आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार - अनुवादक – प्रेमचंद

Azad Katha (Novel in Hindi) : Ratan Nath Sarshar

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 101

आजाद पाशा को इस्कंदरिया में कई दिन रहना पड़ा। हैजे की वजह से जहाजों का आना-जाना बंद था। एक दिन उन्होंने खोजी से कहा - भाई, अब तो यहाँ से रिहाई पाना मुश्किल है।

खोजी - खुदा का शुक्र करो कि बचके चले आए, इतनी जल्दी क्या है?

आजाद - मगर यार, तुमने वहाँ नाम न किया, अफसोस की बात है।

खोजी - क्या खूब, हमने नाम नहीं किया तो क्या तुमने नाम किया? आखिर आपने क्या किया, कुछ मालूम तो हो, कौन गढ़ फतह किया, कौन लड़ाई लड़े! यहाँ तो दुश्मनों को खदेड़-खदेड़ के मारा। आप बस मिसों पर आशिक हुए, और तो कुछ नहीं किया।

आजाद - आप भी तो बुआ जाफरान पर आशिक हुए थे!

मीडा - अजी, इन बातों को जाने दो, कुछ अपने मुल्क के रईसों का हाल बयान करो, वहाँ कैसे रईस हैं?

खोजी - बिल्कुल तबाह, फटे हाल, अनपढ़, उनके शौक दुनिया से निराले हैं। पतंगबाजी पर मिटे हुए, तरह तरह के पतंग बनते हैं, गोल, माहीजाल, माँगदार, भेड़िया, तौकिया, खरबूजिया, लँगोटिया, तुक्कल, ललपत्ता, कलपत्ता। दस-दस अशर्फियों के पेंच होते हैं। तमाशाइयों की वह भीड़ होती है कि खुदा की पनाह! पतंगबाज अपने फन के उस्ताद। कोई ढील लड़ाने का उस्ताद है, कोई घसीट लड़ाने का यकता। इधर पेंच पड़ा, उधर गोता देते ही कहा, वह काटा! लूटनेवालों की चाँदी है। एक-एक दिन में दस-दस सेर डोर लूटते हैं।

आजाद - क्यों साहब, यह कोई अच्छी आदत है?

खोजी - तुम क्या जानो, तुम तो किताब के कीड़े हो। सच कहना, पतंग लड़ाया है कभी?

आजाद - हमने पतंग की इतनी किस्में भी नहीं सुनी थीं।

खोजी - इसी से तो कहता हूँ, जाँगलू हो। भला पेटा जानते हो, किसे कहते है?

आजाद - हाँ हाँ, जानता क्यों नहीं, पेटा इसी को कहते हैं न कि किसी की डोर तोड़ ली जाय।

खोजी - भई, निरे गाउदी हो।

मीडा - अच्छा बोलो, करते क्या हैं,क्या सारा दिन पतंग ही उड़ाया करते हैं?

खोजी - नहीं साहब, अफीम और चंडू कसरत से पीते हैं।

आजाद - और कबूतरबाजी का तो हाल बयान करो।

क्लारिसा - हमने सुना है कि हिंदोस्तान की औरतें बिलकुल जाहिल होती है।

आजाद - मगर हुस्नआरा को देखो तो खुश हो जाओ।

क्लारिसा - हम तो बेशक खुश होंगे, मगर खुदा जाने, वह हमको देख कर खुश होती हैं या नहीं।

मीडा - नहीं, उम्मेद नहीं कि हम दोनों को देख कर खुश हों। जब हमको और तुमको देखेंगी तो उनको बड़ा रंज होगा।

क्लारिसा - मुझे क्यों नाहक बदनाम करती हो, मुझे आजाद से मतलब? मैं तुम्हारी तरह किसी पर फिसल पड़ने वाली नहीं।

मीडा - जरा होश की बातें करो। जब उन्होंने करोड़ों बार नाक रगड़ी तब मैंने मंजूर किया। वरना इनमें है क्या? न हसीन, न जवान, न रंगीले।

खोजी - और हम? हमको क्या समझती हो आखिर?

मीडा - तुम बड़े तरहदार जवान हो। और तो और, डील डौल में तो कोई तुम्हारा सानी नहीं।

आजाद - हम भी किसी जमाने में ख्वाजा साहब की तरह शहजोर थे, मगर अब वह बात कहाँ, अब तो मरे-बूढ़े आदमी हैं।

खोजी - अभी अभी क्या है, जवानी में हमको देखिएगा।

आजाद - आपकी जवानी शायद कब्र में आएगी।

खोजी - अजी, क्या बकते हो, अभी हमें शादी करनी है भाई।

मीडा - तुम मिस क्लारिसा के साथ शादी कर लो।

क्लारिस - आप ही को मुबारक रहें।

आजाद - भई, यहाँ तुम्हारी शादी हो जाय तो अच्छी बात है, नहीं तो लोगों को शक होगा कि इन्हें किसी ने नहीं पूछा।

खोजी - वल्लाह, यह तो तुमने एक ही सुनाई। अब हमें शादी की जरूरत आ पड़ी।

आजाद - मगर तुम्हारे लिए तो कोई खूबसूरत चाहिए जिस पर सबकी निगाह पड़े।

खोजी - जी हाँ, जिसमें आपको भी घूरा-घारी करने का मौका मिले। यहाँ ऐसे अहमक नहीं हैं। जोरू के मामले में बंदा किसी से याराना नहीं रखता।

आजाद तो सैर करने चले गए। खोजी ने मिस क्लारिसा से कहा - हमारे लिए कोई ऐसी बीवी ढूँढ़ो जिस पर सारी दुनिया के शाहजादे जान देते हों। आजाद का खटका जरूर है, यह आदमी भाँजी मारने से बाज न आएगा। यह तो इसकी आदत में दाखिल है कि जो औरत हमारे ऊपर रीझेगी उसको बहकाएगा। लेकिन यह भी जानता हूँ कि जो औरत एक बार हमें देख लोगी, उसे आजाद क्या, आजाद के बाप भी न बहका सकेंगे। मुझे देख-देख कर यह हजरत जला करते हैं।

क्लारिसा - आजाद तुम्हारी सी जवानी कहाँ से लाएँ।

खोजी - बस-बस, खुदा तुमको सलामत रखें। खुदा करे, तुमको मेरा सा शौहर मिले। इससे ज्यादा और क्या दुआ दूँ।

क्लारिसा - कहीं तुम्हारी शामत तो नहीं आई है?

खोजी - क्यों, क्या हुआ? आखिर हममे कौन बात नहीं है, कुछ मालूम हो, अंधा हूँ, काना हूँ, लूला हूँ, लँगड़ा हूँ। आखिर मुझमें कौन सी बात नहीं है?

क्लारिसा - पहले जा कर मुँह बनवाओ। चले हैं हमारे साथ शादी करने, कुछ पागल तो नहीं हो गए हो?

खोजी - पागल! ठीक, मेरे पागलपने का हाल मिस्र, अदन, रूम, हिंदोस्तान की औरतों से जा कर पूछ लो, आखिर कुछ देख कर ही तो वह सब मुझ पर आशिक हुई थीं।

इतने में मियाँ आजाद ने आ कर पूछा - क्या बातें हो रही है? क्लारिसा, तुम इनके फेर में न आना। यह बड़े चालाक आदमी हैं। यह बातों ही बातों में अपना रंग जमा लेते हैं।

खोजी - खैर, अब तो तुमने इनसे कह ही दिया, वरना आज ही शादी होती। खैर, आज नहीं, कल सही। बिना शादी किए तो अब मानता नहीं।

क्लारिसा - तो आप अपने को इस काबिल समझने लगे?

खोजी - काबिल के भरोसे न रहिएगा। मेरी जबान में जादू है।

आजाद - तुम्हारे लिए तो बुआ जाफरान की सी औरत चाहिए।

खोजी - अगर मिस क्लारिसा ने मंजूर न किया तो और कहीं शिप्पा लगाएँगे। मगर मुझे तो उम्मेद है कि मिस क्लारिसा आजकल में जरूर मंजूर कर लेंगी।

आजाद - अजी, मैंने तुम्हारे लिए वह औरत तलाश कर रखी है कि देख कर फड़क उठो, वह तुम पर जान देती है। बस, कल शादी हो जायगी।

खोजी बहुत खुश हुए। दूसरे दिन आजाद ने एक गाड़ी मँगवाई। आप दोनों मिसों के साथ गाड़ी में बैठे, खोजी को कोच-बक्स पर बैठाया और शादी करने चले। खोजी ऊपर से हटो-बचो की हाँक लगाते जाते थे। एक जगह एक बहरा गाड़ी के सामने आ गया। यह गुल मचाते ही रहे और गाड़ी उसके कल्ले पर पहुँच गई। आप बहुत ही बिगड़े, भला बे गीदी, अब और कुछ बस न चला तो आज जान देने आ गया।

आजाद - क्या है भाई, खैरियत तो है?

खोजी - अजी, आज वह बहुरूपिया नया भेस बदल कर आया, हम गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं और वह सुनता ही नहीं। तब मैं समझा कि हो न हो बहुरूपिया है। गाड़ी के सामने अड़ जाने से उसका मतलब था कि हमें पकड़ा दे। वह तो दो-चार दिन में लोट-पोट के चंगा हो जाता, मगर हमारी गाड़ी पकड़ जाती। अब पूछो कि तुमको क्या फिक्र है, हम लोग भी तो सवार हैं। इसका जवाब हमसे सुनिए। मिसें तो औरत बन कर छूट जातीं, रहे हम और तुम। तो जिसकी नजर पड़ती, हमी पर पड़ती। तुमको लोग खिदमतगार समझते, हम रईस के धोखे में धर लिए जाते। बस, हमारे माथे जाती।

इतने में दस-ग्यारह दुंबे सामने से आए। खोजी ने चरवाहे को उसी तीखी चितवन से देखा कि खा ही जायँगे। उसे इनका कैंड़ा देख कर हँसी आ गई। बस आप आग ही तो हो गए। कोचवान को डाँट बताई। रोक ले, रोक ले।

आजाद - अब क्या मुसीबत पड़ी!

खोजी - इस बदमाश से कहो बाग रोक ले, मैं उस चरवाहे को सजा दे आऊँ तो बात करूँ। बदमाश मुझे देख कर हँस दिया, कोई मसखरा समझा है।

आजाद - कौन था, कौन, जरा नाम तो सुनूँ।

खोजी - अब राह चलते का नाम मैं क्या जानूँ। कहिए, उटक्करलैस कोई नाम बता दूँ। मुझे देखा तो हँसे आप, मेरी आँखों में खून उतर आया।

आजाद - अरे यार, तुम्हें देख कर, मारे खुशी के हँस पड़ा होगा।

खोजी - भई, तुमने सच कहा, यही बात है।

आजाद - अब बताओ, हो गधे कि नहीं, जो मैं न समझाता तो फिर?

खोजी - फिर क्या, एक बेगुनाह का खून मेरी गरदन पर होता।

एकाएक कोचवान ने गाड़ी रोक ली। खोजी घबरा कर कोच-बक्स से उतरे तो पायदान से दामन अटका और मुँह के बल गिरे, मगर जल्दी से झाड़-पोंछ कर उठ खड़े हुए। आजाद और दोनों औरतें हँसने लगीं।

आजाद - अजी, गर्द-वर्द पोंछो, जरा आदमी बनो। जो दुलहिन वाले देख लें तो कैसी हो?

खोजी - अरे यार, गर्द-वर्द तो झाड़ चुका, मगर यह तो बताओ कि यह किसकी शरारत है, मैं तो समझता हूँ, वही बहुरूपिया मेरी आँखों में धूल झोंक कर मुझे घसीट ले गया। खैर, शाही हो ले। फिर बीवी की सलाह से बदमाश को नीचा दिखाऊँगा।

आजाद तो दोनों मिसों के साथ गाड़ी से उतरे और खोजी की ससुराल के दरवाजे पर आए। खोजी गाड़ी के अंदर बैठे रहे। जब अंदर से आदमी उन्हें बुलाने आया तो उन्होंने कहा - उनसे कह दो, मेरी अगवानी करने के लिए किसी को भेज दें।

आजाद ने अंदर जा कर एक पँचहत्थी मोटी-ताजी औरत भेज दी। उसने आव देखा न ताव, खोजी को गाड़ी से उतारा और गोद में उठा कर अंदर ले चली। खोजी अभी सँभलने न पाए थे कि उसने उन्हें ले जा कर आँगन में दे मारा और ऊपर से दबाने लगी। खोजी चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे - अम्माँजान माफ करो, ऐसी शादी पर खुदा की मार, मैं क्वाँरा ही रहूँगा।

आजाद - क्या है भई, यह रो क्यों रहे हो?

खोजी - कुछ नहीं भाईजान, जरा दिल्लगी हो रही थी।

आजाद - अम्माँजान का लफ्ज किसी ने कहा था?

खोजी - तो यहाँ तुम्हारे सिवा हिंदोस्तानी और कौन है।

आजाद - और आप कहाँ के रहने वाले हैं?

खोजी - मैं तुर्क हूँ।

आजाद - अच्छा, जा कर दुलहिन के पास बैठो। वह कब से गरदन झुकाए बैठी है बेचारी, और आप सुनते ही नहीं।

खोजी ऊपर गए तो देखा, एक कोने में दुशाला ओढ़े दुलहिन बैठी है। आप उसके करीब जा कर बैठ गए। क्लारिसा और मीडा भी जरा फासले पर बैठी थीं। ख्वाजा साहब दून की लेने लगे। हमारे अब्बाजान सैयद थे और अम्माँजान काबुल के एक अमीर की लड़की थीं। उनके हाथ-पाँव अगर आप देखतीं तो डर जातीं। अच्छे-अच्छे पहलवान उनका नाम सुन कर कान पकड़ते थे। सीना शेर का सा था, कमर चीते की सी, रंग बिलकुल जैसे सलजम, आँखों में खून बरसता था। एक दफे रात को घर में चोर आया, मैं तो मारे डर के सन्नाटा खींचे पड़ रहा, मगर वाह री अम्माँजान, चोर की आहट पाते ही उस बदमाश को जा पकड़ा। मैंने पुकार कर कहा, अम्माँजान, जाने न पाए, मैं भी आ पहुँचा। इतने में अब्बाजान की आँख खुल गई। पूछा - क्या है? मैंने कहा - अम्माँजान से और एक चोर से पकड़ हो रही है। अब्बाजान बोले - तो फिर दबके पड़े रहो, उसने चोर को कत्ल कर डाला होगा। मैं जो जाके देखता हूँ तो लाश फड़क रही है। जनाब, हम ऐसों के लड़के हैं।

आजाद - तभी तो ऐसे दिलेर हो, सुअरों के सुअर ही होते हैं।

खोजी - (हँस कर) मिस क्लारिसा हमारी बातों पर हँस रही हैं। अभी हम इनकी नजरों में नहीं जँचते।

आजाद - दुलहिन आज बहुत हँसती हैं। बड़ी हँसमुख बीवी पाई।

खोजी - उर्दू तो यह क्या समझती होंगी।

आजाद - आप भी बस चोंगा ही रहे। अरे बेवकूफ, इन्हें हिंदी-उर्दू से क्या ताल्लुक।

खोजी - बड़ी खराबी यह है कि यहाँ जिस गली-कूचे में निकल जायँ, सबकी नजर पड़ा चाहे और लोग मुझसे जला ही चाहें, इसको मैं क्या करूँ। अगर इनको सैर कराने साथ न ले चलूँ तो नहीं बनती, ले चलूँ तो नहीं बनती। कहीं मुझ पर किसी परीछम की निगाह पड़े और वह घूर-घूर कर देखे, तो यह समझें कि कोई खास वजह है। अब कहिए, क्या किया जाय?

आजाद - दुलहिन मुँह बंद किए क्यों बैठी हैं, नाक की तो खैर है?

खोजी - क्या बकते हो मियाँ, मगर अब मुझे भी शक हो गया, तुम लोग जरा समझा दो भाई कि नाक दिखा दें।

मिस क्लारिसा ने दुलहिन को समझाया, तो उसने चेहरे को छिपा कर जरा सी नाक दिखा दी। खोजी ने जा कर नाक को छूना चाहा तो उसने इस जोर के चपत दी कि खोजी बिलबिला उठे।

आजाद - खुदा की कसम, बड़े बेअदब हो।

खोजी - अरे मियाँ, जाओ भी। यहाँ होश बिगड़ गए, तुमको अदब की पड़ी है, मगर यार, यह बुरा सगुन हुआ।

आजाद - अरे गाउदी, यह नखरे है, समझा!

खोजी - (हँस कर) वाह रे नखरे!

आजाद - अच्छा भाई, तुम कभी लड़ाई पर भी गए हो?

खोजी - उँह, कभी की एक ही कही, क्या नन्हें बने जाते हैं? अरे मियाँ, शाही में गुलचले मशहूर थे, अब भी जो चाँदमारी हुई, उसमें हमीं बीस रहे।

आजाद - मिस मीडा हँस रही हैं, गोया तुम झूठे हो।

खोजी - यह अभी छोकरी है, यह बातें क्या जानें। अब्बाजान को खुदा बख्शे। दो ऐसे गुर बता गए हैं जो हर जगह काम आते हैं। एक तो यह कि जब किसी से लड़ाई हो तो पहला वार खुद करना, बात करते ही चाँटा देना।

आजाद - आप तो कई जगह इस नसीहत को काम में ला चुके हैं। एक तो बुआ जाफरान पर हाथ उठाया था। दूसरे जैनब की नाक में दम कर दिया था।

खोजी - अब मैं अपना सिर पीट लूँ, क्या करूँ। जिस-जिस जगह अपनी भलमनसी से शरमिंदा हुआ था, उन्हीं का जिक्र करते हो। वह तो कहिए, खैरियत है कि दुलहिन उर्दू नहीं समझतीं, वरना नजरों से गिर जाता।

यह फिकरा सुन कर दुलहिन मुसकिराईं तो ख्वाजा साहब अकड़ कर बोले - वल्लाह, वह हँसमुख बीवी पाई है कि जी खुश हो गया। बात नहीं समझती, मगर हँसने लगती है। भई, जरा आँखें भी देख लेना।

आजाद - जनाब, दोनों आँखें हैं, और बिलकुल हाथी की सी!

खोजी - बस यही मैं चाहता हूँ, वह क्या जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें हो! तारीफ यह है कि जरा-जरा सी आँखें हो और हँसने के वक्त बिलकुल बंद हो जायँ, मगर यार, गला कैसा है?

आजाद - ऐं, क्या हिंदोस्तान में गाने की तालीम दोगे?

खोजी - ऐ है, समझते तो हो ही नहीं, मतलब यह कि गरदन लंबी है या छोटी? पहले समझ लो, फिर एतराज जड़ो।

आजाद - गरदन, सिर और धड़ सब सपाट है?

खोजी - यह क्या, तो क्या, छोटी गरदन की तारीफ है?

आजाद - और क्या, सुना नहीं, 'छोटी गरदन, तंग पेशानी, हसीन औरत की यही निशानी।' क्या महावरे भी भूल गए?

खोजी - महावरे कोई हमसे सीखे, आप क्या जानें, मगर खुदा के लिए जरा मुझसे अदब से बातें कीजिए, वरना यहाँ मेरी किरकिरी होगी। और यह आप उनके करीब क्यों बैठे हैं, हटके बैठिए जरा।

आजाद - क्यों साहब, आप अपनी ससुराल में हमारी बेइज्जती करते हैं? अच्छा! खैर, देखा जाएगा।

खोजी - आप तो दिल्लगी में बुरा मान जाते हैं और मेरी आदत कंबख्त ऐसी खराब है कि बेचुहल किए रहा नहीं जाता।

आजाद - खैर चलो, होगा कुछ। मगर यार, यहाँ एक अजीब रस्म है, दुलहिन अपने दूल्हा के दोस्तों से हँस-हँस कर बात करती है।

खोजी - यह तो बुरी बात है, कसम खुदा की, अगर तुमने इनसे एक बात भी की होगी तो करौली ले कर अभी-अभी काम तमाम कर दूँगा।

आजाद - सुन तो लो, जरा सुनो तो सही।

खोजी - अजी बस, सुन चुके। इस वक्त आँखों में खून उतर आया, ऐसी दुलहिन की ऐसी-तैसी, और कैसी दबकी-दबकाई बैठी हैं, गोया कुछ जानती ही नहीं।

आजाद - हर मुल्क की रस्म अलग अलग है। इसमें आप ख्वाहमख्वाह बिगड़ रहे हैं।

खोजी - तो आप आँखें क्या दिखाते हैं? कुछ आपका मुहताज या गुलाम हूँ? लूट का रुपया मेरे पास भी है, यहाँ से हिंदोस्तान तक अपनी बीवी के साथ जा सकता हूँ। अब आप तो जायँ, मैं जरा इनसे दो-दो बातें कर लूँ, फिर शादी की राय पीछे दी जायगी।

आजाद उठने ही को थे कि दुलहिन ने पाँव से दामन दबा दिया।

आजाद - अब बताओ, उठने नहीं देतीं, मैं क्या करूँ।

खोजी - (डपट कर) छोड़ दो।

आजाद - छोड़ दो साहब, देखो तुम्हारे मियाँ खफा होते हैं।

खोजी - अभी मुझे मियाँ न कहिए, शादी-बयाह नाजुक मामला है।

आजाद - पहले आपकी इनसे शादी हो जाय, फिर अगर बंदा आँख उठाके देखे तो गुनहगार।

खोजी - अच्छा मंजूर, मगर इतना समझा देना कि यह बड़े कड़े खाँ हैं, नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देते। मगर आप क्यों समझायेंगे। मैं खुद ही क्यों न कह दूँ। सुनो बी साहब, हमारे साथ चलती हो तो शर्ते माननी होंगी। एक यह कि किसी गैर आदमी को सूरत न दिखाओ। दूसरी यह कि मुझे जो कोई औरत देखती है, पहरों घूरा करती है, टकटकी बँध जाती है। ऐसा न हो कि तुम्हें सौतिया डाह होने लगे। भई आजाद, जरा इनको इनकी जबान में समझा दो।

आजाद - आप जरा एक मिनट के लिए बाहर चले जाइए, तो मैं सब बातें समझा दूँ।

खोजी - जी, दुरुस्त यह भर्रे लौंडों को दीजिएगा, आप ऐसे छोकड़े मेरी जेब में पड़े हैं। और सुनिए, क्या उल्लू समझा है! अब तुम जाओ, हम इनसे दो-दो बात कर लें।

आजाद बाहर चले गए तो खोजी पलंग पर दुलहिन के पास बैठे और बोले - भई, अब तो घूँघट उठा लो, जब हम तुम्हारे हो चुके तो हमसे क्या शर्म, क्यों तरसाती हो?

जब दुलहिन ने अब भी घूँघट न खोला तो खोजी जरा और आगे खिसक गए - जानेमन, इस वक्त शर्म को भून खाओ, क्यों तरसाती हो, अरे, अब कब लग तरसाए रखियो जी! कब लग तरसाए रखियो जी!

दो-तीन मिनट तक खोजी ने गा-गा कर रिझाया मगर जब यों भी दुलहिन ने न माना तो आपने उसके घूँघट की तरफ हाथ बढ़ाया। एकाएक दुलहिन ने उनका हाथ पकड़ लिया। अब आप लाख जोर मारते हैं, मगर हाथ नहीं छूटता। तब आप खुशामद की बातें करने लगे। छोड़ दो भाई, भला किसी गरीब का हाथ तोड़ने से तुम्हें क्या मिलेगा। और यह तो तुम जानती हो कि मैं तुमसे जोर न करूँगा। फिर क्यों दिक करती हो, मेरा तो कुछ न बिगड़ेगा, अगर तुम्हारे मुलायम हाथ दुखने लगेंगे।

यह कह कर खोजी दुलहिन के पैरों पर गिर पड़े और टोपी उतार कर उसके कदमों पर रख दी। उनकी हरकत पर दुलहिन को हँसी आ गई।

खोजी - वाह हँसी आई, नाक पर आई, बस अब मार लिया है, अब इसी बात पर गले लग जाओ।

दुलहिन ने हाथ फैला दिए। खोजी गले मिले तो दुलहिन ने इतने जोर से दबाया कि आप चीख पड़े। छोड़ दो, छोड़ दो, चोट आ जायगी। मगर अब की दुलहिन ने उन्हें उठा कर दे मारा और छाती पर सवार हो गई। मियाँ खोजी अपनी बदनसीबी पर रोने लगे। इनको रोते देख कर उसने छोड़ दिया, तब आप सोचे कि बिना अपनी जवाँमरदी दिखाए, इस पर रोब न जमेगा। बहुत होगा, मार डालेगी, और क्या। आपने कपड़े उतारे और पैंतरा बदल कर बोले - सुनो जी, हम शाहजादे हैं। तलवार के धनी, बात के शूर, नाक पर मक्खी बैठ जाय तो तलवार से नाक उड़ा दें, समझीं? अब तक मैं दिल्लगी करता था। तुम औरत, मैं मर्द, अगर अब की तुमने जरा भी गुस्ताखी की तो आग हो जाऊँगा। ले अब घूँघट उठा दो, वरना खैरियत नहीं है। यह कहीं ऊँचा तो नहीं सुनती? (तालियाँ बजा कर) अजी सुनती हो, बुर्का उठाओ।

ख्वाजा साहब बका किए, मगर वहाँ कुछ असर न हुआ। तब आप बिगड़ गए और फिर पैंतरे बदलने लगे। अब की दुलहिन ने उन्हें बगल में दबा लिया; अब आप तड़प रहे हैं; दाँत पीसते हैं, मगर गरदन नहीं छूटती। तब आपने झल्ला कर दाँत काट खाया। काटना था कि उसने जोर से एक थप्पड़ दिया। ख्वाजा साहब का मुँह फिर गया। तब आप कोसने लगे - खुदा करे तेरे हाथ टूटें। हाय, अगर इस वक्त खुदा एक मिनट के लिए जोर दे-दे तो सुर्मा बन डालूँ।

मिस क्लारिसा और मीडा एक झरोखे से यह कैफियत देख रही थीं, जब खोजी पिट-पिटा कर बाहर निकले तो क्लारिसा ने कहा - मुबारक हो।

आजाद - कहिए, दुलहिन कैसी है? यार, हो खुशनसीब!

खोजी - खुदा करे, आप भी ऐसे खुशनसीब हों।

आजाद - हमने तो बड़ी तारीफ सुनी थी, मगर तुम कुछ रंजीदा मालूम होते हो, इसका क्या सबब?

खोजी - भाईजान, वहाँ तो फौजदारी हो गई। औरत क्या, देवनी है, वल्लाह, कचूमर निकल गया।

आजाद - आप तो हैं पागल, यह इस मुल्क का रिवाज है कि पहले दिन दो घंटे तक दुलहिन मियाँ को मारती है, काट खाती है, फिर मियाँ बाहर आता है, फिर जाता है।

खोजी - अजी, वहाँ तो मार-पीट तक हो गई, जी में तो आया था कि उठा कर दे मारूँ; मगर औरत के मुँह कौन लगे। देखे, अब की कैसी गुजरती है, या तो वही नहीं या हमी नहीं।

आजाद - क्या सच-मुच फौजदारी ही पर आमादा हो? भाई, करौली अपने साथ न ले जाना, और जो हो सो हो।

खोजी - अजी, यहाँ हाथ क्या कम हैं! करौली मर्द के लिए हैं, औरत के लिए करौली की क्या जरूरत?

आजाद - बस, अब की जाके मीठी-मीठी बातें करो। हाथ जोड़ो, पैर दबाओ, फिर देखिए, कैसी खुशी होती हैं। अब देर होती है, जाइए।

ख्वाजा साहब कमरे में गए और दुलहिन के पाँव दबाने लगे।

दुलहिन - हमको छोड़ कर चले तो न जाओगे।

खोजी - अरे, यह तो उर्दू बोल लेती हैं, यह क्या माजरा है!

दुलहिन - मियाँ, कुछ न पूछो। हमको एक हब्शी बहका कर बेचने के लिए लिए जाता था। बारे खुदा-खुदा करके यह दिन नसीब हुआ।

खोजी - अब तक तुम हमसे साफ-साफ न बोलीं! ख्वाहमख्वाह किसी भले आदमी को दिक करने से फायदा?

दुलहिन - तुम्हारे साथी आजाद ने हमें जैसा सिखाया वैसा हमने किया।

खोजी - अच्छा आजद। ठहर जाओ बचा, जाते कहाँ हो। देखो तो कैसा बदला लेता हूँ।

यह कह कर खोजी ने अपनी टोपी दुलहिन के कदमों पर रख दी और बोले - बीबी, बस अब यह समझो कि मियाँ नहीं, खिदमतगार है। मगर कब तक? जब तक हमारी हो कर रहो। उधर आपने तेवर बदले, इधर हम बिगड़ खड़े हुए। मुझसे बढ़ कर मुरव्वतदार कोई नहीं, मगर मुझसे बढ़ कर शरीर भी कोई नहीं; अगर किसी ने मुझसे दोस्ती की तो उसका गुलाम हो गया, और अगर किसी ने हेकड़ी जताई तो मुझसे ज्यादा पाजी कोई नहीं। डंडे से बात करता हूँ। देखने में दुबला हूँ, मगर आज तक किसी ने मुझे जेर नहीं किया। सैकड़ों पहलवानों से लड़ा, और हमेशा कुश्तियाँ निकालीं।

दुलहिन - तुम्हारे पहलवान होने में शक नहीं, वह तो डील-डौल ही से जाहिर है।

खोजी - इसी बात पर अब घूँघट हटा दो।

दुलहिन - यह घूँघट नहीं है जी, कल से हमारी मूँछ में दर्द है।

खोजी - काहे में दर्द है, क्या कहा?

दुलहिन - ऐ, मूँछ तो कहा, कानों की ठेठियाँ निकाल।

खोजी - मूँछ क्या! बकती क्या हो? औरत हो या मर्द? खुदा जाने, तुम मूँछ किसको कहती हो।

दुलहिन - (खोजी की मूँछ पकड़ कर) इसे कहते हैं, यह मूँछ नहीं हैं?

खोजी - अल्लाह जानता है, बड़ी दिल्लगीबाज हो, मैं भी सोचता था कि क्या कहती हैं।

दुलहिन - अल्लाह जानता है, मेरी मूँछों में दर्द है।

ख्वाजा साहब ने गौर करके देखा तो जरा-जरा सी मूँछें। पूछा - आखिर बताओ तो जानेमन, यह मूँछ क्या है?

दुलहिन - देखता नहीं, आँखें फूट गई हैं क्या?

खोजी - ऐ तो बीबी, आखिर यह मूँछ कैसी? कहता तो कहता, सुनता सिड़ी हो जाता है। औरत हो या मर्द। खुदा जाने, तुम मूँछ किसे कहती हो?

दुलहिन - तो तुम इतना घबराते क्यों हो? मैं मरदानी औरत हूँ।

खोजी - भला औरत और मूँछ से क्या वास्ता?

दुलहिन - ऐ है; तुम तो बिलकुल अनाड़ी हो, अभी तुमने औरतें देखी कहाँ?

खोजी - ऐसी औरतों से बाज आए।

एकाएक दुलहिन ने घूँघट उठा दिया तो खोजी की जान निकल गई। देखा तो वही बहुरूपिया। बोले - जी चाहता है कि करौली भोंक दूँ, कसम खुदा की, इस वक्त यही जी चाहता है।

बहुरूपिया - पहले उस पारसल के रुपए लाइए जिसका लिफाफा आपने अपने नाम लिखवा लिया था। बस, अब दाएँ हाथ से रुपए लाइए!

खोजी - ओ गीदी, बस अलग ही रहना, तुम अभी मेरे गुस्से से वाकिफ नहीं हो?

