बहू (बांग्ला कहानी) : बिमल मित्र

Bahu (Bangla Story in Hindi) : Bimal Mitra

आबू पहाड़ में विविध प्रकार के साधुओं को देखा। किसी-किसी की उम्र तीन सौ साल है। नंग-धड़ंग बाबा भोलेनाथ बनकर ध्यान में तल्लीन हैं। कोई तानपूरा लेकर धु्रपद गाने में तल्लीन है। बगल में एक शिष्य है, जो पखावज बजा रहा है। एक जगह गुफा में बिजली की रोशनी और रेफ्रीजरेटर पर नजर पड़ी। दोनों हाथ की दसों उँगलियों में हीरा, पन्ना और मोती की दस अँगूठियाँ हैं, बदन पर रेशमी गेरुआ वस्त्र। प्लेट में अंगूर खा रहे हैं। बगल में एक सिंधी शिष्या बैठी है, जो पंखा झल रही है।

आबू पहाड़ में दर्शनीय वस्तुओं का अभाव नहीं है। फिर भी साधुओं को देख-देखकर मैं अघा नहीं रहा था।

गाइड से पूछा, ‘‘यहाँ और कोई साधु-संन्यासी नहीं हैं?’’

मेरे गाइड ने इसके पहले मेरे जैसा कोई यात्री नहीं देखा होगा। उसके पास नामी जर्मन, अंग्रेज और फ्रांसीसियों के सर्टिफिकेट हैं। उन लोगों ने दिलवाड़ा मंदिर, सनसेट प्लांट और अच्छल मंदिर देखे थे और एक मैं हूँ, जो केवल साधु-संन्यासियों को ही देख रहा हूँ। वह क्योंकर यह जान पाएगा कि मुझे क्यों साधुओं को ही देखने का आग्रह है?

मगर आज भी योगानंद स्वामी से मेरी भेंट नहीं हुई। कुंभ का मेला, पुष्कर तीर्थ, केदारनाथ, गोमुखी इत्यादि किसी भी तीर्थ-स्थान को देखना मैंने बाकी नहीं रख छोड़ा है। योगानंद स्वामी से मिलना जरूरी है, क्योंकि मैं नीरू भाभी को जबान दे चुका हूँ।

यह आज की बात नहीं है। आज से बहुत साल पहले बोयालमुड़ि नामक गाँव की एक बहू की कहानी है—घनघोर देहात, न तो वहाँ कोई पोस्ट ऑफिस है, न कोई स्टेशन। उस गाँव में पहुँचने के लिए रेलवे स्टेशन से बाईस मील बैलगाड़ी में जाना पड़ता है और तीसरा पहर आते-आते शाम उतर आती है। बँसवारी और चमगादड़ों का मेला लगा रहता है। आदमी भी वहाँ वास करते हैं। हाथ में बाँस की लाठी थामे दो-चार आदमी रास्ते में जाते हुए दीख जाते हैं। वह भी कभी-कभी। खाँसी की आवाज होती है तो समझ में आता है कि आसपास कहीं आदमी है।

गरमी की छुट्टी थी।

मेरी विधवा बुआ के पास जो जमीन-जायदाद है, सब बोयालमुड़ि में ही है। मालगुजारी वगैरह चुकाने के बाद अगर पाँच रुपए भी घर में आ जाएँ तो उसे लाभ ही कहेंगे। हर साल वहाँ जाकर यदि वसूली की जाए तो बुआजी के हाथ में कुछ पैसे आ सकते हैं। लेकिन वहाँ जानेवाले आदमी की ही कमी है।

इस बार मैं ही गया। वहाँ मैं बुआजी के जमाने की कचहरी में जाकर ठहरा।

मँझली ताईजी बूढ़ी हो चुकी हैं। आँखों से दिखाई नहीं पड़ता है। सहन में धूप में बैठी थीं। बोलीं, ‘‘छोड़ो-छोड़ो, बेटा, पैर छूने की कोई जरूरत नहीं।’’

उसके बाद चिल्ला उठीं, ‘‘अरी ओ बहू, कहाँ गई? देखो यतीन का लड़का आया है।’’

मगर बहू आसपास कहीं दिखाई नहीं पड़ी।

कहीं से कुछ बच्चे आकर जमा हो गए।

मैंने पूछा, ‘‘फटिकदा कहाँ हैं?’’

ताईजी बोलीं, ‘‘चौथ किस्त के समय काँकुड़गाछी गया है। बाबू लोगों के काम के कारण आजकल उसे नहाने-खाने तक की फुरसत नहीं मिलती है। पिछले शनिवार को घर आ ही नहीं सका।’’

कुछ देर तक चुप रहने के बाद फिर बोलीं, ‘‘अरी ओ बहू, कहाँ गई, यतीन का लड़का आया है, ओ बहू...’’

छोटी लड़की खड़ी-खड़ी मेरी ओर ताक रही थी। उसे गोद में लेकर जैसे ही दुलारने लगा कि वह फफककर रो पड़ी। उसे गोद से उतारकर कचहरी लौट आया। आँगन में शरीफा के पेड़ के नीचे आते ही किसी ने पुकारा, ‘‘देवरजी...।’’

पीछे की ओर मुड़ते ही देखा—दरवाजे की बगल में छोटा सा घूँघट डाले नीरू भाभी खड़ी हैं। चेहरे पर हँसी तैर रही है।

बोलीं, ‘‘हमारा चंडी मंडप खाली पड़ा है, आप वहीं डेरा डालिए।’’

मैंने कहा, ‘‘कचहरी में रहना ठीक होगा।’’

नीरू भाभी बोलीं, ‘‘भला वह कोई आदमी के रहने के लायक जगह है? साँप-बिच्छू हैं। आप चाय पीते हैं न?’’

