन से गूँज उठा। अल्ताफ ने चौंक कर आँखें बन्द कर लीं। मानो गाना हृदय का विषय हो, श्रवणेन्द्रिय का नहीं। सबने अपने को अपनी-अपनी कुर्सियों पर शिथिल कर दिया। बड़ी देर तक केतकी गाती रही। फिर एकाएक उसने गाना बन्द कर दिया। जब तक दूर तक हवा में गाने की लेशमात्र गूँज रही, तब तक कोई कुछ न बोला, फिर सबने खुलकर तारीफ की।

रमानाथ बोला - “केतकी जी, आज तक आपने कभी इतना अच्छा नहीं गाया था। आज मानो आपने इस गाने में अपना सारा हृदय ढाल दिया। बहुत खूब...”

अल्ताफ ने गद्गद होकर कहा - “मेरा दिल्ली आना सफल हो गया। कल्चर के ख्याल से मैं अपने लखनऊ को दिल्ली से ऊँचा समझता हूँ, पर दिल्ली में ऐसी आर्टिस्ट दो-चार भी हुईं तो पल्ला भारी पड़ेगा।”

न मालूम क्यों सब लोग अल्ताफ की इस बात को सुन कर हँस पड़े, स्वयं केतकी सबसे जोर से हँसी। बोली, “माफ कीजिएगा, मैं कवियों की किसी बात पर विश्वास नहीं करती।” फिर एकाएक कलाई-घड़ी की ओर देखती हुई बोली, “अब तो बहुत देर हो गयी, उठना चाहिए” - कह कर उसने उठने का रुख किया।

तभी श्यामा बोली, “पर अभी तो रमानाथजी गाएँगे।”

केतकी बैठ गयी। फिर रमानाथ का गाना हुआ। रमानाथ ने गाया कम और आलाप अधिक किया। अल्ताफ ने फिर आँखें बन्द कर लीं। श्यामा टकटकी बाँधे रमानाथ को देखने लगी, जैसे आँखों के जरिये से ही वह गाना सुन रही हो। इस बीच में उसे कई बार हेमचन्द्र और उसकी बिगड़ी हुई मोटर की याद आयी थी, पर जब रमानाथ गाने लगा, तो वह इन बातों को, यहाँ तक कि अपने को भी भूल गयी। उसका अपना कुछ रह नहीं गया। उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे रमानाथ उसके रन्ध्र-रन्ध्र में, प्रत्येक रोम-कूप में प्रविष्ट हो कर छा गया है। वह रमानाथमय हो गयी, उसका अपना कुछ नहीं रहा।

जब रमानाथ गीत समाप्त कर चुका, तो ग्यारह बज चुके थे। सब लोग जल्दी से उठे, केवल अल्ताफ विशेष जल्दी में नहीं मालूम पड़ा। वह केवल उठ खड़ा हुआ।

केतकी विदा होने लगी, तो रमानाथ अल्ताफ से बोला, “क्या तुम यहीं रहोगे, या जाओगे?”

“जैसा कहो।”

“तुम्हें सवेरे कुछ ऐसा काम है जो लोदी रोड गये बगैर नहीं हो सकता?”

“है भी और नहीं भी।”

“डायलेक्टिक्स न चलाओ, जरूरी काम हो तो केतकी जी तुम्हें लिफ्ट दे सकती हैं; नहीं तो यहीं सो जाओ, मुझे खुशी होगी।”

अल्ताफ ने केतकी की तरफ देखते हुए कहा, “जरूरी काम है।”

“तो चलिए - केतकी बोली, “मैं पहुँचा देती हूँ।”

रमानाथ पेशावरी जूते के स्ट्रैप चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ाते हुए बोला, “मैं भी चलता हूँ।”

केतकी बोली, “कोई जरूरत नहीं।”

“नहीं मैं चल सकता हूँ, यहाँ करना ही क्या है? दरवाजा बन्द कर दूँ...”

“नहीं, जरूरत नहीं,” - केतकी ने दृढ़ता से कहा।

तब रमानाथ मान गया। अल्ताफ ने झुक कर सबको आदाब किया और पास पड़े हुए एक पोर्टफोलियो को उठा कर अदब के साथ केतकी के पास खड़ा हो गया। केतकी ने रमानाथ से कहा, “मैं इन्हें दस मिनट में पहुँचाती हूँ”, कह कर वह जीना उतरने लगी। साथ-साथ अल्ताफ अचकन सँभालता हुआ लपकता हुआ चला।

सब लोग विदा हो गये। सबसे अन्त में श्यामा रह गयी। रमानाथ बोला, “मैं आपको पहुँचा आऊँ?”

“नहीं, मैं खुद जा सकती हूँ”, श्यामा ने अप्रत्याशित तिखाई से कहा।

रमानाथ बोला, “उस सम्बन्ध में मैंने कभी सन्देह नहीं किया, मैंने तो इसलिए कहा कि रात अधिक हो गयी।”

“यह तो देख रही हूँ।” कह कर उसने अद्भुत दृष्टि से रमानाथ को देखा, फिर कुर्सी पर बैठ गयी।

रमानाथ ने एक बार चारों तरफ देखा, फिर बोला, “मुझे तो भूख लगी है, मैं खाने जाता हूँ। आप-तुम कुछ खाओगी?”

“नहीं-नहीं, तुम खाओ, मैं देखती हूँ... मैं तो खा कर आयी थी।” फिर एकाएक बोली, “बैठो-मैं तुम्हारा खाना लगा देती हूँ।”

“खाना तो लगा-लगाया होगा, आज के दिन मेरा नौकर सिनेमा जाता है, और मैं ठंडा खाना खाता हूँ...”

मना करने पर भी श्यामा ने उठ कर खाना लगा दिया, फिर एकाएक बोली, “तुम्हारी श्रीमती जी कब आ रही हैं?”

“अभी नहीं आ रही है,” - रमानाथ ने संक्षिप्त रूप से उत्तर दिया, फिर एकाएक खाने लगा।

श्यामा ने भी कुछ नहीं पूछा।

रमानाथ खाता रहा, और श्यामा उसके खाने को नहीं, उसे देखती रही।

अगले दिन हेमचन्द्र की जब नींद खुली, तो उसने देखा कि आठ बज रहे हैं। वह हड़बड़ा कर उठ पड़ा, मानो उसे रेलगाड़ी पकड़नी हो। उसने जल्दी-जल्दी मुँह धोया, कपड़े पहने और जा कर मोटर पर सवार हो गया।

पहाड़गंज में श्यामा के क्वार्टर के सामने पहुँच कर ही उसने दम लिया।

श्यामा चाय पी रही थी, उसने हेमचन्द्र का स्वागत किया। वह बिना निमन्त्रण के ही चाय में शामिल हो गया। सामने जो कुछ पड़ा था, उसे दुर्भिक्ष-पीड़ित की तरह खा कर उसने चीनी मिली हुई चाय में और चीनी डाल कर पीना शुरू किया; एक ही घूँट में प्याले को अधिया कर उसने कहा, “वंडर आफ वंडर्स, कल तुम्हारे चले जाने के पन्द्रह मिनट के अन्दर ही मेरी मोटर ठीक हो गयी।”

श्यामा ढेर-सा बिस्कुट आदि मेज पर रखती हुई बोली, “हाँ?”

“फिर मैंने प्रतिहिंसा की भावना से मोटर को खूब दौड़ाया।”

“और वह दौड़ी?” श्यामा ने अजीब कड़ुवेपन से पूछा, और मक्खन लगे हुए बिस्कुट हेमचन्द्र की ओर बढ़ा दिये।

“हाँ, वह दौड़ी, खूब दौड़ी।” वह कुछ और भी कहने जा रहा था, पर एकाएक ब्रेक-सा लगा कर बिस्कुट मुँह में डालता हुआ बोला, “तुम अपनी सुनाओ।”

श्यामा ने कुछ उत्साह नहीं दिखाया। दोनों चुपचाप चाय पीने लगे। हेमचन्द्र ने कुछ आश्चर्य में कनखी से एक बार श्यामा को देखा।

श्यामा सोच रही थी। अपने लिए एक और प्याला चाय बनाती रही। फिर एकाएक बोली, “मेरे पास मोटर तो है नहीं, जो मैं उसे दौड़ाती। मैं आ कर चुपचाप सो गयी।”

“सो गयी?” हेमचन्द्र ने कुछ आश्चर्य के साथ कहा, मानो सोना कुछ आश्चर्यजनक बात हो। प्रचुर मक्खन लगा हुआ बिस्कुट उसके गले में अटक गया।

वह इतना ही बोला, “ओह!”

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-3

केतकी ने अदब से कार का पिछला द्वार खोल कर कहा, “आइए।”

अल्ताफ ने स्वभाव के अनुसार कहना चाहा, 'पहले आप', पर फिर न जाने क्या सोच कर वह अन्दर जा बैठा। केतकी कार का पूरा चक्कर काटकर ड्राइवर के स्थान पर आकर बैठ गयी। तब अल्ताफ को जैसे किसी नयी बात का पता लगा हो, बोला, “आप ड्राइव करेंगी?”

“जी हाँ!” केतकी ने सेल्फ दबाते हुए कहा, “आपकी इच्छा है?”

“मेरी?”, अल्ताफ हँस पड़ा, “मुझे तो अलिफ के नाम बे भी नहीं आता!”

“सीखिएगा?”

“जहेकिस्मत। आप सिखाएँगी?”

“क्यों नहीं! शुरू कीजिए” - केतकी ने चक्के को घुमाते हुए मुस्कराकर कहा, “बड़ा अच्छा वक्त है। न भीड़ है न शोर।”

अल्ताफ ने सहसा केतकी की ओर ऐसे देखा जैसे उसे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था न अपने कानों पर। बोला, “क्या अभी, इतनी रात को!”

“जी हाँ, ड्राइविंग के लिए आधी रात से बढ़ कर अच्छा वक्त और कोई नहीं होता।”

कार तब तक नयी दिल्ली के धूमिल अन्धकार और निर्जन मौन पर प्रहार करती हुई कर्जन रोड हो कर इंडिया गेट की ओर तेजी से दौड़ने लगी थी। स्पीड पचास मील से कम न होगी। अल्ताफ को लगा जैसे वह उड़ा जा रहा है। उसने यह भी अनुभव किया कि कार बढ़िया है क्योंकि ड्राइविंग बड़ा स्मूथ था; पर तभी न जाने क्या सोच कर वह बोल उठा, “इंडिया गेट बहुत सुन्दर जगह है।”

शब्द मुँह से निकलने से पूर्व ही स्पीड कम होती जान पड़ी, फिर एकदम धीमी हो गयी। उस समय इंडिया गेट के पास अपूर्व शान्ति छा रही थी। धूमिल अन्धकार के आवरण में छिपा हुआ प्रशस्त मैदान; दूर एक कोने में मौन और मन्द छोटा-सा गोलाकार बाजार, विद्युत-द्वीपों के प्रतिबिम्ब से झिलमिल करते जलाशय और लॉन की रविश पर मौन मन्थर गति से चहल-कदमी करते हुए इक्के-दुक्के प्रेमी युगल! कार तब जार्ज की प्रतिमा के पास से इंडिया गेट में हो कर धीरे-धीरे राष्ट्रपति भवन को जाने वाली सड़क पर आयी। निरन्तर ऊपर उठते हुए विद्युत-दीप उस विस्तृत मौन के प्रहरी समान लगे। अल्ताफ ने दूर विशाल भवनों की ओर देखा जो अन्धकार में झिलमिलाते दीपस्तम्भों का काम कर रहे थे और धीरे-से कहा, “इन्सान ने कुदरत को पालतू बनाने की कितनी कोशिश की है।” केतकी ने कोई जवाब नहीं दिया, वह लौट कर गेट के पास आयी और बायीं ओर पार्किंग के लिए जो स्थान था वहीं ला कर गाड़ी रोक दी। फिर घूम कर अल्ताफ के द्वार के पास आयी, उसे खोला, कहा, “उतरिए। कुछ देर लॉन में बैठेंगे।”

“देर न हो जाएगी?”

“इस शान्त और इस मौन के सामने समय की कोई कीमत नहीं है, शायर साहब!”

अल्ताफ को लगा जैसे यह नारी उसे पराजित करने पर तुली हुई है। उसने धीरे से परन्तु दृढ़ता से कहा, “अभी तो कई दिन हूँ, फिर आ सकता हूँ।”

“पर मैं नहीं आ सकती।”

“बाहर जा रही हैं?”

“जी हाँ, कश्मीर जा रही हूँ। मेरे हजबैण्ड वहीं पर हैं।”

“आपके हजबैण्ड?”

“जी हाँ, मेरे!”

“वहीं रहते हैं?”

“जी नहीं। रहते तो दिल्ली में हैं।”

“तब शायद कवि हैं। घूमने गये हैं।”

केतकी हँसी। बोली, “कवि होते तो मैं यहाँ रहती? व्यापारी हैं। पीछे कुछ दिन बीमार रहे इसलिए आज-कल स्वास्थ्य सुधारने कश्मीर गये हुए हैं।”

अल्ताफ तब तक न जाने किस क्षण उतर कर बायीं ओर वाले लॉन में केतकी के साथ चहल-कदमी करने लगा था। उन दोनों के बीच जो फासला था वह हर कदम के बाद कम होता जाता था। अल्ताफ क्षण-क्षण में दृष्टि उठाता और केतकी को देख लेता, कोई विशेषता उसे दिखाई न देती, वही मुक्त भाव, वही मुक्त हँसी। चलते-चलते दूर अन्धकार में जहाँ उन्हें कोई नहीं देख सकता था, पर वे सब कुछ देख सकते थे, केतकी बैठ गयी। बैठ क्या गयी, उसने अपने आपको मुक्त भाव से भूमि से तादात्म्य भाव स्थापित करने दिया। अल्ताफ यन्त्रवत् अचकन सँभालता हुआ पास ही मानो गिर पड़ा। यह अच्छा था कि उस अन्धकार में वे एक दूसरे को ठीक-ठीक देख नहीं पा रहे थे। इसलिए समझने की कोशिश करने लगे थे। कुछ क्षण मौन रह कर केतकी बोली, “आज आपने देखा कि कैसे कुछ लोग बीसवीं सदी में भी मशीन की शक्ति से इनकार करते हैं। माना मनुष्य ने मशीन का आविष्कार किया है परन्तु उसकी उपयोगिता और उसकी शक्ति के कारण ही तो। अब यदि आप उससे कहें कि वह वायुयान को त्याग कर भैंसागाड़ी या बैलगाड़ी प्रयोग करने लगे तो क्या वह निरी मूर्खता नहीं होगी?”

“परले सिरे की मूर्खता, निहायत भद्दी मूर्खता, बेवकूफी” - अल्ताफ ने केतकी की हाँ-में-हाँ मिलायी, “भला बताइए तो, हमें नयी दुनिया तामीर करनी है और हम उसके लिए लौटें बाबा आदम के जमाने में! यानी फिर नये सिरे से शुरू करें! अब तक इन्सान ने जो तरक्की की है उस पर पानी फेर दें!”

फिर एक क्षण रुक कर एकदम बोला, “यह श्यामाजी कौन हैं?”

“मेरा तो कोई परिचय नहीं है। रमानाथ ने बताया था कि गाती हैं।”

“अच्छा।”

“स्वतन्त्र हैं, सरकारी नौकरी करती हैं। पहाड़गंज में सरकारी क्वार्टर में रहती हैं।”

“शादी तो क्या की होगी?”

“शादी को शायद बन्धन मानती हैं।”

“अजीब बात है फिर भी मशीन की मुखालफत करती थीं। मालूम होता है कि बुर्जुवा तहजीब की पैदायश हैं। खूब खेलना और फिर उस पर तमद्दुन का भड़कीला परदा डाल कर मासूम बच्चों की तरह बातें करना उन्हें खूब आता है।” अल्ताफ ने फिर एक क्षण रुक कर कहा, “फिर भी पढ़ी-लिखी जान पड़ती हैं।”

“खाक पढ़ी हैं। सोसायटी में घूमती है। पिकअप कर लिया है।”

अल्ताफ मुस्कराया, “आज कल बहुत से लोग इसी तरह आलिम बनते हैं। खास तौर पर बुर्जुवा। कैपिटलिस्ट सोसायटी की यह एक खसूसियत है।” फिर चारों तरफ देख कर बोला, “चलें, सन्नाटा छा गया है।”

“डर लगता है?”

“सन्नाटे से?” अल्ताफ हँसा, “लगता भी है और नहीं भी।”

“कैसे?”

“सन्नाटा कैपिटलिस्ट सोसायटी की पनाहगाह है। अधयातम (अध्यात्म) का ढोंग यहीं तो चलता है। पर हम ठहरे कशमकश में यकीन करने वाले। यहाँ रम जायें तो क्लास-स्ट्रगल कैसे हो!”

“आप बिल्कुल ठीक कहते हैं।”

“पर केतकी जी! जब ख्यालात को बाँधना होता है तो अक्सर मुझे भी ऐसा लगता है कि जैसे मेरे चारों तरफ सन्नाटा होता!”

“ठीक कहा आपने; मेरा भी कभी-कभी एकान्त में गाने को जी करता है।”

अल्ताफ हँस कर बोला, “यूँ कहिए न, अपना गाना आप ही सुनने को जी करता है।”

“जी हाँ”, कह कर केतकी बहुत चाह कर भी हँस न सकी; एक दीर्घ निःश्वास खींच कर रह गयी। फिर बहुत देर तक कोई नहीं बोला। मौन ने जैसे उन्हें ग्रस लिया। समस्त वातावरण मौन था। प्रकृति, भवन, विद्युत-दीप, इंडिया गेट, जार्ज पंचम की प्रतिमा; जो कुछ दिखाई देता था, यहाँ तक कि आकाश और उसके प्रहरी मेघ-सब मौन थे। पर केतकी और अल्ताफ का अन्तरमन! वह तब जैसे रौरव नाद से काँप रहा था। बाहर का समस्त स्वर जैसे सिमट कर उनके अन्तस् में समा गया था। सहसा उससे पराजित हो कर केतकी बोल उठी, “चलिए आपको छोड़ आऊँ। बारह बज चुके हैं!”

“बारह!” - अल्ताफ चौंक पड़ा, “यानी...”

“रात बीत रही है।”

“इतनी जल्दी!”

फिर शीघ्रता से उठता हुआ गुनगुना उठा, “इधर आँख झपकी उधर ढल गयी वह, जवानी भी थी धूप एक दोपहर की!”

“क्या-क्या?” केतकी ने ठिठक कर पूछा, “क्या फरमाया आपने? जोर से कहिए - “

अल्ताफ हँसा, “कुछ नहीं, ऐसे ही एक बुर्जुवा शायर का कलाम याद आ गया था।”

“फिर भी।”

अल्ताफ ने शेर दोहरा दिया। केतकी मुस्करायी। बोली, “जी हाँ, वह रात क्या जो एक कहानी में कट जाए।”

अल्ताफ तड़प उठा। केतकी कार के पास आयी। एक रहस्यमयी मुस्कराहट उसके ओठों पर नाच रही थी। उसने शीघ्रता से कार को स्टार्ट कर इंजन को बेतहाशा दौड़ा दिया। पर मुड़ते-मुड़ते जैसे कुछ याद आया हो, जोर से बोली, “लोदी रोड पर कहाँ जायेंगे?”

उतने ही जोर से अल्ताफ ने जवाब दिया, “पार्क के पास जो बस स्टैण्ड है बस वहीं पर।”

फिर कई मिनट तक सन्नाटा रहा। कार तेजी से दौड़ती रही; सन्नाटे को चीरती रही, कुरेदती रही और एक-एक करके सूनी सड़कें, मौन भवन, निद्रालु पार्क सब पीछे छूटते रहे। केतकी का ध्यान बिल्कुल सामने था। अँधेरे को तेजी से चीरती हुई कार की रोशनी के साथ उसकी विचारधारा भी उसके मस्तिष्क के किसी अन्धकार को चीरती जा रही थी; पर जैसा कि सड़क पर हो रहा था, प्रकाश टिकता नहीं था। पानी में जैसे तैरने पर एक मार्ग बनता है पर दूसरे ही क्षण सब-कुछ समतल हो जाता है; यही हालत उसके मस्तिष्क की थी। सहसा उसने स्पीड को कम करना शुरू किया। पचास से पैंतालीस, फिर चालीस-तीस पर होती हुई सुई रुकती हुई पन्द्रह पर आ कर रुकी। कुछ क्षण उसी स्पीड पर चल कर केतकी ने विजयगर्व से कहा, “मशीन कितनी शानदार है!”

अल्ताफ चौंका, “क्या फरमाया?”

“मशीन कितनी शानदार है!”

“इसमें क्या शक है!”

केतकी ने दोनों हाथ चक्के पर रख कर अपने को ढीला छोड़ते हुए, उल्लसित स्वर में, मानो वह मोटर उसी ने बनायी हो, कहा, “श्यामा जी होतीं तो कहतीं - ऊँहुँक्, मशीन की इसमें क्या शान है? मनुष्य चाहे जैसे उसे घुमाता है।”

फिर अल्ताफ को उत्तर का अवसर न देते हुए उसकी ओर देखा और एकाएक कार रोक दी। अल्ताफ ने अचरज से देखा कि कार पार्क के पास खड़ी है।

“ओह, हम तो आ गये!”

“जी हाँ। मशीन की कृपा है।”

केतकी वहीं चक्के पर हाथ रखे बैठी रही। दूर कहीं शोर सुनाई दे रहा था। सिनेमा के शौकीन नर-नारी अन्तिम शो से लौट रहे थे। अल्ताफ उतर कर खिड़की के पास आया, बोला, “शुक्रिया।”

“कल का क्या प्रोग्राम है?”

“सवेरे कुछ जरूरी काम है।”

“कब तक फुरसत मिलेगी?”

“दोपहर तक।”

“तो खाना मेरे साथ खाइएगा।”

“जी...?”

“हाँ, एक बजे कार ले कर आऊँगी?” - और उसने चक्कर घुमाते हुए फिर कहा, “कुछ और मित्र भी आवेंगे। रमानाथ, श्यामा - “

अल्ताफ ने बीच में कहा, “मुझे कोई एतराज नहीं है पर शाम को रखें तो...”

इस बार केतकी ने टोका, “मुझे मंजूर है।”

“जी हाँ। खाने से पहले महफिल भी जमेगी।”

“और बाद में लास्ट शो भी देखा जाएगा।”

“जी?”

“जी हाँ।”

इस संक्षिप्त शब्दावली के पीछे अच्छा-खासा अर्थ-गाम्भीर्य था। केतकी ने कार घुमा दी और एक बार रुक कर कहा, “सो नाउ, टिल वी मीट एगेन।”

“आदाब अर्ज - “ अल्ताफ ने उल्लसित स्वर में कहा और जब दौड़ती हुई रोशनी अन्धकार में खो गयी तो वह एक गहरी साँस ले कर बोला, “दिल्ली में जिन्दगी है!”

और वह आगे बढ़ गया।

केतकी जब घर लौटी तो क्लॉक के टन ने एक बार आवाज देकर साढ़े बारह बजने की सूचना दी। घर में सन्नाटा था, केवल उसके कमरे में रोशनी हो रही थी। कार को गैराज में खड़ा करके जब वह ऊपर चढ़ने लगी, तब शायद रामसिंह की आँख खुल गयी थी। वहीं पास ही वह सोया पड़ा था। वह पीछे-पीछे ऊपर आया और शीघ्रता से डाइनिंग रूम की बत्ती जलाने चला। केतकी ने कहा, “अब खाना नहीं खाऊँगी।”

“तो जमना को न जगाऊँ - ?”

“नहीं।”

फिर कुछ क्षण झिझक कर बोला, “मुझे आने में देर हो गयी। आपको अकेले जाना पड़ा।”

केतकी ने सहसा कहना चाहा, 'कोई बात नहीं।' पर जो कुछ उसने कहा वह यह था :

“हाँ, इधर तुम बराबर देर से आने लगे हो। मैं सवेरे इस बारे में बातें करूँगी।”

फिर कई क्षण सन्नाटा रहा। बाद में केतकी ने पूछा, “कोई आया था?”

“जी नहीं।”

, “बेबी तो नहीं रोयी?”

“जी नहीं।”

“अच्छी बात है। सवेरे आठ बजे कार तैयार रखना, मुझे जाना है।”

“बहुत अच्छा।”

“जाओ।”

रामसिंह चला गया। केतकी ने दरवाजा बन्द कर दिया। फिर अपने कमरे के पास वाली बाल्कनी में झाँक कर देखा। बहुत हल्का प्रकाश था। एक पलंग पर उसकी छोटी बहन कुन्तल सो रही थी। उस समय वह जैसे कोई मधुर स्वप्न देख रही हो। क्योंकि उसके मुख पर जो प्रकाश पड़ रहा था उसमें उसकी मुद्रा मुस्कराती जान पड़ रही थी। लम्बे नेत्रों की लम्बी बरौनियाँ जैसे लजा कर झुक गयी हों और लाल ओठों पर लज्जा जैसे चिपक कर रह गयी हो। एक वेणी पलंग से नीचे उतर चली थी, दूसरी कान को ढकती हुई वक्षस्थल पर झूल आयी थी। दाहिने हाथ पर उसका मुख टिका हुआ था और बायाँ हाथ जंघा तक आ गया था। वह जैसे सो नहीं रही थी, किसी को छकाने के लिए सोने का अभिनय कर रही थी। पास ही केतकी का पलंग बिछा था। उसके इस ओर छोटे पलंग पर सोयी थी उसकी बेबी। कोई तीन साल की होगी। उसके प्रणय की प्रथम कली है वह। नाम यद्यपि मंजु है पर पुकारते सब बेबी कह कर हैं। बाल भूरे घुँघराले, नयन लम्बे, कुछ नील वर्ण लिए हुए, रंग रक्तिम गौर, मुख कुछ बड़ा, मस्तक ऊपर को झुकता हुआ। जैसे बहुत-सी बातें बंगाल हो कर यूरोप से इस देश में फैली हैं ऐसे ही कुछ उसके रूप के बारे में कहा जाता है। निश्चिन्त हो कर सोयी है जैसे परियों के लोक की सैर कर रही हो। उससे कुछ दूर फर्श पर चारों खाने चित्त पड़ी है जमना। घर की दासी है। उम्र से अधेड़ है पर साहब लोगों की चाकरी ने शऊर-सलीका सिखा दिया है।

केतकी एक निगाह सब पर डाल कर अपने कमरे में चली गयी। कपड़े बदलने लगी। सामने उसके पति का चित्र लगा था - जैसा एक व्यापारी का हो सकता है। बहुत वर्ष पहले वे लोग युक्तप्रान्त से आ कर यहाँ बस गये थे। कभी कपड़े का व्यापार होता था पर अब तो मोटर के पुर्जों की दुकान है। अच्छी चलती है। अपनी मोटर ले रखी है। नौकर-चाकर हैं। पढ़े-लिखे हैं। कभी-कभी सोसायटी में भी घूमते हैं और इधर पत्नी के कारण, न चाह कर भी, उनमें कला के प्रति अनुराग पैदा हो रहा है... न जाने क्या हुआ, केतकी ठिठक गयी। एक गहरा निःश्वास छूट कर मुक्त हो गया। आँखों में वेदना का हल्का-सा रंग उभरा। दृष्टि घुमायी। दाहिनी ओर दो पेंटिंग लगे हुए थे। उन्हें कुछ डबडबायी आँखों से देखा; फिर अल्मारी की ओर ध्यान दिया। सितार पास ही टँगा हुआ था। तबले की जोड़ी भी रखी हुई थी। ...केतकी ने एक झटके के साथ उधर से गर्दन घुमा ली। फिर शीघ्रता से कपड़े बदल कर स्विच ऑफ कर दिया। बाहर आ कर तेजी से पलंग पर गिर पड़ी। तभी न जाने कैसे जमना और कुन्तल एक साथ जाग पड़ीं। एक साथ बोलीं, “कौन? जीजी!”, “कौन, बीबीजी?”

केतकी ने उखड़े स्वर में कहा, “हाँ।”

कुन्तल उठ बैठी। “बड़ी देर कर दी, जीजी।”

“मीटिंग ग्यारह बजे तक होती रही, फिर एक साहब को लोदी रोड छोड़ना था।”

“तुम छोड़ कर आयीं?”

“हाँ।”

“कौन थे?”

“लखनऊ के एक शायर हैं, अल्ताफ हुसैन।”

कुन्तल 'हूँ' कह कर रह गयी। जमना बोली, “खाना नहीं खाओगी?”

“नहीं।”

कुन्तल ने पूछा, “खा आयी हो?”

“नहीं।”

जमना ने बताया, “छोटी बीबीजी ने भी नहीं खाया।”

“क्यों, कुन्तल?” - केतकी ने चौंक कर पूछा।

“भूख नहीं थी, फिर तुम्हारी राह देखती-देखती मैं सो गयी। मैंने समझा कि तुम सैकिंड शो में गयी हो।”

“तो!”

किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केतकी स्वयं बोली - “अब तो साढ़े बारह बजे हैं।”

कुन्तल चौंकी, “साढ़े बारह! तो जाने दो, जीजी। मुझे तो भूख नहीं है।”

“मुझे भी नहीं है”, केतकी बोली।

“तो जा जमना। तू ठीक करके सो जा।”

यह कह कुन्तल ने जम्हाई ली और फिर अलस भाव से शरीर को पलंग पर बिखर जाने दिया। कई क्षण बाद जब नींद आने को हुई तो केतकी ने कहा, “मंगल को जाने का विचार कर रही हूँ।”

कुन्तल चौंकी, “कश्मीर?”

“हाँ।”

“इस मंगल को?”

“हाँ।”

“अच्छी बात है, मैं होस्टल चली जाऊँगी।”

“क्यों, यहीं जो रहना! चाचीजी से कह दूँगी। वे सब यहाँ रहेंगे।”

“उनके साथ?”

“तुम्हारा क्या माँगते हैं? जमना रहेगी। मोटर रहेगी।”

“अच्छा।” कुन्तल ने अस्फुट नींद-भरे लहजे में कहा। पर केतकी को फिर कुछ याद आ गया; बोली, “कुन्तल! कल शाम को आठ-दस व्यक्तियों का खाना है।”

कुन्तल कुछ और समझी, कहा, “जीजी! मुझे तो भूख नहीं। शाम को पार्टी में बहुत खा लिया था।”

केतकी हँस पड़ी, “तेरे खाने की बात नहीं, कुन्तल। कल अपने घर पार्टी है।”

कुन्तल चौंकी, “कब?”

“कल शाम।”

“कौन हैं?”

“रमानाथ जी हैं, और दूसरे कलाकार होंगे। लखनऊ के शायर भी होंगे और श्यामा जी - क्यों तू श्यामा जी को जानती है?”

“कौन श्यामा जी?”

“स्वतन्त्र, एकाकी और सरकारी नौकर। विचार तो कुछ प्रतिक्रियावादी हैं पर पढ़ी-लिखी जान पड़ती हैं, गाती भी हैं।”

“ओ हो, श्यामा माथुर। पहाड़गंज रहती हैं।”

“हाँ, हाँ, वहीं रहती हैं।”

“वह तो जीजी, अच्छा गा लेती हैं। एकदम फारवर्ड और स्वतन्त्र हैं।”

“विचार तो प्रतिक्रियावादी हैं। संस्कृति और मनुष्य की श्रेष्ठता की बातें करती थीं।”

“सरकारी नौकर हैं, जीजी।” कुन्तल ने गम्भीरता से कहा और करवट बदल ली। केतकी ने देखा और समझा। वह चुप हो गयी। पर उसे नींद नहीं आ रही थी। कभी कश्मीर की बात सोचती, कभी उसके पति की मूर्ति सामने आ जाती। भले आदमी हैं, बहुत भले। केतकी को किसी बात के लिए मना नहीं करते। उसका गाना सुनते हैं। उसके चित्र देख कर प्रशंसा करते हैं। उसके मित्रों का स्वागत करते हैं। पर केतकी है कि उसका असन्तोष बढ़ता ही जाता है। रिक्तता उभरती आती है। वह उसके साथ सभाओं में नहीं जा पाते। संगीत के बारे में कोई सुझाव नहीं दे सकते। उन्हें सब अच्छा-ही-अच्छा लगता है। सब बहुत अच्छा है, जिसका आशय है कि सब बुरा है। बुरा तो है ही - केतकी कभी-कभी तर्क कर बैठती है। वह मुझे प्रसन्न करने को अच्छा कहते हैं। उन्हें स्वयं कुछ अच्छा नहीं लगता। तब कोई कह उठता है, लगता क्यों नहीं। उन्हें अपना व्यापार अच्छा लगता है। पैसा पैदा करना ही अच्छा लगता है। केतकी तब और विह्वल हो उठती है। पैसा पैदा करना ही तो जीवन का ध्येय नहीं है। फिर उसके मन में पुराना विचार भी कसक उठता है कि पैसा पैदा करने का वर्तमान तरीका शोषण को जन्म देता है। कालेज में जिस पूँजीवादी व्यवस्था की वह धज्जियाँ उड़ाया करती थी उसी का वह अंग बनने जा रही है...

उसे नींद आने लगी पर जब तक वह सुषुप्ति की अवस्था में पहुँची तब तक अनेक मीठे-कड़वे विचारों ने उसके उलझे हुए मस्तिष्क को और भी उलझा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सवेरे जब वह उठी तो उसका हृदय धक-धक कर रहा था। जैसे वह रात-भर दुःस्वप्न देखती रही हो, जैसे उसने कोई भयंकर पाप कर डाला हो। पर ये सब अन्तरमन की बातें हैं; ऊपर से तो वह मुस्करायी। अलस भाव, मुक्त केश-राशि, मुस्कान-विभूषित क्लान्त नयन; यह भी एक सौन्दर्य है। निशान्त का सौन्दर्य!

कार तैयार करके ठीक आठ बजे रामसिंह ने सूचना दी तो केतकी बेबी से उलझ रही थी। बेबी वजिद थी कि वह भी साथ जाएगी और केतकी का निश्चित मत था कि सोसायटी में बच्चों को ले जाना अपने और उनके, दोनों के लिए अहितकर है। इसलिए उसे हर बार कोई-न-कोई झूठा बहाना बनाना पड़ता है। सोचती है, यह बहुत बुरी बात है। उसने पढ़ा भी है कि बार-बार झूठ बोलने से बच्चों को झूठ बोलने की आदत पड़ जाती है या फिर वे माँ-बाप से घृणा करने लगते हैं। दोनों बुरी बातें हैं; पर सभा-सोसायटी में जब कोई गम्भीर विवाद चल रहा हो, या कविता अथवा संगीत का तन्मय कर देने वाला वातावरण छा गया हो, तब यदि बेबी शिशु-सुलभ चापल्य से नाच-गा उठे तो क्या वह दाँत तले किरकिरा उठाने वाली बात न होगी? उसे याद है कि किस तरह एक-दो मित्र अपने बच्चों को ला कर सोसायटी में सदा हँसी का पात्र बनते रहे हैं। सच तो यह है कि वे न्यूसेंस बन भी जाते हैं।

बहरहाल किसी तरह एक मोटर और एक तसवीर वाली किताब लाने का वायदा करके केतकी जाने को तैयार हुई। कुन्तल कॉलेज की एक पार्टी के साथ सवेरे ही पिकनिक पर ओखला चली गयी थी। कार में बैठ कर उसने रामसिंह से पूछा, “तुम्हें तो कहीं नहीं जाना?”

“जी नहीं।”

“बैठो।”

कार चल पड़ी तो उसे लगा-रामसिंह को कोई काम निकल आता तो अच्छा रहता। पर वैसे वह चलती चली गयी। एक बार कार लोदी रोड की ओर मुड़ी, पर फिर कुछ सोच कर बारहखम्भा जा पहुँची। कनॉट सर्कस का एक चक्कर काटा और रमानाथ के मकान के सामने सड़क पर कार रोक दी। रामसिंह ने द्वार खोला, पर वह बोली, “ऊपर जा कर देखो कि मिस्टर रमानाथ हैं या चले गये।”

“बहुत अच्छा।” कह कर रामसिंह चला गया। केतकी अलस भाव से चक्के पर हाथ रखे कनॉट सर्कस की दूकानों को देखती रही। प्रायः सभी बन्द थीं। आवागमन भी प्रायः शून्य था। एक रिक्तता-सी लगती थी जैसे कभी-कभी वह अपने अन्दर महसूस करती है पर वह विचारों में डूब सके इससे पूर्व उसकी दृष्टि एक युवक पर पड़ी - क्या यह फ्लूटिस्ट नहीं है? उसने हार्न बजाया। कई दृष्टियाँ ऊपर उठीं, उन्हीं में वह फ्लूटिस्ट भी था। वह इकहरे बदन का युवक है। लम्बे बाल, लम्बी कमीज और महीन धोती, यह उसकी पोशाक है। आँखें बड़ी-बड़ी हैं। मुख पर सदा एक आह्लाद छाया रहता है। नाम बहुत बड़ा है। संक्षेप में उसे सब सुधीर कहकर पुकारते हैं। केतकी को देख कर वह मुस्कराया और शीघ्रता से पास आ कर बोला, “नमस्कार!”

केतकी ने हाथ जोड़े “नमस्कार” कहा, फिर पूछा, “कहाँ जा रहे हैं?”

“रेडियो स्टेशन।”

“प्रोग्राम है?”

“जी हाँ।”

“शाम को भी है?”

“जी, छः बजे के बाद नहीं है।”

“तो आप प्रोग्राम पूरा करके सात बजे मेरे घर आने की कृपा करें। सब लोग इकट्ठे हो रहे हैं। संगीत-गोष्ठी और इसके बाद वहीं भोजन होगा।”

“जी - “ सुधीर कुछ झिझका।

केतकी मुस्करायी। “रात आपसे कुछ बातें नहीं हुईं। बाँसुरी भी नहीं सुनी। आज आपको कष्ट दिया जाएगा।”

“वह तो आपकी कृपा है - “ सुधीर ने फिर कुछ कहना चाहा पर केतकी ने उसे बोलने नहीं दिया। कहा, “आप मेरा घर शायद नहीं जानते।”

सुधीर ने एकदम कहा, “जानता हूँ।”

“तब ठीक है। हाँ, रमानाथ कहाँ होंगे?”

“क्यों, वह तो रेडियो स्टेशन गये हैं!”

“अच्छा, उनका भी प्रोग्राम है?”

“हाँ, दस बजे बच्चों के प्रोग्राम में हैं। फिर शायद छुट्टी है।”

केतकी ने सन्तोष की साँस खींची। शीघ्रता से बोली, “तो आइए बैठिए। आपको रेडियो स्टेशन छोड़ दूँगी और रमानाथ से बात भी कर लूँगी।”

तब तक रामसिंह भी आ गया था। उसने बताया, “साहब रेडियो स्टेशन गये हैं।”

“अच्छा। बैठो।” कह कर उसने सुधीर के लिए द्वार खोला - “आइए।”

सुधीर पीछे से घूम कर केतकी के पास आ बैठा। केतकी ने आराम से पैडल दबाया और कार पार्लियामेंट स्ट्रीट से होकर उस विशाल भवन की ओर, जिसमें से निकल कर मनुष्य की आवाज सारे संसार में फैल जाती है, दौड़ने लगी। सुधीर ने केतकी से कहा, “आप रेडियो पर क्यों नहीं आतीं?”

“मैं?”

“हाँ, आप इतना सुन्दर गाती हैं। आपने कोशिश नहीं की?”

“नहीं।” केतकी ने कार की गति धीमी कर दी थी। लजीली मुस्कराहट से बोली, “रमानाथ ने कई बार कहा पर...”

“मैं कहूँगा...”

दोनों की बातें अधूरी रह गयीं। रेडियो स्टेशन आ गया था। सुधीर शीघ्रता से उतरा और बोला, “मैं अभी रमानाथ को देखता हूँ।”

“हाँ, आप उन्हें दो मिनट के लिए भेज दीजिए। मैं यहीं बैठी हूँ।”

तीन-चार मिनट बाद रमानाथ वहाँ आ गया। मुस्करा कर बोला, “आइए न, यहाँ क्यों बैठी हैं?”

“मुझे श्यामा जी के पास जाना है। आज शाम को...”

“वह तो मैं सुन चुका हूँ। आपने व्यर्थ ही कष्ट किया। पर क्या किया जाए, कुछ व्यक्तियों को कष्ट उठाने में आनन्द आता है। बहरहाल मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूँ।”

केतकी हँस पड़ी। बोली, “श्यामा जी के पास चल सकते हैं?”

“मैं?”

“हाँ।”

“नौ बजने में दस मिनट हैं और मुझे सवा दस बजे अन्दर जाना है - चल सकता हूँ पर आप मुझे दस बजे यहीं छोड़ दें इस शर्त पर।”

“मंजूर है।”

“तो चलिए।”

रमानाथ शीघ्रता से सुधीर की जगह आ बैठा। कार फिर चल पड़ी। रमानाथ ने कहा, “मैंने आज बातें की थीं।”

“किससे!”

“यही अपने प्रोग्राम एक्जीक्युटिव से। आपको गाने के लिए आना है।”

“यहाँ?” केतकी विजय-गर्व से मुस्करायी।

“जी हाँ, न जाने कौन-कौन गाता है। आपका इतना सुन्दर गला है पर फिर भी आप लजाती हैं। नहीं, अब आप मना नहीं कर सकेंगी।”

केतकी फिर मुस्करायी। धीरे-से चक्का घुमाते हुए बोली, “मैं परसों कश्मीर जा रही हूँ।”

“हमेशा के लिए?”

“कौन जानता है!”

रमानाथ हँस पड़ा। “आप कल रेडियो स्टेशन आ रही हैं। उसके बाद क्या होगा, देखा जाएगा।”

“कल आने दो।”

“जी, कल दो बजे मैं आपके पास आऊँगा।”

केतकी ने कनखियों से रमानाथ को देखा, ओठों को कुछ उपेक्षा से भींचा। बोली, “श्यामा जी को बुलाइए।”

रमानाथ चौंका - “श्यामा जी को?”

“हाँ; सुना है वह बहुत अच्छा गाती हैं।”

“आपने नहीं सुना?”

“आज सुनूँगी।”

ये शब्द इस प्रकार कहे गये थे कि जैसे उसी का गाना सुनने को गोष्ठी का आयोजन किया गया है।

रमानाथ ने अनजाने ही गहरी साँस खींची, “वह बहुत सुन्दर गाती है पर साथ ही वह बहुत स्वतन्त्र भी है। किसी पर निर्भर करना उसे नहीं सुहाता।”

“ओह!” - केतकी इतना ही कह सकी। कोई कार के सामने आ गया था। उसे बचाने के लिए तेजी से हाथ-पैरों का प्रयोग करना पड़ा। और तभी आ गया श्यामा जी का क्वार्टर। रमानाथ के मन की बात मन में रह गयी।

श्यामा ने सहसा हेमचन्द्र की ओर देखा, देखती रह गयी। एक अज्ञात आशंका से क्षण-भर के लिए उसके नयन पलक मारना भूल गये। जो प्याला ओठों की ओर बढ़ रहा था उसे उसने मेज पर रख दिया। उसके कारण जो 'ठक' शब्द उठा वह उसे जैसे वज्राघात था। एक दुःस्वप्न के बाद जैसे दोनों की नींद खुल गयी। श्यामा ने दृष्टि झुका ली। यह सब निमिष-मात्र में हो गया, अनजाने और अनचाहे!

दूसरे ही क्षण हेमचन्द्र ने अपने को पा लिया। वह मुस्कराया, बोला, “श्यामा जी! आप क्या कहती हैं, मोटर तो आपकी ही है।”

“मेरी!” श्यामा ने दृष्टि उठायी और अपने को पाने की चेष्टा की।

“जी हाँ।”

“हेम बाबू! इस तरह क्या अपने को भुलावा दिया जा सकता है?”

हेमचन्द्र ने एकदम कोई जवाब नहीं दिया। वह तब एकटक श्यामा की ओर देख रहा था। उसके मन में कई प्रश्न उठ रहे थे पर वह उन सबको दबा देना चाहता था। इसलिए श्यामा पर से दृष्टि हटा कर वह प्लेट के बिस्कुट से खेलने लगा। उसे उठा कर उसने खाया नहीं। पहला ग्रास अटक जो गया था। यद्यपि अब तक वह नीचे उतर गया था, पर फिर भी उसके स्थान पर खराश हो जाने के कारण वहीं अटका जान पड़ रहा था। कई बार खाँसी उठी, पर सन्नाटा काँप कर रह गया; भंग नहीं हुआ। तब तक श्यामा का रंग लौट आया था। उसने चाय के दो प्याले तैयार किये। एक को चुपचाप हेमचन्द्र की ओर सरकाया। हेमचन्द्र ने शान्त स्वर में कहा, “श्यामा जी! मोटर आपकी है। कल आपके नाम करवा दूँगा।”

“मेरे - “श्यामा ने दृष्टि उठायी।

और ठीक तभी द्वार पर किसी ने आहट की। दोनों ने उस ओर देखा। आहट फिर हुई। श्यामा उठी और बिना बोले द्वार पर पहुँची। किवाड़ खोलते ही सबसे पहले दृष्टि रमानाथ पर पड़ी; इसके पहले कि वह मुस्कराये, देखा पीछे केतकी भी है। सहसा एक अज्ञात भय की छाया उसके मुख पर आयी, वह काँपी, बायाँ पैर पीछे हटने को उठा पर हटा नहीं। इतनी देर में रंग लौट आया; मुस्करायी, मधुर स्वर में बोली, “आप!”

रमानाथ और केतकी ने केवल उसी मुस्कराहट-मिश्रित 'आप' को सुना। वे दोनों भी मुस्कराये। बोले, “नमस्ते।”

“नमस्ते!”

रमानाथ ने हँसते हुए पर क्षमा के स्वर में कहा, “केतकी जी आपका घर नहीं जानती थीं। मुझे आना पड़ा। अब - “

श्यामा बोली, “तो आइए न! मैंने आपसे जवाब तो नहीं तलब किया है।”

और कह कर वह मुड़ी। दोनों पीछे-पीछे चले। चाय की मेज पर हेमचन्द्र को देख कर रमानाथ मानो हर्ष से फूल उठा, बोला, “अहाहा आप हैं हेम बाबू! भई खूब मिले! तुम तो यार ईद के चाँद बने रहते हो। कल की मीटिंग में भी नहीं आये। लखनऊ से तरक्की-पसन्द शायर अल्ताफ हुसैन आये थे। सुधीर थे। केतकी जी थीं। श्यामा जी थीं। अगर तुम आ जाते तो बेचारी केतकी जी को एक मुसीबत न उठानी पड़ती। रात बारह बजे हजरत को लोदी रोड छोड़ कर आयीं।” और फिर उसे कुछ भी न कहने का अवसर देते हुए बोला - “और हाँ, इनसे मिलो तो। अपनी मित्र हैं; श्रीमती केतकी। सुन्दर गाती हैं और उतनी ही सुन्दर इनकी तूलिका है। अच्छे चित्र बनाये हैं। हृदय जितना मुक्त है, मस्तिष्क भी उतना भी सुलझा हुआ। गरज यह है कि आपकी मित्रता पर किसी को भी गर्व हो सकता है।”

फिर केतकी को सम्बोधित करके कहा, “और केतकी जी, ये हैं श्री हेमचन्द्र। हम लोग प्यार से हेम बाबू कहते हैं। सेक्रेटेरियट में सुपरिंटेंडेंट हैं। श्यामा जी के मित्र हैं। कुमार हैं। पास में कार है। जीवन में विश्वास करते हैं।”

जब तक रमानाथ बोलता रहा केतकी और हेमचन्द्र मन के भावों को दबाये नाटक के पात्र की तरह खड़े रहे। वह बन्द हुआ तो दोनों ने शिष्टाचार का नाटक पूरा किया। पर न जाने क्यों श्यामा का मुख रक्तहीन होता जा रहा था। किसी तरह अपने को सँभाल कर उसने नौकर को पुकारा और चाय लाने का आदेश दिया। फिर वह केतकी की ओर मुड़ी और अतिशय विनम्रता से, ओठों की मुस्कराहट में स्वर को सँजोती हुई बोली, “मेरा घर पवित्र हुआ। आपने मुझ पर कैसे कृपा की?”

केतकी उत्तर दे इससे पूर्व रमानाथ बोल उठा, “क्षमा कीजिए। मुझे तो दस बजे रेडियो स्टेशन पहुँचना है, श्यामा जी। देर न कीजिए। केतकी जी आज शाम को अपने मकान पर संगीत-सभा का आयोजन कर रही हैं। एक तरह से 'सांस्कृतिक सन्ध्या' मनाने का आयोजन है। संगीत, फिर भोजन और अन्तिम शो। सब अपने ही मित्र होंगे।”

“जी हाँ” - केतकी ने मधुर स्वर में कहा, “उसी के लिए मैं आयी हूँ। हेम बाबू, आप भी...”

रमानाथ बोला, “हाँ भाई। मैं सिफारिश करता हूँ। तुम खुश होगे। जरूर आना। घर नहीं जानते तो मेरे पास चले आना।”

हेमचन्द्र ने हँस कर कहा, “मैं आऊँगा...” और फिर वाक्य मानो अधूरा रह गया हो, बोला, “श्यामा जी के साथ आऊँगा। वह घर जानती होंगी।”

श्यामा ने तुरन्त कहा, “मैं भी नहीं जानती। कभी ऐसा सौभाग्य मिला ही नहीं।”

केतकी ने उत्तर दिया, “यह मेरा दुर्भाग्य है कि कल से पूर्व आपसे मिलना नहीं हुआ। घर जाने पर मेरी छोटी बहन कुन्तल से, जो कॉलेज में पढ़ती है, पता लगा कि आप तो सुन्दर गाती हैं। ...रात गोष्ठी में क्यों नहीं गाया आपने?”

सहसा एक सिहरन ने श्यामा को आलोड़ित कर दिया पर उधर देखे बिना रमानाथ ने कहा, “आपको जाने को देर जो हो रही थी, वरना ये तो फिर भी काफी देर रुकी रहीं।”

अब तो श्यामा तिलमिला उठी। उसने कुर्सी को जोर से पकड़ लिया पर सौभाग्य से हेमचन्द्र के अतिरिक्त इसे और किसी ने नहीं देखा। हेमचन्द्र की दृष्टि तो मानो उस पर जमी हुई थी। नाना प्रकार के भाव उसे आलोड़ित कर रहे थे। उनमें दुःख था, व्यथा थी पर असन्तोष नहीं था, निराशा नहीं थी। इसीलिए उसने केतकी और रमानाथ की बात सुन कर पूर्ववत् शान्त स्वर में कहा, “तो क्या हुआ। आज गाएँगी और कल की कसर भी पूरी कर देंगी।”

श्यामा ने चिल्ला कर कहना चाहा, “मैं नहीं गाऊँगी। मैं कहीं नहीं जाऊँगी। तुम सब चले जाओ!” पर वाणी ने एकदम असहयोग कर दिया था। वह जड़ बनी बैठी रही। हेमचन्द्र ने फिर उसकी तरफ देखा और कहा, “क्यों, श्यामा जी?”

श्यामा उसे कुछ उत्तर दे कि उसकी दृष्टि केतकी से जा मिली। नारी ने नारी को पहचान लिया। श्यामा ने दृष्टि झुका ली। एक क्षण में केतकी ने उसे देखा, रमानाथ को देखा; हेमचन्द्र को देखा फिर उठी। “तो मैं आशा करूँ, आप सब आ रहे हैं। मुझे कई जगह जाना है। क्षमा चाहती हूँ।”

और फिर रमानाथ की ओर मुड़कर केतकी ने कहा, “चलिए आपको रेडियो स्टेशन छोड़ती जाऊँ।”

श्यामा की वाणी जैसे खुली, “अभी रुकिए, चाय आ रही है।”

“क्षमा चाहती हूँ, श्यामा बहन। देर हो जाएगी। फिर आऊँगी।”

रमानाथ ने भी क्षमा चाही और वे लौट चले। श्यामा उन्हें द्वार तक छोड़ने आयी। निमन्त्रण के लिए धन्यवाद दिया। मुस्करायी, हाथ जोड़े और फिर पूरे जोर से किवाड़ बन्द करके लौट आयी। मुख एकदम गम्भीर हो आया। बोली, “मेरी तबीयत कुछ खराब है, हेम बाबू लेटूँगी।”

“लेटेंगी! आज! रविवार का दिन और यह मेघाच्छन्न आकाश। किसको पागल कुत्ते ने काटा है जो घर में पड़ेगा?”

“हेम बाबू!”

“चलो ओखले चलते हैं।”

“हेम बाबू! मैं कहीं नहीं जाऊँगी।”

“क्यों?”

“कहा तो, तबियत खराब है।”

“विश्वास रखो, ओखले पहुँचने से पूर्व ही तुम्हारी तबियत खिल उठेगी।”

“नहीं, नहीं, हेम बाबू, मैं कहीं नहीं जा सकती!”