बहुरूपिया - खूब वाकिफ हूँ। कमजोर, मार खाने की निशानी।

खोजी - हम कमजोर हैं? अभी चाहूँ तो गरदन तोड़के रख दूँ। जा कर होटल-वालों से तो पूछो कि किस जवाँमरदी के साथ मिस्र के पहलवानों को उठा के दे मारा।

बहुरूपिया - अच्छा, अब तुम्हारी कजा आई है। ख्वाहमख्वाह हाथ-पाँव के दुश्मन हुए हो।

खोजी - सच कहता हूँ, अभी तुमने मेरा गुस्सा नहीं देखा, मगर हम-तुम परदेशी हैं, हमको-तुमको मिल-जुल कर रहना चाहिए। तुम न जाने कैसे हिंदोस्तानी हो कि हिंदोस्तानी का साथ नहीं देते।

बहुरूपिया - पारसल का रुपया दाहिने हाथ से दिलवाइए तो खैर।

खोजी - अजी, तुम भी कैसी बातें करते हो; 'हिसाबे दोस्ताँ दर दिल अगर हम बेवफा समझे।' पारसल का जिक्र कैसा, बजाज की दुकान पर हम भी तो तुम्हारी तरफ से कुछ पूज आए थे? कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे।

इतने में आजाद दोनों लेडियों के साथ अंदर आए।

आजाद - भाई, शादी मुबारक हो। यार, आज हमारी दावत करो।

खोजी - जहर खिलाओ और दावत माँगो। यह जो हमने आपको लाखों खतरों से बचाया उसका यह नतीजा निकला। अब हम या तो यहीं नौकरी कर लेंगे, या फिर रूम वापस जाएँगे। वहाँ के लोग कद्रदाँ हैं, दो-चार शेर भी कह लेंगे तो खाने भर को बहुत है। खैर, आदमी कुछ खो कर सीखता है। हम भी खो कर सीखे, अब दुनिया में किसी का भरोसा नहीं रहा।

क्लारिसा - यह मिठाइयाँ न देने की बातें हैं, यह चकमे किसी और को देना, हम बे-दावत लिए न रहेंगे।

खोजी - हाँ साहब, आपको क्या। खुदा करे, जैसी बीवी हमने पाई, वैसा ही शौहर तुम पाओ, अब इसके सिवा और क्या दुआ दूँ।

मीडा - हमने तो बहुत सोच-समझ कर तुम्हारी शादी तजवीज की थी।

खोजी - अजी, रहने भी दो। हमें आप लोगों से कोई शिकायत नहीं, मगर आजाद ने बड़ी दगा दी। हिंदोस्तान से इतनी दूर आए। तब मौका पड़ा, इनके लिए जान लड़ा दी। पोलैंड की शाहजादी के यहाँ हमीं काम आए, वरना पड़े-पड़े सड़ जाते। इन सब बातों का अंजाम यह हुआ कि हमीं पर चकमे चलने लगे। अब चाहे जो हो, हम आजाद की सूरत न देखेंगे।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 102

चौथी के दिन रात को नवाब साहब ने सुरैया बेगम को छेड़ने के लिए कई बार फीरोजा बेगम की तारीफ की। सुरैया बेगम बिगड़ने लगीं और बोली - अजब बेहूदा बातें हैं तुम्हारी, न जाने किन लोगों में रहे हो कि ऐसी बातें जबान से निकलती हैं।

नवाब - तुम नाहक बिगड़ती हो, मैं तो सिर्फ उनके हुस्न की तारीफ करता हूँ।

सुरैया - ऐ, तो कोई ढूँढ़के वैसी ही की होती।

नवाब - तुम्हारे यहाँ कभी-कभी आया-जाया करती है?

सुरैया - मुझे उस घर का हाल क्योंकर मालूम हो। मगर जो तुम्हारे यही लच्छन हैं तो खुदा ही मालिक है। आज ही से ये बातें शुरू हो गईं। हाँ, सच है, घर की मुर्गी साग बराबर। खैर, अब तो मैं आ कर फँस ही गई, मगर मुझे वही मुहब्बत है जो पहले थी। हाँ, अब तुम्हारी मुहब्बत अलबत्ता जाती रही।

नवाब - तुम इतनी समझदार हो कर जरा सी बात पर इतना रूठ गईं। भला अगर मेरे दिल में यही होता तो मैं तुम्हारे सामने उनकी तारीफ करता, मुझे कोई पागल समझा है? मतलब यह था कि दो घड़ी की दिल्लगी हो, मगर तुम कुछ और ही समझीं। खुद याद रखना कि जब तक मेरी और तुम्हारी जिंदगी है, किसी और औरत को बुरी नजर से न देखूँगा। आगे देखूँ तो शरीफ नहीं।

सुरैया - वह औरत क्या जो अपने शौहर के सिवा किसी मर्द को बुरी नजरों से देखे और वह मर्द क्या जो अपनी बीवी के सिवा पराई बहू-बेटी पर नजर डाले।

नवाब - बस, यही हमारी भी राय है और जो लोग दस-दस शादियाँ करते हैं उनको मैं अहमक समझता हूँ।

सुरैया - देखना इन बातों को भूल न जाना।

सुबह को दुलहिन के मैके से महरी आई और अर्ज की कि आज साली ने दूल्हा और दुलहिन को बुलाया है, पहला चाला है।

बेगम - (नवाब साहब की माँ) तुम्हारे यहाँ वह लड़की तो बड़े ही गजब की है, फीरोजा, किसी से दबती ही नहीं!

महरी - हुजूर, अपना-अपना मिजाज है।

बेगम - अरे, कुछ तो शर्म-हया का खयाल हो। बेचारी फैजन को बात-बात पर बनाती थी। वह लाख गँवारों की सी बातें करे, फिर इससे क्या, जो अपने यहाँ आए उसकी खातिर करनी चाहिए, न कि ऐसा बनाए कि वह कभी फिर आने का नाम ही न ले।

खुरशेद - (नवाब की बहन) हमको तो उनकी बातों से ऐसा मालूम होता था कि (दबे दाँतों) नेक नहीं, आगे खुदा जाने।

बेगम - यह न कहो बेटा, अभी तुमने देखा क्या है।

नवाब - (इशारा करके) उनकी महरी बैठी है, उसके सामने कुछ न कहो।

बेगम साहब ने सुरैया बेगम को उसी वक्त रुखसत किया। शाम को दूल्हा भी चला। मुसाहबों ने उसकी रियासत और ठाट-बाट की तारीफ करनी शुरू की -

बबरअली - हुजूर, इस वक्त ईरान के शाहजादे मालूम होते हैं।

नूरखाँ - इसमें क्या शक है, यह मालूम होता है कि कोई शाहजादा मसनद लगाए बैठा है।

बबरअली - हुजूर, आज जरा चौक की तरफ से चलिएगा। जरा इधर-उधर कमरों से तारीफ की आवाज तो निकले।

नवाब - क्या फायदा, जिसके बीवी हो, उसको इन बातों में न पड़ना चाहिए।

नूरखाँ - ऐ हुजूर, यह तो रियासत का तमगा ही है।

ईदू - ऐ हुजूर, यह तो गरीब आदमियों के लिए है कि एक से ज्यादा न हो, दूसरी बीवी को क्या खिलाएगा, खाक! मगर अमीरों का तो यह जौहर है। बादशाहों के आठ-आठ नौ-नौ से ज्यादा महल होते थे, एक-दो की कौन कहे। जिसे खुदा देता है वही इस काबिल समझा जाता है।

इन लोगों ने नवाब साहब को ऐसा चंग पर चढ़ाया कि चौक ही से ले गए, मगर नवाब साहब ने गरदन जो नीची की तो चौक भर में किसी कमरे की तरफ देखा ही नहीं। इस पर मुसाहबों ने हाशिए चढ़ाए - ऐ हुजूर, एक नजर तो देख लीजिए, कैसा कटाव हो रहा है। सारी खुदाई का हाल तो कौन जाने, मगर इस शहर में तो कोई जवान हुजूर के चेहरे-मोहरे को नहीं पाता। बस, यही मालूम होती है कि शेर कछार से चला आता है।

नवाब साहब दिल में सोचते जाते थे कि इन खुशामदियों से बचना मुश्किल है। इनके फंदे में फँसे और दाखिल जहन्नुम हुए। हमने ठान ली है कि अब किसी औरत को बुरी निगाह से न देखेंगे। याहें हँसी-दिल्लगी की और बात है।

नवाब साहब ससुराल में पहुँचे, तो बाहर दीवानखाने में बैठे। नाच शुरू हुआ और मुसाहबों ने तायफों की तारीफ के तुल बाँध दिए - जनाब, ऐसी गाने वाली अब दूसरी शहर में नहीं है, अगर शाही जमाना होता तो लाखों रुपए पैदा कर लेती और अब भी हमारे हुजूर के जहर-शिनास बहुत हैं, मगर फिर भी कम हैं। क्यों हुजूर, होली गाने को कहूँ?

नवाब - जो जी चाहे, गाएँ।

मुसाहब - हुजूर, फरमाते हैं, यह जो गायँगी, अपना रंग जमा लेंगी, मगर होली हो तो और भी अच्छा।

नवाब - हमने यह नहीं कहा, तुम लोग हमें जलील करा दोगे।

मुसाहब - क्या मजाल हुजूर, हुजूर का नमक खाते हैं, हम गुलामों से यह उम्मीद? चाहे सिर जाता रहे, मगर नमक का पास जरूर रहेगा, और यह तो हुजूर, दो घड़ी हँसने-बोलने का वक्त ही है।

गनीमत जान इस मिल बैठने को,
जुदाई की घड़ी सिर पर खड़ी है।

इसके बाद नवाब साहब अंदर गए और खाना खाया। साली ने एक भारी खिलअत बहनोई को और एक कीमती जोड़ा बहन को दिया। दूसरे दिन दूल्हा-दुलहिन रुखसत हो कर घर गए।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 103

कुछ दिन तो मियाँ आजाद मिस्र में इस तरह रहे जैसे और मुसाफिर रहते हैं, मगर जब कांसल को इनके आने का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें अपने यहाँ बुला कर ठहराया और बातें होने लगी।

कांसल - मुझे आपसे सख्त शिकायत है कि आप यहाँ आए और हमसे न मिले। ऐसा कौन है जो आपके नाम से वाकिफ न हो, जो अखबार आता है उसमें आपका जिक्र जरूर होता है। वह आपके साथ मसखरा कौन है? वह बौना खोजी?

आजाद ने मुसकिरा कर खोजी की तरफ इशारा किया?

खोजी - जनाब, वह मसखरे कोई और होंगे और खोजी खुदा जाने, किस भकुए का नाम है। हम ख्वाजा साहब हैं और बौने की एक ही कही। हाय, मैं किससे कहूँ कि मेरा बदन चोर है।

आजाद - क्या अखबारों में ख्वाजा साहब का जिकर रहता है?

कांसल - जी हाँ, इनकी बड़ी धूम है, मगर एक मुकाम पर तो सचमुच इन्होंने बड़ा काम कर दिखाया था। आपका दौलतखना किस शहर में है जनाब? मुझे हैरत तो यह है कि इतने नन्हें-नन्हें तो आपके हाथ-पाँव, लड़ाई में आप किस बिरते पर गए थे।

खोजी - (मुसकिरा कर) यही तो कहता हूँ हुजूर कि मेरा बदन चोर है, देखिए जरा हाथ मिलाइए। हैं फौलाद की अँगुलियाँ या नहीं? अगर अभी जोर करूँ तो आपकी एक-आध अँगुली तोड़ कर रख दूँ।

थोड़ी देर तक वहाँ बातचीत करके आजाद चले तो खोजी ने कहा - यह आपकी अजीब आदत है कि गैरों के सामने मुझे जलील करने लगते हैं। अगर मुझे गुस्सा आ जाता और मैं मियाँ कांसल के हाथ-पाँव तोड़ देता तो बताओ कैसी ठहरती! मैं मारे मुरव्वत के तरह देता जाता हूँ, वरना मियाँ की सिट्टी-पिट्टी भूल जाती।

आजाद - अजी, ऐसी मुरव्वत भी क्या जिससे हमेशा जूतियाँ खानी पड़े। कई जगह आप पिटे, मगर मुरव्वत न छोड़ी। एक दिन इस मुरव्वत की बदौलत आप कहीं काँजी-हौस न भेजे जाइए। अच्छा, यह अब यह पूछता हूँ कि जब सारे जमाने ने मेरा हाल सुना तो क्या हुस्नआरा ने न सुना होगा?

खोजी - जरूर सुना होगा भाई, अब आज के आठवें दिन शादी लो। मगर उस्ताद, दो-एक दिन बंबई में जरूर रहना। जरा बेगम साहब से बातें होंगी।

आजाद - भाई, अब तो बीच में ठहरने का जी नहीं चाहता।

खोजी - यह नहीं हो सकता, इतनी बेवफाई करना मुनासिब नहीं, वह बेचारी हम लोगों की राह देख रही होंगी।

आजाद - अच्छा तो यह सोच लो कि अगर उन्होंने पूछा कि खोजी के साथ कोई औरत क्यों नहीं आई तो क्या जवाब दोगे? हमारी तो सलाह है कि किसी को यहीं से फाँस ले चलो?

खोजी - नहीं जनाब, मुझे यहाँ की औरतें पसंद नहीं। हाँ, अपने वतन में हो तो मुजायका नहीं।

आजाद - अच्छा कैसी औरत चाहते हो?

खोजी - बस यही कि उम्र ज्यादा न हो। और शक्ल-सूरत अच्छी हो।

आजाद - ऐसी एक औरत तो हुस्नआरा के मकान के पास है। उसी दर्जी की बीवी है जो उनके मकान के सामने रहता है। रंगत तो साँवली है, मगर ऐसी नमकीन कि आपसे क्या कहूँ और अभी कमसिन। बहुत-बहुत तो कोई 40-42 की होगी।

खोजी - भला मीडा में और उसमें क्या फर्क है?

आजाद - यह उससे दो-चार बरस कमसिन हैं, बस, और तो कोई फर्क नहीं। हाँ, यह गोरी हैं और उसका रंग साँवला है।

खोजी - भला नाम क्या है?

आजाद - नाम है शिताबजान।

खोजी - तब तो भाई, हम हाजिर हैं। मगर पक्की-पोढ़ी बात तो हो ले पहले।

आजाद - आपको इससे क्या वास्ता? कुछ तो समझ के हमने कहा है! हमारे पास उसका खत आया था कि अगर ख्वाजा साहब मंजूर करें तो मैं हाजिर हूँ।

खोजी - तब तो भाई, बनी-बनाई बात है, खुदा ने चाहा तो आज के आठवें दिन शिताबजान हमारी बगल में होंगी।

आजाद - शाम को कांसल से मिल कर चले चलो आज ही।

खोजी - कांसल! हमको शिताबजान की पड़ी है, हमारे सामने खत लिखके भेज दो। मजमून हम बताएँगे।

आजाद कलम-दावत ले कर बैठे। खोजी ने खत लिखवाया और जा कर उसे डाकखाने में छोड़ आए। तब मिस मीडा से जा कर बोले - अब हमारी खुशामद कीजिए। आज के आठवे दिन हमारे यहाँ आपकी दावत होगी। अच्छे से अच्छे किस्म की ब्रांडी तय कर रखिए। शिताबजान के हाथ पिलवाऊँगा।

मीडा - शिताबजान कौन! क्या तुम्हारी बहन का नाम है?

खोजी - अरे तोबा! शिताबजान से मेरी शादी होने वाली है। उसने मुझे भेजा था कि रूम जा कर नाम करो तो फिर निकाह होगा। अब मैं वहाँ से नाम करके लौटा हूँ, पहुँचते-पहुँचते शादी होगी।

मीडा - क्या सिन होगा? बेवा तो नहीं है?

खोजी - खुदा न करे, दर्जी अभी जिंदा है?

मीडा - क्या मियाँवाली है, और आप उसके साथ निकाह करेंगे? सिन क्या है?

खोजी - अभी क्या सिन है, कल की लड़की है, कोई पैंतालिस बरस की हो शायद।

मीडा - बस, पैंतालीस ही बरस की? तब तो उसे पालना पड़ेगा!

खोजी - हम तो किस्मत के धनी हैं।

मीडा - भला शक्ल-सूरत कैसी है?

खोजी - यह आजाद से पूछो। चाँद में मैल है, उसमें मैल नहीं, मैं तो आजाद को दुआएँ देता हूँ जिनकी बदौलत शिताबजान मिलीं।

यहाँ से खोजी होटलवालों के पास पहुँचे और उनसे भी वही चर्चा की। अजी, बिलकुल साँचे की ढली है, कोई देखे तो बेहोश हो जाय। अब आजाद के सामने उसे थोड़ा ही आने दूँगा, हरगिज नहीं।

खानसामा - तुमसे बातचीत भी हुई या दूर ही से देखा?

खोजी - जी हाँ, कई बार देख चुका हूँ। बातें क्या करती है, मिश्री की डली घोलती है।

होटलवालों ने खोजी को खूब बनाया। इतनी देर में आजाद ने जहाज का बंदोबस्त किया और एक रोज दोनों परियों और ख्वाजा साहब के साथ जहाज पर सवार हुए। सवार होते ही खोजी ने गाना शुरू किया -

अरे मल्लाह लगा किश्ती मेरा महबूब जाता है,
शिताबो की तमन्ना में मुझे दिल लेके आता है।
मगर छोड़ा विदेशी होके ख्वाजा ने गए लड़ने,
शिताबो के लिए जी मेरा कल से तिलमिलाता है।

आजाद ने शह दे-दे कर और चंग पर चढ़ाया। ज्यों-ज्यों उनकी तारीफ करते थे, वह और अकड़ते थे। जहाज थोड़ी ही दूर चला था कि एक मल्लाह ने कहा - लोगों, होशियार! तूफान आ रहा है। यह खबर सुनते ही कितनों ही के तो होश उड़ गए और मियाँ खोजी तो दोहाई देने लगे - जहाज की दोहाई! बेड़े की दोहाई! समुद्र की दोहाई! हाय शिताबजान, अरे मेरी प्यारी शिताब, दुआ माँग।

यह कह कर आपने अकड़ कर आजाद की तरफ देखा। आजाद ताड़ गए कि इस फिकरे की दाद चाहते हैं। कहा - सुभान अल्लाह, शिताब जान के लिए शिताब, क्या खूब।

खोजी - इस फन में कोई मेरी बराबरी क्या करेगा भला। उस्ताद हूँ, उस्ताद।

आजाद - और लुत्फ यह है कि ऐसे नाजुक वक्त में भी नहीं चूकते।

खोजी - या खुदा, मेरी सुन ले। यारों, रो-रो कर उसकी दरगाह से दुआ माँगो कि ख्वाजा बच जायँ और शिताबजान से ब्याह हो। खूब रोओ।

आजाद - जनाब, यह क्या सबब है कि आप सिर्फ अपने लिए दुआ माँगते हैं, और बेचारों का भी तो खयाल रखिए।

इतने में आँधी आ गई। आजाद तो जहाज के कप्तान के साथ बातें कर रहे थे। खोजी ने सोचा, अगर जहाज डूब गया तो शिताबजान क्या करेगी? फौरन अफीम की डिबिया ली और खूब कस कर कमर में बाँध कर बोले - लो यारो, हम तो तैयार हैं। अब चाहे आँधी आए या बगूला। तूफान नहीं, तूफान का बाप आए तो क्या गम है।

जहाज वाले तो घबराए हुए थे कि नहीं मालूम, तूफान क्या गुल खिलाए, मगर ख्वाजा साहब तान लगा रहे थे -

शिताबो की तमन्ना में मेरा दिल तिलमिलाता है।

आजाद - ख्वाजा साहब, आप तो बेवक्त की शहनाई बजाते हैं। पहले तो रोए-चिल्लाए और अब तान लगाने लगे।

एक ठाकुर साहब भी जहाज पर सवार थे। खोजी को गाते देख कर समझे कि यह कोई बड़े वली हैं। कदमों पर टोपी रख दी और बोले - साईं जी, हमारे हक में दुआ कीजिए।

खोजी - खुश रहो बाबा, बेड़ा पार है।

आजाद ने खोजी के कान में कहा - यार, यह तो अच्छा उल्लू फँसा! रास्ते में खूब दिल्लगी रहेगी।

ठाकुर साहब बार-बार खोजी से सवाल करते थे और मियाँ खोजी अनाप-शनाप जवाब देते थे।

ठाकुर - साईं जी, जुमे के दिन सफर करना कैसा है?

खोजी - बहुत अच्छा दिन है।

ठाकुर - और जुमेरात?

खोजी - उससे भी अच्छा।

आजाद - ठाकुर साहब, आप कब से सफर कर रहे हैं?

ठाकुर - जनाब, कोई चालीस बरस हुए।

आजाद - चालीस बरस सफर करते हो गए और अभी तक आप अच्छे और बुरे दिन पूछते जाते हैं?

ठाकुर - सनीचर के दिन आप सफर करके देख लें।

खोजी - हमने इस बारे में बहुत गौर किया है। बुरी साइत का सफर कभी पूरा नहीं होता।

ठाकुर - साईं जी, कुछ और नसीहत कीजिए, जिससे मेरा भला हो।

खोजी - अच्छा सुनो, पहली बात तो यह है कि जिस दिन चाहो, सफर करो, मगर पहर रात रहे से, तुम्हारी मंजिल दूनी हो जायगी। दूसरी नसीहत यह है कि एक बीवी से ज्यादा के साथ शादी न करना, अगर वह मर जाय तो दूसरी शादी का खयाल भी दिल में न लाना। तीसरी बात यह है कि रात को दो घंटे तक ठंडे पानी में रह कर खुदा की याद करना। गरमी, जाड़ा, बरसात तीनों मौसिमों में इसका खयाल रखना। चौथी नसीहत यह है कि अच्छे खाने और अच्छे कपड़े से परहेज रखना। खाने को जौ की रोटी और पीने को औटाया हुआ पानी काफी है।

खोजी ने यह नसीहतें कुछ इस तरह कीं, गोया वह पहुँचे हुए फकीर हैं। ठाकुर ने अपनी नोटबुक पर ये सब बातें लिख लीं और बोला - साईं जी, आपसे मुलाकात करना चाहूँ तो कैसे करूँ?

खोजी - बस, लखनऊ में शिताबजान का मकान पूछते हुए चले आना।

ठाकुर - शिताबजान कौन है?

खोजी - कोई हों, तुम्हें इससे मतलब?

यों ही ठाकुर साहब को बनाते हुए रास्ता कट गया और बंबई सामने से नजर आने लगा। खोजी की बाँछें खिल गईं, चिल्ला कर कहा - यारों, जरा देखना, शिताबजान की सवारी तो नहीं आई है। करीमबख्श नामी महरी साथ होगी। अतलस का लहँगा है, कहारों की पगड़ियाँ रँगी हुई हैं, मछलियाँ जरूर लटक रही होंगी। अरे महरी, महरी! क्या बहरी है?

लोगों ने समझाया कि साहब, अभी बंदरगाह तो आने दो। शिताबजान यहाँ से क्योंकर सुन लेंगी? बोले - अजी, हटो भी, तुम क्या जानो। कभी किसी पर दिल आया हो तो समझो? अरे नादान, इश्क के कान दो कोस तक की खबर लाते हैं, क्या शिताबजान ने आवाज न सुनी होगी? वाह, भला कोई बात है! मगर जवाब क्यों न दिया? इसमें एक लिम है, वह यह कि अगर आवाज के साथ ही आवाज का जवाब दें तो हमारी नजरों से गिर जायँ। मजा जब है कि हम बौखलाए हुए इधर-उधर ढूँढ़ते और आवाज देते हों और वह हमें पीछे से एक धौल जमाएँ और तिनक कर कहें - मुड़ीकाटा, आँखों का अंधा नाम नैनसुख, गुल मचाता फिरता है, और हम धौल खा कर रहे कि देखिए सरकार, अब की धौल लगाई तो खैर जो अब लगाई तो बिगड़ जायगी। इस पर वह झल्ला कर इस घुटी हुई खोपड़ी पर तड़ातड़ दो-चार जमा दें, तब मैं हँस कर कहूँ, तो फिर दो-एक जूते भी लगा दो, इसके बगैर तबीयत बेचैन है।

आजाद - बिलफेल कहिए तो मैं ही लगा दूँ।

खोजी - अजी नहीं, आपको तकलीफ होगी।

आजाद - अल्लाह, किस मकुए को जरा भी तकलीफ हो।

खोजी - मियाँ, पहले मुँह धो आओ, इन खोपड़ियों के सुहलाने के लिए परियों के हाथ चाहिए, तुम जैसे देवों के नहीं।

इतने में समुद्र का किनारा नजर आया, तो खोजी ने गुल मचा कर कहा - शिताबजान साहब, आपका यह गुलाम, फर्जिदाना आदाब अर्ज...।

इतना कह चुके थे कि लोगों ने कहकहा लगाया और खोजी की समझ में कुछ न आया कि लोग क्यों हँस रहे हैं।

आजाद से पूछा कि इस बेमौका हँसी का क्या सबब है? आजाद ने कहा - इसका सबब है कि आपकी हिमाकत। क्या आप शिताब के बेटे हैं जो उनको फर्जिदाना आदाब बजा लाते हैं, जोरू को कोई इस तरह सलाम करता है?

खोजी - (गालों पर थप्पड़ लगा कर) अररर, गजब हो गया, बुरा हुआ। वल्लाह, इतना जलील हुआ कि क्या कहूँ। भाई, इश्क में होश-हवास कब ठीक रहते हैं, अनाप-शनाप बातें मुँह से निकल ही जाती हैं, मगर खैर! अब तो पालकी साफ-साफ नजर आती है। वह देखिए, महरी सामने डटी खड़ी है।

अख्ख़ाह, अब तो महरी भी बाढ़ पर है!

जहाज ने लंगर डाला और उतरने लगे। ख्वाजा साहब दूर ही से शिताबजान को ढूँढ़ने लगे। आजाद दोनों लेडियों को ले कर खुश्की पर आए तो बंबई के मिरजा साहब ने दौड़ कर उन्हें गले लगाया। फिर दोनों परियों को देखकर ताज्जुब से बोले - इन दोनों को कहाँ से लाए, क्या परिस्तान की परियाँ हैं।

आजाद ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि खोजी कफन फाड़ कर बोल उठे - इधर शिताबजान, इधर, ओ करमबक्श करमफोड़ कमबख्ती के निशान, यहाँ क्यों नहीं आती! दूर ही से बुत्ते बताती हैं!

मिरजा - किसको पुकारते हो ख्वाजा साहब, मैं बुला लूँ। क्या ब्याह लाए हो कोई परी? मगर उस्ताद नाम तो हिंदोस्तान का है, जरा दिखा तो दो।

आजाद ने खैर-आफियत पूछी और दोनों आदमियों में शाहजादा हुमायूँ फर की चरचा होने लगी। फिर लड़ाई का जिक्र छिड़ गया।

उधर ख्वाजा साहब ने अफीम घोली और चुस्की लगा कर गुल मचाया - शिताबजान प्यारी, मैं तरे वारी, जल्द से आ री, सूरत दिखा री, आँसू हैं जारी। जानमन, जिस बिस्तर पर तुम सोई थीं उसको हर रोज सूँघ लिया करता हूँ और उसी खुशबू की पर जिंदगी का दार मदार है।

तेरी-सी न बू किसी में पाई
सारे फूलों को सूँघता हूँ।

मिरजा साहब ने कहा - आखिर यह माजरा क्या है। जनाब ख्वाजा साहब, क्या सफर में अक्ल भी खो आए, यह आपको क्या हो गया है? अगर सच्चे आशिक हो तो फरियाद कैसी?

खोजी - जनाब, कहने और करने में जमीन-आसमान का फर्क है।

मिरजा -

कब अपने मुँह से आशिक शिकवए बेदाद करते हैं;

दहाने गैर से वह मिस्ल नै फरियाद करते हैं।

खोजी - मुझसे कहिए तो ऐसे दो करोड़ शेर पढ़ दूँ, आशिकी दूसरी चीज है, शायरी दूसरी चीज।

मिरजा - दो करोड़ शेर तो दस करोड़ बरस तक भी आपसे न पढ़े जाएँगे। आप दो ही चार शेर फरमाएँ।

खोजी - अच्छा तो सुनिए और गिनते जाइए, आप भी क्या कहेंगे -

यही कह-कहके हिजरे यार में फरियाद करते है;
वह भूले हमको बैठे हें जिन्हे हम याद करते हैं।

असीराने कुहन पर ताजा वह बेदाद करते हैं,
रही ताकत न जब उड़ने की तब आजाद करते हैं।

रकम करता हूँ जिस दम काट तेरी तेग अब्रू की;
गरीबाँ चाक अपना जामए फौलाद करते हैं।

सिफत होती है जानाँ जिस गजल में तेरे अब्रू की;
तो हम हर बैत पर आँखों से अपनी साद करते हैं।

अब भी न कोई शरमाए तो अंधेर है, दो करोड़ शेर न पढ़ कर सुनाऊँ तो नाम बदल डालूँ। हाँ, और सुनिए -

नहीं हम याद से रहते हैं गाफिल एकदम हमदम;
जो बुत को भूल जाते हैं खुदा को याद करते हैं।

आजाद - इस वक्त तो मिरजा साहब को आपने खूब आड़े हाथों लिया।

खोजी - अजी, यहाँ कोई एक शेर पढ़े तो हम दस करोड़ शेर पढ़ते हैं। जानते हो कहाँ के रहनेवाले हैं हम! बंबईवालों को हम समझते क्या हैं।

इतने में औरत ने खोजी को इशारे से बुलाया तो उनकी बाँछें खिल गईं। बोले - क्या हुक्म है हुजूर?

औरत - ऐ दुर हुजूर के बच्चे! कुछ लाया भी वहाँ से, या खाली हाथ झुलाता चला आता है?

खोजी - पहले तुम अपना नाम तो बताओ?

औरत - ऐ लो, पहरों से नाम रट रहा है और अब पूछता है, नाम बता दो। (धप जमा कर) और नाम पूछेगा?

खोजी - ऐ, तुमने तो धप लगानी शुरू की, जो कहीं अब की हाथ उठाया तो बहुत ही बेढब होगी।

आजाद - अरे यार, यह क्या माजरा है? बेभाव की पड़ने लगी।

खोजी - अजी, मुहब्बत के यही मजे हैं भाईजान। तुम यह बातें क्या जानो।

मिरजा - यह आपकी ब्याहता हैं या सिर्फ मुलाकात है?

शिताब - हमारे बुजुर्गों से यह रिश्ता चला आता है।

मिरजा - तो यह कहो कि तुम इनकी बहन हो।

खोजी - जनाब, जरा सँभल कर फरमाइएगा। मैं आपका बड़ा लिहाज करता हूँ।

शिताब - ऐ, तो कुछ झूठ भी है। आखिर आप मेरे हैं कौन? मुफ्त में मियाँ बनने का शौक चर्राया है?

खोजी - अरे तो निकाह तो हो ले। कसम खुदा की, लड़ाई के मैदान में भी दिल तुम्हारी ही तरफ रहता था।

आजाद - हमेशा याद करते थे बेचारे!

जब आजाद लेडियों के साथ गाड़ी में बैठ गए तब मिरजा ने खोजी से कहा - चलिए, वह लोग जा रहे हैं।

खोजी - जा रहे हैं तो जाने दीजिए। अब मुद्दत के बाद माशूक से मुलाकात हुई है, जरा बातें कर लूँ। आप चलिए, मैं अभी हाजिर होता हूँ।

वह लोग इधर रवाना हुए, उधर शिताबजान ने खोजी को दूसरी गाड़ी में सवार कराया और घर चलीं। ख्वाजा साहब खुश थे कि दिल्लगी में माशूक हाथ आया। घर पहुँच कर शिताबजान ने खोजी से कहा - अब कुछ खिलवाइए, बहुत भूख लगी है।

खोजी - भई वाह, मैं सिपाही आदमी, मेरे पास सिवा ढाल-तलवार, बरछी-कटार के और क्या है? या तमगे हैं, सो वह मैं किसी को दे नहीं सकता।

शिताब - कमाई करने गए थे वहाँ, या रास्ता नापने? तमगे ले कर चाटूँ, तलवार से अपनी गरदन मार लूँ, छुरी भोंक के मर जाऊँ? छुरी-तलवार से कहीं पेट भरता है?

खोजी - अभी कुछ खिलवाओ-पिलवाओ, जब हम रिसालदारी करेंगे तो तुमको मालोमाल कर देंगे। अब परवाना आया चाहता है। लड़ाई में मैंने जो बड़े-बड़े काम किए वह तो तुम सुन ही चुकी होगी। दस हजार सिपाहियों की नाक काट डाली। उधर दुश्मन की फौज ने शिकस्त पाई, इधर मैंने करौली उठाई और मैदान में खट से दाखिल। जिसको देखा कि बिलकुल ठंडा हो गया है, उसकी नाक उड़ा दी। जब तक लड़ाई होती रहती थी, बंदा छिपा बैठा रहता था; कभी पेड़ पर चढ़ गया, कभी किसी झोपड़े में लुक गया। मुफ्त में जान देना कौन सी अक्लबंदी है। मगर लड़ाई खतम होते ही मैदान में जा पहुँचता था। जिस शहर में जाता था, शहर भर की औरतें मेरे पीछे पड़ जाती थीं, मगर मैं किसी की तरफ आँख उठा कर भी न देखता था। गरज की लड़ाई में मैंने बड़ा नाम किया, यह मेरी ही जूतियों का सदका है कि आजाद पाशा बन बैठे। वह तो जानते भी न थे कि लड़ाई किस चिड़िया का नाम है।

शिताब - मगर यह तो बताओ कि बंदूक से नाक क्योंकर काटी जाती है?