आधे घंटे के बाद एक छोटा लड़का आया और धागे में बँधी एक चाबी देकर बोला, ‘‘आप मुँह-हाथ धो लें। माँ आपके लिए चाय भेज रही हैं।’’

शुरू में दो-चार दिन रैयतों को खबर भेजने में ही गुजर गए। मल्लाह टोला, मुसलमान टोला, पच्छिम टोला और मछुआ टोले के सभी आदमियों को सूचना भेजनी पड़ी कि मैं यहाँ आया हूँ। जिसके पास जो कुछ बकाया है, वह राय निवास के चंडीमंडप में आकर दे जाएँ। समूचे गाँव के लोग ज्वर से कराह रहे हैं। कुछ लोग आए और थोड़ा-बहुत देकर चले गए।

सभी ने कहा, ‘‘माताजी इतना ही लेकर अबकी रिहाई करने को कह दें, हुजूर! बीमारी के कारण अबकी हम खेत-खलिहान की देख-रेख नहीं कर सके हैं। दह की कलमी साग ही खाकर अब तक जिंदा हैं, पास में कानी कौड़ी तक नहीं है।’’

ताईजी एक ही स्थान में बैठी रहती हैं।

चंडीमंडप में बैठा-बैठा मैं उनकी चिल्लाहट सुनता रहता था, ‘‘अरी ओ बहू, कहाँ गई? मुझे कमरे के अंदर ले चलो, धूप में पीठ जलने लगी है।’’

मणि आकर कहता, ‘‘चाचाजी, खाना खाने चलिए, माँ ने थाली परोस दी है।’’

खाने बैठता तो ताईजी की दूर से कानों में आवाज आती, ‘‘किस चीज के साथ खाओगे, बेटा? न दूध है, न मछली, अभागे मुल्क में अकाल पड़ गया है। मेरी आँखों के सामने ही गृहस्थी तितर-बितर हो गई, बेटा! सबकुछ बरबाद होता जा रहा है।’’

उसके बाद कहतीं, ‘‘फटिक कहता है—‘माँ, तुम एक जगह चुपचाप बैठी रहो, तुम्हें कुछ नहीं करना पड़ेगा।’ ऐसा कहीं हो सकता है बेटा? हम लोग उस जमाने के आदमी हैं। अकेले कपड़ा सोडे में उबालकर फीचा है, धान सिझाया है, फरही भूजी है, सास-ससुर को खिलाया-पिलाया है और आज की बहुएँ ऐसी होती हैं कि दिन भर ताक-धिना-धिन नाचती-फिरती हैं। तुम आए हो, क्या खाओगे, क्या नहीं खाओगे, उस पर मैं ठहरी अंधी, आँखों से कुछ दिखाई नहीं पड़ता है, ऐसे में नाचते-गाते रहने से कहीं काम चल सकता है? थोड़ा और भात लोगे, बेटा?’’

फिर चिल्ला उठतीं, ‘‘अरी ओ बहू, कहाँ गई? ओ...’’

ताईजी रात-दिन बहू को पुकारती रहती हैं।

सास अंधी है, तीन-चार बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। उस पर रसोई बनाना, घर और दरवाजे को झाड़ना-बुहारना, धान सिझाना, फरही भुजना, बरतन माँजना—दिन भर नीरू भाभी काम में जुटी रहती हैं। दिन-रात के वक्त तालाब के किनारे लालटेन जलती हुई देख चुका हूँ। लालटेन के सामने एक घूँघट-कढ़ी धुँधली मूर्ति रहती है। बहुत रात तक कानों में बरतन माँजने की आवाज आती रहती है।

उस दिन खाकर आने के वक्त शरीफे के पेड़ के पास पहुँचा हूँगा कि दरवाजे के पास से फिर पुकार आई, ‘‘देवरजी!’’

पीछे मुड़कर देखते ही नीरू भाभी को हलके घूँघट में खड़ा पाया। हँसता हुआ चेहरा! बाएँ हाथ से घूँघट को जरा और नीचे करके बोलीं, ‘‘मेरा एक काम कर दीजिएगा, देवरजी?’’

मैं अवाक् हो गया।

‘‘क्या काम है, भाभीजी? जरूर कर दूँगा।’’ मैंने कहा।

उसी प्रकार घूँघट खींचकर हँसती हुई बोलीं, ‘‘अभी नहीं भैया, रात में। आपके पास वक्त है न?’’

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दो-चार साल नहीं, बल्कि पंद्रह साल पहले की बात है। मेरी भी उम्र उस वक्त कम थी। अब भी काम-काज के दौरान बीच-बीच में नीरू भाभी की बातें याद आती हैं। बहुत तकलीफ से गृहस्थी चल रही थी, संपन्नता का कहीं लेश नहीं था। एक ही साड़ी को सोड़े में उबालकर, फींचकर पहनना पड़ता था। रात को साड़ी को उतारकर, फींचे हुए कपड़े को पहनकर, विधवा सास के लिए जल्दी-जल्दी रसोई बनानी पड़ती थी। उसके बाद नींद टूटते ही बच्चों का झुंड अपनी फरमाइशें रखने लगता था। जेठ विदेश में जमींदार के यहाँ सिरेश्तेदार का काम करता था। सप्ताह में एक दिन घर आता था। वह अपने साथ महीने भर के लिए तेल, नमक, हल्दी, मसाला वगैरह ले आता था। कभी-कभी महीने भर तक लापता रहता था। कहाँ है, जिंदा है या नहीं, यह भी जानने का कोई उपाय नहीं। हो सकता है कि खाना-पिलाना खत्म कर आधी रात के वक्त वह तालाब के किनारे बरतन मल रही हो, बाल-बच्चों को बहलाकर सुला दिया हो और खुद भी खाना खा लिया हो। तभी गुलाम मुल्ला की गाड़ी पर माल लदवाकर फटिकदा आ जाएँ। माँ जग जाती है और रोना शुरू कर देती है।

कहती है, ‘‘मुझे ऐसी नौकरी की कोई जरूरत नहीं, मैं जिंदा हूँ या मर गई, इसकी खबर तक नहीं लेता है।’’

फटिकदा बड़ा ही मातृभक्त है। माँ के लिए पान, सुपाड़ी, ईश का गुड़ ले आया है। सबको एक-एक कर उतारते हुए कहता है, ‘‘माँ तुम कैसी॒हो?’’

बूढ़ी अपनी रुलाई को थाम नहीं पाती है। कहती है, ‘‘किसी दिन आने पर खबर मिलेगी कि मैं मर चुकी हूँ, महुआ टोले के आदमी कंधे पर रखकर मसान में जला आए हैं। तब तू मुझे नहीं देख पाएगा।’’

फटिकदा झारी से हाथ-पैर धोता हुआ कहता है, ‘‘तुम्हें क्या हुआ है?’’

‘‘क्या होगा? मेरी मौत ही हो जावे तो अच्छा हो।’’

इस बात के बाद फटिकदा के लिए कुछ कहने को बाकी नहीं रह जाता है। पूछता है, ‘‘मल्लाह टोले के केदार सरदार का क्या हाल-चाल है माँ? इस बार गठिया की बीमारी से उसकी हालत बुरी हो गई थी।’’

कुछ देर तक खामोशी छाई रहती है, उसके बाद वह फिर पूछता है, ‘‘पच्छिम टोले के उमेश ढाली को सन्निपात ज्वर हुआ था। वह कैसा है, कुछ सुना है?’’