और उत्तर की अपेक्षा न करके वह अन्दर की ओर मुड़ने को हुई, तब हेमचन्द्र ने पूछा, “नहीं जाओगी? श्यामा!”

“नहीं।” वही दृढ़ उत्तर था।

“तो क्या डॉक्टर के पास जाना होगा, दवा लाऊँ?”

“आप चिन्ता न करें, मैं सब कुछ कर लूँगी।”

“अच्छा।” वह उठ खड़ा हुआ। “तुम अपनी मर्जी की मालिक हो। तुमने कब किसका कहा किया है। जो जी में आये करो।”

श्यामा मुड़ी, उसने तीव्रता से कहना चाहा, 'हेम बाबू!' पर जो स्वर निकला उसमें तो आँसू भरे हुए थे, उबलते हुए आँसू।

हेमचन्द्र ने सुना और समझा। पर अब वह रुका नहीं। द्वार पर पहुँच कर उसने स्नेह-भरे स्वर में कहा, “स्त्री-पुरुष की बात छोड़ दें तो भी व्यक्ति को व्यक्ति के सहारे की आवश्यकता होती ही है; और फिर तुम अपने ही सहारे की बात क्यों सोचती हो। मुझे भी तुम्हारा सहारा चाहिए। अच्छा, अपने को सँभालो। पाँच बजे आऊँगा। जरूर। नमस्ते।”

और वह शीघ्रता से चला गया।

और श्यामा शीघ्रता से मुड़ी। उसके नयनों की कोरों में जलबिन्दु चमक उठे थे। उन्हें बिना पोंछे वह द्वार पर आयी। कार में बैठा हेमचन्द्र क्लच दबा कर तेजी से चक्के को घुमा रहा था। क्षण-भर में कार में गति भर उठी। वह तेजी से सामने दौड़ी और दूसरे ही क्षण मोड़ पर से आँखों से ओझल हो गयी। पीछे रह गया धुआँ, काला और बदबूदार धुआँ, मशीन का बल और मशीन का प्रसाद...

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-4

“दिल्ली में क्या-क्या देखा?”

केतकी के घर रविवार सन्ध्या को जो आयोजन हुआ, उसमें एक एम.पी. भी आन फँसे थे। उन्होंने यह प्रश्न अल्ताफ हुसैन से पूछा।

अल्ताफ ने अपने तरीके से गर्दन को झटका दे कर पेशानी पर लटके लम्बे बालों को और आगे लटका लिया और अचकन के बटनों से खेलते हुए जवाब दिया - “जिन्दगी।”

जिन्दगी की हर आदमी की अपनी परिभाषा होती है। खास तौर से बड़े शहर में हर आदमी की अपनी परेशानी होती है, अपने वैचारिक काट होते हैं, अपने सांस्कृतिक मान होते हैं। दिल्ली दरबार के समय व्यंग्य से कवि ने पूछा था - 'दिल्ली में क्या-क्या देखा?' तब दर्शनीय लाट और कनॉट जो भी रहा हो; आजकल तो यात्री कुतुब,बिड़ला मन्दिर, राजघाट, लालकिला और संसद भवन देख लेते हैं। साथ ही कनॉट प्लेस का बारहखम्भा देखे बिना भी वे नहीं रहते।

“आपने बारहखम्भा देखा?” एम.पी. साहब का शिशुवत् प्रश्न।

“खम्भा तो वहाँ कोई भी नहीं है। सूली का भी नहीं।” पूरी बत्तीसी दरसाते हुए शायर ने उत्तर दिया।

“खम्भे तो सीकरी में पंचमहल की तीसरी मंजिल पर देखने लायक हैं। हर खम्भे पर डिजाइन अलग।” फ्लूटिस्ट सुधीर ने अपना शिल्प-ज्ञान प्रदर्शित किया।

“सबसे शानदार खम्भा है धार में पड़ा हुआ हेलियोडोरस का बनाया लोहे का खम्भा जमीन पर चित्त पड़ा है, अभी भी पालिश ज्यों-की-त्यों है।”

यह खम्भा-पुराण और आगे चलता, यदि परिहास में केतकी ने यह न कहा होता -”जैसे बम्बई के धोबी तालाब में कोई तालाब नहीं है वैसे ही बारहखम्भा में कोई खम्भा नहीं।”

कुन्तल को सहसा एक बँगला लोकोक्ति दुहराने की इच्छा हुई - 'कोलकाता शब मुछे भरा, बोउबाजारे ते बोउ पाबे ना, श्यामबाजार थेके राधाबाजार दूर।'

शायर को जैसे कुछ उकसाहट मिली। बोले - “यह नकली नामों की नकली दिल्ली है?”

एम.पी. ने कहा - “इनकी जिन्दगी भी नकली है।”

रोज-रोज रेडियो पर अनिच्छा से मधुर गीत गा कर और कड़ुई कॉफी पी कर रमानाथ की वाणी में कुछ अतिरिक्त कड़ुवाहट आ गयी थी। वह जोश से बोल उठा -”किसकी जिन्दगी नकली है? नयी दिल्ली की या मोटरवालों की जिन्दगी जो सदा गियर बदलती, चायघरों और पानगृहों में जा कर समाप्त होने वाली जिन्दगी? यह भी कोई जिन्दगी है?”

शायर कुछ अप्रतिभ हुए। शेरवानी के बटनों पर से उन्होंने हाथ उठा लिया और कुर्सी के हत्थे यों मजबूती से पकड़ कर बोले, मानो वे हत्थे न हो कर उस पाँसे-सी जिन्दगी के प्रतीक हों जिस पर से उनका कब्जा छूटा जा रहा हो - “शाम को नयी दिल्ली में कैसा रंग और रूप दिखाई देता है। सच्चा कास्मोपालिटन कल्चर यहाँ देखिए। रस और नाद, गन्ध का समाँ।”

रमानाथ आज जैसे चोट करने पर तुला था-”यहाँ रंग चेहरों पर पुता रहता है, दिल में नहीं उतरता; यहाँ रूप छलना और दिखावा है। एक नूर आदमी, दस नूर कपड़ा। यह जिन्दगी नहीं, चलती-फिरती ममियों की शव-पूजा है।”

कुन्तल ने बीच ही में अकारण छेड़ दिया - “आज श्यामा जी नहीं आयीं अभी तक?”

शायर साहब ने बातचीत कुछ गम्भीर होती देख, उसे दूसरा मोड़ देना चाहा - “तभी रमानाथ इतने चहक रहे हैं।”

फ्लूटिस्ट सुधीर केतकी की ओर देख कर बोला - “हेमचन्द्र उसे अपनी कार में लाने वाले थे न?”

केतकी ने साभिप्राय कहा - “हाँ, कार तो राह में फेल भी हो जा सकती है।” और इसके बाद जैसा ड्राइंगरूम की ऐसी पार्टियों में होता है, मंडली दो-दो, तीन-तीन के छोटे-छोटे गुटों में बँट गयी। रमानाथ जोर से कहा रहा था -”नयी दिल्ली की आलीशान दूकानों और बुर्जुवा वासियों से अलग एक दुनिया भी तो है, और तादाद में वह काफी बड़ी है - “

एम.पी. ने, जैसे कोई रहस्यवादी कविता सुन रहा हो, गर्दन हिला कर कहा - “हाँ, तादाद जनतन्त्र में बड़ी चीज है।”

रमानाथ में, अप्रासंगिक रूप से, मानो कोई मजदूर-नेता भूत बन कर समा गया था। उसने नाटकीय ढंग से कहा, “जी हाँ, ये सैकड़ों नौकर, बावर्ची, बैरा, आया-खानसामे, झाड़ूवाले, चौकीदार, महरियाँ, यह कमकरों की दुनिया जिनमें स्त्रियाँ, बच्चे, बूढ़े सभी काम करते हैं-यह असली दुनिया है...”

लखनऊ के तरक्की-पसन्द शायर, पियक्कड़, आशिकमिजाज अल्ताफ हुसैन साहब बहुत खुश हुए। एकदम कह उठे - “इस सरमायादारी निजाम ने आदमी को मशीन बना दिया है।”

एम.पी. साहब चुप नहीं कर सकते थे। वह जैसे बोलने के लिए अवसर की ताक में ही थे। “ऐसे मशीनी लोग संस्कृति का, कला का निर्माण नहीं कर सकते।”

शायर ने धीमे से कहा, “दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।”

रमानाथ घूर-घूरकर एम.पी. की ओर देखने लगा। और ऐसी विद्रूप-भरी, हिकारत की विषबुझी मुस्कान के साथ उसने फुफकारकर कहा - “संस्कृति?” मानो वह कहना चाहता हो कि खद्दर की खोल से लिपटे इस चिकने-चुपड़े चर्बी के घड़े को क्या पता है संस्कृति के सृजन का दर्द!

और किसी हद तक यह बात सही थी। केतकी की नौकरानी जमुना के लेखे वहाँ जमे भद्रजनों का 'संस्कृति' की लच्छेदार बातें करना बाल की खाल निकाल कर लफ्फाजी का कालीन बुनना जितना निरुपयोगी था; वैसे ही एम.पी. साहब को भी वहाँ चलने वाली दिलचस्प कला-चर्चा एकदम जादू-मन्त्रों की तरह जान पड़ रही थी। एम.पी. साहब की शिक्षा-दीक्षा अल्प थी। और 'संस्कृति' का अर्थ उनके निकट सवेरे पाँच बजे उठना, ठंडे पानी से नहाना, सूर्य-स्नान, स्वास्थ्य, दूध-खजूर और मुसम्मी के रस का सेवन, प्रार्थना में कुछ धार्मिक ग्रन्थों का पाठ और नैष्ठिक रूप से कातना तथा केवल 'हरिजन-सेवक' पढ़ना था। यही उनका नित्यकर्म था। सन् तीस, सन् चालीस, और सन् बयालीस में तीन महीने वह जेल भी हो आये थे। भाई की कपड़े की दुकान अच्छी चलती थी; और इनका सारा जीवन ग्राम-नगर, प्रान्त और जनपद की राजनैतिक जोड़-तोड़ यानी दलबन्दी में ही बीता था।

संस्कृति और ललित कला के सम्बन्ध में एम.पी. मानो, बहुत सीधे और सहज थे। चित्रकला में उनकी पहुँच देश के नेताजनों के रंगीन चित्रों तक थी; संगीत के मामले में उनके आर्यसमाजी संस्कारों ने उन्हें सिखाया था कि जो उपयोगिता से भरा नहीं हो, वह संगीत कैसा? सो सर्वोत्तम संगीत उन्हें 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' लगता था; और उसके बाद 'जय जगदीश हरे' की आरती भी बुरी नहीं थी। कविता उनकी समझ में नहीं आती थी; पर जेल में एक भावुकजी नाम के सज्जन थे, उनकी कविता भी उन्हें बड़ी ओजपूर्ण और राष्ट्रभक्ति-भरी लगती थी। स्थापत्य नाम की किसी कला का उन्हें अन्दाज नहीं था, क्योंकि एम.पी. बनने के बाद जो सीमेंट और लोहा और टीन के पत्रे उन्हें मिल गये थे उन्हीं से गाँव में बने किसी भी आकार-प्रकार के घर से उनका काम चल जाता था।

सो एवंगुणविशिष्ट एम.पी. श्रोता और दर्शक अधिक थे। संस्कृति की बात पर शायर ने अफयून-भरे स्वर में कहा, “तहजीब और तमद्दुन की सच्ची क्रिएशन सोशलिस्ट एकानामी में ही - “

कुन्तल उबल पड़ी, “अभी आप इन गरीबों को मशीन की तरह बता रहे थे। आपका समाजवाद-साम्यवाद जो भी वाद हो, आ जाने पर क्या संस्कृति और सृजन के लिए गुंजाइश रहेगी? सब एक काट के, एक तरह के, एक-सी शिक्षा के आदमी! यह स्टैंडर्डाइजेशन - “

बात काट कर रमानाथ बोला, “मशीन आदमी को अधिक सुसंस्कृत बनायेगी। हमें इस भूख, अकाल, गरीबी और बेकारी से भरी समाज-व्यवस्था की निस्बत वह स्टैण्डर्ड - “

कुन्तल से रहा न गया, “आपको अपने शरीर की रक्षा के लिए आत्मा की मौत मंजूर है?”

शायर ने सिगरेट के धुएँ का कुंडल हवा में छोड़ते हुए कहा, “आतमा? वह सोलहवीं सदी का कानसेप्ट है।”

एम.पी. साहब को लगा जैसे कुन्तल के रूप में उनको दैव-प्रेषित समर्थन मिल गया हो! बोले, “संस्कृति तो स्वतन्त्र आत्मा ही बना सकती है। देखिए, जब तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे, हम उनकी नकल उतारते थे। संस्कृति तो मौलिक होती है, उसमें नकलीपन से काम नहीं चलता।”

मगर कुन्तल ने तेजी से कहा, “संस्कृति के रक्षक न तो ये खद्दरधारी हैं और न ये कामरेड। संस्कृति जनता बनाएगी। वह नेताओं के बनाने से नहीं बनती।”

रमानाथ ने वाग्युद्ध छेड़ दिया, “जनता और आत्मा, ये दो परस्पर विरोधी बातें कैसी कहती हो कुन्तल!”

“जनता से मेरा मतलब है जन-साधारण। हर व्यक्ति को शिक्षित और सुसंस्कृत बनना होगा। नहीं तो संस्कृति की चर्चा करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे।”

अधीर होते हुए फ्लूटिस्ट सुधीर ने कहा, “श्यामा जी अभी तक नहीं आयीं?”

केतकी ने धीमे, पर नपे-तुले शब्दों में एक शरारा छोड़ा, “हेमचन्द्र भी तो अभी नहीं आये।”

सारी मंडली यों अधीरता से प्रतीक्षा कर रही थी और एम.पी. की बातों से ऊब उठी थी। एम.पी. अपने सदा के अप्रासंगिक ढंग से सुना ही रहे थे कि कैसे केतकी के पति मदनराम ने उन्हें मित्र के नाते ज्योतिषाचार्य भोलाशंकर से मिलाने का वचन दिया था; और कैसे उनके ग्रह-योग आगामी वर्ष में और भी बुलन्दी पर थे, कि श्यामा और हेमचन्द्र भी आ गये। पार्टी का समय छः बजे का तय हुआ था, वे आये थे साढ़े सात बजे।

अन्दर आते ही हेमचन्द्र ने क्षमा माँगी, “क्षमा कीजिए, मेरे कारण आपको कष्ट हुआ। जरा देर हो गयी।” और यह कहकर हेमचन्द्र ने श्यामा की ओर यों देखा मानो विलम्ब का कारण वही हो।

श्यामा आज सदा की भाँति प्रसन्न-चित्त और मुस्कराती हुई नहीं थी। उलटे वह कुछ गम्भीर और उदास, कुछ क्रोध से भरी और कुछ आत्म-परिताप से पीड़ित-सी जान पड़ती थी। वह कुछ नहीं बोली। गुमसुम बैठी रही। हेमचन्द्र की ओर उसने यों देखा मानो उसे डाँट रही हो कि वह कोई भेद की बात सबके सामने न कह दे।

बात यह हुई थी कि पौने छः बजे जब अपनी गाड़ी ले कर हेमचन्द्र श्यामा के घर पहाड़गंज पहुँचा तब उससे मिलने-जुलने वाली कोई सहेली या सम्बन्धित बैठी थी और हेमचन्द्र को आध घंटा बाहर के कमरे में बैठा रहना पड़ा। एक अविवाहिता, स्वतन्त्र स्वावलम्बिनी स्त्री के कमरे में इस तरह समय बिताना वैसे न भी अखरता, पर इधर-उधर देखते हुए उसे सहसा एक किताब दिखायी दी। उसे खोलते ही, प्रथम पृष्ठ पर लिखा था बहुत बनावटी अक्षरों में -

'जन्मदिन का उपहार। कुमारी श्यामा माथुर को सस्नेह - रमानाथ'

हेमचन्द्र के मन में सहसा कई बातें उठीं। उस दिन सवेरे श्यामा झूठ क्यों बोली थी? रमानाथ के घर पर रात को मैंने उसे देखा था, यह बात भी मैंने उसे बातचीत में कह दी थी। क्यों?

तो क्या वे सब स्नेह और आश्वासन हृदय-भरे भावुकतापूर्ण पत्र झूठे थे? और क्या प्रेम सचमुच जैसा कविजनों ने वर्णित किया है निरी प्रवंचना है, निरी आत्म-प्रतारणा? श्यामा रमानाथ को चाहती है? सच्चे हृदय से? तो वह जो हेमचन्द्र के प्रति अपनी स्नेह और ममता व्यक्त करती है वह क्या निरा अभिनय है? नारी जन्मना अभिनय-कुशला होती है। हेमचन्द्र ऐसे सहज पराजित होने वाला व्यक्ति नहीं है। उसने निश्चय किया कि अब श्यामा बाहर आयी कि उससे पूछ कर वह फैसला कर लेगा।

पर श्यामा बाहर जल्दी नहीं आयी। और हेमचन्द्र की खीझ बढ़ती ही गयी। उसने मेज पर करीने से लगी किताबों में से भारतीय नृत्यकला पर अंग्रेजी में लिखी कोई पुस्तक उठायी। वही मुद्राएँ थीं, वही उदयशंकर, रामगोपाल, कथकलि के चेहरे, वही सब कुछ था। वैसे हेमचन्द्र को अपनी कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में चित्रकला से बड़ा शौक था। और किताबों के चिकने आर्ट पेपर पर नमन और प्रणति की मुद्रा में छाया चित्रित किसी नर्तिका के पोज पर से उसका मन उड़ कर न जाने किन अज्ञात प्रदेशों में, स्मृति-संवेदनाओं से भरे दिवास्वप्नों से सुसज्जित कल्पना-लोक में पर फड़फड़ाने लगा। शून्य में अपने सुनहले पंखों की आभा में छटपटाने वाला प्रभाव-हीन वह देवदूत-मैथ्यू आर्नल्ड ने शेली पर यह फतवा दिया था-पर उसकी कविता के कारण नहीं, उस कवि के व्यक्तिगत प्रणय-जीवन की अस्थिरता और चंचलता से चिढ़ कर। और इसी तरह हमारे सभी निर्णय होते हैं। हम एक चीज का गुस्सा दूसरी चीज पर उतारते हैं, और जहाँ जो हमें करना चाहिए वह हम नहीं कर पाते, इसलिए और कहीं कुछ और कर बैठते हैं जो नहीं करना चाहिए था। पर यह ख्याल हमें बहुत बाद में आता है। जब यह ख्याल आता है तब वह चीज सुधरने की स्थिति पार कर चुकी होती है...

हेमचन्द्र के मन में विशृंखलित तसवीरें बनती-मिटती जा रही थीं, जिनकी एक झलक कुछ इस प्रकार से दी जा सकती है - बम्बई का समुद्र तट, सुनसान जुहू की बालुका-राशि और दूर से आती हुई एक नारी आकृति जितनी ऊँची समुद्र-तरंग की लावण्यमयी, नील, फुफकारती, फेनिल जलराशि; ताड़ और नारियल के पेड़ों की बिखरी हुई कुन्तल-राशि में से सरसराता हुआ सायंवात - हेमचन्द्र की उँगलियाँ विपुल, स्निग्ध केशभार में से हौले-हौले घूम रही हैं। यह मानो सहकरुणा भरा थपथपाना नहीं है; यह किशोरों का अधीर, उष्ण श्वासों की निकटता से भरा आश्लेषण का स्पर्शारम्भ नहीं है; यह निरी थकान, समुद्र-सन्तरण के बाद की गात्रों की शिथिलता है। ...और सुनहरी गहरी लाल-काली सन्ध्या की अनुभूति उसे दुबारा हुई। समुद्र-तट पर नील-जामुनी क्षितिज-विस्तार, चित्रकार की कल्पना को उकसाने वाली दृश्यावली की वर्णाढ्य रंग-संयोजना, यह सब कुछ था पर पुरी में बम्बई की प्रिया, सखी, सहपाठिनी नहीं थी। एकाकी होने पर मनुष्य को दुःखद स्मृतियाँ ही याद नहीं आतीं, सुख-संवेदनाओं की पुलक का भी ध्यान हो आता है, और अब उनके प्रत्यागमन से उनके दुबारा घटित न होने का अभाव अधिक दुःखद हो उठता है... और हेमचन्द्र का प्रतीक्षा-स्थिर मन उन सब दृश्यों को जगाने लगा जिनसे वह प्रतीक्षा के लम्बे समय के पार जा सकता था। न जाने क्यों उसे समुद्र की बात याद आयी थी। समुद्र की बात को सोचते-सोचते उसे पहाड़ों की याद आयी। नैनीताल से बागेश्वर जाते हुए बैजनाथ के बाद शाम को देखा हुआ नन्दादेवी का त्रिशूल शिखर। हिमवन्त की वह पारदर्शी, चमचम, रजताभ किंवा स्वर्णिम झाईंवाली झाँकी! और उससे भी अधिक सुन्दर था दार्जिलिंग में देखा हुआ कांचनजंगा शृंग, सुदूर, सफेद हाथियों के झुंड से बादलों पर आरूढ़, राजसी, शृंखलाबद्ध, नेपाल, भूटान, तिब्बत की त्रिसीमा का प्रहरी-पति। चायबागान के सुन्दर, करीने से लगे, सीढ़ियों जैसे वृक्ष; बीच-बीच में घाटियों में सिर के बल कूदने वाले झोरा, सदा बदरी; बीच-बीच में आकाश को छूने वाली, 'ऊँ मणिपद्मे हुँ' करोड़ बार लिखी लम्बी पाल के आकार की सफेद तिब्बती ध्वजायें, चावल की बनी राक्षसी मूर्ति की पूजा, काली ठकुरानी, बुधिनी, हुड्डमदेव - 'ड्वांग ड्वांग डुंग डुंग डर लाग्दो बाजा। राति राति हिंड्ने गोर्खाली राजा।' - गोरखनाथ की जय। - लिम्बू जाति के गन्धर्व विवाह - शैव, बौद्ध, मिश्रण -'विगलिंग या बलि दिलाने वाला साधु - भूचाल, धसक जानेवाले पहाड़ के फेफड़े-क्या मनुष्य के मन की आधार-शिलाएँ भी कभी-कभी इसी तरह चट्टानों और मिट्टी के खिसकने और नीचे गिर पड़ने की तरह सहसा अपना सन्तुलन नहीं खो बैठतीं? क्या आदिम विकार आस्था और विश्वास के गले को पकड़ कर, दोनों पंजों से दम घोंटने का काम नहीं करते? ...क्या हेमचन्द्र के मन का आधार...

अचानक हेमचन्द्र नृत्यकला की पुस्तक देखने लगा। और उसका मन समुद्र और पहाड़ से लौट कर चित्र की नारी की आकृति की नीली आँखों और शिल्पप्राय स्तनमंडल पर अटक गया। केतकी के घर पार्टी छः बजे थी। और इस समय श्यामा के घर में बैठा हेमचन्द्र घड़ी में छः बज कर तीस मिनट देख रहा था। और कुछ कर नहीं सकता था। एक मन उसका हुआ कि वह उठकर चल दे और श्यामा को अपने साथ ले ही न जाय। पर यह फिर एक विश्वासघात होगा। किन्तु क्या एक व्यक्ति का दो व्यक्तियों के बारे में एक-सा सोचना इस एक के विश्वास का खंडन नहीं है? क्यों नहीं। जैसे हेमचन्द्र का दार्जिलिंग में उस चीनी लड़की से...

हेमचन्द्र खट से सीधा हो कर बैठ गया। सोचने लगा कि उस दिन रमानाथ के घर की सीढ़ियों पर से वह चुपके से क्यों लौट आया था? क्यों नहीं वहीं उस मंडली में वह पहुँच गया और भरी सभा में जा कर श्यामा से मिलकर लौटा? परन्तु वह अपने आपको सुसंस्कृत समझता था न! क्या संस्कृति हमें कायर भी बना देती है?

कि अपनी सहेली को विदा करके श्यामा आयी। दोनों में बातचीत कुछ झड़प से शुरू हुई। हेमचन्द्र रोष-भरे स्वर में बोला, “बड़ी देर कर दी श्यामा?”

“मैं क्या करूँ। दफ्तर की एक परिचिता थी। उसे मना भी कैसे करती?”

“मना करना सिर्फ पुरुषों को आता है?”

“जी हाँ, वे सभी सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र होते हैं न! स्त्रियाँ अधिक सच बोलती हैं। अभी यह लड़की आयी थी, यह भी कह रही थी कि... मैंने कहा मुझे केतकी के घर आज शाम को जाना है, तो केतकी के बहुत फारवर्ड होने की वह बुराई कर रही थी।”

हेमचन्द्र से न रहा गया। सहला बोल उठा, “हाँ, केतकी जो कुछ कहती हैं, करती हैं। उसमें हृदय का खुलापन है। ट्रांसपेरेंसी है दिल की। कुछ स्त्रियाँ कहीं जाती हैं और पूछने पर झूठ ही कह देती हैं - मैं घर जाकर सोती रही।”

इतने में हेमचन्द्र पुस्तक बन्द करके टेबल पर यथास्थान रखने गया कि एक फोटो भी नीचे गिर पड़ा। सुन्दर-सा छोटा एनलार्जमेंट। हेमचन्द्र उसे उठाने झुका, और श्यामा भी। दोनों की टक्कर होते-होते बची। श्यामा के हाथ से प्रायः छीनते हुए हेमचन्द्र ने देखा - रमानाथ का छायाचित्र था। उस पर अलंकृत अक्षरों में लिखा था - प्रेमपूर्वक श्यामा को।

श्यामा अब कुछ नहीं बोली। एकदम विषय बदलकर उसने कहा, “मैं अभी तैयार होकर आती हूँ।” और वह कपड़े पहनने चली गयी।

विषण्ण, दमित क्रोध से दुखी हेमचन्द्र जा कर खिड़की के पार खड़ा हो गया। बाहर बाजार बराबर चल रहा था। पहाड़गंज में अब बत्तियाँ जलनी शुरू हो गयी थीं। वह सोच रहा था - पार्टी में सब हमें कोस रहे होंगे। रमानाथ भी... अब श्यामा से इस विषय में पूछना व्यर्थ है। वयस्क अविवाहिता है। पता नहीं कितने रमानाथ, हेमचन्द्र और कौन-कौन उसके परिचित मित्र-युवा संगी रहे होंगे! पर फिर उसके मन ने एक पलटा खाया और वह सोचने लगा, इस तरह सहसा किसी निर्णय पर आ पहुँचना बड़ा सस्ता, पुराना, अतिसामान्य सन्देह-प्रधान पुरुष स्वभाव है। परन्तु हेमचन्द्र ऐसा अतिसामान्य नहीं है। किसी उपहार-पुस्तक से, छायाचित्र से, या शाम को या रात को देर तक किसी पुरुष के यहाँ रह जाने से क्या उस स्त्री के सम्बन्ध में कोई निर्णय किया जा सकता है? यह सब सोचना व्यर्थ है। नहीं-नहीं, श्यामा का दिल उसने निरर्थक दुखाया। श्यामा वही श्यामा है; हेमचन्द्र भी वही पहले जैसा हेमचन्द्र है।

श्यामा बहुत सुन्दर धूपछाँही रंग की साड़ी पहनकर बाहर आयी। केशों का भी उसने विशेष आकर्षक प्रकार का विन्यास किया था। और दोनों मोटर में, बिना बोले आ दाखिल हुए।

कुछ दूर तक मौन चलने पर श्यामा ने यह विषय छेड़ा - “हेम, तुम अपने आपको क्या समझते हो?”

“आदमी।”

“आदमी को पाप-पुण्य का डर होता है?”

“आधुनिक आदमी को डर किसी भी चीज का क्यों होना चाहिए? उसकी अपनी बुद्धि है। और विज्ञान सहायक है, यदि आवश्यकता हो।”

“फिर वही बुद्धि और विज्ञान की बात ले आये! हेम, तुम मनुष्य-हृदय को भी क्या खेत समझते हो, कि उस पर ट्रैक्टर चला कर सामूहिक खेती हो सके?”

“मुझे मालूम है श्यामा, तुम मशीन से नफरत करती हो; पर पग-पग पर तुम्हें उसकी जरूरत भी पड़ती है। श्यामा, तुम चाहती कुछ और हो, कहती ठीक उससे उलटा हो।”

वाद-विवाद और भी चलता कि तेज चलने के इरादे से हेमचन्द्र ने मोटर की रफ्तार बहुत बढ़ा दी, और मोड़ पर एक्सीडेंट होते-होते बचा। एक बुढ़िया मेाटर के नीचे आ गयी होती। पर हेम चतुराई से मोटर उससे बचा कर निकाल ले गया। पर और एक संकट आन उपस्थित हुआ; एक्सीडेंट के भय के मारे श्यामा एक चीख के साथ आँखें मूँद कर उसकी बायीं बाँह पर अचेत-सी गिर गयी।

पहले तो हेमचन्द्र यही नहीं समझा कि श्यामा को हो क्या गया। पर थोड़ी देर बाद उसने गाड़ी एक घने छायादार पेड़ के नीचे जा कर रोकी और देखा कि श्यामा बेहोश है। यह श्यामा को कभी-कभी आने वाले हिस्टीरिया के फिट का एक दौरा था।

हेमचन्द्र सहसा घबरा गया। उसने श्यामा की कड़ी पड़ी देह को मोटर के अन्दर के हिस्से में कुछ फैला कर लिटाया। पास के नल से पानी ला कर उसके मुँह पर छिड़का। पर नाड़ी ठीक चल रही थी। हृदय की गति भी नार्मल थी। बस दाँत भींच कर मुट्ठियाँ बाँधे श्यामा वहाँ शहीद की मुद्रा में पड़ी थी। ...'यहाँ जिन्दगी नहीं, चलती-फिरती ममियों की शव-पूजा है।'

बाद में वह डॉक्टर के यहाँ गया। कुछ दवा सुँघाने से श्यामा पुनः पूर्ववत् हो गयी। वह भूल गयी थी कि इस बीच में क्या हुआ। और इस तरह पार्टी में वे देर से पहुँचे थे। श्यामा का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उससे गाने का आग्रह न किया जाय, इस बात पर हेमचन्द्र ने जोर दिया। फिर शायर ने कुछ सुनाया, सुधीर ने बंशी बजायी जो चैन की नहीं बेचैन की बंशी थी। और अन्त में रमानाथ से गजल गाने का बहुत आग्रह किया गया। एम.पी. भी भजन सुनना चाहते थे; पर वह फरमाइश पूरी न हो सकी।

बहुत समय बीत चुका था। सब जाने की तैयारी में थे, तब अन्त में रमानाथ ने बड़ी वेदनाभरी आवाज में 'दर्द' की गजल छेड़ी -

तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले,

जिस लिए आये थे हम वह कर चले।

जिन्दगी है या कोई तूफान है,

हम तो इस जीने के हाथों मर चले।

शमअ की मानिन्द हम उस बज्म में

चश्मतर आये थे दामनतर चले।

साकिया याँ लग रहा है चल चलाव,

जब तलक बस चल सके सागर चले।

हँसी-खुशी से मजलिस समाप्त हुई। एम.पी. साहब नींद के समय का व्यतिक्रम होने से परेशान थे। रमानाथ और सुधीर और दूसरे रेडियो वाले अपनी-अपनी साइकिलें और साज की पेटियाँ उठा कर चल दिये। कुन्तल बेबी को सँभालने घर रह गयी। और दो गाड़ियाँ रात के 'शो' में चित्र देखने चलीं - केतकी अल्ताफ हुसैन को ड्राइव कर ले जा रही थी और हेमचन्द्र श्यामा को। पिक्चर खास अच्छी नहीं थी, पर बहुत बार चित्रपट तो केवल कम्पनी के लिए देखा जाता है।

सिनेमा हाल में विशेष रिजर्व किये हुए 'बाक्स' में चारों जा बैठे, सबसे दायीं ओर श्यामा, बाद में अल्ताफ हुसैन, फिर हेमचन्द्र और बायीं ओर अन्त में केतकी। इन चारों में केतकी वहाँ विशेष रूप से चमक रही थी; वेश आभूषण, प्रसाधन सब यथावत् थे। पिक्चर आरम्भ होने से पहले कुछ मजाक होता रहा। अल्ताफ हुसैन साहब ने अपने रूसी भाषा के अधकचरे ज्ञान को छाँटते हुए कहा - “आज की बेचेसिका बड़ी सुन्दर रही।”

“बेचेसिका?” केतकी ने पूछा।

“रूसी जबान में शाम की पार्टी या दावत को कहते हैं।”

तीर बराबर लगा था। श्यामा ने कुछ स्निग्ध कटाक्ष करते हुए कहा, “अच्छा, आप रूसी भी जानते हैं?”

“कुछ-कुछ। आप आज बहुत अनमनी रहीं। वर्ना मैं आपसे रिक्वेस्ट करने ही वाला था - पोहते पच्जालुस्ता।”

“यह और क्या आफत है? यह भालू की जबान जान पड़ती है।”

अल्ताफ ने हँसकर उत्तर दिया, “इसका मतलब है - कृपया गाइए।”

और पिक्चर शुरू हो गयी।

जो पिक्चर उस रात उन चारों ने देखी, उसमें कोई विशेषता नहीं थी। जैसी भारतीय फिल्में गये चार-पाँच सालों में निकली हैं वैसी ही एक सड़ियल, मामूली, यान्त्रिक कथानक वाली फिल्म। कभी सलवार और कुर्ते में से शरीर के अंग मटका कर कोई कुरूपा शृंगार का अतिरंजित अभिनय कर रही है, कभी पंजाबी ठेके पर टप्पे की तर्ज पर कोई अर्थहीन गाना हो रहा है... शब्दार्थ उसमें गौण है; कामुक स्वरावली प्रधान है।

इंटरवल में सिनेमा की पटकथा की तन-मन-वचन से रुग्णा नायिका पर विवाद चल पड़ा और हेमचन्द्र ने अनजाने ही श्यामा के मन का कोई खिंचा हुआ तार झनझना दिया : “आजकल लड़कियों की बड़ी उम्र तक शादी नहीं होती और अक्सर उनकी तबियत खराब हो जाया करती है।”

श्यामा ने आँखें बड़ी-बड़ी करके डाँटते हुए - यद्यपि उस धुँधली रोशनी में वह भाव इतना स्पष्ट नहीं हुआ - विषयान्तर करने के लिए कहा, “पिक्चर कैसी लगी?”

अल्ताफ सिर्फ हँस दिया।

अपनी रुचि की आधुनिकता का परिचय देते हुए केतकी बोली, “उँह! बोर है।”

श्यामा ने भी कुछ मुँह बनाया और सिर को मजबूत हथेली से पकड़ लिया - “आज कुछ सर्दी ज्यादह है, क्यों?”

अल्ताफ ने अतिरिक्त कोमलता से कहा, “बाहर शायद पानी बरसा है। पिक्चर के बाद हम बार में चलें। आपका यह सरदर्द मिनटों में दूर हो जाएगा।”

केतकी ने कुछ ध्वनि-भरी हँसी से कहा, “श्यामा शायद हार्ड ड्रिंक्स पसन्द नहीं करतीं।”

इस विषय पर अल्ताफ अपने विशद अनुभव की गाथा बयान करते, पर रुक गये। श्यामा ने दोनों हथेलियों से अपना मस्तक और जोर से दबा लिया। और वह कुर्सी की एक बाँह पर जैसे झुक गयी। इस बीच में चित्र अपने जंगली नाच और सर्कस जैसी उछल-कूद के साथ शुरू हो गया था। हेमचन्द्र उठा। उसने श्यामा का हाथ अपने हाथों में लिया और उसे सहारा देते हुए उठाया। केतकी और अल्ताफ से माँफी माँग कर दोनों बाहर निकल आये। हेमचन्द्र ने अपनी गाड़ी में श्यामा को ला कर बैठाया कि श्यामा भयानक शीशपीड़ा से व्याकुल अन्दर लेट-सी गयी।

हेमचन्द्र ने जल्दी से कार डॉक्टर सेन के यहाँ रोक दी। डॉक्टर सेन जमींदार आदमी थे। डॉक्टरी से ज्यादह उन्हें कविता से शौक था। नाटे-से, काले-मोटे भलेमानुस। उतरते ही जब हेमचन्द्र ने सब हाल कहा तो अपना स्टेथेस्कोप लटकाये वह कार तक पहुँच गये। पेशेंट की नाड़ी देखी, और देखी हृदय की गति। थोड़ी देर रुक कर बोले, “केस कुछ साइकोलॉजिकल ज्यादह है।” जब हिस्टीरिया के दौरे की बात हेमचन्द्र ने कही, डॉक्टर ने पूछा, “फिर वह होश में कैसे आयी?”

हेमचन्द्र ने कहा, “मेरे पास एक रूमाल में एसेंस था।”

डॉक्टर सेन ने गम्भीर मुद्रा से कहा, “हाँ, स्मृतिभ्रंश के किसी रोगी को प्रिय फूलों की सुगन्धि पुनः स्मृति ला देती है। सीरियस नहीं है। यह स्लीपिंग टैब्लेट्स दे दीजिए।”

श्यामा के घर हेमचन्द्र पहुँचा। जीने से सहारे-सहारे श्यामा को चढ़ाया। उसकी पर्स में से चाभी निकाल कर दरवाजा खोला। पर्स में एक नोटबुक भी उसे दिखाई दी, जिसे पढ़ने की उत्सुकता उसके मन में जाग उठी। उसे लगा कि कुमारी की प्राइवेट डायरी वह क्यों कर पढ़े? और जब वह इस तरह रुग्णावस्था में हो, तब उसकी अनुमति के बिना? क्या यह पाप नहीं है? पर जिसे अपना स्नेही मान लिया उससे दुराव-छिपाव क्या?

ऊपर पहुँच कर श्यामा को उसने उसके पलंग पर सुला दिया। हलका-सा कम्बल ओढ़ा कर, दवा की टिकिया उसे दे दी। और थोड़ी देर वह बैठा रहा दवा का असर देखने।

सब ओर सुनसान था। घड़ी टिकटिका रही थी। पर्स में से वह नोटबुक निकालकर हेमचन्द्र पढ़ने लगा।

'लारोशेफूको की कहावतें अंग्रेजी में अनूदित पढ़ीं। सत्रहवीं सदी के इस फ्रांसीसी चिन्तक का यह वाक्य कितना अर्थपूर्ण है - “हाउ मच हैज ए वूमन टू कम्पलेन आफ ह्वेन शी हैज बोथ लव ऐंड वर्चू। ...देअर आर मेनी आनेस्ट वीमेन हू आर टायर्ड आफ देयर प्रोफेशन।”

उसी के पास कही हाशिये में और कई वाक्य स्त्रियों के विषय में लिखे थे : 'एक फारसी कवि ने कहा, है, “प्रारम्भ में अल्लाह ने एक गुलाब, एक लिली का फूल, एक कबूतर, एक साँप, थोड़ा-सा शहद, एक सेब और मुट्ठी भर मिट्टी ली और उसकी ओर एक दृष्टिपात किया। देखा तो वह एक स्त्री थी।”

“मेरा कयास है कि मनुष्य जो चीजें सुधार सकता है उनमें स्त्री अन्तिम वस्तु है।” (मेरेड्थि)

“स्त्रियों की 'हाँ' और 'नहीं' में एक आलपिन भी घुस नहीं सकती।” (सर्वेंतिस) “स्त्रियाँ जब अकेले में होती हैं, तब कैसे समय बिताती हैं यह यदि पुरुष जान ले तो वह कभी शादी ही न करे।” (ओ हेनरी)

“ईश्वर ने स्त्री बनायी। और उसी क्षण से जीवन की नीरसता नष्ट हुई - परन्तु उसके साथ-ही-साथ कई चीजें नष्ट हो गयीं। स्त्री ईश्वर की दूसरी गलती है।” (नीत्शे)

'परन्तु स्त्रियों से नफरत करने वाले इन सब पुरुषों के मन में स्त्री के प्रति गहरा नकारात्मक आकर्षण होता है।'

नोटबुक का यह एक ही पन्ना उसने पढ़ा। और आगे वह न पढ़ सका। उसके मन में द्वन्द्व हुआ कि बीमार, सोती हुई श्यामा को यों अकेला छोड़-कर वह घर चला जाय? क्या यह उचित है?

और उसके घर पर सोते रहना तो और भी अनुचित है न! तिस पर उसे सवेरे-सवेरे उठ कर जितना जल्दी हो सके देहात में अपनी ड्यूटी पर पहुँच जाना है; एक ट्रैक्टर का सहकारी खेती के प्रयोग में प्रथम उद्घाटन है। ट्रैक्टर? और श्यामा का स्वास्थ्य उसके आगे कुछ नहीं है? नौकरशाही के विराट् यन्त्र का एक छोटा-सा कीला हेमचन्द्र अप्रतिभ हो कर सोचते बैठा है...

नीले झिलमिले पर्दे से श्यामा सोई हुई दिखायी दे रही है। कमरे की मन्द रोशनी में उसका चेहरा अतिरिक्त फीका और पीला जान पड़ता है। दार्जिलिंग में चाँदनी रात में उस चीनी लड़की ने जब अपनी दर्द-भरी गाथा टूटी-फूटी अंग्रेजी में सुनायी, तब क्या उसका चेहरा ठीक ऐसा ही नहीं था? उस लड़की का नाम था शी-चून। गायिका थी वह।

हेमचन्द्र आखिर भारी कदमों से उठा। गाड़ी स्टार्ट की और अपने घर आ गया। परन्तु उसे नींद बड़ी देर तक नहीं आयी।

उधर पिक्चर पूरा करके केतकी और अल्ताफ लौटे। तब अल्ताफ साहब पूरे अपने कवित्व के जोम में थे। बीच-बीच में कारण-अकारण, कविताएँ जो अधूरी-टुकड़ों में उन्हें याद थीं, सुनाते जाते थे। प्रेम की चर्चा छिड़ी थी और अल्ताफ कह रहे थे, गुनगुना कर -

बेखुदी ले गयी कहाँ हमको,

देर से इन्तजार है अपना।

रोते फिरते हैं सारी-सारी रात,

अब यही रोजगार है अपना।

दे के दिल जो हो गये मजबूर,

इसमें क्या इख्तियार है अपना।

केतकी ने उन्हें चिढ़ाने का निश्चय कर लिया था। बोली, “शायर साहब, सारी-सारी रात रोते रहने वाले शायर आपको पसन्द हैं। ये आपके शायर हैं या आँसुओं के फव्वारे हैं?”

अल्ताफ ने कुछ कहने की कोशिश की कि शायरी हृदय की और भावुकता की चीज है। उसका इस तरह निर्मम भाव से वैज्ञानिक विश्लेषण, फूल के पराग को उससे छीन कर उस पर तेजाब के प्रयोग की भाँति है।

तब सहसा केतकी ने विषय बदल कर कहा, “श्यामा और हेमचन्द्र तो आधे चित्र में से ही जैसे गायब हो गये।”

“श्यामा बीमार थी न!”

“श्यामा शायद वह अमराई वाला दृश्य देख कर ही ज्यादह बीमार हो गयी, क्यों?”

अल्ताफ साहब कुछ हँसी में टालते रहे। वह अपना निर्णय देना नहीं चाहते थे।

इतने में कार कुछ खुले में बाहर आ गयी। लम्बे-लम्बे लान, दूर पर शायद इंडिया गेट की परछायी-सी। सब कुछ धुँधला और कुहरिल। हवा में एक तरह की खुनकी भरी थी, जो कि वर्षा हो जाने के बाद धरती और शून्य के बीच में जैसे जम गयी थी। बड़ी सुखद रात थी। और अल्ताफ हुसैन को लगा, जैसे शायरी के लायक कोई वक्त है तो यही है। केतकी से उसने कहा, “जरा रुक जाओ।” और केतकी ने भी गाड़ी रोक दी।

दोनों उतरे और धीमे-धीमे जलाशय के निकट जाकर बैठे। एक कुमुद का फूल शरारत से जैसे हँस रहा था। प्रेम के नाम पर निरे रूपाकर्षण से पास खिंची इस जोड़ी के मन का हाल जैसे वह फूल जानता हो और कहता हो -

'सब्र मुश्किल है आरजू बेकार

क्या करें आशिकी में क्या न करें?'

न जाने अल्ताफ को क्या लगा, उसने केतकी के कन्धे पर हाथ रख दिया। उसने भी मना नहीं किया।

केतकी के जीवन का यह स्पर्श-पक्ष बहुत अभावपूर्ण है। उसके पति व्यवसाय में सदा बिंधे रहते हैं। सदा दौरे पर। कभी हवाई जहाज से, कभी रेल से, कभी मोटर से वह बँधे रहते हैं जैसे उनके पैरों में चक्कर पड़ा हो। और केतकी ने कई सन्ध्याएँ सुन्दर कपड़े पहिन कर प्रतीक्षा में यों ही बिता दी थीं। उसके मन का मेल इस निरे व्यापारकुशल मदनराम से नहीं हो पाता था। और फिर उसके मन में एक प्रसुप्त संकोच और भय के साथ-ही-साथ पर-पुरुष के प्रति जगने वाली एक अज्ञात कुतूहल-भरी आकांक्षा, एक जिज्ञासायुक्त साहसिकता भी थी।

अल्ताफ जैसे रूप की मदिरा पिये और उन्मत हो गया। जलाशय में पड़ा चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बिखर गया। पानी के सोते में जैसे मिट्टी नीचे से किसी ने ऊपर तक हिला दी। वह गुनगुनाता जाता था -

दिया अपनी खुदी को जो हम ने उठा

जो परदा-सा बीच में था न रहा,

रहा परदे में अब वह परदानशीं

कोई दूसरा उसके सिवा न रहा।

प्रकृति का सरंजाम अनुकूल था। पाप या पुण्य के कोई मानसिक ताले या संयम के बाँध वहाँ नहीं थे। मुक्त मन से नारी और पुरुष मिल रहे थे। स्नेह की प्रगाढ़ छाया में, परस्पराकर्षण की आदिम वन-ज्योत्स्ना की सुरभि से आलोकस्नात।

आसमान में बादल यों छितरे थे, और चाँद उनके टुकड़ों में यों छिपा था जैसे -

अयाँ ऐसे कि हर शै में निहाँ थे।

निहाँ ऐसे कि हर शै से अयाँ थे॥

किन्तु यह प्रणय-लीला अधिक समय तक नहीं चली। सहसा दोनों को समय का भान हुआ। दूर पर कहीं एक घड़ियाल का घंटा, शून्य दिशाओं में अपनी ध्वनि प्रतिगुंजित करता खो गया। जलाशय के पानी में फेंके कंकड़ हट गये। धीरे-धीरे गोल-गोल आवर्त के बने निशान संकुचित होकर एक बिन्दु की ओर सिमटने लगे। और चाँद साफ दिखाई दिया।

तब केतकी ने पुनः कार स्टार्ट की। और अल्ताफ साहब किसी हल्के से नशे में चूर आदमी की तरह उसके साथ हो लिये। अपने मोड़ पर आ कर गाड़ी के रुकने पर बोला, “अच्छा, आपसे फिर मुलाकात होगी न?”

“जरूर, क्यों नहीं।” कह कर केतकी हँस दी, अकारण।

और गाड़ी को जल्दी-जल्दी से मोड़ कर वह घर पर ले आयी।

घर पर आ कर उसने जमना को जगाया तो पता चला - ये सब लोग पार्टी के बाद सिनेमा गये तभी बाद में उधर से सहसा केतकी के पति कश्मीर से लौट आये हैं। वह थके हुए थे और पास के कमरे में सो रहे हैं। कुन्तल जग रही थी, उसने जीजा मदनराम को पार्टी की सारी कहानी खूब कहकहों के साथ सुनायी थी।

केतकी अन्दर जा कर पुनः चोर की तरह, सोने का बहाना करने लगी।

रात का समय नहीं कटता, नींद जल्दी नहीं आती, इसके लिए उधर एम.पी. साहब ने नींद की गोलियाँ नहीं खायीं : परन्तु 'कल्याण' मासिक का एक पुराना मोटा विशेषांक 'नारी अंक' उठाकर इधर-उधर टटोलने लगे।

जहाँ-जहाँ उनकी नजर अटकी वे अंश यों थे :

“स्त्री की सृष्टि जगत् को मुग्ध करने के लिए नहीं, अपने पति-देवता को सुख देने के लिए हुई है।” (एडमण्ड वर्क)

“हिन्दुओं में स्त्रियों को जितना सम्मान दिया जाता है, उतना संसार की और किसी प्राचीन जाति में नहीं दिया जाता।” (विल्सन)

“स्त्रियों के बाहर के कार्यों में लगे रहने से काम नहीं चलेगा। हमारे देश की प्रत्येक महिला को गृहिणी और जननी बनना पड़ेगा।” (हिटलर)

“स्त्रियों को किसी भी वय में स्वाधीन छोड़ना उचित नहीं।” (होरेस मैन)

“पुरुषों के अधीन रहने में ही स्त्रियों की सबसे बड़ी शोभा है।” (ल्यूइस मारिस)

“द्वारोपवेशनं नित्यं गवाक्षेण निरीक्षणम्।

असत्प्रलापो हास्यं च दूषणं खलु योषिताम्॥” (व्याससंहिता)

“न पिता नात्मजो नात्मा न माता न सखीजनः।

इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा॥” (रामायण)

“नाश्नीयाद् भार्यया सार्द्धं नैनाभीक्षेत चरिनतीम्।” (मनुस्मृति)

“युवती गुरुभार्या च प्रणमेत्र पदे स्पृशन्।” (वृहद्धर्म)

“स्त्री शूद्रो नाधीयताम्!” (बुद्ध)

धन्य है भारतीय संस्कृति और उस हिन्दू संस्कृति के रक्षक हम और आप। विलायत वगैरह यानी रूस-अमरीका में स्त्री पूज्य है ही नहीं - मिलिटरी ट्रेनिंग भी ले रही हैं, और क्या-क्या नहीं कर रही हैं - छिः छिः! 'मर्यादा' तो भारतीय नारी में ही शेष है। यों सोचते-सोचते एम.पी. सोने का यत्न करने लगे।

पर नींद किसी तरह से आ नहीं रही थी। उनके मनश्चक्षुओं के आगे बार-बार वही शाम की पार्टी के रंगबिरंगे वेशभूषा-सज्जा वाले चेहरे और नारी-देहलताएँ नाच जातीं। अन्त में उन्होंने कुछ धार्मिक मन्त्रों का मशीन की तरह उच्चारण आरम्भ किया, और पापमय विचारों को भगाने का यत्न किया। पर वे विचार उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पच्चीस बरस के विधुर जीवन का वह अभिशाप था। अन्तिम मन्त्र के नाते उन्होंने गीता गुनगुनानी या बुदबुदानी शुरू की -

ध्यायते विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।

संगात् संजायते कामः कामात्क्रोधोभिजायते॥

और अन्त में एटम बम की तरह एम.पी. महोदय ने पवनसुत और इन्द्रियजित् हनुमान का स्मरण किया और सोने का यत्न करने लगे।

रात एक है और चार पुरुषों के चार तरह के मन हैं। ऐसे चार नहीं चार करोड़ भी हो सकते हैं। और चार करोड़ ही क्यों अनगिनत तारों की तरह ये आदमी हैं। और रात एक है, भारी, नीली, जामुनी, स्याह, तारों-भरी, कभी-कभी रुपहली, भूरी, ऊदी, बादल-भरी, झींगुर की झनकार से, सन्नाटे की भाँय-भाँय से, सपनों के गुंजारव से और सियारों के भयावने चीत्कारों से भरी रात। बन्द, कुन्द, सीलन-भरी, बदबूदार, कोठरी-सी रात। और फिर भी उसमें यह छायापथ है, कहकशाँ है, आकाशगंगा है जिसके पार भी अनगिनत तारों के चूर्ण की सिकता पर रजतौघवती एक और दुनिया है जिसका अर्द्धवृत्त मात्र हमारी दृष्टि का क्षितिज है।

और प्रेमी हेमचन्द्र, चित्रकार हेमचन्द्र, फूड विभाग में काम करने वाला सरकारी नौकर हेमचन्द्र सोच रहा था कि नारी के विषय में और चाहे कोई उपमा सही हो न हो, यह निश्चित है कि वह नदी की भाँति है। यह स्रोतस्विनी है, जलप्रपात की यूनानी देवी हंगेरिया, वेगिनी, तटिनी, पयस्विनी, सारि, इन सब नामों से पुकारी जाने वाली संज्ञा नारी -नारी भी वही है!