खोजी - तुम इन बातों को क्या जानो, यह सिपाहियों के समझने की बातें हैं।

इधर आजाद मिरजा साहब के घर पहुँचे तो बेगम साहब फूली न समाईं। खिदमतगार ने आजाद को झुक कर सलाम किया। दोनों दोस्त कमरे में जा कर बैठे। मिरजा साहब ने घर में जा कर देखा तो बेगम साहब पलंग पर पड़ी थीं। महरी से पूछा तो मालुम हुआ, आज तबियत कुछ खराब है। बाहर आ कर आजाद से कहा - घर में सोती हैं और तबियत भी अच्छी नहीं। मैंने जगाना मुनासिब न समझा। आजाद समझे कि बीमारी महज बहाना है, हमसे कुछ नाराज हैं।

इतने में एक चपरासी ने आ कर मिरजा साहब को एक लिफाफा दिया। युनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने कुछ सलाह करने के लिए उन्हें बुलाया था। मिरजा साहब बोले - भाई, इस वक्त तो जाने को जी नहीं चाहता। मुद्दत क बाद एक दोस्त आए हैं, उनकी खातिर-तवाजो में लगा हुआ हूँ। मगर जब आजाद ने कहा कि आप जाइए, शायद कोई जरूरी काम हो, तो मिरजा साहब ने गाड़ी तैयार कराई और रजिस्ट्रार से मिलने गए।

इधर आजाद के पास जैनब ने आ कर सलाम किया।

आजाद - हुजूर के जान-माल की दुआ देती हूँ। हुजूर तो अच्छे रहे?

आजाद - बेगम साहब क्या अभी आराम ही में हैं? अगर इजाजत हो तो सलाम कर आऊँ।

जैनब - हुजूर के लिए पूछने की जरूरत नहीं, चलिए।

आजाद जैनब के साथ अंदर गए तो कमरे में कदम रखते ही महरी ने कहा - वहीं बैठिए, कुर्सी आती है।

आजाद - सरकार कहाँ हैं? बेगम साहब की खिदमत में आदाब अर्ज हैं।

बेगम - बंदगी। आपको जो कुछ कहना हो कहिए, मुझे ज्यादा बातें करने की फुरसत नहीं।

आजाद - खुदा खैर करे, आखिर किस जुर्म में यह खफगी है? कौन सा गुनाह हुआ?

बेगम - बस जबान न खुलवाइए, गजब खुदा का, एक खत तक भेजना कसम था, कोई इस तरह अपने अजीजों को तड़पाता है?

आजाद - कुसूर माफ कीजिए, बेशक गुनाह तो हुआ, मगर मैंने सोचा कि खत भेज कर मुफ्त में मुहब्बत बढ़ाने से क्या फायदा, न जाने जिंदा आऊँ या न आऊँ, इसलिए ऐसी फिक्र करूँ कि उनके दिल से भूल ही जाऊँ। अगर जिंदगी बाकी है तो चुटकियों में गुनाह माफ करा लूँगा।

इस फिकरे ने बेगम साहब के दिल पर बड़ा असर किया। सारा गुस्सा हवा हो गया। जैनब को नीचे भेजा कि हुक्का भर लाओ, खवास को हुक्म दिया कि पान बनाओ। तब मैदान खाली पा कर चिक उठा दी और बोलीं - वह कहाँ गए हैं?

आजाद - किसी साहब ने बुलाया है, उनसे मिलने गए हैं। खुदा ने मुझे यह खूब मौका दिया।

बेगम - क्या कहा, क्या कहा! जरा फिर तो कहिएगा, जरा सनूँ तो किस चीज का मौका मिला?

आजाद - यही हुजूर को सलाम करने का।

बेगम - हाँ, यों बातें कीजिए, अदब के साथ। हुस्नआरा के नाम तुमने कोई खत भेजा था? मुझे लिखा है कि जिस दिन आएँ, फौरन तार से इत्तला देना।

आजाद - अब तो यही धुन है कि किसी तरह वहाँ पहुँचूँ और जिंदगी के अरमान पूरे करूँ।

बेगम - जी नहीं,पहले आपका इम्तहान होगा। आप रंगीन आदमी ठहरे, आपका एतबार ही क्या?

आजाद - ओफ्फोह! यह बदगुमानी। खैर साहब अख्तियार है, मगर हमारे साथ चलने का इरादा है या नहीं?

बेगम - नहीं साहब, यह हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं। बहनोई के साथ जवान सालियाँ सफर नहीं करती। वक्त पर उनके साथ आ जाऊँगी।

आजाद - खैर, इतनी इनायत क्या कम है। अब आप जा कर परदे में बैठिए, मैं दीवाना हो जाऊँगा।

बेगम - क्यों साहब, यही आपका इश्क है? इसी बूते पर इम्तहान दीजिएगा।

बेगम साहब ने वहाँ ज्यादा देर तक बैठना मुनासिब न समझा। आजाद भी बाहर चले गए। खिदमतगार ने हुक्का भर दिया। पलंग पर लेटे-लेटे हुक्का पीने लगे तो खयाल आया कि आज मुझसे बड़ी गलती हुई, अगर मिरजा साहब मुझे घूरते देख लेते तो अपने दिल में क्या कहते। अब यहाँ ज्यादा ठहरना गलती है। खुदा करे, आज के चौथे दिन वहाँ पहुँच जाऊँ। बेगम साहब ने मुझे हिकारत की निगाह से देखा होगा।

वह अभी यही सोच रहे थे कि जैनब ने बेगम साहब का एक खत ला कर उन्हें दिया। लिखा था- अभी-अभी मैंने सुना है कि आपके साथ दो लेडियाँ आई हैं। दोनों कमसिन हैं और आप भी जवान। आग और फूस का साथ क्या? अगर वाकई तुमने इन दोनों के साथ शादी कर ली है तो बड़ा गजब किया, फिर उम्मेद न रखना कि हुस्नआरा तुमको मुँह लगाएँगी। तुमने सारी की-कराई मिहनत तक खाक में मिला दी। और अगर शादी नहीं की तो यहाँ लाए क्यों? तुम्हें शर्म नहीं आती? हुस्नआरा गरीब तो तुम्हारी मुहब्बत की आग में जले और तुम सौतों को साथ लाओ -

क्या कहर हैं क्योंकर न उठे दर्द जिगर में,
मेरी तो बगल खाली है और आपके बर में।
एक आन भी मुझसे न मिलो आठ पहर में,
घर छोड़के अपना रहो यों और के घर में।

तुम और गैरों को साथ लाओ, तुम्हारी तरह हुस्नआरा भी अब तक शादी कर लेतीं तो तुम क्या बना लेते? तुमको इतना भी ख्याल न रहा कि हुस्नआरा के दिल पर क्या असर होगा! तुम्हारे हजारों चाहने वाले हैं तो उसके गाहक भी अच्छे-अच्छे शाहजादे हैं। मैंने ठान ली है कि हुस्नआरा को आपके हाल से इत्तला दूँ, और कह दूँ कि अब वह आजाद नहीं रहे, अब दो-दो बगल में रहती हैं, उस पर बहू-बेटियों पर बुरी निगाह रखते हैं। अगर तुमने मेरा इतमिनान न कर दिया तो पछताओगे।

यह खत पढ़ कर आजाद ने जैनब से कहा - क्यों, तुम इधर की उधर लगा-लगा कर आपस में लड़वाती हो? तुमने उनसे जाके क्या कह दिया, मुझसे भी पूछ लिया होता।

जैनब - ऐ हुजूर, तो मेरा इसमें क्या कुसूर। मुझसे जो सरकार ने पूछा, वह मैंने बयान कर दिया। इसमें बंदी ने क्या गुनाह किया!

आजाद - खैर, तो हुआ सो हुआ, लाओ कलम-दावात।

आजाद ने उसी वक्त इस खत का जवाब लिखा - बेगम साहब की खिदमत में आदाब-अर्ज करता हूँ। आप मुझ पर बेवफाई का इलजाम लगाती हैं। आपको शायद यकीन न आएगा, मगर अकसर मुकामों पर ऐसी-ऐसी परियाँ मुझ पर रीझी हें कि अगर हुस्नआरा का सच्चा इश्क न होता तो मैं हिंदोस्तान में आने का नाम न लेगा, मगर अफसोस है कि मेरी कुल मिहनत बेकार गई। मेरा खुदा जानता है, जिन-जिन जंगलों, पहाड़ों पर मैं गया, कोई कम गया होगा। हफ्तों एक अँधेरी कोठरी मे कैद रहा, जहाँ किसी जानदार की सूरत नजर न आती थी। और यह सब इसलिए कि एक परी मुझसे शादी करना चाहती थी और मैं इन्कार करता था कि हुस्नआरा को क्या मुँह दिखाऊँगा। यह दोनों लेडियाँ जो मेरे साथ हैं, उन्होंने मुझ पर बड़े-बड़े एहसान किए हैं। गाढ़े वक्त में काम आई हैं, वरना आज आजाद यहाँ न होता। मगर इतने पर भी आप नाराज हो रही हैं, इसे अपनी बदनसीबी के सिवा और क्या कहूँ। खुदा के लिए कहीं हुस्नआरा को न लिख भेजना। और अगर यही चाहती हो कि मैं जान दूँ तो साफ-साफ कह दो। हुस्नआरा को लिखने से क्या फायदा। और क्या लिखूँ। तबीयत बेचैन है।

बेगम साहब ने यह खत पढ़ा तो गुस्सा ठंडा हो गया, छमछम करती हुई परदे के पास आ कर खड़ी हुई तो देखा - आजाद सिर पर हाथ रख कर रो रहे हैं। आहिस्ता से पुकारा - आजाद!

जैनब - हुजूर, देखिए कौन सामने खड़ा है? जरी उधर निगाह तो कीजिए।

बेगम - आजाद, जो रोए तो हमीं को है-है करे। जैनब, जरा सुराही तो उठा ला, मुँह पर छींटे दे।

जैनब - हुजूर, क्या गजब कर रहे हैं, वह सामने कौन खड़ा है?

आजाद - (बेगम साहब की तरफ रुख कर के) क्या हुक्म है?

बेगम - मेरा तो कलेजा धक-धक कर रहा है।

आजाद - कोई बात नहीं। खुदा जाने, इस वक्त क्या याद आया। आपको तकलीफ होती है, आप जायँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ।

बेगम - अब चोंचले रहने दो, मुँह धो डालो, वाह, मर्द हो कर आँसू बहाते हो? तुमसे तो छोकरियाँ अच्छी। यह तुम लड़ाई में क्या करते थे?

आजाद - जलाओ और उस पर ताने दो।

बेगम - क्या खूब, जलाने की एक ही कही। जलाते तुम हो या मैं? एक छोड़ दो-दो। वहाँ से लाए, ऊपर से बातें बनाते हो, मुँह दिखाने काबिल नहीं रखा अपने को हुस्नआरा ने उड़ती खबर पाई थी कि आजाद ने किसी औरत को ब्याह लिया तो पछाड़ें खाने लगीं। एक तुम हो कि जोड़ी साथ लाए और ऊपर से कहते हो, जलाओ। तुम्हें शर्म भी नहीं आती?

आजाद - क्या टेढ़ी खीर है, न खाते बने, न छोड़ते बने।

बेगम - तो फिर साफ-साफ क्यों नहीं बता देते?

आजाद - ब्याहता बीवी हैं दोनों, और क्या कहें।

बेगम - अच्छा साहब, ब्याहता बीवी नहीं, दोनों आपकी बहनें सही, अब खुश हुए? बरसों बाद आए तो एक काँटा साथ लेके। भला सोचो, मैं चुपकी हो रहूँ तो हुस्नआरा क्या कहेगी कि वाह बहन, तुमने हमको लिखा भी नहीं। लेकिन दो में क्या फायदा होगा तुम्हें?

आजाद - आप दिल्लगी करती हैं और मैं चुप हूँ। फिर मेरी भी जुबान खुलेगी।

बेगम - तुम हमको सिर्फ इतना बतला दो कि यह दोनों यहाँ किस लिए आई हैं, तो मैं चुप ही रहूँ।

आजाद - तो उन दोनों को यहाँ बुला लाऊँ?

बेगम - उनको आने दो, उनसे सलाह लेके जवाब दूँगी।

आजाद - तो क्या आप हममें और उनमें कोई फर्क समझती हैं। मैं तो तुमको और हुस्नआरा को एक नजर से देखता हूँ।

बेगम - बस, अब मैं कह बैठूँगी। बड़े बेशर्म हो, छँटे हुए बेहया।

इतने में जैनब ने आ कर कहा - मिरजा साहब आ गए। बेगम साहब झपट कर कोठे पर हो रहीं और आजाद बारादरी में आ कर लेट रहे।

मिरजा - आपने अभी तक हम्माम किया या नहीं? बड़ी देर हो गई है। जिस तरफ जाता हूँ, लोग गाड़ी रोक कर आपका हाल पूछने लगते हैं। कल शाम को सब लोग आपसे टाउनहाल में मिलना चाहते हैं। हाँ यह तो फरमाइए, यह दोनों परियाँ कौन हैं? एक तो उनमें से किसी और मुल्क की मालूम होती है।

आजाद - एक तो रूस की है और दूसरी कोहकाफ की।

मिरजा - यार, बुरा किया। हुस्नआरा सुनेंगी तो क्या कहेंगी?

इधर तो यह बातें हो रही थीं, उधर शिताबजान ने खोजी से कहा- जरा अकेले में चलिए, आपसे कुछ कहना है। खोजी ने कहा - खुदा की कुदरत है कि माशूक तक हमसे अकेले में चलने को कहते हैं। जो हुक्म हो, बजा लाऊँ। अगर तोप के मोहरे पर भेज दो तो अभी चला जाऊँ। यह तो कहो, तुम्हारे सबब से चुप हूँ, नहीं अब तक दस-पाँच को कत्ल कर चुका होता।

यह कह कर ख्वाजा साहब झपट कर बाहर निकले। इत्तिफाक से एक गाड़ीवान आहिस्ता-आहिस्ता गाड़ी हाँकता चला जाता था। खोजी उसे गालियाँ देने लगे - भला बे गीदी, भला, खबरदार जो आज से यह अेबदबी की। तू जानता नहीं, हम कौन हैं? हमारे मकान की तरफ से गाता हुआ निकलता है। हमें भी रिआया समझ लिया है। भला बी शिताबजान गाड़ी की घड़घड़ाहट सुनेंगी तो उनके कानों को कितना नागवार लगेगा! गाड़ीवाला पहले तो घबराया कि यह माजरा क्या है! गाड़ी रोक कर खोजी की तरफ घूरने लगा। मगर जब ख्वाजा साहब झपट कर गाड़ी के पास पहुँचे, और चाहा कि लकड़ी जमाएँ कि उसने इनके दोनों हाथ पकड़ लिए। अब आप सिटपिटा रहे हैं और वह छोड़ता ही नहीं।

खोजी - कह दिया, खैर इसी में है कि हमारा हाथ छोड़ दो, वरना बहुत पछताओगे। मैं जो बिगड़ूँगा तो एक पलटन के मनाए भी न मानूँगा।

गाड़ीवान - हाथ तो अब तुम्हारे छुड़ाए नहीं छूट सकता।

खोजी - लाना तो मेरी करौली।

गाड़ीवान - लाना तो मेरा ढाई तलेवाला चमरौधा।

खोजी - शरीफों में ऐसी बातें नहीं होतीं।

गाड़ीवान - शरीफ कभी तुम्हारे बाप भी थे कि तुम्हीं शरीफ हुए?

खोजी - अच्छा, हाथ छोड़ दो। वरना इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि उम्र भर याद करोगे।

गाड़ीवान ने इस पर झल्ला कर खोजी का हाथ मरोड़ना शुरू किया। खोजी की जान पर बन आई, मगर क्या करें। सबसे ज्यादा ख्याल इस बात का था कि कहीं शिताबजान न देख लें, नहीं तो बिलकुल नजरों से गिर जाऊँ।

खोजी - कहता हूँ, हाथ छोड़ दे, मैं कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं हूँ।

गाड़ीवान - मैं तो गाता हुआ चला जाता था। आपने गालियाँ क्यों दीं?

खोजी - हमारे घर की तरफ से क्यों गाते जाते थे?

गाड़ीवान - आप मना करने वाले कौन? क्या किसी की जबान बंद कर दीजिएगा?

बारे कई आदमियों ने गाड़ीवान को समझा कर खोजी का हाथ छुड़ाया। खोजी झाड़-पोंछ कर अंदर गए और शिताबजान से बोले - मैं बात पीछे करता हूँ, करौली पहले भोकता हूँ। पाजी गाता हुआ जाता था। मैंने पकड़ कर इतनी चपतें लगाईं कि भुरता ही बना दिया। मेरे मुँह में आग बरसती है। अच्छा, अब यह फरमाइए कि किस नेकबख्त बदनसीब से तुम्हारी शादी पहले हुई थी वह अब कहाँ है और कैसा आदमी था?

शिताबजान - यह तो मैं पीछे बतलाऊँगी। पहले यह फरमाइए कि उसको नेकबख्त कहा तो बदनसीब क्यों कहा? जो नेकबख्त है वह बदनसीब कैसे हो सकता है?

खोजी - कसम खुदा की, मेरी बातें जवाहिरात में तोलने के काबिल हैं। नेकबख्त इसलिए कहा कि तुम जैसी बीवी पाई। बदनसीब इसलिए कहा कि या तो वह मर गया या तुमने उसे निकाल बाहर किया।

शिताबजान - अच्छा सुनिए, पहले मेरी शादी एक खूबसूरत जवान के साथ हुई थी। जिसकी नजर उस पर पड़ी, रीझ गया।

खोजी - यहाँ भी तो वही हाल है। घर से निकलना मुश्किल है।

शिताबजान - हाजिर-जवाब ऐसा था कि बात की बात में गजलें कह डालता था।

खोजी - यह बात मुझमें भी है। दस हजार शेर एक मिनट में कह दूँ, एक कम न एक ज्यादा!

शिताबजान - मैं यह कब कहती हूँ कि तुम उससे किसी बात में कम हो। अव्वल तो जवान गभरू, अभी मसें भींगती हैं। आदमी क्या, शेर मालूम होते हो। फिर सिपाही आदमी हो, उस पर शायर भी हो। बस जरा झल्ले हो, इतनी खराबी है।

खोजी - अगर मेरा हुक्म मानती हो तो मोम हो जाऊँगा। हाँ, लड़ोगी तो हमारा मिजाज बेशक झल्ला है।

शिताबजान - मियाँ, मैं लौंडी बनके रहूँगी। मुझसे लड़ाई-झगड़े से वास्ता? मगर यह बताओ कि रहोगे कहाँ? मैं बंबई में रहूँगी। तुम्हारे साथ मारी-मारी न फिरूँगी।

खोजी - तुम जहाँ रहोगी, वहीं मैं रहूँगा; मगर...

शिताबजान - अगर-मगर मैं कुछ नहीं जानती। एक तो तुमको अफीम न खाने दूँगी! तुमने अफीम खाई और मैंने किसी बहाने से जहर खिला दिया।

खोजी - अच्छा न खाएँगे। कुछ जरूरी है कि अफीम खाए ही। न खाई, पी ली, चलो छुट्टी हुई।

शिताबजान - पीने भी न दूँगी। दूसरी शर्त यह है कि नौकरी जरूर करो, बगैर नौकरी के गुजारा नहीं। तीसरी शर्त यह है कि मेरे दोस्त और रिश्तेदार जो आते हैं, बदस्तूर आया करेंगे।

खोजी - वाह, कहीं आने न दूँ। इन बदमाशों को फटकने न दूँगा।

शिताबजान - अच्छा तो कल मेरे घर चलो, वहीं हमारा निकाह होगा।

दूसरे दिन खोजी शिताबजान के साथ उसके घर चले। बंबई से कई स्टेशन के बाद शिताबजान गाड़ी से उतर पड़ी और खोजी से कहा - अब आपके पास जितने रुपए पैसे हों, चुपके से निकाल कर रख दो। मेरे घरवाले बिना नजराना लिए शादी न करेंगे।

खोजी ने देखा कि यहाँ बुरे फँसे। अब अगर कहते हैं कि मेरे पास रुपए नहीं हैं तो हेठी होती है। उन्होंने समझा था कि शादी का दो घड़ी मजाक रहेगा, मगर अब जो देखा कि सचमुच शादी करनी पड़ेगी तो चौकन्ने हुए। बोले - मैं तो दिल्लगी करता था जी। शादी कैसी और ब्याह कैसा? कुछ ऊपर साठ बरस का तो मेरा सिन है, अब भला मैं शादी क्या करूँगा। तुम अभी जवान हो, तुमको सैकड़ों जवान मिल जाएँगे।

शिताबजान - तुमको इससे मतलब क्या! इसकी मुझे फिक्र होनी चाहिए। जब मेरा तुम पर दिल आया और तुम भी निकाह करने पर राजी हुए तो अब इनकार करना क्या माने। अच्छे हो तो मेरे, बुरे हो तो मेरे।

मियाँ खोजी घबराए, सिट्टी-पिट्टी भूल गई। अपनी अक्ल पर बहुत पछताए और उसी वक्त आजाद के नाम यह खत लिखा - मेरे बड़े भाई साहब, सलाम! मेरी आँख से अब गफलत का परदा उठ गया। मैं कुछ ऊपर साठ बरस का हूँगा। इस सिन में निकाह का ख्याल सरासर गैर मुनासिब है। मगर शिताबजान मुझ पर बुरी तरह आशिक हो गई है। उसका सबब यह है कि जिस तरह मेरा जिस्म चोर है उसी तरह मेरी सूरत भी चोर है। मुझे कोई देखे तो समझे कि हड्डियाँ तक गल गई हैं, मगर आप खूब जानते हैं कि इन्हीं हड्डियों के बल पर मैंने मिस्र के नामी पहलवान को लड़ा दिया और बुआ जाफरान जैसी देवनी की लातें सहीं। दूसरा होता, तो कचूमर निकल जाता। उसी तरह मेरी सूरत में भी यह बात है कि जो देखता है, आशिक हो जाता है। मैं खुद सोचता हूँ कि यह क्या बात है, मगर कुछ समझ में नहीं आता। खैर, अब आपसे यह अर्ज है कि खत देखते मेरी मदद के लिए दौड़ो, वरना मौत का सामना है। सोचा था कि शादी न होगी तो लोग हँसेंगे कि आजाद तो दो-दो साथ लाए और ख्वाजा साहब मोची के मोची रहे। लेकिन यह क्या मालूम था कि यह शादी मेरे लिए जहर होगी। जरा शर्तें तो सुनिए - अफीम छोड़ दो और नौकरी कर लो। अब बताइए कि अफीम छोड़ दूँ तो जिंदा कैसे रहूँ? अब रही नौकरी। यहाँ लड़कपन से फिकरेबाजों की सोहबत में रहे। गप्पे उड़ाना, बातें बनाना, अफीम की चुस्की लगाना हमारा काम है। भला हमसे नौकरी क्या होगी, और करना भी चाहें तो किसकी नौकरी करें। सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, वहाँ तो आदमी पचपन साल का हुआ और निकाला गया, और यहाँ पचपन और दस पैंसठ बरस के हैं। हम तो इसी काम के हैं कि किसी नवाबजादे की सोहबत में रहें और उसको ऐसा पक्का रईस बना दें कि वह भी याद करे। चंडू का कवाम हमसे बनवा ले, अफीम ऐसी पिलाएँ कि उम्र भर याद करे, रहा यह कि हम जमा खर्च लिखें, यह हमसे न होगा, जिसको अपना काम गारत कराना हो वह हमें नौकर रखे। इसलिए अगर मेरा गला यहाँ से छुड़ा दो तो बड़ा एहसान हो। खुदा जाने, तुम लोग मुझे क्यों खाक में मिलाते हो, तुम्हारे साथ रूम गया, तुम्हारी तरफ से लड़ा-भिड़ा, वक्त-बेवक्त काम आया और अब तुम मुझे जबह किए देते हो।

यह खत लिख कर शिताबजान को दिया और आजाद के पास जल्द पहुँचा दो। शादी के मामले में उनसे कुछ सलाह करनी है।

शिताबजान - सलाह की क्या जरूरत है भला?

खोजी - शादी-ब्याह कोई खाला जी का घर नहीं है, जरा आदमी को इस बारे में ऊँच-नीच सोच लेना चाहिए, मैंने सिर्फ यह पूछा है कि तुम्हारी शर्तें मंजूर करूँ या नहीं।

शिताबजान - अच्छा जाओ, मैं कोई शर्त नहीं करती।

खोजी - अब मंजूर, दिल से मंजूर, मगर यह खत तो भेज दो।

अब सुनिए कि सिताबजान के साथ एक खाँ साहब भी थे। मालबे के रहनेवाले। उन्होंने खोजी को दो दिन में इतनी अफीम पिला दी जितनी वह चार दिन में भी न पीते। सफर में सेहत भी कुछ बिगड़ गई थी। दो ही दिन में चुर्र-मुर्र हो गए। लेटे-लेटे खाँ साहब से बोले - जनाब, दूसरा इतनी अफीम पीता तो बोल जाता, क्या मजाल कि इस शहर में कोई मेरा मुकाबिला कर सके, और इस शहर पर क्या मौकूफ है, जहाँ कहिए, मुकाबिले के लिए तैयार हूँ, कोई तोले भर पिए तो मैं सेर भर पी जाऊँ।

खाँ साहब - मगर उस्ताद, आज कुछ अंजर-पंजर ढीले नजर आते हैं, शायद अफीम ज्यादा हो गई।

खोजी - वाह, ऐसा कहीं कहिएगा भी नहीं। जब जी चाहे, साथ बैठ कर पी लीजिए।

शाम तक खोजी की हालत और भी खराब हो गई। शिताबजान ने उन्हें दिक करना शुरू किया। ऐ आग लगे तेरे सोने पर मरदुए, कब तक सोता रहेगा!

खोजी - सोने दो, सोने दो।

शिताब - भला खैर, हम तो समझे थे, खबर आ गई।

खाँ - कहती किससे हो, वह पहुँचे खुदागंज।

शिताब - ऐ फिर पिनक आ गई, अभी तो जिंदा हो गया था।

खाँ - (कान के पास जा कर) ख्वाजा साहब!

खोजी - जरा सोने दो भाई।

शिताब - मेरे यहाँ पिनकवालों का काम नहीं है।

खाँ - ख्वाजा साहब, अरे ख्वाजा साहब, ये बोलते ही नहीं! चल बसे!

ख्वाजा साहब की हालत जब बहुत खराब हो गई, तो एक हकीम साहब बुलाए गए। उन्होंने कहा - जहर का असर है। नुस्खा लिखा। बारे कुछ रात जाते-जाते नशा टूटा। खोजी की आँखें खुलीं।

शिताब - मैं तो समझी थी, तुम चल बसे।

खोजी - ऐसा न कहो भाई, जवानी की मौत बुरी होती है।

शिताब - मर मुड़ीकाटे, अभी जवान बना है!

खोजी - बस जबान सँभालो, हम समझ गए कि तुम कोई भठियारी हो। मैं अगर अपने हालात बयान करूँ तो आँखें खुल जाएँ। हम अमीर-कबीर के लड़के हैं। लड़कपन में हमारे दरवाजे पर हाथी बँधता था, तुम जैसी भठियारियों को मैं क्या समझता हूँ।

यह कह कर आप मारे गुस्से के घर से निकल खड़े हुए, समझते थे कि शिताबजान मुझ पर आशिक है ही, उससे भला कैसा रहा जायगा, जरूर मुझे तलाश करने आएगी, लेकिन जब बहुत देर गुजर गई और शिताबजान ने खबर न ली तो आप लौटे! देखा तो शिताबजान का कहीं पता नहीं, घर का कोना-कोना टटोला, मगर शिताबजान वहाँ कहाँ? उसी महल्ले में एक हबशिन रहती थी। खोजी ने जा कर उससे अपना सारा किस्सा कहा, तो वह हँस कर बोली - तुम भी कितने अहमक हो। शिताबजान भला कौन है? तुमको मिरजा साहब और आजाद ने चकमा दिया है।

खोजी को आजाद की बेवफाई का बहुत मलाल हुआ। जिसके साथ इतने दिनों तक जान-जोखिम करके रहे, उसने हिंदोस्तान में लाके उन्हें छोड़ दिया। खूब रोए, तब हबशिन से बातें करने लगे -

खोजी - किस्मत कहाँ से हमें कहाँ लाई?

हबशिन - आपका घोंसला किस झाड़ी में है?

खोजी - हम खोजिस्तान के रहनेवाले हैं।

हबशिन - यह किस जगह का नाम लिया? खोजिस्तान तो किसी जगह का नाम नहीं मालूम होता।

खोजी - तो क्या सारी दुनिया तुम्हारी देखी हुई है? खोजिस्तान एक सूबा है, शकरकंद और जिलेबिस्तान के करीब। बताशा नदी उसे सैराब करता है।

हबशिन - भला शकरकंद भी कोई देस है?

खोजी - है क्यों नहीं, समरकंद का छोटा भाई है।

हबशिन - वहाँ आप किस मुहल्ले में रहते थे?

खोजी - हलुवापुर में।

हबशिन - तब तो आप बड़े मीठे आदमी हैं।

खोजी - मीठे तो नहीं, हैं तो तीखे, नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते, मगर मीठी नजर के आशिक हैं -

ख्वाहिश न कंद की है, न तालिब शकर के हैं;

चस्के पड़े हुए तेरी मीठी नजर के हैं।

हबशिन - तो आप भी मेरे आशिकों मे हैं?

खोजी - आशिक कोई और होंगे, हम माशूकों के माशूक हैं। सारी दुनिया छान डाली, पर जहाँ गया, माशूकों के मारे नाक में दम हो गया। बुआ जाफरान नामी एक औरत हम पर इतनी रीझी कि पट्टे पकड़के दे जूता दे जूता मारके उड़ा दिया। मगर हमारी बहादुरी देखो कि उफ तक न की।

हबशिन - हमको यकीन क्योंकर आए? हम तो जब जानें कि सिर झुकाओ और हम दो-चार लगाएँ, फिर देखें, कैसे नहीं उफ करते।

खोजी - हाँ, हम हाजिर हैं, मगर आज अभी अफीम यों ही सी पी है। जब नशा जमे तब अलबत्ता आजमा लो।

हबशिन - ऐ है, फिर निगोड़ी अफीम का नाम लिया, मरते-मरते बचे और अब तक अफीम ही अफीम कहते जाते हो?

खोजी - तुम इसके मजे क्या जानो। अफीम खाना फकीरी है। गरूर को तो यह खाक में मिला देती है। मैं कितनी ही जगह पिटा, कभी जूतियाँ खाईं, कभी कोई काँजीहौस ले गया, मगर हमने कभी जवाब न दिया।

हबशिन चली गई तो खोजी साहब ने एक डोली मँगवाई और उसमें बैठ कर चंडूखाने पहुँचे। लोगों ने इन्हें देखा तो चकराए कि यह नया पंछी कौन फँसा।

खोजी - सलाम आलेकुम भाइयो!

इमामी - आलेकुम भाई, आलेकुम। कहाँ से आना हुआ?

खोजी - जरा टिकने दो, फिर कहूँ। दो बरस लड़ाई पर रहा, जब देखो मारेचाबंदी, मर मिटा, मगर नाम भी वह किया कि सारी दुनिया में मशहूर हो गया।

इमामी - लड़ाई कैसी? आजकल तो कहीं लड़ाई नहीं है।

खोजी - तुम घर में बैठे-बैठे दुनिया का क्या हाल जानो।

कादिर - क्या रूम-रूम की लड़ाई से आते हो क्या?