माँ कहती है, ‘‘मैं खुद अपनी परेशानियों से मरी जा रही हूँ, ऐसी हालत में किस-किसकी खबर रखूँ? मेरा कौन अपना आदमी है, जो खबर पहुँचा जाए? कितने बेटे-बहुएँ हैं? तू विदेश में पड़ा रहता है, मेरी बहू भी जिंदा नहीं रही। एक और लड़का था, जो इस कुलक्षणा-बहू के व्यवहार से परेशान होकर वैरागी बन गया।’’

उसके बाद आँखों के आँसू पोंछकर और रुलाई रोककर कहती है, ‘‘और अभी जो है, वह बड़ी ही कुशल गृहिणी है! मुझमें इतनी हिम्मत कहाँ कि उसे हुक्म करूँ! रसोई बनाकर खिला देती है, इसी पर कितना ताना मारती है।’’

फटिकदा कहता है, ‘‘छोटी बहू तो तुम्हारी सेवा करती है, माँ!’’

बात जैसे ही कानों में पहुँचती है, सास उछल पड़ती है, जिस तरह साँप पर नजर पड़ने पर कोई चिहुँक उठता है। कहती है, ‘‘मेरी सेवा करेगी? तब तो हो चुका! मेरी जैसी सास मिली है, नहीं तो...’’

‘नहीं तो क्या,’ कहना नहीं हो सका। छोटी बहू घूँघट काढ़े गरम तेल की कटोरी लेकर आई। बोली, ‘‘आपके लिए मालिश का तेल ले आई हूँ, माँ! मालिश कर दूँ?’’

ताईजी आग-बबूला हो गईं।

बोली, ‘‘देख, अब तुझे देखकर सास की खातिर-सेवा हो रही है। रोज-रोज यह बात कहूँ तो तू यकीन नहीं करेगा, फटिक! दिन भर ‘तेल-तेल’ कह चिल्लाती रहती हूँ। बातचीत करने से तकलीफ महसूस होती है, सोचती हूँ, मालिश करने से थोड़ी राहत मिलेगी। गरम तेल लाकर दे दे तो मैं खुद ही मालिश कर लूँ, वह भी नहीं मिलता है। अभी तुझको देखकर मेरी सेवा-जतन करने आई है।’’

छोटी बहू ने घूँघट की ओट में कहा, ‘‘शाम को आपने मुझे कहा था कि सोने के पहले मालिश कर देना, इसलिए...’’

‘‘बकवास मत करो बहू, सास से बकवास करना ठीक नहीं होता है। सास उम्र में बड़ी होती है। बकवास करोगी तो मेरा क्या बिगड़ेगा, मगर तुम्हारी जीभ गलकर गिर जाएगी। मैं तुम्हारी अच्छाई के लिए ही कह रही हूँ।’’

उसके बाद थोड़ी देर तक और रो लेने के बाद बोलीं, ‘‘मेरी किस्मत ही खोटी है, वरना...। फटिक से पूछकर देख तो, वह गवाह है, लक्ष्मी जैसी मेरी बहू थी, जबान से बात निकलते-न-निकलते सब कुछ लाकर हाजिर कर देती थी। यह मेरी ही तकदीर का दोष है, नहीं तो पेट का जना लड़का कहीं वैरागी होता है? उसे कौन सा दुख था? मैंने बडा पाप किया था..."

छोटी बहू सास को पहचानती है। फिर भी गरम तेल लेकर मालिश करने को आगे बढ़ी। मगर सास ने तेल की कटोरी उठाकर आँगन में फेंक दी।

"मेरी मालिश ही अभी जरूरी है? देख रहा है न फटिक, देख ले! तू तो विदेश में रहता है, मैं घर पर कितना सुख से रह रही हूँ, तू अपनी आँखों से देख ले। मेरा लड़का विदेश से थका-माँदा आया है, भूख से मेरे लाड़ले के प्राण झटपटा रहे हैं। पहले उसके लिए रसोई बनाना जरूरी है या मेरी मालिश? अपना जना कोई बाल-बच्चा होता तो माँ का दिल समझ सकती थी।"

बहू ने कहा, "भात बन चुका है माँ, अब शोरबा पक रहा है।"

फटिक शायद सबकुछ सुन रहा था। बोला, "नहीं-नहीं, माँ मेरे लिए खाना बनाने की जरूरत नहीं, मैं केस्टोगंज में खाना खा चुका हूँ। शशी विश्वास से मुलाकात हो गई, बिना खिलाए छोड़ा नहीं। मैं कहना ही भूल गया था।"

माँ और जोर से रो पड़ी।

"खाकर तो तू आएगा ही बेटा, जानता ही है कि घर पर कोई नहीं है। मेरी आँखें ठीक रहतीं तो घर की यह हालत होती? जाएँ, सब चीज चूल्हे भाड़ में चली जाएँ। छोटा बेटा चला ही गया है, अब तू भी वैरागी हो जा! मैं अब कितने दिन जिंदा रहूँगी, इसके बाद यह पिशाचिन" अरी ओ बहू, सुन रही हो?"

हर रोज ऐसा ही होता है।

खाते वक्त मणि पूछता है, "चाचाजी, थोड़ा सा भात और दिया जाए? माँ पूछ रही है।"

रसोईघर की ओर ताकता हूँ तो वही हँसता हुआ चेहरा नजर आता है। चूँघट से चेहरा ढककर उसकी ओट से मुसकरा रही है।

मणि कहता है, "जानते हैं चाचाजी! आज माँ गिर पड़ी थी।"

"गिर पड़ी थी? अरे यह क्या? कहाँ?"

"तालाब के घाट पर। सिर से बहुत खून गिरा है।"

"दवा किसने दी? बहुत चोट लगी होगी?"

"नहीं-नहीं, माँ को चोट क्यों लगने लगी? वह क्या छोटी बच्ची हैं ? माँ क्या मुन्ना की तरह रोती हैं ? हँसने लगी। माँ ने कहा कि दादीजी से कुछ मत कहना। मैंने दादीजी से कुछ नहीं कहा। मैंने मल्लिक लोगों के बगीचे से गेंदे की पत्ती लाकर दी। माँ ने उसे पीसकर सिर पर लगा लिया।"

मैं बोयालमुड़ि में था ही कितने दिन! मेरा वह जाना पहला और आखिरी था-उस बँसवारी और चमगादड़ों के राज्य में, गठिया और टाइफाइड के पीठस्थान में, दरिद्रता और लांछना की केंद्रभूमि में। मगर बोयालमुड़ि के उस चरित्र की बातें आज तक नहीं भूला हूँ। नीरू भाभी आजीवन मेरा पीछा करती रही हैं। आँख बंद करते ही उस हँसी को मैं अपने कानों से सुनता हूँ।

ताईजी कहतीं, "मुँहजली की हँसी नहीं देखी है ? हँसी की आवाज सनते ही बदन में आग लग जाती है। फिर भी खसम अगर घर में रहता और गोद भरी रहती..."