हेमचन्द्र को भी घर जा कर बड़ी देर तक नींद नहीं आयी। और वह फिर अपनी प्रिय वस्तु ऋग्वेद के संवाद सूक्त पढ़ने लगा। विश्वामित्र-नदी सूक्त। विश्वामित्र के अस्तबल से निकली हुई दो अश्विनियों या वत्स को चाटने के लिए पर्युत्सुक दो सफेद गौओं की भाँति विपाट् और शुतुद्री नदियाँ भाग रही हैं। उन्हें क्षण भर रुकने के लिए ऋषि विश्वामित्र कहते हैं। वे उत्तर देती हैं : “हम इस जल से धरती को सन्तुष्ट करती हुई देव-नियोजित स्थान पर जा रही हैं। हम रुक नहीं सकतीं।” नदियों को रोकना आसान नहीं था। वज्रबाहु इन्द्र ने उन्हें खोदा था, उनके पथ में बाधा बने वृत्र को उन्होंने मारा था, सुहात सवितृदेव ने उन्हें मार्ग दिखाया था और प्रवाहित किया था। उसकी प्रेरणा से वे बह रहीं थीं।

अन्त में नदियाँ उस रोकने वाले को कवि जान कर कहती हैं - “हे कवि, अपना भाषण भूल मत जाना। तू हमें स्तोत्रों में गाना। पुरुषों में हमारा धिक्कार न करना। युगों-युगों तक हमारा नाम गूँजे। तुझे नमस्कार हो, कवि।” तब अन्त में कवि ने नदियों की स्तुति की -

“हे नदियों! सुनो!”

“हे नदियों, सुधासम्पन्न बन कर, सबको अन्नसम्पन्न बना कर समृद्ध करो, नहरें और शीघ्र बहने लगो।”

नदी, नारी और कवि तीनों ही केवल देने के लिए निर्मित हुए हैं। उन्हें याचक मत बनाओ, संस्कृति के ठेकेदारो, वे दाता हैं। यह विचार हेमचन्द्र के मन में आया।

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-5

शीशे-जड़ी चौकोर साइड टेबल पर लम्बी नोकीली उँगलियों वाला गोरा नाजुक पंजा सिकुड़ा हुआ, खामोश पड़ा था। नाखूनों की ताजी लाल पॉलिश और तीसरी उँगली में तिरछी पड़ी हुई प्लेटिनम की अँगूठी के हीरे रोशनी में चमक रहे थे। छोटी उँगली को छूता हुआ, टेबल पर आधा भरा गिलास रखा था। गेहुँए रंग की, चौड़े नाखून और मोटी गाँठों वाली उँगलियाँ जैसे अनजाने में धीरे-धीरे फिसलती हुई उन गोरी नाजुक उँगलियों की तरफ बढ़ने लगीं, उनकी लुचों से टकरायीं। गोरा हाथ ज्यों-का-ज्यों रहा। उँगलियाँ उँगलियों पर आ गयीं। गेहुँए रंग की पतली उँगली ने गोरे रंग की पतली उँगली को धीरे से अपनी लपेट में ले लिया। गोरे हाथ ने कोई शिकायत नहीं की।

रमानाथ ने अपनी बायीं तरफ गरदन तिरछी घुमाकर श्यामा के चेहरे को देखा। उसकी आँखें बन्द थीं, चेहरा काफी हद तक निर्विकार था। देखने से ऐसा लगा जैसे देह से निर्लिप्त होकर श्यामा इस समय मन मात्र ही रह गयी हो। और वह मन (?) यहाँ नहीं है। रमानाथ ने पहले तो खुद अपने को ही विश्वास दिलाते हुए सोचा कि अभी उसका नशा इस हद तक नहीं पहुँचा कि उसकी विवेचन शक्ति नष्ट हो गयी हो। और यह विश्वास जमते ही, लाख दबाते हुए भी, तीर की तरह होठों और आँखों की पुतलियों पर बिजली कौंध गयी। विचार आया; विचार के साथ ही उँगली ने श्यामा के गोरे नाजुक हाथ को झकोला दिया। असावधानी से झकोला दिया, बाकी उँगलियाँ उतावली के साथ उसके पंजे को अपनी गर्माहट में समेटकर कैद करने के लिए आगे बढ़ीं। विचार आया : श्यामा पोज करती है, मगर उसके जैसा गहरा पोज नहीं कर पाती। इस चतुराई के अभिमान को रमानाथ ने अपनी भँवों, नकसोरों और होठों पर चढ़ाते हुए कौशलपूर्ण रोमांटिक आँखें बना कर कहा - “सुनो”, इतने धीरे-से कहा मानो गुरुमन्त्र दे रहा हो।

श्यामा ने धीरे-धीरे पलकों के गोवर्द्धन उठाये; आँखों की पुतलियाँ उसके चेहरे की तरह ही निर्विकार थीं। रमानाथ एकाएक समझ न पाया। फिर भी समाज की डिसिप्लिन के अदृश्य हाथों से रमानाथ का गर्म-गर्म मन सँभाले न सँभला; एक कदम आगे बढ़ा। रमानाथ ने उँगली छुड़ा कर श्यामा की कलाई पकड़ ली, उसे अपनी तरफ खींचा, होठों पर अर्थ-भरी मुस्कराहट आयी। श्यामा का दाहिना कन्धा कुरसी के बाहर झुक आया, टेबल को ठेस पहुँची। आधा भरा हुआ गिलास खनका, डगमगाया। हत-बुद्धि रमानाथ से कलाई छोड़ते न बनी। श्यामा की स्वाभाविक फुरती उस समय विवशता के बन्धन में थी। उसकी त्यौरियाँ चढ़ीं, कलाई का बन्धन ढीला हो गया। इस जुम्बिश में पहले का ही अस्थिर गिलास फिर मेज पर जम न सका, दोनों हाथों से टकरा कर, दोनों हाथों को सराबोर कर टेबल पर गिर पड़ा। रमानाथ के होश-हवास तब तक सावधान हो चुके थे, गिलास नीचे लुढ़कने से बच गया। - सारा दृश्य आनन-फानन में घट गया, एक आश्चर्यजनक मजाक बन गया। दोनों की आँखें एक-दूसरे के भाव पढ़ने के लिए उत्सुक थीं। रमानाथ की नजरों में सकपकाहट थी। श्यामा की निर्विकार पुतलियों में फिर एक तेज चमक आयी, होठों पर व्यंग्य-भरी मुस्कराहट आयी। श्यामा को मुस्कराते देखकर रमानाथ ने भी अपनी झेंप-भरी समझदारी से काम लेते हुए मुस्कान बिखेर दी। फिर जोर से हँसने लगा, मानो उसने इस मजाक को (देर से ही सही, मगर) बहुत गहरे में पहचान लिया हो। श्यामा को रमानाथ की इस झूठी हँसी पर हँसी आ गयी। दोनों अपनी-अपनी तरह से उल्लास में आ गये थे।

एक क्षण दोनों शान्त रहे। रमानाथ ने पूछा, “लाइट बन्द कर दूँ?”

सवाल पूछकर चोर-जैसा मुँह बनाये रमानाथ उसका मुँह ताकने लगा। श्यामा ने फिर कुर्सी पर व्यवस्थित रूप से अपना सिर टेक लिया था, अब आँखें भी बन्द कर लीं, कहा, “बुझा दो।”

रमानाथ ने उठ कर दरवाजा बन्द किया, दरवाजे के पास वाली दोनों खिड़कियों की सिटकनी लगायी और रोशनी बुझा दी। रमानाथ श्यामा की कुरसी के पीछे खड़ा हो गया। उसके सिर पर मुलायमियत के साथ हाथ रख लिया, उसकी उँगली धीरे-धीरे माँग की लकीर से खेलने लगी।

“चलो उस कमरे में चलें।”

श्यामा 'हाँ-ना' दोनों से मुक्त शून्य-सी पड़ी थी। रमानाथ कुरसी के हत्थे पर आ कर बैठ गया। उसके होंठ श्यामा के होठों से मिलने के लिए बड़ी व्यग्रता के साथ नीचे झुके। चेहरे पर नशे की बदबू से भरी हुई परायी साँस पड़ते ही श्यामा के बायें हाथ ने कड़ाई के साथ उसका मुँह पीछे ढकेल दिया। यह अप्रत्याशित विरोध पाकर रमानाथ लड़खड़ा उठा; खड़ा हो गया। श्यामा सीधा हो कर बैठ गयी। “मैं जाती हूँ - “ उसने कहा और उठकर खड़ी हो गयी।

अँधेरे की आकृतियाँ अपने मन के प्रकाश में एक-दूसरे के भावों को देख रही थीं। रमानाथ कुण्ठित हो गया। बढ़ती हुई वासना की गर्मी क्रोध में बदलने लगी। उसकी बाँहें, उसका सारा शरीर श्यामा को जकड़ कर अपने पौरुष से कुचल डालने के लिए सीमा के अन्दर ही अन्दर तड़फड़ाने लगा। श्यामा आगे बढ़ी। बीच की कुरसियों को पार करती हुई स्विच तक पहुँची। कमरा फिर रोशनी से भर गया। प्रकाश होते ही रमानाथ की सूरत देख कर श्यामा हँस पड़ी।

रमानाथ इस तरह से खौला हुआ खड़ा था जैसे भरे चौराहे पर किसी अधिक शक्तिशाली ने उसे जूता मार दिया हो। श्यामा की हँसी सैकड़ों लोगों की मजाक-भरी हँसी की तरह उसके रोम-रोम में बिंध गयी।

“तुमने आज मुझे गहरा धोखा दिया श्यामा!” तीखी नजरों से श्यामा की तरफ देख कर रमानाथ बोला।

श्यामा ने उसे देखा और फिर हँस पड़ी। हँसी निरर्थक होते हुए भी विजय और व्यंग्य से भरी हुई थी। रमानाथ की मुट्ठियाँ बँध गयीं। उसकी आँखों में नफरत का तीखापन चमक उठा : “तुम समझती हो कि तुम खूबसूरत हो, और मैं तुम्हें प्यार करता हूँ?”

रमानाथ आगे बढ़ा। श्यामा ने स्विच के पास ही किताबों की अल्मारी पर हाथ रख लिया। वह खामोश हो कर देखने लगी, रमानाथ के चेहरे पर नजरें जमा कर देखने लगी। फिर कहा, “मैं तुमसे यही सुनना चाहती थी।”

श्यामा अल्मारी के पास से हट कर आगे बढ़ी, फिर कहा : “बाइ द वे, यह किस पिक्चर का डायलॉग था?”

रमानाथ शान्त हो गया। उसकी मुट्ठियाँ धीरे-धीरे खुल गयीं। चेहरे पर लदी हुई थकान उभर आयी, श्यामा के व्यक्तित्व के आगे उसे अपनी लघुता का आभास हुआ। वह विवश हो गया, ठिठक कर खड़ा हो गया। दरवाजे की तरफ बढ़ती हुई श्यामा से उसने कहा : “क्या हम अब फिर से दोस्त नहीं हो सकते?”

श्यामा बढ़ती गयी, उसने दरवाजे के पास वाली एक खिड़की खोल दी, फिर निश्चिन्त भाव से कोमल स्वर में बोली : “हमारी दोस्ती अभी टूटी ही कहाँ है?”

श्यामा ने बढ़ कर दरवाजे की कुंडी खोली। रमानाथ ने वहीं खड़े-खड़े व्यग्र हो कर पूछा : “जा रही हो?”

“नहीं, अपनी तस्वीरों का एल्बम बन्द कर रही हूँ।” कहते हुए उसने दरवाजे का एक पल्ला खोल दिया, और आ कर कुरसी पर बैठ गयी। रमानाथ वैसे ही खड़ा रहा। श्यामा का जवाब उसके लिए एक पहेली था, जिसे बूझने का कौतूहल जाग कर भी उसके मन में अलसाया हुआ पड़ा रहा।

श्यामा अपने सामने की उन दो हाफ-ईजी कुरसियों को देख रही थी जिन पर थोड़ी देर पहले वे दोनों बैठे थे। दोनों कुरसियों के बीच में छोटी-सी शीशे-जुड़ी टेबल पर रमानाथ का खाली गिलास रक्खा था, मेज और नीचे का फर्श गीला था। रमानाथ की कुरसी के पास भी एक टेबल रक्खी हुई थी, उस पर ह्विस्की की छोटी बोतल, सिगरेट का टिन और एश-ट्रे रक्खी थी। रमानाथ की कुरसी के पास एक और कुरसी तिरछी रक्खी हुई थी जिस पर वह टाँगे फैलाकर बैठा था। कुछ देर पहले का सारा दृश्य निमिष मात्र के लिए श्यामा के मन में सजीव हुआ : उसकी वासनाएँ एक अमूर्त नायक से खेल रही थीं, और वह नायक जब रमानाथ के रूप में मूर्तिमान हुआ तब वह उसे सह नहीं सकी। रमानाथ यों उसे बहुत अच्छा लगता था, किसी हद तक उसके प्रति आकर्षण भी था; पर अन्तिम सीमा तक पहुँच कर झटके के साथ उसने पहचाना कि रमानाथ के प्रति अपने आपको समर्पित नहीं कर पाएगी। उसने उसे ढकेल दिया। रमानाथ उसकी समानता भी प्राप्त नहीं कर सकता - उहुँ - पुअर रमानाथ!

श्यामा ने रमानाथ की तरफ देखा। एक हारा हुआ, पिटा हुआ साधारण पुरुष उसके सामने खड़ा था। चमत्कार की तरह उस जगह उसे हेम खड़ा दिखलायी दिया। वह ललक उठी। कल्पना की अति लघु लीला उसके असन्तोष को भड़का कर समाप्त हो गयी। रमानाथ अपने पास ही पड़ी हुई कुरसी को खिसका कर उससे दूर, मगर उसके सामने बैठ गया। खिसियायी हुई आवाज में उसने कहा, “नशा ओवर तो नहीं गया था, फिर भी शायद उसका ही असर रहा हो।”

श्यामा कुछ न बोली। सूनी आँखों से उसे देखती हुई उँगली का नाखून चबाने लगी।

रमानाथ ने फिर पूछा, “क्या उसके लिए तुमसे माफी माँगूँ?”

श्यामा ने एक बार पुतलियाँ घुमा कर फिर उसके चेहरे पर स्थिर कीं, फिर जवाब दिया, “जरूरत महसूस करते हो?”

“नहीं।”

“तो फिर जाने दो।”

“बल्कि चाहता तो यही हूँ कि तुम मुझसे माफी माँगो। तुमने मेरे साथ खिलवाड़ किया।” श्यामा की तरफ से अभय का आश्वासन पा कर रमानाथ कलाकार की तरह अपना भोला गुस्सा प्रदर्शित करने लगा।

श्यामा अपने पैरों की तरफ देखती हुई बोली, “तुम अगर प्यार करते होते तो जरूर माफी माँग लेती।”

“मैंने तुम्हें दिल से प्यार किया है।” रमानाथ ने तड़प के साथ कहा।

दोनों पैरों को हलके-हलके हिलाते हुए उसी तरह नीची नजर रख कर श्यामा बोली, “अभी तो कह रहे थे कि - “ दबी मुस्कान के साथ उसकी क्रीड़ा-भरी नजरें ऊपर उठीं। बस इतनी ही बात कहना चाहती थी। उसे विश्वास था, रमानाथ फौरन ही बात काटेगा। वही हुआ भी।

रमानाथ कुरसी के हैंडिल पर जोर देता हुआ बोला, “गुस्से में कही हुई बात को क्या तुम दिल से सच समझती हो श्यामा?”

रमानाथ की बात खत्म होते-न-होते उसके ईमान को झटका देते हुए श्यामा ने पूछा, “कितनी नारियों से तुमने यह सच्चा प्यार किया है - सच सच कहना।”

रमानाथ उलझा, गुस्सा आया, फिर खुद भी उसी तरह पूछ बैठा, “और तुम? अपनी तो कहो?”

बात श्यामा के मर्म पर लगी, बड़ी सफाई से अपने मन की असलियत पर पर्दा डालकर उसने कहा, “मैं किसी से बँधी नहीं हूँ। मुझे किसी को जवाब नहीं देना।”

“और मुझे किसे जवाब देना है?” रमानाथ चीख पड़ा।

“अपनी पत्नी को।” श्यामा ने शान्त स्वर में कहा, जैसे उसने पूरे विश्वास के साथ अपने तरकस का सबसे भारी तीर चला दिया हो।

रमानाथ उबल पड़ा, बोला, “अपनी पत्नी के प्रति मेरी कोई भी जवाबदारी नहीं है। मैंने उसे एक दिन भी प्यार नहीं किया। मैंने अपनी मर्जी से उसके साथ विवाह भी नहीं किया। मैं उससे नफरत करता हूँ।” रमानाथ ने उठ कर टिन से एक सिगरेट निकाली, जलायी, कश खींचा और जलती हुई तीली को मुँह के धुएँ से बुझाते हुई नाटकीय ढंग से श्यामा की ओर मुड़ कर खड़ा हो गया।

श्यामा बोली, “और बच्चे? वे भी नफरत की पैदाइश हैं?”

रमानाथ तेजी पर आया, तीखे स्वर में बोला, “वह नफरत जो मुझे तुम्हारे जैसी समाज की तितलियों से होती है, उसे पत्नी के साथ प्यार में बदलता हूँ - बच्चे उसी प्यार का नतीजा हैं।”

श्यामा बेतहाशा हँसी पड़ी। रमानाथ की नाटकीयता को आघात लगा। वह अपने जवाब के खोखलेपन को अनुभव कर रहा था। उसे यह भय भी था कि श्यामा इस हँसी के बाद कोई बड़ा तीखा व्यंग्यबाण छोड़ेगी। रमानाथ उसके पेशतर ही मैदान अपने हाथों में कर लेना चाहता था। वह श्यामा को नीचा दिखाना चाहता था। उसे इस समय श्यामा से सख्त नफरत हो रही थी। बोला, “लेकिन तुम्हें दूसरों के बच्चों और पतियों के लिए हमदर्दी कैसे उमड़ पड़ी एकाएक? क्या देवीप्रसाद का घर उजाड़ने का प्रायश्चित कर रही हो?”

श्यामा एक क्षण के लिए गम्भीर हुई, पैनी निगाहों से रमानाथ को देखा, फिर हँस पड़ी, बोली, “बस? एक डी.पी. का ही नाम जानते हो? मेरी चर्चा लेकर अगर दोस्तों में अपनी शहादत के किस्से बखानना चाहो तो और भी कई नाम बताऊँ?”

“नाम बताने की क्या जरूरत है? जानता हूँ कि तुमने बहुतों के दिल जलाये होंगे।” कहता हुआ रमानाथ मुड़ा और अपनी पहले वाली जगह पर जा कर बैठ गया। एश-ट्रे में राख झाड़ी, सामने वाली कुरसी को खींच कर सीधा किया और टाँगें फैला लीं।

दोनों का फासला और बढ़ गया।

श्यामा बोली, “स्वीकार करती हूँ... अब मेरी बात का जवाब दो। तुम अपनी पत्नी को प्यार नहीं देते तो बार-बार उन पर मातृत्व का भार क्यों लादते हो?”

रमानाथ ने जवाब न दिया। मुँह में सिगरेट दबा ली और लेटे-ही-लेटे दाहिना हाथ बढ़ा कर एक टेबल से बोतल और दूसरी टेबल से गिलास उठाया।

श्यामा उसे देखने लगी। रमानाथ अपना गिलास भर रहा था। उसके चेहरे पर गहरी उलझन, खीझ और थकान झलक रही थी। श्यामा ने एक नजर अपनी घड़ी पर डाली, ग्यारह-चालीस हो गये थे। देर हो गयी है, फिर भी आज वह रमानाथ को अच्छी तरह छका कर ही जाएगी। यह रमानाथ अपने को कुछ अधिक ही समझता है! रेडियो की बदौलत थोड़ा-सा नाम कमा लिया है सो हर तरह के प्रतिष्ठित आदमियों से मेल-जोल बढ़ा कर अपनी गिनती भी प्रतिष्ठितों में करना चाहता है। गला जरा अच्छा पा लिया है, थोड़ी-सी पुरानी साधना के बल पर आज अपने को गायकी का उस्ताद समझता है। ईडियट! मुझे - श्यामा को - जीतना चाहता था। मन की घृणा को प्रदर्शन से बचाने के लिए श्यामा के पतले होंठ सख्ती से भिंच गये। आँखों में घृणामूलक छेड़ की चमक आयी, श्यामा ने बात को फिर उचेला, “क्या यह सच नहीं कि स्त्री को तुम पुरुष की सम्पत्ति समझते हो? तुम्हारा सारा प्रोग्रेसिविज्म महज एक शो है। आज के फैशन के मुताबिक चल कर तुम फेशनेबिल कहलाना चाहते हो, यही न?”

खाली बोतल बायें हाथ से जमीन पर रख कर, दूसरी टेबल के नीचे सोडा उठाते हुए दम्भ-भरी आवाज में रमानाथ ने कहा, “और अगर यही इल्जाम मैं तुम पर लगाऊँ तो?”

“तो क्या?” श्यामा हँसी, “खुद तुम्हारी निगाह में भी वह सफेद झूठ होगा। तुम जानते हो कि मैं वही करती हूँ जो मुझे उचित लगता है। डी.पी., ताजा मिसाल के तौर पर तुम, और तुम्हारी ही तरह और भी दो-चार लंगूर अपनी काबिलियत की लम्बी-लम्बी दुमें फटकारते हुए गये - “

“उनके पास हेम की तरह मोटर नहीं थी।”

“हेम की मोटर पर तुम्हें बड़ा ताब आता है! वह हैसियतदार न सही, सलीकेदार तो हैं। चार पैसे बचा कर उन्हें मोटर खरीदना भी आता है। तुम्हारी तरह वह बाहर किमखाब और भीतर फटे टाट वाली झूठी सामाजिकता के हामी नहीं हैं।”

“ओहो! आज-कल हेम पर बड़े-बड़े तार लपेटती हो। यह न भूल जाना कि मैंने ही तुम्हारा इंट्रोडक्शन कराया था।”

“तो इससे क्या? तुमसे मेरा परिचय डी.पी. ने कराया था। और डी.पी. को मैं कानपुर से ही जानती हूँ, उसकी बहन मेरे साथ पढ़ती थी। परिचय तो इसी तरह हुआ ही करते हैं, उसमें अहसान जमाने की क्या बात है?”

रमानाथ कुछ न बोला। वह खीझ उठा था। श्यामा ने अनुभव किया कि जैसे वह चाहता है कि श्यामा चली जाय। जाना तो अब श्यामा भी चाहती थी, लेकिन जाने से पहले उसने उसे और भी खिझाने की ठानी। बोली, “तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया न! अच्छी बात है, किसी दिन सबके सामने पूछूँगी। अब चलूँ।”

श्यामा उठ खड़ी हुई। रमानाथ घबरा कर उठा, “नहीं श्यामा, ठहरो जरा।”

रमानाथ पास आया। उसी के सामने खड़े हो कर दयनीय स्वर में बोला, “क्या तुम्हें वाकई मुझ पर तरस नहीं आता?”

“आता है। इसीलिए तो पूछती हूँ, बीवी को नफरत करते हो या प्यार?”

रमानाथ एक साँस में गिलास खाली कर उसे सेंटर टेबल पर रखता हुआ दो-एक बार हाँफा, कलेजे की जलन को दोनों हाथों से दबाया, फिर बोलने के प्रयत्न में मुख-मुद्रा और हाथ के इशारे से श्यामा से बैठने का आग्रह करते हुए उसने कहा, “मेरी बात सुन लो। बैठ जाओ जरा। कहोगी तो मैं तुम्हें घर छोड़ आऊँगा।”

श्यामा बैठ गयी। वह मन-ही-मन अपनी विजय पर पुलक रही थी। रमानाथ उसके सामने ही एक कुरसी खिसका कर बैठ गया। वह बात उठाने के लिए जैसे शब्द खोज रहा था। फिर सिगरेट लेने के लिए उठा। उसके कदम लड़खड़ाते न थे; चाल में बेहद फुर्ती आ गयी थी। सिगरेट का कश खींच कर लौटते हुए कुरसी पर बैठ कर उसने कहा, “श्यामा, तुम तो विमला को जानती ही हो। भला सोचो, वह मेरे जैसे कलाकार को इन्स्पायर कर सकती है...”

श्यामा ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि रमानाथ कह उठा, “पहले तुम मेरी सुन लो, फिर जो कहोगी सब सुन लूँगा। देखो, यह प्रॉब्लम सिर्फ मेरी ही नहीं, बहुतों की है। हमारे घरों में आम-तौर पर दो हिस्से हो जाते हैं - जनानखाने में भेड़-बकरियों की तरह भरी हुई स्त्रियाँ, जिन्हें चूल्हे-चक्की, गहने, आपस की तू-तू-मैं-मैं, किस्से-कजिये, जलन-द्वेष और नीरस ढंग से बच्चों की तादाद बढ़ाने के सिवा और कुछ भी नहीं आता। और दूसरे हिस्से में मर्द रहते हैं, पढ़े-लिखे, रिफाइंड टेस्ट के। भला बताओ, इन दोनों का मन कैसे मेल खा सकता है? मिसाल के तौर पर मैं अपने को ही लेता हूँ। दुनिया मेरी तारीफ करती है, तुम सब लोग मेरी कदर करती हो। किसलिए? मेरे संगीत के कारण ही न! मैं कभी गुनगुनाने भी लगता हूँ तो तुम लोग मेरे नजदीक सिमट आते हो। और एक विमला है, जिसे अच्छे संगीत के नाम पर बुखार चढ़ आता है। हाँ, घर-बिरादरी में शादी-ब्याह के मौकों पर अपनी ही जैसी दूसरी फूहड़ औरतों के साथ सिठनियाँ और ऐसे ही बेहूदा गीत गाने में वह अपने फटे गले को चार लाउडस्पीकरों के बराबर बना देती है। तुम खुद ही सोचो श्यामा, कि उस वक्त मेरे कलेजे पर क्या बीतती होगी! तुम लोग मेरे घर आती हो तो उसके पित्ते उबलते हैं। जबान क्या है एटम बम की फैक्टरी है; मेरी कोमल भावनाओं का जर्रा-जर्रा भस्म हो जाता है। तुम तो खुद भुगत चुकी हो। देवी प्रसाद की घरवाली ने खुद ही तुम्हारा झूठा नाम ले कर जहर खाया...”

बड़ी मिठास के साथ कही जाने वाली इन बातों का श्यामा के दिल पर अच्छा असर पड़ रहा था। श्यामा का बचपन भी खुद ऐसे ही वातावरण में पनपा है। उन्हें वह नफरत की नजर से देखती है। डी.पी. की बीवी ने उसे कोसते हुए अपनी आवाज को दस मुहल्लों के ऊपर उठाया था; सिर के बाल नोचे थे, गन्दी से गन्दी गालियाँ दी थीं... वे तमाम चित्र उसके दिल के इतने निकट आये कि नफरत की कड़वाहट उसके गले में कसैले पानी का घूँट बन कर अटक गयी। श्यामा ने मुँह बनाया। रमानाथ को जवाब देने की इच्छा हुई; इन औरतों के खिलाफ दिल का बुखार उतारने की बड़ी इच्छा हुई।

वह तड़प कर बोली, “मनोरमा ने मेरी वजह से जहर नहीं खाया था। ...और मान लो उसने मेरे ही कारण खाया, मुझ पर दोष लगाया, तो भी कुछ गलत नहीं किया। यह दकियानूस समाज अगर हम पढ़े-लिखों पर बड़ी-बड़ी तोहमतें थोपता है तो कुछ भी गलत नहीं करता। हमने पढ़-लिख कर, सभ्य और सुसंस्कृत बन कर समाज के सामने आखिर कौन-सा आदर्श रखा है? नफरत के सिवा हम समाज को और देते ही क्या हैं? झूठ के सिवा हमारे पास और है ही क्या...?”

श्यामा इन औरतों के खिलाफ कहना चाहती थी, मगर आश्चर्य के साथ खुद उसने ही अनुभव किया कि वह स्वयं अपने खिलाफ ही जहर उगल रही है। ...अच्छा ही है। उसे और भी कहना चाहिए। यह रमानाथ है ही सुनाने काबिल। कायर! दुर्बल!

श्यामा और भड़की, “नया समाज हो या पुराना - दोनों में ही पुरुषों का राज है। एक में स्त्री पुरुष का खिलौना बना कर रखी जाती है और दूसरे में दासी बना कर पैरों तले रौंदी जाती है। आई हेट मेन, आई हेट विमेन। आई हेट एवरीबॉडी।”

श्यामा तड़प कर उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर अदमनीय क्रोध की बेबसी छायी हुई थी। वह अपने आपे को खो कर एक मुजस्सिम तड़प बन गयी थी।

उसने सेंटर टेबल पर रखा हुआ अपना पर्स उठाया और दरवाजे के बाहर निकल गयी।

रमानाथ बैठा हुआ टुकुर-टुकुर उसे देखता रहा। एक बार उसकी इच्छा हुई भी कि श्यामा को पहुँचाने के लिए उसके साथ जाय, परन्तु इस इच्छा को वह मन में ही दबा गया। उसे भय था कि श्यामा फटकार देगी; अलावा इसके वह इस वक्त श्यामा से बेहद चिढ़ा हुआ था। उसकी रात बेकार गयी, उसका मूड खराब हो गया।

अँधेरी सीढ़ियों पर नीचे उतरते हुए श्यामा खीझ रही थी कि रमानाथ उसे पहुँचाने नहीं आया। एक बार झूठे भी को नहीं कहा। मैं क्या उसके सहारे की भूखी हूँ? हरगिज नहीं। पुरुष का सहारा भी कोई सहारा है! ...मगर उसका सारा बदन अकड़ रहा था, उसे किसी के सहारे की जरूरत थी - मजबूत बाँहों का गर्म-गर्म सहारा जोकि उसे बाँध कर ले चले, उसे उसकी मंजिल तक पहुँचा दे।

जीने उतरते-उतरते वह हाँफ गयी, निढाल हो गयी। फाटक के अधखुले जँगले से सट कर खड़ी हो गयी। खोई हुई, डूबी हुई आँखों से उसने बाहर देखा। रोशनियाँ, सड़क, सारी दुनिया उसे चक्कर काटती हुई नजर आयीं - तेज चक्कर - और तेज - और तेज! श्यामा ने पूरी जिद और शक्ति लगाकर अपने को सँभाला।

बिल्डिंग के बाहर फुटपाथ के सामने एक छोटी-सी कार खड़ी थी। कार उसकी दृष्टि का केन्द्रबिन्दु बन गयी थी। उसे हेम की कार याद आयी। उसे हेम की याद तेज कसक के साथ आयी। हेम शहर में नहीं है। उससे रूठ कर चला गया है। श्यामा को अपने ऊपर गुस्सा आया, उसी ने हेम को नाराज किया है। उसे रमानाथ पर गुस्सा आया, उसी के कारण उसने हेम को नाराज किया है। उसे केतकी के ऊपर भी गुस्सा आया, वह क्यों उस दिन हेम के यहाँ आयी थी। न वह आती, न उसे बहाना मिलता, और न हेम नाराज होता। श्यामा घुटन के बहाव में बही चली जा रही थी। फुटपाथ पर उसके कदम आप-ही-आप बढ़ रहे थे। उसे इस समय हेम की बड़ी याद आ रही थी। उसे इस समय हेम की बड़ी जरूरत थी।

उस दिन जब वह केतकी, अल्ताफ हुसैन और हेम के साथ शाम की पार्टी के बाद पिक्चर देखने गयी थी, उसे गश आ गया था। केतकी हेम के पास बैठी हुई थी, उसके और हेम के बीच में थी। शाम को उसकी चोरी भी पकड़ी गयी थी, हेम ने रमानाथ का चित्र बरामद किया था, उसके झूठ का पर्दाफाश किया था। श्यामा डर गयी थी। शाम को हेम ने उसके सामने केतकी की प्रशंसा भी की थी। पिक्चर देखते हुए वह डर और बढ़ गया - हेम की खिझलाहट से भरे तानों और केतकी के पास होने के कारण बढ़ गया। वह अपने आपको केतकी के सामने बौनी महसूस करती रही थी। उसे लगा, केतकी हेम को किसी दिन उससे छीन ले जाएगी। यदि वह खुद मन से चोर न होती तो बर्दाश्त नहीं कर सकती। बहुत से पके हुए अनुभवों के बाद हेम उसे ठीक - करीब-करीब - वैसे ही पुरुष के रूप में मिला था जैसा कि वह अपने लिए चाहती थी। मगर वह हेम के प्रति भी अपने आपको समर्पित न कर पाती थी। समर्पण उसकी निगाह में नीचे गिरना था। समर्पण का अर्थ वह समझती थी - दासी बन जाना। वह दासी हरगिज नहीं बन सकती। वह बराबरी भी नहीं बरत सकती - शायद बराबरी बरतना वह जानती भी नहीं। वह तो सिर्फ यह जानती है कि वह सबके ऊपर शासन करने के लिए पैदा हुई है। अगर सबके ऊपर शासन न कर सके तो कम-से-कम उन लोगों पर तो अवश्य करे जो उसके मित्र और निकट के हैं। प्रेम में अपने हिस्से वह केवल अधिकारों का गट्ठर और प्रेमी के हिस्से में सेवाओं का भार रखती थी। अधिकारों में जायज-नाजायज का भेद करने वाला प्रेमी उसकी नजरों में प्रेमी कहलाने के काबिल नहीं रह जाता। इसीलिए हेम की ओर से भी उसका मन निश्चिन्त हो कर नहीं बैठ पाता। प्रेमी पाने की प्यास-सच्चे प्रेमी की खोज के बहाने को वह एक रोमांटिक दर्शन का रूप दे कर चारों दिशाओं में मन की झोली लिये भटका करती है। कोई उसे चाहे, उसकी तारीफ करे, उस पर रीझ जाय, उसके गरब-गुमान को बर्दाश्त करे - बस यही चाह लिये वह भटका करती है। ...मगर फिर भी उसे हेम चाहिए। कभी-कभी अनचाहा हो कर भी हेम उसके जीवन से नींव के पत्थर की तरह अटल हो गया है। अब उसके सिवा कोई आँखों में नहीं जँचता। मगर फिर भी?

इस 'फिर भी' का अन्त नहीं आता।

श्यामा अब हार गयी है, थक गयी है। वह स्वयं अपने ही तन और मन द्वारा उपेक्षित है। कहाँ लिये जा रहा है उसका हठ! मृगजल की खोज आखिर किस दिशा में पूर्ण होगी?...

श्यामा को अब एक दिशा चाहिए। 'वह चाहे हेम ही हो या कोई और, लेकिन कोई और क्यों? हेम! हेम ही! अब हेम के सिवा और कोई न हो। राम! जो मैंने जीवन में कभी कोई भी अच्छाई की हो तो उसके बदले में मुझे हेम मिले।'

उसका रोयाँ-रोयाँ पानी हो गया, उसका जी पानी-पानी हो गया। पानी में टीस उठने लगी। टीस मीठी लगने लगी। प्रार्थना से सन्तोष मिला; आत्म-विश्वास मिला। 'हेम मेरा... मेरे हैं। मेरे सिवा उनका कोई नहीं। मैंने उस दिन फिजूल की अकड़ में केतकी और हेम पर झूठा आरोप लगाया - और उसके खोखलेपन को महसूस करके भी अड़ी रही।'

...बरामदे, फुटपाथ, सड़क, फिर बरामदे, फुटपाथ और सड़क। श्यामा अपने अन्दाज से ठीक जा रही है, निर्भीक जा रही है। केवल उसे इस बात का होश और अन्दाज नहीं है कि उसे कहाँ तक पैदल जाना है। कदम सच्चे सही दिशा में बढ़े चले जा रहे हैं। बीच-बीच में नजर उठा कर अपने आसपास में देख भी लेती है। मगर क्या देखती है, इसकी चिन्ता उसे नहीं।

हेम को गये आज सत्ताईस दिन हो गये। हेम का नौकर जंगबहादुर बतलाता था कि साहब शायद अपने 'मुलुक' गये हैं। साहब का मुलुक कौन-सा है, यह नौकर को भी नहीं मालूम, और साहब से प्रेम का दावा करने वाली श्यामा को भी नहीं मालूम।

उसने कभी भी हेम के पिछले जीवन के सम्बन्ध में जानने की कोशिश नहीं की। कभी कोई ऐसा विचार भी नहीं आया। रमानाथ के घर एक शाम को हेम से भी उसी तरह उसका परिचय कराया गया था जैसे किसी और से, केतकी, अल्ताफ हुसैन किसी से भी। इस साधारण से परिचय में जिस दिन से जान पड़ी, उसी दिन से हेम को जानती है। उसी हेम की उसे परवाह है। वह उसी की होना चाहती है। ...आज सत्ताईस दिन हो गये।

श्यामा ने वेदना के साथ सूनापन अनुभव किया। वह सुबह जो मिलन की अन्तिम सुबह थी, वह सुबह, जोकि उसके जीवन की एक बहुत पराजय के साथ जुड़ गयी है - अपनी याद से ताजा हो उठी। वह सुबह, गहरी अनुभूति भरी कल्पना के सहारे मूक चलचित्र सी ताजा हो उठी। उस सुबह की बातें श्यामा का मन अलग से सोच रहा है।

...होश आने पर श्यामा ने अपने आपको बिस्तर, अपने घर में पाया था कि सिनेमा हॉल के बाद से उसे होश नहीं था। होश आने पर यह चिन्ता लगी कि हेम उसे किस हालत में लाया; रास्ते में कहीं कोई तमाशा तो नहीं बन गया था।

सुबह साढ़े सात बजे वह हेम के घर पहुँच गयी थी। आधी दाढ़ी बनाये, दाहिने हाथ में ब्रश लिए हुए बैठे अखबार पढ़ रहे थे। देखा-देखी हुई; बातें नहीं हुईं। श्यामा किचन की तरफ चली गयी। किचन गर्मा चुका था। जंगबहादुर चिमटा बजाता हुआ बैठा गुनगुना रहा था। उसका चिमटा बजाना श्यामा के दिल में खटक उठा। डर से काँप गयी। हेम भी अखबार छोड़ कर अब फिर दाढ़ी बनाने में मसरूफ हो गया। कुछ बातें हुईं। स्वयं श्यामा की ओर से अधिक हुईं। फिर कार - बड़ी कार - के हार्न की आवाज आयी, कार रुकी, फिर हार्न बजा। उस हार्न से हेम का नाता जुड़ा। श्यामा भी कौतूहल से भर उठी। दरवाजे का परदा उठा, केतकी सामने आ गयी। केतकी उसके आने के आधा घंटा पहले ही वहाँ पहुँच गयी थी; इस वक्त तो हेम के लिए बाजार से ताजी गर्म जलेबियाँ ले कर लौटी है। उसने श्यामा को बतलाया कि वह दरअसल श्यामा की तबियत का हाल पूछने ही वहाँ आयी थी। श्यामा मन-ही-मन गहरी शंका से टूट गयी। डूबते में तिनके के सहारे-सा स्वयं अपने मन का चोर ही काम आया। कोतवाल को डाँटने का बहाना मिल गया। अपने दोष का भार हेम और केतकी पर डाल कर उसने अचानक बड़ा नाटक कर डाला। हेम को, केतकी को न जाने क्या-क्या कहनी-अनकहनी सुना गयी। हेम ने समझाया, डाँटा, बाहर चले जाने को कहा... ओह!

“बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।” एक गहरी ठंडी आह निकल पड़ी। लेकिन हेम पर गुस्सा नहीं, प्यार आया। इन सत्ताईस दिनों में श्यामा के दिल ने खड़ी पछाड़ें खायी हैं। वह अब अजीब ढंग से सोचने लगी है। शायद यही चिन्तन, यही दृष्टिकोण ठीक भी है।

सामने एक ताँगा दिखाई दिया। श्यामा चलते-चलते कतर गयी। ताँगा देख कर श्यामा ने थकान महसूस की। करीब आधी मंजिल तय कर आयी - आधी मंजिल की थाह लेते हुए ध्यान पीछे लौटा, रमानाथ के घर तक गया।

और तुरन्त ही आश्चर्य के साथ इस बात पर भी गौर किया कि रमानाथ के घर से निकलने के बाद रास्ते-भर, कभी एक क्षण के लिए भी, उसका ध्यान थोड़ी देर पहले हुई घटना पर नहीं गया। पिछले सारे दृश्य से, रमानाथ से, वह कितनी बेअसर चली आयी है। श्यामा को अपने ऊपर अभिमान का बोध हुआ। काश! हेम को किसी तरह यह बतला पाती कि जिस रमानाथ की फोटो से उसे जलन हुई थी, वह श्यामा के लिए इतना भी महत्त्वपूर्ण नहीं।

'ताँगा!' उसने शासन के स्वर में पुकारा।

भीड़ में पूर्ण एकान्त का-सा अनुभव करती हुई श्यामा तीसरे पहर अपनी खिड़की के पास खड़ी थी। अनेक घुटती हुई इच्छाओं के रंग-बिरंगे पखेरू विरोधाभास के जाल में फड़फड़ा रहे थे, और एक मानस-हंस विस्तृत आकाश में अकेला उड़ता चला जा रहा था; उसे विश्राम न था, उसकी मंजिल अभी भी नहीं आयी थी। श्यामा अपने गतिरोध और गति-प्रवाह में साथ ही साथ खोई हुई खड़ी थी। जड़ और चेतन के अनोखे संयोग में वह जलती चिता में बैठी हुई सती की श्रद्धा की तरह शान्त थी, आनन्दमग्न थी। अपने मन के सात पातालों की तह में हर झूठे मान से मुक्त होकर श्यामा अपने आपको धीरे-धीरे हेम के प्रति समर्पित करने लगी। लाज को तनिक सन्तोष मिला। कितना गुप्त सन्तोष था! कल की जलन के बाद कितना मादक भी! उसके उदास, फीके चेहरे और खिड़की के बाहर कहीं अटकी हुई आँखों में अन्तर की सन्तोष-भरी तन्मयता चमक बन कर रमने लगी। उसकी प्यास बढ़ कर भी जैसे अपने आपमें परितृप्ति का अनुभव कर रही थी; वेदना स्वयं अपने ही मनोरंजन के लिए गुदगुदी बन गयी थी।

मन को आहट पहुँची। रस-भंग हुआ। मानस-हंस ने उड़ते-उड़ते में ही पंख समेट कर एक क्षण के लिए विश्राम पा लिया, गोया मंजिल पा लेने का छलावा-बहलावा कर लिया। जोड़े से लगी नागिन की तरह उसका क्रोध फुफकार उठा। मन में, जहाँ तसवीरों का लोक समाया था, अब केवल उस फुफकार का धुआँ ही शेष रह गया। श्यामा फिर भी हठपूर्वक स्थिर रही - जैसे खड़ी थी, खड़ी रही। उसने आहट से ही महसूस कर लिया कि मोतीराम आया है, चाय ले कर आया है। मोतीराम ने खिड़की के पास ही रखी हुई सिंगारदान की मेज पर चाय की ट्रे रख दी और एक नजर अपनी मिस साहब के कसे चेहरे पर डाल कर बाहर चला गया।

मोतीराम के कमरे से बाहर जाते ही श्यामा ने अपना पोज छोड़ दिया। सामने लॉन में बच्चे खेल रहे थे - बहुत देर से खेल रहे थे। उन्हें देख कर अनायास ही आँखों को, मन को तरावट मिली। इस समय वह हल्की रहना चाहती थी; मन से हल्की अनुभव कर रही थी, ताजगी महसूस कर रही थी। गुस्सा काफूर हो गया, एकान्त होते ही रस की लड़ियाँ फिर जुड़ गयीं। वह सुहाग-भरी महसूस कर रही थी। अपने नारीत्व को उचित और सार्थक महसूस कर रही थी। जैसे हस्बमामूल अपनी झक के जोम में तड़फते हुए वह यह महसूस करती है कि नारी के रूप में जन्म ले कर उसने बड़ा भारी अपराध किया है वैसा इस समय नहीं कर पा रही। सहारे के तौर पर पुरुष - और पुरुष के रूप में हेम - उसे इस समय झूठा सहारा नहीं लग रहा है। उसे हेम पर विश्वास है - बहुत खामोशी से - अपने गुपचुप मन में उसे विश्वास है। स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे का स्वाभाविक सहारा हैं। एक दिन हेम ने कहा था : 'मुझे भी तुम्हारा सहारा चाहिए... व्यक्ति को व्यक्ति के सहारे की आवश्यकता होती ही है।'

फूलों लदी बेल की तरह श्यामा इस समय अपने आधार से लिपटी हुई थी। वह जानबूझ कर खुशामदन, अधिक लाड़ दिखाती हुई लिपट रही थी। हेम की कल्पना के साथ वह इस समय अपने को छोटी-उम्र में आधी कम-महसूस कर रही थी। उस उम्र में पाये हुए प्रेम के पहले अनुभव की लगन-भरी तड़प के साथ आज की निष्ठा जुड़ती है। बल्कि हेम प्रौढ़ है और सच्चा सहारा है। हेम की गैर-मौजूदगी में, निपट एकान्त में, अपने मन में बसी हुई हेम की प्रतिमूर्ति के सामने जैसे वह मुक्त भाव से यह स्वीकार कर लेना चाहती थी कि मैंने तुम पर जो तोहमत लगायी है, शंकाएँ प्रकट की हैं, वे सब झूठी हैं। वह जैसे हेम को यह विश्वास दिलाना चाहती थी कि वह उसकी है। हेम पहचान क्यों नहीं लेता कि वह उसकी है - अन्ततः उसकी हो कर ही रहेगी।

शिकायत के कसक और मिठास भरे नशे ने शरीर को स्फूर्ति दी। नजर खिड़की से हट कर सामने चाय की ट्रे पर आ गयी। नजर मन के लोक से निकल कर बाहरी दुनिया की सतह पर आ गयी। श्यामा ने छोटी मेज पर चाय की ट्रे रख कर उसे चारपाई के पास खिसका लिया और पालथी मार कर बैठ गयी। चाय बनाते हुए उसका बड़ा जी चाहा कि हेम आ जाय। श्यामा अब फिर उसे अपने पास देखना चाहती है, हँसना-बोलना चाहती है, उसका सहारा बनना चाहती है। वह जाने क्या-क्या बनना चाहती है। सपने आने से पहले तकिये को गाल से दबा कर मन की गर्माहट, केवल एक इच्छा को न जाने कितने रूपों में झलका लेती है। संक्षेप में - उसे घर चाहिए।

घर की भूख श्यामा के उनतीस वर्ष और कुछ महीनों के जीवन में एक शाश्वत अभाव बन कर पनपी है। दुनियादारी के संघर्ष द्वारा कुचली गयी अपनी इस आदि माँग को ले कर अब वह एक शाश्वत हार भी स्वीकार कर चुकी है। यद्यपि उसका आशा-तत्त्व अभी भी प्रज्वलित है, परन्तु वह अपनी क्रोध और प्रतिहिंसा-भरी निराशा की भावना से उसे निस्तेज कर देना चाहती है। “मुझे घर नहीं मिला, न सही। अब मिलेगा भी तो उसे ग्रहण नहीं करूँगी।” श्यामा इन्सान के कुदरती अधिकार का बहिष्कार करना चाहती है। इसी को विद्रोह मानती है। उसके तर्क और विचार लपटों के झरने की तरह उतरते हैं। स्वभाव में भी झनझनाहट उतर आयी है, जिसके कारण मन की लघुता की नींद हराम हो उठी है। होश की शुरुआत से उसे अपने घर के साथ जिस सम्बन्ध का ध्यान आता है वह डर और नफरत का है। सात-आठ बरस की हो जाने तक भी माँ कभी उससे सीधे बोल नहीं बोली : “भाई खा गयी, बाप खा गयी, वह राँड़ पत्थर की बटिया मेरी कोख में बैठ गयी, आते ही मेरा कपाल फोड़ा निगोड़ी ने।”

पिता की मृत्यु के एक महीने बाद श्यामा ने जन्म पाया। अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थी। पहलौठी का भाई हुआ था जो आठ महीने का हो कर जाता रहा। शादी के चौथे बरस में विधवा माँ की पीड़ा बढ़ाती हुई वह धरती पर आयी। जनमते ही, लड़की आने की खबर पाते ही माँ ने मुँह फेर लिया। पड़ोस के रामाधार महाराज की घरवाली ने तरस खा कर उसे पाल लिया - अपनी गोदी के बच्चे का दूध बाँट कर।

रामाधार महाराज की छत पर अकेली बैठ कर श्यामा कभी-कभी सोचा करती थी कि उसने माँ का बहुत बड़ा अपराध किया है। वह चाहती थी कि माँ उसे मारे।

इसके साथ ही श्यामा को इस बात का बड़ा दुःख होता था कि वह लड़का क्यों नहीं हुई। महाराजिन अम्मा ने जब से उसे यह बतलाया कि वह भगवान की मर्जी से ही लड़की हुई है, तब से भगवान को पीटने की उसकी बड़ी तबीयत होती थी। लेकिन महाराजिन अम्मा ने उसे यह भी समझाया कि कि ये पीतल और पत्थर के ठाकुर ही सारी दुनिया के, तमाम लोगों के, सूरज-चाँद और तारों, सबके-त्रिलोक के मालिक हैं, इन्हें कोई नहीं जीत सकता; बल्कि इन्हें नाराज करने से मनुष्य का बहुत बड़ा अकल्याण भी हो सकता है। तब से श्यामा जाहिरा तौर पर ईश्वर से डरती है और दिल-ही-दिल में सख्त नफरत भी करती है। हठ के साथ वह इस बात को अस्वीकार भी करना चाहती है कि ईश्वर अन्तर्यामी है। वह ईश्वर का अन्तर्यामी होना - किसी का उसके मन की थाह पा लेना - हरगिज पसन्द नहीं करती। वह रहस्यमयी बनी रहना चाहती है। उसे बड़ा सन्तोष होता है जब कोई व्यक्ति - स्त्री या पुरुष - उससे यह कहता है - समझ में नहीं आता श्यामा कि तुम क्या हो? - वह अपने कठोरतम या कोमलतम स्वरूप को, जो क्रमशः या साथ-ही-साथ उपचेतन के झकोरों से विवश हो कर फूटता है, इसी रहस्य के तार में एक साथ गूँथ कर अपने को पहेली - महान पहेली - के रूप में प्रदर्शित करना पसन्द करती है।

श्यामा का यह स्वभाव हो गया है कि परिचय के आरम्भ में वह अपने मन की मनोहरता का, अपने सरल स्वभाव का, सर्वस्व निछावर कर दूसरे को अपना बना लेती है। जिससे जितनी दूर तक नाता जुड़ता है, श्यामा उस नाते में गहरा निजत्व भरती है। ...और फिर जिसके प्रति वह जितनी अधिक तन्मय होती है और उसके प्रति वह क्रमशः उतनी ही अधिक कठोर और शिकायत-भरी भी बन जाती है। अभाव रूपी बिच्छू का डंक खा कर मन की भाव-ऊर्मियाँ अपने विष को भी प्रियजन, प्रियतम के प्रति समर्पित करने लगती हैं - और वह भी मान के साथ।

...एक घूँट जो और लिया तो प्याले की तलछट से चार-पाँच चाय की पत्तियाँ भी मुँह में चली आयीं। श्यामा का मजा किरकिरा हो गया, मगर बुरा नहीं लगा। इस समय उसे कुछ भी बुरा नहीं लग रहा था। मन की कुंज-गलियों में वह जिधर भी भटक जाती है, उसे उसके श्याम मिलते हैं। हेम के ऊपर उसे इस समय बड़ा लाड़ आ रहा है। रीझने में भी अजीब नशा होता है, बर्फ के मैदान में फिसलते हुए चलने का नशा। श्यामा मदमाती हो रही है। मन की मोटरकार - हेम जैसी - हेम ही की कार मथुरा-वृन्दावन की सड़क पर दौड़ रही है। वह यात्रा, वह दिन, जिसके किसी भी क्षण में किसी प्रकार का अभाव नहीं था, इस समय भी अपनी स्मृति से स्फूर्ति देने लगी। सेवाकुंज जाते समय रास्ते की गली में एक मस्त बूढ़ा दुकान के चबूतरे पर बैठा हाथ बढ़ा-बढ़ा कर बड़े रस के साथ गा रहा था :

“मैं गोरी मेरौ कारौ री कन्हैया -

कारौ री कन्हैया मतवारौ री कन्हैया...”

गोरी श्यामा की नजरें चलती सड़क पर यही गा उठी थीं। हेम की आँखों में आधी हुई लौ चमक उठी थी।

श्यामा गुनगुनाती और चुटकी देती हुई उठी। मेज को उसकी जगह पर रक्खा। एक बार कमरे में चारों ओर मस्ती से भटक गयी। दूर से रेडियो के गीत ने आकर्षित किया। श्यामा उठी और अपना सैट खोल दिया। गीत आने के इन्तजार में वह चुटकी से ताल देती रही, अपने गीत का खामोश मजा लेती रही - “मैं गोरी मेरौ कारौ री कन्हैया...”