खोजी - खैर, इतना तो सुना।

इमामी - अजी, यह न कहिए, इनको सारी दुनिया का हाल मालूम रहता है। कोई बात इनसे छिपी थोड़ी हैं।

कादिर - रूमवाले ने रूस के बादशाह से कहा कि जिस तरह तुम्हारा चचा हकीमी कौड़ी देता था उसी तरह तुम भी दिया करो, मगर उसने न माना। इसी बात पर तकरार हुई, तो रूमवाले ने कहा, अच्छा, अपने चचा की कब्र में चलो और पूछ देखो, क्या आवाज आती है। बस जनाब, सुनने की बात है कि रूमवाले ने न माना। रूम के बादशाह के पास हजरत सुलेमान की अँगूठी थी। उन्होंने जो उसे हवा में उछाला, तो सैकड़ों जिन्न हाजिर हो गए। बादशाह ने कहा कि रूस में चारों तरफ आग लगा दो। चारों तरफ आग लग गई। तब रूस के बादशाह ने वजीरों को जमा करके कहा, आग बुझाओ, बस सवा करोड़ मिश्ती मशकें भर भरके दौड़े। एक-एक मशक में दो-दो लाख मन पानी आता था।

खोजी - क्यों साहब, यह आपसे किसने कहा है?

इमामी - अजी, यह न पूछो, इनसे फरिश्ते सब कह जाते हैं।

कादिर - बस साहब, सुनने की बातें हैं कि सवा दो करोड़ मशकें मुल्क के चारों कोनों पर पड़ती थीं, मगर आग बढ़ती ही जाती थी। तब बादशाह ने हुक्म दिया कि दो करोड़ लाख भिश्ती काम करें और मशकों में छब्बीस-छब्बीस करोड़ मन पानी हो।

खोजी - ओ गीदी, क्यों इतना झूठ बोलता है?

शुबराती - मियाँ, सुनने दो भाई, अजब आदमी हो।

खोजी - अजी, मैं तो सुनते-सुनते पागल हो गया।

कादिर - आप लखनऊ के महीन आदमी, उन मुल्कों का हाल क्या जानें। रूम, रूस, तुरान, अनूपशहर का हाल हमसे सुनिए।

इमामी - वहाँ के लोग भी देव होते हैं देव!

कादिर - रूस के बादशाह की खुराक का हाल सुनो तो चकरा जाओ।

सबेरे मुँह अँधेरे 6 बकरों की यखनी, चार बकरों के कबाब, दस मुर्ग का पोलाव और दस मुरैले तरकीब से खाते हैं, और 9 बजे के वक्त सौ मुर्गों का शोरबा और दस सेर ठंडा पानी, बारह बजे जवाहिरात का शरबत, कभी पचास मन, कभी साठ मन, चार बजे दो कच्चे बकरे, दो कच्चे हिरन, शाम को शराब का एक पीपा और पह रात गए गोश्त का एक छकड़ा।

इमामी - जब तो ताकतें होती हैं कि सौ-सौ आदमियों को एक आदमी मार डालता है। हिंदोस्तान का आदमी क्या खा कर लड़ेगा।

शुबराती - हिंदोस्तान में अगर हाजमे की ताकत कुछ है तो चंडू के सबब से, नहीं तो सब के सब मर जाते।

इमामी - सुना, रूसवाले हाथी से अकेले लड़ जाते हैं।

कादिर - हमसे सुनो, दस हाथी हों और एक रूसी तो वह दसों को मार डालेगा।

खोजी - आप रूस कभी गए भी हैं?

कादिर - अजी हम बैठे सारी दुनिया की सैर कर रहे हैं।

खोजी - हम तो अभी लड़ाई के मैदान से आते हैं, वहाँ एक हाथी भी न देखा।

कादिर - रूमवालों ने जब आग लगा दी, तो वह ग्यारह बरस, ग्यारह महीने, ग्यारह दिन, ग्यारह घंटे जला की। अब जाके जरी-जरी आग बुझी है, नहीं तो अजब नक्शा था कि सारा मुल्क चल रहा है और पानी का छिड़काव हो रहा है। रूमवाले जब रात को सोते हैं तो हर मकान में दो देवों का पहरा रहता है।

खोजी - अरे यारो, इस झूठ पर खुदा की मार, हम बरसों रहे, एक देव भी न देखा।

कादिर - आपकी तो सूरत ही कहे देती है कि आप रूम जरूर गए होंगे। खुदा झूठ न बुलवाए तो घर के बाहर कदम नहीं रखा।

खोजी समझे थे कि चंडूखाने में चल कर अपने सफर का हाल बयान करेंगे और सबको बंद कर देंगे, चंडूखाने में इनकी तूती बोलने लगेगी, मगर यहाँ जो आए तो देखा कि उनके भी चचा मौजूद हैं। झल्ला कर पूछा, बतलाओ तो रूम के पायतख्त का क्या नाम है?

कादिर - वाह, इसमें क्या रखा है, भला-सा नाम तो है, हाँ मर्जबान।

खोजी - इस नाम का तो वहाँ कोई शहर ही नहीं।

कादिर - अजी, तुम क्या जानो, मर्जबान वह शहर है जहाँ पहाड़ों पर परियाँ रहती हैं। वहाँ पहाड़ों पर बादल पानी पी-पी कर जाते हैं और सबको पानी पिलाते हैं।

खोजी - तो वह कोई दूसरा रूम होगा। जिस रूम से मैं आता हूँ वह और है।

कादिर - अच्छा बताओ, रूम के बादशाह का क्या नाम है?

खोजी - सुलतान अब्दुलहमीद खाँ।

कादिर- बस-बस, रहने दीजिए आप नहीं जानते, उस पर दावा यह है कि हम रूम से आते हैं। भला लड़ाई का क्या नतीजा हुआ, यही बताइए?

खोजी - पिलौना की लड़ाई में तुर्क हार गए और रूसियों ने फतह पाई।

कादिर - क्या बकता है बेहूदा। खबरदार जो ऐसा कहा होगा तो इतने जूते लगाऊँगा कि भुरकस ही निकल जायगा।

इमामी - हमारे बादशाह के हक में बुरी बात निकालता है, बेअदब कहीं का। बच्चा, यहाँ ऐसी बाते करोगे तो पिट जाओगे।

खोजी - सुनो जी, हम फौजी आदमी हैं।

कादिर - अब ज्यादा बोलोगे तो उठ कर कचूमर ही निकाल दूँगा।

शुबराती - यह हैं कहाँ के, जरा सूरत तो देखो, मालूम होता है,कब्र से निकल भागा है।

खोजी को सबने मिल कर ऐसा डपटा कि बेचारे करौली और तमंचा भूल गए। गए तो बड़े जोम में थे कि चंडूखाने में खूब डींग हाँकेंगे, मगर वहाँ लेने के देने पड़ गए। चुपके से चंडू के छीटे उड़ाए और लंबे हुए। रास्ते में क्या देखते हैं कि बहुत से आदमी एक जगह खड़े हैं। आपने घुस कर देखा तो एक पहलवान बीच में बैठा है और लोग खड़े उसकी तारीफों के पुल बाँध रहे हैं। खोजी ने समझा कि हमने भी तो मिस्र के पहलवान को पटका था, हम क्या किसी से कम हैं? इस जोम में आपने पहलवान को ललकारा - भाई पहलवान, हम इस वक्त इतने खुश हैं कि फूले नहीं समाते। मुद्दत के बाद आज अपना जोड़ीदार पाया।

पहलवान - तुम कहाँ के पहलवान हो भाई साहब?

खोजी - यार, क्या बताएँ। अपने साथियों में कोई रहा ही नहीं। अब तो कोई पहलवान जँचता ही नहीं।

पहलवान - उस्ताद, कुछ हमको भी बताओ।

खोजी - अजी, तुम खुद उस्ताद हो।

पहलवान - आप किसके शागिर्द हैं?

खोजी - शागिर्द तो भाई, किसी के नहीं हुए। मगर हाँ, अच्छे-अच्छे उस्तादों ने लोहा मान लिया। हिंदोस्तान से रूम तक और रूम से रूस तक सर कर आया। तुम आजकल कहाँ रहते हो?

पहलवान - आजकल एक नवाब साहब के यहाँ हैं। तीन रुपया रोज देते हैं। एक बकरा, आठ सेर दूध और दो सेर घी बँधा है। नवाब अमजदअली नाम है।

खोजी - भला वहाँ चंडू की भी चर्चा रहती हैं?

पहलवान - कुछ मत पूछिए भाई साहब, दिन-रात।

खोजी - भला वहाँ मस्तियाबेग भी हैं?

पहलवान - जी हाँ हैं, आप कैसे जान गए?

खोजी - अजी, वह कौन सा नवाब है जिसकी हमने मुसाहबी न की हो। नवाब अमजदअजी के यहाँ बरसों रहा हूँ। बटेरों का अब भी शौक है या नहीं?

पहलवान - अजी, अभी तक सफशिकन का मातम होता है।

खोजी - तुम्हारा कब तक जाने का इरादा है?

पहलवान - मैं तो आज ही जा रहा हूँ।

खोजी - तो भाई, हमको भी जरूर लेते चलो। हम अपना किराया दे देंगे।

पहलवान - तो चलिए, मेरा इसमें हरज ही क्या है। हमको नवाब साहब ने सिर्फ दो दिन की छुट्टी दी थी। कल यहाँ दाखिल हुए, आज दंगल में कुश्ती निकाली और शाम को रेल पर चल देंगे। हमारे साथ मस्तियाबेग भी हैं।

शाम को पहलवान के साथ खोजी स्टेशन पर आए। पहलवान ने कहा - वह देखिए मिरजा साहब खड़े हैं, जा कर मिल लीजिए। ख्वाजा आहिस्ता-आहिस्ता गए और पीछे से मिरजा साहब की आँखें बंद कर लीं।

मिरजा - कौन है भाई, कोई मुसम्मात हैं क्या? हाथ तो ऐसे ही मालूम होते हैं।

पहलवान - भला बूझ जाइए तो जानें।

मिरजा - कुछ समझ में नहीं आता, मगर है कोई मुसम्मात।

खोजी - भला गीदी, भला, अभी से भूल गया, क्यों?

मिरजा - अख्खाह, ख्वाजा साहब हैं! कहो भाई खोजी, अच्छे तो रहे?

खोजी - खोजी कहीं और रहते होंगे। अब हमें ख्वाजा साहब कहा करो।

मिरजा - अरे कंबख्त, गले तो मिल ले।

खोजी - सरकार कैसे हैं, घर में तो खैर-आफियत है?

मिरजा - हाँ, सब खुदा का फजल है, बेगम साहब पर कुछ आसेब था, मगर अब अच्छी हैं। कहो, तुमने तो खूब नाम पैदा किया।

खोजी - नाम, अरे हम मेजर थे।

मिरजा - सरकार को इस लड़ाई के जमाने में अखबार से बड़ा शौक था। आजाद को तो सब जानते हैं, मगर तुम्हारा हाल जब से पढ़ा तब से सरकार को अखबारों का एतबार जाता रहा। कहते थे कि समुद्र की सूरत देख कर इसका जिगर क्यों न फट गया। भला इसे लड़ाई से क्या वास्ता।

खोजी - अब इसका हाल तो उन लोगों से पूछो जो मोरचों पर हमारे शरीक थे। तुम मजे से बैठे-बैठे मीठे टुकड़े उड़ाया किए, तुमको इन बातों से क्या सरोकार, मगर भाई, नशों में नशा शराब का। इधर डंके पर चोट पड़ी, उधर सिपाही कम कस कर तैयार हो गए।

मिरजा - अब सरकार के सामने न कहना, नहीं खड़े-खड़े निकाल दिए जाओगे।

खोजी - अजी, अब तो सरकार के बाप के निकाले भी नहीं निकल सकते।

मिरजा - एक बार तो अखबार में लिखा था कि खोजी ने शादी कर ली है।

खोजी - अरे यार, इसका हाल न पूछो, अपनी शक्ल-सूरत का हाल तो हमको बाहर जा कर मालूम हुआ। जिस शहर में निकल गए, करोड़ों औरतें हम पर आशिक हो गईं। खास कर एक कमसिन नाजनीन ने तो मुझे कहीं का न रखा।

मिरजा - तो आपकी सूरत पर सब औरतें जान देती थीं? क्या कहना है, तुमने बहादुरी के काम भी तो खूब किए।

खोजी - भाईजान, मोरचे पर मेरी बहादुरी देखते तो दंग हो जाते। खैर, उस परी पर मेरे सिवा पचास तुर्की अफसर भी आशिक थे। यह राय तय पाई कि जिससे वह परी राजी हो उससे निकाह करें। एक रोज सब बन-ठन कर आए, मगर उस शोख की नजर आपके खादिम ही पर पड़ती थी।

मिरजा - ऐ क्यों नहीं, हजार जान से आशिक हो गई होगी।

खोजी - आव देखा न ताव, इठलाती हुई आई और मेरा हाथ अपने सीने पर रख लिया। अब सुनिए, उन सबों क दिल में हसद की आग भड़की, कहने लग, यों हम न मानेंगे, जो उससे निकाह करे वह पहले पचासों आदमियों से लड़े। हमने कहा, खैर! तलवार खींच कर जो चला, तो वह-वह चोटें लगाईं कि सब के सब बिलबिलाने लगे। बस परी हमको मिल गई। अब दरबार के रंग ढंब बयान करो।

मिरजा - सब तुम्हारी याद किया करते हैं। झम्मन ने वह चुगुलखोरी पर कमर बाँधी हैं कि सैकड़ों खिदमतगार और कितने ही मुसाहबों को मौकूफ करा दिया।

खोजी - एक ही पाजी आदमी है। हम रूम गए, फ्रांस गए, सारी दुनिया के रईस देख डाले, मगर नवाब सा भोला-भाला रईस कहीं न देखा। गजब खुदा का कि एक बादमाश ने जो कह दिया, उसका यकीन हो गया, अब कोई लाख समझाए, वह किसी की सुनते ही नहीं।

मिरजा - मेरा तो अब वहाँ रहने को जी नहीं चाहता।

खोजी - अजी, इस झगड़े को चूल्हे में डालो। अब हम-तुम चल कर रंग जमाएँगे। तुम मेरी हवा बाँधना और हम दोनों एक जान दो काबिल हो कर रहेंगे।

मिरजा - मैं कहूँगा, खुदावंद, अब यह सब मुसाहबों के सिरताज हुए, सारी दुनिया में हुजूर का नाम किया। मगर तुम जरा अपने को लिए रहना।

खोजी - अजी, मैं तो ऐसा बनूँ कि लोग दंग हो जायँ।

जब घंटी बजी और मुसाफिर चले तो खोजी भी पहलवान की तरह अकड़ कर चलने लगे। रेल के दो-चार मुलाजिमों ने उन पर आवाजें कसना शुरू किया।

एक - आदमी क्या गैंडा है, माशा-अल्लाह, क्या हाथ-पाँव हैं!

दूसरा - क्यों साहब, आप कितने दंड पेल सकते हैं?

खोजी - अजी, बीमारी ने तोड़ दिया, नहीं एक पूरी रेल पर लदके जाता था।

तीसरा - इसमें क्या शक है, एक-एक रान दो-दो मन की है।

खोजी - कसम खाके अर्ज करता हूँ कि अब आधा नहीं रहा! यह पहलवान हमारे अखाड़े का खलीफा है, और बाकी सब शागिर्द हें! सब मिलाके हमारे चालीस-बयालीस हजार शागिर्द होंगे।

एक मुसाफिर - दूर-दूर से लोग शागिर्दी करने आते होंगे?

खोजी - दूर-दूर से। अब आप मुलाहिजा फरमाए कि हिंदोस्तान से ले कर रूस तक मेरे लाखों शागिर्द हैं। मिस्र में ऐसा हुआ कि एक पहलवान की शामत आई, एक मेले मे हमको टोक बैठा। टोकना था कि बंदा भी चट लँगोट कसके सामने आ खड़ा हुआ। लाखों ही आदमी जमा थे। उसका सामने आना ही था कि मैं उसी दम जुट गया, दाँव-पेंच होने लगे। उसके मिस्री दाँव थे। हमारे हिंदुस्तानी दाँव थे। बस दम की दम में मैंने उठाके दे पटका।

इतने में दूसरी घंटी हुई। खोजी ऐसे बौखलाए कि जनाने दर्जे में फँस पड़े। वहाँ लेना-लेना का गुल मचा। भागे तो पहले दर्जे में घुस गए, वहाँ एक अंगरेज ने डाँट बताई। बारे निकल कर तीसरे दर्जे में आए। थके-माँदे बहुत थे, सोए तो सारी रात कट गई। आँख खुली तो लखनऊ आ गया। शाम के वक्त नवाब साहब के यहाँ दाखिल हुए।

खोजी - आदाब अर्ज है हुजूर।

नवाब - अख्ख़ाह, खोजी हैं! आओ भाई, आओ।

खोजी - हाजिर हूँ खुदावंद, खुदा का शुक्र है कि आपकी जियारत हुई।

गफूर - खोजी मियाँ, सलाम।

खोजी - सलाम भाई, सलाम, मगर हमको खोजी मियाँ न कहना, अब हम फौज के अफसर हैं।

झम्मन - आप बादशाह हों या वजीर, हमारे तो खोजी ही हो।

खोजी - हाँ भाई, यह तो है ही। हुजूर के नमक की कसम, मुल्कों-मुल्कों इस दरबार का नाम किया।

नवाब - शाबाश! हमने अखबारों में तुम्हारी बड़ी-बड़ी तारीफें पढ़ीं।

खोजी - हुजूर, गुलाम किस लायक है।

झम्मन - भला यार, तुम समुद्र में जहाज पर कैसे सवार हुए?

खोजी - वाह, तुम जहाज की लिए फिरते हो। यहाँ मोरचों पर बड़े-बड़े मेजरों और जनरलों से भिड़-भिड़ पड़े हैं। हुजूर, पिलौना की लड़ाई में कोई दस लाख आदमी एक तरफ थे और सत्तर सवारों के साथ गुलाम दूसरी तरफ था, फिर यह मुलाहिजा कीजिए कि चौदह दिन तक बराबर मुकाबिला किया और सबके छक्के छुड़ा दिए।

झम्मन - इतना झूठ, उधर दस लाख, इधर सत्तर! भला कोई बात है।

खोजी - तुम क्या जानो, वहाँ होते तो होश उड़ जाते।

नवाब - भाई, इसमें तो शक नहीं कि तुमने बड़ा नाम किया। खबरदार, आज से इनको कोई खोजी न कहे। पाशा के लकब से पुकारे जायँ।

खोजी - आदाब हुजूर। झम्मन गीदी ने मुँह की खाई न आखिर। रईसों की सोहबत में ऐसे पाजियों का रहना मुनासिब नहीं।

नवाब - क्यों साहब, हिंदोस्तान के बाहर भी हमको कोई जानता है? सच-सच बताना भाई!

खोजी - हुजूर, जहाँ-जहाँ गुलाम गया, हुजूर का नाम बादशाहों से ज्यादा मशहूर हो गया।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 104

आजाद बंबई से चले तो सबसे पहले जीनत और अख्तर से मुलाकात करने की याद आई। उस कस्बे में पहुँचे तो एक जगह मियाँ खोजी की याद आ गई। आप ही आप हँसने लगे। इत्तिफाक से एक गाड़ी पर कुछ सवारियाँ चली जाती थीं। उनमें से एक ने हँस कर कहा - वाह रे भलेमानस, क्या दिमाग पर गरमी चढ़ गई है क्या आजाद रंगीन मिजाज आदमी तो थे ही। आहिस्ता से बोले - जब ऐसी-ऐसी प्यारी सूरतें नजर आएँ तो आदमी के होश-हवास क्योंकर ठिकाने रहें। इस पर वह नाजनीन तिनक कर बोली - अरे, यह तो देखने को ही दीवाना मालूम होते थे, अपने मतलब के बड़े पक्के निकले। क्यों मियाँ, यह क्या सूरत बनाई है, आधा तीतर और आधा बटेर? खुदा ने तुमको वह चेहरा-मोहरा दिया है कि लाख दो लाख में एक हो। अगर इस शक्ल-सूरत पर जो लंबे-लंबे बाल हों, बालों में सोलह रुपए वाला तेल पड़ा हो, बारीक शरबती का अँगरखा हो, जालीलोट के कुरते से गोरे-गोरे डंड नजर आएँ, चुस्त घुटन्ना हो, पैरों में एक अशर्फी का टाटबाफी बूट हो, अँगरखे पर कामदानी की सदरी हो, सिर से पैर तक इत्र में बसे हो, मुसाइबों की टोली साथ हो, खिदमतगारों के हाथ में काबुकें और बटेरें हों और इस ठाट के साथ चौक में निकलो, तो अँगुलियाँ उठें कि वह रईस जा रहा है! तब लोग कहें कि इस सज-धज, नख-सिख, कल्ले-ठल्ले का गभरू जवान देखने में नहीं आया। यह सब छोड़ पट्टे कतरवाके लंडूरे हो गए, ऐ वाह री आपकी अक्ल!

आजाद - जरा मैं तो जानूँ कि किसकी जबान से यह बातें सुन रहा हूँ। इनसान हम भी हैं, फिर इनसान से क्या परदा?

नाजनीन - अच्छा, तो आप भी इनसान होने का दम भरते हैं। मेढकी भी चली मदारों को।

आजाद - खैर साहब, इनसान न सही।

नाजनीन - (परदा हटा कर) ऐ साहब लीजिए, बस अब तो चार आँखें हुई, अब कलेजे में ठंडक पहुँची?

आजाद ने देखा तो सोचने लगे कि यह सूरत तो कहीं देखी हे और अब खयाल आता है कि आवाज भी कहीं सुनी है। मगर इस वक्त याद नहीं आता कि कहाँ देखा था।

नाजनीन - पहचाना? भला आप क्यों पहचानने लगे! रुतबा पा कर कौन किसे पहचानता है?

आजाद - इतना तो याद आता है कि कहीं देखा है, पर यह खयाल नहीं कि कहाँ देखा है।

नाजनीन - अच्छा, एक पता देते हैं, अब भी न समझो तो खुदा तुमसे समझे। याद है, किसने यह गजल गाई थी...?

कोई मुझ सा दीवाना पैदा न होगा,
हुआ भी तो फिर ऐसा रुसवा न होगा।

न देखा हो जिसने कहे उसके आगे,
हमें लंतरानी सुनाना न होगा।

आजाद - अब समझ गया! जहूरन, वहाँ की खैर-आफियत बयान करो। उन्हीं दोनों बहनों से मिलने के लिए बंबई से चला आ रहा हूँ।

जहूरन - सब खुदा का फजल है। दोनों बहनें आराम से हैं, अख्तर के मियाँ तो उनका जेवर खा-पी कर भाग गए, अब उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। जीनत बेगम खुश हैं।

आजाद - तो अब हम उनके मैके जायँ या ससुराल?

जहूरन - ससुराल न जाइए, मैके में चलिए और वहाँ से किसी महरी के जबानी पैगाम भेजिए। हमने तो हुजूर को देखते ही पहचान लिया।

आजाद - हमको इन दोनों बहनों का हाल बहुत दिनों से नहीं मालूम हुआ।

जहूरन - यह तो हुजूर, आप ही का कुसूर है; कभी आपने एक पुरजा तक न भेजा। जिस दिन जीनत बेगम के मियाँ ने उनसे कहा कि लो, आजाद वापस आते हैं तो मारे खुशी के खिल उठीं। तो अब आना हो तो आइए, शाम होती है।

थोड़ी देर में आजाद जीनत बेगम के मकान पर जा पहुँचे। जहूरन ने जा कर उनकी चाची से आजाद के आने की इत्तला की। उसने आजाद को फौरन बुला लिया।

आजाद - बंदगी अर्ज करता हूँ। आप तो इतने ही दिनों में बूढ़ी हो गईं।

चाची - बेटा, अब हमारे जवानी के दिन थोड़े ही हैं। तुम तो खैर आफियत के साथ आए? आँखें तुम्हें देखने को तरस गईं।

आजाद - जी हाँ, मैं खैरियत से आ गया। दोनों साहबजादियों को बुलवाइए। सुना, जीनत की भी शादी हो गई है।

चाची - हाँ, अब तो दोनों बहनें आराम से हैं। अख्तरी का पहला मियाँ तो बिलकुल नालायक निकला। जेवर गहना-पाता, सब बेच कर खा गया और खुदा जाने, किधर निकल गया। अब दूसरी शादी हुई है। डाक्टर हैं। साठ तनख्वाह है और ऊपर से कोई चार रुपया रोज मिलता है। जीनत के मियाँ स्कूल में पढ़ाते हैं। दो सौ की तलब है। तुम्हारे चाचाजान तो मुझे छोड़ कर चल दिए।

इधर महरी ने जा कर दोनों बहनों को आजाद के आने की खबर दी। जीनत ने अपनी आया को साथ लिया और मैके की तरफ चली। घर के अंदर कदम रखते ही आजाद से हाथ मिला कर बोली - वाह रे बेमुरव्वतों के बादशाह! क्यों साहब, जब से गए, एक पुरजा तक भेजने की कसम खा ली?

आजाद - यह तो न कहोगी कि सबसे पहले तुम्हारे दरवाजे पर आया। यह तो फरमाइए कि यह पोशाक कब से अख्तियार की?

जीनत - जब से शादी हुई। उन्हें अंगरेजी पोशाक बहुत पसंद है।

आजाद - जीनत, खुदा गवाह है कि इस वक्त जामे में फूला नहीं समाता। एक तो तुमको देखा और दूसरे यह खुशखबरी सुनी कि तुम्हारे मियाँ पढ़े-लिखे आदमी हैं और तुम्हें प्यार करते हैं। मियाँ-बीवी में मुहब्बत न हो तो जिंदगी का लुत्फ ही क्या।

इतने में अख्तरी भी आ गई और आते ही कहा - मुबारक!

आजाद - आपको बड़ी तकलीफ हुई, मुआफ करना।

अख्तर - मैंने तो सुना था कि तुमने वहाँ किसी साइसिन से शादी कर ली।

आजाद - और तुम्हें इसका यकीन भी आ गया?

अख्तर - यकीन क्यों न आता। मर्दों के लिए यह कोई नई बात थोड़ी ही हैं। जब लोग एक छोड़, चार-चार शादियाँ करते हैं तो यकीन क्यों न आता।

आजाद - वह पाजी है जो एक के सिवा दूसरी का खयाल भी दिल में लाए।

जीनत - ऐसे मियाँ-बीवी का क्या कहना, मगर यहाँ तो वही पाजी नजर आते हैं जो बीवी के होते भी उसकी परवा नहीं करते।

आजाद - अगर बीवी समझदार हो तो मियाँ कभी उसके काबू से बाहर न हो।

अख्तर - यह तो हम मान चुके। खुदा न करे कि किसी भलेमानस का पाला शोहदे मियाँ से पड़े।

जीनत - जिसके मिजाज में पाजीपन हो उससे बीवी की कभी न पटेगी। मियाँ सुबह से जायँ तो रात के एक बजे घर में आएँ और वह भी किसी रोज आए, किसी रोज न आए। बीवी बेचारी बैठी उनकी राह देख रही है। बाज तो ऐसे बेरहम होते हैं कि बात हुई और बीवी को मार बैठे।

आजाद - यह तो धुनिया जुलाहों की बातें हैं।

जीनत - नहीं जनाब, जो लोग शरीफ कहलाते हैं उनमें भी ऐसे मर्दों की कमी नहीं है।

अख्तर - ऐ चूल्हे में जायँ ऐसे मर्द, जभी तो बेचारियाँ कुएँ में कूद पड़ती हैं, जहर खाके सो रहती हैं।

जीनत - मुझे खूब याद है कि एक औरत अपने मियाँ को जरा सी बात पर हाथ फैला-फैला कोस रही थी कि कोई दुश्मन को भी न कोसेगा।

आजाद - जहाँ ऐसे मर्द हैं वहाँ ऐसी औरतें भी हैं।

अख्तर - ऐसी बीवी का मुँह लेके झुलस दे।

जीनत - मेरे तो बदन के रोएँ खडे हो गए।

आजाद - मेरी तो समझ ही में नहीं आता कि ऐसे मियाँ और बीवी में मेलजोल कैसे हो जाता है।

इस तरह बातें करते-करते यूरोपियन लेडियों की बात चल पड़ी। जीनत और अख्तर ने हिंदोस्तानी औरतों की तरफदारी की और आजाद ने यूरोपियन लेडियों की।

आजाद - जो आराम यूरोप की औरतों को हासिल है वह यहाँ की औरतों को कहाँ नसीब। धूप में अगर मियाँ-बीवी साथ चलते हों तो मियाँ छतरी लगाएगा।

अख्तर - यहाँ भी महाजनों को देखो। औरतें दस-दस हजार का जेवर पहन कर निकलती हैं और मियाँ लँगोटा लगाए दुकान पर मक्खियाँ मारा करते हैं।

आजाद - यहाँ की औरतों को तालीम से चिढ़ है।

जीनत - इसका इलजाम भी मर्दों ही की गरदन पर है। वह खुद औरतों को पढ़ाते डरते हैं कि कहीं ये उनकी बराबरी न करने लगें।

आजाद - हमारे मकान के पास एक महाजन रहते थे। मैं लड़कपन में उनके घर खेलने जाया करता था। जैसे ही मियाँ बाहर से आता, बीवी चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठ जाती। अगर तुमसे कोई कहे कि मियाँ के सामने घूँघट करके जाओ तो मंजूर करो या नहीं?

अख्तर - वाह, यहाँ तो घर में कैद न रहा जाय, घूँघट कैसा!

आजाद - यूरोपियन लेडियों को घर के इंतजाम का जो सलीका होता है, वह हमारी औरतों को कहाँ?

जीनत - हिंदोस्तानी औरतों में जितनी वफा होती है वह यूरोपियन लेडियों में तलाश करने से भी न मिलेगी। यहाँ एक के पीछे सती तो जाती हैं, वहाँ मर्द के मरते ही दूसरी शादी कर लेती हैं।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 105

वहाँ दो दिन और रह कर दोनों लेडियों के साथ लखनऊ पहुँचे और उन्हें होटल में छोड़ कर नवाब साहब के मकान पर आए। इधर वह गाड़ी से उतरे, उधर खिदमतगारों ने गुल मचाया कि खुदावंद, मुहम्मद आजाद पाशा आ गए। नवाब साहब मुसाहबों के साथ उठ खड़े हुए तो देखा कि आजाद रप-रप करते हुए तुर्की वर्दी डाटे चले आते हैं। नवाब साहब झपट कर उनके गले लिपट गए और बोले - भाईजान, आँखें तुम्हें ढूँढ़ती थीं।

आजाद - शुक्र है कि आपकी जियारत नसीब हुई।

नवाब - अजी, अब यह बातें न करो, बड़े-बड़े अंगरेज हुक्काम तुमसे मिलना चाहते हैं।

मुसाहब - बड़ा नाम किया। वल्लाह करोड़ों आदमी एक तरफ और हुजूर एक तरफ।

खोजी - गुलाम भी आदाब अर्ज करता है।

आजाद - तुम यहाँ कब आ गए ख्वाजा साहब?

नवाब - सुना, आपने तीन-तीन करोड़ आदमियों से अकेले मुकाबिला किया!

गफूर - अल्लाह की देन है हुजूर!

नवाब - अरे भाई, गंगा-जमुनी हुक्का भर लाओ आपके वास्ते, आजाद पाशा को ऐसा-वैसा न समझना। इनकी तारीफ कमिश्नर तक की जबान से सुनी। सुना, आपसे रूस के बादशाह से भी मुलाकात हुई। भाई, तुमने वह दरजा हासिल किया है कि हम अगर हुजूर कहें तो बजा है। कहाँ रूस के बादशाह और कहाँ हम!

खोजी - खुदावंद, मोरचे पर इनको देखते तो दंग रह जाते। जैसे शेर कछार में डँकारता है।

नवाब - क्यों भाई आजाद, इन्होंने वहाँ कोई कुश्ती निकाली थी?

आजाद - मेरे सामने तो सैकड़ों ही बार चपतियाए गए और एक बौने तक ने इनको उठाके दे मारा।

मुसाहब - भाई, इस वक्त तो भंभाड़ा फूट गया।

आजाद - क्या यह गप उड़ाते थे कि मैंने कुश्तियाँ निकालीं?