तब रात के करीब बारह बज चुके होंगे। बिस्तर पर लेटा-लेटा मैं किताब पढ़ रहा था।

एकाएक बाहर किसी की पदचाप सुनाई पड़ी।

"देवरजी, आप सो गए क्या?" नीरू भाभी की आवाज थी।

मैं हड़बड़ाकर उठा और दरवाजा खोल दिया।

"आइए, आइए, भाभीजी ! इतनी रात हो चुकी है। मैंने सोचा, अब आप नहीं आएंगी।"

नीरू भाभी बोली, "अभी तुरंत काम से छुटकारा मिला है, भाई! बरतन माँजने के बाद रसोईघर साफ करना पड़ा, उसके बाद मुन्ना की कथरी बदलकर, सास के सिरहाने पानी का लोटा रख आई । सब कुछ करने-धरने के बाद आई हूँ। काम का कोई ओर-अंत है, भाई!"

यह कहकर नीरू भाभी हँसने लगीं। देखा, लाल किनारी की साड़ी को देह में अच्छी तरह लपेटकर आई हैं। आहिस्ता से दरवाजे को बंद कर नीरू भाभी बिस्तर के एक कोने में बैठ गईं।

मैंने कहा, "आप पाँव ऊपर कर अच्छी तरह से बिस्तर पर बैठिए, भाभीजी, मैं इस कुरसी पर बैठ जाता हूँ।"

नीरू भाभी बोली, "तब हो चुका, मेरा इतना खातिर-सम्मान मत करें। आप दो दिन के लिए आए हैं, जाकर कहिएगा कि मान-खातिर करना नहीं जानती हैं, बिल्कुल जंगली आदमी हैं। घर जाकर बोयालमुड़ि की भरपूर निंदा कीजिएगा न?"

"आपकी भला कोई निंदा कर सकता है, भाभीजी?"

नीरू भाभी बोली, "यह सब आप मुँह के सामने कह रहे हैं। मैं आप लोगों को अच्छी तरह पहचानती हूँ। कलकत्ते के रहनेवाले कहीं सीधे-सादे होते हैं?"

"कलकत्ते के आदमी बहुत बुरे होते हैं, भाभीजी?"

नीरू भाभी गाल पर हाथ रखकर हँसने लगीं, "बाप रे, मैंने ऐसी बात कब कही? मैंने आपको कब बुरा कहा? मैं रात-दिन इस चिंता में रहती हूँ कि आप पेट भर नहीं खाते हैं, भात के साथ जो चीजें देती हूँ, उससे..."

एक ही क्षण में नीरू भाभी के चेहरे का भाव बदल गया। दूर बँसवारी की ओट से एक सियार भुंकने लगा। उसके बाद बहुत से सियारों की समवेत आवाजें गूंजने लगीं। नीरू भाभी चिहुँक उठी, मानो उनकी संज्ञा लौट आई हो!

"आपने अपना काम नहीं बताया?" मैंने कहा।

नीरू भाभी बोली, "आपको जरा कष्ट देने आई हूँ, भाई! कुछ अन्यथा नहीं मानिएगा।"

"नहीं-नहीं, कष्ट की क्या बात है? आप बताइए कि क्या काम है?"

नीरू भाभी फिर भी दुविधाग्रस्त होकर बैठी रहीं।

बोली, "आप सच कह रहे हैं, कुछ अन्यथा नहीं मानिएगा? सच-सच बताइए। वादा कीजिएगा।"

"पहले बताइए कि काम क्या है?"

नीरू भाभी बोली, "नहीं भैया, मैं किसी को कष्ट देना नहीं चाहती। कष्ट देने से मेरी ही हानि होगी। कहिए, ठीक कह रही हूँ न, कि दूसरे को कष्ट देने से अगले जन्म में मुझे कष्ट उठाना पड़ेगा। कोई जाने या न जाने, मगर चित्रगुप्त के खाते में तो सब लिखा जाता है।"

मैंने कुछ और न कहकर इतना ही कहा, "आपको तो हर कोई कष्ट देता है।"

नीरू भाभी जैसे अवाक् हो गईं। "कौन मुझे कष्ट देता है?" उन्होंने पूछा।

मैंने कहा, "आपको कोई कष्ट नहीं देता?"

"देने दीजिए। मैं उसे कष्ट के रूप में लेती ही नहीं। इस जन्म में मुझे जो कष्ट देगा, अगले जन्म में उसे ही कष्ट भोगना होगा। मैंने शायद पिछले जन्म में दूसरों को कष्ट दिया था, मगर माथे के ऊपर भगवान् है और वह सबकुछ देखता रहता है। कहिए, देखता है न, देवरजी?"

उस दिन मैं ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में अनेक तर्क कर सकता था। लेकिन नीरू भाभी के सामने बैठे रहने के कारण मेरा विश्वास, अविश्वास और दुविधा न जाने एक ही क्षण में कहाँ अंतर्धान हो गईं। उस आधी रात के अँधेरे परिवेश में चारों ओर फैली बँसवारी और चमगदडों के पीठस्थान में, एक धुंधली रोशनी से भरे चंडीमंडप में बैठकर, नीरू भाभी से तर्क करने की दुष्प्रवृत्ति मेरे मन में क्यों नहीं जगी-उसका कारण संभवतः एकमात्र मैं ही जानता हूँ।

अचानक नीरू भाभी ने कहा, "खैर, अब काम की बात करनी चाहिए।"

यह कहकर उन्होंने शमीज के अंदर से तीन पैसे का एक जोड़ा पोस्टकार्ड बाहर निकाला। बोली, "राधु की माँ की मार्फत यह पोस्टकार्ड मँगाया है, मगर लिखने के अभाव के चलते पड़ा हुआ है। आप लिख दीजिएगा?"

पोस्टकोर्ड की शक्ल देखकर मुझे हैरानी हुई। बहुत दिनों से अव्यवहत पड़े रहने के कारण गर्द से मैला हो गया था। अब लिखने से स्याही फैल जाएगी।

मैंने पूछा, "इसे कब खरीदा था? कितने साल पहले?"

नीरू भाभी ने कहा, "कितने साल पहले खरीदा है, क्या याद है! मैं अगर लिखना-पढ़ना जनती तो मेरे लिए चिंता की कौन सी बात थी?"

पोस्टकार्ड को खींच-खाँचकर मैंने सीधा किया और पूछा, "किसे लिखना है?"

"मेरी माँ को।"

"पता क्या है?"

"मेरे भाई का नाम लिखिए-श्रीयुत माखनलाल भट्टाचार्य और उसके ऊपर मेरी माँ का नाम लिख दीजिए।"

"डाकघर का नाम?"