रेडियो का कंठ खुला। आवाज पहचानी हुई लगी। गीत भी पहचाना हुआ है, पन्त का है - “बाँध दिये क्यों प्राण प्राणों से!” आवाज की पहचान जितनी गहरी होती जा रही है गीत उसके मन में उतना ही उबलता जा रहा है। मन ने फिर खोखलापन महसूस किया, जलन उमगती गयी। आवाज केतकी की है। रमानाथ ने आखिर उसे कंट्रैक्ट दिलवा ही दिया। मगर इतनी जल्दी कैसे? अभी उसी दिन तो उसका ऑडीशन हुआ था। श्यामा लिस्नर के पन्ने उलटने लगी। साढ़े नौ पर तो कोई पुष्पादेवी गाने वाली थीं। एवजी का प्रोग्राम मिला होगा। एवजी का प्रोग्राम - श्यामा ने व्यंग्य में सोचा। केतकी की सारी सफलता उसकी नजरों में छोटी हो गयी। केतकी छोटी चीज से ही सन्तुष्ट हो सकती है। श्यामा ने कभी रमानाथ की इस खुशामदाना टेकनिक को अपनी तरफ ज्यादा बढ़ावा नहीं दिया। केतकी को तो यही सब सुहाता है। इसीलिए वह पापुलर है। ...अच्छा है भाई; जिसे जो रुचता है वही करता है। वह अच्छी तरह जानती है - हेम का स्वभाव इस हल्की मनोवृत्ति को ले कर सन्तुष्ट नहीं हो सकता। वह जानती है - हेम उसी का है। बस, उसे तो हेम ही चाहिए, बाकी सारी दुनिया अच्छी रहे, खुशहाल रहे। केतकी भी खुशहाल रहे। उसे केतकी से अब कोई शिकायत नहीं है। उसकी और केतकी की कोई समानता नहीं है। वह केतकी से कहीं ज्यादा अच्छा गाती है। उसे अपना गीत सिर्फ हेम को ही सुनाना है। केतकी रमानाथ को ले कर आलम के सामने आएँ - शौक से आएँ। वह केतकी से अपने मन का मैल साफ कर लेगी। इससे हेम पर भी अच्छा असर पड़ेगा। तब वह आज क्यों न मिल ले? कल शाम रमानाथ के घर अल्ताफ हुसैन भी मिले थे। कल शाम उसने गाया भी था, अपनी बातों से उन दो पुरुषों की मजलिस को बाँधा भी था। उस पार्टी, सिनेमा, और हिस्टीरिया की रात में उसने अल्ताफ आदि के सामने बेबसी की हालत में अपना जो गलत परिचय दिया था, उसे कल शाम उसने उत्साह के साथ सुधारने की तत्परता भी दिखायी थी। अल्ताफ प्रभावित हो कर गया था। और रमानाथ पर जो प्रभाव पड़ा... खैर हटाओ। अल्ताफ ने बातों के प्रसंग में केतकी से आज शाम मिलने की बात कही थी। शायद रेडियो स्टेशन में ही मिलने की बात ठहरी हो। अल्ताफ आज लखनऊ जा रहे हैं। उनके मौजूद रहते वह केतकी से अधिक खुल कर मिल सकेगी।

श्यामा ने तय किया कि वह इसी समय रेडियो स्टेशन पर केतकी से मिलने जाएगी। ...लेकिन उसे पुरानी दिल्ली तो जाना है। जौहरी के यहाँ से मोती की बंगड़ियाँ लानी हैं। आज इसी समय का वायदा है। ...खैर, लौट कर चली जाएगी। रुपये साथ ले जाएगी।

रेडियो स्टेशन पर रमानाथ मिला। वह अपने प्रोग्राम के लिए जा ही रहा था। दोनों एक-दूसरे को देख कर ठिठके, ताजा रिश्ता ढूँढ़ने लगे और सभ्य परिचित की तरह मिले। रमानाथ ने बतलाया कि केतकी अल्ताफ को स्टेशन पहुँचाने गयी है।

श्यामा स्टेशन चल दी। रास्ते में ताँगा छोड़ कर टैक्सी ले ली।

भीड़, पुल, प्लेटफार्म, सौदागर, मुसाफिर चहल-पहल, हेम! चमत्कार की तरह उसकी नजरों के सामने हेम खड़ा था। अपनी चौड़ी उभरी छाती लिये आत्म-विश्वास के प्रतीक जैसा हेम सहसा उसकी बाँह रोक कर खड़ा हो गया।

श्यामा की आँखों में बेसाख्ता पुलक बरस पड़ी। हेम की नजरों ने भी उसका आकर्षण खींचा।

“कहाँ जा रही हो?”

उसकी इच्छा हुई - तीव्र इच्छा हुई कि काश! वह हेम को रिसीव करने आयी होती। उसे तकलीफ हुई जैसे वह एक बहुत सुनहला अवसर चूक गयी। श्यामा ने उड़ते हुए स्वर में कहा, “मिस्टर अल्ताफ हुसैन आज जा रहे हैं। उन्हीं को... बाई द वे... तुम कहाँ चले गये थे?”

“दौरे पर” - श्यामा को और लगा कि उसका एक सपना टूटा। वह इतने दिनों तक समझे बैठी थी कि हेम उससे रूठ कर, दिल में ठेस खा कर चला गया है। वह अपने नायक से इसी की आशा करती थी, इसी पर रीझ रही थी।

श्यामा उदास हो गयी।

“कितनी देर में घर पहुँच जाओगी?” - जैसे हेम इस समय उसके साथ-साथ अल्ताफ हुसैन को सी ऑफ करने नहीं चलेगा। उसे बुरा लगा, इच्छा रहने पर भी उसने हेम से अपने साथ चलने का आग्रह न किया।

“आ जाऊँगी घंटे भर में।” श्यामा ने उड़ता हुआ जवाब दे दिया, “अच्छा, तो, चलती हूँ।”

हेम ने जरा भी नहीं रोका। श्यामा उदास मन से आगे बढ़ी।

प्लेटफार्म नम्बर आठ पर लखनऊ की गाड़ी खड़ी थी। श्यामा खोयी हुई आँखों से कम्पार्टमेंटों को देखती चली।

“श्यामा! श्यामा जी!”

केतकी की आवाज आयी। एक सेकंड क्लास कम्पार्टमेण्ट से केतकी हाथ निकाल कर उसे बुला रही थी। पास ही अल्ताफ बैठा था। श्यामा अन्दर चली गयी।

“आप यहाँ कैसे?” अल्ताफ हुसैन ने पूछा।

श्यामा झोंक में कह गयी, “इसी गाड़ी से जा रही हूँ।”

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-6

अल्ताफ ने मानो नयी दिलचस्पी से श्यामा को सिर से पैर तक देखा। दबी आँखों से, पर भरपूर। फिर बोला, “...यहीं आ जाइए न, जगह तो है; या कि जनाने डब्बे में बैठेंगी?”

केतकी ने कहा, “चलिए, आपको सफर के लिए साथी भी मिल गया। आप बड़े खुशकिस्मत हैं।”

अल्ताफ ने कुछ ढिठाई के साथ उत्तर दिया, “जी हाँ, इसमें क्या शक है। शायर होता ही है खुशकिस्मत।” फिर श्यामा की ओर उन्मुख हो कर उसने पूछा, “कहाँ तक मेरी खुशनसीबी की दौड़ है... यानी कि आप कहाँ तशरीफ ले जा रही हैं?”

एकाएक श्यामा को लगा, उसका दम घुट रहा है। वह कहाँ आ कर फँस गयी है -क्यों ये लोग उसके पीछे पड़े हैं। उसका मन हुआ चिल्ला कर कह दे - नहीं मुझे कहीं नहीं जाना है, और तुम लोगों की किस्मत का मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं। पर वह अपने को हास्यास्पद नहीं बनाना चाहती - केतकी के सामने कदापि नहीं, अल्ताफ की उसे उतनी परवाह नहीं, वह उसकी दुनिया से बाहर का है। पर केतकी भी कौन है - उसकी दृष्टि में वह क्यों ऊँची बनी रहना चाहती है, केतकी के कुछ सोचने की परवाह उसे क्यों है? है, क्योंकि हेमबाबू - क्योंकि हेम - क्योंकि केतकी हेमचन्द्र की भी परिचित है, और श्यामा हेम की दृष्टि में हास्यास्पद होने का जोखिम नहीं उठाना चाहती। पर क्या वह अभी हास्यास्पद नहीं हो गयी है - हेम तो स्टेशन से घर गया है, और वह -उसने चाहा, कह दे कि वह तो यहीं गाजियाबाद - या शाहदरा ही जा रही है, पर एकाएक इतने से भी झूठ पर उसे ग्लानि हो आयी - ये सब बहाने ही मनुष्य के शत्रु हो जाते हैं, स्वयं उलझन बन कर फाँस लेते हैं, उलझन से बचाते नहीं... और वह बोली, “नहीं, शायर साहब, खुशकिस्मती मेरी होती - पर मैं जा नहीं रही हूँ कहीं भी, मैं तो किसी को मिलने आयी थी, फिर सोचा कि आपको भी सी-ऑफ करती चलूँ -” वह हँस दी मानो अब तक तो अल्ताफ को वह बना ही रही थी।

“देख ली आपने अपनी खुशकिस्मती की हकीकत!” केतकी ने हँस कर कहा, “जैसे शायर तोताचश्म होते हैं, वैसी ही उनकी किस्मत भी होती है।”

“जी नहीं, यों कहिए कि शायर मुस्तकिल होता है, उसकी किस्मत मुजमहिल।”

श्यामा मना रही थी कि गाड़ी जाय और वह मुक्ति की साँस ले। पर अभी कुछ मिनट बाकी थे - गाड़ियों के छूटने के वह दृश्य सबसे बुरे होते हैं जब वह किसी तरह घिसटती-काँखती चलना आरम्भ करती है और सबके मन में सन्देह का छिपा हुआ साँप फन उठाता है - कहीं वह प्लेटफार्म से बाहर निकलते-निकलते रुक न जाय!

सन्देह और आशा एक ही भावना के दो पहलू हैं शायद : जिस चीज की हम जितनी अधिक आशा करते हैं; उस पर उतना ही सन्देह भी करते हैं। हर चीज के शायद ऐसे ही दो पहलू हैं। जो हम जितना अधिक चाहते हैं, उससे हम उतना ही अधिक डरते हैं।

...केतकी शायद लौटती हुई उसे लिफ्ट देगी। क्या हुआ - वह भी सही। जिन्दगी सहने के लिए ही बनी है : केतकी भी सही। पर नहीं, इस मूड को प्रश्रय नहीं देगी। क्यों वह बार-बार केतकी से अपनी तुलना करती है? माना कि भेद देखने के लिए ही तुलना करती है, पर कुछ तो कहीं साम्य होता है तभी तो तुलना होती है! हाँ, केतकी भी वंचित है, वह भी - हाँ, है ही, उसे मान ही लेना होगा। पर केतकी वंचित हो कर अपने को भुलावे देती है, और उनके झूठ में फँस भी जाती है; और वह - वह भुलावा नहीं देती, सस्ते उपाय नहीं ढूँढ़ती। यानी केतकी वंचिता है, कुंठित भी है; वह वंचिता तो है, पर कुंठित - अभी नहीं।

पर क्या वह झूठ नहीं कहती है - स्वयं अपने से झूठ? केतकी अल्ताफ जैसों के पीछे दौड़ती है। बहुत दूर नहीं दौड़ पाती होगी, पर दौड़ती है। पर वह - श्यामा? अल्ताफ से रमानाथ किस बात में अच्छा है - यह क्या अच्छाई है कि एक जानते-बूझते खिलवाड़ करने वाला है, यानी केवल एक फ्लर्ट रूमानियत का सौदागर, झाबे में सस्ती मनियारी सजाए, सुर से आवाजें लगाता हुआ फेरीवाला - तो दूसरा अनजाने में वही है, सस्ती भावुकता में धुत् रहने वाला नशेबाज! कोई भी गैर-जिम्मेदार प्रेम-संकेत निरी वल्गैरिटी है, चाहे वह नशे में किया गया हो, चाहे होश में : उसकी वल्गैरिटी का निर्णय नशे की मात्रा पर नहीं, जिम्मेदारी की मात्रा पर निर्भर है। और नशा तो गैर-जिम्मेदारी का एक हीला है! शराब श्यामा ने भी पी है, पर उसे वह कभी बहाना नहीं बना सकी है। शराब विवेक को भोंडा कर देती है, ठीक; पर जो अविवेक पीने वाले में पहले से मौजूद नहीं है, उसे पैदा नहीं कर देती, इसलिए - पर वह उलझती जा रही है। असल सवाल वही है : रमानाथ किस बात में अल्ताफ से अच्छा है? नहीं, यह भी नहीं; उनकी तुलना भी श्यामा का दम्भ है। वह स्वयं किस बात में केतकी से अच्छी है, जबकि प्रेम को परचून बना कर बेचने वालों के साथ वह भी उसी प्रकार हिल-मिल सकती है... उसमें प्रतिक्रिया होती है, हाँ; पर क्या जाने केतकी में भी होती हो? वह झूठा अहंकार है उसका; वह भी झूठ के सहारे जी सकती है - स्वयं झूठ की ओट खड़ी करती रही है -

गाड़ी ने सीटी दी। श्यामा ने जाना, केतकी और अल्ताफ धीरे-धीरे कुछ कुछ बातें कर रहे हैं, उसकी अन्यमनस्कता का उन्हें बोध है। वह उतर कर प्लेटफार्म पर आ गयी। अपने को सँभाल कर उन्हें देखने लगी। यह भी मानो उन्होंने जान लिया; उसके पीछे-पीछे वह दोनों भी उतर आये। सहसा अल्ताफ ने कहा, “अच्छा केतकी जी, इजाजत दीजिए : आपकी वजह से अब की बार दिल्ली के कयाम की याद बहुत मीठी रहेगी - और श्यामा जी,” अल्ताफ तनिक-सा उसकी ओर मुड़ा, “आपने यहाँ फिर दर्शन दे कर मुझ पर जो किरपा की है उसके लिए मैं...”

श्यामा ने हँसते हुए कहा, “रहने दीजिए शायर साहब!” फिर, हँसी में ही एक व्यंग्य छिपाये हुए, जिस पर स्वयं उसे अचम्भा हुआ, बोली, “मैं तो सोच रही थी, चलते-चलते भी दो-एक शेर हो जाते तो - हमें पीछे याद करने को कुछ रह जाता - “ कुछ रुक कर, “लेकिन गाड़ी तो चल दी - “ उसका मन हुआ कि कह जाय 'गाड़ी वैरिन,' - लोकगीतों में तो 'गाड़ी सौतिन!' - पर उस लोभ को उसने दबा दिया।

अल्ताफ ने केतकी से मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया था। केतकी का हाथ पकड़ते-पकड़ते उसने श्यामा की बात सुनी थी; हाथ पकड़ कर बोला, “हाँ हाँ, लीजिए...” और क्षण-भर के सोचने के बाद बोला, “कहा है -

मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त

मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ।”

गाड़ी चल पड़ी थी, अल्ताफ शेर कहता-कहता केतकी का हाथ पकड़े हुए उसके साथ-साथ बढ़ रहा था, और श्यामा भी साथ चल रही थी। अल्ताफ ने फिर जोर से केतकी का हाथ झकझोरते हुए कहा, “खुदा हाफिज - अगर खुदा है तो - “ फिर श्यामा की ओर मुड़ कर हाथ बढ़ाते-बढ़ाते सहसा रुक कर हाथ जोड़ता हुआ बोला, “नमस्ते, श्यामा जी।” और गाड़ी पर सवार हो गया।

गाड़ी चली गयी। प्लेटफार्म पर और भी लोग थे; श्यामा को लगा कि अब वह और केतकी साथ हैं; और जैसे यह साथ होना मनोरंजक बात है।

केतकी को भी शायद ऐसा लगा हो; उसने कहा, “अजीब चीज है मशीन... वह रेल हो या मोटर... वह लोगों को मिलाती भी है, दूर भी ले जाती है।”

श्यामा मन-ही-मन हँसी। यह भी सस्ती भावना है; वह ऐसी बात नहीं कह सकती! उसने कहा, “हाँ केतकी जी; असल में मशीन के लिए दोनों इर्रेलेवेंट हैं... मिलना भी, बिछ़ड़ना भी। बल्कि इन्सान इर्रेलेवेंट है - जब कि इन्सान के लिए मशीन इर्रेलेवेंट नहीं है। इसलिए मैं कहती हूँ, खतरा मशीन से इन्सान को है, इन्सान से मशीन को नहीं।”

केतकी ने बात बदलते हुए कहा, “आप - यहाँ से कहाँ जायेंगी?”

“घर ही जाऊँगी - आप मुझे नयी दिल्ली में कहीं तक भी लिफ्ट दे दें तो...”

“हाँ हाँ श्यामा जी, घर ही पहुँचा दूँगी, आप भी क्या-”

“नहीं, कनॉट प्लेस में कहीं छोड़ दीजिएगा - “

“चलिए तो -”

श्यामा ने पिछले सूत्र से ही कहा, “पर इन्सान को मशीन से खतरा इसलिए तो है कि उससे उसका काम भी निकलता है - काम की चीजें खतरनाक हो सकती हैं - क्योंकि गुलाम बना सकती हैं।”

केतकी ने अनमने भाव से कहा, “आप भी खूब जेनेरेलाइज करती हैं, श्यामा जी। प्रेम के बारे में आप क्या कहेंगी - वह क्या गुलाम नहीं बना सकता? - “

श्यामा का जोर से हँसने का जी हुआ। पर शान्त-गम्भीर स्वर से बोली, “जरूर बना सकता है। यानी खतरनाक हो सकता है। क्योंकि काम की चीज हो सकता है।” कुछ रुक कर उसने कहा, “यों बिल्कुल बेकाम की चीज भी हो सकता है - शायद - पर वह फिर खतरनाक हो सकता है, हालाँकि - गुलाम शायद वह नहीं बनाता - “

“यह तो इस पर है कि खतरा हम किसे मानते हैं। बदनामी - हाँ, वह भी एक प्रकार का खतरा तो है ही; पर वह बाहर का खतरा है; मैं तो उन खतरों की बात सोचती हूँ जो व्यक्तित्व को तोड़ सकते हैं - फ्लर्टेशन भी प्रेम है, मान लीजिए, पर उसमें व्यक्ति के लिए वह खतरा नहीं है जो - “

“ओ, आप तो बिल्कुल दूसरी बात कर रही हैं!”

श्यामा ने सहमत होते हुए कहा, “हाँ, हम लोग दूसरी-दूसरी चीजों की बात कर रहे हैं।” इस बात में काफी पैना डंक हो सकता था; पर श्यामा को सन्तोष हुआ कि वह उसकी बात में लक्ष्य नहीं था, उसका लहजा काफी साधारण हो सका था...

बारहखम्भे के पास आते-आते श्यामा ने कहा, “बस, यहीं कहीं मुझे उतार दीजिए...”

केतकी चला रही थी; रामसिंह पिछली सीट पर बैठा था। केतकी बोली, “घर ही पहुँचा आती हूँ - आप तकल्लुफ क्यों...”

“नहीं, नहीं, मुझे यहाँ जरा-सा काम भी था।”

केतकी कुछ नहीं बोली। उसने गाड़ी को कनॉट प्लेस के चक्कर के अन्दर लिया और एक जगह जा कर गाड़ी रोक दी। श्यामा ने उतरते हुए धन्यवाद दिया, फिर दरवाजा बन्द करके एक तरफ खड़ी रही कि कार चली जाय।

केतकी के जाने पर ही सहसा उसके मन में हुआ, केतकी ने कार ठीक वहीं ला कर क्यों खड़ी की - उसने तो नहीं कहा था! उसे ध्यान आया, वह रमानाथ के फ्लैट के नीचे खड़ी है। तो केतकी ने उसके कनॉट प्लेस आने का यह अर्थ समझा! और कोई समय होता तो वह दाँत पीस देती; पर इस समय वह केवल मुस्करा दी; केतकी के प्रति एक अजब करुणा उसके मन में उत्पन्न हुई। फिर उसने कुछ आगे बढ़ कर ताँगे को पुकारा और फुर्ती से उस पर सवार हो गयी।

किवाड़ उढ़काये हुए थे, सिटकनी नहीं लगी थी। हल्की-सी दस्तक दे कर श्यामा भीतर चली गयी; कमरे में कोई नहीं था। कुछ सामान इधर-उधर बिखरा था। हेम कहाँ है? तभी स्नानघर की ओर से पानी का शब्द सुन कर श्यामा ने समझ लिया, हेम नहा रहा है। एक नजर उसने चारों ओर डाली। लापरवाही से खोले गये होल्डाल से उसने ड्रैसिंग गाउन निकाला; एक स्टूल उठा कर स्नानघर के बाहर रख कर उस पर रख दिया। फिर होल्डाल समेट कर पास की कोठरी में रख दिया; एक मैला तौलिया ले कर जल्दी से कमरे की चीजें झाड़ीं - समय और झाड़ू होता तो सारा कमरा उस समय बुहार देती... और जल्दी से जितनी तरतीब दे सकती थी दे दी। क्षण-भर रेडियो के पास ठिठकी - उँहुक्, रेडियो का गाना अपने नियन्त्रण में नहीं है, क्या जाने क्या गा दे। उसकी एक परिचिता को 'देखने' जब लड़का आया था तब रेडियो चलाया गया था और उससे आवाज आयी थी... क्या? “तू हाँ कर जा या ना कर जा!” ग्रामोफोन होता तो वह बजा देती कोई पसन्द का रिकार्ड; वह हेम से कहेगी कि रेडियो की बेहूदगी के बदले अच्छा ग्रामोफोन रखे -

कि उसके विचार एकाएक सहम कर रुक गये। हेम से कहेगी वह - किस अधिकार से कहेगी! क्यों, यह तो केवल एक फ्रेंडली सजेशन है, यह तो कोई भी कह सकता है, अजनबी भी - पर उसका मन नहीं माना। वह हेम से कहेगी, कैसे कहेगी, कौन होती है वह, और हेम तो चार सप्ताह गायब रहा तो उसे पता भी नहीं दे गया - अधिकार तो कोई माने तब होता है, अपने आप थोड़े ही ले लिया जाता है...

रेडियो और ग्रामोफोन! फिर वही मशीन की गुलामी। क्या अवस्था हो गयी है इन्सान की, कि संगीत चाहेगा तो रेडियो और ग्रामोफोन की सोचेगा - क्यों, स्वयं उसके जीवित स्वर को क्या हुआ है कि वह न गा सके? हेम का घर है, होने दो।

वह धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी। पहले कुछ सहमी, उदास और जैसे अकेलेपन के बोझ से दबी हुई, मानो डरती हुई कि आवाज भी अकेलेपन में खो जाएगी; फिर जैसे वह गुंजन उसे अच्छा लगा; उसमें कुछ सख्य मिला, और उसकी सान्त्वना से सहसा विभोर हो कर वह जोर से गा उठी।

उसका सुर अच्छा है; हेम ने उसे गाने को नहीं कहा, पर उसका सुर अच्छा है, कमरे को भर रहा है, जब बन्द हो जाएगा तब भी उसकी गूँज कमरे को भरती रहेगी, और शायद वह गूँज हेम को भी रणरणित कर देगी... एक स्वरोन्माद-सा उस पर छा गयाः क्या भोर का पक्षी भी इस तरह कभी अपने गान से उन्मत्त हो कर गाता है? आँधी में पीपल के पत्ते? कितनी उन्मत्त, कितनी स्वच्छन्द है प्रकृति की साँस, जिससे ओट हो कर उसने बन्द कमरे में बैठ कर कदन्नों का सड़ाया हुआ रस पिया है - रमानाथ के साथ - ! नहीं, इस समय नहीं, विचारों की और कोई दिशा नहीं; केवल संगीत का आप्लुत उन्माद, वह उन्माद जिसमें मानव की आत्मा मुक्त होती है, और प्रकृति के साथ एकप्राण होती है एक साझी मुक्ति में - आने दो हेम को, वह उसे कहेगी कि अभी बाहर चले, और वहाँ चल कर वह और गाएगी - अवचेतन में उसने जाना, स्नानघर में पानी का शब्द बन्द हो गया है - और क्या यह उसका भ्रम है कि हड़बड़ा कर हुआ है? कोई डेढ़ मिनट बाद किवाड़ खुलने का शब्द, किवाड़ के स्टूल से टकराने का शब्द, हेम की 'ओ - ' उसका स्वर और भी भर उठा।

सहसा कमरे में तेजी से प्रविष्ट होते हुए हेम ने कहा, “तुम यहाँ, श्यामा! मैं तो तैयार हो रहा था तुम्हारी तरफ जाने को - “

श्यामा ने, अव्याहत भाव से गान की पंक्ति पूरी करके उलाहने से कहा, “बड़ी मुस्तैदी दिखा रहे थे न तैयार होने में - मैं स्टेशन से आ भी गयी और तुम नहा कर भी नहीं चुके?” तनिक-सा रुक कर, “कब आने वाले थे तुम - कल सवेरे?”

एक हल्का पुलकित विस्मय हेम के चेहरा पर लक्ष्य हुआ - क्या इस आग्रह से या 'तुम' के मान-भरे प्रयोग से? वह सफाई देता हुआ-सा बोला, “मैंने तो कुछ सामान भी नहीं ठीक-ठाक किया; होल्डाल फेंक कर नहाने चल दिया था; सूट भी निकाल कर यहीं डाल गया था।” थोड़ा रुक कर मुस्कराता हुआ बोला, “बल्कि तुम ड्रेसिंग गाउन वहाँ न फेंक आती तो - खासी उलझन हो जाती, या पुकार कर तुम से माँगना पड़ता!”

श्यामा क्षण-भर स्थिर भाव से देखती रही। फिर उसने पूछा, “क्यों जंगबहादुर कहाँ है?”

“क्या पता? उसे मेरे आज लौटने का पता थोड़े ही था... कहीं मटरगश्ती कर रहा होगा; देखो न कमरे का क्या हाल - “ उसकी नजर चारों ओर घूमी कि सहसा सन्देह से कंटकित हो कर उसने पूछा, “श्यामा, ह्वट आन अर्थ हैव यू बीन डूइंग?”

श्यामा ने वक्र हँसी के साथ कहा, “क्यों? कुछ काम ऐसे होते हैं कि स्त्री पुरुष की निस्बत अच्छे कर ही सकती है चाहे मुझ जैसी इनकाम्पीटेंट क्यों न हो!”

हेमचन्द्र अवाक् उसका चेहरा देखने लगा।

श्यामा ने पूछा, “अच्छा, जरा अपने घर का सिर-पैर मुझे समझा दो तो कुछ चाय बना दूँ... कुछ खाया है कि नहीं? मैं बाहर ले चलती पर अभी बाहर चलने की मेरी इच्छा नहीं है। स्वार्थिन हूँ न!”

हेमचन्द्र ने कुछ झिझकते हुए कहा, “समझने को क्या है... है ही क्या यहाँ! खाना तो मैं खाता आया था; चाय - “

“क्यों, चाय भी घर में नहीं है क्या? कॉफी, कोको, कुछ भी? और स्टोव, अँगीठी कुछ - “

“हो भी सकती है शायद; पर तुम - “

“तुम क्यों कष्ट करोगी; और जाने मेरी क्राकरी ही तोड़ डालो, यही न? हेम बाबू, मैं जैसी दीखती हूँ, उससे बहुत सीधी हूँ और - “ क्षण-भर वह शब्द तौलती हुई रुकी, “और बहुत गरीब भी; बहुत कुछ जानती भी हूँ, और जानने के प्रति अवज्ञा भी नहीं सीख पायी हूँ।”

“क्या कह रही हो तुम, श्यामा; मुझे तो ऐसी कोई बात सूझी भी नहीं थी। मैं तो इतना ही... अच्छा तुम बैठो, मैं चाय बना देता हूँ...”

वह मुड़ा और मुड़ते हुए एक तरफ पड़ा हुआ सूट भी उठाता चला।

श्यामा ने सहसा आदेश से भर कर कहा, “आज, अभी जितनी देर तक मैं यहाँ हूँ, तुम अक्षरशः मेरी आज्ञा मानोगे। उसके बाद हम घूमने चलेंगे... बाहर निकलते ही मैं फिर विनीत हो जाऊँगी, 'आप' कहूँगी, जहाँ आप ले जायेंगे चलूँगी और आपको लगेगा कि इतनी देर रात गये आपके यहाँ आना अनुचित हुआ तो क्षमा माँग कर वापस भी चली जाऊँगी।”

हेम ने रुक कर कहा, “आदेश दीजिए।”

“चाय मैं बनाऊँगी। तुम तब तक कपड़े पहन आना चाहो तो पहन आ सकते हो, इजाजत है।”

तैयार हो कर वह पहले लौटा; श्यामा अभी रसोई में ही थी, बिजली के स्टोव पर पानी गर्म हो रहा था। ट्रे पर बर्तन सज गये थे। वह बर्तन उठा कर ले जाने के लिए झुकने को ही था कि रुक कर बोला, “इजाजत है न?”

श्यामा ने विचारपूर्वक निर्णय करते हुए-से कहा, “अच्छा, ले जाओ - “ और पीछे-पीछे चायदानी में पानी ढाल कर ले आयी। सब सामान मेज पर लगा कर हेमचन्द्र फिर रसोई की ओर गया, और थोड़ी देर में प्लेट में बिस्कुट और डिब्बों में मक्खन और पनीर लेता आया; पास आ कर उसने फिर पूछा, “इजाजत - “ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये चीजों को यथास्थान रख दिया।

श्यामा ने एक बार चारों ओर दृष्टि फिरायी। नहीं, कहीं कुछ भी भिन्न, असाधारण नहीं है; बड़ा साधारण कमरा है, ऐसा कहीं भी किसी का भी हो सकता है और वे दोनों भी कोई भी हो सकते हैं; और यह रात कोई भी रात हो सकती है... हाँ, हो तो सकती है; पर अपने को यह याद दिलाने की क्यों जरूरत है? क्योंकि हो सकती है, पर है नहीं!

स्त्रियाँ भीरु होती हैं, ऐसा माना जाता है। पर जब वे नहीं होतीं तब उनके सब साहस दुस्साहस भी माने जाते हैं... सब मान्यताएँ पुरुषों की बनायी हुई हैं; और वह तथ्य के आधार पर धारणाएँ नहीं बनाते, अपनी इच्छाओं के आधार पर ही बनाते हैं। स्त्री के भीरु चाहते हैं, इसलिए मान लेते हैं कि स्त्री भीरु होती है, ताकि मान्यता के बोझ के नीचे ही वह भीरु बन जाय! केवल स्त्री सहज यथार्थवादी होती है; पुरुष चाहते हैं पहले, देखते हैं पीछे, और उनका देखना उनकी इच्छा की गहरी रंगत लिए हुए होता है...

उस दिन वह बेहोश हो गयी थी सिनेमा से लौटती हुईः आज क्यों नहीं उसे फिट आ सकता? सुना है हिस्टीरिया के फिट तो छिपी इच्छा से ही लाये जाते हैं! पर उसे वैसी सस्ती सहानुभूति नहीं चाहिए, वह करुणा नहीं माँगती, और पुरुष की करुणा - छिः!

वह चाय ढालने लगी और बोली, “यह लौंद का साल होता, और आज उनतीस फरवरी का दिन, तो ठीक होता है।”

कुछ चौंक कर हेमचन्द्र ने कहा, “क्यों?”

“और क्या, कुछ तो असाधारण होता! और - “ सहसा श्यामा ने चायदानी रख कर एक लम्बी स्थिर चितवन हेमचन्द्र को दी, और फिर निश्चय करते हुए कहा, “और मैं कुछ अनाप-शनाप कह बैठती तो उसे तुम अनवुमनली न मान सकते!”

“श्यामा, मुझसे बात करने में बेतकल्लुफी के लिए तुम्हें हर बार चार-चार साल की प्रतीक्षा करनी पड़ती रहेगी, यह मेरे लिए बहुत फ्लैटरिंग नहीं है यह तुम समझती हो?”

उसके चेहरे पर प्रतिवाद, आहत अभिमान और थोड़े विस्मय की रेखाएँ देख कर श्यामा को हँसी आ गयी। हँसती हुई बोली, “तुम सचमुच इतने भोले हो, हेम, या कि यह भी एक खोल है?” फिर गम्भीर होते हुए आगे को झुक कर तेजी से किन्तु धीमे स्वर में उसने कहा, “तो - तो मैं कहती कि - “ एक हाथ भी तनिक उठ कर हेम की ओर बढ़ गया और पलकें आधी मुँद गयीं, “हेम, यह मैं हूँ, किस मी!”

कह दिया गया तो कह दिया गया! यह बात एक तथ्य हो कर उनके बीच में आ गयी; अब उसे मान्य किया जा सकता है या अमान्य किया जा सकता है, अनदेखा नहीं किया जा सकता... श्यामा ने यह जानते हुए कि हेम एक चकित दृष्टि से उसकी ओर देख रहा है, बड़े मनोयोग से चायदानी उठा कर दूसरे प्याले में चाय ढाली, दूध-चीनी मिला कर प्याला हेमचन्द्र की ओर बढ़ाया; तब उसकी दृष्टि धीरे-धीरे प्याले पर से हेमचन्द्र के हाथ और बाँह के साथ उठती हुई उसकी ठोड़ी, मुँह, नाक को निहारती उसकी आँखों से मिल गयी। हेम वैसे ही चकित भाव से उसे देखता रहा।

“क्या देख रहे हो? तुम्हें शॉक लगा - लगा न? मर्दों के दिमाग बड़े कन्वेशनल होते हैं; दिल टूटने से उन्हें उतना सदमा नहीं पहुँचता जितना कोई कन्वेशन टूटने से!”

हेमचन्द्र फिर भी वैसे ही देखता रहा, बोला नहीं। और एकाएक श्यामा को वह चुप्पी असह्य हो आयी - सीधे-सीधे प्रत्याख्यान से भी अधिक असह्य; क्यों नहीं हेमचन्द्र कुछ भी कहता है? यह ठीक है कि बात जो है उसकी अनदेखी नहीं हो सकती; पर बात जहाँ है वहीं अटकी भी कैसे रह सकती हैः किसी ओर उसे आगे बढ़ना ही होगा! उसका जी हुआ कि, किसी तरह हेमचन्द्र को गहरी ठेस पहुँचाये; तब तो वह बोलेगा, तिलमिला कर तो बोलेगा... उसने कहा, “क्या सोच रहे हो? - यही कि कैसी मुँहजोर औरत है यह; एक तो रात के दस बजे बिन बुलाये घर आ गयी, और अब साहस इतना बढ़ गया; इस रेट पर तो सुबह तक न जाने क्या होगा! और कहीं मेरा मन रखने के लिए तुम मेरी बात मान ही लो तो तुम बँध जाओगे, और - “

तीर लगा। गहरा लगा। तिलमिला कर थरथराते स्वर में हेमचन्द्र ने कहा “श्यामा!”

श्यामा चुप हो गयी। लेकिन हेमचन्द्र ने भी आगे कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा कर के श्यामा ने ही कोमल स्वर में कहा, “बोलो - “

हेमचन्द्र ने सोचते-से स्वर में धीरे-धीरे कहा, “जो सुन्दर है, वह है तो है, नहीं है तो नहीं है; उसे घटिया बना कर नहीं पाया जा सकता।” कुछ रुक कर, “यह हमारे शहरी जीवन की परिस्थितियों की सजा है कि हम उसे घटिया बनाते चलते हैं - और उस घटियापन पर झल्लाते भी चलते हैं। बल्कि - “ वह बात अधूरी छोड़ कर फिर चुप हो गया।

श्यामा ने कुछ बदलते हुए स्वर में कहा, “यह उपन्यास होता, और कुछ पहले का, तो इस स्टेज पर हिरोइन एक जबरदस्त सीन खड़ा कर देती, चिल्लाती कि मेरा अपमान किया गया है, और - शायद - “ वह एक कृत्रिम-सी हँसी हँसी, “हीरो के एक चाँटा भी लगा देती। फिर फेंट कर जाती और हीरो उसे गोद में उठा कर सोफे पर लिटाता, गले से लगा कर पानी के छींटे देता या रूमाल से सहलाता।” वह रुकी और फिर एक रूखी हँसी हँस दी - “और इस प्रकार सचेत अवस्था की माँग से अधिक वह अचेत अवस्था में पा लेती!” फिर रुक कर और भी बदले, कुछ थके स्वर में उसने कहा, “लेकिन मैं पुराने नावेल की हिरोइन नहीं हूँ, आज की परिश्रमजीवी स्त्री हूँ। फटकार खाना और फटकार खा कर अपना दोष पहचानना जानती हूँ। तुम ठीक कहते हो, हेम; मैं भी जीवन के वल्गेराइजर्स में से एक हूँ।”

हेमचन्द्र ने बहुत नरम स्वर में उसे रोकते हुए कहा, “श्यामा!”

“न, हेम, दया नहीं... वह सबसे अधिक वल्गर चीज है; कम-से-कम उससे बचने लायक आत्माभिमान मुझमें बाकी है।”

एक सन्नाटा दोनों पर छा गया; केवल प्याले की बहुत हल्की खनक ही कभी-कभी उसे तोड़ती रही। जब वह बहुत भारी हो आया, जब हेम ने कुछ बात करने के लिए पूछा, “इतने दिन क्या-क्या किया, श्यामा? अल्ताफ कैसे शायर हैं?”

श्यामा ने भी साधारण बातचीत का स्तर अपनाते हुए कहा, “और तुम इतने दिन कहाँ रहे-कहाँ चले गये थे?”

“सच बताऊँ, श्यामा? मेरा दौरे पर जाना आवश्यक नहीं था; मैंने माँग कर ही वह अपने सिर लिया था; और दौरे से ही छुट्टी भी ली थी और कुछ घूम आया। दिल्ली से बीच-बीच में चले जाना चाहिए, नहीं तो - “

श्यामा ने थोड़ी देर प्रतीक्षा कर के पूछा, “नहीं तो क्या हेम? और - जिस दिल्ली से बीच-बीच में चले जाना चाहिए उस दिल्ली का मैं भी अंश हूँ क्या... क्या जाना चाहने के कारणों में मैं भी थी?”

हेम चुप रहा।

“कह दो हेम; यह नहीं समझो कि मेरी वैनिटी है; अगर मैं कारण नहीं थी तो मुझे अच्छा ही लगेगा क्योंकि - तुम्हारे जाने से पहले जो हुआ उसकी बड़ी ग्लानि मुझमें है, और उसे तुम पर प्रकट करना भी बराबर चाहती रही हूँ।”

“तो इस बात को इतने तक ही रहने दिया जाय, श्यामा?” हेम ने मधुर स्वर में कहा।

थोड़ी देर बाद श्यामा ने कहा, “अच्छा, अब थोड़ा घूमने चलोगे न?”

“लेकिन गाड़ी तो इतने दिन की बन्द पड़ी है, अभी - “

“गाड़ी में नहीं, पैदल। अधिक-से-अधिक ताँगे में। या कि थके हो?”

“नहीं-नहीं, जरूर चलेंगे।”

बरामदे में श्यामा रुकी, हेमचन्द्र ताला बन्द करने को मुड़ा। उसकी पीठ को लक्ष्य करके श्यामा ने सहसा कहा, “अच्छा मिस्टर हेमचन्द्र, लीजिए, अब मैं 'आप' कहना शुरू करती हूँ, और पोलाइटनेस के सारे नियम अब लागू हैं। आपको असमय कष्ट देने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।”

हेमचन्द्र वाक्यारम्भ के लहजे से कुछ अचकचा गया था; फिर समझ कर हँसता हुआ दरवाजे से श्यामा की ओर मुड़ा बोला, “श्यामा जी, तो मैं अब बिल्कुल स्वाधीन हूँ न?”

“हाँ, मेरी ओर से तो हैं - “

हेमचन्द्र ने अप्रत्याशित भाव से निकट आ कर कहा, “ठीक कहती हो, श्यामा... बिल्कुल स्वाधीन!” और सहसा झुक कर उसका माथा चूम लिया। “यह एक स्वाधीनता-प्राप्त व्यक्ति का पहला कृत्य है, याद रखना।”

श्यामा ने एक हल्का हाथ उसके कोट की आस्तीन पर रखा, लेकिन हेमचन्द्र आगे बढ़ रहा था।

“कहाँ चल रहे हैं हम लोग?” हेमचन्द्र के स्वर में स्फूर्ति थी।

“सूत्रधार मैं नहीं हूँ,” श्यामा ने मुदित भाव से कहा।

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-7

“लेकिन एक पुरुष को सूत्रधार बना कर कहीं आपकी भी वही गति न हो जो पिछले तीन हजार वर्ष से नारी की होती आयी है।” बरामदे की सीढ़ियों से उतरते हुए हेम ने मानो गुदगुदाने के अभिप्राय से कहा।

“नहीं, इसकी कोई आशंका नहीं है,” श्यामा ने उसके पार्श्व में चलते हुए उत्तर दिया।

“क्यों?”

“क्योंकि यह सौदा नहीं, 'एडवेंचर' है।” श्यामा ने मुक्त-भाव से कहा, और अचानक उसे मथुरा-पर्यटन की याद आ गयी, इसलिए उसके चेहरे की ओर देखते हुए मुस्करा कर जोड़ा, “समझे गुरु जी!”

“हाँ समझा।” हेम बोला, और शान्त हो गया। बँगले का दरवाजा बन्द कर वे सड़क पर आ गये। एक क्षण हेम ने सड़क के दोनों ओर दृष्टि डाली, मानो कुछ खोज रहा हो। फिर सिर को निश्चय का एक झटका दे कर उसने बायीं ओर चलना शुरू किया। श्यामा कदम मिला कर चल रही थी।

दो डग चल कर हेम ने बात का खोया सूत्र पकड़ा “बल्कि जितना आप समझाना चाहती होंगी, उससे कुछ ज्यादा ही समझा।”

श्यामा कुछ चौंकी। वह भूल चुकी थी कि किस क्रम में यह बात कही गयी। पर फिर याद कर मुस्कराते हुए बोली, “जब तक नारी न समझाये, तब तक पुरुष को समझने का कोई अधिकार नहीं। यह 'गेम' के नियम विरुद्ध है।”

हेम ने भी मुस्कराते ही उत्तर दिया, “लेकिन श्यामा जी, नियम-विरुद्ध होना एक बात है, और नियम के परे होना दूसरी। गेंद गड्ढे में गिर जाय तो खिलाड़ी को झुँझलाहट हो सकती है, पर गेंद को चैन मिलता है।”

“मैं समझी नहीं,” श्यामा के वाक्य में भोलापन था।

“यदि नारी स्वयं न समझ पाये, तो पुरुष का समझाना भी तो नियम-विरुद्ध है। है न?” कह कर हेम मीठी हँसी हँस पड़ा।

“यह पुरुष की अहंता है जो सोचता है कि नारी नहीं समझती। वह सब समझती है हेम बाबू, और समझ कर भी शान्त रह सके, इतनी शक्ति भी उसमें है।”

श्यामा की बात का उत्तर हेम के ओठों पर था, पर उसने मुँह नहीं खोला। केवल एक मन्द नीरव मुस्कान उसके चेहरे पर खेल गयी, और वह चुपचाप चलता रहा।

श्यामा ने कुछ देर अपेक्षा कर कहा, “कुछ कहा नहीं तुमने, आइ मीन, आपने?”

“इसलिए कि जो मैं कहने जा रहा था उसमें तीखापन था, शायद रात के ग्यारह बजे इस सुनसान सड़क पर चाँदनी के आलोक में वह तीखापन कड़वा हो जाता।”

“हो जाता तो हो जाता। उसका डर क्यों हो?”

पर श्यामा के इस आत्म-विश्वास और आत्मीयता-भरे वाक्य को शायद हेम सुन भी नहीं पाया, क्योंकि वह सोच रहा था कि यह बात भी कम अजीब नहीं है कि तीखापन छुपाना चाह कर भी वह छुपा न सका। लेकिन क्यों है उसके मन में यह तीखापन। अभी कुछ पल ही तो बीते हैं जब श्यामा के उत्फुल्ल और उल्लसित रूप से प्रेरित हो कर वह अपनी कोमलता प्रकट कर चुका है। यही नहीं, स्टेशन पर अचानक श्यामा को देख कर क्या वह प्रसन्न नहीं हुआ था? और फिर घर आ कर भी क्या वह श्यामा के आने की राह नहीं देखता रहा था? जब पूरा एक घंटा बीत जाने पर भी वह नहीं आयी, तभी तो वह नहाने उठा था। फिर जब वही श्यामा इस समय निर्जन क्षण में इतने निकट उसके साथ है तब उसके मुँह से ऐसे निर्लिप्त वचन क्यों निकल रहे हैं? उसे लगा कि उसका यह व्यवहार केवल एक पैंतरा है। पर यदि पैंतरा है तो किसके प्रति? क्या श्यामा के प्रति? उस श्यामा के प्रति जो अभी आध घंटे पहले उसके कमरे में स्पष्ट शब्दों में प्रणय-निवेदन कर चुकी है? नहीं, उसके साथ पैंतरे का क्या प्रयोजन? तो फिर, क्या अपने ही साथ वह प्रवंचना कर रहा है? कौन-सा भाव सत्य हैः वह जो उसके शब्दों में बाहर आ गया है, या वह जो उसके मन को अभी कुछ क्षण पहले एक हल्के, सुहाने रंग से रँगे हुए था, एक शान्ति दे रहा था कि जैसे सब-कुछ ठीक है, दुनिया आखिर कोई बहुत बुरी जगह नहीं है!

और तभी अचानक हेम ने एक नये रहस्य की उपलब्धि की : श्यामा को समीप पा कर उसके मन में वह भाव नहीं टिक पाता, जो उसकी अनुपस्थिति में होता है। और उसने चौंक कर पूछा : आखिर ऐसा क्यों है। उसके मन में जो एक मीठा आकर्षण है क्या वह इस स्वतन्त्र, स्वावलम्बिनी नारी के प्रति है, अथवा उसकी कल्पना की श्यामा कोई और है? तो क्या उसका आकर्षण आत्म-रति का ही परिवर्तित रूप है? हेम का मन हिल उठा : स्वरति! इसी से बचने के लिए तो वह युगों से अपने जीवन को निर्मम प्रयोगों में लगाता रहा है। क्या वह सारा प्रयास निष्फल ही हुआ! उसके मन में हाल ही में पढ़ी यह पंक्ति गूँज उठी : 'अहं! अन्तर्गुहावासी! स्व-रति। क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह!'

हेम के मुख पर कष्ट झलक आया। उसने बढ़ते हुए मौन को यत्नपूर्वक तोड़ते हुए कहा, “कार होती तो हम लोग दूर चल सकते थे।”

“लेकिन मुझे इस समय पैदल चलना अच्छा लग रहा है। न जाने क्यों, कभी-कभी कार की गति मुझे अस्वाभाविक लगती है, वह सुख नहीं देती।”

“क्योंकि हर भारतीय मूलतः पदचारी है। कार हमारे जीवन का अंग नहीं बन सकी है।”

“फिर भी हम में से हर-एक कार रखने का सपना देखता है। है न?”

“सपना! खैर, सपने तक कोई हर्ज नहीं, कठिनाई तो यह है कि वह हमारे जीवन में अस्वाभाविक यथार्थ की भाँति उपस्थित है, और अपनी उपस्थिति से हमारी समझ को विकृत करती है, खंडित भी करती है। पश्चिम में कार का आविष्कार हुआ क्योंकि पश्चिम के जीवन में उसकी आवश्यकता थी, सामाजिक विकास के सहज चरण के रूप में उसका उदय हुआ। लेकिन भारत में उसका आगमन साम्राज्यवाद और आर्थिक विषमता के आगमन का ही अनुषंग है। उसकी जड़ें हमारे सामाजिक विकास में नहीं हैं। और जिस प्रकार आर्थिक विषमता ने हमारे समाज में एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो भारतीय होने पर भी विदेशों का मुखापेक्षी था, उसी प्रकार एक ऐसे सांस्कृतिक दल को जन्म दिया जो नाम में भारतीय होने पर भी विदेशों की अन्धानुकृति को ही संस्कृति मानता है। इस दल का व्यक्ति कार चाहता है, इसलिए नहीं कि उसके जीवन में उसकी आवश्यकता है, वरन् इसलिए कि उसके बिना वह 'कल्चर्ड' कहलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता।”

और इतना कहने के बाद जब हेमचन्द्र ने साँस ली तो वह सहम गया। आखिर यह हो क्या गया है उसे? भला इस 'लेक्चर' की यहाँ क्या तुक थी? या कि आज उसका 'मूड' ही कुछ बिगड़ा है कि जब भी मीठी बात करने की सोचता है तभी खाली और रूखा-सा लग उठता है! लेकिन अपने 'मूड' के वश में हो जाना भी तो पराजय है। और उसका भी तो वही परिणाम है जो यन्त्र के वश में हो जाने का होता है। और हेम के मन ने सूत्र उच्चरित किया : विवशता का परिणाम सदैव एक ही होता है, उसमें मात्रा का ही भेद सम्भव है, प्रकार का नहीं। और मुक्ति-पथ के प्रयोगी को सभी विवशताओं से लड़ना है, मन की विवशता से भी। ...अगर यों ही वह बक-बक करता रहा तो यह श्यामा भला क्या सोचेगी! नहीं, वह श्यामा को शिकायत का अवसर नहीं देगा। उसने बड़े मीठे भाव से अपना एक हाथ श्यामा के कन्धे पर रख दिया, और कुछ और भी समीप आ कर चलने लगा।

उधर श्यामा सोच रही थी कि हेम की बात कठोर होने पर भी कितनी सच है। उसने भी तो चाहा है कि उसके पास कार हो। पर क्या उसे कार की आवश्यकता है? क्या उसके जीवन की गति का कार की गति से मेल है? और कार ही क्यों, वह दिन-भर जिन व्यस्तताओं से घिरी रहती है - क्लब, पार्टियाँ, पिक्चर, रेस्तराँ - यही नहीं, वे एकान्त घनिष्ठ मुलाकातें भी जिन्हें वह 'एडवेंचर' मानती रही है - क्या उनकी गति में उसके प्राणों की लय-ताल समा सकी है? क्या वह भी एक प्रकार का नशा नहीं है - अस्वाभाविक गति का नशा जो 'मेरी-गो-राउण्ड' में मिलता है? अप्राकृतिक विस्मृति का नशा जो शराब में मिलता है, असामाजिक विकृति का नशा जो वर्ग-भेद में मिलता है। तो क्या वह भी प्रमाद में डूब कर अपने आपको तोड़ती नहीं रही है, नशा नहीं करती रही है? फिर वह रमानाथ से किस बात में ऊँची है, फिर वह केतकी को 'फ्लर्ट' कैसे मान बैठी है! क्या वह स्वयं 'फ्लर्ट' नहीं करती रही है; हेम, रमानाथ, अल्ताफ - और सिहरते हुए उसने सोचा - और डी.पी.! फिर... फिर... क्या कहा था हेम ने? “यह हमारे शहरी जीवन की परिस्थितियों की सजा है कि हम उसे घटिया बनाते चलते हैं - और उस घटियापन पर झल्लाते भी चलते हैं।” ठीक ही तो कहा था। खुद उसी की यह झल्लाहट क्या ठीक वैसी ही नहीं है? बल्कि क्या मालूम इधर हेम की प्रतीक्षा में उसने जो राग-विह्वल मन से वे दिन काटे हैं वह भी मात्र आवरण न हो, उसके नीचे भी कहीं यह घटियापन न हो! क्यों, बोलो, श्यामा! ठीक-ठीक सोच कर देखो, क्या चाहती हो तुम हेम से?

और तभी हेम का हाथ उसके कन्धे पर आ गया। उस मृदुल शीतल स्पर्श से उसका रोम-रोम भीग गया। चाँदनी का आलोक उसके मन में भी रस-वर्षा कर उठा। अपने ऊपर की उसकी झल्लाहट बह गयी और स्वयं उसकी भावनाएँ ही उसे सान्त्वना देने लगीं। उसे याद आया कि वह जिन्दगी से ऊब उठी थी; यह भी कि उस ऊब का कारण घटियापन की झल्लाहट नहीं, अकेलेपन की तीखी विवशता थी, वह विवशता जिससे बचने के लिए ही नशे की जरूरत होती है। उसे याद आया कि वह स्वतन्त्र है, और उसकी यह स्वतन्त्रता ही उसे नशे का आकर्षण देती है। असल में यह स्वतन्त्रता ही सबसे बड़ी विवशता है, यह स्वतन्त्रता मात्र भुलावा है। उसने कहीं पढ़ा था : 'फ्रीडम इज द रिकॉग्निशन ऑफ नेसेसिटी (आवश्यकता का अभिज्ञान ही मुक्ति है)' और क्या वह अपने व्यक्तित्व की सबसे बड़ी 'नेसेसिटी' को 'रिकॉग्नाइज' करने से इनकार नहीं करती रही है? ...पर नहीं, यह सब-का-सब वह दुबारा क्यों सोच रही है? क्या आज सवेरे वह यह निश्चय नहीं कर चुकी है कि उसे यह स्वतन्त्रता का भुलावा नहीं चाहिए, उसे घर चाहिए, उसे सहारा चाहिए, जिसके मध्य में वह मुक्त हो सके-सच्चे अर्थ में मुक्त-खुलेपन से अपना व्यक्तित्व बाँट सके, बिना इस डर के कि कोई लूट न ले!