मस्तियाबेग - ऐ हुजूर, जब से आए हैं, नाक में दम कर दिया। बात हुई और करौली निकाली।

गफूर - परसों तो कहते थे कि मिस्र में हमने आजाद के बराबर के पहलवान को दम भर में आसमान दिखा दिया।

आजाद - क्या खूब! एक बौने तक ने तो उठाके दे मारा, चले वहाँ से दून की लेने।

इतने में नवाब साहब के यहाँ एक मुंशी साहब आए और आजाद को देख कर बोले - वल्लाह, आजाद पाशा साहब हैं, आपने तो बड़ा नाम पैदा किया, सुभान-अल्लाह।

नवाब - अजी, कमिश्नर साहब इनकी तारीफ करते हें। इससे ज्यादा इज्जत और क्या होगी।

खोजी - साहब, लड़ाई के मैदान में कोई इनके सामने ठहरता ही न था।

मुंशी - आपने भी बड़ा साथ दिया ख्वाजा साहब, मगर आपकी बहादुरी का जिक्र कहीं सुनने में नहीं आया।

खोजी - आप ऐसे गीदियों को मैं क्या समझता हूँ, मैंने वह-वह काम किए हैं कि कोई क्या करेगा। करौली हाथ में ली और सफों की सफें साफ कर दीं।

मुंशी - आप तो नवाब साहब के यहाँ बने हैं न?

खोजी - बने होंगे आप, बनना कैसा! क्या मैं कोई चरकटा हूँ। कसम है हुजूर के कदामों की, सारी दुनिया छान डाली, मगर आज तक ऐसा बदतमीज देखने में नहीं आया।

आजाद - जनाब ख्वाजा साहब ने जो बातें देखी हैं वह औरों को कहाँ नसीब हुई। आप जिस जगह जाते थे वहाँ की सारी औरतें आपका दम भरने लगती थीं। सबसे पहले बुआ जाफरान आशिक हुई।

खोजी - तो फिर आपको बुरा क्यों लगता है? आप क्यों जलते हैं?

नवाब - भई आजाद, यह किस्सा जरूर बयान करो। अगर आपने इसे छिपा रखा तो वल्लाह, मुझे बड़ा रंज होगा। अब फरमाइए, आपको मेरा ज्यादा ख्याल है या इस गीदी का?

खोजी - हुजूर, मुझसे सुनिए। जिस रोज आजाद पाशा और हम पिलौना के किले में थे, उस रोज की कार्रवाई देखने लायक थी। किला पाँचों तरफ से घिरा हुआ था।

मुसाहब - यह पाँचवाँ कौन तरफ है साहब? यह नई तरफ कहाँ से लाए? जो बात कहोगे वही अनोखा।

खोजी - तुम हो गधे, किसी ने बात की और तुमने काट दी, यों नहीं वों, वों नहीं यों। एक तरफ दरिया था और खुश्की भी थी। अब हुई पाँच तरफें या नहीं, मगर तुम ऐसे गौखों को हाल क्या मालूम। कभी लड़ाई पर गए हो? कभी तोप की सूरत देखी है? कभी धुआँ तक तो देखा न होगा और चले हैं वहाँ से बड़े सिपाही बन कर! तो बस जनाब, अब करें तो क्या करें। हाथ-पाँव फूले हुए कि अब जायँ तो किधर जायँ और भागे तो किधर भागें।

नवाब - सचमुच वक्त बड़ा नाजुक था।

खोजी - और रूसियों की यह कैफियत कि गोले बरसा रहे थे। बस आजाद पाशा ने मुझसे कहा कि भाईजान, अब क्या सोचते हो, मरोगे या निकल जाओगे! मेरे बदन में आग लग गई। बोला, निकलना किसे कहते है जी! इतने में किले की दीवारें चलनी हो गई। जब मैंने देखा कि अब फौज के बचने की कोई उम्मीद नहीं रही, तो तलवार हाथ में ली और अपने अरबी घोड़े पर बैठ कर निकल पड़ा और उसी वक्त दो लाख रूसियों को काट कर रख दिया।

मुसाहब - इस झूठ पर खुदा की मार।

खोजी - अच्छा, आजाद से पूछिए, बैठे तो हैं सामने।

नवाब - हजरत, सच-सच कहिएगा। बस फकत इतना बता दीजिए, यह बात कहाँ तक सच है?

आजाद - जनाब, पिलौना का जो कुछ हाल बयान किया वह तो सब ठीक है, मगर दो लाख आदमियों का सिर काट लेना महज गप है। लुत्फ यह है कि पिलौना की तो इन्होंने सूरत भी न देखी। उन दिनों तो यह खास कुस्तुनतुनियाँ में थे।

इस पर बड़े जोर का कहकहा पड़ा। बेगम साहब ने कहकहे की आवाज सुनी तो महरी से कहा - जा देख, यह कैसी हँसी हो रही है।

महरी - हुजूर, वह आए हैं मियाँ आजाद, वह गोरे-गोरे से आदमी, बस वही हँसी हो रही है।

बेगम - अख्खाह, आजाद आ गए, जाके खैर-आफियत तो पूछ! हमारी तरफ से न पूछना! वहाँ कहीं ऐसी बात न करना।

महरी - वाह हुजूर, कोई दीवानी हूँ क्या? सुनती हूँ उस मुल्क में बड़ा नाम किया। तुमने कभी तोप देखी है गफूरन?

गफूरन - ऐ खुदा न करे हुजूर!

महरी - हमने तो तोप देखी है, बल्कि रोज ही देखती हूँ।

बेगम - तोप देखी है! तुम्हारे मियाँ सवारों के साईस होंगे। तोप नहीं वह देखी है।

महरी - हुजूर, यह सामने तोप ही लगी है या कुछ और?

महल में रहीमन नाम की एक महरी और सबों से मोटी-ताजी थी। महरी ने जो उसकी तरफ इशारा किया तो बेगम साहब खिल-खिला कर हँस पड़ीं।

रहीमन - क्या पड़ा पाया है बहन गफूरन?

गफूरन - आज एक नई बात देखने में आई है बहन।

रहीमन - हमको भी दिखाओ। देखें कोई मिठाई है या खिलौना है?

गफूरन - तोप की तोप और औरत की औरत।

रहीमन - (बात समझ कर) तुम्हीं लोगों ने तो मिल कर हमें नजर लगा दी।

बेगम - ऐ आग लगे, अब और क्या मोटी होती, फूलके कुप्पा तो हो गई है।

उधर खोजी ने देखा कि यार लोग रंग नहीं जमने देते तो मौका पा कर आजाद के कदमों पर टोपी रख दी और कहा - भाई आजाद, बरसों तुम्हारा साथ दिया है, तुम्हारे लिए जान देने को तैयार रहा हूँ। मेरी दो-दो बातें सुन लो।

आजाद - मैं आपका मतलब समझ गया, कहाँ तक जब्त करूँ?

खोजी - इस दरबार में मेरे जलील करने से अगर आपको कुछ मिले तो आपको अख्तियार है।

आजाद - जनाब, आप मेरे बुजुर्ग हैं, भला मैं आपको जलील करूँगा?

खोजी - हाय अफसोस, तुम्हारे लिए जान लड़ा दी और अब इस दरबार में, जहाँ रोटियों का सहारा है, आप हमको उल्लू बनाते हैं, जिसमें रोटियों से भी जायँ!

आजाद - भई, माफ करना, अब तुम्हारी ही सी कहेंगे।

खोजी - मुरे रंग तो बाँधने दो जरा।

आजाद - आप रंग जमाएँ, मैं आपकी ताईद करूँगा।

ख्वाजा साहब का चेहरा खिल गया कि अब गप के पुल बाँध दूँगा और जब आजाद मेरा कलमा पढ़ने लगेंगे तो फिर क्या पूछना।

नवाब - ख्वाजा साहब, यह क्या बातें हो रही हैं हमसे छिप-छिप कर?

खोजी - खुदावंद, एक मामले पर बहस हो रही थी।

नवाब - कैसी बहस किस मामले पर?

खोजी - हुजूर, मेरी राय है कि इस मुल्क में भी नहरें जारी होनी चाहिए और आजाद पाशा की राय है कि नहरों से आबपाशी तो होगी, मगर मुल्क की आबहवा खराब हो जायगी।

मस्तियाबेग - अख्खाह, तो यह कहिए कि आप शहर के अंदेशे में दुबले हैं!

खोजी - तुम गौखे हो, यह बातें क्या जानो। पहले यह तो बताओ कि एक बाट्री में कितनी तोपें होती हैं? चले वहाँ से सुकरात की दुम बनके।

नवाब - खोजी है तो सिड़ी, मगर बातें कभी-कभी ठिकाने की करता है।

आजाद - इन बातों का तो इन्हें अच्छा तजरबा है।

गफूर - हुजूर, इनको बड़ी-बड़ी बातें मालूम हुई हैं।

आजाद - साहब, सफर भी तो इतना दूर-दराज का किया था! कहाँ हिंदोस्तान, कहाँ रूम! खयाल तो कीजिए।

मीर साहब - क्यों ख्वाजा साहब, पहाड़ तो आपने बहुत देखे होंगे?

खोजी - एक-दो नहीं, करोड़ों, आसमान से बातें करने वाले।

नवाब - भला आसमान वहाँ से कितनी दूर रह जाता है?

खोजी - हुजूर, बस एक दिन की राह। मगर जीना कहाँ?

नवाब - और क्यों साहब, वहाँ से तो खूब मालूम होता होगा कि मेंह किस जगह से आता है?

खोजी - जनाब, पहाड़ की चोटी पर मैं था और मेंह नीचे बरस रहा था।

नवाब - क्यों साहब, यह सच है? अजीब बात है भाई!

आजाद - जी हाँ, यह तो होता ही है, पहाड़ पर से नीचे मेंह का बरसना साफ दिखाई देता है।

मस्तियाबेग - और जो यह मशहूर है कि बादल तालाबों में पानी पीते हैं?

खोजी - यह तुम जैसे गधों में मशहूर होगा।

नवाब - भई, यह तजरबेकार लोग हैं, जो बयान करें वह सही है।

खोजी - हुजूर ने दरिया डैन्यूब का नाम तो सुना ही होगा। इतना बड़ा दरिया है कि उसके आगे समुद्र भी कोई चीज नहीं। इतना बड़ा दरिया और एक रईस के दीवानखाने के हाते से निकला है।

मीर साहब - ऐं, हमें तो यकीन नहीं आता।

खोजी - आप लोग कुएँ में मेढक हैं।

नवाब - मकान के हाते से! जैसे हमारे मकान का यह हाता?

खोजी - बल्कि इससे भी छोटा। हुजूर, खुदा की खुदाई है, इसमें बंदे को क्या दखल। और खुदावंद, हमने इस्तंबोल में एक अजायबखाना देखा।

मीर साहब - तुमको तो किसी ने धोखे में बंद नहीं कर दिया।

खोजी - बस, इन जाँगलुओं को और कुछ नहीं आता!

नवाब - अजी, तुम अपना मतलब कहो, उस अजायबखाने में कोई नई बात थी?

खोजी - हुजूर, एक तो हमने भैंसा देखा। भैंसा क्या, हाथी का पाठा था।और नाक के ऊपर एक सींग। इत्तिफाक से जिस मकान में वह बंद था उसकी तीन छड़ें टूट गई थीं। उसे रास्ता मिल तो सिमट-सिमट कर निकला। जनाब, कुछ न पूछिए, दो हजार आदमी गड़-बड़ एक के ऊपर एक इस तरह गिरे कि बेहोश। कोई चार-पाँच सौ आदमी जख्मी हुए। मैंने यह कैफियत देखी तो सोचा, अगर तुम भी भागते हो तो हँसी होगी। लोग कहेंगे कि यह फौज में क्या करते थे। जरा से भैंसे को देख कर डर गए। बस एक बार झपटके जो जाता हूँ तो गरदन हाथ आई, बस बाएँ हाथ से गरदन दबाई और दबोचके बैठ गया, फिर लाख-लाख जोर उसने मारे, मगर मैंने हुमसने न दिया। जरा गरदन हिलाई और मैंने दबोचा। जितने आदमी खड़े थे सब दंग हो गए कि वाह से पहलवान! आखिर जब मैंने देखा कि उसका दम टूट गया तो गरदगन छोड़ दी। फिर उसने बहुत चाहा कि उठे, मगर हुमन न सका। मुझसे लोग मिन्नतें करने लगे कि उसे कठघरे में डाल दो, ऐसा न हो कि बफरे तो सितम ही कर डाले। इस पर मैंने उसे एक थप्पड़ जो लगाया तो चौंधिया कर तड़ से गिरा।

मस्तियाबेग - इसके क्या मतलब? आपके खौफ के मारे लेटा तो था ही, फिर लेटे-लेटे क्यों गिर पड़ा?

खोजी - बाही हो। बस हुजूर, मैंने कान पकड़ा तो इस तरह साथ हो लिया जैसे बकरी। उसी कठघरे में फिर बंद कर दिया।

नवाब - क्यों साहब, यह किस्सा सच है?

आजाद - मैं उस वक्त मौजूद न था, शायद सच हो।

मीर साहब - बस-बस, कलई खुल गई, गजब खुदा का, झूठ भी तो कितना! इस वक्त जी चाहता है, उठके ऐसा गुद्दा दूँ कि दस गज जमीन में धँस जाय।

खोजी - कसम है खुदा की, जो अब की कोई बात मुँह से निकली तो इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि उम्र भर याद करेगा। तू अपने दिल में समझा क्या है! यह सूखी हड्डियाँ लोहे की हैं।

नवाब - इतने बड़े जानवर से इनसान क्या मुकाबला कर सकता है?

आजाद - हुजूर बात यह है कि बाज आदमियों को यह कुदरत होती है कि इधर जानवर को देखा, उधर उसकी गरदन पकड़ी। ख्वाजा साहब को भी यह तरकीब मालूम है।

नवाब - बस, हमको यकीन आ गया।

मस्तियाबेग - हाँ खुदावंद, शायद ऐसा ही हो।

मुसाहब - जब हुजूर की समझ में एक बात आ गई तो आप किस खेत की मूली हैं।

मीर साहब - और जब एक बात की लिम भी दरियाफ्त हो गई तो फिर उसमें इनकार करने की क्या जरूरत?

नवाब - क्यों साहब, लड़ाई में तो आपने खून नाम पैदा किया है, बताइए कि आपके हाथ से कितने आदमियों का खून हुआ होगा?

खोजी - गुलाप से पूछिए, इन्होंने कुल मिला कर दो करोड़ आदमियों को मारा होगा।

नवाब - दो करोड़!

खोजी - जभी तो रूम और शाम, तूरान और मुलतान, आस्ट्रिया और इँगलिस्तान, जर्मनी और फ्रांस में इनका नाम हुआ है।

नवाब - ओफ्फोह, खोजी को इतने मुल्कों के नाम याद हैं।

आजाद - हुजूर, अब इन्हें वह खोजी न समझिए।

खोजी - खुदावंद, मैंने एक दरिया पर अकेले एक हजार आदमियों का मुकाबिला किया।

नवाब - भाई, मुझे तो यकीन नहीं आता।

मस्तियाबेग - हुजूर, तीन हिस्से झूठ और एक हिस्सा सच।

मीर साहब - हम तो कहते हैं, सब डींग है।

आजाद - नवाब साहब, इस बात की तो हम भी गवाही देते हैं। इस लड़ाई में मैं शरीक न था, मगर मैंने अखबार में इनकी तारीफ देखी थी और वह अखबार मेरे पास मौजूद है।

नवाब - तो अब हमको यकीन आ गया, जब जनरल आजाद ने गवाही दी तो फिर सही है।

खोजी - वह मौका ही ऐसा था।

आजाद - नहीं-नहीं भाई, तुमने वह काम किया कि बड़े-बड़े जनरलों ने दाँतों अँगुली दबाई। वहीं तो सफशिकन भी तुम्हें नजर आए थे?

खोजी - हुजूर, यह कहना तो मैं भूल ही गया। जिस वक्त मैं दुश्मनों का सुथराव कर रहा था, उसी वक्त सफशिकन को एक दरख्त पर बैठे देखा।

नवाब - लो साहबो, सुनो, मेरे सफशिकन रूम की फौज में भी जा पहुँचे।

मुसाहब - सुभान-अल्लाह! वाह रे सफशिकन, बहादुर हो तो ऐसा हो।

खोजी - खुदाबंद, इस डाँट-डपट का बटेर भी कम देखा होगा।

नवाब - देखा ही नहीं, कम कैसा? अरे मियाँ, गफूर, जरा घर में इत्तला करो कि सफशिकन खैरियत से हैं।

गफूर डयोढ़ी पर आया। वहाँ खिदमतगार, दरबान, चपरासी सब नवाब की सादगी पर खिलखिला कर हँस रहे थे।

खिदमतगार - ऐसा उल्लू का पट्ठा भी कहीं न देखा होगा।

गफूर - निरा पागल है, वल्लाह निरा पागल।

चपरासी - अभी देखिए, तो क्या-क्या किस्से गढ़े जाते हैं।

महरी ने यह खबर बेगम साहब को दी तो उन्होंने कहकहा लगाया और कहा - इन पाजियों ने नवाब को अँगुलियों पर नचाना शुरू किया। जाके कह दो कि जरी खड़े-खड़े बुलाती हैं।

नवाब साहब उठे, मगर उठते ही फिर बैठ गए और कहा - भाई, जाने को तो मैं जाता हूँ, मगर कहीं उन्होंने मुफस्ल हाल पूछा तो?

आजाद - ख्वाजा साहब से उनका हाल पूछिए, इन्हें खूब मालूम हैं।

खोजी - साथ तो सच पूछिए तो मेरा ही उनका बहुत रहा। इनके अंगरेजी लिबास से चकराते थे।

नवाब - भला किस मोरचे पर गए थे या नहीं, या दूर ही से दुआ दिया किए?

खोजी - खुदावंद गुलाम जो अर्ज करेगा, किसी को यकीन न आएगा, इस पर मैं झल्लाऊँगा और मुफ्त ठाँय-ठाँय होगी।

नवाब - क्या मजाल, खुदा की कसम, अब तुम मेरे खास मुसाहब हो, तुमने तो तजरबा हासिल किया है वह औरों को कहाँ नसीब। तुम्हारा कौन मुकाबिला कर सकता है?

खोजी - यह हुजूर के इकबाल का असर है, वरना मैं तो किसी शुमार में न था। बात यह हुई कि गुलाम एक नदी के किनारे अफीम घोल रहा था कि जिस दरख्त की तरफ नजर डालता हूँ, रोशनी छाई हुई है। घबराया कि या खुदा, यह क्या माजरा है, इसी फिक्र में पड़ा था कि हुजूर सफशिकन न जाने किधर से आ कर मेरे हाथ पर बैठ गए।

नवाब - खुदा का शुक्र है, तुम तो बड़े खुश हुए होगे?

खोजी - हुजूर, जैसे करोड़ों रुपए मिल गए। पहले हुजूर का हाल बयान किया। फिर शहर का जिक्र करने लगे। दुनिया की सभी बातें उन पर रोशन थीं। बस हुजूर, तो यह कैफियत हुई कि दुश्मन किसी लड़ाई में जम ही न सके। इधर रूसियों ने तोपों पर बत्ती लगाई, उधर मेरे शेर ने कील ठोंक दी।

नवाब - वाह-वाह, सुभान-अल्लाह, कुछ सुनते हो यारो?

मस्तियाबेग - खुदावंद, जानवर क्या, जादू है!

खोजी - भला उनको कोई बटेर कह सकता है! और जानवर तो आप खुद हैं। आप उनकी शान में इतना सख्त और बेहूदा लफ्ज मुँह से निकालते हैं।

नवाब - मस्तियाबेग, अगर तुमको रहना है तो अच्छी तरह रहो, वरना अपने घर का रास्ता लो। आज तो सफशिकन को जानवर बनाया, कल को मुझे जानवर बनाओगे।

मुसाहब - खुदावंद, यह निरे फूहड़ हैं। बात करने की तमीज नहीं।

गफूर - अच्छा तो अब खामोश ही रहिए साहब, कुसूर हुआ।

खोजी - नहीं, सारा हाल तो सुन चुके, मगर तब भी अपनी ही सी कहे जाएँगे, दूसरा अगर इस वक्त जानवर कहता तो गलफड़े चीर कर धर देता, न हुई करौली!

नवाब - जाने भी दो, बेशऊर है।

खोजी - खुदावंद, खुशी में तो सभी लड़ सकते हैं, मगर तरी में लड़ना मुश्किल है। सो हुजूर, तरी की लड़ाई में सफशिकन सबसे बढ़ कर रहे। एक दफा का जिक्र है कि एक छोटा-दरिया था। इस तरफ हम, उस तरफ दुश्मन। मोरचे-बंदी हो गई, गोलियाँ चलने लगीं, बस क्या देखता हूँ कि सफशिकन ने एक कंकरी ली और उस पर कुछ कर पढ़ इस जोर से फेंकी कि एक तोप के हजार टुकड़े हो गए।

नवाब - वाह-वाह, सुभान अल्लाह।

मुसाहब - क्या पूछना है, एक जरा की कंकरी की यह करामात!

खोजी - अब सुनिए, कि दूसरी कंकरी जो पढ़ कर फेंकी तो एक ओर तोप फटी और बहत्तर टुकड़े हो गए। कोई तीन-चार हजार आदमी काम आए।

नवाब - इस कंकरी को देखिएगा। वल्लाह-वल्लाह! एक हजार टुकड़े तोप के और तीन-हजार आदमी गायब! वाह रे मेरे सफशिकन।

खोजी - इस तरह कोई चौदह तोपें उड़ा दीं और जितने आदमी थे सब भुन गए। कुछ न पूछिए हुजूर, आज तक किसी की समझ में न आया कि यह क्या हुआ। अगर एक गोला भी पड़ा होता तो लोग समझते, उसमें कोई ऐसा मसाला रहा होगा, मगर कंकरी तो किसी को मालूम भी नहीं हुई।

नवाब - बला की कंकरी थी कि तोप के हजारों टुकड़े कर डाले और हजारों आदमियों की जान ली। भई, जरा कोई जा कर सफशिकन की काबुक तो लाओ?

इतने में महरी ने फिर आ कर कहा - हुजूर; बड़ा जरूरी काम है, जरा चल कर सुन लें। नवाब साहब खोजी को ले कर जनानखाने में चले। खोजी की आँखों में दोहरी पट्टी बाँधी गई और वह डयोढ़ी में खड़े किए गए।

बेगम - क्या सफशिकन का कोई जिक्र था, कहाँ हैं आजकल?

नवाब - यह कुछ न पूछो, रूम जा पहुँचे। वहाँ कई लड़ाइयों में शरीक हुए और दुश्मनों का काफिला तंग कर दिया। खुदा जाने, यह सब किससे सीखा है?

बेगम - खुदा की देन है, सीखने से भी कहीं ऐसी बातें आती हैं?

नवाब - वल्लाह, सच कहती हो बेगम साहब! इस वक्त तुमसे जी खुश हो गया। कहाँ तोप, कहाँ सफशिकन, जरा खयाल तो करो।

बेगम - अगर पहले से मालूम होता तो सफशिन को हजार परदों में छिपाके रखती। हाँ, खूब याद आया, वह तो अभी जीते-जागते हैं और तुमने उनकी कब्र बनवा दी।

नवाब - वल्लाह, खूब याद दिलाया। सुभान-अल्लाह!

बेगम - यह तो कोसना हुआ किसी बेचारे को।

नवाब - अगर कहीं यहाँ आ जायँ, और पढ़े लिखे तो हैं ही, कहीं कब्र पर नजर पड़ गई, उस वक्त यही कहेंगे कि यह लोग मेरी मौत मना रहे हैं, क्या झपाके से कब्र बनवा दी। इससे बेहतर यही है कि खुदवा डालूँ।

बेगम - जहन्नुम में जाय। इस अफीमची को घर के अंदर लाने की क्या जरूरत थी?

नवाब - अजी, यह वही हैं जिनको हम लोग खोजी-खोजी कहते हैं। लड़ाई के मैदान में सफशिकन इन्हीं से मिले थे। अगर कहो तो यहाँ बुला लूँ।

बेगम - ऐ जहन्नुम में जाय मुआ, और सुनो, उस अफीमची को घर के अंदर लाएँगे।

नवाब - सुन तो लो। पहले बूढ़ा, पेट में आँत न मुँह में दाँत, दूसरे मातबर, तीसरे दोहरी पट्टी बँधी है।

बेगम - हाँ, इसका मुजायका नहीं, मगर में उन मुए लुंगाड़ों के नाम से जलती हूँ, उन्हीं की सोहबत में तुम्हारा यह हाल हुआ।

नवाब - ऐं, क्या खूब!

खोजी - खुदावंद, गुलाम हाजिर है।

महरी - मैं तो समझी कि कुएँ में से कोई बोला।

बेगम - क्या यह हरदम पिनक में रहता है?

नवाब - ख्वाजा साहब, क्या सो गए?

दरबार - ख्वाजा साहब, देखो सरकार क्या फरमाते हैं?

खोजी - क्या हुक्म है खुदावंद!

बेगम - देखो, खुदा जानता है, ऊँघ रहा था। मैं तो कहती ही थी।

नवाब - भाई, जरा सफशिकन का हाल तो कह चलो।

खोजी - खुदावंद, तो अब आँखें तो खुलवा दीजिए।

बेगम - क्या कुतिया के पिल्ले की आँखें हैं जो अब भी नहीं खुलतीं।

नवाब - पहले हाल तो बयान करो। जरा तोपवाला जिक्र फिर करना, यहाँ किसी को यकीन ही नहीं आता।

खोजी - हुजूर, क्योंकर यकीन आए, जब तक अपनी आँखों से न देखेंगे, कभी न मानेंगे।

नवाब - तो भाई हमने क्योंकर मान लिया, इतना तो सोचो?

खोजी - खुदा ने सरकार को देखने वाली आँखें दी हैं। आप न समझें तो कौन समझे। हुजूर, यह कैफियत हुई कि दरिया के दोनों तरफ आमने-सामने तोपें चढ़ी हुई थीं। बस सफशिकन ने एक कंकरी उठा कर, खुदा जाने क्या जादू फँक दिया कि इधर कंकरी फेंकी और उधर तोप के दो सौ टुकड़ें और हर टुकड़े ने सौ-सौ रूसियों की जान ली।

बेगम - इस झूठ को आग लगे, अफीम पी-पी के निगोड़ों को क्या-क्या सूझती है। बैठे-बैठे एक कंकरी से तोप के सौ टुकड़े हो गए। खुदा का डर ही नहीं।

नवाब - तुम्हें यकीन ही न आए तो कोई क्या करे।

बेगम - चलो, बस खामोश रहो, जरा सा मुआ बटेर और कंकरी से उसने तोप के दो सौ टुकड़े कर डाले। खुदा जानता है, तुम अपनी फस्द खुलवाओ।

नवाब - अब खुदा जाने, हमें जनून है या तुम्हें।

खोजी - खुदावंद, बहस से क्या फायदा! औरतों की समझ में यह बातें नहीं आ सकतीं।

बेगम - महरी, जरा दरबान से कह, इस निगोड़े अफीमची को जूते मारके निकाल दे। खबरदार जो इसको कभी डयोढ़ी में आने दिया।

खोजी - सरकार तो नाहक खफा होती हैं।

बेगम - मालूम होता है, आज मेरे हाथों तुम पिटोगे, अरे महरी, खड़ी सुनती क्या है, जाके दरबान को बुला ला।

हुसैनी दरबान ने आ कर खोजी के कान पकड़े और चपतियाता हुआ ले चला।

खोजी - बस-बस, देखो, कान-वान की दिल्लगी अच्छी नहीं।

महबूबन - अब चलता है या मचलता है?

खोजी - (टोपी जमीन से उठा कर) अच्छा, अगर आज जीते बच जाओ तो कहना। अभी एक थप्पड़ दूँ तो दम निकल जाय।

इतना कहना था कि दूसरी महरी आ पहुँची और कान पकड़ कर चपतियाने लगी। खोजी बहुत बिगड़े, मगर सोचे कि अगर सब लोगों को मालूम हो जायगा कि महरियों की जूतियाँ खाईं तो बेढब होगी। झाड़-पौंछ कर बाहर आए और एक पलंग पर लेट रहे।

खोजी के जाने के बाद बेगम साहब ने नवाब को खूब ही आड़े हाथों लिया। जरा सोचो तो कि तुम्हें हो क्या गया है। कहाँ बटेर और कहाँ तोप, खुदा झूठ न बोलाए तो बिल्ली खा गई हो, या इन्हीं मुसाहबतों में से किसी ने निकल कर बेच लिया होगा और तुम्हें पट्टी पढ़ा दी कि वह सफशिकन थे। आखिर तुम किसी अपने दोस्त से पूछो। देखो, लोगों की क्या राय हैं?

नवाब - खुदा के लिए मेरे मुसाहबों को न कोसों, चाहे मुझे बुरा-भला कह लो।

बेगम - इन मुफ्तखोरों से खुदा समझे।

नवाब - जरा आहिस्ता-आहिस्ता बोलो, कहीं वह सब सुन लें, तो सब के सब चलते हों और मैं अकेला मक्खियाँ मारा करूँ।

बेगम - ऐ है, ऐसे बड़े खरे हें! तुम जूतियाँ मार के निकालो तो भी ये चूँ न करें। जो बस निकल जायँ तो होगा क्या? वह कल जाते हों तो आज ही जायँ।

महरी - हुजूर तो चूक गईं, जरी इस मुए खोजी की कहानी तो सुनी होती। हँसते-हँसते लोट जातीं।

बेगम - सच, अच्छा तो उसको बुलाओ जरी, मगर कह देना कि झूठ बोला और मैंने खबर ली।

नवाब - या खुदा, यह तुमसे किसने कह दिया कि वह झूठ ही बोलेगा। इतने दिनों से दरबार में रहता है, कभी झूठ नहीं बोला तो अब क्यों झूठ बोलने लगा?और आखिर इतना तो समझो कि झूठ बोलने से उसको मिल क्या जायगा?

बेगम - अच्छा, बुलाओ। मैं भी जरा सफशिकन का हाल सुनूँ।

महरी ने जा कर खोजी को बुलाया। ख्वाजा साहब झल्लाए हुए पलंग पर पड़े थे । बोले - जा कर कह दो, अब हम वह खोजी नहीं हैं जो पहले थे, आने-वाले और जानेवाले, बुलानेवाले और बुलवानेवाले, सबको कुछ कहता हूँ।

आखिर लोगों ने समझाया तो ख्वाजा साहब ड्योढ़ी में आए और बोले - आदाब अर्ज करता हूँ सरकार, अब क्या फिर कुछ मेहरबानी की नजर गरीब के हाल पर होगी? सभी कुछ इनाम बाकी हो तो अब मिल जाय।

बेगम - सफशिकन का कुछ हाल मालूम हो तो ठीक-ठीक कह दो। अगर झूठ बोले तो तुम जानोगे।

खोजी - वाह री किस्मत, हिंदोस्तान से बंबई गए, वहाँ सब के सब 'हुजूर- हुजूर' कहते थे। तुर्की और रूस में कोहकाफ की परियाँ हाथ बाँधे हाजिर रहती थीं। मिस रोज एक-एक बात पर जान देती थीं, अब भी उसकी याद आ जाती है तो रात भर अच्छे-अच्छे ख्वाब देखा करता हूँ -

ख्वाब में एक नूर आता है नजर;
याद में तेरी जो सो जाते हैं हम।

बेगम - अब बताओ, है पक्का अफीमची या नहीं, मतलब की बात एक न कही वाही-तबाही बकने लगा।

खोजी - एक दफे का जिक्र है कि पहाड़ के ऊपर तो रूसी और नीचे हमारी फौज। हमको मालूम नहीं कि रूसी मौजूद है। वहीं पड़ाव का हुक्म दे दिया। फौज तो खाने पीने का इंतजाम करने लगी और मैं अफीम घोलने लगा कि एकाएक पहाड़ पर से तालियों की आवाज आई। मैं प्याली ओठों तक ले गया था कि ऊपर से रूसियों ने बाढ़ मारी। हमारे सैकड़ों आदमी घायल हो गए। मगर वाह रे, खुदा गवाह है, प्याली हाथ से न छूटी। एकाएक देखता हूँ कि सफशिकन उड़े चले आते हैं, आते ही मेरे हाथ पर बैठ कर चोंच अफीम से तर की, और उसके दो कतरे पहाड़ पर गिरा दिए। बस धमाके की आवाज हुई और पहाड़ फट गया। रूस की सारी फौज उसमें समा गई। मगर हमारी तरफ का एक आदमी भी न मरा। मैंने सफशिकन का मुँह चूम लिया।

बेगम - भला सफशिकन बातें किस जबान में करते हैं?