"बड़मातल्ला। घर नीबूतल्ला-बस, इतना लिखने से ही चिट्ठी पहुँच जाएगी। मैंने खुद नीबू का बिरवा लगाया है-इत्ता बड़ा-बड़ा नीबू फलता है। जानते हैं देवरजी, बासी भात में निचोड़कर खाने से कितना स्वादिष्ट खाना हो जाता है ! माखन कहता था, यह मेरा नीबू का बिरवा है और मैं कहती थी मेरा है। बस, इसी बात पर हम दोनों में झगड़ा छिड़ जाता था।"

कुछ देर चुप रहने के बाद नीरू भाभी पुनः बोलीं, “अच्छा, आप ही बताइए तो देवरजी, पिताजी ने अपने बगीचे से नीबू का पौधा लाकर मुझे दिया, मैंने अपने बगीचे में उसे रोपा, उसने सिर्फ उसे सींचा है, ऐसी हालत में बिरवा मेरा हुआ या उसका? आप ही इनसाफ करें, देवरजी!"

मैंने कहा, "पौधा लाकर आपने रोपा है, इसलिए बिरवा आपका ही हुआ।"

नीरू भाभी बोली, "मगर माखन यह बात मानने को तैयार नहीं है। उसकी देह में ज्यादा ताकत है। मुझे घूसा-धुक्का मारता था। माँ यह तब देखती नहीं, उल्टे मुझे ही डाँटती-फटकारती थीं। माँ कहती-गलती तेरी ही है, दो दिन के बाद तेरा ब्याह होगा, ससुराल की जिम्मेदारी सँभालनी होगी, पति होगा, बाल-बच्चे होंगे, फिर औरत जात होकर भाई से क्यों झगडती है? माँ की बात सुन चुके न, देवरजी, उनका इनसाफ देख लिया न?"

मैंने कहा, "आपका कहना बिल्कुल सही है।"

नीरू भाभी ने कहा, "उसके बाद आया मेरी शादी का दिन। उस समय मेरी उम्र दस साल होगी। बाहर दूलहा आया है, हारानी दूलहा देखने आई है, मैंने फुसफुसाकर हारानी से पूछा : मेरा दूलहा देखने में कैसा है ? उस समय मैं बहुत छोटी थी न, किसे दूलहा और किसे दुलहिन कहा जाता है, कुछ भी मालूम नहीं था। माँ के कानों में भनक पहुँची। इतनी बिगड़ी, इतनी कि क्या कहूँ, देवरजी! कहने लगी-मुँहजली ने हया-शरम को ताक पर रख दिया है, अभी से दुलहा-दुलहा कहना सीख गई है, ससुराल में जब लाठी-जूते बरसेंगे, सास जब पीठ पकड़कर मारेगी तो रोते-रोते दम निकलेगा। तब मेरी बात मीठी लगेगी। यह लड़की मुझे बिना मारे दम नहीं लेगी।...यही सब।"

कुछ देर तक खामोश रहने के बाद फिर कहने लगी, "दस साल की उम्र में इतनी अक्ल कहाँ से आ सकती है? अब भले ही यह बात समझ में आती है कि माँ जो कुछ कहती थी, मेरी भलाई के लिए ही कहती थी। मुझे ससुराल के लोग प्यार करें, इसीलिए उतना सिखाती थी। तब उतनी समझ ही कहाँ थी? माँ का डाँटना-फटकारना वाजिब है। माँ से बढ़कर दुनिया में कहीं कोई होता है, देवरजी?"

मैंने कहा, "आप बिल्कुल सही कह रही हैं।"

नीरू भाभी एकाएक चौंक उठीं।

बोली, "खैर, यह सब बेकार की बात है। आप लिखना शुरू कीजिए।"

"क्या लिखूँ?" मैंने पूछा।

"लिखिए, तुम्हारे लिए मेरा मन बड़ा ही उदास रहा करता है, मैं सिर्फ तुम्हारे बारे में ही सोचा करती हूँ, तुमसे मिलने की इच्छा होती है। बस, यही सब लिखिए।"

मैंने लिख दिया। पूछा, "उसके बाद?"

नीरू भाभी ने कहा, "क्या लिखा है, एक बार पढ़िए तो!"

मैंने पढ़कर सुनाया।

नीरू भाभी ने कहा, "ठीक है। अब हारानी की बातें लिखिए। हारानी कहाँ है, ससुराल में या मायके में, मायके आती है या नहीं-हारानी के कितने बाल-बच्चे हैं? और लिखिए, माखन को भेजकर एक बार मुझे वहाँ बुलवा लो। मुझे मायके जाने की बेहद इच्छा है। खर्च के लिए फिक्र करने की जरूरत नहीं, अपने हाथ का कंगन बंधक रखकर मैं गाड़ी के किराए का इंतजाम कर लूँगी। माँ के लिए मैंने एक सफेद जोड़ा बिना किनारी की धोती खरीदी है और माखन की औरत के लिए बैंगनी रंग की साड़ी। यहाँ से जाने के वक्त माखन के बाल-बच्चों के लिए चीनी की चाशनीदार दो हाँड़ी मुड़की लेती जाऊँगी। अब इस दुनिया में कितने दिन जिंदा रहना है!"

कुछ देर तक चुप्पी साधे रहने के बाद बोली, "क्या लिखा, एक बार पढ़िए तो, देवरजी।"

आहिस्ता-आहिस्ता रात काफी गहरा गई। दुबारा सियारों के झुंड ने बँसवारी से चिल्लाकर रात के एक और पहर के बीतने की सूचना दी। मैंने कहा, " और क्या लिखूं बताइए ।"

नीरू भाभी बोली, "और लिखिए..."

नीरू भाभी कहते-कहते रुक गईं। पता नहीं, कान खड़ा कर क्या सुनने लगीं।

बोली, "अभी आई, देवरजी! मुन्ना उठ गया है। चलूँ, नहीं तो बिस्तर में पेशाब कर देगा।"

यह कहकर वह हड़बड़ाकर उठी और तेज कदमों से चली गईं।

पहले-पहल जिस दिन बोयालमुड़ि गाँव पहुँचा था, बाहर से वहाँ केवल मच्छर, गठिया, टायफाइड, लाठी, खाँसी, बँसवारी और चमगादड़ पर ही नजर पड़ी थी। मगर उस क्षण, उस आधी रात के अंधेरे में, राय निवास के उस चंडीमंडप में बैठे-बैठे मुझे लगा, बोयालमुड़ि गाँव बहुत ही सुंदर है, बहुत ही मधुर। सिर्फ एक आदमी के कारण बोयालमुड़ि गाँव का सबकुछ सौंदर्यपूर्ण हो उठा है। मैं शहरी आदमी हूँ, सिनेमा, रेडियो, ट्राम-बस से भरेपूरे जंगल का निवासी हूँ, परंतु उस क्षण कलकत्ता शहर भी वैसे बोयालमुड़ि के सामने बौना, सँकरा और अनदार महसूस होने लगा।

सहसा भाभीजी फिर कमरे में आईं।

बोली, “सो गए देवरजी?"