पता नहीं हेम का हाथ हिला या वह स्वयं ही काँपी! उसने अपनी बड़ी-बड़ी गीली आँखों से पार्श्व में चलते मुक्त, प्रभावशाली हेम के व्यक्तित्व को देखा, वह श्रद्धा से, विश्वास से भर आयी। उसने हेम का हाथ अपने हाथ में ले लिया, और मुग्ध भाव से बोली, “हेम!”

हेम ने मानो उसे अपनी बाँह में लपेट कर कहा, “श्यामा!”

“इतने चुप क्यों हो, बोलो!”

“बोल ही तो रहा था। लेकिन मुझे लगा कि भाषा भी एक यन्त्र है, और कभी-कभी वह भी वश के बाहर हो जाता है। यही देखो न, हम आये तो थे 'प्लेजेण्ट टाइम' के लिए, और मैं हूँ कि 'लेक्चर' देने लगा!”

“नहीं हेम, वह 'लेक्चर' नहीं था, उसमें अनुभूति थी, उसमें मेरी जिन्दगी की तस्वीर थी। मुझे अच्छा लगा कि तुमने कहा। बल्कि जो तुमने कहा वह बात मेरी थी, पर मैं कभी कह नहीं पायी। मैं तुमको कैसे बताऊँ कि इधर कुछ दिनों से मैं यही सब सोचती रही हूँ। सोचती थी और तुम्हारी बाट देखती थी। पर तुम तो न जाने कहाँ रम गये!”

हेम बोला नहीं। दोनों एक-दूसरे से बँधे मुग्ध-शान्त चल रहे थे। उनकी सम्मिलित पग-ध्वनियाँ उस सुनसान में संगीतमय हो गयी थीं।

हेम कहने के लिए किसी बहुत ही मीठी बात ही खोज में था कि सहसा उसे याद आया कि उस दिन जब श्यामा रमानाथ के यहाँ गयी थी तो उसने झूठ बोला था कि वह घर जा कर सो रही थी - श्यामा को भेंट किया रमानाथ का चित्र, और श्यामा की डायरी के पृष्ठ - और स्टेशन पर श्यामा से मुलाकात उसे क्यों याद आयी? हाँ, ठीक है, श्यामा ने कहा था : वह किसी को 'सी-ऑफ' करने गयी थी! कौन था वह? अल्ताफ या कि कोई और जिसे वह नहीं जानता?

श्यामा ही दुबारा बोली, “सच हेम, तुम नहीं जान सकते मैं...”

हेम चौंक पड़ा। आज श्यामा को यह हो क्या गया है! ऐसी बातें करना तो उसका स्वभाव नहीं है। यह स्वर भी क्या उसी श्यामा का है जो उस दिन उसके घर पर केतकी को ले कर उसे क्या कुछ कहीं कह गयी थी! उसने तनिक झटके से ही उसे टोका, “श्यामा, यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि तुम अपने आपको कमिट करो। झोंक में किया हुआ काम बाद में कष्ट देता है।”

“झोंक नहीं है हेम, मैं जितना भी सोच सकती थी, सोच चुकी हूँ। मैं अपनी ओर से निश्चय कर चुकी हूँ।”

“लेकिन श्यामा, हो सकता है तुम स्वयं नहीं जानती तुम क्या चाहती हो!”

“जानती हूँ हेम, अच्छी तरह जानती हूँ...”

“नहीं श्यामा, तुम नहीं जानती!” हेम के स्वर में अनचाही दृढ़ता थी, “अगर जानती होती तो यह भी जानती कि वह मैं नहीं हूँ जिसकी तुम्हें जरूरत है।” और मन-ही-मन उसने जोड़ा : क्योंकि हेम उच्छिष्ट नहीं लेगा; और फिर उच्छिष्ट मन! जिसमें रस टिक ही नहीं सकता क्योंकि वह टूट चुका होता है।

“जल्दी न करो हेम, पहले पूरी बात सुन लो! मैं जो कहना चाह रही हूँ वह 'स्वीट कन्वरसेशन' नहीं है, न 'एडवेंचर' की झलक है। तुम्हारे पीछे मेरे मन में मन्थन होता रहा है। मैंने गहरे-से-गहरे पैठ कर अपने को पहचानने की कोशिश की है। मैंने पहली बार अपने को जाना है, अपने को पाया है। मैं इस तथाकथित उच्च संस्कृति की दलदल से निकल कर स्थिर, रसपूर्ण मिट्टी का जीवन चाहती हूँ। वह मुझे केवल तुम्हीं दे सकते हो।”

हेम झंकृत हो उठा। सचमुच, यह तो कोई नवीना अपरिचिता श्यामा है। यह वह मन नहीं है जो साबुन की चिकनाहट और चमक के नीचे कठोर वस्तु को ढक लेता है, यह तो सद्यः नवनीत-सा ही मीठा और कोमल मन है जो मानो उसकी कल्पना का ही एक अंग है। उसने एक स्थिर विस्मय-विमुग्ध चितवन से श्यामा को देखा। चन्द्रकिरणें उसके चेहरे को दीप्त कर रही थीं, और वह उनके प्रकाश में आत्म-विजयिनी, स्वयं-प्रकाशिता प्रेरणा के समान लग रही थी।

हेमचन्द्र झुक आया। इस अभिनव मुहूर्त को क्या वह ठुकरा देगी? क्या यह वही पल नहीं है जो जीवन में एक बार आता है, लेकिन केवल एक ही बार! क्या श्यामा का विगत इतना ही बड़ा है कि नव वर्तमान भी उसकी ओट हो कर ही रहे! अपने अविश्वास को जीवित रखने के लिए क्या वह मृत, मिथ्या की शरण लेगा! पर नहीं, यह अविश्वास नहीं, यह संयम है। और तभी उसके मन में कोई बोल पड़ा, “तुम ठीक जानते हो यह संयम है? आत्म-संचय की कृपणता नहीं है?”

हेम तड़प उठा। किसका वाक्य है यह? कहीं पढ़ा था उसने... नहीं, शायद किसी ने उससे कहा था, पर कब किसने? याद नहीं। लेकिन श्यामा को भी तो उत्तर देना है। उसके इतने घनिष्ठ आत्मोद्घाटन का प्रतिदान क्या यही पहेली-सा मौन है। नहीं, अब चुप नहीं रह सकते, हेम! नारी का अन्तरतम तुम्हें पुकार रहा है। उसे ग्रहण करो, उसका प्रत्याख्यान करो, पर उसकी अवहेलना नहीं करोगे, नहीं कर सकोगे! बोलो, बोलो...

“सहज ही इतना विश्वास तुमने मुझे दिया है श्यामा! इसका मुझे गर्व है। लेकिन शायद मैं इसके योग्य नहीं हूँ। कम-से-कम समर्थ तो नहीं ही हूँ।”

“तुम गलत समझे हेम! मैंने तुमसे सामर्थ्य नहीं माँगी। अभी इतनी 'बैंक्रप्ट' नहीं हूँ। मैं सहयोग चाहती हूँ... नहीं, सहयोग देना चाहती हूँ।”

हेम की आँखों के सामने से परदा हट गया। उसी का वाक्य है, उसी ने तो कहा था मथुरा-यात्रा में इसी श्यामा से, कि उसकी मैलोडी है आत्मसंचय। और फिर याचना-भरी मुस्कराहट से कहा था : 'मुझे सहयोग चाहिए, आत्म-मुक्ति के लिए, अपने संचय को खोल कर खेतों में बिखेर देने के लिए।' और भी तो कुछ कहा था, जिसके उत्तर में यही श्यामा खिलखिला कर हँस पड़ी थी : “जी गुरुजी!” तब श्यामा की उस खिलखिलाहट पर उसे करुणा आयी थी, यद्यपि उसने उसकी हँसी में ही योग दिया था, क्योंकि करुणा की अभिव्यक्ति तो वल्गर होती है!

पर आज वही श्यामा अपनी सारी परतों को उतार कर अपने शुद्ध मन को उसे सौंपना चाहती है तो वह उसे अस्वीकार करेगा? संचय को उन्मुक्त करने के लिए जो कुंजी चाहिए वह उसे आज मिल रही है फिर भी क्या वह चूकेगा, चूकना चाहेगा!

तो कह दे 'हाँ!' पर नहीं, सोचना जरूरी है ताकि किसी के साथ अन्याय न हो जाय। किसके साथ! उसका हाथ अपने आप कोट की चोर-जेब तक गया। हाँ, अब भी रक्खे हैं उसकी जेब में वे पत्र जो केतकी ने उसे इन अट्ठाईस दिनों में लिखे थे। पर उनसे क्या? उनमें तो उसने केवल अपने मन की व्यथा ही कही थी सरल, निश्चल भाव से, और उसका परामर्श-भर ही तो चाहा था! ...तो क्या उसने जान-बूझकर उनमें कुछ ऐसा भी पढ़ लिया है जो लिखा नहीं है। हो सकता है वह मात्र आरोप हो, विशुद्ध भाव-विलास! पर यदि उसका एक अणु भी सत्य हुआ तो वह किस उपाय से अपनी ग्लानि दूर करेगा?

हेम वीर है, वीरता ही उसका कवच है। और उसके पास कवच है इसको सिद्ध करने के लिए वह आघातों की सृष्टि करता रहता है।

“श्यामा, मैं कृतज्ञ हूँ। पर तुम पहले मुझे जान लो, यह जरूरी है। हो सकता है, फिर मुझे कुछ कहना न पड़े। और यदि कहना भी पड़ा तो वह तुम्हें अप्रत्याशित नहीं लगेगा। ...सबसे पहली बात तो यह है कि मैंने दिल्ली छोड़ देने का निश्चय कर लिया है।”

“क्या!”

“हाँ, श्यामा, कल दफ्तर में जा कर त्याग-पत्र दे आऊँगा। जिन्दगी में जितने भी काम हो सकते हैं, सब किये हैं। आतंकवादियों के साथ रह कर बम भी बनाये हैं और पिकेटिंग करके जेल भी गया हूँ।” फोटोग्राफर, पेंटर, टीचर, जर्नलिस्ट, वकील, क्लर्क - सभी रह चुका हूँ। यहाँ तक कि 'बिजनेस' भी की है। और ये सब करके सिर्फ इतना समझा है कि इनमें से कोई काम नहीं करना है। इन माध्यमों से मेरी आत्याभिव्यक्ति नहीं है।”

“तो फिर करोगे क्या?”

हेम कुछ कह रहा था, फिर एकाएक चुप हो गया। दो क्षण मौन चलने के बाद बोला, “यदि आपत्ति न हो तो आज लौटें - फिर किसी दिन बताऊँगा। या चाहोगी तो अभी लौट कर भी बातें हो सकेंगी।”

“चलो,” श्यामा ने मन्त्र-मुग्ध-भाव से उत्तर दिया।

बँगले के पास पहुँच कर हेम और श्यामा दोनों स्तब्ध हो गये। वे तो बत्तियाँ बुझा कर गये थे, फिर यह कौन आया?

हेम ने कहा, “मालूम होता है श्रीमान जंगबहादुर जी तशरीफ ले आये हैं।”

बिना किसी पूर्व-निश्चय के हेम और श्यामा ने एक-दूसरे का हाथ छोड़ दिया। धीरे-धीरे वे बरामदे में पहुँचे। हेम ने बढ़ कर दरवाजे के शीशे को उँगली की नोंक से थपथपाया, और द्वार खुलने की बाट देखता रहा।

पहले चटखनी की आवाज, फिर धीरे-धीरे दरवाजा खुला। अरे! केतकी! इस समय, यहाँ! - और यह क्या? उसकी आँखें डबडबा रही थीं और गाल भीगे थे।

“हेम, आई हैव बीन डाइंग टु मीट यू! जंगबहादुर को मालूम ही न था तुम कहाँ गये हो!”

हेम ने पलक मारते ही मुड़ कर कहा, “आओ श्यामा!”

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-8

किन्तु यह क्या! श्यामा वहाँ से गायब थी। हेमचन्द्र को आश्चर्य हुआ, कुछ कष्ट भी; केतकी की उस स्थिति में सहानुभूति के लिए नहीं तो शिष्टाचार के नाते ही श्यामा को कुछ देर ठहरना चाहिए था। उसके जी में आया कि बाहर सड़क पर निकल कर श्यामा को ढूँढ़ लाये, या कम-से-कम उसके पहुँचाने का प्रबन्ध कर दे, पर केतकी की क्लिष्ट स्थिति ने उसे वहीं रुके रहने को विवश किया।

“श्यामा जी चली गयीं, न जाने क्यों मुझसे इतनी नाराज हैं।” केतकी ने अपनी लम्बी बरौनियों को रूमाल से स्पर्श करते हुए कहा।

हेम ने कोई उत्तर नहीं दिया। सोच रहा था : क्योंकि श्यामा केतकी से सदैव ऐसी बेरुखी का व्यवहार करती है। इस नारी के व्यक्तित्व में इतना तनाव, इतनी गाँठें क्यों हैं? क्षण ही भर पहले वह कितनी कोमल और स्निग्ध हो रही थी! हेम अभी भी उस कोमलता और स्निग्धता की स्मृति से भीगा है, पर श्यामा जैसे एक ही क्षण में बदल गयी। उसके मन पर उसका मस्तिष्क कितना हावी है।

केतकी और हेम दोनों बैठ गये हैं - केतकी सोफे पर और हेम उसकी दाहिनी ओर की कुरसी पर। केतकी के कोमल चेहरे पर उदासी है; यत्न करने पर भी वह आँसुओं की उन बूँदों को बार-बार कोरों में उमड़ आने से नहीं रोक पा रही है और लगातार वे बूँदें उसके भीगे रूमाल को तर बनाती जा रही हैं।

हेम ने केतकी को मुस्कराते हुए देखा है, हँसते हुए भी देखा है; दोनों ही मुद्राओं में वह आकर्षक और प्रिय लगती है। आज पहली बार उसे क्लिष्ट और विषण्ण मुद्रा में देख रहा है और वह किंचित् विस्मय से लक्ष्य कर रहा है कि केतकी इस स्थिति में भी नितान्त मधुर और मोहक जान पड़ती है।

“केतकी जी”, हेम ने धीरे से कहा, “मुझे खेद है कि आज मेरे घर पर उपस्थित न रहने से आपको इतना कष्ट हुआ। वस्तुतः मैं आज ही दौरे से लौटा था।”

“मुझे मालूम है,” केतकी ने एक बार फिर नेत्रों को पोंछ कर कहा, “मैं परसों से ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी, तुम्हारे पत्र के अनुसार।”

“हाँ, मैं परसों ही आने वाला था, पर रुक जाना पड़ा।” कह कर हेम केतकी के 'तुम' प्रयोग के बारे में सोचने लगा। इधर केतकी ने उसे जो पत्र लिखे हैं उनसे पता लगता है जैसे वह उसे बहुत ही अपना समझती है, समझना चाहती है; और आज वह उसे 'तुम' कह कर संकेत कर रही है। उसकी इस भावना को वह कैसे अस्वीकार कर सकता है।

“लेकिन तुम इतनी परेशान क्यों हो, केतकी; क्या इधर कोई खास घटना घटित हुई है?” हेम ने कोमल स्वर में पूछा।

केतकी कुछ क्षण चुप रही। फिर बोली, “कोई अप्रत्याशित बात नहीं हुई - और शायद हुई भी है। पर जो आज हुआ है उसे एक दिन होना ही था... मैंने सेठजी से अपना सम्बन्ध तोड़ने का निश्चय कर लिया है, हेम।”

हेम के हृदय में धक्-सी हुई। केतकी अपने पत्रों में इस सम्भावना का बराबर संकेत देती रही है और वह इस कदम को उठाने तथा आगे की जिन्दगी के बारे में उससे परामर्श भी माँगती रही है। फिर भी उसे लगा कि केतकी का यह निश्चय एक नयी, अनहोनी बात है। चकित असमंजस के भाव से वह केतकी की ओर देखने लगा।

केतकी ने कुछ रुक कर कहा, “हेम, तुम कहोगे कि मैंने जल्दी की। तुमने लिखा था कि जल्दबाजी में कोई कदम उठाना ठीक नहीं। लेकिन जो करना ही है, जो होना चाहिए, उसके बारे में कोई कहाँ तक विमर्श करे? यों तो पिछले चार वर्ष से, हाँ हेम, मेरा विश्वास करोगे, जिस दिन... जिस दिन मेरी सुहागरात हुई थी, तब से... मैं लगातार सोचती और विमर्श करती आ रही हूँ...”

केतकी की बड़ी-बड़ी आँखों में फिर बूँदें झलक आयीं। उन्हें पोंछ कर शान्त होती हुई बोली, “यह नहीं कि कभी मुझे इसमें सन्देह हुआ कि जो हो रहा है, जो कि विवश हो कर किया जा रहा है, वह गलत है। लेकिन फिर भी जान-बूझ कर मैं जो गलती की साझीदार बनी रही हूँ सो सिर्फ इसलिए कि मैं नारी हूँ।”

हेम का असमंजस और आश्चर्य बढ़ता जा रहा है। केतकी जिस सहज भाव से, हँसते-गाते, हलके निर्लिप्त कदमों से जीवन की राह पर चलती रही है उसे देख कर कौन कह सकता है कि इस नारी के अन्तःकक्ष में कोई गहरा अभाव या पीड़ा भी है, कि कार में बैठ कर तितली-सी उड़ती फिरने वाली यह रमणी अपने साथ असन्तुष्ट अरमानों का तीखा भार भी लादे रही है, कि उसकी स्निग्ध चितवन और सहज-सरल मुस्कान के पीछे अतृप्त आकांक्षा की बिजलियाँ तड़पती रही हैं।

“हेम,” केतकी ने कुछ क्षण रुक कर कहा, “मेरे पिताजी जज थे। स्वभाव से वह जितने न्यायप्रिय और शान्त थे, उतने ही निर्भीक भी थे। उन्हें झूठ से घृणा थी, और निरर्थक रूढ़ियों से भी। हम लड़कियों पर उन्होंने कभी कोई अनावश्यक दबाव नहीं डाला। एक दिन मैंने कॉलेज से आ कर उनसे समाजवाद की प्रशंसा की तो बोले, 'सिर्फ प्रशंसा करने से कोई लाभ नहीं, कुछ करो भी तो।' और फिर हँस कर कहा, 'ग्रेजुएट हो जाओ तो पार्टी ज्वाइन कर लेना। लेकिन देश का काम करने के लिए दो चीजें जरूरी हैं, सादा रहन-सहन और कष्ट झेलने का अभ्यास; तुम यह कर सकोगी? ' मैंने उत्तर दिया था, क्यों नहीं कर सकूँगी, बाबूजी; आपके आशीर्वाद से जरूर कर सकूँगी। और इसके बाद, मुझे खूब याद है, अगले छः महीने तक मैंने सचेत प्रयत्न से सिर्फ तिहाई कपड़ों में गुजर करने का अभ्यास किया था, और तभी से लिपस्टिक, रूज आदि लगाना भी छोड़ दिया। घर में सिर्फ कुन्तल इस परिवर्तन के असली कारण को जान सकी थी। आज भी हम दोनों बहनों में कोई इन चीजों का व्यवहार नहीं करती।

“हेम, आज जब मुझे पिताजी की बातें याद आती हैं तो कभी-कभी घंटों बैठ कर रोती हूँ। पिताजी यदि जीवित रहते, तो कभी मेरी शादी सेठजी के साथ न होती। उन्हें बिजनेस वालों से खास चिढ़ थी। लेकिन उनकी मृत्यु ने, और चाचाजी की जिद ने, मुझे एक ऐसे व्यक्ति के साथ बाँध दिया, जिसका एकमात्र ध्येय धन-संचय है और जो नारी के व्यक्तित्व का सिर्फ एक ही उपयोग जानता है...”

सुनते-सुनते हेम सिहर उठा। उसे इतने खुल कर बात करना पसन्द नहीं है। वह अपेक्षाकृत रिजर्व्ड प्रकृति का है। फिर भी न जाने केतकी के इस प्रकार निश्चल, अनावृत ढंग से बात करने में क्या अपूर्व आकर्षण है कि वह उसकी एक भी ध्वनि और भंगी को अश्रुत या अनदेखा नहीं होने देना चाहता।

कुछ अवज्ञा से हँसती हुई केतकी कह रही थी : उस समय उसकी दृष्टि एक तटस्थ दिशा में थी, “लोग समझते हैं मैं बड़ी फैशनप्रिय हूँ, और बड़ी नाजुक, कि मुझे नौकर-चाकरों की अपेक्षा है, और कार की। मेरी एक पुरानी सखी कहती थी कि मैं क्रमशः पूँजीपति बनती जा रही हूँ। हेम, मैं सच कहती हूँ कि मैंने कभी रुपये की कदर करनी नहीं सीखी और न सीख ही सकूँगी। बचपन से, स्कूल-प्रवेश के दिन से, महीने में शायद ही कोई दिन बीता हो जब मैं कार में न बैठी होऊँ-अपनी कार में या अपनी किसी दोस्त की। भला मुझे कार में बैठने की लालसा होगी? मैं कार की चिन्ता करूँगी और सेठजी की सम्पत्ति की? मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं इस कृत्रिम, नीरस, सिर्फ पैसे के लिए जीने और मरने वाली दुनिया से एकदम ऊब गयी हूँ।

“यह ठीक है कि मैं मित्रों के साथ घूमती-फिरती हूँ, लेकिन किसलिए? इसलिए नहीं कि मुझे चाय और सिनेमा बहुत पसन्द है, कि मैं क्लबों की गपशप और उबाने वाले विनोदों पर जान देती हूँ; बल्कि इसलिए... इसलिए कि मैं लगातार अपने से, अपने सूने मन और व्यक्तित्व से, अपने दिशाहीन, लक्ष्यहीन जीवन से पलायन करना चाहती हूँ, बचना चाहती हूँ।”

“हेम, मैं सच कहती हूँ कि इधर मैं अपनी जिन्दगी से बेहद ऊब गयी हूँ। सोचती हूँ, मेरा वह पाँच-छः वर्ष पहले का जीवन, वह उल्लास और उमंग, वे आकांक्षाएँ और संकल्प सब कहाँ चले गये? सोचती हूँ, मैं यह सब क्या कर रही हूँ, क्यों मैं जीवित हूँ, क्यों इधर-उधर गतिशील हूँ? मैं दुनिया के लिए क्या कर रही हूँ, देश के लिए क्या कर रही हूँ, और स्वयं अपने लिए, अपनी कला के लिए भी, क्या कर रही हूँ।”

सहसा केतकी चुप हो रही। हेमचन्द्र भी चुप था। वह उस नयी नारी या पहेली को, जिसका निराला परिचय इस समय मिला था, समझने का प्रयत्न कर रहा था।

थोड़ी देर बाद जैसे साँस ले कर हेमचन्द्र ने कहा, “लेकिन इस निश्चय का सद्यः हेतु क्या है, सेठजी तो बाहर हैं न?”

“बाहर थे, पर आज ही वापस आये हैं। आ कर उन्होंने पाया कि मैं घर पर नहीं हूँ। इससे वह कुछ अप्रसन्न हुए। कहने लगे कि मैं बच्ची की भी ठीक से देखभाल नहीं करती। ...और कुछ देर बाद उन्होंने कहा कि उन्हें अपने स्वास्थ्य-सुधार के लिए बम्बई जाना होगा और उनकी इच्छा है कि मैं उनके साथ चलूँ। मेरे मुँह से निकल गया कि मैं उनके साथ नहीं जा सकूँगी। इस पर...” कहते-कहते केतकी चुप हो गयी।

हेम ने इस चर्चा को आगे बढ़ाने का कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। पूछा, “आर्ट-स्कूल में आवेदन-पत्र भेज दिया था?”

“हाँ, भेज दिया था।”

“लेकिन इस समय... और फिर यह निश्चय भी तो नहीं कि वहाँ जगह मिल ही जाएगी।” हेम ने व्यावहारिक स्वर में कहा।

“जगह की चिन्ता से अभी कोई लाभ नहीं, हेम। रही इस समय की बात, सो यदि तुम्हारे या चाचाजी के पास आश्रय न मिला तो किसी होटल या धर्मशाला में जा पड़ूँगी। इसमें हर्ज ही क्या है।”

हेम अपनी समग्रता में संकुचित हो उठा। हाल के पत्र-व्यवहार से जो केतकी और उसके बीच घनिष्टता या अपनापन पैदा हो गया है, उसकी परीक्षा का अवसर इतनी जल्दी आ जाएगा, यह कल्पना उसने नहीं की थी। और वह केतकी से कहे भी तो किस साहस से, कि तुम यहीं ठहरी रहो, कहीं दूसरी जगह जाने की कोई जरूरत नहीं है।

उधर जंगबहादुर आ कर पूछ रहा था, “बाबूजी, खाना लाऊँ?”

हेम ने कोमल स्वर में केतकी से पूछा, “थालियाँ मँगवाऊँ न - यद्यपि बेवक्त हो गया है।”

केतकी ने उदास भंगी से कहा, “मँगवा लीजिए।”

दोनों भोजन करने बैठे, उदास और खामोश; बीच में जंगबहादुर को आदेश देने को ही हेम ने कुछ शब्द बोले होंगे। फिर भी उसे लग रहा था जैसे वह साथ खाने की क्रिया अनिर्वाच्य रूप में, दोनों को भावना और एक चिन्ता के सूत्र में आबद्ध कर रही थी।

निवृत्त होने के कुछ ही क्षण बाद केतकी सहसा उठ खड़ी हुई और बोली, “अच्छा हेम, अब मैं चलती हूँ।”

हेम के मुख से कोई उत्तर नहीं निकला, बिना किसी स्पष्ट संकल्प के ही वह उठ खड़ा हुआ। केतकी धीरे-धीरे गेट की ओर चली, जैसे कोई पदभ्रष्ट राजरमणी अज्ञातवास के लिए जा रही हो। कष्ट की स्थिति ने उसे एक अभूतपूर्व गरिमा, एक नये उदास सौन्दर्य से मंडित कर दिया था। किंकर्तव्यविमूढ़ हेम उसके साथ हो लिया।

गेट पर पहुँचते-पहुँचते हेम को जैसे होश आया कि आज केतकी अपनी कार में नहीं आयी है। तो आज से उसने मदनराम की कार का उपयोग करना छोड़ दिया है। “ठहरो, मैं जंगबहादुर को भेज कर ताँगा मँगवा लूँ,” हेम ने केतकी से कहा।

“क्या जरूरत है, पास ही तो चौराहा है।”

हेम विवश हो केतकी के साथ चल दिया।

हेम अपने बँगले में वापस लौट आया, कुछ अप्रतिभ-सा, कुछ परेशान-सा। उसने केतकी से कहा था कि वह उसके साथ चले किन्तु केतकी ने उत्तर दिया था, “नहीं, इस समय इसकी जरूरत नहीं; धन्यवाद!” और फिर ताँगा चलते-चलते, न जाने किस संयोग से, दोनों ने एक साथ एक-दूसरे को नमस्ते किया था, और हेम तथा केतकी दोनों बढ़ती हुई दूरी के बीच, एक-दूसरे की दिशा में देखते रहे थे।

मसहरी पर लेट कर, जाली से घिरे हुए एकान्त में, विश्राम और नींद की पहुँच से दूर हेम आज के असाधारण अतिथियों और उनकी असाधारण बातों के सम्बन्ध में सोच रहा है।

श्यामा के साथ बिताये हुए मीठे समय की याद कुछ धुँधली-सी हो गयी है। वह याद जैसे केवल मस्तिष्क में है, हृदय में नहीं; उसके और हृदय के बीच जैसे लम्बा व्यवधान पड़ गया है। आखिर इस श्यामा को सूझी क्या, क्यों वह इस प्रकार केतकी को देख कर एकाएक बिदक गयी, भाग खड़ी हुई। कुछ नहीं तो मैनर्स का खयाल तो होना चाहिए।

लेकिन श्यामा कभी भी केतकी की समक्षता में मैनर्स का निर्वाह नहीं कर पाती -उस दिन वह कैसे लड़ गयी थी। उसकी तुलना में केतकी का व्यवहार कितना सन्तुलित था। केतकी के व्यक्तित्व में सहज शिष्टता है, सहज स्निग्धता और खुलापन। और आज उसने इस नारी का एक नया रूप देखा था - सहज आभिजात्य की दीप्ति से उद्भासित, सहज आत्मगौरव की चेतना से प्रदीप्त। उस व्यक्ति की व्यक्तित्व की इस नवीन किन्तु स्वाभाविक विवृत्ति से हेम की चिन्तावृत्ति सहसा अभिभूत हो गयी थी।

हेम ने कई बार अपने से यह प्रश्न किया - श्यामा केतकी की उपस्थिति में स्वाभाविक क्यों नहीं रह पाती - क्यों वह उसके सामने व्यर्थ की कटु अथवा उद्दण्ड बन जाती है और उसके व्यक्तित्व में इतनी कटुता, इतनी सशंकता और अविश्वास कहाँ से घुस पड़े हैं? एकान्त वार्तालाप के कोमल क्षणों में भी जैसे यह आशंका और अविश्वास, किसी प्रच्छन्न कोने में छिपे हुए, उसके नारी-सुलभ माधुर्य की अभिव्यक्ति को लगाम देते रहते हैं।

- श्यामा का नारीत्व कभी अपने प्रकृत रूप में प्रस्फुटित नहीं होता, स्पर्श की सम्भावना-मात्र से सिकुड़ने वाली छुई-मुई की भाँति वह प्रतिक्षण अपने में सिमटने को तैयार रहता है। जैसे उसे किसी की वास्तविक अपेक्षा न हो, किसी भी व्यक्ति या चीज की, किसी भी लक्ष्य की ओर बढ़ने की। वह सहयोग लेना नहीं, देना चाहती है। अभिमान ही उसके जीवन का सम्बल है, निरुद्देश्य, निष्प्रयोजन अभिमान! जैसे वह किसी अन्तर्निष्ठ हीनता से, हीनता-बुद्धि से, लड़ रही हो और उसके लिए अपरिमित, अतर्कित अभिमान के अस्त्र को निरन्तर धार देती रहती हो!

- केतकी में भी अभिमान है, पर कितना भिन्न! व्यक्तित्व की सहज उच्चता और महत्ता का अभिमान। जीवन के समुचित लक्ष्य की चेतना और उसकी ओर बढ़ने की साहसपूर्ण तत्परता का अभिमान। और इस सुनिश्चित जीवन-यात्रा में वह स्नेह का आह्वान देने और सुनने को समान रूप में उत्सुक है।

- केतकी की मन-बुद्धि में श्यामा की जैसी गाँठें नहीं हैं। अपने जीवन के गन्तव्य को वह अधिक स्पष्टता से देख सकी है, कल्पित कर सकी है। लेकिन क्यों? क्या इसलिए कि वह श्यामा से अधिक प्रतिभाशालिनी है? अथवा उससे अधिक सबल और सप्राण है? हेम का मन इन दोनों ही समाधानों को स्वीकार नहीं करता। उसे लग रहा है जैसे श्यामा ने अपनी प्रतिभा और सप्राणता दोनों ही का गलत उपयोग किया है।

- श्यामा समाज के एक अपेक्षाकृत निचले स्तर से उठ कर आयी है, वह तिरस्कार और अवहेलना के वातावरण में पली है। अपने प्राणों की समूची शक्ति से, अपनी समस्त बुद्धि और मनस्विता से वह मानो यह प्रमाणित करती रही है कि वह उस स्तर की नहीं है, उसका स्थान वहाँ नहीं है। और एक वर्ग से दूसरे वर्ग तक संक्रमण के इस संघर्ष में वह जैसे यह पूछना भूल गयी है कि उसके नारीत्व का वर्गों से परे उसकी मनुष्यता का गन्तव्य या लक्ष्य क्या है।

हेम को श्यामा पर करुणा हो आयी; और सिर्फ श्यामा पर ही नहीं, उस समूचे मध्यवित्त समुदाय पर, जो उच्च वर्गों के समान दीखने के संघर्ष में अपने व्यक्तित्व को जर्जर और निःसत्व बना डालता है। हेम स्वयं इस समुदाय के सम्बन्धितों के बीच पला है, और वह उनकी क्षुद्र फैशनपरस्ती को नफरत की नजर से देखता आया है। हमेशा से वह महसूस करता आया है कि उसका जीवन किसी उच्चतर ध्येय के लिए है, किसी ऊँचे प्रयत्न के लिए। वह वर्ग-विशेष की मर्यादाओं के चौखटे में फिट होने के लिए नहीं है।

लेकिन वह उच्चतर ध्येय है क्या? आज केतकी ने मानो इस प्रश्न को ज्वलन्त रूप में उसके समक्ष उल्लिखित कर दिया है। अन्ततः वह चाहता क्या है? उसे किधर जाना है? जीवन की अनेक भूमिकाओं में वह अनेक अभिनेताओं का पार्ट खेल चुका है, उसमें से कोई भी उसके अनुकूल नहीं पड़ा। नहीं, नहीं, हेम यह साधारण पार्ट खेलने के लिए नहीं है - साधारण टीचर, पेंटर, जर्नलिस्ट का जीवन उसके लिए नहीं है। और यह तथाकथित अभिजात वर्ग का फूँक-फूँक कर चलने वाला सुरक्षाप्रिय, एडवेंचर विहीन जीवन-उसका भी हेम को रंगमात्र मोह नहीं है। इसीलिए हेम सोच रहा है कि वह निकट भविष्य में ही नौकरी से इस्तीफा दे दे, और... और अपनी न जाने कितने - हैंड कार को निर्लिप्त हो कर बेच दे।

और फिर... फिर वह अबाध, अकम्प गति से बढ़ता चला जाए आगे, और आगे... एक ऐसे लक्ष्य की ओर जिसकी रूप-रेखा यात्रा की प्रगति में ही स्पष्ट होती है। लेकिन उस लक्ष्य का उसे कुछ भी भान न हो, ऐसा नहीं है। उसका आभास उसे मिलता रहा है और आज विशेष रूप में मिला है। वह लक्ष्य किसी वर्ग-विशेष की खोज और प्रतिष्ठा सिर्फ अपने लिए नहीं, मानव-मात्र के लिए करनी है।

और वह सोच रहा है, इस लम्बी निर्मम यात्रा में उसकी सहचरी कौन होगी -केतकी? - अथवा श्यामा?

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-9

सुबह का वक्त हो, कन्धे पर मुलायम रोएँदार तौलिया हो, पाँवों में हलकी नेपाली ऊनी चप्पलें हों और मुँह में सुगन्धित टूथ-ब्रश हो-ऐसे में जिन्दगी को देखने का सारा तौर-तरीका ही बदला हुआ-सा प्रतीत होता है। सुबह की खुनकी, तौलिए का नरम स्पर्श, अंगों की अलसाई खुमारी पता नहीं कैसे चिन्तना में प्रवेश कर जाती है और रात की अनिद्रा में सोचे गये तमाम गम्भीर विचार और ऊँचे मनसूबे हल्के और निस्सार मालूम देने लगते हैं; सारे आदर्श और सिद्धान्त खयाली पुलाव लगते हैं।

अपने फ्लैट के छत पर टहलते हुए हेम भी यही अनुभव कर रहा था। उसके शयन-कक्ष की छत काफी नीची है, रात को कुछ घुटन-सी थी और शायद एक खिड़की भी बन्द रह गयी थी। इस कारण केतकी के जाने के बाद भी उसे देर तक नींद नहीं आयी थी। अपने कार्यक्रम-विहीन मन को उसने मनोवांछित दिशाओं में भटकने के लिए छोड़ दिया था और उसका मन खूब चक्कर लगाता रहा। आदर्शों के हिम-शिखरों से लेकर प्रणय की क्यारियों तक में उसका चित्त घूमता रहा। कभी मोटर बेच कर सादा जीवन बिताने का विचार, कभी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने का निश्चय, कभी अपने वर्ग की निरर्थकता पर चिन्तन और अन्त में श्यामा या केतकी दो में से किसी एक को जीवन-संगिनी चुनने का प्रश्न! इनमें से अन्तिम विचार पर तो उसे मन-ही-मन हँसी भी आयी। केतकी को अभी वह जानता ही क्या है? कुल 28-30 दिनों का परिचय, कुछ पत्र-व्यवहार और कल केतकी का आकस्मिक निर्णय कि वह सेठ मदनराम को छोड़ देगी।

जो इतने आकस्मिक निर्णय कर सकती है, वही क्या उन निर्णयों को उतने ही आकस्मिक रूप से छोड़ नहीं सकती? पके बाँस को झुकाने में समय लगता है, पर एक बार झुका लेने पर वह अपने आकार पर अटल रहता है। कच्चे बाँस का क्या, अभी झुका लो, दबाव हटने पर फिर ज्यों-का-त्यों।

उसका मन इस समय क्रीड़ाशील था। क्षण-भर के लिए उसने अपने भविष्य की कल्पना की, अगर केतकी उसकी जीवन-संगिनी होती तो -

उसके एक दक्षिण भारतीय मित्र हैं जो केन्द्रीय सेक्रेटेरियट के एक उच्चपदाधिकारी हैं। वह रोज सुबह उठ कर इसी भाँति अपने फ्लैट के छज्जे पर पत्नी के साथ रहा करते हैं। विवाह काफी प्रौढ़ आयु में पिछले ही वर्ष हुआ है पर एक ही वर्ष में वार्तालाप के सारे विषय समाप्त हो गये हैं। अब वे टहलते हुए दूधवाले की प्रतीक्षा किया करते हैं और उसके आते ही इस लम्बे, घबरा देने वाले मौन से सहसा मुक्ति पा कर पहले पत्नी कहती है - “दूधवाला आ गया,” फिर वह स्वर में विस्मय भर कर कहते हैं - “अच्छा दूधवाला आ गया!” और फिर धूप निकलने तक दोनों चुपचाप टहलते रहते हैं।

अगर केतकी होती तो, वह कहती - “दूधवाला आ गया!” और हेम-हेम केतकी का मन रखने के लिए और भी जोर दे कर कहता - “हाँ जी, दूधवाला आ गया!” और सादा जीवन बिताते, मोटर बेच देते, केतकी कहीं अध्यापिका होती और उनके जीवन में सिर्फ एक विस्मयकारी तत्त्व आया करता - दूधवाला!

हेम को हँसी आ गयी। कैसे अपरिपक्व किशोरों, या आदर्शवादी उपन्यासों के कागजी नायकों की भाँति वह कल सोच रहा था।

फिर उसका मन श्यामा की ओर मुड़ गया। श्यामा कल चली गयी इस पर उसे चिन्ता थी, दुःख था, पर कहीं-न-कहीं दबी हुई प्रसन्नता थी। इसलिए नहीं कि वह चली गयी, इसलिए कि उसके चले जाने से उसे एक आधार मिल गया जिस पर वह श्यामा से हल्की-सी लड़ाई मोल ले सकता है। बौद्धिक तर्कों, लादी हुई तटस्थता और अन्यमनस्कता में वह अपने को चाहे जितना छिपाये पर उसके मन में कहीं कुछ है जो निरन्तर श्यामा से लड़ता रहना चाहता है। श्यामा से जो सहज मिलता है उसे अस्वीकार कर वह केवल वही ग्रहण करना चाहता है जिसके लिए श्यामा को पराजित करना पड़े। शायद इसके पीछे वही आदिम गुफावासी का संस्कार था जो मादा को पराजित कर बन्दी बना लाता था और तब उससे प्रणय की अभिव्यक्ति करता था। आज सभ्यता के करोड़ों वर्ष बाद भी वह रस्म पूरी होनी ही चाहिए।

अभी बहुत तड़का था पर उसने सोचा कि आज की सुबह का एक नया अनुभव रहे। श्यामा के यहाँ चला जाय, उसे जगाया जाय, उसी के यहाँ चाय पी जाय - या चाय वही बनावे और श्यामा को चाय पिलावे - हाँ, एक बात और, चाय के प्याले पर मशीन और मानव, रेडियो, और सौन्दर्य-शास्त्र, कला और तन्दुरुस्ती, दिल्ली का समाजिक जीवन, चाय का फ्लेवर, गरज कि दुनिया के तमाम विषयों पर बात की जाय, केवल इतना न पूछा जाय कि 'तुम कल क्यों लौट आयी थीं' और न इसकी कोई सफाई दी जाय कि केतकी क्यों आयी थी।

इकेरस के पास पंख थे, हेम के पास कार। उसने कार निकाली और एक मार्निंग गाउन बदन पर डाल कर चल पड़ा।

उसने सामने का शीशा उठा दिया। ताजी हवा उसका कालर फहराती हुई उसको सिहरा गयी। इतना हल्का, इतना शीतल पर इतना रसमय था उन झकोरों का स्पर्श जितनी श्यामा की वे काँपती हुई अँगुलियाँ जिन्होंने उस दिन उसका हाथ अपने हाथ में ले कर गीले स्वरों में कहा था - “हेम, तुम चुप क्यों हो?”

एक उमंग की लहर जैसे ठंडे फेन के छींटों से नहला गयी। वह सिहर उठा।

कार स्वयं चालित-सी श्यामा के क्वार्टर के सामने आ लगी। बाहर के छोटे-से अहाते का फाटक अभी बन्द था। श्यामा को जगाये या नहीं? जगाना चाहिए, श्यामा को विस्मय का एक हल्का-सा आघात पहुँचाने में भी उसकी विजय ही है। आहिस्ते से फाटक खोल कर निःशब्द गति से यह आगे बढ़ा। बाहर के कमरे की खिड़की खुली थी। जालीदार पर्दे के पीछे कोई छाया हिल रही थी। शायद श्यामा जाग गयी है। वह और आगे बढ़ा, श्यामा खिड़की की ओर पीठ किये हुए, बड़े गौर से पता नहीं क्या देख रही थी। हेम को कुतूहल हुआ, दायीं ओर की खिड़की के समीप जा कर उसने देखा।

उस कमरे में कुर्सियाँ हटा कर पलंग डाल दिया गया था जिस पर कोई सो रहा था। सोने वाले का चेहरा नहीं दीख पड़ रहा था, पर चादर खिसक जाने से उसके बड़े बेडौल मर्दाने पाँव दीख रहे थे। श्यामा क्षण-भर सोने वाले की ओर गौर से देखती रही, फिर उठी और आहिस्ते से चादर खींच कर उसने पाँव ढँक दिये।

हेम मुड़ा, चुपचाप सर झुकाये हुए उसने अहाता पार किया, कार पर बैठ कर आहिस्ते से दरवाजा बन्द किया और कार स्टार्ट कर दी...

श्यामा काफी पहले सो कर उठ गयी थी। उसने हीटर पर बेड टी के लिए केतली चढ़ा दी थी और कमरे में बैठी हुई शून्य दृष्टि से कभी सोये हुए डी.पी. की ओर, कभी हीटर के दहकते हुए लाल तारों की ओर, और कभी गरम होते हुए पानी की ओर देख रही थी।

रात को जो-कुछ हो गया, उसके लिए वह कतई तैयार नहीं थी। जो कुछ उसने किया वह भी शायद हो ही गया। केतकी को वहाँ देख कर उसे पहले आश्चर्य हुआ, केवल आश्चर्य, और कुछ भी नहीं। पर जब उसने आँख में आँसू भर कर हेम से कहा - “आई हैव बीन डाइंग टु मीट यू!” तो श्यामा को लगा कि उसे इस अवसर पर वहाँ नहीं रहना चाहिए, वह केतकी और हेम के बीच अनावश्यक है, और वह मुड़ कर दूसरी ओर चली गयी।

उसी समय उसने अनुभव किया कि उसके मन में एक अजीब-सी भावना जाग रही है - क्रोध, वंचित अधिकार और ईर्ष्या की अदम्य भावना, ऐसी भावना जिसे वह वर्षों से माँजती आ रही है। श्यामा जिस वर्ग का जीवन बिता रही है, मूलतया उस वर्ग की नहीं है। वह निम्न मध्यवर्ग में पैदा हुई, पली, विकसित हुई। खुल कर क्रोध करना, ईर्ष्या करना और आधिपत्य जमाना यह सभी वह अपेक्षाकृत कम परिष्कृत, पर अधिक सशक्त स्तर पर कर चुकी है। इस समय श्यामा के मन का वही स्तर जाग उठा था।

हट आने पर भी वह वापस नहीं आयी थी। नीले काँटे के झाड़ के पास चुपचाप खड़ी रही। वह सोचती थी कि केतकी को छोड़ कर हेम आएगा। श्यामा को बुलाने के लिए न सही, कम-से-कम जाती हुई श्यामा को देखकर, झल्लाकर, चिन्तित होकर लौट जाने के लिए - पर जब हेम केतकी के पास अन्दर चला गया तो श्यामा ने अपने को बहुत अपमानित अनुभव किया। वह तेजी से मुड़ी। उसे लगा कि जैसा फिट उसे उस दिन सिनेमाघर में आया था वैसा ही कहीं अब न आये, पर जैसे-तैसे उसने अपने को सँभाला और ताँगा कर लिया और किसी तरह अन्दर उबलते हुए आवेग को दबा कर बैठ गयी।

अपने क्वार्टर के निकट पहुँच कर उसने देखा कि बाहर की बत्ती जल रही है और बाहर के सहन में कोई चुपचाप बैठा है। उसने समीप जा कर देखा - डी.पी.!

वह स्तब्ध रह गयी। दिबू - डी.पी., (देवीप्रसाद) को वह दिवू कहती आयी है - यहाँ कैसे? इसके पहले कि वह अभिवादन भी कर सके, दिवू ने बैठे-ही-बैठे अलसाये और भारी स्वरों में कहा, “बड़ी देर तक घूमती हो श्यामा! पाँव का शनि अभी उतरा नहीं तुम्हारा!”

श्यामा कुछ आतंकित और कुछ उल्लसित स्वरों में बोली, “आप... तुम कब आये?”

ज्ञात हुआ कि डी.पी. सरकारी काम से दो रोज के लिए आया है, सामान कहीं पटक कर दिन-भर सेक्रेटेरियट का चक्कर लगाता रहा, फिर श्यामा के यहाँ आया, उसे न पाकर अपने एक सम्बन्धी से मिलने पुरानी दिल्ली चला गया और इस समय फिर आया है।

“खाना खा चुके?” श्यामा ने पूछा।

“हाँ!”

फिर वह चुप रही, सहसा ध्यान आया कि वे लोग अभी तक सहन में खड़े हैं -”चलो अन्दर चल कर बातें की जायें!”

डी.पी. चुपचाप उठा और अन्दर जा कर बैठ गया। श्यामा कपड़े बदलने साइड रूम में चली गयी। लौट कर आयी और चुपचाप सामने की कुर्सी पर बैठ गयी। दिवू कितना गम्भीर, कितना परिपक्व, लेकिन कितना थका हुआ-सा लगने लगा है। चेहरे की अभिव्यक्ति प्रौढ़ हो गयी है, होठों पर हँसी नहीं रहती।

डी.पी. से उसके परिचय का भी एक इतिहास है। वह आयु में श्यामा से बड़ा है; पर एक समय था जब वह उसका घनिष्टतम मित्र रहा है। उसने श्यामा की विचित्र परिस्थितियों में मुक्त सहायता की है। उसके कैरियर-निर्माण में सहयोग दिया है, प्रार्थना-पत्र दिलवाये हैं, सिफारिशें की हैं, साड़ियाँ खरीदी हैं, पोशाकें सिलवायी हैं, उसे उच्चवर्गीय और अफसर वर्ग में परिचित कराया है... संक्षेप में आज जो श्यामा है वह दिवू की बनायी हुई है।

लेकिन इस सहानुभूति और ममता के बाद उसने डी.पी. के लिए क्या किया है? उसका जमा-जमाया परिवार बिगाड़ दिया था। दिवू की पत्नी ने श्यामा का नाम लेकर विष खा लिया था और श्यामा उसी परिस्थिति में उसे छोड़कर यहाँ चली आयी थी। उसके बाद धीरे-धीरे उसने अपने व्यक्तित्व के चारों ओर एक दीवार खड़ी कर ली थी कि वह दिवू के जीवन की और दिवू उसके जीवन की एक विस्मृत कथा बन जाय, पर उसके मन में गहरे, बहुत गहरे पर कोई गाँठ पड़ गयी थी, और रमानाथ ने तन के माध्यम से और हेम ने मन के माध्यम से जब कभी उसे छूने का प्रयास किया तभी वह सिमट-सकुच कर अन्तर्मुखी हो गयी और तन-मन से उस गाँठ को चारों ओर से बचा कर प्रतिवाद करने लगी। श्यामा के व्यवहार की इसी विशृंखलता को हेम समझ नहीं पाता था।

सहसा कमरे के मौन को तोड़ते हुए डी.पी. ने कहा, “अच्छा, चला जाय!”

“क्यों?”

“तुम्हें देखने आया था सो देख लिया।”

“बस?”

“बस!” और डी.पी. उठ खड़ा हुआ।

“नहीं!” कुछ काँपते हुए से स्वरों में श्यामा बोली। उसने डी.पी. को बिठा लिया, स्वयं जा कर और भी समीप बैठ गयी और स्वर में अत्यधिक ममता और अपनापन भर कर बोली, “रेशम अब तो बाकायदा पढ़ने लगी होगी?”

“हाँ, कान्वेंट में भर्ती करा दिया है।”

रेशम डी.पी. की एकमात्र सन्तान, रश्मि का घरेलू नाम था, जिसे उसकी पत्नी छोड़ गयी थी। उसकी देख-रेख सदैव श्यामा ने ही की थी। रेशम का जिक्र आते ही जैसे दोनों के बीच का व्यवधान टूट गया। लगा जैसे पिछले दो वर्षों से उनके सम्बन्धों का कोई सूत्र खो गया था, जो रेशम के जिक्र से उन्हें फिर मिल गया। और फिर श्यामा ने जो घरेलू बातों का सिलसिला बाँधा तो पूरा एक घंटा बीत गया। इस एक घंटे में श्यामा आगे नहीं बढ़ी, वह पीछे ही लौटती गयी, वर्षों पीछे; और उसे यह लगा कि उसका पिछले तीन वर्ष का जीवन, यह नौकरी, यह स्वाधीनता, यह आरोपित बौद्धिकता और यह रमानाथ, यह हेम - ये सभी एक कच्ची पतली-सी पर्त हैं - पतली, बहुत पतली। सच है यह दिवू, रेशम, उसकी मृत माँ और वह कृतज्ञतापूर्ण सहज स्नेह और एक भयमिश्रित आदर जो उसके मन मं- दिवू के लिए है और जो इस समय उसके मन में छलका पड़ रहा है।

उसने देखा दिवू के बाल कनपटी के पास सफेद हो चले हैं, आँखों के नीचे रेखाएँ आ गयी हैं और प्रौढ़ विधुरता का एक फीकापन उस पर छाया हुआ है। लगता है जैसे उसने अपने मन को पूर्णतया मार लिया है। उसके मन में अजब-सी ममता उमड़ आयी और उसने मन-ही-मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह अब दिवू को कहीं नहीं जाने देगी।

फिर तो श्यामा ने दिवू के मना करते-करते दूध गरम किया, थोड़ी ओवल्टीन उसमें डाल दी, उसका कोट उतार कर टाँग दिया, अपनी एक सादी, बिना किनारे की धोती उसे पहनने को दी और बाहर के कमरे में उसके लिए बिस्तर डलवा दिये। इस सब में उसे एक ऐसे आन्तरिक सन्तोष का अनुभव हो रहा था जिसके लिए वह जाने कब से भूखी-प्यासी थी। लगता था जैसे वह अभी तक लहरों में डूब-उतरा रही हो - निराधार, और अब वह लौट कर घाट के उन्हीं ठोस पत्थरों पर पहुँच गयी हो जहाँ से वह धार में कूदी थी।

सोते समय उसने पूछा - “बेड टी लेते हो न?”

“नहीं, उसके बाद से तो सुविधा ही नहीं रही।”

“कल तुम्हें बेड टी पहुँचाऊँगी,” श्यामा बड़े उत्साह से बोली। जब श्यामा जाने लगी तो डी.पी. ने धीमे से कहा, “श्यामा!”