खोजी - हुजूर, एक जबान हो तो कहूँ, उर्दू, फारसी, अरबी, तुर्की, अंगरेजी।

बेगम - क्या और जबानों के नाम नहीं याद हैं?

खोजी - अब हुजूर से कौन कहे।

नवाब - अब यकीन आया कि अब भी नहीं? और जो कुछ पूछना हो, पूछ लो।

बेगम - चलो, बस चुपके बैठ रहो। मुझे रंज होता है कि इन हरामखोरों के पास बैठ-बैठ तुम कहीं के न रहे।

नवाब - हाय अफसोस, तुम्हें यकीन ही नहीं आता, भला सोचो तो, यह सब के सब मुझसे क्यों झूठ बोलेंगे। खोजी को मैं कुछ इनाम दे देता हूँ या कोई जागीर लिख दी है इसके नाम?

खोजी - खुदावंद, अगर इसमें जरा भी शक हो तो आसमान फट पड़े। झूठ बात तो जबान से निकलेगी ही नहीं, चाहे कोई मार डाले।

बेगम - अच्छा, ईमान से कहना कि कभी मोरचे पर भी गए या झूठ-मूठ के फिकरे ही बनाया करते हो?

खोजी - हुजूर मालिक हैं, जो चाहें, कह दें, मगर गुलाम ने जो बात अपनी आँखों देखी, वह बयान की। अगर फर्क हो तो फाँसी का हुक्म दे दीजिए।

एक बूढ़ी महरी ने खोजी की बातें सुनने के बाद बेगम से कहा - हुजूर, इसमें ताज्जुब की कौन बात है, हमारे महल्ले में एक बड़ा काला कुत्ता रहा करता था। मुहल्ले के एक लड़के उसे मारते, कान पकड़ कर खींचते, मगर वह चूँ भी नहीं करता था। एक दिन महल्ले के चौकीदार ने उस पर एक ढेला फेंका। ढेला उसके कान में लगा और कान से खून बहने लगा। चौकीदार दूसरा ढेला मारना ही चाहता था कि एक जोगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, क्यों जान का दुश्मन हुआ है बाबा। यह कुत्ता नहीं है। उसी रात को चौकीदार ने ख्वाब देखा कि कुत्ता उसके पास आया! और अपना घाव दिखा कर कहा - या तो हमीं नहीं, या तुम्हीं नहीं। सबेरे जो चौकीदार उठा तो उसने पास-पड़ोसवालों से ख्वाब का जिक्र किया। मगर अब देखते हें तो कुत्ते का कहीं पता ही नहीं। दोपहर को चौकीदार कुएँ पर पानी भरने गया तो पानी देखते ही भूँकने लगा।

बेगम - सच?

महरी - हुजूर, अल्लाह बचाए इस बला से, कुत्ते के भेस में क्या जाने कौन था।

नवाब - अब इसको क्या कहोगी भई, अब भी सफशिकन के कमाल को न मानोगी?

बेगम - हाँ, ऐसी बातें तो हमने भी सुनी हैं, मगर...

खोजी - अगर-मगर की गुँजायश नहीं, गुलाम आँखों देखी कहता है। एक किस्सा और सुनिए, आपको शायद इसका भी यकीन न आए। सफशिकन मेरे सिर पर आ कर बैठ गए और कहा, रूसियों की फौज में धँस पड़ो। मेरे होश उड़ गए। बोला, साहब आप हैं कहाँ? मेरी जान जायगी, आपके नजदीक दिल्लगी है, मगर वह सुनते किसकी हैं। कहा, चलो तो तुम! आधी रात थी, घटा छाई हुई थी, मगर मजबूरन जाना पड़ा। बस, रूसी फौज में जा पहुँचा। देखा, कोई गाता है, कोई सोता है। हम सबको देखते हैं, मगर हमें कोई नहीं देखता। सफशिकन अस्तबल की तरफ चले और फुदक के एक घोड़े की गरदन पर जा बैठे। घोड़ा धम से जा गिरा, अब जिस घोड़े की गरदन पर बैठते हैं, जमीन पर लोटने लगता है। इस तरह कोई सात हजार घोड़े उसी दम धम-धम करके लोट गए। फौज से निकले तो आपने पूछा, कहो आज की दिल्लगी देखी, कितने सवार बेकार हुए!

मैं - हुजूर, पूरे सात हजार!

सफशिकन - आज इतना ही बहुत है, कल फिर देखी जायगी, चलो, अपने पड़ाव पर चलें। चलते-चलते जब थक जाओ तो हमसे कह दो।

मैं - क्यों, आपसे क्या कह दूँ?

सफशिकन - इसलिए कि हम उतर जायँ।

मैं - वाह, मुट्ठी भर के आप, भला आपके बैठने से मैं क्या थक जाऊँगा? आप क्या और आपका बोझ क्या?

इतना सुनना था कि खुदा जाने ऐसा कौन सा जादू कर दिया कि मेरा कदम उठाना मुहाल हो गया। मालूम होता था, सिर पर पहाड़ का बोझ लदा हुआ है। बोला, हुजूर, अब तो बहुत ही थक गया, पैर ही नहीं उठते। बस, फुर्र से उड़ गए। ऐसा मालूम हुआ कि सिर से दस-बीस करोड़ मन बोझा उतर गया।

नवाब - यह तो भाई, नई-नई बातें मालूम होती जाती हैं। वाह रे सफशिकन।

खोजी - हुजूर, खुदा जाने, किस औलिया ने यह भेस बदला है।

बेगम साहब ने इस वक्त तो कुछ न कहा, मगर ठान ली कि आज रात को नवाब साहब को खूब आड़े हाथों लूँगी। नवाब साहब ने समझा कि बेगम साहब को सफशिकन के कमाल का यकीन आ गया। बाहर आ कर बोले - वल्लाह, तुमने तो ऐसा समा बाँध दिया कि अब बेगम साहब को उम्र भर शक न होगा।

खोजी - हुजूर, सब आँखों देखी बात बयान की है।

नवाब - यही तो मुश्किल है कि वह सच्ची बातों को भी बनावट समझती हैं।

खोजी - समझ में नहीं आता, मुझसे क्यों इतनी नाराज हैं।

नवाब - नाराज नहीं हैं जी, मतलब यह कि अब इस बात को सिवा पढ़े-लिखे आदमी के और कौन समझ सकता है। और भई, मैं सोचता हूँ कि आखिर कोई झूठ क्यों बोलने लगा, झूठ बोलने में किसी को फायदा ही क्या है।

खोजी - ऐ सुभान-अल्लाह, क्या बात हुजूर ने पैदा की है! सच-मुच कोई झूठ क्यों बोलने लगा। एक तो झूठा कहलाए, दूसरे बे आबरू हो।

नवाब - भाई, हम इनसान को खूब पहचानते हैं। आदमी का पहचानना कोई हमसे सीखे। मगर दो को हमने भी नहीं पहचाना। एक तुमको, दूसरे सफशिकन को।

खोजी - खुदावंद, मैं यह न मानूँगा, हुजूर की नजर बड़ी बारीक है।

नवाब साहब खोजी की बातों से इतने खुश हुए कि उनके हाथ में हाथ दिए बाहर आए। मुसाहबों ने जो इतनी बेतकल्लुफी देखी तो जल मरे, आपस में इशारे होने लगे -

मस्तियाबेग - ऐं, मियाँ खोजी ने तो जादू कर दिया यारो!

गफूर - जरूर किसी मुल्क से जादू सीख आए हैं।

मस्तियाबेग - तजरबाकार हो गया न, अब इसका रंग कुछ जम गया।

गफूर - कैसा कुछ, अब तो सोलहों आने के मालिक हैं।

मिरजा - अरे मियाँ, दोनों हाथ में हाथ दे कर निकले, वाह री किस्मत। मगर यह खुश किस बात पर हुए?

गफूर - इनको अभी तक यही नहीं मालूम, बताइए साहब!

मस्तियाबेग - मियाँ, अजब, कूढमगज हो, कहने लगे, खुश किस बात पर हुए। सफशिकन की तारीफों के पुल बाँध दिए। सूझ ही तो है, अब लाख चाहें कि उसका रंग फीका कर दें, मुमकिन नहीं।

मिरजा - इस वक्त तो खोजी का दिमाग चौथे आसमान पर होगा।

मस्तियाबेग - अजी, बल्कि और उसके भी पार, सातवें आसमान पर।

गफूर - मैं बाग में गया था, देखा, नवाब साहब मोढ़े पर बेठे हैं और खोजी तिपाई पर बैठा हुआ, खास सरकार की गुड़गुड़ी पी रहा है?

मिरजा - सच, तुम्हें खुदा की कसम!

गफूर - चल कर देख लीजिए न, बस जादू कर दिया। यह वही खोती हैं जो चिलमें भरा करते थे, मगर जादू का जोर, अब दोस्त बने हुए हैं।

मिरजा - खोजी को सब के सब मिल कर मुबारकबाद दो और उनसे बढ़िया दावत लो। अब इससे बढ़ कर कौन दरजा है?

इतने में नवाब साहब खोजी को लिए हुए दरबार में आए, मुसाहब उठ खड़े हुए। ख्वाजा साहब को सरकार ने अपने करीब बिठाया और आजाद से बोले - हजरत, आपकी सोहबत में ख्वाजा साहब पारस हो गए।

आजाद - जनाब, यह सब आपकी खिदमत का असर है। मेरी सोहबत में तो थोड़े ही दिनों से हैं, आपकी शागिर्दी करते बरसों गुजर गए।

नवाब - वाह, अब तो ख्वाजा साहब मेरे उस्ताद हैं जनाब!

मस्तियाबेग - खुदावंद, यह क्या फरमाते हैं। हुजूर के सामने खोजी की क्या हस्ती है?

नवाब - क्या बकता है? खोजी की तारीफ से तुम सब क्यों जल मरते हो?

मिरजा - खुदावंद, यह मस्तियाबेग तो दूसरों को देख कर हमेशा जलते रहते हैं।

गफूर - यह परले सिर के गुस्ताख हैं, बात तो समझे नहीं, जो कुछ मुँह में आया, बक दिए। आखिर ख्वाजा साहब बेचारे ने इनका क्या बिगाड़ा!

नवाब - मुझको सुनो साहब, दिल में पुरानी कुदूरत है।

मुसाहब - सुभान-अल्लाह! हुजूर, बस यही बात है।

खोजी - हुजूर इसका ख्याल न करें। यह जो चाहें, कहें। भाई गफूर, जरा सा पानी पीएँगे।

नवाब - ठंडा पानी लाओ ख्वाजा साहब के वास्ते।

खिदमतगार सुराही का झला ठंडा पानी लाया, चाँदी के कटोरे में पानी दिया। जब ख्वाजा साहब पानी पी चुके तो नवाब साहब ने पानदान से दो गिलौरियाँ निकाल कर खास अपने हाथ से उनको दीं।

मिरजा - मैंने मस्तियाबेग से हजार बार कहा कि भाई, तुम किसी को देख के जले क्यों मरते हो, कोई तुम्हारा हिस्सा नहीं छीन ले जाता, फिर ख्वाहम-ख्वाह के लिए अपने को क्यों हलकान करते हो।

नवाब - मुझे इस वक्त उसकी बातें बहुत नागवार मालूम हुई।

मुसाहब - जानते हैं कि इस दरबार में खुशामदियों की दाल नहीं गलती, फिर भी अपनी हरकत से बाज नहीं आते।

मुसाहब लोग तो बाहर बैठे सलाह कर रहे थे, इधर दरबार में नवाब साहब, आजाद और खोजी में यूरोप के रईसों का जिक्र होने लगा। आजाद ने यूरोप के रईसों की खूब तारीफ की।

नवाब - क्यों साहब, हम लोग भी उन रईसों की तरह रह सकते हैं?

आजाद - बेशक, अगर उन्हीं की राह पर चलिए। आपकी सोहबत में चंडूबाज, मदकिए, चरसिए इस कसरत से हैं कि शायद ही कोई इनसे खाली हो। यूरोप के रईसों के यहाँ ऐसे आदमी फटकने भी न पाएँ!

नवाब - कहिए तो ख्वाजा साहब के सिवा और सबको निकाल दूँ।

खोजी - निकालिए चाहे रहने दीजिए, मगर इतना हुक्म जरूर दे दीजिए कि आपके सामने दरबार में न कोई चंडू के छींटे उड़ाए, न मदक के दम लगाए और न अफीम घोले।

आजाद - दूसरी बात यह है कि खुशामदी लोग आपकी झूठी तारीफे कर-करके खुश करते हैं। इनको झिड़क दीजिए और इनकी खुशामद पर खुश न होइए।

नवाब - आप ठीक कहते हैं। वल्लाह, आपकी बात मेरे दिल में बैठ गई। यह सब भर्रे दे-दे कर मुझे बिलटाए देते हैं।

आजाद - आपको खुदा ने इतनी दौलत दी है, यह इस वास्ते नहीं कि आप खुशामदियों पर लुटाएँ। इसको इस तरह काम में लाएँ कि सारी दुनिया में नहीं तो हिंदोस्तान भर में आपका नाम हो जाय। खैरातखना कायम कीजिए, अस्पताल बनवाइए, आलिमों की कदर कीजिए। मैंने आपके दरबार में कसिी आलिम फाजिल को नहीं देखा।

नवाब - बस, आज ही से इन्हें निकाल बाहर करता हूँ।

आजाद - अपनी आदतें भी बदल डालिए, आप दिन को ग्यारह बजे सो कर उठते और हाथ-मुँह धो कर चंडू के छींटे उड़ाते हैं। इसके बाद इन फिकरेबाजों से चुहल होती है। सुबह का खाना आपको तीन बजे नसीब होता है। आप फिर आराम करते हें तो शाम से पहले नहीं उठते। फिर वही चंडू और मदक का बाजार गर्म होता है। कोई दो बजे रात को आप खाना खाते हैं। अब आप ही इनसाफ कीजिए कि दुनिया में आप कौन सा काम करते हैं।

नवाब - इन बदमाशों ने मुझे तबाह कर दिया।

आजाद - सबेरे उठिए, हवा खाने जाइए, अखबार पढ़िए, भले आदमियों की सोहबत में बैठिए, अच्छी-अच्छी किताबें पढ़िए, जरूरी कागजों को समझिए, फिर देखिए कि आपकी जिंदगी कितनी सुधर जाती हैं।

नवाब - खुदा की कसम, आज से ऐसा ही करूँगा,एक-एक हर्फ की तामील न हो तो समझ लीजिएगा, बड़ा झूठा आदमी हैं।

खोजी - हुजूर, मुझे तो बरसों इस दरबार में हो गए, जब सरकार ने कोई बात ठान ली तो फिर चाहे जमीन और आसमान एक तरफ हो जाय, आप उसके खिलाफ कभी न करेंगे। बरसों से यही देखता आता हूँ।

आजाद - एक इश्तहार दे दीजिए कि लोग अच्छी-अच्छी किताबें लिखें, उन्हें इनाम दिया जायगा। फिर देखिए, आपका कैसा नाम होता है!

नवाब - मुझे किसी बात में उज्र नहीं है।

उधर मुसाहबों में और ही बातें हो रही थीं -

मस्तियाबेग - वल्लाह, आज तो अपना खून पी कर रह गया यारो।

मिरजा - देखते हो, किस तरह झिड़क दिया!

मस्तियाबेग - झिड़क क्या दिया, बस कुछ न पूछो, मैं - जान-बूझ कर चुप हो रहा, नहीं बेढब हो जाती। किसी ने अपनी इज्जत नहीं बेची है। और अब आपस में सलाहें हो रही हैं। खोजी ने सबको बिलटाया।

मस्तियाबेग - कोई लाख कहे, हम न मानेंगे, यह सब जादू का खेल हैं।

गफूर - मियाँ, इसमें क्या शक है, यह जादू नहीं तो है क्या?

मिरजा - अजी, उल्लू का गोश्त नवाब साहब को न खिला दिया हो तो नाक कटवा डालूँ। इन लोगों ने मिल कर उल्लू का गोश्त खिला दिया है, जभी तो उल्लू बन गए, अब उनसे कहे कौन?

मस्तियाबेग - कहके बहुत खुश हुए कि अब किसी दूसरे को हिम्मत होगी।

गफूर - अब तो कुछ दिन खोजी की खुशामद करनी पड़ेगी।

मस्तियाबेग - हमारी जूती उस पाजी की खुशामद करती है।

मिरजा - फिर निकाले जाओगे, यहाँ रहना है तो खोजी को बाप बनाओ, दरिया में रहना और मगर से बैर?

मस्तियाबेग - दो-चार दिन रहके यहाँ का रंग-ढंग देखते हैं। अगर यही हाल रहा तो हमारा इस्तीफा है, ऐसी नौकरी से बाज आए! बराबरवालों की खुशामद हमसे न हो सकेगी।

मीर साहब - बराबरवाले कौन? तुम्हारे बराबरवाले होंगे। हम तो खोजी को जलील समझते हैं।

गफूर - अरे साहब, अब तो यह सबके अफसर हैं और हम तो उन्हें गुड़-गुड़ी पिला चुके। आप लोग उन्हें मानें या न मानें, हमारे तो मालिक हैं।

मिरजा - सौ बरस बाद घूरे के भी दिन फिरते हैं। भाईजान, किसी को इसका गुमान भी था कि खोजी को सरकार इस तपाक से अपने पास बिठाएँगे, मगर अब आँखों देख रहे हैं।

नवाब साहब बाहर आए तो इस ढंग से कि उनके हाथ में एक छोटी सी गुड़गुड़ी और ख्वाजा साहब पी रहे हैं। मुसाहबों के रहे-सहे होश भी उड़ गए। ओफ्फोह, सरकार के हाथ में गुड़गुड़ी और यह टुकरचा, रईस बना हुआ दम लगा रहा है। नवाब साहब मसनद पर बैठे तो खोजी को भी अपने बराबर बिठाया। मुसाहब सन्नाटे में आ गए। कोई चूँ तक नहीं करता, सबकी निगाह खोजी पर है। बारे मीर साहब ने हिम्मत करके बात-चीत शुरू की -

मीर साहब - खुदावंद, आज कितनी बहार का दिन है, चमन से कैसी भीनी-भीनी खुशबू आ रही हैं।

नवाब - हाँ, आज का दिन इसी लायक है कि कोई इल्मी बहस हो।

मीर साहब - खुदावंद, आज का दिन तो गाना सुनने के लिए बहुत अच्छा है।

नवाब - नहीं, कोई इल्मी बहस होनी चाहिए। ख्वाजा साहब, आप कोई बहस शुरू कीजिए।

मस्तियाबेग - (दिल में) इनके बाप ने भी कभी इल्मी बहस की थी?

मिरजा - हुजूर, ख्वाजा साहब की लियाकत में क्या शक है, मगर -

नवाब - अगर-मगर के क्या मानी? क्या ख्वाजा साहब के आलिम होने में आप लोगों को कुछ शक है?

मिरजा - मिस इल्म की बहस कीजिएगा ख्वाजा साहब? इल्म का नाम तो मालूम हो।

खोजी - हम इल्म जालोजी में बहस करते हैं, बतलाइए, इस इल्म का क्या मतलब है?

मिरजा - किस इल्म का नाम लिया आपने, जालोजी! यह जालोजी क्या बला है?

नवाब - जब आपको इस इल्म का नाम तक नहीं मालूम तो बहस क्या खाक कीजिएगा। क्यों ख्वाजा साहब, सुना है कि दरिया में जहाजों के डुबो देने के औजार भी अँगरेजों ने निकाले हैं। यह तो खुदाई करने लगे!

खोजी - उस औजार का नाम तारपेडो है। दो जहाज हमारे सामने डुबो दिए गए! पानी के अंदर ही अंदर तारपेडो छोड़ा जाता है, बस जैसे ही जहाज के नीचे पहुँचा वैसे ही फटा। फिर तो जनाब, जहाज के करोड़ों टुकड़े हो जाते हैं।

मस्तियाबेग - और क्यों साहब, यह बम का गोला कितनी दूर का तोड़ करता है?

खोजी - बम के गोले कई किस्म के होते हैं, आप किस किस्म का हाल दरियाफ्त करते हैं?

मस्तियाबेग - अजी, यही बम को गोले।

खोजी - आप तो यही-यही करते हैं, उसका नाम तो बतलाइए?

नवाब - क्यों जनाब, लड़ाई के वक्त आदमी के दिल का क्या हाल होता होगा? चारों तरफ मौत ही मौत नजर आती होगी?

मिरजा - मैं अर्ज करूँ हुजूर, लड़ाई के मैदान में आ कर जरा...।

नवाब - चुप रहो साहब, तुमसे कौन पूछता है, कभी बंदूक की सूरत भी देखी है या लड़ाई का हाल ही बयान करने चले!

खोजी - जनाब, लड़ाई के मैदान में जान का जरा भी खौफ नहीं मालूम होता। आपको यकीन न आएगा, मगर मैं सही कहता हूँ कि इधर फौजी बाजा बजा और उधर दिलों में जोश उमड़ने लगा। कैसा ही बुजदिल हो, मुमकिन नहीं कि तलवार खींच कर फौज के बीच में धँस न जाय। नंगी तलवार हाथ में ली और दिल बढ़ा। फिर अगर दो करोड़ गोले भी सिर पर आएँ तो क्या मजाल कि आदमी हट जाय।

खोजी यही बातें कर रहे थे कि खिदमतगार ने आ कर कहा - हुजूर, बाहर एक साहब आए हैं, और कहते हैं, नवाब साहब को हमारा सलाम दो, हमें उनसे कुछ कहना है। नवाब साहब ने कहा - ख्वाजा साहब, आप जरा जा कर दरियाफ्त कीजिए कि कौन साहब हैं। खोजी बड़े गरूर के साथ उठे और बाहर जा कर साहब को सलाम किया। मालूम हुआ कि यह पुलिस का अफसर है, जिले के हाकिम ने उसे आजाद का हाल दरियाफ्त करने के लिए भेजा है।

खोजी - आप साहब से जा कर कह दीजिए, आजाद पाशा नवाब साहब के मेहमान हैं और उनके साथ ख्वाजा साहब भी हैं।

अफसर - तो साहब उनसे मिलनेवाला है। अगर आज उनको फुरसत हो तो अच्छा, नहीं तो जब उनका जी चाहे।

खोजी - मैं उनसे पूछ कर आपको लिख भेजूँगा।

इस्पेक्टर साहब चले गए तो मस्तियाबेग ने कहा - क्यों साहब, यह बात हमारी समझ में नहीं आई कि आपने आजाद पाशा से इसी वक्त क्यों न पूछ लिया। एक ओहदेदार को दिक करने से क्या फायदा? खोजी ने त्योरियाँ बदल कर कहा - तुमसे हजार बार मना किया कि इस बारे में न बोला करो, मगर तुम सुनते ही नहीं। तुम तो हो अक्ल के दुश्मन, हम चाहते हैं कि आजाद पाशा जब किसी हाकिम से मिलें तो बराबर की मुलाकात हो। इस वक्त यह वर्दी नहीं पहने हैं। कल जब यह फौजी वर्दी पहन कर और तमगे लगा कर हाकिम-जिला से मिलेंगे तो वह खड़ा हो कर ताजीम करेगा।

नवाब - अब समझे या अब भी गधे ही बने हो? ख्वाजा साहब को तौलने चले हैं! वल्लाह, ख्वाजा साहब, आपने खूब सोची। अगर इस वक्त कह देते कि आजाद वह क्या बैठे हैं तो कितनी किरकिरी होती।

इतने में खाने का वक्त आ पहुँचा। खाना चुना गया, सब लोग खाने बैठे, उस वक्त खोजी ने एक किस्सा छेड़़ दिया - हुजूर, एक बार जब अंगरेजों की डच लोगों से मुठभेड़ हुई तो अंगरेजी अफसर ने कहा, अगर कोई आदमी दूसरी तरफ के जहाजों को ले आए तो हमारी फतह हो सकती है, नहीं तो हमारा बेड़ा तबाह हो जायगा। इतना सुनते ही बारह मल्लाह पानी में कूद पड़े। उनके साथ पंद्रह साल का एक लड़का भी पानी में कूदा।

नवाब - समुद्र में, ओफ्फोह!

खोजी - खुदावंद, उनसे बढ़ कर दिलेर और कौन हो सकता है? बस अफसर ने मल्लाहों से कहा, इस लड़के को रोक लो। लड़के ने कहा, वाह, मेरे मुल्क पर अगर मेरी जान कुरबान हो जाय तो क्या मुजायका? यह कह कर वह लड़का तैरता हुआ निकल गया।

नवाब - ख्वाजा साहब, कोई ऐसी फिक्र कीजिए कि हमारी-आपकी दोस्ती हमेशा इसी तरह कायम रहे।

खोजी - भाई सुनो, हमें खुशामद करनी मंजूर नहीं, अगर साहब-सलामत रखना है तो रखिए, वरना आप अपने घर खुश और मैं अपने घर खुश।

नवाब - यार, तुम तो बेवजह बिगड़ खड़े होते हो।

खोजी - साफ तो यह है कि जो तजरबा हमको हासिल हुआ है उस पर हम जितना गरूर करें, बजा है।

नवाब - इसमें क्या शक है जनाब।

खोजी - आप खूब जानते हैं कि आलिम लोग किसी की परवा नहीं करते। मुझे दुनिया में किसी से दबके चलना नागवार है, और हम क्यों किसी से दबें? लालच हमें छू नहीं गया, हमारे नजदीक बादशाह और फकीर दोनों बराबर। जहाँ कहीं गया, लोगों ने सिर और आँखों पर बिठाया। रूम, मिस्र, रूस बगैरह मुल्कों में मेरी जो कदर हुई वह सारा जमाना जानता है। आपके दरबार में आलिमों की कदर नहीं। वह देखिए, नालायक मस्तियाबेग आपके सामने चंडू का दम लगा रहा है। ऐसे बदमाशों से मुझे नफरत है।

नवाब - कोई है, इस नालायक को निकाल दो यहाँ से।

मुसाहिब - हुजूर तो आज नाहक खफा होते हैं, इस दरबार में तो रोज ही चंडू के दम लगा करते हैं। इसने किया तो क्या गुनाह किया?

नवाब - क्या बकते हो, हमारे यहाँ चंडू का दम कोई नहीं लगाता।

खोजी - हमें यहाँ आते इतने दिन हुए, हमने कभी नहीं देखा, चंडू पीना शरीफों का काम ही नहीं।

मिरजा - तुम तो गजब करते हो खोजी, जमाने भर के चंडूबाज, अफीमची, अब आए हो वहाँ से बढ़-बढ़के बातें बनाने। जरा सरकार ने मुँह लगाया तो जमीन पर पाँव ही नहीं रखते।

नवाब - गफूर इन सब बदमाशों को निकाल बाहर करो। खबरदार जो आज से कोई यहाँ आने पाया।

मीर साहब - खुदावंद! बस, कुछ न कहिएगा, हम लोगों ने अपनी इज्जत नहीं बेची हैं।

नवाब - निकालो इन सबों को, अभी-अभी निकाल दो।

ख्वाजा साहब शह पा कर उठे और एक कतारा लेकर मस्तियाबेग पर जमाया। वह तो झल्लाया था ही, खोजी को एक चाँटा दिया, तो गिर पड़े, इतने में कई सिपाही आ गए, उन्होंने मस्तियाबेग को पकड़ लिया और बाकी सब भाग खड़े हुए। खोजी झाड़ पोंछ कर उठे और उठते ही हुक्म दिया कि मस्तियाबेग को उस दरख्त में बाँधकर दो सौ कोड़े लगाए जायँ, नमकहराम अपने मालिक के दोस्तों से लड़ता है। बदन में कीड़े न पड़ें तो सही।

उधर मियाँ आजाद साहब से मिलकर लौटे तो देखा कि दरबार में सन्नाटा छाया हुआ है। नवाब साहब उन्हें देखते ही बोले - हजरत, आज से हमने आपकी सलाहों पर चलना शुरू कर दिया।

आजाद - दरबार के लोग कहाँ गायब हो गए?

खोजी - सबके सब निकाल दिए गए, अब कोई यहाँ फटकने भी न पाएगा।

नवाब - अब हम हुक्काम से मिला करेंगे और कोशिश करेंगे कि हर एक किस्म की कमेटी में शरीक हों। वाही-तबाही आदमियों की सोहबत में आप देखें तो मेरे कान पकड़िएगा।

आजाद - अब आप हर किस्म की किताबें पढ़ा कीजिए।

नवाब - आप तो कुछ फरमाते हैं, बजा है, मेरा पच्चीसवाँ साल है, अभी मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत मौका है; और मुझे करना ही क्या है।

आजाद - खुदा आपकी नीयत में बरकत दे।

खोजी - बस, आज से आपको आलिमों की सोहबत रखनी चाहिए। ऐसा न हो, इस वक्त तो सब कुछ तकरार कर लीजिए, और कल से फिर वही ढाक के तीन पात।

नवाब - खुदा ने चाहा तो यह सब बातें अब नाम को भी न देखिएगा।

दूसरे दिन आजाद सैर करने निकले तो क्या देखते हैं कि एक जगह कई आदमी एक छत पर बैठे हुए हैं। आजाद को देखते ही देखते ही एक आदमी ने आ कर उनसे कहा - अगर आपको तकलीफ न हो, तो जरा मेरे साथ आइए। आजाद उसके साथ छत पर पहुँचे तो उन आदमियों में एक ही सूरत अपनी से मिलती-जुलती पाई। उसने आजाद की ताजीम की और कहा - आइए, आपसे कुछ बातें करूँ। आपने अपनी सूरत तो आईने में देखी होगी।

आजाद - हाँ और इस वक्त बगैर आईने के देख रहा हूँ। आपका नाम?

आदमी - मुझे आजाद मिरजा कहते हैं।

आजाद - तब तो आप मेरे हमनाम भी हैं। आपने मुझे क्योंकर पहचाना?

मिरजा - मैंने आपकी तसवीरें देखी हैं और अखबारों में आपका हाल पढ़ता रहा हूँ।

आजाद - इस वक्त आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई।

मिरजा - और अभी और भी खुशी होगी। सुरैया बेगम को तो आप जानते हैं?

आजाद - हाँ, हाँ, आपको उनका कुछ हाल मालूम है?

मिरजा - जी हाँ, आपके धोखे में मैं उनके यहाँ पहुँचा था, और अब तो वह बेगम हैं। एक नवाब साहब के साथ उनका निकाह हो गया है।

आजाद - क्या अब दूर से भी मुलाकात न होगी?

मिरजा - हरगिज नहीं।

आजाद - बे अख्तियार जी चाहता है कि मिल कर बातें करूँ।

मिरजा - कोशिश कीजिए, शायद मुलाकात हो जाय, मगर उम्मेद नहीं?

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 106

आजाद सुरैया बेगम की तलाश में निकले तो क्या देखते हैं कि एक बाग में कुछ लोग एक रईस की सोहबत में बैठे गपें उड़ा रहे हैं। आजाद ने समझा, शायद इन लोगों से सुरैया बेगम के नवाब साहब का कुछ पता चले। आहिस्ता-आहिस्ता उनके करीब गए। आजाद को देखते ही वह रईस चौंक कर खड़ा हो गया और उनकी तरफ देख कर बोला - वल्लाह, आपसे मिलने का बहुत शौक था। शुक्र है कि घर बैठे मुराद पूरी हुई। फर्माइए, आपकी क्या खिदमत करूँ?

मुसाहब - हुजूर, जंडैल साहब को कोई ऐस चीज पिलाइए कि रूह तक ताजा हो जाय।

खाँ साहब - मुझे पारसाल सबलवायु का मरज हो गया था। दो महीने डाक्टर का इलाज हुआ। खाक फायदा न हुआ। बीस दिन तक हकीम साहब ने नुस्खे पिलाए, मरज और भी बढ़ गया। पड़ोस में एक बैदराज रहते हैं उन्होंने कहा मैं दो दिन में अच्छा कर दूँगा। दस दिन तक उनका इलाज रहा, मगर कुछ फायदा न हुआ। आखिर एक दोस्त ने कहा - भाई, तुम सबकी दवा छोड़ दो, जो हम कहें वह करो। बस हुजूर, दो बार बरांडी पिलाई। दो छटाँक शाम को, दो छटाँक सुबह को, उसका यह असर हुआ कि चौथे दिन में बिलकुल चंगा हो गया।

रईस - बरांडी के बड़े-बड़े फायदे लिखे हैं।

दीवान - सरकार, पेशाब के मरज में तो बरांडी अकसीर है। जितनी देते जाइए उतना ही फायदा करती है!