"आपको तकलीफ हो रही है तो आज रहने दीजिए न, भाभीजी ! मैं और दो दिन ठहरूँगा, मैं आपकी चिट्ठी लिखना खत्म करने के बाद ही जाऊँगा।"

"नहीं भैया, आज बहुत दिनों के बाद चिट्ठी लिखी जा रही है। बहुत दिनों से माँ की कोई खबर नहीं मिली है, मन बहुत बेचैन रहता है। माखन चिट्ठी भेज सकता था। कहिए, वह तीन पैसा खर्च कर दो पंक्ति नहीं लिख सकता है? और होता तो मेरे दिल की बात जानता। मानती है. तेरी हालत अच्छी नहीं है, मुझे ले जाकर खिलाने के लायक पैसा तेरे पास नहीं है। कर्ज लेकर, यजमानों से भीख माँगकर तुझे इतने-इतने बाल-बच्चों की रोजी-रोटी चलानी पड़ती है, मगर बात महज तीन पैसे की है, और अगर कहता तो तीन पैसा मैं ही दे देती..."

कहते-कहते भाभीजी कुछ देर के लिए खामोश हो गईं।

उसके बाद हँसने लगीं। "असली बात यह नहीं है। असली बात क्या है, जानते हैं देवरजी?"

"क्या?" मैंने पूछा।

"असल में वह मुझसे रूठ गया है।"

"आपसे रूठ गए हैं?"

"हाँ, रूठने के अलावा दूसरी कोई बात नहीं है। मेरी ससुराल की हालत ठीक है, जेठ जमींदार के सिरेश्ते में काम करते हैं, गृहस्थी का खर्च चलाने के लिए मेरे हाथ में रुपया-पैसा रहता है-यह सब बात उन लोगों को मालूम है। मैं उनकी गृहस्थी का खर्च चलाने के लिए पैसा क्यों नहीं भेजती हूँ-असली बात यही है। सो आप तो राय निवास की हालत देख ही रहे हैं, देवरजी! जब बोलवाला था, उन दिनों की बात कुछ और थी, मगर अब तो ऐसी हालत है कि भात के साथ आपको खाने के लिए क्या दूं-मुझे यही चिंता लगी रहती है। गुड-फरी से बच्चों को भले ही बहला लूँ, मगर बूढी सास को कैसे समझाऊँ? वे कुछ भी नहीं समझती। सच कहिए तो मेरी अपनी गृहस्थी नामक कोई चीज तो है नहीं। कहिए है?"

मैंने कहा, "क्यों, आप 'नहीं' क्यों कह रही हैं, भाभीजी? आपके जेठ के बाल-बच्चे भी तो आपके अपने बाल-बच्चे जैसे हैं। वे तो आपको ही 'माँ' कहकर पुकारते हैं।"

"सो रहें, मगर अपने पेट के बच्चे और पराए के बच्चे एक जैसे तो नहीं हो सकते? मेरी जेठानी जब जिंदा थीं, वे कहा करती थीं : तू ही अच्छी है, कोई झंझट-झमेला नहीं। वही जेठानी कहाँ गई और मैं ही अब कहाँ हैं? उनके बाल-बच्चों को लेकर ही मेरी गृहस्थी है। मेरे जेठ बीच-बीच में आकर उन्हें देख सुन जाते हैं और हर महीने रुपए भेजकर निश्चिंत हो जाते हैं। मगर परेशानी तो मुझे ही उठानी पड़ती है। सो वे चाहे जेठानी के बच्चे हों, चाहे अपने पेट के ही बच्चे क्यों न हों!"

"माँ के पास जाइएगा तो बच्चों को क्या अपने साथ लेते जाइएगा? वरना उनकी देखभाल कौन करेगा?"

नीरू भाभी का चेहरा एकाएक बुझ गया। बोली, "इस पर भी मैंने बीच-बीच में सोचा-विचारा है, देवरजी! कहती जरूर हूँ कि मायके जाऊँगी, मगर इनकी देख-भाल कौन करेगा? मैं अगर एक क्षण भी उनकी आँखों से ओट हो जाऊँ तो वे बेचैन हो उठते हैं। कौन उन्हें कुरता पहना देगा, कौन खिलाएगा-पिलाएगा, कौन नहलाएगा?"

एक पल चुप रहने के बाद नीरू भाभी ने फिर कहा, "मेरी बला से, कौन उनकी चिंता में घुलता रहे? इस दुनिया की हालत आप देख ही रहे हैं, देवरजी! सभी अपने-अपने स्वार्थ की बातें सोचते हैं। वे जब बड़े हो जाएंगे तो यह बात उनकी समझ में आ जाएगी कि मैं उनकी कौन होती हूँ ! कहा जा सकता है कि कोई भी नहीं।"

कहते-कहते नीरू भाभी सहसा चुप हो गई और बोली, "लगता है, मुन्ना रो रहा है।"

मैं कान खड़ा कर सुनने लगा। बोला, "कहाँ? कहाँ कोई रो रहा है?"

"लीजिए, मुझे हमेशा ऐसा ही लगता रहता है। लगता है, सोई हालत में कहीं मुन्ना खाट से गिर न पड़े! रात में नींद नहीं आती है. दिन में चैन नहीं मिलता है, मेरी जेठानी क्या मरी, मुझे खुब कसकर डोरी से बाँधकर चली गई। इस गृहस्थी को छोड़कर कहीं भाग जाऊँ तो मेरी जान बचे। इच्छा होती है, जहाँ ये दो आँखें ले जाएँ, वहीं भागकर चली जाऊँ। मगर ये बच्चे, यह अंधी सास"आपने देखा ही है कि सामने मझे कितना डाँटती-फटकारती रहती हैं, मगर आँखों से जरा ओट होते ही पुकारने लगती हैं, बहू, ओ बहू'। बुढ़ापे में उनके मुँह से भगवान् का कभी नाम नहीं निकलता है, राधाकृष्ण का नाम नहीं जपती हैं, बस सिर्फ बहू और बहू'मानो, बहू ही उनका ध्यान, योग, तप हो!"