“क्या!” वह बड़े स्नेह से समीप आ कर बोली।

“कुछ नहीं!” थोड़ी देर तक दिवू उसे निर्निमेष दृष्टि से देखता रहा फिर बोला, “श्यामा, दिल्ली तुम्हें व्यापी नहीं। वैसी ही हो!” श्यामा कुछ बोली नहीं। सिरहाने बेड-स्विच लटकाती हुई बोली, “रेशम को मैं अपने पास रखूँगी। समझे! और चली गयी।”

रात को श्यामा बड़ी निश्चिन्तता से सोयी। लगता था जैसे किसी के दो विशाल पंख उसे ढके हुए उसकी रक्षा कर रहे हैं, अब वह अरक्षिता नहीं रही। सुबह अपने आप उसकी नींद जल्दी खुल गयी। उसने नौकर को नहीं जगाया। खुद हीटर उठाया, केतली में पानी चढ़ाया और चुपचाप बैठ कर देखने लगी - कभी हीटर को, कभी दिवू को। दिवू थके हुए बड़े से शिशु की तरह सो रहा था - शान्त। उसके पाँवों से चादर खिसक गयी थी। वह चुपचाप उठी और उसने चादर ठीक कर दी।

इतने में कुछ आहट हुई। उसने मुड़ कर देखा! कोई आगन्तुक लौटा जा रहा था। जब तक वह खिड़की के पास पहुँचे कि हेम ने फाटक खोला और बैठते ही कार स्टार्ट कर दी।

हेम को ज्ञात नहीं कि उसने दिन-भर क्या किया। ऐसा लगा कि वह जड़-निर्जीव शिलाखंड है, या किसी प्रवाल द्वीप का अवशेष अंश है, जो डूब गया है और समुद्र की हरी और खारी गहराइयों में निश्चेष्ट पड़ा है और धाराएँ, ज्वार तथा तूफान आते हैं और उस पर से बहते हुए चले जाते हैं। पर उसे डूबे हुए अभी इतने दिन नहीं हुए कि उसमें काई लग जाय, पर वह डूब गया है और अथाह जल उस पर से बहा चला जा रहा है।

और वह पूरा दिन भी उस पर से बहता चला गया। उसने केवल एक काम किया। अपना इस्तीफा पेश कर दिया। पर इसलिए नहीं कि इस्तीफा देने का कोई अर्थ है, केवल इसलिए कि कुछ ऐसी शाकिंग - स्तब्ध कर देने वाली - बात कर वह अपने को विश्वास दिलाना चाहता था कि वह जीवित है। ठीक जैसे कभी-कभी एक स्थिति में बहुत देर तक बैठे रहने से रक्त का संचार रुक जाता है, पाँव सुन्न पड़ जाता है और तब हम अपना पाँव झटक कर, उसमें चिकोटी काट कर विश्वास दिलाते हैं कि हमारा पाँव जीवित है, उसमें प्राणों का स्पन्दन शेष है। उसी प्रकार हेम का यह त्याग-पत्र भी न किसी के प्रति आक्रोश था, न सरकारी नौकरी के प्रति कोई सैद्धान्तिक उपेक्षा-भाव, यह केवल अपने डिगते हुए आत्म-विश्वास को फिर कर्म की कसौटी पर कसने का प्रयास-भाव था।

पर जब वह लौटने लगा तो सहसा सोचने लगा - उसके इस काम का कुछ अर्थ भी है? यही क्या, उसके पूरे जीवन की जो वर्तमान गतिविधि है उसका कोई अर्थ है? कितना विशृंखल, कितना निरर्थक है उसका जीवन! उतना ही विशृंखल और निरर्थक, जितना कि एक दर्जन स्रष्टाओं द्वारा किया गया एक क्रीड़ा-प्रयोग जिसके पीछे कोई निश्चित योजना न हो, कोई निश्चित नियति भी न हो। तो क्या हमारा जीवन हमसे कुछ ज्यादा बड़ी, ज्यादा शक्तिशाली सत्ताओं की निरर्थक क्रीड़ा-मात्र है। जिनको ग्रीक चिन्तकों और नाटककारों ने देवताओं के नाम से पुकारा है क्या वे ही देवता हमारी जिन्दगी को मनमाने ढंग से बनाया-बिगाड़ा करते हैं। उसके पीछे कोई निश्चित अर्थ, कोई निश्चित योजना भी नहीं!

और फिर हमारे इस निरर्थक अस्तित्व की पृष्ठभूमि में हमारे सामाजिक रागात्मक सम्बन्धों का मूल्य ही क्या? जो खुद क्रीड़ा का साधन-मात्र है उसके लिए श्यामा क्या, केतकी क्या? और उसकी अपनी जीवन की गतिविधि भी क्या? अगर कई गोलियाँ एक कतार में रख दी जायें और पहली गोली को कोई थोड़ी-सी ठोकर दे दे तो वह दूसरे से टकराती है। दूसरी तीसरे से और इस तरह सभी अपने स्थान से थोड़ा ही खिसक कर रह जाती हैं, केवल अन्तिम गोली काफी दूर तक लुढ़कती चली जाती है। पर क्या उसे गति कहा जा सकता है। और क्या ऐसी ही नहीं है उसके जीवन की यह गति!

कार की गति अपने आप धीमी हो गयी थी। उसके होठों पर कुछ पंक्तियाँ आयीं -

'ऐ कोन वनेर हरिण छिल आमार मने

के तारे बाँधल अकारणे!'

फिर उसे आभास हुआ कि उसकी पीड़ा इन पंक्तियों से भी ज्यादा गहरी है। लेकिन शायद उसके बयान भी अकारण हैं, बिलकुल अकारण!

कार पहुँचने पर जंगबहादुर ने सूचित किया कि कुन्तल दो बार आकर लौट गयी है और एक पत्र रख गयी है। हेम ने देखा, पत्र केतकी का था :

प्रिय हेम जी,

मैं कल के सारे उबाल और आवेश के बावजूद आज बम्बई जा रही हूँ। मैंने देखा कि तुम्हें सामने पाकर मुझमें कुछ और उत्साह रहता है, तुम्हारे पीछे और शायद तुम्हारे रहते भी सीमा के अन्दर सर पटक लूँ, पर सीमा तोड़ नहीं सकती।

कल रात को काफी भटकी। पर जिस शयनगृह में अनिच्छा से ही सही, इतने दिन बीते उसके अलावा कहीं अब ठौर नहीं। इसे संस्कार कहूँ, या नियति, या कायरता। मन का रिश्ता बड़ी चीज होती है लेकिन तन का समर्पण उससे ज्यादा शक्तिशाली, उसे वापस नहीं लिया जा सकता।

मैंने कुन्तल को भेजा था। तुम मिले नहीं। सेठ जी हफ्ते-भर बाद आएँगे। मैं तीसरे पहर जा रही हूँ। तुमसे चेहरा लगा कर बात नहीं करूँगी। मैं पराजित होकर भाग रही हूँ यही समझना।

केतकी

पुनश्चः तुम्हारे स्नेह, या शायद सहानुभूति के लिए कितनी कृतज्ञ हूँ, पर शायद उसके योग्य नहीं थी। हाँ, सेठजी से मैंने क्षमा माँगी नहीं, उनसे क्षमा मिल गयी। उनके लिए मेरा विद्रोह भी उतना ही मूल्यहीन है जितना मेरा समर्पण!

केतकी

हेम ने उड़ते हुए मन से पत्र पढ़ लिया। इन अक्षरों की उसे कुछ विशेष व्यंजना नहीं लग रही थी। उसका मन थका हुआ था, पराजित था। कैसा अजब था वह दिन? कहाँ से शुरू हुआ था और बारह घंटों में ही हेम के जीवन को कहाँ खींच लाया था। वह चुप था और ऊपर से ऐसा ही लग रहा था जिसके लिए कहा गया हैः 'बाहर घाव न दीसई, भीतर चकना-चूर।' हेम ने केतकी के तमाम पत्रों के बंडल में उसे भी रख दिया और बिल्कुल भावनाशून्य मन से काउच पर लेट रहा। बाहर बत्तियाँ जल गयी थीं। यद्यपि अभी पूरी तरह रात नहीं हुई थी। उसने लाइट आन कर दी और केवल समय काटने के लिए एक पुस्तक उठा ली - लारेन्स की पतली-सी कविता-पुस्तक; और पढ़ने लगा :

'एंड इफ टुनाइट माई सोल मे फाइंड हर पीस

इन स्लीप एंड सिंक इन गुड ओब्लिवियन,

एंड इन द मॉर्निंग वेक लाइक ए न्यू आपेंड फ्लावर

देन आई हैव बीन डिप्ड अगेन इन गॉड एंड न्यू क्रीएटेड!'

(और आज अगर मेरी आत्मा को चैन की नींद आ जाय और वह विस्मृति में डूब जाय और सुबह मैं ताजे , अँगड़ाई लेते हुए फूल की तरह जागूँ तो मैं समझूँगा कि मैं किसी अज्ञात सत्ता (किसी ईश्वर) में डूबकर फिर नये सिरे से निर्मित होकर प्रगट हुआ हूँ!)

लेकिन कौन होगा वह ईश्वर - वह परोक्ष, जिसमें डूब कर उसे नया व्यक्तित्व मिलेगा? हर-एक का अपना ईश्वर होता है, जो उसी की पीड़ा, उसी की चिन्तना और उसी की अनूभूति के अनुरूप अभिव्यक्त होता है पर उसकी पीड़ा, उसकी चिन्तना, उसका जीवन क्या केवल छलना नहीं रहा है? तब फिर वह किसके प्रति अर्पित हो, कौन-सी है वह आस्था?

और प्रथम बार उसने अनुभव किया कि उसके मन में आदि-जिज्ञासा जगी है - एक जिज्ञासा... अनुत्तर, अनिमेष! और वह देवताओं के विरुद्ध, नियति के विरुद्ध खड़ा है तन कर, अपराजेय चुनौती देता हुआ।

वह खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया। बाहर धुँधले और उदास अन्धकार में लिपटी हुई दिल्ली का विस्तार था। सड़कें, मकान और भीड़, शासक और शासित, सभ्यता और व्यापार, सेनाएँ और राजदूत... और इन सबके ऊपर है हेम, एक अटूट जिज्ञासा की तरह - जो इनमें से हर एक व्यक्ति की नियति और सारे समूह की गति को जान कर रहेगा। और जब ज्ञान और दुःख उसे मुक्त कर देंगे तब वह स्वतः प्रेरित व्यक्ति की भाँति अपने को अर्पित करेगा - उस विराट् अग्नि के प्रति जो ज्ञान है, उस विराट् आस्था के प्रति जो कर्म में प्रतिफलित होती है, उस विराट् समवेदना के प्रति जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सामाजिक अर्थ दे देती है।

और उसका मन पता नहीं किसके प्रति श्रद्धा से ओतप्रोत हो गया। उसने आज बहुत कुछ खोया था, और बहुत कुछ पाया था।

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-10

कछार से पानी उतर जाए, वह सूख कर चटकने लगे और तब अचानक फिर लहर थपेड़ा मार कर उस पर से बह जाए, उसके रोम-रोम को सिक्त कर जाए, तब...?

जंगबहादुर ने भीतर घुस कर कहा, “शा'ब, तार आया है।”

इधर आठ दिन से हेमचन्द्र का मन एक अद्भुत सूनेपन से भर गया था। प्रौढ़ व्यक्ति अपने को जिन सहारों से बहला कर अपनी अपूर्तियों को पूरा करने का प्रयत्न कर रहा था, आज वे सारे सहारे ऐसे टूट गये थे जैसे बालक ने जो हँसते-हँसते मेज पर से काँच का गिलास गिरा दिया हो, वह धरती पर टुकड़े-टुकड़े हो कर बिखरा गया हो। केतकी गयी। श्यामा का कोई अपराध नहीं देखा था, किन्तु वह इतने दिन से नहीं आयी। और उस भोर उसके पास एक पुरुष सोया हुआ था। हेम का मन सिहर उठा। उदासीन स्वर में कहा, “ले आओ।”

दस्तखत किया। तार खोला। खोल कर पढ़ा। पढ़ कर चिन्ता में पड़ गया। पैंडोरा के बक्स से भी अधिक आश्चर्यजनक वस्तु थी उसमें। जैसे-जैसे वह सोचता उसे लगता कि बगदाद के चोर ने अचानक सुराही खोल दी थी, जिसमें से एक विराट् दानव निकल कर आकाश के नक्षत्रों को अपने कठोर अट्टहास से कम्पित कर रहा था। किन्तु यह दानव कल्पना का मूर्ख स्वत्व नहीं जो पुनः उसमें समा जाता। वह स्वयं हेम से दासत्व चाहता था।

हेम उठ कर कमरे में घूमने लगा। क्या यह सत्य है? आज सारा जीवन फिर आँखों के सामने घूम रहा है। कौन कह रहा है कि जीवन की सबसे बड़ी कठोरता यह है कि हेम तरुण नहीं, वह अब प्रौढ़ है। स्त्री उसको अब भी आकर्षित करती है। किन्तु क्या वह अपने दृष्टिकोण में स्वयं विकृत नहीं हो गया है, कि उसमें वही बचपन है जो आज तक किसी गाम्भीर्य में बदल जाना चाहिए था। उसने आतंकवाद, चित्रकला, व्यापार और क्या-क्या नहीं किया? कुछ हो जाने की तृष्णा का छोटा पशु अब धीरे-धीरे रेसकोर्स का घोड़ा बन कर निरन्तर दौड़ता चला जा रहा है। क्यों?

आज हेम विवाहित होता तो क्या वह ऐसा ही स्वप्नद्रष्टा होता? जिसने समाज के सम्बन्धों को बालू की तरह उठा-उठा कर मुट्ठी से छोड़ दिया, वह दृढ़ नींवों की गरिमा क्या जाने? उसने मानवीय सौजन्य को आज तक केवल एक कृत्रिम मुस्कराहट ही तो दी है? और जो कुछ वह हो जाना चाहता है, उसके लिए तितिक्षा भी नहीं, कर्म का तो पगचिह्न भी नहीं। निष्क्रियता! हेम निष्क्रिय! श्यामा, एक ढलते यौवन का आन्तरिक हाहाकार कि हाय आज तक मुझे प्रेमी नहीं मिला जो यों हो, जो यों हो... छिः अपने को महान समझना सबसे बड़ी लघुता है... और हेम के अवचेतन में से इस समय कोई हँसा... मेगैलोमेनिया!

और उसके मस्तिष्क में एक नयी हलचल हुई। सरकारी नौकरियाँ! सब ही करते हैं। डाँटते हैं, बनावट उनकी नाक की नोक में ऐसे चुभती है जैसे जूते की कील, जघन्य प्राणी! अपने ही हाहाकार में, अपनी ही विवशता में डूबते-छटपटाते हुए ये लोग, ये भी क्या कोई मनुष्य हैं? पेट... पेट के लिए जिन्होंने अपना ईमान बेच दिया, जैसी रोटी खाते हैं, वैसा ही न सोचेंगे ये आडम्बर के प्राणी, जैसे इनके चमड़े के भीतर खून नहीं, भरा है भुस... वह साफ भुस भी नहीं कि जिसे खाकर भैंस दूध दे सके...

हेम हँसा। और अब यह तार!

दबी हुई वासना की चाँदनी भी समाज के सामने आते समय प्रचंड धूप की भाँति चिलचिला सकती है कि अपनी ही कल्पना का पन्थी उस चमकती बालू पर पाँव रखने से डरने लगे... यह तो हेम ने कभी नहीं सोचा था!

दिल्ली! दसवीं बार बसी यह दिल्ली भी कुतुबनुमे की उत्तर दशा की भाँति एक यन्त्रणा की ही ओर इंगित कर रही है। और यह मध्यवर्गीय उच्छृंखलता, आर्थिक आधारों में धोबी के खूँटे से बँधी, उस आजाद कुत्ते को आदर्श बना रही है, जिसे धोबी की लड़की गोदी में उठा कर चुमकारती है, और उन हसरत-भरी आँखों से उसे देखती है, जिस आदर्श को झकझोरती अदम्यता से नये फराऊन ने पुराने फराऊन के बनाये पिरैमिड को भी नहीं देखा होगा।

सारा जीवन ऐसा हो गया है जैसे कोई बड़ी प्राप्ति की छलना में सिगरेट पी कर यह समझ रहा है कि वह कुछ पी रहा है। एक छोर पर आग लगी हुई है, दूसरे को वह फेफड़ों तक खींच रहा है, शायद सिगरेट की कालिख की काजर पारने... और... जो इतने दिन से प्रतीक्षा थी वह आज... इतने दिन से जो दिल किनारे से लगा बैठा था...

हेम मुस्कराया। लहर आयी तो है, पर बरसाती गन्दगी लिये, तूफान और हलचल भरी, ऐसी जिसमें से कछुए सिर निकाल कर देख लेते हैं, और जो स्वयं साँप-सी फुफकारती है। इसकी तो यौवन की गमगमाहट भी एक उष्ण उच्छ्वास से भरी तड़फड़ाहट है...

हेम इसी लहर की प्रतीक्षा कर रहा था? दृष्टि रुकी। लहर छोटी हुई और सिकुड़ी और सामने के गुलाबी कागज के टाइप किये चिपके सफेद कागज की चिप्पियों पर निस्तब्ध हो गयी।

“मैं तुमसे भीख माँगती हूँ। मेरी रक्षा करो। तुरन्त चले आओ। सेठजी आ गये हैं। मेरा दम घुट रहा है। कुन्तल मुझसे नाराज है। मैं अकेली हूँ, नारी हूँ, साहस बटोरती हूँ, चले आओ, नहीं तो शायद बम्बई का समुद्र ही मेरा पता दे सकेगा। केतकी।”

तार है? पूरा पत्र! तारघर में शायद रिपोर्ट भी होगी कि एक स्त्री आत्महत्या करना चाहती है! पर क्या यह सत्य है! सब वर्गों में प्रजनन करने वाला प्राणी स्त्री होता है, मध्यवर्गीय घुटन में वह नारी कहलाता है। और नारी दीप लिये आँचल में जाती है, दीप को बुझने से बचाती है और साथ में उसे यह डर भी तो बना रहता है कि कहीं उसके दीप से स्वयं उसमें ही आग न लग जाए!

हेम चाहता है हँस ले, जी भर कर हँस ले। उसके उपचेतन का बर्बर जो समर्पण चाहता था, यौन-तृष्णाओं का चरण-स्पर्श चाहता था, आज वह ऐसे सामने आ गया है जैसे सर्प की मणि हेम ने उठा ली है और सर्प अपने स्वत्व को उसके हाथ में जाते देखकर उसे दनादन डँसे जा रहा है, पर हेम पर असर नहीं होता; आज सारा विष उसका रक्त बनता चला जा रहा है, उसकी धमनियों में बजता हुआ, एक मादक स्फुरण भरता चला जा रहा है। उन्निद्र नहीं, भास्वर; भास्वर नहीं दीप्ति! दीप्ति! दीपक की! आहन्त! अन्धकार! वीतराग का वीभत्स स्वप्न! माया! गंगा के फेनिल बुद्बुद-सा ग्राहारूढ़ समुद्र की ओर लालायित प्रयाण! हेम जाएगा!

जाएगा? क्या कहेगा सेठ? क्या वह दूसरे की स्त्री को भगा कर लाएगा? क्या यह उचित है? हेम को उस कहार की याद आयी जो जीवा काछी की बहू को भगा ले गया था। तब हेम ने स्कूल से लौटते समय बचपन में देखा था कि जीवा को पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी क्योंकि उसने कहार और अपनी स्त्री की गर्दनों को गँडासे से काट दिया था।

वह सिहर उठा। तो क्या वह न जाए?

हेम बैठ गया। वह सोच में डूब गया। बहुत देर बाद उसने सिर उठाया। इस समय उसके मुख पर मुस्कराहट थी। उद्वेग थम गया था।

वह जाएगा। केतकी को समझाएगा कि जीवन केवल मनमानी उच्छृंखलता नहीं है। यदि वह सेठ के साथ नहीं रहना चाहती तो न रहे, वह समाज के लिए कुछ उपयोगी काम कर सकती है, केवल यौन समस्याओं की तृप्ति ही तो जीवन की सबसे बड़ी गुत्थी नहीं है!

पर मन में किसी ने कहा : कायर! तुम्हारा अपना जीवन क्या है? होटल का खाना, अस्पताल की मौत।

वह मुस्कराया।

“जंगबहादुर!” हेम ने धीमे से आवाज दी।

“शा'ब!” पहाड़ी ने देखा। उसकी छोटी आँखें अब प्रश्नवाचक चिह्न बन गयीं थीं।

हेम ने कहा : “सामान बाँधो! हम कल बम्बई जायेंगे।”

और हेम धीरे से बुदबुदाया - “छुट्टी भी तो लेनी है।” और फिर कहा, “नहीं, अब इस्तीफा देना है...”

इस विचार से वह प्रसन्न हो उठा।

श्यामा अनमनी-सी खड़ी रही। “कहाँ गये हैं?”

जंगबहादुर ने अपनी आँखें उठा कर कहा : “बम्बई गया है।”

बम्बई! श्यामा को आश्चर्य हुआ। वह तो पूछने आयी थी कि उसने इस्तीफा क्यों दिया? और रमानाथ से बातों में उसे पता चला था कि केतकी बम्बई गयी है। फिर पूछा : “कब गये हैं?”

“कल,” पहाड़ी ने उत्तर दिया। उसके बड़े-बड़े दाँत बाहर निकल रहे थे।

श्यामा को ऐसे लगा जैसे चक्कर आया। वह कुर्सी पकड़ कर बैठ गयी और उसके बाद जंगबहादुर थर्रा गया। बीबीजी के दाँत भिंच गये, मुट्ठियाँ बँध गयीं। सारा शरीर अकड़ गया।

पहाड़ी का गोल चेहरा अठपहलू हो गया। बीबीजी तो मर गयी! वह बाहर भागा। डॉक्टर नौरंगलाल पास ही रहते थे। पहाड़ी ने घबरा कर कहा, “चलिए डॉक्टर शा'ब!”

डॉक्टर उस समय किसी चोरबाजारी के पैसे से बीमार जेब वाले का इलाज करने का नुस्खा लिख रहे थे। सुनते ही बात ऐसे उड़ा दी जैसे कान पर मक्खी बैठ गयी हो। जंगबहादुर खड़ा रहा।

आधा घंटे बाद जब नौरंगलाल जंगबहादुर के साथ भीतर घुसे, कुर्सी पर कोई नहीं था। श्यामा चली गयी थी। जंगबहादुर ने आश्चर्य से ऐसा गोल मुँह फाड़ दिया जैसे अब्बंगा करके भीतर से लोहे का गोला निकालने वाला हो।

देवीप्रसाद ने बत्ती बुझा दी और श्यामा को हल्का शाल उढ़ाते हुए कहा, “अब कैसी तबियत है?”

“ठीक हूँ,” श्यामा ने धीमे से कहा।

“ठीक होतीं तो ऐसे बोलतीं?” दिवू ने कहा; “सिर का दर्द कैसा है?”

“कम है,” श्यामा ने मुँह दूसरी ओर कर लिया। अब उसे लगा - वह सह नहीं सकेगी। वह रोने लगी। देवीप्रसाद सिरहाने बैठ कर उसके बालों पर हाथ फेरने लगा।

“रोओ नहीं।” उसने धीरे से कहा। श्यामा सिसकती रही।

“रोने से जी हल्का हो जाएगा,” देवीप्रसाद ने उसी स्नेह से कहा, “रोना बहुत अच्छी चीज है।”

श्यामा के मन पर दवंगरा गिरा। एक पुरुष जो कहता है कि हृदय को बहा देना अच्छा है। हेम होता तो शायद कहता - नारी का आँसू... एक छलना, स्त्री की विषमता का प्रपंच...

देवीप्रसाद ने अपने रूमाल से उसकी आँखों को पोंछ दिया।

“नहीं रोऊँगी।” श्यामा ने धीमे-से कहा।

“क्या हुआ यह?” देवीप्रसाद ने पूछा।

श्यामा झेंपी। उसे कहते हुए झिझक हुई कि उसे हिस्टीरिया है। पढ़े-लिखों में आम जानकारी है कि अतृप्त सेक्स के कारण स्त्री को फिट आने लगते हैं। कैसे कहे वह? यह तो कोई साधारण बात नहीं।

“हो जाता है,” श्यामा ने कहा, “मैं सोऊँगी।”

“सिर का दर्द बाकी है?”

“थोड़ा है।”

“मैं बाम लगा देता हूँ।”

“नहीं, तुम सो जाओ। व्यर्थ क्यों जागते हो?”

पर देवीप्रसाद की उँगली और अँगूठे के बीच में उसका माथा समा गया। बाम की चिरमिराहट लगी, फिर एक ठंडक; श्यामा को नींद आ गयी।

जाने कब उसकी आँख खुली। देखा - दिवू सिरहाने बैठा-बैठा ऊँघ गया था और सामने की मेज पर उसका माथा टिक गया था। चाँदनी की फुही ने उसके मुँह पर एक करुणा फैला दी थी। श्यामा देखती रही। क्यों नहीं सोया यह? क्या यह डी.पी. बदला है? नहीं? कब तक आखिर? कोई बोला नहीं...

अखंड ममता... दुर्दमनीय स्नेह...

श्यामा ने उसे जगाया नहीं। देखती रही। उसे ऐसा लगा जैसे कोई सिंह उसके प्रभाव में आ कर पालतू-सा सो गया था। यही है वह व्यक्ति जिसने जीवन में केवल उसका उपकार करना जाना है! कभी प्रतिकार नहीं चाहा! बाप की मौत के बाद जनमी, माँ की दुतकारी, पराई स्त्री के दूध पर पली भिखारिन को इसी ने तो इस दर्जे तक पहुँचाया है! इसमें न रमानाथ की लोलुपता है, न हेम की स्पर्धा का अहं। केवल आस्तिकवाद का करुण समर्पण है यह। आया था, केवल देख कर चले जाने को - ठहरने भी नहीं। केवल यह देखने को कि जो दीपक उसने स्नेह डाल कर जलाया है, उसकी शिखा अभी तक आलोक फैला रही है न? यह नहीं कि उस आलोक से इसने अपने मन के अन्धकार को भी कभी हटाने का प्रयत्न किया हो।

श्यामा का ममत्व कुलबुलाया। एक लड़की है, रेशम। आठ-नौ दिन से अकेली होगी। जब डी.पी. को यहीं अच्छी सर्विस मिलने की सम्भावना है तभी तो उसने आग्रह से दिल्ली में रोक लिया है। रेशम कॉन्वेंट में है। पिता को उसका ध्यान रखने का समय भी नहीं। श्यामा को डी.पी. ने इतनी सब सहायता दी। श्यामा ने रेशम के लिए क्या किया? कुछ नहीं।

और इसी दिवू की स्त्री ने श्यामा के कारण ही विष खा कर प्राण त्याग कर दिया, किन्तु दिवू! शमी की भाँति भीतर जल जाएगा, पर बाहर? वही हरियाली, वे ही पतले-पतले छोटे पत्ते। निर्विकार!

श्यामा ने देखा। स्वयं बरसात की नदी की भाँति फुंकार रही थी। जो उसमें आता है उसे वह भँवर में डाल कर मोहान्ध कर देती है। दिवू शान्त पर्वत है। उसने सब-कुछ स्नेह से स्वीकार कर लिया है। जो कुछ किया है वह उसकी सहृदयता है, उस पर किसी का थोपा अधिकार नहीं है।

इस समय वह इतना टेढ़ा हो गया है कि अकड़ा-सा है, नींद ने बच्चे की तरह सुला दिया है।

श्यामा को लगा, वह बहुत हल्की थी। हल्की!! तो क्या केतकी उससे श्रेष्ठ थी! और श्यामा को एक विचार आया जिससे उसका रोम-रोम थर्रा गया।

उसका यौवन ढल रहा था। वह उनतीस की हो चुकी थी। केतकी की मादकता निःसन्देह उसमें नहीं थी। उसे एक भय हुआ। पुराने रईस की आती दरिद्रता और ढलती जवानी में नारी की विचलित अवस्था प्रायः अलग नहीं होती। और हेम... पुरुष प्रौढ़ भी हो, तरुणी चाहता है... स्त्री अपने लिए आसरा खोजती है, छाया चाहती है...

श्यामा ने देवीप्रसाद का हाथ पकड़ कर जगाया, “सोते क्यों नहीं? रात-भर ऐसे बैठे रहोगे तो तन में सुबह दर्द नहीं होगा?”

“ओह!” दिवू ने कहा, “श्यामा!” तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो! मेरे लिए तुम सो भी नहीं सकती...”

वह उठ खड़ा हुआ... वह चला गया... श्यामा तकिये में मुँह छिपा कर फफक-फफक कर रोने लगी...

दिवू लौट आया। पास बैठ गया। कहा : “तुम्हें बहुत दुःख है?”

श्यामा ने उसकी गोद में अपना मुँह छिपा लिया।

मंजु का रुदन बढ़ चला। बालिका का क्रन्दन सुन कर उसके पिता भीतर के कमरे से निकल आये। बम्बई के व्यापार की उलझनों को फाड़ कर वह रुदन उनके कान में पड़ा। वह चुपचाप देखते रहे। उन्होंने बालिका को पुचकारा नहीं। नौकरानी जमना से कहा था, पर वह पास नहीं है। कुन्तल शायद पढ़ रही है। और बच्ची की माँ सैर करने गयी है!

सेठ को क्रोध आने लगा। किन्तु वह बोला कुछ नहीं। उसका मौन बच्ची के लिए सान्त्वना नहीं बना। वह और गला फाड़ कर रोने लगी।

सेठ पूर्ववत् ही खड़ा रहा : मर अभागी! तेरी माँ ही तुझे अपनी ममता न दे सकी, तो तू क्या इस संसार में रहने योग्य है?

सामने का पर्दा हटा। कुन्तल नहा कर बाल काढ़ती हुई दिखाई दी।

“अरे, बेबी रो रही है?” कुन्तल ने कहा; “जीजी कहाँ है?”

“सैर करने गयी है।” सेठ ने विष-भरे स्वर से कहा। और फिर जैसे वह सह नहीं सका, गुर्राया - “इसीलिए मैंने घर बसाया था? आवारा औरत! सब औरतें ऐसी ही होती हैं?”

“जीजाजी!” कुन्तल ने दृढ़ता से कहा।

“तो तुम्हारी बहन ठीक है?” सेठ ने घूरा।

“नहीं,” कुन्तल ने कहा, “यह आपकी गलती है। आप ही ने उन्हें अपने स्नेह से छूट दी है, आप ही ने उन्हें इतनी स्वतन्त्रता दी है। जो स्त्री अपने बच्चे को नहीं सँभाल सकती, उसका जीना न जीना संसार में बराबर है।”

सेठ चार कदम चल कर मेज के पास जा खड़ा हुआ। इज्जतदार! वैभव का स्वामी! और अपने पारिवारिक जीवन में इतना निरीह!

“आज उसे आने दो,” सेठ ने मुड़ कर कहाः “मैं फैसला करके रहूँगा।”

इसी समय द्वार पर सुनाई दिया, “मैं फैसला करके ही आयी हूँ।”

कुन्तल ने देखा, हेम और केतकी खड़े थे। हेम सौम्य, शान्त। केतकी वासना से दमदमाती। कुन्तल का होठ घृणा से मुड़ गया। सेठ अपनी मेज के पास मौन खड़ा रहा, जैसे धरती के भीतर ज्वालामुखी फूटने से पहले एक अज्ञात हलहल हो रही थी।

“कुन्तल!” सेठ ने कहा, “देखती हो?”

कुन्तल ने सिर झुका लिया।

“मैं जाना चाहती हूँ।” केतकी ने कहा : “मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती,” कह तो गयी, पर लगा लड़खड़ा कर गिर न जाय, उसने हेम के कन्धे पर सिर टेक दिया।

“निर्लज्ज!” सेठ ने फूत्कार किया।

कुन्तल ने घृणा से भौं संकुचित करके कहा, “जीजी! क्या तुम्हें कोई हया नहीं, जो पराये पुरुष के कन्धे पर सिर धर कर अपने पति को छोड़ने की बात कह रही हो!”

“कुन्तल! तू पढ़ी-लिखी हो कर, पिताजी के उपदेशों को सुनकर, यह क्या कह रही है?” केतकी ने आश्चर्य से कहा।

“मैं हिन्दू हूँ जीजी, और शर्म की बात कह रही हूँ। मेरे लिए आज से तुम मर गयीं।”

केतकी ने व्यंग्य से मुख विकृत करके कहा, “तो मेरी जगह तू ही न अपने जीजाजी की मदद कर!”

अप्रत्याशित रूप से कुन्तल ने कहा, “तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करूँगी और अवश्य करूँगी।”

हेम चुप खड़ा था। केतकी ने फिर कहा, “बाँदी!”

विद्रूप उसके होठों पर कुलबुलाया। वे दोनों मुड़े। सहसा सेठ ने कठोर स्वर से कहा, “ठहरो!”

और मुड़ कर देखने के साथ ही देखा - सेठ तपे हुए लोहे की तरह गम्भीर खड़ा था। उसके नेत्रों में भयानक अपमान की ज्वाला थी। उसके बगल की मेज की दराज खुली थी और उसके हाथ में पिस्तौल थी, जिसकी नली सामने उठी हुई थी और वह मशीन की भाँति कह रहा था, “सब-कुछ सुनता रहा हूँ, किन्तु यह साँपिन मुझे इतना निरीह समझती है! जाते हो तो दोनों जाओ...”

केतकी भयातुर-सी चिल्लायी। कब गोली चली, कब कुन्तल ने झपट कर सेठ का हाथ पकड़ा, सब एक झटके में बीत गया। गोली हेम के कन्धे में लगी और वह सिर के बल जा गिरा। खून फूट निकला। कुन्तल ने पिस्तौल छीन कर उसे पोंछा और दूर फेंक दिया। रामसिंह और जमना जब भाग कर आये तो देख कर जीभ तालू से सट गयी और आँखें फटी-की-फटी रह गयीं।

जमना चीख पड़ी, “हाय राम! यह क्या हुआ?”

किन्तु कुन्तल ने गम्भीर स्वर से कहा, “कुछ नहीं जमना! यह बदमाश घर में आ गया था। शायद जीजी ने उसे गोली मार दी। हम और जीजा जी तब ही भाग कर आये हैं।”

हेम मूर्छित हो गया था। सचमुच केतकी भाग गयी थी।

“तो बीबीजी कहाँ हैं?” रामसिंह ने पूछा।

सेठ ने निर्विकार स्वर से कहा, “वह शायद एक अपने दूसरे दोस्त के साथ भाग गयी।”

कुन्तल ने शर्म से सिर झुका लिया। रामसिंह हेम को उठाने लगा।

रात हो गयी थी। लखनऊ के मध्यवर्ग में डूबते सामन्ती वर्गों की रंगीन-दोनों की सम्मिलित ऐयाशी, और टुटपुंजिये वर्ग की क्रान्ति की बातें, हजरतगंज के कॉफी हाउस से निकल कर चाय की प्यालियों में तूफान पैदा करतीं और उसी माहौल में अल्ताफ जैसे कवियों का पोषण होता है। अल्ताफ का जीवन एक ओर क्रान्ति की कविता था, किन्तु तृष्णा थी उच्च-वर्ग में सम्मानित होने की। इस समय उसके माथे पर खिंची रेखाओं में एक परेशानी थी। सामने केतकी बैठी थी उदास, आँखों में हिन्द महासागर की नीलिमा लिये, जिनमें एक विद्रोह था, एक निर्वासन की विभीषिका थी, जिस सब पर भय और वीभत्सता थी, ऐसे जैसे गुलामों को सुल्तान बर्तानिया के जहाज अन्दमान पहुँचाने जा रहे थे।

“तुम...” अल्ताफ ने कहा, “लखनऊ में? ...कब आयीं?”

केतकी चुप बैठी रही, जैसे वह सकपका गयी थी। हठात् वह उठी और उसने अल्ताफ का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त करुण स्वर में उसने बोला, “अल्ताफ!”

अल्ताफ समझा नहीं, वह दिल में चौंका भी। कहा : “केतकी!!”

उसे केतकी के स्पर्श से वासना का निर्झर झरता हुआ दिखाई दिया। उसने उसे बाहुओं में भर लिया। केतकी रो दी। सम्भवतः इस समय ममता, आश्रय और भय सबके बादल टकरा कर पिघल उठे थे और भी सम्भवतः कुन्तल का विद्रूप, सेठ की बर्बरता और सबसे अधिक सम्भाव्य आज दूर से अच्छी लगने वाली पुत्री मंजु को न छू सकने की परवशता उसे कचोट उठे थे। आज वह अकेली रह गयी थी। - क्यों? अपने ही हाहाकार के कारण। उसने अपने हाथ से अपने घर में आग लगायी है। अल्ताफ बेबस-सा खड़ा रहा।

“रोती हो?” उसने पूछा।

तब केतकी ने सुनाया - वह अपने जीवन से बहुत असन्तुष्ट थी, बहुत! सेठ से उसे घृणा हो गयी थी। हेम को उसने समर्पण किया - चाहा कि उससे बँध जाए। पर तब वह साहस न कर सकी। वह बम्बई चली गयी। जुहू की सैर और चौपाटी की सतरंगियत भी उसके सूनेपन को न ढँक सकी। उसने कभी इतनी फुर्सत भी न पायी कि वह अपनी घुटन से मुक्त हो सके और उसी मजबूरी में उसने आत्महत्या का डर दे कर हेम को बुलाया। वह इस्तीफा दे कर आ गया और फिर इन दोनों ने तय किया - वे साथ-साथ रहेंगे। पर अन्तिम क्षण में सेठ अचानक ही क्रूर पशु बन बैठा। सदियों के संस्कारों में पली कुन्तल उसके विरुद्ध हो गयी। सेठ ने गोली चलायी - हेम शायद मर गया... मैं भागी, मुझे मालूम था कि वह जानवर मुझे भी मार डालेगा... बम्बई में दो दिन भटकती रही - उस तरफ डर से गयी भी नहीं। फिर जब कुछ भी नहीं सूझा तो सोचा समुद्र में डूब जाऊँ। पर फिर मुझे तुम्हारी याद आयी। याद आया, तुम शायर हो, तुम तरक्कीपसन्द हो, तुम औरत की आजादी चाहते हो, तुम सरमायादारों के चंगुल से मुझे बचा सकते हो... मैं चली आयी... आज तुम्हारे सिवाय मुझे इस दुनिया में कोई सहारा नहीं है...

अल्ताफ ने केतकी को छोड़ दिया और सामने की कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट सुलगा ली। वह गम्भीर चिन्ता में डूब गया था। दोनों एक-दूसरे की ओर घूरते रहे। घड़ी ने रात के बारह बजाए। अल्ताफ चौंक उठा। उसने धीरे से कहा, “तो तुम हेम के साथ भाग रही थीं? और जब उसके गोली लगी तब उसके मरने से पहले भाग आयीं?”

उसके मुख पर न घृणा थी, न भय, न ईर्ष्या, न विद्रूप। वह एक वैज्ञानिक की तरह फूल का 'डिसेक्शन' करके उसके अलग-अलग टुकड़े निकाल कर रख रहा था।

केतकी का मुख सफेद हो गया, जैसे उस पर कहीं भी रक्त नहीं था।

“अल्ताफ!” वह फुसफुसायी, मानो वह दिल्ली की उस मुहब्बती रात की याद दिला रही थी। उस समय अल्ताफ का मुख एक पैशाचिक नम्रता से भर गया था कि वह अत्यन्त करुण और अत्यन्त निर्दय दिखाई दिया।

“इसीलिए,” अल्ताफ ने रहस्य-भरे ढंग से सिर हिलाकर कहा, “इसीलिए तुमसे डरता हूँ। तुम्हें आदत है। तुम्हें आदत है...” और एकाएक उसने पलट कर कहा, “तुम्हारी बुर्जुआ जेहनियत, तुम्हारा पतबरतापन, औरत, खोखली नींवें, उससे भी खोखली आजादी...” वह हँसा। कहा, “तुम किससे डरती हो? बदनामी से? - बेवकूफ! नदी में तैरना औरत का, बुर्जुआ औरत का काम है, क्यों? क्योंकि वह नाव है, उसे भीगना ही होगा, वह अभी 'मीडियम' है, ब्रेवो... आओ... खुल कर खेलो... लोग दाँतों तले उँगली दबा लेंगे...”

“अल्ताफ!” केतकी चिल्ला उठी, “तुम कुत्ते हो!”

“चेखुश!” अल्ताफ ने सिर झुका कर कहा, “मैं जिस नस्ल का नर हूँ आप उसी नस्ल की मादा हैं। जैसा मैं अपनी नस्ल का सच्चा हूँ, आप अपनी नस्ल की मुझसे ज्यादा सच्ची हैं, क्योंकि आपके पास मुझसे कहीं ज्यादा हौसला है, क्योंकि आप अभी 'कोका कोला' हैं...”

वह हँसा। क्योंकि अपनी समझ में उसने अमरीकनों पर व्यंग्य किया था।

ऐसे मध्यवर्गीय प्रगतिशील जो अपने सहयोग से क्रान्ति के साथ रह कर गद्दारी करते हैं, समाज में हैं और अल्ताफ की भाँति ही हँसते भी हैं।

“मेरी राय में,” उसने सिगरेट फेंक कर कहा, “आज रात मेरे पास सो रहो, कल कहीं और...” और उसने केतकी को भेद-भरी दृष्टि से देखा।

केतकी उठी और कमरे के बाहर हो गयी। अल्ताफ ने झाँक कर देखा, अन्धकार में वह अमीनाबाद की तरफ मुड़ चुकी थी।

अल्ताफ ने निजात की साँस ली - बाप रे! बाल-बाल बचा!

हेम का मन रेल से भी तेज भाग रहा था। पंजाब मेल अपनी अनवरत गति से भागता चला जा रहा था। आज तक जो यन्त्र उसे पराजित कर रहा था, उसे आज पहली बार यह अनुभव हुआ कि यन्त्र उसकी मुक्ति है। वह कहाँ आ कर फँस गया था जहाँ से यह यन्त्र उसे शीघ्र-से-शीघ्र दूर किये दे रहा था, ले जा रहा था उस ओर जहाँ फिर यह कालिमा उसके माथे पर नहीं लग सकेगी। वह फिर पहले की भाँति सुख की साँस ले सकेगा। मानव की विजय! उसकी पीढ़ियों के संचित ज्ञान की परिणति। प्रत्येक युग में एक नयी रचना बन कर परिणत होती है। पहले वह काव्य-प्रमुख थी, द्विविधा दार्शनिकता थी, और अन्त में उसका विज्ञान। आज मनुष्य बहुत आगे प्रगति कर गया है। अब उसका विज्ञान ही उसके दर्शन का आधार बनता जा रहा है क्योंकि उसका कोई ज्ञान और चिन्तन अब विज्ञान और व्यवहार के बिना उसको सन्तोष नहीं देता। मशीन मनुष्य की जीवन-यात्रा की अनेक मंजिलों का संचित काव्य है। किन्तु पूँजीवादी समाज में जैसे काव्य का अपमान और दुरुपयोग हो रहा है, वैसे ही मशीन का दुरुपयोग और मनुष्य का अपमान भी अवश्यम्भावी है।

वह अपने ऊपर चौंक उठा। यन्त्रणा के सत्य ने उसे आज क्या सोचने को विवश कर दिया है।

डब्बे में और भी लोग हैं। सामने एक पंजाबी ठेकेदार हैं, उनका रूप असुन्दर है, स्थूल है, परन्तु उनकी स्त्री सुन्दरी है और अपने चारों ओर उसने अपने ही संकोचों का पर्दा खींच रखा है। ऊपर की बर्थ पर एक अधेड़ व्यक्ति है। हेम किसी से बात नहीं करना चाहता। किसी से नहीं। सेकंड क्लास का गौरव फर्स्ट क्लास से इस मामले में कम नहीं होता, क्योंकि वहाँ की भाँति ही यहाँ भी कोई आपस में सहज ढंग से बात नहीं करना चाहता।

इस स्त्री को देख कर हेम को सहसा ही केतकी की याद हो आयी। वह सिहर उठा, उसके मन ने विद्रोह किया। विद्रोह! एक-एक करके हेम को याद आने लगा।

अब? वह दिल्ली जा कर क्या करेगा? क्यों जा रहा है वह? जंगबहादुर को छोड़ देने को जा सकते हो, अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। हेम तो नौकरी से इस्तीफा दे चुका है। दिल्ली में लोगों में एक लहर तो दौड़ी होगी कि आखिर हेम ने ऐसा क्यों किया?

मोटर वह जा कर बेच देगा। और मोटर के साथ ही सेठ सामने आ गया। उसने क्या अनुचित किया? हेम ऐसी परिस्थिति में अपने पौरुष का ऐसा अपमान देख कर चुप रह सकता था? सेठ के पास पैसा है, सरकार ने उसे पिस्तौल का लाइसेन्स दिया है। किन्तु इसके बाद की कथा बहुत गन्दी है। कुन्तल ने केतकी को गोली चलाने वाला बताया, कहा कि वह तब ही भाग गयी थी। हेम ने सेठ का नाम लिया। सेठ ने पुलिस के दाँतों में चाँदी की कीलें ठोंकीं और उसके बाद उन दोनों ने परस्पर विवाह का ऐलान कर दिया। कुन्तल और सेठ! क्या हो गया कुन्तल को? क्या उसने केतकी के पाप की लाज को इतना अधिक जघन्य माना?

हेम इस समस्या का कोई उत्तर नहीं दे सका। खिड़की के बाहर पेड़, पौधे, खेत, पानी के ताल-सब भागते चले जा रहे थे। कोई नहीं भाग रहा है, हेम ने सोचा। अपनी महागति का उद्वेग ही इस समय अपने सापेक्ष रूपों को भी अपनी ही अतिरंजित कल्पना में रँगे दे रहा है।

हेम निराश हो गया। बम्बई का विराट कोलाहल, समुद्र का हाहाकार, सब आकाश की धुलती लालिमा के समान अन्धकार में विसर्जित हो गये, और हेम अस्पताल, भीड़, कोलाहल सब छोड़ कर राजधानी लौट चला। जब वह चला था तब उसके हृदय की लहर उद्दाम वेग से हरहराती फूटती-सी उमड़ी थी। यह चट्टान से टकरायी थी और अब फेन-सी छितरा कर उसी अपार जल-राशि में मिल कर अपने समस्त संयमों के व्यवधानों को लय कर देना चाहती थी।

रामसिंह ने केतकी की बुराई भी की थी कि वह ऐसे ही डोलती रहती थी। उसने साथ ही हेम को भी बिजार कहा था, जो हलवाइयों की सजी-सजाई थाली में मुँह डालने वाला था।

कितना गन्दा था वह सब? सब कुछ है इस संसार में। सब विषम है, क्योंकि व्यवस्था का अभिशाप है। कैसी भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की छटपटाहट हो। ये जो बर्बरयुगीन मानव की स्वार्थसिद्धि के केन्द्र हैं अभी तक उपचेतन के संस्कार बन कर उपस्थित हैं, वे भी इस कठोर सत्य को नहीं भुला सकते। मनुष्य का कल्याण व्यक्ति के सत्य में तभी हो सकता है जब वह एक समाजव्यापी सत्य के रूप में पहले ही से परिणत हो चुका हो।

हेम फिर चौंका। आज वह कुछ नयी-सी बात क्यों सोच रहा है?

और फिर उसने अपने जीवन के विषय में सोचा। उसे अपने ऊपर हँसी आयी। ऐसा वह डॉनक्विग्जोट क्यों बन गया कि चल दिया विंडमिल से लड़ने - क्योंकि केतकी ने बुलाया था? केतकी मुसीबत में थी। उसकी रक्षा करने, उसे समझाने ही तो वह गया था! क्या वह जाना उचित नहीं था? एक नारी बुलाये और वह नहीं जाए। किन्तु हेम इस तर्क को स्वयं स्वीकार नहीं कर सका। यह झूठ है, यह झूठ है। इतनी स्त्रियाँ धन के लिए जवानी बेचती हैं, इतनी विधवाएँ आकुल मन से भीतर-ही-भीतर रिस-रिस कर मर रही हैं, एकान्तवादी हेम को कभी किसी का ध्यान आया? वह तो कुछ हो जाने के असह्य संकल्प में कस्तूरीमृग की भाँति आप ही भागा चला जा रहा था! हेम ने कब सोचा कि दुनिया में दारिद्र्य है, विवशता है, रुदन है। उसने इस समस्त समाज, ब्रह्मांड को, अपने व्यक्ति या अहं के माध्यम से सेाचा है, कि जब वह नहीं रहेगा तो कुछ भी उसके लिए नहीं रहेगा, क्योंकि जो 'मैं' सब-कुछ का अनुभव कर रहा है, वह उस समय अवशिष्ट नहीं होगा। उसका अपना जीवन एक ग्रन्थ है। उसकी भूमिका समाज का अतीत है, परिशिष्ट में क्या जुड़ेगा इसकी उसे चिन्ता ही कब हुई? और हेम को अपने इस सीमित अहं के गतिरोध का आभास हुआ क्योंकि यह समाज की धारागति के साथ न था, सबसे अलग था, धारा में पड़े पत्थर-सा। उसने आम खाया है यह भूल कर कि जिन हाथों ने वे आम लगाये थे वे आने वालों के खाने के लिए थे। पर अब क्योंकि हेम अपने लगाये पेड़ के आम खा नहीं सकेगा इसलिए वह कोई पेड़ क्यों लगाएगा? उसका फल... केतकी!

क्या वह अतृप्त दबी हुई वासना ही नहीं थी जो हेम को केतकी के आह्वान पर खींच ले गयी थी? क्योंकि... क्योंकि... श्यामा के पास एक पुरुष उस रात-भर सोया था, क्या उसी का प्रतिकार नहीं हुआ था हेम के सभ्य मन में? ...कि श्यामा जी! तुम किसी को हृदय दे कर रात को किसी और के साथ सो सकती हो, तो हेम भी किसी की स्त्री को ला सकता है... कितना बर्बर किन्तु कितना गहरा उतरा हुआ विचार, ऊपर से नारी के प्रति संवेदना, उसका कष्टों से उद्धार...

हेम को लगा उसका सिर फट जाएगा।

शाम बीत गयी और रात आ गयी। गाड़ी रुकी। हेम निकल कर ताँगे में बैठा।

उसे घर के भीतर घुसते देख कर जंगबहादुर चौंक उठा। साहब के माथे पर पट्टी थी, और कोट की बाँह झूल रही थी। इसका मतलब है इधर भी पट्टी है। ठीक है, हाथ फूल भी रहा है। साहब घायल हो गया?

हेम ने देखा। सहजात स्नेह से पहली बार उस नौकर को देखा जिसे आज तक मर्यादा की अँगूठा-निशानी जैसी स्याह पुतलियों से वह देखा-अनदेखा सा काम में नियोजित किया करता था।

जंगबहादुर उस दृष्टि की आत्मीयता को कुछ देर अविश्वास से देखता रहा। फिर चाय बनाने लगा। हेम आराम से पलंग पर लेट गया, वैसे ही, बिना कपड़े बदले। चाय के नशीले तत्त्व से वह पहले अपने भीतर स्फूर्ति चाहता था।

जंगबहादुर के हाथ से ले कर वह धीरे-धीरे पहला प्याला पी गया। उसे कुछ ताजगी आ गयी। दूसरा पी रहा था कि जंगबहादुर ने कहा, “शा'ब! वह बीबी आया था।”

“कौन?” हेम ने सिर उठाकर पूछा।

“श्यामा बीबी।”

“हूँ।” हेम ने सिर हिलाया। परन्तु जंगबहादुर को अभी कुछ और कहना था।

“अच्छा।” हेम ने कहा।

जंगबहादुर को साहस मिला। बोला, “बीबी पूछता था, आप कहाँ गया है। हमने बोल दिया - बम्बई। वह गिर गया...”

“गिर गया?” हेम ने चौंक कर पूछा।

“हाँ, शा'ब! बेहोश हो गया। हम समझा नहीं शा'ब, हम डाक्टर को बुलाया। बीबी तब तक चला गया था।

जंगबहादुर तो कह कर चला गया, पर हेम को लगा वह इसे सह नहीं सकेगा। क्या होती है यह स्त्री? क्या एक के अतिरिक्त, वह किसी और का भी स्नेह चाहती है? क्यों आयी थी वह? और श्यामा? स्पर्धा! ईर्ष्या उसकी धमनियों में है। प्रेम का सौदा नहीं चाहती, पहले मोनोपोली चाहती है और चाहती है ब्लैकमार्केट करना।

चाँदनी में वह प्रेम करती है। एकान्त में, किन्तु सबके सामने? उसे सहज स्नेह नहीं, आडम्बर का गौरव चाहिए। हेम शायद उसी से चिढ़ कर श्यामा को नीचा दिखाने केतकी के पास चला गया था।

हेम उठ खड़ा हुआ। मोटर खराब पड़ी थी। जंगबहादुर ताँगा ले आया पहाड़गंज को। हेम बाहर जा कर ताँगे में बैठ गया।

उसके चले जाने के लगभग दस मिनट बाद एक और ताँगा आया। उसमें से उतरकर रमानाथ ने पूछा, “सा'ब हैं?”