खाँ साहब - हुजूर, आँखों देखी कहता हूँ। एक सवार को मिर्गी आती थी, सैकड़ों इलाज किए, कुछ असर न हुआ, आखिर एक आदमी ने कहा, हुजूर हुक्म दें तो एक दवा बताऊँ। दावा करके कहता हूँ कि कल ही मिर्गी न रहे। खुदावंद, दो छटाँक शराब लीजिए और उसमें उसका दूना पानी मिलाइए, अगर एक दिन में फायदा न हो तो जो चोर की सजा वह मेरी सजा।

नवाब - यह सिफत है इसमें!

मुसाहब - हुजूर, गँवारों ने इसे झूठ-मूठ बदनाम कर दिया है। क्यों जंडैल साहब, आपको कभी इत्तफाक हुआ है?

आजाद - वाह, क्या मैं मुसलमान नहीं हूँ।

नवाब - क्या खूब जवाब दिया है, सुभान-अल्लाह!

इतने में मुसाहब जिनको औरों ने सिखा-पढ़ा कर भेजा था, चुगा पहने और अमाम बाँधे आ पहुँचे। लोगों ने बड़े तपाक से उनकी ताजीम की और बुला कर बैठाया।

नवाब - कैसे मिजाज है मौलाना साहब?

मौलाना - खुदा का शुक्र है।

मुसाहब - क्यों मौलाना साहब, आपके खयाल में शराब हलाल है या हराम?

मौलाना - अगर तुम्हारा दिल साफ नहीं तो हजार बार हज करो कोई फायदा नहीं। हर एक चीज नीयत के लिहाज से हलाल या हराम होती है।

आजाद - जनाब, हमने हर किस्म के आदमी देखे। किसी सोहबत से परहेज नहीं किया, आप लोग शौक से पिएँ, मेरा कुछ खयाल न करें।

नवाब - नीयत की सफाई इसी को कहते हैं। हजरत आजाद, आपकी जितनी तारीफ सुनी थी, उससे कहीं बढ़ कर पाया।

एक साहब नीचे से शराब, सोडा की बोतलें और बर्फ लाए और दौर चलने लगे। जब सरूर जमा तो गपें उड़ने लगीं -

खाँ साहब - खुदावंद, एक बार नेपाल की तराई में जाने का इत्तफाक हुआ। चौदह आदमी साथ थे, वहाँ जंगल में शहद कसरत से है और शहद की मक्खियों की अजब खासियत है कि बदन पर जहाँ कहीं बैठती हैं, दर्द होने लगता है। मैंने वहाँ के बाशिंदों से पूछा, क्यों भाई, इसकी कुछ दवा है? कहा, इसकी दवा शराब है। हमारे साथियों में कई ब्राह्मण भी थे वह शराब को छू न सकते थे। हमने दवा के तौर पर पी, हमारा दर्द तो जाता रहा और वह सब अभी तक झींक रहे हैं।

नवाब - वल्लाह, इसके फायदे बड़े-बड़े हैं, मगर हराम है, अगर हलाल होती तो क्या कहना था।

मुसाहब - खुदावंद, अब तो सब हलाल है।

खाँ साहब - खुदावंद, हैजे की दवा, पेचिस की दवा, बवासीर की दवा, दम की दवा, यहाँ तक कि मौत की भी दवा।

दीवान - ओ-हो-हो, मौत की दवा!

नवाब - खबरदार, सब के सब खामोश, बस कह दिया।

दीवान - खामोश! खामोश!

खाँ साहब - तप की दवा, सिर-दर्द की दवा, बुढ़ापे की दवा।

नवाब - यह तुम लोग बहकते क्यों हो? हमने भी तो पी है। हजरत, मुझे एक औरत ने नसीहत की थी। तबसे क्या मजाल कि मेरी जबान से एक बेहूदा बात भी निकले। (चपरासी को बुला कर) रमजानी, तुम खाँ साहब और दीवान जी को यहाँ से ले जाओ।

दीवान - इल्म की कसम, अगर इतनी गुस्ताखी हमारी शान में करोगे तो हमसे जूती-पैजार हो जायगी।

नवाब - कोई है? जो लोग बहक रहे हों उन्हें दरबार से निकाल दो और फिर भूल के भी न आने देना।

लाला - अभी निकाल दो सबको!

यह कह कर लाला साहब ने रमजान खाँ पर टीप जमाई। वह पठान आदमी, टीप पड़ते ही आग हो गया। लाला साहब के पट्टे पकड़ कर दो-चार धपें जोर-जोर से लगा बैठा। इस पर दो-चार आदमी और इधर-उधर से उठे। लप्पा-डुग्गी होने लगी। आजाद ने नवाब साहब से कहा - मैं तो रुखसत होता हूँ। नवाब साहब ने आजाद का हाथ पकड़ लिया और बाग में ला कर बोले - हजरत, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ कि न पाजियों की वजह से आपको तकलीफ हुई। क्या कहें, उस औरत ने हमें वह नसीहत की थी कि अगर हम आदमी होते तो सारी उम्र आराम के साथ बसर करते। मगर इन मुसाहबों से खुदा समझे; हमें फिर घेर-घारके फंदे में फाँस लिया।

आजाद - तो जनाब, ऐसे अदना नौकरों को इतना मुँह चढ़ाना हरगिज मुनासिब नहीं।

नवाब - भाई साहब, यही बातें उस औरत ने भी समझाई थीं।

आजाद - आखिर वह औरत कौन थी और आपसे उससे क्या ताल्लुक था?

नवाब - हजरत, अर्ज किया न कि एक दिन दोस्तों के साथ एक बाग में बैठा था कि एक औरत सफेद दुलाई ओढ़े निकली। दो चार बिगड़े दिलों ने उसे चकमा दे कर बुलाया। वह बेतकल्लुफी के साथ आ कर बैठी तो मुझसे बातचीत होने लगी। उसका नाम अलारक्खी था।

अलारक्खी का नाम सुनते ही आजाद ने ऐसा मुँह बना लिया गोया कुछ जानते ही नहीं, मगर दिल में सोचे कि वाह री अलारक्खी, जहाँ जाओ, उसके जानने वाले निकल ही आते हैं। कुछ देर बाद नवाब नशे में चूर हो ही गए और आजाद बाहर निकले तो पुराने जान-पहचान के आदमी से मुलाकात हो गई। आजाद ने पूछा - कहिए हजरत, आजकल आप कहाँ हैं?

आदमी - आजकल तो नवाब वाजिद हुसैन की खिदमत में हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहे। हुजूर का नाम तो सारी दुनिया में रोशन हो गया।

आजाद - भाई, जब जानें कि एक बार सुरैया बेगम से दो-दो बातें करा दो।

आदमी - कोशिश करूँगा हुजूर, किसी न किसी हीले से वहाँ तक आपका पैगाम पहुँचा दूँगा।

यह मामला ठीक-ठाक करके आजाद होटल में गए तो देखा कि खोजी बड़ी शान से बैठे गपें उड़ा रहे हें और दोनों परियाँ उनकी बातें सुन-सुन कर खिलखिला रही हैं।

क्लारिसा - तुम अपनी बीवी से मिले, बड़ी खुश हुई होंगी।

खोजी - जी हाँ, महल्ले में पहुँचते ही मारे खुशी के लोगों ने तालियाँ बजाईं। लौंडों ने ढेले मार-मार कर गुल मचाया कि आए-आए। अब कोई गले मिलता है, कोई मारे मुहब्बत के उठाके दे मारता है। सारा महल्ला कह रहा है तुमने तो रूम में वह काम किया कि झंडे गाड़ दिए। घर में जो खबर हुई तो लौंडी ने आ कर सलाम किया। हुजूर आइए, बेगम साहब बड़ी देर से इंतजार कर रही हैं। मैंने कहा, क्योंकर चलूँ? जब यह इतने भूत छोड़ें भी। कोई इधर घसीट रहा है, कोई उधर और यहाँ जान अजाब में है।

मीडा - घर का हाल बयान करो। वहाँ क्या बातें हुई?

खोजी - दालान तक बीबी नंगे पाँव इस तरह दौड़ी आईं कि हाँफ गईं।

मीडा - नंगे पाँव क्यों? क्या तुम लोगों में जूता नहीं पहनते?

खोजी - पहनते क्यों नहीं; मगर जूता तो हाथ में था।

मीडा - हाथ से और जूते से क्या वास्ता?

खोजी - आप इन बातों को क्या समझें।

मीडा - तो आखिर कुछ कहोगे भी?

खोजी - इसका मतलब यह है कि मियाँ अंदर कदम रखें और हम खोपड़ी सुहला दें।

मीडा - क्या यह भी कोई रस्म है?

खोजी - यह सब अदाएँ हमने सिखाई हैं। इधर हम घर में घुसे, उधर बेगम साहब ने जूतियाँ लगाईं। अब हम छिपें तो कहाँ छिपें, कोई छोटा-मोटा आदमी हो तो इधर-उधर छिप रहे, हम यह डील-डौल लेके कहाँ जायँ?

क्लारिसा - सच तो है, कद क्या है ताड़ है!

मीडा - क्या तुम्हारी बीवी भी तुम्हारी ही तरह ऊँचे कद की हैं?

खोजी - जनाब, मुझसे पूरे दो हाथ ऊँची हैं। आ कर बोलीं, इतने दिनों के बाद आए तो क्या लाए हो? मैंने तमगा दिखा दिया तो खिल गईं। कहा, हमारे पास आजकल बाट न थे अब इससे तरकारी तौला करूँगी।

मीडा - क्या पत्थर का तमगा है? क्या खूब कदर की है।

क्लारिसा - और तुम्हें तमगा कब मिला?

खोजी - कहीं ऐसा कहना भी नहीं।

इतने में आजाद पाशा चुपके से आगे बढ़े और कहा - आदाब अर्ज है। आज तो आप खासे रईस बने हुए हैं?

खोजी - भाईजान, वह रंग जमाया कि अब खोजी ही खोजी हैं।

आजाद - भई, इस वक्त एक बड़ी फिक्र में हूँ। अलारक्खी का हाल तो जानते ही हो। आजकल वह नवाब वाजिद हुसैन के महल में है। उससे एक बार मिलने की धुन सवार है। बतलाओ, क्या तदबीर करूँ?

खोजी - अजी, यह लटके हमसे पूछो। यहाँ सारी जिंदगी यही किया किए हैं। किसी चूड़ीवाली को कुछ दे-दिला कर राजी कर लो।

आजाद के दिल में भी यह बात जम गई। जा कर एक चूड़ीवाली को बुला लाए।

आजाद - क्यों भलेमानस, तुम्हारी पैठ तो बड़े-बड़े घरों में होगी। अब यह बताओ कि हमारे भी काम आओगी? अगर कोई काम निकले तो कहें, वरना बेकार है।

चूड़ीवाली - अरे, तो कुछ मुँह से कहिएगा भी? आदमी का काम आदमी ही से तो निकलता है।

आजाद - नवाब वाजिद हुसैन को जानती हो?

चूड़ीवाली - अपना मतलब कहिए।

आजाद - बस उन्हीं के महल में एक पैगाम भेजना है।

चूड़ीवाली - आपका तो वहाँ गुजर नहीं हो सकता। हाँ, आपका पैगाम वहाँ तक पहुँचा दूँगी। मामला जोखिम का है, मगर आपके खातिर कर दूँगी।

आजाद - तुम सुरैया बेगम से इतना कह दो कि आजाद ने आपको सलाम कहा है।

चूड़ीवाली - आजाद आपका नाम है या किसी और का?

आजाद - किसी और के नाम या पैगाम से हमें क्या वास्ता। मेरी यह तसवीर ले लो, मौका मिले तो दिखा देना।

चूड़ीवाली ने तसवीर टोकरे में रखी और नवाब वाजिद हुसैन के घर चली। सुरैया बेगम कोठे पर बैठी दरिया की सैर कर रही थीं। चूड़ीवाली ने जा कर सलाम किया।

सुरैया - कोई अच्छी चीज लाई हो या खाली-खूली आई हो?

चूड़ीवाली - हुजूर, वह चीज लाई हूँ कि देख कर खुश हो जाइएगा; मगर इनाम भरपूर लूँगी।

सुरैया - क्या है, जरा देखूँ तो?

चूड़ीवाली ने बेगम साहब के हाथों में तसवीर रख दी। देखते ही चौंक के बोलीं - सच बताना कहाँ पाई?

चूड़ीवाली - पहले यह बतलाइए कि यह कौन साहब हैं और आपसे कभी की जान-पहचान है कि नहीं?

सुरैया - बस यह न पूछो, यह बतलाओ कि तसवीर कहाँ पाई?

चूड़ीवाली - जिनकी यह तसवीर है, उनको आपको सामने लाऊँ तो क्या इनाम पाऊँ?

सुरैया - इस बारे में मैं कोई बातचीत करना नहीं चाहती। अगर वह खैरियत से लौट आए हैं तो खुश रहें और उनके दिल की मुरादें पूरी हों।

चूड़ीवाली - हुजूर, यह तसवीर उन्होंने मुझको दी। कहा, अगर मौका हो तो हम भी एक नजर देख लें।

सुरैया - कह देना कि आजाद, तुम्हारे लिए दिल से दुआ निकलती है, मगर पिछली बातों को जाने दो, हम पराए बस में हैं और मिलने में बदनामी है। हमारा दिल कितना ही साफ हो, मगर दुनिया को तो नहीं मालूम है, नवाब साहब को मालूम हो गया, तो उनका दिल कितना दुखेगा।

चूड़ीवाली - हुजूर, एक दफा मुखड़ा तो दिखा दीजिए; इन आँखों की कसम, बहुत तरस रहे हैं।

सुरैया - चाहे जो हो, जो बा खुदा को मंजूर थी, वह हुई और उसी में अब हमारी बेहतरी है। यह तसवीर यहीं छोड़ जाओ, मैं इसे छिपा कर रखूँगी।

चूड़ीवाली - तो हुजूर, क्या कह दूँ। साफ टका सा जवाब?

सुरैया - नहीं, तुम समझा कर कह देना कि तुम्हारे आने से जितनी खुशी हुई, उसका हाल खुदा ही जानता है। मगर अब तुम यहाँ नहीं आ सकते और न मैं ही कहीं जा सकती हूँ; और फिर अगर चोरी-छिपे एक दूसरे को देख भी लिया तो क्या फायदा। पिछली बातों को अब भूल जाना ही मुनासिब है। मेरे दिल में तुम्हारी बड़ी इज्जत है। पहल मैं तुमसे गरज की मुहब्बत करती थी, अब तुम्हारी पाक मुहब्बत करती हूँ। खुदा ने चाहा तो शादी के दिन हुस्नआरा बेगम के यहाँ मुलाकात होगी।

यह वही अलारक्खी हैं जो सराय में चमकती हुई निकलती थीं। आज उन्हें परदे और हया का इतना खयाल है। चूड़ीवाली ने जा कर यहाँ की सारी दास्तान आजाद को सुनाई। आजाद बेगम की पाकदामनी की घंटों तारीफ करते रहे। यह सुन कर उन्हें बड़ी तस्कीन हुई कि शादी के दिन वह हुस्नआरा बेगम के यहाँ जरूर आएँगी।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 107

मियाँ आजाद सैलानी तो थे ही, हुस्नआरा से मुलाकात करने के बदले कई दिन तक शहर में मटरगश्त करते रहे, गोया हुस्नआरा की याद ही नहीं रही। एक दिन सैर करते-करते वह एक बाग में पहुँचे और एक कुर्सी पर जा बैठे। एकाएक उनके कान में आवाज आई -

चले हम ऐ जुनूँ जब फस्ले गुल में सैर गुलशन को,
एवज फूलों के पत्थर में भरा गुलचीं ने दामन को।

समझ कर चाँद हमने यार तेरे रूए रौशन को;
कहा बाले को हाला और महे नौ ताके गरदन को।

जो वह तलवार खींचें तो मुकाबिल कर दूँ मैं दिल को;
लड़ाऊँ दोस्त से अपने मैं उस पहलू के दुश्मन को।

करूँ आहें तो मुँह को ढाँप कर वह शोख कहता है -
हवा से कुछ नहीं है डर चिरागे जेर दामन को।

तवाजा चाहते हो जाहिदो क्या बादःख्वारों से,
कहीं झुकते भी देखा है भला शीशे की गर्दन को।

आजाद के कान खड़े हुए कि यह कौन गा रहा है। इतने में एक खिड़की खुली और एक चाँद सी सूरत उनके सामने खड़ी नजर आई। मगर इत्तिफाक से उसकी नजर इन पर नहीं पड़ी। उसने अपना रंगीन हाथ माथे पर रख कर किसी हमजोली को पुकारा, तो आजाद ने यह शेर पढ़ा -

हाथ रखता है वह बुत अपनी भौहों पर इस तरह;
जैसे मेहराब पर अल्लाह लिखा होता है।

उस नाजनीन ने आवाज सुनते ही उन पर नजर डाली और दरीचा बंद कर लिया। दुपट्टे को जो हवा ने उड़ा दिया तो आधा खिड़की के इधर और आधा उधर। इस पर उस शोख ने झुँझला कर कहा, यह निगोड़ा दुपट्टा भी मेरा दुश्मन हुआ है।

आजाद - अल्लाह रे गजब, दुपट्टे पर भी गुस्सा आता है!

सनम - ऐ यह कौन बोला? लोगो, देखो तो, इस बाग में मरघट का मुर्दा कहाँ से आ गया?

सहेली - एक कहाँ, बहन, हाँ-हाँ, वह बैठा है, मैं तो डर गई।

सनम - अख्खाह, यह तो कोई सिड़ी सी मालूम होता है।

आजाद - या खुदा, यह आदमजाद हैं या कोहकाफ की परियाँ?

सनम - तुम यहाँ कहाँ से भटक के आ गए?

आजाद - भटकते कोई और होंगे हम तो अपनी मंजिल पर पहुँच गए।

सनम - मंजिल पर पहुँचना दिल्लगी नहीं है, अभी दिल्ली दूर है।

आजाद - यह कहाँ का दस्तूर है कि कोई जमीन पर हो, कोई आसमान पर? आप सवार, मैं पैदल, भला क्योंकर बने!

सनम - और सुनो, आप तो पेट से पाँव निकालने लगे, अब यहाँ से बोरियाँ बँधना उठाओ और चलता धंधा करो।

आजाद - इतना हुक्म दो कि करीब से दो-दो बातें कर लें।

सनम - वह काम क्यों करें जिसमें फसाद का डर है।

सहेली - ऐ बुला लो, भले आदमी मालूम होते हैं।(आजाद से) चले आइए साहब, चले आइए।

आजाद खुश-खुश उठे और कोठे पर जा पहुँचे।

सनम - वाह बहन, वाह, एक अजनबी को बुला लिया! तुम्हारी भी क्या बातें हैं।

आजाद - भई, हम भी आदमी हैं। आदमी को आदमी से इतना भागना न चाहिए।

सनम - हजरत, आपके भले ही के लिए कहती हूँ, यह बड़े जोखिम की जगह है। हाँ, अगर सिपाही आदमी हो तो तुम खुद ताड़ लोगे।

आजाद ने जो यह बातें सुनीं तो चक्कर में आए कि हिंदोस्तान से रूस तक हो आए और किसी ने चूँ तक न की, और यहाँ इस तरह की धमकी दी जाती है। सोचो कि अगर यह सुन कर यहाँ से भाग जाते है तो यह दोनों दिल में हँसेंगी और अगर ठहर जायँ तो आसार बुरे नजर आते हैं। बातों-बातों में उस नाजनीन से पूछा - यह क्या भेद है?

सनम - यह न पूछो भई, हमारा हाल बयान करने के काबिल नहीं।

आजाद - आखिर कुछ मालूम तो हो, तुम्हें यहाँ क्या तकलीफ है? मुझे तो कुछ दाल में काला जरूर मालूम होता है।

सनम - जनाब, यह जहन्नुम है और हमारी जैसी कितनी ही औरतें इस जहन्नुम में रहती हैं। यों कहिए कि हमीं से यह जहन्नुम आबाद है। एक कुंदन नामी बुढ़िया बरसों से यही पेशा करती है। खुदा जाने, इसने कितने घर तबाह किए। अगर मुझसे पूछो कि तेरे माँ-बाप कहाँ हैं, तो मैं क्या जवाब दूँ, मुझे इतना ही मालूम है कि एक बुढ़िया मुझे किसी गाँव से पकड़ लाई भी। मेरे माँ-बाप ने बहुत तलाश की, मगर इसने मुझे घर से निकलने न दिया। उस वक्त मेरा सिन चार-पाँच साल से ज्यादा न था।

आजाद - तो क्या यहाँ सब ऐसी ही जमा हैं?

सनम - यह जो मेरी सहेली हैं, किसी बड़े आदमी की बेटी हैं। कुंदन उनके यहाँ आने-जाने लगी और उन सबों से इस तरह की साँठ-गाँठ की कि औरतें इसे बुलाने लगीं। उनको क्या मालूम था कि कुंदन के यह हथकंडे हैं।

आजाद - भला कुंदन से मेरी मुलाकात हो तो उससे कैसी बातें करूँ!

सनम - वह इसका मौका ही न देगी कि तुम कहो। जो कुछ कहना होगा, वह खुद कह चलेगी। लेकिन जो तुमसे पूछे कि तुम यहाँ क्योंकर आए?

आजाद - मैं कह दूँगा कि तुम्हारा नाम सुन कर आया।

सनम - हाँ, इस तरकीब से बच जाओगे। जो हमें देखता है, समझता है कि यह बड़ी खुशनसीब हैं। पहनने के लिए अच्छे से अच्छे कपड़े, खाने के लिए अच्छे से अच्छे खाने, रहने के लिए बड़ी से बड़ी हवेलियाँ, दिल बहलाव के लिए हमजोलियाँ सब कुछ हैं; मगर दिल को खुशी और चैन नहीं। बड़ी खुशनसीब वे औरतें हैं जो एक मियाँ के साथ तमाम उम्र काट देती हैं। मगर हम बदनसीब औरतों के ऐसे नसीब कहाँ? उस बुढ़िया को खुदा गारत करे जिसने हमें कहीं का न रखा।

आजाद - मुझे यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ। मैंने तो यह समझा था कि यहाँ सब चैन ही चैन है, मगर अब मालूम हुआ कि मामला इसका उलटा है।

सनम - हजारों आदमियों से बातचीत होती है, मगर हमारे साथ शादी करने को कोई पतियाता ही नहीं। कुंदन से सब डरते हैं। शोहदे-लुच्चों की बात का एतबार क्या, दो-एक ने निकाह का वादा किया भी तो पूरा न किया।

यह कह कर वह नाजनीन रोने लगी।

आजाद ने समझाया कि दिल को ढारस दो और यहाँ से निकलने की हिकमत सोचो।

सनम - खुदा बड़ा कारसाज है, उसको काम करते देर नहीं लगती, मगर अपने गुनाहों को जब देखते हैं तो दिल गवाही नहीं देता कि हमें यहाँ से छुटकारा मिलेगा।

आजाद - मैं तो अपनी तरफ से जरूर कोशिश करूँगा।

सनम - तुम मर्दों की बात का एतबार करना फजूल है।

आजाद - वाह! क्या पाँचों उँगलियाँ बराबर होती हैं?

इतने में एक और हसीना आ कर खड़ी हो गई। इसका नाम नूरजान था। आजाद ने उससे कहा - तुम भी अपना कुछ हाल कहो। यहाँ कैसे आ फँसी?

नूर - मियाँ हमारा क्या हाल पूछते हो, हमें अपना हाल खुद ही नहीं मालूम। खुदा जाने, हिंदू के घर जन्म लिया या मुसलमान के घर पैदा हुई। इस मकान की मालिक एक बुढ़िया है, उसके कोटे का मंत्र नहीं, उसका यही पेशा है कि जिस तरह हो कमसिन और खूबसूरत लड़कियों को फुसला कर ले आए। सारा जमाना उसके हथकंडों को जानता है, मगर किसी से आज तक बंदोबस्त नहीं हो सका। अच्छे-अच्छे महाजन और व्यापारी उसके मकान पर माथा रगड़ते हें, बड़े-बड़े शरीफजादे उसका दम भरते हैं। शाहजादों तक के पास इसकी पहुँच हैं, सुनते थे कि बुरे काम का नतीजा बुरा होता है, मगर खुदा जाने, बुढ़िया को इन बुरे कामों की सजा क्यों नहीं मिलती? इस चुड़ैल ने खूब रुपए जमा किए हैं और इतना नाम कमाया है कि दूर-दूर तक मशहूर हो गई है।

आजाद - तुम सब की सब मिलकर भाग क्यों नहीं जातीं?

सनम - भाग जायँ तो फिर खायँ क्या, यह तो सोचो।

आजाद - इसने अपनी मक्कारी से इस कदर तुम सबको बेवकूफ बना रखा है।

सनम - बेवकूफ नहीं बनाया है, यह बात सही है, खाने भर का सहारा तो हो जाय।

आजाद - तुम्हारी आँख पर गफलत की पट्टी बाँध दी है। तुम इतना नहीं सोचतीं कि तुम्हारी बदौलत तो इसने इतना रुपया पैदा किया और तुम खाने को मुँहताज रहोगी? जो पसंद हो उसके साथ शादी कर लो और आराम से जिंदगी बसर करो।

सनम - यह सच है, मगर उसका रोब मारे डालता है।

आजाद - उफ् रे रोब, यह बुढ़िया भी देखने के काबिल है।

सनम - इस तरह की मीठी मीठी बातों करेगी कि तुम भी उसका कलमा पढ़ने लगोगे।

आजाद - अगर मुझे हुक्म दीजिए तो मैं कोशिश करूँ।

सनम - वाह, नेकी और पूछ-पूछ? आपका हमारे ऊपर बड़ा एहसान होगा। हमारी जिंदगी बरबाद हो रही है। हमें हर रोज गालियाँ देती है और हमारे माँ-बाप को कोसा करती है। गो उन्हें आँखों से नहीं देखा, मगर खून का जोश कहाँ जाय?

इस फिकरे से आजाद की आँखें भी डबडबा आईं, उन्होंने ठान ली कि इस बुढ़िया को जरूर सजा कराएँगे।

इतने में सहेली ने आ कर कहा - बुढ़िया आ गई है, धीरे-धीरे बातें करो।

आजाद ने सनम के कान में कुछ कह दिया और दोनों की दोनों चली गईं।

कुंदन - बेटा, आज एक और शिकार किया, मगर अभी बताएँगे नहीं। यह दरवाजे पर कौन खड़ा था?

सनम - कोई बहुत बड़े रईस हैं, आपसे मिलना चाहते हैं।

कुंदन ने फौरन आजाद को बुला भेजा और पूछा, किसके पास आए हो बेटा! क्या काम है?

आजाद - मैं खास आपके पास आया हूँ।

कुंदन - अच्छा बैठो। आजकल बे-फसल की बारिश से बड़ी तकलीफ होती है, अच्छी वह फसल कि हर चीज वक्त पर हो, बरसात हो तो मेंह बरसे, सर्दी के मौसम में सर्दी खूब हो और गर्मी में लू चले, मगर जहाँ कोई बात बे-मौसम की हुई और बीमारी पैदा हो गई।

आजाद - जी हाँ, कायदे की बात है।

कुंदन - और बेटा, हजार बात की एक बात है कि आदमी बुराई से बचे। आदमी को याद रखना चाहिए कि एक दिन उसको मुँह दिखाना है, जिसने उसे पैदा किया। बुरा आदमी किस मुँह से मुँह दिखाएगा?

आजाद - क्या अच्छी बात आपने कही है, है तो यही बात!

कुंदन - मैंने तमाम उम्र इसी में गुजारी कि लावारिस बच्चों की परवरिश करूँ, उनको खिलाऊँ-पिलाऊँ और अच्छी-अच्छी बातें सिखाऊँ। खुदा मुझे इसका बदला दे तो वाह-वाह, वरना और कुछ फायदा न सही, तो इतना फायदा तो है कि इन बेकसों की मेरी जात से परवरिश हुई।

आजाद - खुदा जरूर इसका सवाब देगा।

कुंदन - तुमने मेरा नाम किससे सुना?

आजाद - आपके नाम की खुशबू दूर-दूर तक फैली हुई है।

कुंदन - वाह, मैं तो कभी किसी से अपनी तारीफ ही नहीं करती। जो लड़कियाँ मैं पालती हूँ उनको बिलकुल अपने खास बेटों की तरह समझती हूँ। क्या मजाल कि जरा भी फर्क हो। जब देखा कि वह सयानी हुई तो उनको किसी अच्छे घर ब्याह दिया, मगर खूब देख-भालके। शादी मर्द और औरत की रजामंदी से होनी चाहिए।

आजाद - यही शादी के माने हैं।

कुंदन - तुम्हारी उम्र दराज हो बेटा, आदमी जो काम करे, अक्ल से, हर पहलू को देख-भालके।

आजाद - बगैर इसके मियाँ-बीवी में मुहब्बत नहीं हो सकती और यों जबरदस्ती की तो बात ही और है।

कुंदन - मेरा कायदा है कि जिस आदमी को पढ़ा-लिखा देखती हूँ उसके सिवा और किसी से नहीं ब्याहती और लड़की से पूछ लेती हूँ कि बेटा, अगर तुमको पसंद हो तो अच्छा, नहीं कुछ जबरदस्ती नहीं है।

यह कह कर उसने महरी को इशारा किया। आजाद ने इशारा करते तो देखा, मगर उनकी समझ में न आया कि इसके क्या माने हैं। महरी फौरन कोठे पर गई और थोड़ी ही देर में कोठे से गाने की आवाजें आने लगीं।

कुंदन - मैंने इन सबको गाना भी सिखाया है, गो यहाँ इसका रिवाज नहीं।

आजाद - तमाम दुनिया में औरतों को गाना-बजाना सिखाया जाता है।

कुंदन - हाँ, बस एक इस मुल्क में नहीं।

आजाद - यह तो तीन की आवाजें मालूम होती हैं, मगर इनमें से एक का गला बहुत साफ है।

कुंदन - एक तो उनका दिल बहलता है, दूसरे जो सुनता है, उसका भी दिल बहलता है।

आजाद - मगर आपने कुछ पढ़ाया भी है या नहीं?

कुंदन - देखो बुलवाती हूँ, मगर बेटा नीयत साफ रखनी चाहिए।

उस ठगों की बुढ़िया ने सबसे पहले नूर को बुलाया। वह लजाती हुई आई और बुढ़िया के पास इस तरह गरदन झुकाके बैठी जैसे कोई शरमीली दुलहिन।

आजाद - ऐ साहब, सिर ऊँचा करके बैठो, यह क्या बात है?

कुंदन - बेटा, अच्छी तरह बैठो सिर उठा कर। (आजाद से) हमारी सब लड़कियाँ शरमीली और हयादार हैं।

आजाद - यह आप ऊपर क्या गा रही थीं? हम भी कुछ सुनें।

कुंदन - बेटी नूर, वही गजल गाओ।

नूर - अम्माँजान, हमें शर्म आती है।

कुंदन - कहती है, हमें शर्म आती है, शर्म की क्या बात है, हमारी खातिर से गाओ।

नूर - (कुंदन के कान में) अम्माँजान, हमसे न गाया जायगा।

आजाद - यह नई बात है -

अकड़ता है क्या देख-देख आईना,
हसीं गरचे है तू पर इतना घमंड।

कुंदन - लो, इन्होंने गाके सुना दिया।

महरी - कहिए, हुजूर, दिल का परदा क्या कम है जो आप मारे शर्म के मुँह छिपाए हैं। ऐ बीवी, गरदन ऊँची करो, जिस दिन दुलहिन बनोगी, उस दिन इस तरह बैठना तो कुछ मुजायका नहीं है।

कुंदन - हाँ, बात तो यही है, और क्या?