नीरू भाभी एकाएक बोलीं, “खैर, बेकार की बातें हैं, आप दो दिन के लिए आए हैं और आपको अपनी बातें सुनाकर कष्ट दे रही हूँ, छिह-छिह! आप सो भी नहीं सके।"

मैंने कहा, "मुझे क्या कष्ट हो रहा है? आप ही को पौ फटते-न-फटते बिछावन छोड़कर उठ जाना पड़ेगा।"

नीरू भाभी ने उसी तरह हँसते हुए कहा, "मेरी बात छोड़िए, देवरजी! मैं ठहरी तालाब का घाट, गोबर से लिपाई करते-करते और रसोई बनाते-बनाते ही इस दुनिया से चल बसँगी। मगर आज तक इसका लेखा-जोखा नहीं हआ कि गृहस्थी किसकी है और कौन खट-खटकर मर रहा है ! खैर, यह सब रहे, आप एक बार पूरी चिट्ठी पढ़ तो जाइए, सुनूँ, आपने क्या लिखा है!"

मैं पूरी चिट्ठी पढ़ गया।

नीरू भाभी ने झुककर पूरी चिट्ठी सुनी। उसके बाद चिट्ठी लेकर खड़ी हुईं। माथे के घूघट को अच्छी तरह सँभाला और बोली, "आपका इतना वक्त जाया कर दिया, मन-ही-मन बहुत गाली देते होंगे।"

"छिह-छिह, मुझे आप जैसी भाभी मिली है। लाभ तो मुझे ही हुआ है।"

"लाभ क्या हुआ है, अच्छी तरह समझती हूँ! एक दिन देवर को मन के लायक खाना खिला सकूँ, भगवान् ने इतनी सामर्थ्य भी नहीं दी है। क्या कहूँ! देखिए तो, आपकी घड़ी में क्या बजा है?"

घड़ी की ओर देखकर मैंने कहा, "दो बजने में..."

"उफ, कितना बड़ा अपराध हो गया! मेरे पाप का कोई ओर-अंत नहीं है। अच्छा, चलूँ, भाई!"

यह कहकर नीरू भाभी कमरे से बाहर जाने लगीं।

एकाएक उनके पाँव थम गए और मुड़कर बोली, "आप अगले मंगलवार को जा रहे हैं?"

"हाँ, अब आप लोगों को कितने दिनों तक कष्ट देता रहूँ?"

"इस्स, बहुत कष्ट दे रहे हैं आप! ऐसा कष्ट बीच-बीच में देते तो जीने का कम-से-कम बहाना तो मिल जाए। उसके बाद जब विवाह-शादी हो जाएगी तो बोयालमुड़ि को बिल्कुल भूल ही जाइएगा।"

पता नहीं मुझे क्या हो गया, "नहीं भाभीजी, बहुत जगह का चक्कर काट चुका हूँ-हरिद्वार, मथुरा, वृंदावन और काशी गया था, मगर बोयालमुड़ि आने पर जो लाभ हुआ, वह कहीं नहीं हुआ।"

नीरू भाभी संभवतः हँसे जा रही थीं, मगर एकाएक अपनी हँसी रोककर बोली, "अच्छा, देवरजी, एक बात कहूँ? आप बहुत सारी जगहों का चक्कर काटते रहते हैं न? बहुत से तीर्थस्थान का भ्रमण करते रहते हैं?"

मैंने कहा, "हाँ, बुआजी के साथ बहुत सी जगहों की परिक्रमा करनी पड़ती है।"

नीरू भाभी बोलीं, “आप मथुरा से हो आए हैं? काशी से? वृंदावन से? जगन्नाथ-क्षेत्र से?"

"हाँ!" मैंने कहा। "वहाँ बहुत से साधु-संन्यासी रहते हैं?"

"शायद रहते हैं, क्यों?"

नीरू भाभी तनिक असमंजस में पड़ गईं, "नहीं, यों ही कह रही थी, तीर्थस्थानों में ही साधु-संन्यासियों की भीड़ हुआ करती है।"

मेरी आँखें एकाएक नीरू भाभी की ओर चली गईं और उनके चेहरे की मुद्रा देखकर मैं अवाक् रह गया। चेहरे की वह हँसी गायब थी। नीरू भाभी का यह चेहरा मेरे लिए बिल्कुल अजनबी है। नीरू भाभी जैसे अभी महिला नहीं हैं, माँ नहीं हैं, गृहिणी नहीं हैं-यहाँ तक कि भाभी भी नहीं हैं। अचानक नीरू भाभी एक निमित्त के दरमियाना हुई नारी में रूपांतरित हो गई हैं। न केवल नारी में, बल्कि वधू के रूप में। किसी एक वैरागी की वधू के वेश में। इतने दिनों के दौरान ऐसा रूप जैसे आज पहले-पहल मेरी आँखों के सामने आया हो।

मैं थोड़ा-बहुत अनजाना जैसा हो गया था। अब नीरू भाभी कमरे के बाहर चली गईं, मेरे अंदर यह बात आई ही नहीं। उन पर तब मेरी आँखें...

हँसती हुई बोली, "यह लीजिए, मेरे दिमाग का कोई ठौर ही नहीं। मैं अब ये चिट्ठी किसके हाथ से डलवाऊँगी? यह आपके पास ही रहे, आप सवेरे जब डाकघर की ओर जाइएगा तो इसे डाल दीजिएगा। चलूँ भाई, कमरे से मुन्ने के रोने की आवाज आ रही है।"

कहा जा सकता है कि नीरू भाभी से जिंदगी में मेरी यह पहली और आखिरी मुलाकात थी। अब नीरू भाभी जिंदा हैं या नहीं, कह नहीं सकता। फटिकदा, फटिकदा की अंधी माँ-नीरू भाभी की वह दर्पण माला-जिंदा है या नहीं, यह भी नहीं कह सकता, क्योंकि बुआजी के मरते ही बोयालमुड़ि से मेरा तमाम रिश्ता टूट चुका है, लेकिन नीरू भाभी की अपनी माँ से मुलाकात नहीं हुई, यह बात मैं आज भी दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ। असल में उस दिन उतनी रात तक मैं जिस पत्र को लिखता रहा था, उसे डाकघर में डाला ही नहीं गया, क्योंकि डालने से मुझे मना किया गया था और इस मनाही का आदेश फटिकदा से ही मिला था।

आज उसी घटना को सुना रहा हूँ।

दूसरे दिन भोर के वक्त जब मेरी आँखें अच्छी तरह खुली भी नहीं थी कि राय निवास के चंडीमंडप के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकी। दरवाजा खोलने पर फटिकदा पर नजर गई। जमींदारी सिरेश्ते का काम खत्म करके ढेर सारा माल असबाब अपने साथ लिए एक पहर रात बाकी रहते ही वापस आए हैं। बदन पर कुरता डालकर मैं सुबह-सुबह पत्र डालने के उद्देश्य से बाहर निकल रहा था।

फटिकदा ने कहा, "कौन-क्या भैया?"