“पहाड़गंज गया है।” जंगबहादुर ने कहा।

“मोड़ लो,” रमानाथ ने कहा।

ताँगा मुड़ने से एक साइकिल वाला उतर पड़ा। वह था फ्लूटिस्ट सुधीर।

“अरे आप यहाँ?” रमानाथ ने कहा।

“जी हाँ, जरा काम था।” सुधीर ने बाल हिलाये।

“ऐसा?” रमानाथ ने व्यावहारिक मुस्कराहट का चक्र फेंका। सुधीर भी उसी रेडियो घर के दूसरे श्रीकृष्ण थे। उन्होंने उस चक्र को तो स्वीकार कर लिया। पर दूसरा चक्र मारा, “अभी कनॉट सर्कस था। वहाँ आप नहीं थे?”

“जी, मैं सुबह का निकला हूँ। इधर कई दिन से हेम जी को नहीं देखा था, सो रास्ते से ही ताँगा ले कर इधर आ निकला।”

“उन्होंने इस्तीफा दिया था न?”

“जी हाँ।”

“तभी।” फ्लूटिस्ट ने कहा, “मुझे आपकी तलाश में ताँगे में ही केतकी जी मिली थीं।”

“वह यहाँ कहाँ, वह तो बम्बई हैं।”

“जी हाँ, बड़ी बदहवास थीं। चेहरा सफेद पड़ गया था। आपके यहाँ शायद किसी ने बता दिया कि आप हैं नहीं।”

“ठीक ही है।”

“मुझसे भी पूछा था। हेम जी का जिक्र आया तो कहा, वह तो मर गये, और रोने लगीं।”

“वाह!” रमानाथ ने कहा, “सुधीर जी, आप तो फ्लूटिस्ट से फ्लूकिस्ट होते जा रहे हैं।”

सुधीर भी हँसा। बोलाः “नहीं, सच है।”

“फिर केतकी जी गयीं कहाँ?”

“कह नहीं सकता!”

“ऐसा!” रमानाथ ने फिर आश्चर्य प्रकट किया।

रेशमी फ्राक पहने हुई रेशम का हाथ पकड़ कर देवीप्रसाद ने कहा, “नमस्ते करो बेटा!”

बच्ची ने सामने बैठे मुर्गी की दुमदार चिकनाई वाली टोपी पहनने वाले, मैदे की-सी आँखों के सज्जन को नमस्कार किया।

“शाबाश, जीती रहो बेटी,” एम.पी. महोदय बोले। उन्होंने श्यामा की ओर एक तिरछी नजर से देखा जो इस समय मुस्करा रही थी।

“जी हाँ,” श्यामा ने कहा, “आपने अगर इस वक्त मदद न की होती तो इन्हें सर्विस नहीं ही मिलती।”

रेशम चली गयी।

“सरकारी काम ऐसे ही होते हैं।” एम.पी. ने कहा। उनके मुख पर एक घिसे रुपये की-सी चिकनाई थी। कल तक श्यामा को इन जैसे लोगों से घृणा थी। पर सत्ता इन्हीं के हाथ में थी और अब उसने अनुभव किया था कि जो इनको बनाये नहीं रखता, वह वास्तव में मूर्ख है। समाज में जब ऐसे ही लोगों का बोलबाला है तो थोड़ा-सा समझौता कर लेने में हर्ज भी क्या है? हजारों-लाखों आदमियों के शासक आज ये चिकने-चुपड़े घासलेट के पकवान ही हैं। ये संस्कृति के बारे में भी राय देते हैं, और अशिक्षित हो कर कविता-पुस्तकों की भूमिका लिखने का भी दुःसाहस करते हैं। दिन-रात भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिहाद करते हैं, पर इनके सगे-सम्बन्धी पक्के चोरबाजारी होते हैं। इतने जघन्य हैं ये लोग जितने ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रारम्भिक लोलुप व्यापारी भी नहीं थे।

देवीप्रसाद में ऐसे विचार थे ही नहीं। वह सिर्फ ऊँची नौकरी चाहता था। जब अंग्रेज थे तब भी सरकारी नौकर था, अब अंग्रेजों के मुलम्मे वाले बर्तन खटकते हैं तो उनके सुर पर भी गाना उसे आता है। वह जिन्दगी को बड़े ठोस व्यापारी के दृष्टिकोण से देखता है। वह देशभक्त है क्योंकि वह हुकूमतपरस्त है। पब्लिक सर्विस कमीशन के अतिरिक्त भी सरकारी रुपया खाने वाली ढोल की पोल की कई नौकरियाँ हैं जिनमें सिफारिश की जरूरत है और उनमें से वह एक पा गया है।

श्यामा ने नौकरी छोड़ दी है। अब उसका वह बहाव रुक गया है। वह अब प्रशान्त हो गयी है। माथे पर लाल बिन्दी लगी है, और उसमें एक सन्तोष-सा आ गया है।

मोतीराम चाय बना लाया था। एम.पी. के लिए एक कोकाकोला की बोतल थी।

हेम ने देखा। वह बाहर ही रुक गया। उसने देखा आज एक नहीं, श्यामा के पास दो पुरुष हैं, और एक लड़की भी है। जाए या न जाए, अभी वह निश्चय ही कर रहा था कि किसी ने पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रखा।

मुड़कर देखा - रमानाथ था।

“कब आये?” रमानाथ ने कहा, “अरे! चोट!” उसे याद आयी फ्लूटिस्ट सुधीर की बात कि केतकी ने कहा था कि हेम मर गया। उसे आश्चर्य हुआ। तो कोई किस्सा है जरूर जिससे केतकी का भी सम्बन्ध है।

“आओ न भीतर,” रमानाथ ने कहा। हेम को जाना पड़ा। श्यामा ने देखा तो मुस्करा कर कहा, “आइए! अरे! यह पट्टी कैसी?”

देवीप्रसाद ने आँखें उठा कर अधिकार-भरी दृष्टि से हेम को देखा। हेम बैठ गया। रमानाथ ने कहा, “हेम! जानते हो न? देवीप्रसाद जी मेरे पुराने दोस्त हैं। और डी.पी. भइया! हेम भी मेरे बड़े अच्छे मेहरबान हैं।”

एम.पी. चुप थे। हेम ने तो उन्हें देखा ही नहीं। वह इस उपेक्षा से कुढ़ गये थे। वह जमाने लद गये थे जब होली पर लोग उनकी चालाकियों से तंग आ कर उन्हें जूतों की माला पहनाते थे। अब तो वह फूलों के हार पहनते थे, नेता थे, रमानाथ ने उनसे मुस्कराहट का आदान-प्रदान कर लिया।

हेम का मौन अब कुछ उबाने लगा। श्यामा इस समय एम.पी. और देवीप्रसाद की बातचीत में दिलचस्पी ले रही थी। हेम उसकी इस उपेक्षा से चिढ़ गया।

इसी समय रेशम भीतर आयी और श्यामा से बोली, “देखो ममी! मोतीराम हमको चाकलेट ला कर नहीं देता।”

श्यामा ने हँस कर कहा, “शैतान कहीं की! तू दिन-रात न मुझे चैन लेने देती है, न डैडी को ही...”

इतनी बड़ी लड़की की माँ बनने का सौभाग्य श्यामा को इस बीच में कैसे हो गया और डैडी कौन हैं? हेम कुछ सकते की-सी हालत में पड़ गया पर अब कुछ समझ में आया। क्या श्यामा का विवाह हो गया? किससे?

“क्यों? देखिए न,” श्यामा ने देवीप्रसाद की ओर देखा। हेम को लगा वह कटे वृक्ष की भाँति धरती पर लुढ़क जाएगा। केवल एक ही भाव उसके विवेक में शेष था - श्यामा ने विवाह कर लिया है। देवीप्रसाद से? कौन है यह? इसने इसका हृदय किस प्रकार जीत लिया? इस पुरुष में तो कोई भी विशेषता दिखाई नहीं देती।

हेम का हृदय भीतर-ही-भीतर एक बड़ी हीनतत्व की भावना-भरी निराशा से भर गया।

रमानाथ की आँखों में कुटिलता थी। श्यामा कभी-कभी उसकी ओर देख कर मुस्करा देती, किन्तु जैसे हेम वहाँ था ही नहीं। आज जैसे वह श्यामा के पास नहीं आया था, वह रमानाथ के साथ आया था और इसीलिए उससे कोई विशेष बात भी नहीं कर रहा है।

कल तक यह स्त्री उससे प्रेम की भीख माँगती थी, और आज ऐसे बैठी है जैसे इसके जीवन के सारे रास्ते वहाँ खत्म हो गये हैं जहाँ डी.पी. का पुरुषत्व सिपाही-सा चौराहे की गति का संचालन कर रहा है।

हेम में कटुता की तिक्तता उसके कंठ तक उभर आयी पर वह विवश था। और वह कर भी क्या सकता है?

एम.पी. की तीरन्दाज आँखें अपनी सफेदी की कौड़ी चितपट्ट करती काम की बातों में उलझी हुई थीं। और देवीप्रसाद इस समय जिस सहज अधिकर से बैठा था, वह तो हेम में सौ-सौ बर्छियों-सा छिदा। श्यामा विनम्र और तृप्त है। कल तक बादलों में तड़पती नंगी बिजली-सी हुमस रही थी और आज दीपक की शान्त शिखा-सी।

हेम को विस्मय हुआ। विवाह में यह करामात भी है! छल ने विवशता में अपनी कलुषित प्रवृत्तियों से समझौता कर लिया है कि वह अब उसे पहचानने से भी इनकार कर रही है! वह उठ खड़ा हुआ।

“क्या हुआ?” रमानाथ ने कहा।

“तबियत खराब है,” हेम ने मुश्किल से उत्तर दिया और द्वार की ओर बढ़ा, पर तभी वह रुक गया।

द्वार पर बिखरे बाल, लाल आँखें, धूल-धूसरित, विपन्न केतकी हाथ फैलाये खड़ी थी।

“भाग्य ने भेजा है मुझे,” उसने कहा, “अचानक जंगबहादुर राह पर मिला, उसी ने मुझे यहाँ भेजा है, मैं आ गयी हूँ हेम... मैं आ गयी हूँ...”

वह बढ़ी और उसके पाँव पकड़ कर लोट गयी, निर्लज्ज, निस्संकोच।

और सबने आश्चर्य से देखा कि हेम उससे पाँव छुड़ा कर पीछे हट गया, पर वह न आगे आ सका, न पीछे ही... जैसे वह पत्थर हो गया था...

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-11

हेम पत्थर हो गया। स्तब्ध, सन्न और आहत।

उसने धरती पर लोटी सर्वथा समर्पित केतकी की ओर देखा और फिर जैसे उसके चारों ओर का वातावरण उतप्त हो उठा। उसकी बुद्धि की गति मोहित हो गयी।

श्यामा ने उसकी उपेक्षा की थी - उस श्यामा ने जो अपने समर्पण के लिए उसका स्वीकार प्राप्त करने को इतनी उत्सुक थी - जिसकी गति और मति ने उसे अपनी सीमा मान लिया था - जिसके लिए संसार मानो सिमट कर उसी में केन्द्रित हो गया था - उसी श्यामा ने...

और अब केतकी उसका मूर्तिमान तिरस्कार बनकर उसके चरणों से लिपटने चली है। एकान्त होता तो बात दूसरी थी। इस प्रकार पतित समर्पण प्रसन्न तो कदाचित् उसे उस समय भी नहीं करता, पर एकान्त में वह उसे सहन कर सकता था। यहाँ, इतने परिचितों के सामने, और विशेषतः श्यामा के सामने! हाँ, केतकी ने उसके चरणों में लोट कर उसका अपमान किया है। अपमान इसलिए है कि केतकी को वह कुछ अपनी समझने लगा है और श्यामा उनके सम्बन्ध के विषय में सब कुछ जानती है। श्यामा के ऊपर इस घटना की क्या प्रतिक्रिया हुई है, इसके ऊपर उसने क्या टिप्पणी की है, यह जानने के लिए दृष्टि ने श्यामा से मिलना चाहा, पर पलकें उठी नहीं।

तिरस्कार का निराकरण है उसे स्वीकार कर नम्रतापूर्वक सिर पर धारण करना। स्वीकृति उसके दंश का शमन कर देती है, तिरस्कार की गर्मी नीचे उतर आती है। श्यामा द्वारा उपेक्षित न होता तो सम्भव है हेम की मति गतिवान होती; वह हँस कर केतकी का स्वागत करता। मुस्करा कर कहता - केतकी, यह क्या? तुम्हारे इस भीषण समर्पण से मुझे भय लगता है। मेरी रक्षा करो।

पर हेम तो साधारण व्यक्ति नहीं था, वह विचारवान था। उसे मनुष्य की प्रगति में आस्था थी। नवीन वैज्ञानिक ज्ञान ने जिन विचारकों को प्रभावित किया था वे उसके जीवन-दर्शन के रचयिता थे। वह साथी के सहारे नहीं, सिद्धान्तों के सहारे जीता था। उसका जीवन जल-प्रपात की भाँति निर्द्वन्द्व, स्वच्छन्द, कूलों को धोता हुआ नहीं बहता था। हेम अपनी जीवन-धारा को रोक कर खड़ा हो जाता था; ठहरता था, सोचता था, समझता था, अपने जीवन-दर्शन की पोथी को देख कर निश्चय करता था कि सिद्धान्त क्या कहता है? जब सिद्धान्त की स्वीकृति मिल जाती थी तो वह आगे बढ़ता था।

वह व्यक्ति था - समस्त संसार से पृथक् एक व्यक्ति था। उसके व्यक्तित्व का रुझान समाज से संयोग में नहीं, उसके विरोध में था। उसका अस्तित्व उसके व्यक्तित्व की इस विलगता में था। उसके व्यक्तित्व की सीमा मन्द पड़ी नहीं और हेम समाप्त हुआ नहीं। श्यामा ने उसे आकर्षित किया। केतकी ने उसे आकर्षित किया - युगों के पुराने पाशविक राग ने नवजात सिद्धान्त को परास्त किया। हेम ने अपने को छला। जीवन-धारा में प्रपात डालने का बहाना बना और हेम त्यागपत्र दे बम्बई चला गया। वह श्यामा से बदला ले रहा था। वह केतकी की सहायता कर रहा था। वह प्रगतिशील नारी के पति-बन्धन खंडित कर मुक्ति को आकार दे रहा था।

हेम केतकी को जानता था। उसके प्रणय-पत्र उसके पास थे। वह समझने लगा था कि वह केतकी को पहचानता भी है। पर सेठ को चुनौती देने वाली केतकी और इस केतकी में अन्तर था। वह उस केतकी को चाहता था जो चुनौती दे सकती थी, जो सामाजिक तूफानों के मध्य अपनी रीढ़ को सीधी और मस्तक को ऊँचा रख सकती थी -जिस केतकी में गहराई थी, दृढ़ता थी - जो काँपने वाली नहीं थी, जलती मशाल हाथ में ले कर जो अन्धकार को चीर देने वाली थी।

हेम को झटका लगा। यह केतकी भिन्न थी। निरीह, निराश्रय, हतभाग्य और टूटी हुई। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि प्रगति-पथगामिनी केतकी इतनी दुर्बल हो सकती है, इतनी छिछली और इतनी कातर हो सकती है। वह केतकी को समानता से पाना चाहता था, वह दासी नहीं चाहता था।

हेम तो दृढ़ है, चट्टान है। वह रबर के साथ मैत्री कैसे करेगा? और फिर जो आज रबर है उसे कल रुई बन जाने से कौन रोक सकता है - चट्टान और रुई! रुई ने चट्टान के चरण छू कर उसका अपमान किया है। हेम ने अनुभव किया कि वह आपादमस्तक तिरस्कृत खड़ा है। उसका अस्तित्व झन्ना उठा। कमरे के वायुमंडल में लपटें दौड़ गयीं।

एम.पी. ने केतकी को लोटे देखा। डी.पी. ने केतकी को लोटे देखा। डी.पी. की समझ में कुछ न आया। उन्होंने श्यामा की ओर देखा। श्यामा ने रमानाथ की ओर। और रमानाथ की दृष्टि ने हेम से प्रश्न किया - तुम्हारी तो मृत्यु हो गयी थी; यह मामला क्या है? ...पर हेम की दृष्टि में इस प्रश्न को स्वीकार करने की क्षमता इस समय नहीं थी।

एम.पी. ने केतकी को लोटे देखा। एक क्षण वह अडिग रहे। पर दूसरे क्षण उनका पुरुष जाग उठा। उन्होंने बदला लेते हुए कहा - “कापुरुष!” और केतकी को उठाने के लिए उस पर झुक गये।

हेम के लिए यह असह्य था। जैसे दहकते लाल तवे पर डाली गयी जल की बूँदें तवे पर ठहरना चाह कर भी नहीं ठहर पातीं, उछाल कर दूर फेंक दी जाती हैं, उसी प्रकार हेम उस कमरे से बाहर निकल गया। उसके अस्तित्व की समस्त शक्ति जा कर उसके पैरों में केन्द्रित हो गयी; वह चल पड़ा दूर, इस स्थान से दूर, इस काल से बहुत दूर, इस घटना से बहुत दूर। उसका मस्तिष्क सुन्न था। वह सोच नहीं सकता था। उसके शरीर में केवल एक ही अंग क्रियाशील था और वे थे उसके चरण। वे स्ट्रेचर-वाहकों की भाँति रोगी को विश्राम-गृह की ओर लिए जा रहे थे।

केतकी ने एम.पी. के हाथों को अपनी ओर बढ़ते देखा। उसने उसकी दृष्टि को भी पकड़ा। उसमें करुणा थी, सहानुभूति थी। उसने उनकी नासिका को देखा, वह तनिक चढ़ी हुई थी और नासिका के नीचे थे उनके ओठ जो विजय के गर्व से मुस्करा उठे थे।

केतकी में बिजली-सी दौड़ गयी। कोई उसे करुणा दे, उस पर नाक चढ़ाये, उस पर विजय का गर्व करे - यह उसे असह्य है। और यह भद्दा पुरुष! वह तत्काल उठ बैठी। एक दृष्टि स्थिर बैठी श्यामा की ओर फेंकी और हेम के पीछे कमरे से बाहर चल दी।

एम.पी. ने अपने हाथों को समेट लिया। वह अपने से सन्तुष्ट जान पड़ते थे। उनका काम कुछ करना नहीं है। उनका काम है जन-जन में सोयी उस शक्ति को जगा देना जो राष्ट्रों को उन्नति के पथ पर आगे ले जाने वाली है। इस नारी में उन्होंने उस शक्ति का संचार कर दिया था। हाँ, यह निश्चित था कि वह उसकी कृतज्ञता नहीं प्राप्त कर सके थे।

उन्होंने श्यामा और फिर डी.पी. की ओर देखा। बोले, “यह है हमारा देश; और ये हैं हमारे देश के सुशिक्षित नर-नारी। जीवन के मोटे-मोटे शिष्टाचार लोग भूल गये हैं। इस जनता को ले कर हमें देश का शासन चलाना है। देश को आगे बढ़ाना है। संसार के समृद्धिशाली देशों में भारत माता के झंडे को ऊँचा रखना है। यह तो भगवान ने कुशल की कि इस प्राचीन भूमि में कुछ नेता उत्पन्न हो गये, नहीं तो...”

श्यामा ने एक निरर्थक मुस्कान से एम.पी. के कथन का समर्थन किया।

डी.पी. ने कहा, “जीवन की कला बड़ी संयमसाध्य कला है। जो संयम के बन्धन से छूटा वह उखड़ गया, उसे जमने में समय लगता है।”

एम.पी. ने कहा, “इन उखड़े हुए लोगों को जमाना ही हमारा कर्तव्य है।”

रमानाथ ने कहा, “श्यामा जी, जान पड़ता है कि मुझे भी जाना ही चाहिए। डी.पी. भाई, मैं फिर उपस्थित हूँगा। अभी तो आप यहीं हैं।”

डी.पी. ने एम.पी. की ओर संकेत करके कहा - “आपकी कृपा है।”

रमानाथ ने सोचा : हेम मर गये। केतकी उसे खोजती उसके घर पर पहुँची और फिर उनके पीछे-पीछे श्यामा के यहाँ। यहाँ उसने उसकी ओर देखा तक नहीं। हेम को पाया और उसके पैरों पर गिर पड़ी। क्या रहस्य है इसमें? हेम के हाथ में चोट है। उसमें पीड़ा है। यह चोट हेम को कैसे आयी? और केतकी! केतकी जैसी प्रबुद्ध नारी सबके सम्मुख हेम के चरणों पर लोट गयी। इसमें रहस्य है, निश्चय ही कोई गहरा रहस्य है।

श्यामा के क्वार्टर से वह तेजी से चला। दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ायी पर हेम दिखाई नहीं पड़ा। एक नारी सड़क के मोड़ पर उसे दिखाई दी। उसे सन्तोष हुआ : केतकी ही तो है। वह बड़ी तेजी से जा रही थी। उसकी चाल में एक विचित्र अटपटापन था। ऐसा लगता था जैसे कि मोटर की अभ्यासिनी होकर वह पैरों का उपयोग भूल गयी हो, और इस समय उसके पैर पुनः अपने कर्तव्य को सँभाल लेने की चेष्टा कर रहे हों।

रमानाथ ने केतकी को पहचान लिया, पर एकाएक उसे अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ। मोटर-विहीन केतकी की कल्पना उसके लिए दुष्कर थी। उसने आँखों को मला। कुछ मिनट पहले की घटनाओं का स्मरण किया और निश्चय कर लिया कि वह केतकी ही है। पर अब केतकी मोड़ पर घूम कर उसकी दृष्टि से ओझल हो चुकी थी।

रमानाथ लपका। उसने पुकारना चाहा : केतकी जी! पर स्वर उसका कंठ त्यागने से पूर्व ही हतप्राण हो गया।

रमानाथ पाँच-सात डग दौड़ा। पर एक बालक की उपस्थिति ने उसकी गति कुंठित कर दी। निश्चय ही केतकी किसी कठिनाई में है। वह उसके पास आयी थी। वह उसकी सहायता कर सकता है। वह गाती अच्छा है। उसने उसे रेडियो पर प्रोग्राम दिलाया था। वह इतना तेज चला कि पन्द्रह-बीस डग में ही पसीने-पसीने हो गया। मोड़ पर पहुँच कर उसने पाया कि ताँगे की सहायता के बिना केतकी को पाना असम्भव है। वह एक ताँगे में बैठ गया।

ताँगा बगल में रुका तो केतकी चौंकी। रमानाथ की वाणी उसने नहीं सुनी। वह रुकी। ताँगे में देखा तो रमानाथ को पाया। उसकी पहले इच्छा हुई कि वह भागे। रमानाथ से बहुत दूर भाग जाए। पर फिर ठहर गयी। नहीं, वह भागेगी नहीं। किसी से क्यों भागेगी! वह अकेली एक ओर, और सारा संसार एक ओर। वह बड़ी दृढ़ता के साथ खड़ी हो गयी।

रमानाथ ने कहा, “केतकी जी!”

“कहिए।”

“मैं रमानाथ हूँ।” रमानाथ को परिचय देने की आवश्यकता अनुभव हुई।

“जी!”

“आप!”

“कहिए!”

“आप मेरे यहाँ गयी थीं। क्षमा कीजिए, मैं घर पर था नहीं।”

केतकी दृढ़तापूर्वक मुस्करायी। बोली, “जी नहीं, मैं तो आपके यहाँ नहीं गयी। किसी ने आपको गलत सूचना दी है।”

“सम्भव है। उस व्यक्ति ने मुझसे यह भी कहा था कि हेम मर गये हैं।”

“हेम बाबू को तो अभी आपने अपनी आँखों से जीवित देखा है।”

“जी।”

“हेम बाबू की मृत्यु का समाचार जितना सत्य है, उतना ही सत्य मेरी आपके घर जाने की सूचना है।”

उलझती पहेली में रमानाथ और भी अधिक उलझ गया। बोला, “सम्भव है कोई गलतफहमी हो गयी हो। आइए, ताँगे में आ जाइए।”

केतकी ने कहा, “धन्यवाद, आप चलिए, मैं...”

रमानाथ ने कहा, “आइए, आप जहाँ कहिएगा, वहीं छोड़ दूँगा।”

केतकी ने साहस बटोरा, कहना चाहा कि वह ताँगे में नहीं जाएगी। अब जब वह धरती पर उतर आयी है तो धरती पर ही चलेगी। पर वह कह न पायी।

“आइए!” रमानाथ ने कहा।

और केतकी ताँगे में बैठ गयी। ताँगा चल निकला। रमानाथ ने केतकी को निकट से देखा तो पाया कि उसमें बड़ा परिवर्तन आ गया है। उसकी उत्फुल्लता तिरोहित हो गयी है और चिन्ता की रेखाएँ उभर आयी हैं।

उसने पूछा, “कहिए, कुशल से तो रहीं?”

“आपकी दया।”

“आपके पति?”

केतकी को एक धक्का लगा। आपके पति! मैंने उसको त्याग दिया है, पर संसार की दृष्टि में तो अब भी मैं उनकी ही पत्नी हूँ और वे मेरे पति हैं।

एक बार उसके मन में उठा कि वह सब बातें रमानाथ को ब्यौरेवार स्पष्ट समझा दे कि वे अब मेरे पति नहीं हैं। मेरा पति कोई नहीं है। मैं पतिहीना हूँ। पर वह बात उसके मुँह से निकली नहीं। उसने कहा, “हाँ, वे अच्छी तरह हैं, उनका स्वास्थ्य भी अब पहले से अच्छा है। हाँ, व्यापारिक व्यस्तता तो...”

रमानाथ को विश्वास नहीं हुआ। वह अनेक प्रश्न पूछना चाहता था। पर केतकी की मुद्रा दृढ़ थी। वह बोलना नहीं चाहती थी। रमानाथ को अनुभव हुआ कि वह उसके किसी भी प्रश्न का उत्तर देना अस्वीकार कर सकती है।

वे मौन रहे आये। ताँगा चलता गया। मोटरों के भोंपुओं और साइकिलों की घंटियों की ध्वनियाँ सघन होती गयीं। विस्थापितों की दुकानों की लम्बी पंक्तियों के बीच में ताँगा खींचता हुआ घोड़ा आगे बढ़ता गया और कनॉट सर्कस के बाहरी गोले में घूम गया।

“बस, मैं यहीं उतरूँगी।”

रमानाथ को बोलने का अवकाश न मिला। ताँगेवाले ने ताँगा रोक लिया। केतकी उतर गयी।

केतकी कनॉट सर्कस के भीतर चली गयी। जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गयी, रमानाथ उसकी ओर देखता रहा।

हेम के कन्धे की पट्टी, केतकी और हेम के चरण!

केतकी जब हेम के घर पहुँची तो हेम पलंग पर लेटा हुआ था। उसने सोच लिया था कि केतकी सरलता से उसे छोड़ेगी नहीं। वह अवश्य घर पर भी आएगी। और वह कब चाहता है कि केतकी उसे छोड़े। वह तो चाहता है कि वह छुड़ा-छुड़ा कर भागे और केतकी दौड़-दौड़ कर उसे पकड़ने का प्रयत्न करे। पर आज श्यामा के घर पर वह घटना ठीक नहीं हुई। नहीं, केतकी को कोई अधिकार मुझे इस प्रकार अपमानित करने का नहीं था। तभी उसे पग-ध्वनि सुनाई दी। यह पग-ध्वनि उसकी पहचानी हुई थी। उसके भीतर एक उल्लास उठा पर ओठ बिचक गये। ध्वनि निकट आती गयी। हेम ने करवट ले ली।

मुँह फेरे-फेरे उसने पूछा, “जंगबहादुर, कौन आया है?”

केतकी उसके पलंग के निकट जा कर खड़ी हो गयी। बोली, “जंगबहादुर यहाँ नहीं है। मैं केतकी आयी हूँ।”

“केतकी?”

“हाँ हेम, मैं केतकी ही हूँ।”

और एक कुर्सी खींच कर वह पलंग के निकट बैठ गयी। उसने हेम का हाथ अपने हाथों में लेना चाहा। पर हेम ने उसे धीरे से सरका लिया।

केतकी कुछ तन कर बैठ गयी। पूछा, “हेम, कुछ याद है तुम्हें?”

“कुछ नहीं, मुझे बहुत-कुछ याद है। तुमने मेरे कन्धे पर शीश टेका। सामने एक भद्दा-सा पुरुष चीखा। पर जोर से ध्वनि हुई। वातावरण थर्रा गया और मुझे लगा कि संसार का अन्त आ गया है। मेरे पैरों के नीचे से उतनी आलीशान अट्टालिका निकल गयी। कुछ घंटे पश्चात् मुझे ज्ञात हुआ कि मैं गुंडा हूँ। तुमने मुझे गोली मार दी है और पकड़ी न जा सको इसलिए भाग गयी हो।”

“हेम, हेम, तुम यह क्या कर रहे हो?”

“मैं वही कह रहा हूँ, जो मैंने सुना है। यही कथा कुन्तल ने मजिस्ट्रेट के सामने कही है। तुमने मुझे गोली मारी। उसकी आवाज सुनी तो कुन्तल और तुम्हारे पति दौड़ कर आये।”

“मेरे पति!” केतकी गम्भीर हो गयी, “हाँ हेम, कदाचित् तुम ठीक कहते हो। वे ही मेरे पति हैं। यद्यपि मैं उनके पास लौट कर कभी नहीं जाऊँगी।”

“तुम्हें अब लौट कर जाने की आवश्यकता नहीं है। कुन्तल ने तुम्हारा स्थान ले लिया है।”

“कुन्तल ने!”

“हाँ, कुन्तल ने। उसने तुम्हारे पाप की अग्नि में अपनी आहुति दी है।” हेम ने व्यंग्य किया।

पर केतकी गम्भीर रही। वह विचारमग्न हो गयी। कुन्तल ने अपने जीजा से विवाह कर लिया! इतनी जल्दी! क्या हो गया उस लड़की को? और कुन्तल की बाल खोले मूर्ति उसके सामने आ गयी। कुन्तल को उसने बचपन से खिलाया है। उसकी शिक्षा-दीक्षा की पूरी देख-रेख रखी है। पुराने संस्कारों के दलदल में फँसकर वह अपने जीवन को घोंट न डाले, इसकी ओर उसने यथासम्भव ध्यान रखा है। और उसी कुन्तल ने उसे धिक्कारा था, उसने कहा था, “जीजी, क्या तुममें कोई हया नहीं है जो पराये पुरुष के कन्धे पर सिर रख कर अपने पति को छोड़ने की बात कर रही हो? और तब मैं तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करूँगी, अवश्य करूँगी!” तो कुन्तल ने मेरे पाप का प्रायश्चित किया है? उसने अपने भीतर ठठा कर हँसना चाहा। कहना चाहा कि मूढ़ता की बलि इसी प्रकार चढ़ती है। पर ठठा कर हँस नहीं सकी। और कुन्तल को निरी मूढ़ता की मूर्ति भी नहीं मान सकी। उसके भीतर एक अँधेरे से कोने में एक हल्का सन्तोष उदय हुआ। कुन्तल ने अपने जीजा से विवाह कर लिया है तो मंजु की देख-भाल ठीक से हो सकेगी। कुन्तल के प्रति कृतज्ञता की भावना उसके मन में उभरने को हुई, पर उसने बलपूर्वक उसे दबा लिया।

वह परपुरुष उसके सामने पलंग पर लेटा हुआ था जिसके कन्धे पर उसने सिर टेका था। उसी को मृत्यु-मुख में छोड़ कर भाग आयी थी। यह कायरता थी। क्या वह हेम से केवल आश्रय-मात्र चाहती थी? उसे उस सम्मिलित जीवन में देना कुछ नहीं था? और जब प्रदान का प्रथम अवसर आया तो वह भयभीत हो गयी। खरगोश की भाँति कुत्तों का भौंकना सुन कर भाग निकली। वह इतनी दुर्बल है! केतकी दुर्बल है, इसमें सन्देह नहीं। उसे लगा कि वह गिर जाएगी। उसने कुर्सी के हत्थों को बलपूर्वक पकड़ लिया।

कमरा एक बार तेजी से घूमा, फिर रुक गया। दूसरी बार फिर उसने घूमने का प्रयत्न किया। पर केतकी अपने को सँभाल लायी थी। उसने हेम की ओर देखा। अर्द्धनिमीलित नेत्र, व्यथित चेहरा। उसे लगा कि हेम अपने आपको शान्त बनाये रखने का घोर प्रयत्न कर रहा है। और तब उसने हेम की चिबुक और नासिका को देखा। उसमें उसको वही निश्चलता, वही दृढ़ता अनुभव हुई जो उसने हेम की भुजाओं में अनुभव की थी। वह अब तक अपने को हेम का समकक्ष समझ रही थी, पर अब वह गिरी, और अपने भीतर तेजी से बहुत नीचे गिरी।

उसने हेम के साथ विश्वासघात किया है। उसने हेम को केतकी की लड़ाई लड़ने का आह्वान दिया। जब हेम ने उसे स्वीकारा तो केतकी ने हेम को मोर्चे की सबसे अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया और जिस समय हेम विपक्षी के आक्रमण का समस्त भार अपने ऊपर झेल रहा था उस समय वह मुँह छुपा कर वहाँ से भाग निकली - और भागी भी ऐसी कि बिल्कुल बेदम हो कर। घर-घर आश्रय खोजती फिरी। वह कायर है, महा कायर है। हाँ, उसने हेम के साथ विश्वासघात किया है। और हेम का व्यवहार उसकी समझ में कुछ-कुछ आने लगा है। वह अपराधिनी है। वह अपराधिनी है हेम की।

वह हेम के पास ठहरी क्यों नहीं? ठहरती तो क्या हो जाता? वह बन्दिनी बनती। पुलिस, थाना और कचहरी। उसे फाँसी कैसे होती, हेम तो मरे नहीं हैं। तो उसे कारावास का दण्ड मिलता और एक बहुत बड़ा स्कैण्डल खड़ा हो जाता। वह भागी तो एक स्कैण्डल बच गया। केतकी को अचानक अनुभव हुआ कि और तो और वह स्कैण्डल से भी डरती है। वह महा डरपोक है, दुर्बल है, कायर है।

पर अपने इस धिक्कार का उसने ही विरोध किया। वह इतनी कायर नहीं है कि अपनी भूलों के लिए हेम से क्षमा न माँग सके। उसने कुर्सी के हत्थों को छोड़ा। तन कर बैठी। शरीर में और फिर मन में एक दृढ़ता का अनुभव किया। हेम के पलंग की ओर तनिक झुकी, उसके अधमुँदे नेत्रों को देखा। उसने अनुभव किया कि हेम अपने इन अधमुँदे नेत्रों से उसके प्रत्येक मनोभाव को पढ़ता रहा है पर अब उसे इसकी चिन्ता नहीं थी। वह हेम से भयभीत नहीं हो सकती। उसने हेम के ललाट को हाथ से छू कर कहा “हेम, तुम मुझे क्षमा करो।”

हेम ने उत्तर नहीं दिया। उसने पुकारा, “जंगबहादुर!”

“जी!” जंगबहादुर कमरे में उपस्थित हो गया।

“ताँगा ले आओ, और जहाँ यह बीबीजी कहें वहीं इन्हें पहुँचा आओ।”

लगभग डेढ़ बजे हेम की आँख खुली और उसने करवट ली। सामने पाया कि कुर्सी पर केतकी बैठी हुई उसकी ओर एकटक निहार रही है। निकट ही उसके छोटी मेज पर गर्म पानी की बोतल है, तौलिया है। छोटी-छोटी गद्दियाँ हैं। उसे नींद आज अच्छी आयी है। तो यह केतकी यहाँ बैठी उसे सेंकती रही है। उसके नयनों में नींद का नाम भी नहीं दिखाई देता। उसे अपनी दृष्टि पर विश्वास नहीं हुआ। उसने आँखों को मला। केतकी वहाँ से अन्तर्धान नहीं हुई। वह और भी स्थूल और स्पष्ट हो गयी।

उसे झटका-सा लगा। उसने केतकी की ओर से आँखें हटा लीं और पुकारा, “जंगबहादुर!”

केतकी ने कहा, “जंगबहादुर अभी सोया है, कहिए।”

हेम ने पुकारा, “जंगबहादुर!”

केतकी जैसे जागी। वह हेम का तात्पर्य समझ गयी। बोली, “तो आप यह जानना चाहते हैं कि मैं यहाँ कैसे हूँ? जंगबहादुर मुझे कहीं छोड़ कर क्यों नहीं आया?”

हेम कुछ बोला नहीं।

“जंगबहादुर ने आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। वह ताँगा ले आया। मैं ताँगे में बैठ भी गयी और फिर वह घूम-फिर कर जंगबहादुर की कोठरी के सम्मुख आ कर खड़ा हो गया। उसकी समझ में नहीं आया। कहा, 'बीबी जी?' मैंने उससे कहा, 'जंगबहादुर, मैं कुछ दिन तुम्हारी कोठरी में रहना चाहती हूँ। क्या तुम...?' और हेम, तुम्हारा यह जंगबहादुर हीरा है। वह प्रसन्न हुआ और उसने शीघ्र अपना सामान समेट कर एक ओर को कर लिया। मैं अब जंगबहादुर के यहाँ ठहरी हुई हूँ। वह बहुत अच्छा मनुष्य है। ऐसा नौकर तुम्हारे पास है इसके लिए तुम्हें बधाई है। वह अभी तक मेरी सहायता करता रहा है। अभी-अभी सोने गया है। आज तुम्हें पीड़ा कुछ अधिक जान पड़ती है। तुम सोने का प्रयत्न करो।”

हेम ने सुना कि केतकी जंगबहादुर के यहाँ ठहरी है। उसे एक आघात लगा। उसने ध्यानपूर्वक केतकी को देखा। कंठ को सँभाल कर गम्भीरता से बोला, “तो आप जंगबहादुर के यहाँ ठहरी हैं?”

“हाँ!”

हेम विचार में डूब गया।

केतकी ने कहा, “आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए। जो हो गया वह हो गया। गलती सब मेरी है। मुझमें बहुत दुर्बलताएँ हैं। उनके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे।”

हेम ने सोचा, दुर्बलताएँ हैं। बोला, “तुम्हारी दुर्बलताओं के लिए मैं तुम्हें क्षमा करूँ -यह किस अधिकार से?”

“पीड़ा के अधिकार से। हेम, तुमने मेरे लिए कितना कष्ट उठाया है, जीवन को अव्यवस्थित किया, नौकरी छोड़ी और मौत को छूने के लिए आगे बढ़ गये। हेम, मैं अपना उत्तरदायित्व अनुभव करती हूँ। अपने काँटों में तुम्हें घसीटने का मुझे कोई अधिकार नहीं था।”

और अब हेम को लग रहा था कि केतकी वास्तव में कुछ है। वह जंगबहादुर के साथ यहाँ से चली क्यों गयी? उसने हठपूर्वक क्यों नहीं कहा कि मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। वह बलात् इस घर में क्यों नहीं रही?

पर हेम केतकी के विषय में इतनी रुचि क्यों ले? क्या उसने केतकी को ले कर जो कुछ सहन किया है, वह पर्याप्त नहीं है? पर क्या? हाँ! उसने जो कुछ सहा है उससे क्या केतकी का मूल्य बढ़ा नहीं है?

उसके विचारों में एक कुटिलता आयी। उसने पूछा, “तो आप अब जंगबहादुर के यहाँ रहेंगी! अपने पति के पास लौट कर नहीं जायेंगी?”

केतकी तिलमिला उठी। उसने अपने को सँभाला।

“आप विश्राम कीजिए।”

“आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।”

केतकी को लगा कि यह हेम उसे चुनौती दे रहा है। समझता है कि मैं उसके इस प्रश्न के सामने नहीं पड़ सकती। बोली, “देती हूँ आपके प्रश्न का उत्तर। मैं जंगबहादुर की कोठरी में केवल उस समय तक रहूँगी जब तक कि आप स्वस्थ नहीं हो जाते। और रही पति के पास लौटने की बात, वह तो मैं सोच नहीं सकती। आपको खतरे में डाल कर जो स्वतन्त्रता मैंने प्राप्त की है, उसे मैं सहज ही नहीं बहा दूँगी।”

हेम में केतकी के प्रति एक सन्तोष का भाव जागा। उसने कहा, “तो आपका प्रोग्राम यह है। पहले मेरी तीमारदारी और फिर... हुँ! पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी तीमारदारी की मुझे विशेष आवश्यकता नहीं है। वह एक भौतिक आघात है, शरीर के पंचभूत उसे स्वयं ठीक कर लेंगे।”

केतकी ने कहा, “हेम बाबू, यह आघात आपके शरीर पर ही नहीं है। मेरे सारे जीवन पर है। मेरे सामाजिक अस्तित्व पर है। और वहाँ वह केवल भौतिक नहीं है। वह भौतिक तलों को छेदता हुआ उसकी गहराई में उतर गया है। वह मुझे पीड़ा देता है। उसमें तीखी कसक है, मुझे उसका उपचार करना है। क्या उसका उपचार करने में आप मेरी सहायता नहीं करेंगे? क्या आप इस बीमारी में मुझे अपनी सेवा करने का अवसर नहीं देंगे? आपने मुझे बहुत कुछ दिया है, क्या मेरी यह प्रार्थना अस्वीकार करेंगे?”

“केतकी!”

“हेम बाबू, आप मुझे अपनी सेवा करने का अवसर दीजिए। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि जिस दिन आपको मेरी आवश्यकता नहीं होगी, उस दिन मैं स्वयं यहाँ से चली जाऊँगी।”

“केतकी!”

“आप करवट ले लीजिए। आपके कन्धे के पिछले भाग को सेंकना है। हाँ, शाबाश! दैट्स लाइक अ गुड ब्वाय।”

बारहखम्भा (उपन्यास) : भाग-12

हेम ने आँखें खोलीं। आँखें खोलने से पहले जैसे उसने अनुभव किया - बल्कि अपने को याद दिलाया - कि वह जाग गया है और अब आँखें खोलेगा; जाग गया तो आँखें खोलेगा ही - इनमें खास बात क्या है? पर नहीं, कुछ खास बात है। पलंग के पास ही कुर्सी पर केतकी बैठी होगी : उसकी आँखें उनींदे से लाल होंगी, पर उसे जागा देखते ही वह अपने को सभी ओर से नियन्त्रित करके, स्वर में ममता भर कर पूछेगी - जाग गये? तबियत कैसी है? चाय लोगे? ...पता नहीं स्त्रियाँ कैसे यह कर लेती हैं - मानो हर स्त्री एक दूसरी पर्सेनेलिटी भी रिजर्व में रखती है और तुरन्त ओढ़ लेती है।

पर हेम के आँखें खोलने की कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।

उसने धीरे-धीरे गर्दन मोड़ी। कमरे में कोई नहीं था। केतकी कहीं इधर-उधर गई होगी, अभी आ जाएगी, यह सोच कर उसने फिर आँखें मूँद लीं। थोड़ी देर और पड़े रहने में कोई बुराई नहीं है - आराम तो है ही, और उसे अब कौन-सा नौकरी पर जाना है कि उठ कर तैयार हो!

केतकी, हो सकता है, खुद नहाने-धोने गयी हो - शायद यही सोच कर कि उसके जागने से पहले तरोताजा हो कर चली आये। स्त्रियों के लिए फ्रेश दीखने का भी तो महत्त्व है - फिर केतकी जैसी स्त्री... इधर तो न जाने कहाँ-कहाँ धक्के खाती रही है...

हेम को एकाएक लगा कि सब तरफ बड़ा सन्नाटा है। केतकी कहीं होती तो कोई आवाज तो आती - और नहीं तो पानी टपकने की आवाज ही होती। केतकी तो जब-तब गुनगुनाती भी है - पर उसकी नींद के कारण इस समय शायद चुप हो।

नहीं। एकाएक उसे ध्यान हुआ, केतकी तो उसके घर में नहीं, जंगबहादुर के क्वार्टर में रहती है। अभिमानिनी तो है, हाथ-मुँह धोने भी उधर ही गयी होगी - घर की कोई सुविधा अपने इस्तेमाल में न लाएगी!

हेम को कुछ अजब-सा लगा। वह उठ बैठा और उसने जोर से पुकारा, “जंगबहादुर!”

कोई उत्तर नहीं मिला। फिर उसने दुबारा जोर से आवाज दी, “जंगबहादुर!!” दोबारा कोई उत्तर नहीं मिला। केतकी को पुकारे? नहीं, केतकी को नहीं पुकारेगा। पर केतकी होती तो अपने आप उत्तर देती, या आ ही जाती।

कोई नहीं है। हेम को एकाएक घबराहट-सी हुई। वह उठा और लपक कर सीढ़ियाँ उतर कर घूम कर जंगबहादुर के क्वार्टर तक गया। किवाड़ बन्द थे, ताला लगा था।

जंगबहादुर के क्वार्टर में ताला! न जंगबहादुर, न केतकी! कहाँ चले गये दोनों?

हेम ने अपने को यह भी नहीं समझाया कि घबराने की कोई बात नहीं है; थोड़ी देर में पता लग जाएगा। वह बदहवास-सा वापस दौड़ा। सिर झुकाये ही सीढ़ियों पर तेजी से चढ़ा कि एकाएक उसका सिर चौखट से टकरा गया। उसे चक्कर आ गया, पर वह उसी झोंक में बढ़ता गया कि गिरने से पहले पलंग तक पहुँच जाए - पलंग पर ही गिरे - चक्कर तो दो मिनट में ठीक हो जाएगा। पलंग तक पहुँच कर वह आगे लुढ़का; पट्टी बँधे कन्धे के बल ही वह बिछौने पर गिरा - और एक चीख उसके मुँह से निकल गयी। बेहोश होते-होते उसने जाना कि वह बेहोश हो रहा है : अच्छा ही हुआ कि पलंग तक पहुँच गया था, अच्छा ही है कि बेहोशी में यह दर्द तो दब जाए।

बम्बई में गोली लगी थी - किसने फायर किया था? सेठ ने? केतकी ने? जंगबहादुर...

अच्छी चीज है बेहोशी...

पैरों की आहट सुन कर हेम ने जोर से दाँत भींच लिये कि फिर कराह न उठे। एक पदचाप केतकी की है - दूसरी?

जिस ढंग से उसने पलंग के पास की कुर्सी पर बैग रखा उसमें हेम ने जान लिया कि डॉक्टर है, पर उसका परिचित नहीं था। केतकी ने माथे पर नीले पड़ते ददोरे पर बहुत हल्का हाथ रखा और कहा, “डॉक्टर साहब आये हैं। सब ठीक हो जाएगा।”

मैं कोई बच्चा हूँ? - सब ठीक हो जाएगा - हुँह! हेम ने डॉक्टर की ओर उन्मुख हो कर कहना शुरू किया, “चोट ठीक हो रही है - मैं एकाएक उठा था तो...” पर उसने वाक्य पूरा नहीं किया - जान गया कि वह कराहने से ही पूरा होगा, और केतकी के सामने नहीं कराहेगा, नहीं कराहेगा!

थोड़ा रुक कर, पूरी संकल्प शक्ति लगा कर उसने कहा, “जंगबहादुर कहाँ है?”

केतकी क्षण-भर उस पर आँखें टिकाये रही। सवाल पर कोई आश्चर्य उसने प्रकट नहीं किया। सधे हुए स्वर से बोली, “अभी बुला देती हूँ।” तनिक रुक कर उसने जोड़ा, “डॉक्टर साहब देख लें तब...”

डॉक्टर ने कहा, “देखिए, आपको एकदम बेड रेस्ट की जरूरत है। अभी बिल्कुल आराम कीजिए। दर्द के लिए मैं एक इंजेक्शन भी दे रहा हूँ।” फिर उसने कन्धे की ओर इशारा करते हुए कहा, “मालूम होता है, घाव पर फिर चोट लगी है। पर अभी पट्टी नहीं खोलनी होगी - कल...”

डॉक्टर की नजर केतकी की ओर मुड़ी और अनकहे प्रश्न के जवाब में केतकी ने कहा, “पट्टी तो दो दिन में खुलने वाली थी। कल सवेरे डॉक्टर आने वाले थे - उन्हें आज ही देख जाने को कह दूँगी।”

डॉक्टर ने सहमति का सिर हिलाया था। इंजेक्शन लगाया और थोड़ी देर हेम की बाँह को सहलाते रहे। “थोड़ा सो लीजिये...”

बैग उठा कर वह दरवाजे की ओर मुड़े। केतकी पीछे-पीछे गयी। बाहर उनकी कुछ बात होती रही; हेम ने चाहा कि सुन सके, चाहा कि न सुन सकने पर खीझे, पर नींद का एक बादल उसके मस्तिष्क पर छाने लगा था, वह...

रमानाथ केतकी के बारे में और कुछ नहीं जान पाया था। रेडियो स्टेशन में उसने युक्ति से पता लगाना चाहा था - केतकी के गाने का जिक्र किया था, उसके स्वर की तारीफ की थी, संकेत किया था कि बहुत दिनों से उसका कोई प्रोग्राम नहीं हुआ - पर तरह-तरह की टिप्पणी के बावजूद ठोस जानकारी कुछ नहीं मिली थी। बम्बई की घटनाओं की बात लोग जानते थे; हेम को गोली लगने की बात भी और सेठ मदनराम के अपनी साली के साथ विवाह की बात भी; पर केतकी दिल्ली में ही है यह कोई नहीं जानता था, कहाँ है यह भी किसी को नहीं पता था। किसी ने उसे देखा नहीं था - सिवाय सुधीर के, जिससे एक बार रमानाथ की बात हो चुकी थी। उससे फिर पूछे, या केतकी की चर्चा वह स्वयं उठाये, इसमें रमानाथ को अपनी हेठी लग रही थी। सुधीर से वह पूछेगा नहीं, सुधीर ही जिक्र छेड़े तो... पर अगर उसने भी नया कुछ नहीं सुना होगा तो वह जिक्र भी क्यों छेड़ेगा? - पर हाँ! रमानाथ को एकाएक कुछ याद आया, उसे अपने पर आश्चर्य हुआ कि उसका ध्यान इधर पहले क्यों नहीं गया! केतकी लखनऊ भी तो गयी थी - अल्ताफ से मिली थी - अल्ताफ को तो आज-कल दिल्ली में ही होना चाहिए। अभी तक सम्पर्क नहीं हुआ, पर आ तो गया होगा... क्यों न शाम को फिर एक बैठक रखी जाय - उसी दिन नहीं तो अगले तीन-चार दिन के भीतर-और इस बीच सबको खबर करवा दी जाय, सबका पता भी ले लिया जाय... यह तो वह सुधीर से कह भी सकता है - उसी के द्वारा वह अल्ताफ के लिए न्यौता भिजवा देगा। श्यामा और डी.पी. (देवीप्रसाद) आ ही जायेंगे। उनके साथ ही शायद एम.पी. साहब भी आ जायेंगे - बिन बुलाये! रमानाथ मन-ही-मन थोड़ा मुस्कराया। डी.पी. इन एम.पी. साहब को खुश रखते हैं - या कि असल में तो खुश रखने का काम श्यामा का है - वह डी.पी. के लिए उन्हें खुश रखती है और एम.पी. साहब - वह तो सबको खुश रखते हैं - उनकी जनसेवा इसी में है! रमानाथ फिर मुस्करा दिया। जनता के सेवक! फिर एकाएक उसकी आँखों के आगे वह दृश्य तैर गया - श्यामा के घर पर हेम के पैरों पड़ती केतकी, चौंक कर पीछे हटते हुए हेम बाबू, और ललक कर आगे बढ़ते जनता के सेवक। रमानाथ का मुँह कड़ुवा हो आया। उसने सिर को झटक कर वह चित्र मिटा देना चाहा; पर उस स्थान पर जो दूसरा चित्र आ गया वह भी कुछ कम कष्टकर नहीं था। ताँगे से उतर कर कनॉट सर्कस के भीतर जाती हुई केतकी, और उसके वे शब्द - “हेम बाबू की मृत्यु का समाचार जितना सत्य है, उतनी ही सत्य मेरी आपके घर जाने की सूचना है।” कैसी दुधारी तलवार चलाती है यह औरत - औरतें सभी दुजिब्भी होती हैं, पर केतकी को शायद सेठानी होने का गरूर भी है जो पीछे मुड़ कर देखती भी नहीं कि किस पर वार का क्या असर हुआ!

लेकिन सत्य-सत्य क्या है? इस रहस्य की जड़ में क्या है? वहाँ तक तो पहुँचना ही होगा...

रमानाथ ने पैड अपनी ओर खींचा और तीन स्लिप निकाल कर बड़े अनौपचारिक निमन्त्रण की दो-दो चार-चार पंक्तियाँ लिख डालीं। सुधीर के हाथ वह इन्हें भिजवा देगा -न होगा तो आते-जाते श्यामा के यहाँ कहता भी आएगा।

पर हेम बाबू के यहाँ? असल मुद्दा तो वही है - केतकी कहाँ रहती है यह पता नहीं है तो हेम के यहाँ ही पता लेना ठीक होगा, दोनों के लिए निमन्त्रण वहीं भेजना चाहिए - पर पता नहीं है तो निमन्त्रण भेजना भी क्या ठीक है? वह खुद जा सकता है - पर हेम बाबू के यहाँ जाने की बात आज रमानाथ को खुद ऐसी अटपटी लगी कि उसने अपने आपको ही मुँह बिचका दिया।

नहीं - दूसरा रास्ता ही ठीक है - पहले अल्ताफ से पूछा जाय, उसी से कुछ सुराग मिलेगा...