मैंने पूछा, “आप अभी आए?"

गुड़ की डली, सूप, चगेरी, अरबी, नारियल इत्यादि विविध प्रकार की चीजें गाड़ी पर लदी थीं। फटिकदा उन चीजों को उतरवाने में व्यस्त थे। फिर भी बोले, "वसूली का काम कैसा चल रहा है, भाई?"

एक पल चुप्पी साधने के बाद फिर बोले, "लगता है, प्रातः भ्रमण को निकल रहे हो?"

"नहीं", मैंने कहा, "नीरू भाभी की एक चिट्ठी है, पोस्ट ऑफिस में डालने जा रहा हूँ। बहुत ही जरूरी चिट्ठी है।"

"चिट्ठी! किसी चिट्ठी बताया? छोटी बहू की!"

फटिकदा के चेहरे का भाव जेसे आमूल परिवर्तित हो गया हो।

बोले, "बड़मातल्ला अपने माँ के पास भेज रही हैं ?"

"हाँ, मगर।"

वे बोले, "देखूँ।"

मैंने चिट्ठी दी। दो-चार पंक्तियाँ पढ़ते ही पता नहीं, फटिकदा को क्या हुआ कि चिट्ठी को उन्होंने चिंदी-चिंदी कर दी। बोले, "इस चिट्ठी को भेजने से कोई काम नहीं होगा, भाई कुछ अन्यथा मत लेना।"

फिर भी मेरा विस्मय दुगुना हो गया।

फटिकदा बोले, “छोटी बहू की यही नियति है। गोद में कोई बालबच्चा नहीं, स्वामी वैरागी हो गया। उस पर उनकी माँ, सो माँ चाहे धनी हो या गरीब, आखिर माँ ही होती है-वह भी..."

फटिकदा कुछ कहना चाहते थे, पर चुप हो गए।

उसके बाद बोले, "माँ भी जिंदा नहीं है। छोटी बह को इसकी सूचना कैसे दूँ, यही मन-ही-मन सोच रहा था। रैयतों के बीच जमीन बंदोबस्ती करने की खातिर बड़मातल्ला गया था, वहीं यह खबर सुनने को मिली। बहू का भाई ऐसा निष्ठुर है कि सूचना तक न दी। एक तो छोटी बहू इतनी अशांति से घिरी रहती है, उस पर अगर माँ की मृत्यु की उसे खबर सुनाऊँ तो.."

पता नहीं, नीरू भाभी को किसी दिन इसकी सूचना दी गई या नहीं। अगर पता चल गया होगा तो चेहरे की वह हँसी क्या हमेशा के लिए गायब हो गई होगी?

बोयालमड़ि से लौटने के लिए मन में इच्छा जगी थी कि नीरू भाभी से एक बार मिल आऊँ। मैंने बहुत बार मौके की तलाश की। मगर घर पर जेठ के रहने के कारण वह अवसर आया ही नहीं। कानों में सिर्फ सास की आवाज आई थी, "ओ बहू, सुन रही हो, ओ बहू, बहू ओ""

जब मैं बाहर निकलने लगा तो फटिकदा बोले, "बुआजी को साथ लेकर तुम्हें बहुत सारी जगहों पर चक्कर लगाना पड़ता है। एक काम करोगे?"

"कहिए।" मैंने कहा।

फटिकदा बोले, "मुझे वक्त नहीं मिलता है और पहले की जैसी सामर्थ्य भी नहीं रही। हमारे मालिक इस बार कामाख्या गए थे। उन्होंने बताया कि मेरे भाई की शक्ल के एक साधु को उन्होंने वहाँ घूमते देखा था। पता नहीं क्या बात है।"

कुछ देर तक चुप रहकर बोले, “केवल मेरे मालिक ही नहीं, बारइपुर के कैलास आचार्य भी पिछले साल श्रीक्षेत्र गए थे. वे भी कह रहे थे-ह-बहू तुम्हारे भाई जैसा चेहरा था, फटिक! दाढ़ी-मूंछों से भरा, पकड़ नहीं सका, खिसककर कहीं चला गया।"

"सो तुम जब भी इधर-उधर जाते हो, तो एक बार खोज-खबर लो न भाई, मेरी खातिर नहीं, फटिक की औरत की बात ही सोचकर मन में तकलीफ पहुँचती है। कुछ भी हो, है तो आखिर औरत ही।"

उसके बाद मैं मथुरा, वृंदावन, काशी, कामाख्या, हरिद्वार, प्रयाग, पुष्कर इत्यादि स्थानों से हो आया हूँ। एक बार नहीं, अनेक बार। बुआजी जब तक जीवित थीं, तब तक जाना ही पड़ता था, अब अकेला जाया करता हूँ। चाहे मंदिर, पूजा-पाठ, इत्यादि देखूँ या न देखूँ, मगर साधू-संन्यासियों को देखना नहीं छोड़ता हूँ। साधू पर नजर पड़ते ही उनसे जान-पहचान करता हूँ। कभी हाथ दिखाने के बहाने, कभी जन्म कुंडली दिखाने के बहाने और खिलापिलाकर जान-पहचान करने की कोशिश करता हूँ, हेल-मेल बढ़ाता हूँ, इसलिए कि किसी बहाने किसी स्थान में बोयालमुड़ि ग्राम के फटिकचंद्र राय के भाई, नीरू भाभी के पति का अता-पता चल जाए।

आज आबू पहाड़ आने पर भी अनेक साधुओं पर नजर पड़ी। सारा पहाड़ गुफाओं से भरा हुआ है। हर कदम पर गुफा है। साधुओं का कोई अंत नहीं। तीन सौ बरसों का नंग-धडंग साधु! कोई तानपूरा लेकर ध्रुपद गा रहा है और शिष्यगण उनके निकट बैठकर पखावज बजा रहे हैं। कहीं गुफा में बिजली की रोशनी है, रेफ्रीजरेटर है। दसों उँगलियों में दस अंगूठियाँ पहने एक डबल एम.ए. रेशमी गेरुआ वस्त्रधारी साधु तश्तरी में अंगूर लेकर खा रहे हैं और बगल में बैठी सिंधी शिष्या परम भक्ति के साथ उन्हें पंखा झल रही है।

कितनी विचित्र है यह धरती, कितने विचित्र हैं आदमी और कितना विचित्र है आदमी का यह जुलूस! मगर इस सब के बीच मैं बोयालमुड़ि जैसे उस निपट देहात की उस बहू की बातें किसी भी तरह अपने मन से निकाल नहीं पाता हूँ।

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