व्यवहार के ढर्रे कितनी जल्दी बन जाते हैं! चार दिन भी नहीं हुए होंगे, पर हेम को लगता है कि जीवन न जाने कब से ऐसा ही बीतता आया है। सवेरे मुँह-हाथ धो कर वह चाय पीता है : पानी भी केतकी लाती है, चाय भी वही देती है, अपनी ओर से कुछ बोलती नहीं, कुछ पूछा जाय तो जवाब दे देती है। और वह अपनी ओर से कुछ पूछना नहीं चाहता, इसलिए जवाब देने का अवसर भी नहीं आता। जंगबहादुर की बात वह पूछ सकता है, लेकिन वह पूछना ऐसा झूठा बहाना होगा कि साफ पकड़ा जाएगा - और वह केतकी के सामने बहाना भी क्यों बनाये? चुपचाप केतकी उसे दवा देती है, चुपचाप माथे की पट्टी बदलती है - माथे वाली पट्टी वह बदल सकती है, कन्धे की डॉक्टर ही बदलते हैं और शायद इसीलिए डॉक्टर के आने के वक्त से घंटा-भर पहले उसे वह दवा दी जाती है जिससे वह दिनभर ऊँघता रहता है - दर्द दबाने और नींद लाने की कोई दवा... डॉक्टर के चले जाने के बाद केतकी भी चली जाती है - बाहर जंगबहादुर को कुछ समझाते हुए उसका स्वर हेम को सुनाई देता है, यद्यपि वह यह नहीं जान पाता कि क्या हिदायतें दी जा रही हैं। तीसरे पहर वह जागता है और लगभग जागने के साथ ही सीढ़ी पर केतकी की पदचाप सुनता है। कभी यह भी सन्देह हो आता है कि पदचाप से ही वह जागा, या कि जागने का पता लगते ही केतकी भीतर आयी - तब तक वह क्या बाहर बैठी थी? पर यह भी वह पूछेगा नहीं - कुछ नहीं पूछेगा वह! क्यों नहीं पूछेगा? केतकी से उसे क्या गिला है - और है तो किस अधिकार से है? केतकी ने कभी कहा था, पीड़ा के अधिकार से - पर पीड़ा से कोई अधिकार बनता है तो क्या केतकी का अधिकार उसके अधिकार से बड़ा नहीं है? हेम का पीड़ा का अधिकार - पीड़ा का एक दम्भ भी होता है, एक अहंकार भी होता है - क्या वह उसी में डूबा हुआ है? और क्या यह कुछ न पूछना उस सचाई से कतराना ही नहीं है जो पूछने पर जवाब में सामने आ सकती है?

केतकी आ कर पूछती है, “दिन कैसा बीता?” ...”सोये?” ...”दर्द तो नहीं हुआ?” बँधे-बँधाये प्रश्न हैं, सधे हुए उत्तर हैं - अत्यन्त संक्षिप्त, बल्कि कुछ का जवाब तो सिर हिलाने से ही हो जाता है... फिर केतकी उसके सिरहाने की ओर से आ कर उसके माथे पर हल्का हाथ रखती है, फिर धीरे-धीरे माथा सहलाती है, और फिर उठ कर उधर से ही दूसरे कमरे में चली जाती है। उसने लक्ष्य किया है कि केतकी ने कभी सामने से आ कर हाथ नहीं बढ़ाया; वह उँगलियों की छुअन-भर अपने माथे पर पाता है, न हाथ उसे दीखता है न उस समय केतकी ही दीखती है; उस जवाब को भी वह अपने सामने नहीं आने देता और इसलिए 'क्यों' के उठते ही वह करवट लेता है और तब केतकी कहती है, “मैं चाय लाती हूँ” - और सारे प्रश्न पीछे हट जाते हैं और ढर्रा सब पर हावी हो जाता है...

केतकी ने दूसरे कमरे से ला कर कुर्सी उसके पलंग के पास रखी है और उस पर बैठ गयी है। थोड़ी देर उसे निहारती रही है। वह कुछ बोला नहीं; आँखें भी उसने अधमुँदी रखी हैं - कोई चाहे तो उन्हें खुली मान ले, चाहे तो मुँदी।

थोड़ी देर बाद केतकी ने पूछा, “तुम्हारा बात करने का मन न हो तो कुछ पढ़ कर सुनाऊँ?”

क्यों ऐसा निहोरे-भरा स्वर? हेम ने बिना कुछ कहे सिर हिला दिया।

“गा कर भी सुना सकती, पर मेरा गाना न जाने तुम्हें कैसा लगेगा।”

स्वर में एक दबी हुई थरथराहट। केतकी उसके लिए क्यों गाना चाहे? और गाना ही चाहे तो क्यों परवाह करे कि उसे कैसा लगेगा? उसने नजर उठायी-दोनों की आँखें मिलीं : कहा तो हेम ने वही जो कहने जा रहा था, पर स्वर में एक उदास नरमी आ गयी थी। “तुम्हारा गाने का मन हो तो गाओ।”

केतकी ने क्षण-भर के लिए आँखें बन्द कर लीं। फिर उठी, पलंग के पास ही तिपाही पर पड़ी दवा की शीशियों को निरुद्देश्य भाव से उठाते-रखते बोली, “कल या परसों सब पट्टियाँ-बट्टियाँ खोल दी जायेंगी - घाव भर गये हैं और अब कोई अंदेशा नहीं है।”

हेम ने सिर हिला दिया।

“एक-दो दिन और मैं हल्का ड्रेसिंग कर दूँगी - अब तो तुम स्वयं भी कर सकोगे। हाँ, अभी उतावली मत करना - थोड़ा सब्र से ही काम करना...”

हेम ने फिर सिर हिलाया। फिर उसे लगा कि कुछ कहना चाहिए। उसने केतकी की ओर उन्मुख होकर कहना शुरू किया, “केतकी, मैं तुम्हारा...”

केतकी ने जल्दी से उसे टोकते हुए कहा, “मैंने शहर में एक कमरा देख लिया है। कल या परसों में वहाँ चली जाऊँगी। इतने दिन तुमने मुझे शरण दी, इसे मैं नहीं भूलूँगी।”

“मैंने क्या किया? उसके लिए तो तुम्हें जंगबहादुर को शुक्रिया अदा करना चाहिए।” थोड़ा रुक कर हेम ने जोड़ा, “और हाँ, मैंने आज जंगबहादुर से बात कर ली है; वह कल एक महीने की छुट्टी पर घर चला जाएगा - तुम उस क्वार्टर में आराम से रह सकती हो।”

एक लम्बी चुप के बाद केतकी ने कहा, “जंगबहादुर की सारी ड्यूटीज भी क्या मैं सँभाल सकती हूँ? कुछ काम सीख जाऊँगी - “

“नहीं-नहीं, कोई ड्यूटी करने की कोई जरूरत नहीं है। यह इन्तजाम तो तुम्हें काम से बचाने के लिए किया गया है। अब अपनी देख-भाल मैं खुद कर लूँगा।”

एक रूखी मुस्कान केतकी के चेहरे पर उभरी और दब गयी। उसके मुँह फेर लेने से पहले इतना हेम ने देख लिया। वह कुछ कहने ही जा रहा था कि बाहर आहट हुई और फिर दरवाजे पर दस्तक पड़ी।

“हेम बाबू! हेम बाबू हैं?”

स्वर रमानाथ का था।

केतकी मुड़ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गयी। हेम द्वार की ओर बढ़ा।

रमानाथ कुतूहल से भरा हुआ आया था और सोचे हुए था कि प्रश्नों की झड़ी लगा देगा। समय उसके पास बहुत अधिक नहीं था, पर हेम बाबू से बहुत कुछ जल्दी ही जान लिया जा सकेगा, ऐसा भरोसा उसे था। जानने के लिए सब कुछ कहलाना थोड़े ही होता है - आधी बात तो जो नहीं कहा गया उसी के अनुमान से जानी जाती है! जितना कहा उतना फैक्ट, जो नहीं कहा वह उस फैक्ट की असलियत - इस नुस्खे से चलते हुए ही रमानाथ अपने समाज में जहाँ है वहाँ पहुँचा है - सभी मानते हैं कि उसे सब पता रहता है, समझते हैं कि उसकी दूर-दूर तक पहुँच है...

पर हेम की गम्भीर, आत्मस्थ मुद्रा के आगे उसके सवालों की धार कुन्द हो गयी। पट्टी-वट्टी अब नहीं थी, पर स्वास्थ्य के बारे में तो पूछा जा ही सकता था, हल्का-सा शालीन उलाहना भी दिया जा सकता था - “हेम बाबू, आपने कुछ बताया ही नहीं - बुलवा ही भेजते...”, “हेम बाबू, यह तो ठीक है कि हम किसी लायक नहीं हैं, फिर काम की भी मजबूरियाँ रहती हैं, पर आपने तो हमें बिल्कुल गैर समझ लिया...”

हेम बाबू ने तो इस पर भी प्रोटेस्ट नहीं किया! “क्या बताऊँ, रमानाथ जी -मजबूरियाँ तो सभी में रहती हैं - किसी को जितना कम कष्ट दिया जाय उतना अच्छा। फिर मैं तो ठीक हूँ - थोड़ा कष्ट हुआ था - अब तो आप देख रहे हैं, बिल्कुल चंगा हूँ...”

“बीच-बीच में तो तरह-तरह की बातें सुनी थीं। उस दिन केतकी जी...”

साथ के कमरे से ट्रे लेकर आती हुई केतकी ने कहा, “केतकी आपको नमस्कार करती है, रमानाथ जी! उस दिन की केतकी की बात छोड़िए; अभी...”

हेम ने कहा, “लीजिए, केतकी जी चाय ले आयी हैं तो इतनी देर तो आपको और रुकना ही होगा।”

रमानाथ के मुँह से निकला, “ऐं?” फिर एकाएक अपने को सँभालते हुए उसने कहा, “नमस्कार, नमस्कार, केतकी जी! मैं यही कहने जा रहा था कि उस दिन के बाद आपके भी दर्शन नहीं हुए - कहीं चली गयी थीं क्या? हम तो...”

“दर्शन ही तो हैं। जब हो गये तभी बहुत।” केतकी ने नजर उठाये बिना कहा, “चाय मैं ढाल दूँ या आप स्वयं लेंगे?”

ट्रे में दो ही प्याले थे। हेम ने कहा, “मैं बाद में लूँगी - आप लोग लें।”

हेम चुप हो गया। हाथ बढ़ा कर उसने ट्रे को थोड़ा घुमाया और चाय ढालने लगा। रमानाथ ने कुछ चकित भाव से केतकी की ओर देखा, पर कुछ पूछ नहीं सका।

थोड़ी देर सब चुप रहे। केतकी दो कदम पीछे हट कर चौखटे से सट कर खड़ी हो गयी थी। चाय की हल्की चुस्की की आवाज बीच-बीच में सुनाई पड़ जाती थी।

रमानाथ ने आने का प्रयोजन कहा। तीसरे दिन उसके यहाँ छोटा-सा जलसा है -एकदम इनफार्मल - केवल बन्धुजन रहेंगे। हेम बाबू अवश्य आएँ - “और केतकी जी, आप भी! आपके लिए तो अल्ताफ साहब का खास आग्रह था - “

हेम ने केतकी की ओर देखा। केतकी ने सम स्वर से पूछा, “वह यहाँ हैं?”

“जी हाँ। बल्कि एक तरह से वह इस जलसे का निमित्त हैं। उन्हें बम्बई से एक पुरस्कार मिला है - पुरस्कार क्या, सम्मान करने का एक बहाना है - उसी की बधाई के लिए जलसा है। तो आप आएँगी न? और हेम बाबू, आप...”

हेम ने कहा, “देखिए - हो सका तो - यों तो ठीक हूँ, पर अभी घूमना शुरू नहीं किया न...”

“तो इसी से शुरू कीजिएगा न! चाहे थोड़ी देर बैठ कर लौट आइएगा - सबको अच्छा लगेगा...” रमानाथ मुड़ा तो चौखटे से सटी केतकी वहाँ नहीं थी। वह उठ खड़ा हुआ। “अच्छा, अभी चलता हूँ। केतकी जी को मेरा नमस्कार कह दीजिएगा - उन्हें भी जरूर लाइएगा - वह अभी तो यहीं हैं न?”

हेम क्षण-भर रमानाथ की ओर देखता रहा। फिर कुछ सोचते से स्वर में बोला, “अभी तो यहीं हैं - उधर क्वार्टर में ठहरी हैं - “

रमानाथ ने फिर कुछ पूछने को मुँह उठाया, पर हेम के चेहरे की ओर देख कर उसने केवल कहा, “अच्छा, अभी चलता हूँ। राह देखता रहूँगा।”

उसकी पदचाप डूब गयी तो हेम ने धीरे-धीरे बढ़ कर किवाड़ बन्द कर दिये और फिर आ कर पलंग पर बैठ गया। कोहनियाँ घुटनों पर टेक कर ठोड़ी हथेलियों पर टिकाये वह एक सूनी नजर से चाय के प्यालों को देखने लगा।

थोड़ी देर बाद केतकी आयी तो हेम की मुद्रा देख कर पल-भर ठिठकी। फिर दबे-पाँव बढ़ कर ट्रे उठाने लगी।

“रहने दो - मैं सँभाल लूँगा...”

“इतना काम तो मेहमान भी कर लेते हैं! और मैंने तो ड्यूटी भी सँभाली है...”

“फिर वही बेकार बात! कोई ड्यूटी-ऊटी तुम्हारी नहीं है। वह इन्तजाम तो तुम्हें काम से बचाने के लिए ही किया गया है - फिलहाल कुछ सुभीते से रह सकोगी। अपनी देख-भाल अब मैं खुद कर लूँगा - अब तो बिल्कुल ठीक भी हूँ।”

वही उदास मुस्कान फिर केतकी के चेहरे पर दिखी - कुछ अधिक उदास ही। हेम को याद आया कि यही बात हो रही थी जब रमानाथ के आने से व्याघात हुआ। तब केतकी ने मुँह फेर लिया था; अब की बार वह एकटक उसकी ओर देखती रही।

“कहो-कुछ कहने को हो न, कह डालो...” हेम का स्वर प्रोत्साहन का नहीं था, पर नितान्त रूखा भी नहीं था।

“जाने दीजिए। आपकी कृपा है, मुझे स्वीकार है।”

“नहीं। तुम कुछ और कहने जा रही थीं। कह डालो। कृपा की बात से वह ज्यादा सालने वाली थोड़े ही होगी!”

केतकी ने लम्बी साँस भर कर गोता लगाने के भाव से कहा, “घर में जगह दी होती तो बात भी थी। नौकर की कोठरी ही तो है।” वह क्षण-भर रुकी, फिर बोली, “ठीक तो है। मेरी जो जगह है वह तुमने मुझे बता दी। मुझे यह नौकरी मंजूर है।”

केतकी के स्वर में कुछ व्यंग्य रहा होता तो बात हेम को कम चुभती। पर इस दास्य-भाव को वह कैसे झेले, उसकी समझ में नहीं आया। अपने ही पर चोट करते हुए बोला, “नौकरी! नौकरी तो अब मेरी भी नहीं है। बेकार बैठा हूँ। एक बेरोजगार आदमी की एक सेठानी नौकरानी!”

बेबसी का वार था - पर शायद वार करने का यही तरीका ठीक था - जितनी चोट दूसरे पर हो, उतनी ही अपने पर पड़ती जान पड़े। केतकी ने ट्रे पर झुके-झुके बात की थी, अब सीधी खड़ी हो गयी। उसकी थरथराती आवाज से हेम चौंक गया। “आप किसका अपमान करना चाहते हैं, हेम बाबू? केतकी का, या अपना? मेरा, तो वह भी मुझे मंजूर है। नौकरानी ही हूँ मैं। मैंने दो-तीन और नौकरियाँ भी ठीक कर ली हैं संगीत और आर्ट सिखाने की...”

“और मैं नाकारा हूँ। यही तो मैं कह रहा हूँ...”

“नाकारे नहीं हैं। आप कई काम कर सकते हैं - करते रहे हैं। आपने खुद मुझे बताया है।” केतकी थोड़ा रुकी। “किसी को कोई सीख देने वाली मैं कौन होती हूँ, मुझे तो खुद कुछ नहीं आता - पर मुझे लगता है कि आपसे मुझे जो सीखने को मिला वह शायद आपके भी काम का हो सकता है...”

हेम को थोड़ा कुतूहल हो आया। अब तक जैसे वह वही कह रहा था जो उसे कहना चाहिए, जो कोई उससे कहला रहा था, अब एकाएक सहज स्वर में उसने पूछा, “वह क्या - मुझसे क्या सीखा तुमने?”

“अपना मामूलीपन। जो मैं हूँ वही होने की अपनी लाचारीः सिर झुका कर उसका स्वीकार। नहीं तो दूसरों के लिए कुछ करने का पाखंड हर किसी को व्याप ले सकता है। मैं भी तो बड़ी सोशलिस्ट बनती थी।”

फिर एक मौन दोनों के बीच छा गया। थोड़ी देर बाद केतकी उसी बात को आगे बढ़ाती हुई बोली, “पापा ने भी कभी नहीं टोका। पर उनका खुद का जीवन बिल्कुल दूसरी तरह का था। शायद सोचते रहे हों, सिखाना क्या, टोकना क्या। अपने आप देख कर जो सीखा जाय वही सीखा जाता है।” वह फिर थोड़ी देर रुकी। फिर उसने जोड़ दिया, “अपने आप देख कर - या मार खा कर। मैंने मार खा कर ही सीखा - अब थोड़ा देख कर सीखना भी सीख रही हूँ। आप से।”

अब तक केतकी खड़ी ही थी। अब बैठ गयी। उसने सिर झुका लिया। हेम उसकी छाती का उठना-गिरना देखता रहा - मानो वह हाँफ गयी हो। फिर वह धीरे-धीरे उठा तो केतकी ने तपाक से उठते हुए पूछा, “कुछ चाहिए - मैं ले आऊँ...”

हेम ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया, बोला नहीं। वह धीरे-धीरे कमरे में टहलने लगा। टहलता रहा। केतकी वैसे ही सिर झुकाये बैठी रही। अन्त में एक बार हेम उसके पीछे तनिक ठिठका तो बोली, “बस, अब बैठ जाइए-थक जायेंगे।”

हेम ने वहीं पीछे खड़े-खड़े कहा, “नहीं। अब बैठे थक रहा हूँ। और अभी तो तुम्हारी बातों ने दहला दिया है...”

केतकी ने कहा, “मेरी? मैं कुछ गलत कह गयी होऊँ तो माफी चाहती हूँ। जो मेरा पद है उसका पूरा अभ्यास होते थोड़ी देर लगेगी - चूक हो जाती है।”

हेम तिलमिला गया। “मेरा वह मतलब नहीं था - तुम जानती हो कि नहीं था। तुमने जो कुछ कहा उससे मुझे इतना तो दीखता है कि मुझे शर्म आनी चाहिए - पर ठीक किस बात की शर्म, यह अभी नहीं देख पाया - साफ-साफ नहीं देख पाया हूँ।”

“शर्म तो मुझे आनी चाहिए - आती रही है - और मुझे तो लगता है कि अब जानती हूँ कि किस-किस बात पर... आपको क्यों? और मेरे सामने तो बिल्कुल नहीं। मैंने आपको बम्बई बुला कर कितनी बड़ी ज्यादती की थी - और आप तो चले भी आये! - उसके बाद भी, मैंने क्या किया? मैं क्षमा के भी योग्य नहीं हूँ, हेम बाबू! मैं तो इस नौकर के पद के योग्य भी नहीं हूँ जो आपने...”

हेम ने सामने आ कर कहा, “देखो, केतकी, एक तो यह बाबू-बाबू छोड़ो। और आप नहीं, तुम। समझीं? इतना समझ गयीं तो आगे बोलूँ।”

केतकी ने सिर हिला दिया - “समझी।” फिर धीरे से कहा, “आगे बोलिए।”

“फिर वही बात?”

“बोलो।”

“बम्बई मैं आया था - हाँ, मैं ही आया था। चाहूँ तो उसका श्रेय ले सकता हूँ कि तुम्हारे बुलाने पर दौड़ा आया। पर भीतर तो जानता हूँ कि वह धोखा होगा। दौड़ कर वहाँ आया था कि भाग कर यहाँ से गया था, यही मैं साफ-साफ नहीं जानता। तुम तो भला जानोगी कहाँ से - तुम मुझे जानती ही कितना हो?”

“जितना आप - तुम मुझे, उससे कुछ अधिक ही जानती हूँगी। औरतें बड़ी काइयाँ होती हैं - बहुत-कुछ यों ही जान लेती हैं।”

“चलो वह भी सही। पर बहस का मुद्दा वह नहीं है। मेरे बम्बई जाने के बाद जो कुछ हुआ उसमें मैंने क्या किया? वह सब तो हुआ ही - अपने आप होता गया। जो सिर आ पड़ी झेल ली - और वह भी कैसे...”

“अपने आप होता गया तो - अपराध भी कैसे हुआ? जो किया वही तो अपराध हो सकता है - अपराध तो सब मेरे रहे। तुम बम्बई अपनी मर्जी से गये - और वह तो अपराध नहीं था। बल्कि उसमें भी अपराध मेरा था - तुम्हें उकसाने का।”

“न। बात कहीं पहुँचती नहीं है। सोचता बहुत रहा हूँ, पर...”

हेम फिर चक्कर काटने लगा। थोड़ी देर बाद केतकी ने शुरू किया, “हेम बाबू - “ और फिर रुककर कहा, “हेम, ऐसे कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काट कर क्या होगा? बात सिरे पहुँचेगी तब पहुँचेगी - उससे पहले यों अपने को पेर कर कुछ नहीं निकलेगा!”

उसने झुक कर ट्रे उठायी और मुड़ी, मानो वह बात पूरी हो गयी है। हेम ने कहना शुरू किया, “मैंने कहा न, रहने दो, मैं...” और फिर मानो उसने बात समाप्त करने का केतकी का फैसला स्वीकार कर लिया। जाती हुई केतकी की पीठ से पूछा, “रमानाथ की पार्टी में जाओगी?”

केतकी ने बिना मुड़े उत्तर दिया - “यह रखकर अभी आती हूँ...”

दो मिनट बाद लौट कर वह फिर वहीं दरवाजे के चौखटे से सट कर खड़ी हो गयी। हेम बैठ गया था, उसने केतकी का आना नहीं जाना और उसके स्वर से कुछ चौंका।

“मेरा कुछ कहने का हक नहीं है - पर इजाजत हो तो कुछ कहूँ?”

हेम बोला नहीं; उसने केवल आँखें केतकी की ओर उठायीं।

“अभी दो-एक दिन में जब जरा शरीर और सँभल जाय - तब क्यों न एक यात्रा कर आएँ? हवा बदल जाएगी, कुछ विश्राम भी हो जाएगा, और मन भी...”

हाँ-ना का कोई संकेत दिये बिना हेम ने पूछा, “कहाँ की यात्रा?”

“कहीं की भी। तीर्थयात्रा। मन धोने की यात्रा। पर एक शर्त...”

कुछ सहमते हुए हेम ने पुछा, “पहले शर्त भी सुन लूँ...”

“कि मैं उसी पद पर रहूँगी जो मुझे मिला है - नौकरानी तुम्हारे साथ जाएगी।”

हेम ने कुछ चिड़चिड़ाकर कहा, “तीर्थयात्रा की और मन धोने की बात कहती हो, और बार-बार नोंचती भी जाती हो।” इशारे से केतकी को उसने रोक दिया, फिर अपने स्वर को भी सँभालकर बोला, “तीर्थ तो निर्विशेष करते हैं, वहाँ तो सभी नौकर हैं - नौकर के भी नौकर - 'मैं तो कूता राम का...' “

केतकी चुपचाप उसे देखती रही। काफी देर बाद उसने कहा, “कोई जल्दी नहीं है। सोच कर बता देना - मैं तैयारी कर दूँगी...”

तैयारी कर लूँगी नहीं, कर दूँगी। हेम ने लक्ष्य कर लिया। बोला, “सोचूँगा।” तनिक रुक कर, विषय बदलते हुए - और क्या, फिर आक्रामक होते हुए - “और वह पार्टी?”

“तुम जाओगे? यों तो किसी का भी जाना जरूरी नहीं है - पर कहोगे तो...”

“मैं क्यों कहूँगा? मैं तो सोचता हूँ कि नहीं जाऊँगा। मेरा कोई खास परिचय भी नहीं है। तुम्हें तो बड़े निहोरे से बुलाया है...”

“मेरा मन तो बिल्कुल नहीं है। वह दुनिया मेरी नहीं है। पहले भी नहीं थी - पर मैं बेवकूफ पहले समझी नहीं थी।”

“तुम्हें तो शायद जाना चाहिए।” कुछ रुक कर, थोड़ा सकुचाते हुए हेम ने जोड़ा, “नहीं जाओगी तो और बातें बनाएँगे...”

“अच्छा है, उन्हें बात करने का मौका मिल जाएगा! पर मेरे जाने से क्या रुक जायेंगे वो? और बातें मेरी अकेले की थोड़े ही होंगी...” कहते-कहते केतकी एकाएक चुप हो गयी। बातें हेम के बारे में भी होंगी, इसकी चिन्ता में वह हेम को नहीं डालना चाहती थी।

केतकी के प्रवेश पर क्षण-भर के लिए जो तनाव-भरी चुप्पी सब पर छा गयी उससे केतकी को आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह तो स्पष्ट संकेत था कि उसके आने से पहले उसी के बारे में बातें हो रही थीं। फिर रमानाथ ने तपाक से पूछा, “बड़ा अच्छा हुआ आप आ गयीं - आप हेम बाबू को नहीं लायीं?”

“हेम बाबू अपनी मर्जी के मालिक हैं - किसी के लाये थोड़े ही कहीं आते-जाते हैं।” कह कर केतकी ने एक बार सबकी ओर देखा और सबको एक संयुक्त नमस्कार कर लिया। रमानाथ ने कहा, “फिर अभी-अभी तो ठीक हुए हैं - अभी बाहर निकलना नहीं शुरू किया-”

केतकी ने लक्ष्य किया कि रमानाथ के पीछे-पीछे वह एम.पी. साहब भी उसकी ओर बढ़ आये हैं और बात करने को उत्सुक हैं। तभी वह बोले, “कहिए आप तो अच्छी तरह हैं न? उस दिन तो...”

“जी। आपकी कृपा है।” केतकी को 'उस दिन' की याद आयी : न वह उस स्मृति को ताजा करना चाहती है न इस आदमी से उलझना चाहती है। वह मुड़ कर श्यामा की ओर बढ़ी जो कुरसी पर बैठी एकटक उसकी ओर देख रही थी। नमस्कारों का फिर विनिमय हुआ, दोनों ने दोनों की कुशलक्षेम पूछी। श्यामा ने कहा, “आज फिर हमारी भेंट सहज स्थिति में हो रही है - पिछली कई बार तो हमेशा कुछ-न-कुछ-”

केतकी उन अवसरों को याद करना नहीं चाहती जिनकी ओर इशारा है। जल्दी से विषय बदलती हुई बोली, “आज तो अल्ताफ साहब के सम्मान की गोष्ठी है न? पहली बार भी हम उन्हीं के कारण मिले थे...” कहते-कहते उसे लगा, यों अल्ताफ को उभार कर सामने ले आना भी ठीक नहीं है। एक बार फिर विषय बदलते हुए उसने पूछा, “आज तो आपका गाना सुनने को मिलेगा न?”

श्यामा ने एक बार पीछे मुड़कर डी.पी. की ओर देखा और कुछ अनमने भाव से कहा, “मेरा गाना!” फिर बोली, “आज तो आपका ही गाना होना चाहिए - एक दिन तो मैंने रेडियो पर आपका गाया हुआ पन्त का गीत सुना था - बहुत अच्छा गाती हैं आप!”

“श्यामा जी, एक गाना होता है जो - गाना होता है। एक दूसरा होता है जो समाज को सुनाना होता है। मुझसे तो अलग-अलग कारणों से दोनों ही छूट गये।”

“आप तो, सुना है, संगीत सिखाती भी हैं - “

“हाँ, और संगीत सिखाने का मतलब ही है गीत का मर चुका होना - संगीतकार मर जाता है तो म्यूजिक मास्टर बनता है; और कवि मरता है तो साहित्य पढ़ाने लगता है।”

“बहुत कड़वी बात कह रही हैं आप, केतकी जी! ऐसे सोचने लगें तो सरकारी नौकरों को आप कहाँ रखेंगी पता नहीं। कौन मर कर सरकारी नौकर बनता है?” अपना ही सवाल श्यामा को मनोरंजक लगा। “यह भी चर्चा का एक अच्छा विषय हो सकता है - कौन मर कर सरकारी नौकर बनता है!”

केतकी ने भी शामिल होते हुए कुछ शरारत से पूछा, “या कौन मर कर एम.पी.?”

श्यामा ने जल्दी से मुड़ कर एम.पी. की ओर देखा और लगभग फुसफुसाते स्वर से बोली, “श्-श्-श्! हमारे बड़े मेहरबान हैं एम.पी. साहब और सेंस आफ ह्यूमर उन्हें छू भी नहीं गया है!”

डी.पी. उठ कर उनकी ओर आ रहे थे। केतकी ने कहा, “हमारे देश की राजनीति के भीतर ह्यूमर खोजना हो तो उसे बाहर से देखिए। सारी राजनीति एक मजाक है।”

डी.पी. ने आखिरी बात सुन ली थी। बोले, “हाँ, मगर किसके साथ मजाक? यह सोचने लगें तो ह्यूमर बना नहीं रह सकता - बाहर रह कर तो और ज्यादा तकलीफ होगी।”

केतकी ज्यादा उलझना नहीं चाहती। एक साथ ही बात स्वीकारती और बदलती हुई बोली, “और इसलिए शायर की मौत ही सेफ सब्जेक्ट है। सवाल को कैसे रखा जाय -कौन प्रेत हो कर कवि बनता है - या कि कवि प्रेत हो कर कौन बनता है?”

श्यामा जोर से हँसी। अल्ताफ ने मौका देख कर आगे बढ़ते हुए कहा, “अरे-अरे, किस कवि की जान ले रही हैं आप, श्यामा जी!”

“केतकी जी ने मसला यह उठाया है कि शायर मर कर क्या बनता है, और कौन मर कर शायर बनता है?”

अल्ताफ ने मानो केतकी को पहले-पहल देखा - “ओह! केतकी जी हैं! नमस्कार!”

केतकी ने बन्दगी करते हुए कहा, “आदाब अर्ज है, शायर साहब! और आपको बधाई भी दे लूँ - यह तो हमारी खुशकिस्मती है कि आपको बधाई दे कर हम अपने को धन्य कर सकते हैं।”

केतकी के स्वर के ठंडे और पैने विनय से चौंकते हुए डी.पी. ने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा, मानो किसी नयी केतकी को देख रहे हों। अल्ताफ ने भी उसे लक्ष्य किया, पर एकाएक उसकी काट न सोच पाया। बोला, “बधाई की कोई बात भी हो, केतकी जी! वह तो रमानाथ ने नाहक एक छोटी-सी बात को इतना तूल दे दिया। खैर, दोस्तों से मिलने का कोई बहाना मिल जाय, उनकी किरपा हासिल हो जाय - अच्छा ही है।” इतनी बात मानो सबके लिए कही गयी थी। अब वह केतकी की ओर मुखातिब हो कर बोला, “तुम कब आयी, केतकी? बम्बई से, कि लखनऊ से, कि कहाँ से?”

श्यामा जी और डी.पी. दोनों ने कुछ कुतूहल से पहले अल्ताफ की ओर और फिर केतकी की ओर देखा। बात केवल 'तुम' सम्बोधन की नहीं थी; अल्ताफ के स्वर में भी एक अप्रकट अवज्ञा थी, मानो वह दूसरों से छिपा कर केतकी को सुई चुभोना चाह रहा हो। केतकी कैसे उत्तर देगी?

केतकी ने कहा, “जब बला आती है तो यह नहीं पूछा जाता है कि कहाँ से आयी। लोग अपना...”

अल्ताफ ने जल्दी से कहा, “अब तो कुछ दिन रहोगी न? कहाँ ठहरी हो?”

“आप आश्वस्त रहें, शायर साहब! मैं जल्दी ही जा रही हूँ।”

श्यामा ने कुछ आश्चर्य दिखाते हुए पूछा, “कहाँ, केतकी जी?”

केतकी ने कुछ थके हुए स्वर में उत्तर दिया, “मेरा कोई ठिकाना थोड़े ही है! मन शान्त नहीं है इसलिए सोचती हूँ तीर्थों का एक चक्कर लगा आऊँ - इस देश में वही तो सनातन नुस्खा है शान्ति का!”

“चे-खूब!” अल्ताफ ने एक ढीठ मुस्कराहट के साथ कहा, “केतकी जी, आपने वह पुरानी कहावत तो सुनी होगी, नौ सौ...”

इस प्रकट बदतमीजी पर श्यामा और डी.पी. बड़े असमंजस में पड़ कर मुड़ रहे थे, पर केतकी के अविचलित स्वर से ठिठक गये।

“सुनी है, शायर साहब! उसका बुरा भी नहीं मानती। पुरानी कहावत है - कुछ तो सचाई उसमें होगी ही। इतना जरूर है कि नये जमाने की तरक्की-पसन्द बिल्लियाँ हज पहले ही कर आती हैं, फिर इत्मीनान से चूहों का शिकार खेलती हैं - कोई उँगली नहीं उठा सकता। अच्छा, अल्ताफ साहब, आज आपको बधाई के साथ-साथ एक खिताब भी दिया जाय तो कैसा रहे?”

“खिताब?”

“हाँ। 'हाजी साहब।' तरक्की-पसन्दी तो अपने आप में एक जियारत है।” केतकी ने सबकी ओर मुड़ते हुए कहा, “कोई ताईद भी कर दे तो मैं तालियाँ बजाऊँ कि रेजोल्यूशन पास हो गया।”

श्यामा एक मुस्कान दबा कर आगे बढ़ गयी। एम.पी. साहब ने 'रेजोल्यूशन' शब्द सुना और जोर से बोले, “भई, यह पीछे-पीछे की राजनीति क्या हो रही है? हम भी तो सुनें कि क्या रेजोल्यूशन है...।”

उत्तर केतकी ने दिया, “आज-कल तो सभी राजनीति पीठ-पीछे की राजनीति है। पर आप चिन्तित न हों - यह नान-पोलिटिकल बात है - शायरी से भला पालिटिक्स का क्या वास्ता?”

रमानाथ कुछ समय के लिए अदृश्य हो गया था। अब वह और सुधीर एक-एक बड़ी तश्तरी उठाए हुए आये और रमानाथ ने कहा, “लीजिए थोड़ा नाश्ता हो जाय - फिर अपनी मजलिस जमेगी।...”

बातचीत थोड़ी देर के लिए बन्द हो गयी। केवल नमकीन चबाये जाने की चुरमुराहट सुनाई देती रही। केतकी ने तश्तरी में से कुछ लेकर मुँह में डालते हुए कहा, “रमानाथ जी, मैं अब चलूँगी - बस आपकी बात रखने आयी थी, मुझे जल्दी जाना है...।”

केतकी ने एक-साथ ही सबको नमस्कार करते इजाजत ले ली। रमानाथ उसे छोड़ने बाहर तक आया।

“आपका जाना अच्छा नहीं लग रहा है, केतकी जी! आपकी अनुपस्थिति सबको - “

“अच्छा लगेगा, रमानाथ जी, अच्छा लगेगा! कुछ लोगों की गैरहाजिरी ही उनकी शिरकत होती है। इधर मुझे अपने आपको पहचानने में बहुत से लोगों ने बड़ी मदद की है। अच्छा, नमस्कार!”

रमानाथ अचकचाया-सा ताकता रह गया और केतकी फुर्ती से चली गयी।

किवाड़ उढ़के हुए थे। केतकी ठिठकी; भीतर से कुछ स्वर उसे सुनाई दिया था। कौन आया होगा? फिर वह चौंक कर तेजी से आगे बढ़ी - एक स्वर उसने पहचाना था। फिर वह जड़ होती-सी रुक गयी, एक हाथ घुटने पर रख कर मानो उसने अपने को सँभाला, और फिर दरवाजे पर दस्तक दी। फिर वह धीरे-धीरे किवाड़ ठेल कर भीतर प्रविष्ट हुई।

“केतकी!”

पलंग की बाहीं पर बैठा हुआ हेम खड़ा हो गया। सामने कुर्सी पर कुन्तल बैठी थी। केतकी को देख कर वह उठी नहीं; उसका केवल एक हाथ उठा और उधर बढ़ा और एक शब्द सुनाई दिया, “जीजी!”

किवाड़ के पास ही ठिठकी केतकी बारी-बारी से दोनों को देखती रही। क्या कहे, किससे पूछे, वह कुछ तय नहीं कर पा रही थी।

“अच्छा हुआ तुम वहाँ अधिक नहीं ठहरीं - तुम्हारी बहन देर से तुम्हारा इन्तजार कर रही है।”

अब भी केतकी बोली नहीं, उसने आँखें कुन्तल पर टिका दीं। आँखों में प्रश्न उभर आया था; बाकी चेहरे को वह बिलकुल भाव-रहित रखने का यत्न कर रही थी।

धीरे-धीरे कुन्तल खड़ी हुई। एक कदम केतकी की ओर बढ़ा कर उसने कहा, “जीजी, मैं तुमसे क्षमा माँगने आयी हूँ।”

“मुझसे! क्षमा!” केतकी का स्वर जैसे बड़ी दूर कहीं से आया हो। “केतकी तो - मर गयी न, अब उससे क्या क्षमा? केतकी तो प्रेत भी नहीं हुई होगी, बिल्कुल मर गयी होगी।”

हेम ने कहा, “बम्बई में तब जो कुछ जैसे हुआ वह कुन्तल ने मुझे बताया है। तुमने भी पूरी बात मुझे कभी नहीं बतायी थी...”

केतकी ने धीरे-धीरे कहा, “मेरे बताने को था क्या - और कब बताती? मैं तो अपराधिनी थी - हूँ - और मैं तो भाग गयी थी तुम्हें छोड़ कर...”

कुन्तल बोली, “जीजी, किसी के अपने को अपराधी कहने से कुछ नहीं होगा। हम सभी अपराधी रहे - जिन्होंने अपने को सही माना वे शायद अधिक अपराधी रहे। मैं नहीं जानती कि तुम मुझे क्षमा कर सकोगी कि नहीं - नहीं करोगी तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा - पर मैं माँग रही हूँ सच्चे दिल से। जो हो गया है उसे मैं अनहुआ तो नहीं कर सकती -तुम्हारे पाप का प्रायश्चित करने की मैंने जो कमीनी डींग हाँकी थी - उस बात को तो मैं वापस ले सकती हूँ!”

कुन्तल चुप हो गयी। केतकी भी चुप खड़ी रही। हेम ने बारी-बारी से दोनों की ओर देखा, फिर वह भी चुप रहा।

अन्त में कुन्तल ही फिर बोली, “मैंने उस दिन तुम्हारी ओर से सेठ जी से क्षमा माँगी थी। आज मैंने उनकी ओर से हेम बाबू से क्षमा माँगी है। और तुमसे तो माँग ही रही हूँ।” वह थोड़ा रुकी : “हमारे समाज में नारी का यही मुख्य काम है - वह आजीवन क्षमा ही माँगती रहती है - सबकी ओर से सबसे क्षमा। यह मैं शिकायत नहीं कर रही - न नारी की ओर से कोई दावा कर रही हूँ।”

हेम ने केतकी से कहा - और उसके स्वर में नया कुछ था जिससे एकाएक केतकी का गला भर आया : “केतकी, मैंने तुम्हारी बहन से चाय-पानी को भी नहीं पूछा है - और अब तो भोजन का समय हो आया है।” फिर कुन्तल की ओर देख कर असहाय से स्वर में बोला, “मैं बिल्कुल अव्यावहारिक आदमी हूँ - बल्कि नाकारा ही हूँ - आपने तो इन सब घटनाओं से यह समझ ही लिया होगा।”

केतकी ने कहा, “कुन्तल, तुम्हारे साथ अब कॉलेज वाली बहसों में नहीं पड़ूँगी। पर तुम यही तो कह रही हो न कि लड़की पैदा हुई तो वहीं से उसका क्षमा माँगना शुरू हुआ - कि मैं लड़की क्यों पैदा हुई - पैदा ही क्यों हुई! नारी का यह रूप मुझे तो स्वीकार नहीं है। हाँ, जिससे जो अपराध हुआ उसे वह पहचाने, स्वीकार करे, वह ठीक है। पर तब कौन किससे कम अपराधी है?”

“लेकिन जीजी, उसके बाद भी सब क्षमा नहीं माँगते। कुछ अपने को अपराधी देखते हैं तो जज बनते हैं - फैसले देने चलते हैं। दूसरे...”

हेम ने कहा, “यह तो आपने मेरा चरित्र आँक दिया।”

कुन्तल मुस्कराने को हुई थी, पर उसने देखा, केतकी का चेहरा स्याह पड़ गया है। उसने अपने को रोक लिया। केतकी हेम की ओर मुड़ कर बोली, “मुझसे जो बहस थी, उसे आगे बढ़ाने के लिए कुन्तल को निमित्त बनाना जरूरी नहीं है। यह बहस है भी नहीं - हम सभी अपने-अपने जीवन की बात कर रहे हैं।”

हेम ने कहा, “हाँ, केतकी। मैं समझ रहा हूँ। वैसी बात करने की हिम्मत रोज-रोज नहीं आती। मुझे वह तुमने दी है तो अभी जो कह रहा हूँ कह लेने दो।”

“और मुझे-मुझे तुमने दी है। और - चुप रहने का धीरज भी दिया है।”

कुन्तल ने असमंजस प्रकट करते हुए कहा, “अब आप लोगों की इस बात में मैं कहाँ जा छिपूँ?”

हेम ने सँभलते हुए कहा, “केतकी, तुम्हारी बहन ठीक कहती है।” फिर कुन्तल की ओर मुड़ते हुए, “मैं क्षमा माँगता हूँ - लीजिए, मैं भी क्षमा माँगता हूँ। अपनी ओर से, केतकी की ओर से नहीं।”

केतकी ने भी प्रकृतिस्थ हो कर कहा, “चल, मुँह-हाथ तो धो ले - “ और एकाएक रुक गयी। फिर उसने हेम से पूछा, “क्वार्टर में ले जाऊँ - या - “

केतकी कुन्तल का हाथ पकड़ कर भीतर ले चली। कुन्तल ने कहा, “नहीं जीजी, मैं अब चलूँगी। सेठजी के रिश्तेदारों के यहाँ ठहरी हूँ। यहाँ इतने ही काम के लिए आयी थी - यानी मेरा काम था क्षमा माँगना - अब तुम क्षमा दो, न दो, तुम्हारी इच्छा - या मेरा भाग्य।”

“बड़ी आयी भाग्य की बात करने वाली!” कह कर केतकी रुकी। “पर शायद ठीक ही कहती हो। चलो तुम्हें पहुँचा आएँ - “ हेम से उसने कहा, “एक ताँगा बुला लिया जाय - कुन्तल को पहुँचाना होगा...”

“मैं चली जाऊँगी। पहुँचाने तुम दोनों में से किसका जाना कम गलत होगा, पता नहीं!”

केतकी एक फीकी हँसी हँस दी। कुन्तल ने कहा, “जीजी, तुम हो बड़ी निर्मोही - तुमने मंजु के बारे में पूछा तक नहीं - “

“मैंने कुछ भी पूछने का अधिकार खो दिया है। पर - “

“वह अच्छी तरह है। उसका पूरा ख्याल रखती हूँ। और - “ कुन्तल थोड़ा झिझकी, “और कोशिश करती हूँ कि तुम्हारी जो याद उसे बनी है वह कड़वी न होने पाये...”

केतकी ने भर्राये गले से कहा, “शायद तूने ठीक ही प्रायश्चित किया मेरा - मेरी शादी ही गलत थी; खैर, जो छूट गया सो छूट गया। अब तो मंजू भी तेरी बेटी है...”

दूसरे कमरे से हेम ने कहा, “ताँगा तो आ गया...”

कुन्तल के चले जाने के बाद केतकी पहले क्वार्टर की ओर गयी, फिर आ कर चुपचाप खड़ी हो गयी। हेम खोया-सा कुरसी पर बैठा, उसे मानो केतकी के आने का भी पता नहीं था। केतकी देर तक चुपचाप उसे देखती रही। अन्त में उसी ने मौन तोड़ा।

“अब?”

हेम चौंका। “अरे तुम कब से खड़ी हो?” वह उठने को हुआ, फिर बैठे-बैठे ही उसने पलंग की ओर इशारा किया। “बैठो। कैसी रही पार्टी?”

केतकी ने परिवर्तन लक्ष्य तो किया पर स्वीकार नहीं किया। खड़े-खड़े ही बोली, “पार्टी! अंग्रेजी में कहीं पढ़ा था कि शायरों-कलाकारों की पार्टियाँ ऐसी होती हैं जैसे जंगल के मैदान में कई शेर जुटे हों। मुझे तो लगा कि कई एक लोमड़ चौकन्ने हो कर पैंतरे कर रहे हैं।”

हेम एक अवश-सी हँसी हँसा। “तुम्हारी बहन क्या ऐसी पार्टियों में अक्सर जाती है?”

केतकी ने कुछ झुक कर कहा, “कौन, कुन्तल? सोशल तो बहुत है - पर क्या कुछ कहा उसने?”

“बता रही थी कि अल्ताफ साहब का जो सम्मान बम्बई में हुआ उसका इन्तजाम खुद उन्हीं ने किया था। ठीक उसी समय कुछ जरूरत थी उसकी।”

“ऐसा तो होता रहता है। बम्बई में तो पब्लिसिटी का खास महत्त्व है - और बड़े प्रोफेशनल ढंग से होती है।”

“वही बता रही थी - सेठ मदनराम का क्या फिल्म-व्यवसाय में भी कुछ हाथ है?”

“हाँ, शायद - कुछ कम्पनियों में साझा है। पर क्यों?”

“किसी फिल्म के लिए स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखने का काम अल्ताफ को मिला है। जब बात चल रही थी तब अल्ताफ ने शायरों से पब्लिसिटी करायी कि काम उन्हीं को मिल जाए। कामयाब भी हुए।” हेम रुक कर थोड़ी देर विचार में खोया रहा। केतकी भी चुपचाप प्रतीक्षा करती रही। फिर हेम बोला, “कुन्तल ने ही बताया कि फिर अल्ताफ सेठ मदनराम से मिलने भी गया था।”

केतकी के चेहरे पर उसे परेशानी दीखी, पर उसने कुछ कहा नहीं।

“सेठ ने मिलने से इनकार कर दिया। कहला दिया कि डायलॉग लिखता है तो डायरेक्टर के पास जाए - वहाँ क्यों आया है?”

“फिर?”

“फिर कुछ नहीं। डायलॉग लिखे जा रहे होंगे और क्या?”

एक लम्बी और भारी चुप धुन्ध की एक बाँह-सी उनके बीच फैल आयी। देर बाद हेम ने कहा, “नो कमेंट? क्या सोचने लग गयीं?”

केतकी ने धीरे-धीरे कहा, “सोच रही थी कि विधाता के इन्साफ करने के तरीके भी अजीब होते हैं और उसके लिए वह निमित्त और मौके भी ऐसे चुनता है कि हम सोच भी नहीं पाते,” वह कुछ रुकी। “पर उस लोमड़ टोली को वहीं छोड़ दें तो कैसा? मुझे तुमसे एक बात पूछनी थी - पूछ सकती हूँ?”

हेम ने बिना कुछ कहे उसकी ओर नजर उठायी तो केतकी बोली, “जंगबहादुर को वापस बुला लूँ?”

हेम ने सीधे जवाब न देते हुए एकटक उसकी ओर देखते हुए पूछा, “पता है तुम्हारे पास?”

“नहीं। तुम फार्म पर लिख दो तो मैं तार दे कर बुला लूँ - तुम्हारी अनुमति हो तो।”

हेम ने उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखते हुए दबे हुए विनोद के स्वर में कहा, “एवजी छुट्टी जाना चाहता है? तो हो गया नौकरी का तमाशा?”

“जी नहीं। साहब को दौरे पर भी तो सेवा की जरूरत होगी।”

“दौरे पर?”

“तुम भूल गये। मैंने प्रार्थना की थी न - चलो यात्रा कर आएँ। लम्बी यात्रा। उस बीच जंगबहादुर यह घर सँभालेगा।”

विनोद की वह झलक हेम के चेहरे से मिट गयी। धीरे-धीरे बोला, “पर निरुद्देश्य भटक कर क्या होगा?” उसका स्वर अनिश्चय का ही था, विरोध का नहीं।

“जी ही रहे हैं निरुद्देश्य तो यात्रा से एक लक्ष्य भी मिल सकता है। और यात्रा क्यों निरुद्देश्य है? मन धोना क्या छोटा उद्देश्य है?”

“अरे वह...” हेम के स्वर में अनिश्चय का भाव कुछ और बढ़ गया। फिर उसने कहा, “धोने लायक मन भी तो होना चाहिए। जिसका मन ही न हो...” एकाएक स्वर बदल कर वह बोला, “पुनि-पुनि चन्दन पुनि-पुनि पानी, पाधा सरिगे हम का जानी। मन ही नहीं होगा तो धुलेगा क्या?”

“वही स्थिति हो जाएगी तो भी अच्छी है।” केतकी ने हाथ बढ़ा कर हेम का हाथ पकड़ा और धीरे से बोली, “चलो, थोड़ा छत पर चलें। खुली हवा में अच्छा लगेगा।”

हेम खिंचता चला गया। उसे अच्छा भी लगा यों आदिष्ट होते चले जाना, और इस अच्छा लगने पर थोड़ा-सा विस्मय भी हुआ। बोला, “पर जंगबहादुर को आने में तीन-चार दिन तो लगेंगे ही।”

“लगें। दस लगें। तब तक सेवा में चूक नहीं होगी।”

हल्की-सी चाँदनी थी, पर दृश्य चाँदनी का नहीं था, बिजली की रोशनियों का था। केतकी थोड़ी देर देखती रही। फिर खोयी-सी बोली, “अजीब है तुम्हारी दिल्ली - है न? कोई सीधा रास्ता नहीं - हर रास्ते में चक्कर है।”

“अच्छी बात कही तुमने - पर दिल्ली नहीं, बारहखम्भा कहो - चक्कर इसी में है। यहाँ सीधा रास्ता वही चल सकता है जो चक्कर खाता चले। नहीं तो सीधा चलने का अहंकार पाला नहीं कि चकरघिन्नी खा गये - कब गिरे, कब खड़े हो गये, पता ही नहीं चलेगा। जिन्दगी का पूरा रूपक हो गया बारहखम्भा...”

केतकी ने हेम का हाथ छोड़ दिया।

“मुझे तो चौराहों वाले शहर अच्छे लगते हैं। वहाँ रास्ता चुनने की लाचारी है। चुनो, और तब चुनने का नतीजा भुगतो - कुछ बात तो बनती। यह क्या कि नतीजे तो भुगतो पर कर्म का अधिकार अपना न हो!”

“नहीं केतकी - ऐसा तो तभी दीखता है जब हम किसी जीवन को शुरू करते हैं -जीवन तो एक बिन्दु से शुरू नहीं होता - वह तो धारा की तरह आदिहीन बहता आया है। असल में रास्ता हम नहीं चुनते-रास्ता ही हमें चुनता है। और असल में कोई रास्ते सीधे नहीं हैं...”

केतकी ने तनिक आगे बढ़ कर बड़े हल्के स्पर्श से हेम का कन्धा सहलाया। फिर धीरे स्वर में बोली, “अभी दुखता है?”

हेम ने तत्काल उत्तर नहीं दिया। देर बाद ही बोला, “नहीं। कभी-कभी टीस उठती है...”

एकाएक केतकी ने उसकी बाँहें पकड़ीं; उसे लगा कि वह सिहर गयी है। छत पर ठंड है। उसने मुड़ कर कोमल स्वर से कहा, “चलें नीचे?”

“चलो।” केतकी का हाथ बाँह से फिसलता हुआ हेम की हथेली तक आया; केतकी ने उसकी उँगलियाँ पकड़ लीं और जैसे उसे खींचती हुई लायी थी वैसे ही खींचती हुई ले चली।

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