आजाद - शुक्र है, आपने जरा गरदन तो उठाई -

बात सब ठीक-ठाक है, पर अभी

कुछ सवालो-जवाब बाकी है।

कुंदन - (हँस कर) अब तुम जानो और यह जानें।

आजाद - ऐ साहब, इधर देखिए।

नूर - अम्माँजान, अब हम यहाँ से जाते हैं।

कुंदन ने चुटकी ले कर कहा - कुछ बोलो जिसमें इनका भी दिल खुश हो, कुछ जवाब दो, यह क्या बात है।

नूर - अम्माँजान, किसको जवाब दूँ? न जान, न पहचान।

कुंदन इन कामों में आठों गाँठ कुम्मैत, किसी बहाने से हट गई। नूर ने भी बनावट के साथ चाहा कि चली जाय, इस पर कुंदन ने डाँट बताई - हैं-हैं, यह क्या, भले मानस हैं या कोई नीच कौम? शरीफों से इतना डर! आखिर नूर शर्मा कर बैठ गई। उधर कुंदन नजर से गायब हुई, इधर महरी भी चंपत।

आजाद - यह बुढ़िया तो एक ही काइयाँ है।

नूर - अभी देखते जाओ, यह अपने नजदीक तुमको उम्र भर के लिए गुलाम बनाए लेती है, जो हमने पहले से इसका हाल न बयान कर दिया होता तो तुम भी चंग पर चढ़ जाते।

आजाद - भला यह क्या बात है कि तुम उसके सामने इतना शरमाती रहीं?

नूर - हमको जो सिखाया है वह करते हैं, क्या करें?

आजाद - अच्छा, उन दोनों को क्यों न बुलाया?

नूर - देखते जाओ, सबको बुलाएगी।

इतने में महरी पान, इलायची और इत्र लेकर आई।

आजाद - महरी साहब, यह क्या अंधेर है? आदमी आदमी से बोलता है या नहीं?

महरी - ऐ बीबी, तुमने क्या बोलने की कसम खा ली है? ले अब हमसे तो बहुत न उड़ो। खुदा झूठ न बोलाए तो बातचीत तक नौबत आ चुकी होगी और हमारे सामने घूँघट कर लेती हैं।

आजाद - गरदन तक तो ऊँची नहीं करतीं, बोलना-चालना कैसा, या तो बनती हैं या अम्माँजान से डरती हैं।

महरी - वाह-वाह, हुजूर वाह, भला यह काहे से जान पड़ा कि बनती हैं? क्या यह नहीं हो सकता कि आँखों की हया के सबब से लजाती हों?

आजाद - वाह, आँखें कहे देती हैं कि नीयत कुछ और है।

नूर - खुदा की सँवार झूठे पर।

महरी - शाबाश, बस यह इसी बात की मुंतजिर थीं। मैं तो समझे ही बैठी थी कि जब यह जबान खोलेंगी, फिर बंद ही कर छोड़ेंगी।

नूर - हमें भी कोई गँवार समझा है क्या?

आजाद - वल्लाह, इस वक्त इनका त्योरी चढ़ाना अजब लुत्फ देता है। इनके जौहर तो अब खुले। इनकी अम्माँजान कहाँ चली गईं? जरा उनको बुलवाइए तो!

महरी - हुजूर, उनका कायदा है कि अगर दो दिल मिल जाते हैं तो फिर निकाह पढ़वा देती हैं, मगर मर्द भलामानस हो, चार पैसे पैदा करता हो। आप पर तो कुछ बहुत ही मिहरबान नजर आती हैं कि दो बातें होते ही उठ गईं, वरना महीनों जाँच हुआ करती है, आपकी शक्ल-सूरत से रियासत बरसती है।

नूर - वाह, अच्छी फबती कही, बेशक रिसायत बरसती है!

यह कह नूर ने आहिस्ता-आहिस्ता गाना शुरू किया।

आजाद - मैं तो इनकी आवाज पर आशिक हूँ।

नूर - खुदा की शान, आप क्या और आपकी कदरदानी क्या!

आजाद - दिल में तो खुश हुई होंगी, क्यों महरी?

महरी - अब यह आप जानें और वह जानें, हमसे क्या?

एकाएक नूर उठ कर चली गई। आजाद और महरी के सिवा वहाँ कोई न रहा, तब महरी ने आजाद से कहा - हुजूर ने मुझे पहचाना नहीं, और मैं हुजूर को देखते ही पहचान गई, आप सुरैया बेगम के यहाँ आया-जाया करते थे।

आजाद - हाँ, अब याद आया, बेशक मैंने तुमको उनके यहाँ देखा था। कहो, मालूम है कि अब वह कहाँ हैं?

महरी - हुजूर, अब वह वहाँ हैं जहाँ चिड़िया भी नहीं जा सकती; मगर कुछ इनाम दीजिए तो दिखा दूँ। दूर से ही बात-चीत होगी। एक रईस आजाद नाम के थे, उन्हीं के इश्क में जोगिन हो गईं। जब मालूम हुआ कि आजाद ने हुस्नआरा से शादी कर ली तो मजबूर हो कर एक नवाब से निकाह पढ़वा लिया। आजाद ने यह बहुत बुरा किया। जो अपने ऊपर जान दे, उसके साथ ऐसी बेवफाई न करनी चाहिए।

आजाद - हमने सुना है कि आजाद उन्हें भठियारी समझ कर निकल भागे।

महरी - अगर आप कुछ दिलवाएँ तो मैं बीड़ा उठाती हूँ कि एक नजर अच्छी तरह दिखा दूँगी।

आजाद - मंजूर, मगर बेईमानी की सनद नहीं।

महरी - क्या मजाल, इनाम पीछे दीजिएगा, पहले एक कौड़ी भी न लूँगी।

महरी ने आजाद से यहाँ का सारा कच्चा चिट्ठा कह सुनाया - मियाँ, यह बुढ़िया जितनी ऊपर है, उतनी ही नीचे है, इसके काटे का मंत्र नहीं। पर आजाद को सुरैया बेगम की धुन थी। पूछा - भला उनका मकान हम देख सकते हैं?

महरी - जी हाँ, यह क्या सामने है।

आजाद - और यह जितनी यहाँ हैं, सब इसी फैशन की होंगी?

महरी - किसी को चुरा लाई है, किसी को मोल लिया है, बस कुछ पूछिए न?

इतने में किसी ने सीटी बजाई और महरी फौरन उधर चली गई। थोड़ी ही देर में कुंदन आई और कहा - ऐं, यहाँ तुम बैठे हो, तोबा तोबा, मगर लड़कियों को (महरी को पुकार कर) क्या करूँ, इतनी शरमीली हैं कि जिसकी कोई हद ही नहीं। ऐ, उनको बुलाओ, कहो, यहाँ आकर बैठें। यह क्या बात है? जैसे कोई काटे खाता है!

यह सुनते ही सनम छम-छम करती हुई आई। आजाद ने देखा तो होश उड़ गए, इस मरतबा गजब का निखार था। आजाद अपने दिल में सोचे कि यह सूरत और यह पेशा! ठान ली कि किसी मौके पर जिले के हाकिम को जरूर लाएँगे और उनसे कहेंगे कि खुदा के लिए इन परियों को इस मक्कार औरत से बचाओ।

कुंदन ने सनम के हाथ में एक पंखा दे दिया और झेलने को कहा। फिर आजाद से बोली - अगर किसी चीज की जरूरत हो तो बयान कर दो।

आजाद - इस वक्त दिल वह मजे लूट रहा है जो बयान के बाहर है।

कुंदन - मेरे यहाँ सफाई का बहुत इंतजाम है।

आजाद - आपके कहने की जरूरत नहीं।

कुंदन - यह जितनी हैं सब एक से एक बढ़ी हुई हैं।

आजाद - इनके शौहर भी इन्हीं के से हों तो बात है।

कुंदन - इसमें किसी के सिखाने की जरूरत नहीं। मैं इनके लिए ऐसे लोगों को चुनूँगी जिनका कहीं सानी न हो। इनको खिलाया, पिलाया, गाना सिखाया, अब इन पर जुल्म कैसे बरदाश्त करूँगी?

आजाद - और तो और, मगर इनको तो आपने खूब ही सिखाया।

कुंदन - अपना-अपना दिल है, मेरी निगाह में तो सब बराबर, आप दो-चार दिन यहाँ रहें, अगर इनकी तबीयत ने मंजूर किया तो इनके साथ आपका निकाह कर दूँगी, बस अब तो खुश हुए।

महरी - वह शर्तें तो बता दीजिए!

कुंदन - खबरदार, बीच में न बोल उठा करो, समझीं?

महरी - हाँ हुजूर, खता हुई।

आजाद - फिर अब तो शर्ते बयान ही कर दीजिए न।

कुंदन - इतमीनान के साथ बयान करूँगी।

आजाद - (सनम से) तुमने तो हमें अपना गुलाम ही बना लिया।

सनम ने कोई जवाब न दिया।

आजाद - अब इनसे क्या कोई बात करे -

गवारा नहीं है जिन्हें बात करना,
सुनेंगे वह काहे को किस्सा हमारा।

कुंदन - ऐ हाँ, यह तुममें क्या ऐब है? बातें करो बेटा!

सनम - अम्माँजान, कोई बात हो तो क्या मुजायका और यों ख्वाहमख्वाह एक अजनबी से बातें करना कौन सी दानाई है।

कुंदन - खुदा को गवाह करके कहती हूँ कि यह सबकी सब बड़ी शरमीली हैं।

आजाद को इस वक्त याद आया कि एक दोस्त से मिलने जाना है, इसलिए कुंदन से रुखसत माँगी और कहा कि आज माफ कीजिए, कल हाजिर होऊँगा, मगर अकेले आऊँ, या दोस्तों को भी साथ लेता आऊँ? कुंदन ने खाना खाने के लिए बहुत जिद की मगर आजाद ने न माना।

आजाद ने अभी बाग के बाहर भी कदम नहीं रखा था कि महरी दौड़ी आई और कहा - हुजूर को बीबी बुलाती हैं। आजाद अंदर गए तो क्या देखते हैं कि कुंदन के पास सनम और उसकी सहेली के सिवा एक और कामिनी बैठी हुई है जो आन-बान में उन दोनों से बढ़ कर है।

कुंदन - यह एक जगह गई हुई थीं, अभी डोली से उतरी हैं। मैंने कहा, तुमको जरी दिखा दूँ कि मेरा घर सचमुच परिस्तान है, मगर बदी करीब नहीं आने पाती।

आजाद - बेशक, बदी का यहाँ जिक्र ही क्या है?

कुंदन - सबसे मिल जुल के चलना और किसी का दिल न दुखाना मेरा उसूल है, मुझे आज तक किसी ने किसी से लड़ते न देखा होगा।

आजाद - यह तो सबों से बढ़-चढ़ कर हैं।

कुंदन - बेटा, सभी घर गृहस्थ की बहू-बेटियाँ हैं, कहीं आए न जाएँ, न किसी से हँसी, न दिल्लगी।

आजाद - बेशक, हमें आपके यहाँ का करीना बहुत पसंद आया।

कुंदन - बोलो बेटा, मुँह से कुछ बोलो, देखो, एक शरीफ आदमी बैठे हैं और तुम न बोलती हो न चालती हो।

परी - क्या करूँ, आप ही आप बकूँ?

कुंदन - हाँ यह भी ठीक है, वह तुम्हारी तरफ मुँह करके बात-चीत करें तब बोलो। लीजिए साहब, अब तो आप ही का कुसूर ठहरा।

आजाद - भला सुनिए तो, मेहमानों की खातिरदारी भी कोई चीज है या नहीं?

कुंदन - हाँ, यह भी ठीक है, अब बताओ बेटा?

परी - अम्माँजान, हम तो सबके मेहमान हैं, हमारी जगह सबके दिल में है, हम भला किसी की खातिरदारी क्यों करें?

कुंदन - अब फर्माइए हजरत, जवाब पाया।

आजाद - वह जवाब पाया कि लाजवाब हो गया। खैर साहब, खातिरदारी न सही, कुछ गुस्सा ही कीजिए।

परी - उसके लिए भी किस्मत चाहिए।

मियाँ आजाद बडे बोलक्कड़ थे, मगर इस वक्त सिट्टी-पिट्टी भूल गए।

कुंदन - अब कुछ कहिए, चुप क्यों बैठे हैं?

परी - अम्माँजान, आपकी तालीम ऐसी-वैसी नहीं है कि हम बंद रहें।

कुंदन - मगर मियाँ साहब की कलई खुल गई। अरे कुछ तो फर्माइए हजरत -

कुछ तो कहिए कि लोग कहते हैं-

आज 'गालिब' गजलसरा न हुआ।

आजाद - आप शेर भी कहती हैं?

नूर - ऐ वाह, ऐसे घबड़ाए कि 'गालिब' का तखल्लुस मौजूद है और आप पूछते हैं कि आप शेर भी कहती हैं?

परी - आदमी में हवास ही हवास तो है, और है क्या?

सनम - हम जो गरदन झुकाए बैठे थे तो आप बहुत शेर थे, मगर अब होश उड़े हुए हैं।

सहेली - तुम पर रीझे हुए हैं बहन, देखती हो, किन आँखों से घूर रहे हैं।

परी - ऐ हटो भी, एड़ी-चोटी पर कुरबान कर दूँ।

आजाद - या खुदा, अब हम ऐसे गए गुजरे हो गए?

परी - और आप अपने को समझे क्या हैं!

कुंदन - यह हम न मानेंगे, हँसी-दिल्लगी और बात है, मगर यह भी लाख दो लाख में एक हैं।

परी - अब अम्माँजान कब तक तारीफ किया करेंगी।

आजाद - फिर जो तारीफ के काबिल होता है उसकी तारीफ होती ही है।

नूर - उँह-उॅँह, घर की पुटकी बासी साग।

आजाद - जलन होगी कि इनकी तारीफ क्यों की।

नूर - यहाँ तारीफ की परवा नहीं।

कुंदन - यह तो खूब कही, अब इसका जवाब दीजिए।

आजाद - हसीनों को किसी की तारीफ कब पसंद आती है?

नूर - भला खैर, आप इस काबिल तो हुए कि आपके हुस्न से लोगों के दिल में जलन होने लगी।

कुंदन - (सनम से) तुमने इनको कुछ सुनाया नहीं बेटा?

सनम - हम क्या कुछ इनके नौकर हैं?

आजाद - खुदा के लिए कोई फड़कती हुई गजल गाओ; बल्कि अगर कुंदन साहब का हुक्म हो तो सब मिल कर गाएँ।

सनम - हुक्म, हुक्म तो हम बादशाह-वजीर का न मानेंगे।

परी - अब इसी बात पर जो कोई गाए।

कुंदन - अच्छा, हुक्म कहा तो क्या गुनाह किया, कितनी ढीठ लड़कियाँ हैं कि नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं।

सनम - अच्छा बहन, आओ, मिल-मिल कर गाएँ -

ऐ इश्के कमर दिल का जलाना नहीं अच्छा।

परी - यह कहाँ से बूढ़ी गजल निकाली? यह गजल गाओ -

गया यार आफत पड़ी इस शहर पर;
उदासी बरसने लगी बाम व दर पर।

सबा ने भरी दिन को एक आप ठंडी;
कयामत हुई या दिले नौहागर पर।

मेरे भावे गुलशन को आतश लगी है;
नजर क्या पड़े खाक गुलहाय तर पर।

कोई देव था या कि जिन था वह काफिर;
मुझे गुस्सा आता है पिछले पहर पर।

एकाएक किसी ने बाहर से आवाज दी। कुंदन ने दरवाजे पर जा कर कहा - कौन साहब हैं?

सिपाही - दारोगा जी आए हैं, दरवाजा खोल दो।

कुंदन - ऐ तो यहाँ किसके पास तशरीफ लाए हैं?

सिपाही - कुंदन कुटनी के यहाँ आए हैं। यही मकान है या और?

दूसरा सिपाही - हाँ-हाँ, जी, यही है, हमसे पूछो।

इधर कुंदन पुलिसवालों से बातें करती थी, उधर आजाद तीनों औरतों के साथ बाग में चले गए और दरवाजा बंद कर दिया।

आजाद - यह माजरा क्या है भई?

सनम - दौड़ आई है मियाँ, दरवाजा, बंद करने से क्या होगा, कोई तदबीर ऐसी बताओ कि इस घर से निकल भागें।

परी - हमें यहाँ एक दम का रहना पसंद नहीं।

आजाद - किसी के साथ शादी क्यों नहीं कर लेती?

नूर - ऐ है! यह क्या गजब करते हो, आहिस्ता से बोलो।

आजाद - आखिर यह दौड़ क्यों आई है, हम भी तो सुनें।

सनम - कल एक भलेमानस आए थे। उनके पास एक सोने की घड़ी, सोने की जंजीर, एक बेग, पाँच आशर्फियाँ और कुछ रुपए थे। यह भाँप गई। उसको शराब पिला कर सारी चीजें उड़ा दीं। सुबह को जब उसने अपनी चीजों की तलाश की तो धमकाया कि टर्राओगे तो पुलिस को इत्तला कर दूँगी। वह बेचारा सीधा-सादा आदमी, चुपचाप चला गया और दारोगा से शिकायत की, अब वह दौड़ आई है।

आजाद - अच्छा! यह हथकंडे हैं।

सनम - कुछ पूछो न, जान अजाब में है।

नूर - अब खुदा ही जाने, किस-किस का नाश वह करेगी, क्या आग लगाएगी।

सनम - अजी, वह किसी से दबनेवाली नहीं है।

परी - वह न दबेंगी साहब तक से, यह दारोगा लिए फिरती हैं!

सनम - जरी सुनो तो क्या हो रहा है।

आजाद ने दरवाजे के पास से कान लगा कर सुना तो मालूम हुआ कि बीबी कुंदन पुलिसवालों से बहर कर रही हैं कि तुम मेरे घर भर की तलाशी लो। मगर याद रखना, कल ही तो नालिश करूँगीं। मुझे अकेली औरत समझके धमका लिया है। मैं अदालत चढ़ूँगी। लेना एक न देना दो, उस पर यह अंधेर! मैं साहब से कहूँगी कि इसकी नियत खराब है, यह रिआया को दिक करता है और पराई बहू-बेटी को ताकता है।

सनम - सुनती हो, कैसा डाँट रही है पुलिसवालों को।

परी - चुपचाप, ऐसा न हो, सब इधर आ जायँ।

उधर कुंदन ने मुसाफिर को कोसना शुरू किया - अल्लाह करे, इस अठवारे में इसका जनाजा निकले। मुए ने आके मेरी जान अजाब में कर दी। मैंने तो गरीब मुसाफिर समझ कर टिका लिया था। मुआ उलटा लिए पड़ता है।

मुसाफिर - दारोगा जी, इस औरत ने सैकड़ों का माल मारा है।

सिपाही - हुजूर, यह पहले गुलाम हुसैन के पुल पर रहती थी। वहाँ एक अहीरिन की लड़की को फुसला कर घर लाई और उसी दिन मकान बदल दिया। अहीर ने थाने पर रपट लिखवाई। हम जो जाते हैं तो मकान में ताला पड़ा हुआ, बहुत तलाश की, पता न मिला। खुदा जाने, लड़की किसी के हाथ बेच डाली या मर गई।

कुंदन - हाँ-हाँ, बेच डाली, यही तो हमारा पेशा है।

दारोगा - (मुसाफिर से) क्यों हजरत, जब आपको मालूम था कि यह कुटनी है तो आप इसके यहाँ टिके क्यों?

मुसाफिर - बेधा था, और क्या, दो-ढाई सौ पर पानी फिर गया, मगर शुक्र है कि मार नहीं डाला।

कुंदन - जी हाँ, साफ बच गए।

दारोगा - (कुंदन से) तू जरा भी नहीं शरमाती?

कुंदन - शरमाऊँ क्यों? क्या चोरी की है?

दारोगा - बस, खैरियत इसी में है कि इनका माल इनके हवाले कर दो।

कुंदन - देखिए, अब किसी दूसरे घर का डाका डालूँ तो इनके रुपए मिलें।

सिपाही - हुजूर, इसे पकड़ के थाने ले चलिए, इस तरह यह न मानेगी?

कुंदन - थाने मैं क्यों जाऊँ? क्या इज्जत बेचनी है! यह न समझना कि अकेली है। अभी अपने दामाद को बुला दूँ तो आँखें खुल जायँ।

यह सुनते ही आजाद के होश उड़ गए। बोले, इस मुरदार को सूझी क्या।

महरी - जरा दरवाजा खोलिए।

आजाद - खुदा की मार तुझ पर।

कुंदन - ऐ बेटा, जरी इधर आओ। मर्द की सूरत देख कर शायद यह लोग इतना जुल्म न करें।

दारोगा - अख्खाह, क्या तोप साथ है? हम सरकारी आदमी और तुम्हारे दामाद से दब जायँ! अब तो बताओ, इनके रुपए मिलेंगे या नहीं?

कुंदन एक सिपाही को अलग ले गई और कहा - मैं इसी वक्त दारोगा जी को इस शर्त पर सत्तर रुपए देती हूँ कि वह इस मामले को दबा दें। अगर तुम यह काम पूरा कर दो तो दस रुपया तुम्हें भी दूँगी।

दारोगा ने देखा कि यह मक्कार औरत झाँसा देना चाहती है तो उसे साथ ले कर थाने चले गए।

आजाद - बड़ी बला इस वक्त टली। औरत क्या, सचमुच बला है।

सनम - आपको अभी इससे कहाँ साबिका पड़ा है।

आजाद - मैं तो इतने ही में ऊब उठा।

सनम - अभी यह न समझना कि बला टल गई हम सब बाँधे जायँगे।

आजाद - जरा इस शरारत को तो देखो कि मुझे थानेदार से लड़वाए देती थी।

सनम - खुश तो न होंगे कि दामाद बना दिया।

आजाद - हम ऐसी सास से बाज आए।

सनम - इस गली से कोई आदमी बिना लुटे नहीं जा सकता। एक औरत को तो इसने जहर दिलवा दिया था।

नूर - पड़ोसिन से कोई जा कर कह दे कि तुम अपनी लड़की का क्यों सत्यानाश करती हो। जो कुछ रूखा-सूखा अल्लाह दे वह खाओ और पड़ी रहो।

महरी - हाँ और क्या, ऐसे पोलाव से दाल-दलिया ही अच्छी।

सनम - बस जाके बुला लाओ तो यह समझा दें हीले से।

महरी जा कर पड़ोसिन को बुला लाई। आजाद ने कहा - तुम्हारी पड़ोसिन को तो सिपाही ले गए। अब यह मकान हमें सौंप गई हैं। पड़ोसिन ने हँस कर कहा - मियाँ, उनको सिपाही ले जा कर क्या करेंगे? आज गई हैं, कल छूट आएँगी?

इतने में एक आदमी ने दरवाज पर हाथ मारा। महरी ने दरवाजा खोला तो एक बूढ़े मियाँ दिखाई दिए। पूछा - बी कुंदन कहाँ हैं?

महरी ने कहा - उनको थाने के लोग ले गए।

सनम - एक सिरे से इतने मुकदमे, एक, दो, तीन।

नूर - हर रोज एक नया पंछी फाँसती है।

बूढ़े मियाँ - बस, अब प्याला भर गया।

सनम - रोज तो यही सुनती हूँ कि प्याला भर गया।

बूढ़े मियाँ - अब मौका पाके तुम सब कहीं चल क्यों नहीं देती हो? अब इस वक्त तो वह नहीं है।

सनम - जायँ तो बे सोचे-समझे कहाँ जायँ।

आजाद - बस इसी इत्तिफाक को हम लोग किस्मत कहते हैं और इसी का नाम अकबाल है।

बूढ़े मियाँ - जी हाँ, आप तो नए आए हैं, यह औरत खुदा जाने, कितने घर तबाह कर चुकी है। पुलिस में भी गिरफ्तार हुई। मजिस्ट्रेटी भी गई। सब कुछ हुआ, सजा पाई, मगर कोई नहीं पूछता। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इनमें से जिसका जी चाहे, मेरे साथ चली चले। किसी शरीफ के साथ निकाह पढ़वा दूँगा, मगर कोई राजी नहीं होती।

एकाएक किसी ने फिर दरवाजे पर आवाज दी, महरी ने दरवाजा खोला तो मम्मन और गुलबाज अंदर दाखिल हुए। दोनों ढाँटे बाँधे हुए थे। महरी उन्हें इशारे से बुला कर बाग में ले गई।

मम्मन - कुंदन कहाँ हैं?

महरी - वह तो आज बड़ी मुसीबत में फँस गई। पुलिसवाले पकड़ ले गए।

मम्मन - हम तो आज और ही मनसूबे बाँध कर आए थे। वह जो महाजन गली में रहते हैं, उनकी बहू अजमेर से आई है।

महरी - हाँ, मेरा जाना हुआ है। बहुत से रुपए लाई है।

गुलबाज - महाजन गंगा नहाने गया है। परसों तक आ जाएगा। हमने कई आदमियों से कह दिया था। सब के सब आते होंगे।

मम्मन - कुंदन नहीं हैं, न सही! हम अपने काम से क्यों गाफिल रहें। आओ एक-आध चक्कर लगाएँ।

इतने में बाग के दरवाजे की तरफ सीटी की आवाज आई। गुलबाज ने दरवाजा खोल दिया और बोला - कौन है, दिलवर?

दिलवर - बस अब देर न करो। वक्त जाता है भाई।

गुलबाज - अरे यार, आज तो मामला हुच गया।

दिलवर - ऐ, ऐसा न कहो। दो लाख नकद रखा हुआ है। इसमें एक भी कम हो, तो जो जुर्माना कहो दूँ।

मम्मन - अच्छा, तो कहीं भागा जाता है?

दिलवर - यह क्या जरूरी है कि कुंदन जरूरी ही हो।

मम्मन - भाईजान, एक कुंदन के न होने से कहीं यार लोग चूकते हैं? और भी कई सबव हैं।

दिलवर - ऐसे मामले में इतनी सुस्ती!

मम्मन - यह सारा कुसूर गुलबाज का है। चंडूखाने में पड़े छींटे उड़ाया किए, और सारा खेल बिगाड़ दिया।

दिलवर - आज तक इस मामले में ऐसे लौंडे नहीं बने थे। वह दिन याद है कि जब जहूरन की गली में छुरी चली थी?

गुलबाज - मैं उन दिन कहाँ था?

दिलवर - हाँ, तुम तो मुर्शिदाबाद चले गए थे। और यहाँ जहूरन ने हमें इत्तला दी कि सुल्तान मिरजा चल बसे। सुल्तान मिरजा के महल्ले में सब मोटे रुपएवाले, मगर उनके मारे किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि उनके महल्ले में जाय।

मम्मन - वह तो इस फन का उस्ताद था।

दिलवर - बस जनाब, इधर सुल्तान मिरजा मरे, उधर जहूरन ने हमें बुलवाया। हम लोग जा पहुँचे। अब सुनिए कि जिस तरफ जाते हैं, कोई गा रहा है, कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ रोशनी और जाग न हो।

मम्मन - किसी ने पहले से मुहल्लेवालों को होशियार कर दिया होगा।

दिलवर - जी हाँ, सुनते तो जाइए। पीछे खुला न। हुआ यह कि जिस वक्त हम लोगों ने जहूरन के दरवाजे पर आवाज दी, तो उनकी मामा ने पड़ोस के मकान में कंकरी फेंकी। उस पड़ोसी ने दूसरे मकान में। इस तरह महल्ले भर में खबर हो गई।

यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर बूढ़े मियाँ और आजाद में कुंदन को सजा दिलाने के लिए सलाहें होती थीं -

आजाद - जिन-जिन लड़कियों को इसने चोरी से बेच लिया है, उन सबों का पता लगाइए।

बूढ़े मियाँ - अजी, एक-दो हों, तो पता लगाऊँ। यहाँ तो शुमार ही नहीं।

आजाद - मैं आज ही हाकिम जिला से इसका जिक्र करूँगा।

इन लोगों से रुखसत हो कर आजाद मजिस्ट्रेट के बँगले पर आए। पहले अपने कमरे में जा कर मुँह-हाथ धोया, और कपड़े बदल कर उस कमरे में गए, जहाँ साहब मेहमानों के साथ डिनर खाने बैठे थे। अभी खाना चुना ही जा रहा था कि आजाद कमरे में दाखिल हुए। आप शाम को आने का वादा करके गए थे। 9 बजे पहुँचे तो सबने मिल कर कहकहा लगाया।

मेम - क्यों साहब, आपके यहाँ अब शाम हुई?

साहब - बड़ी देर से आपका इंतजार था।

मीडा - कहीं शादी तो नहीं तय कर आए?

साहब - हाँ, देर होने से तो हम सबको यही शक हुआ था।

मेम - जब तक आप देर की वजह न बताएँगे, यह शक न दूर होगा। आप लोगों में तो चार शादियाँ हो सकती हैं।

क्लारिसा - आप चुप क्यों हैं, कोई बहाना सोच रहे हैं?

आजाद - अब मैं क्या बयान करूँ। यहाँ तो सब लाल-बुझक्कड़ ही बैठे हैं। कोई चेहरे से ताड़ जाता है, कोई आँखों से पहचान लेता है; मगर इस वक्त मैं जहाँ था, वहाँ खुदा किसी को न ले जाय।

साहब - जुवारियों का अड्डा तो नहीं था?

आजाद- नहीं वह और ही मामला था। इतमीनान से कहूँगा।

लोग खाना खाने लगे। साहब के बहुत जोर देने पर भी आजाद ने शराब न पी। खाना हो जाने पर लेड़ियों ने गाना शुरू किया और साहब भी शरीक हुए। उसके बाद उन्होंने आजाद से कुछ गाने को कहा -

आजाद - आपको इसमें क्या लुत्फ आएगा?

मेम - नहीं, हम हिंदुस्तानी गाना पसंद करते हैं, मगर जो समझ में आए। आजाद ने बहुत हीला किया, मगर साहब ने एक न माना। आखिर मजबूर हो कर यह गजल गाई -

जान से जाती हैं क्या-क्या हसरतें;
काश वह भी दिल में आना छोड़ दे।

'दाग' से मेरे जहन्नुम को मिसाल;
तू भी वायज दिल जलाना छोड़ दे।

परदे की कुछ हद भी है परदानशीं;
खुलके मिल बस मुँह छिपाना छोड़ दे।

मेम - हम कुछ-कुछ समझे। वह जहन्नुम का शेर अच्छा है।

साहब - हम तो कुछ नहीं समझे। मगर कानों को अच्छा मालूम हुआ।

दूसरे दिन आजाद तड़के कुंदन के मकान पर पहुँचे और महरी से बोले - क्यों भाई, तुम सुरैया बेगम को किसी तरह दिखा सकती हो?

महरी - भला मैं कैसे दिखा दूँ? अब तो मेरी वहाँ पहुँच ही नहीं!

आजाद - खुदा गवाह है, फकत एक नजर भर देखना चाहता हूँ।

महरी - खैर, अब आप कहते ही हैं तो कोशिश करूँगी। और आज ही शाम को यहीं चले आइएगा।

आजाद - खुदा तुमको सलामत रखे, बड़ा काम निकलेगा।

महरी - ऐ मियाँ, मैं लौंडी हूँ। तब भी तुम्हारा ही नमक खाती थी, और अब भी...।

आजाद - अच्छा, इतना बता दो कि किस तरकीब से मिलूँगा?

महरी - यहाँ एक शाह साहब रहते हैं। सुरैया बेगम उनकी मुरीद हैं। उनके मियाँ ने भी हुक्म दे दिया है कि जब उनका जी चाहे, शाह साहब के यहाँ जायँ। शाह जी का सिन कोई दो सौ बरस का होगा। और हुजूर, जो वह कह देते हैं, वही होता है। क्या मजाल जो फरक पड़े।

आजाद - हाँ साहब, फकीर हैं, नहीं तो दुनिया कायम कैसे है!

महरी - मैं शाह जी को एक और जगह भेज दूँगी। आप उनकी जगह जाके बैठ जाइएगा। शाह साहब की तरफ कोई आँख उठा कर नहीं देख सकता।

इसलिए आपको यह खौफ भी नहीं है कि सुरैया बेगम पहचान जाएँगी।

आजाद - बड़ा एहसान होगा। उम्र भर न भूलूँगा। अच्छा, तो शाम को आऊँगा।

शाम को आजाद कुंदन के घर पहुँच गए। महरी ने कहा - लीजिए, मुबारक हो। सब यामला चौकस है।

आजाद - जहाँ तुम हो, वहाँ किस बात की कमी। तुमसे आज मुलाकात हुई थी? हमारा जिक्र तो नहीं आया? हमसे नाराज तो नहीं हैं?

महरी - ऐ हुजूर, अब तक रोती हैं। अकसर फरमाती हैं कि जब आजाद सुनेंगे कि उसने एक अमीर के साथ निकाह कर लिया, तो अपने दिल में क्या कहेंगे?

शाह साहब शहर के बाहर एक इमली के पेड़ के नीचे रहते थे। महरी आजाद को वहाँ ले गई और दरख्त के नीचेवाली कोठरी में बैठा कर बोली - आप यहीं बैठिए, बेगम साहब अब आती ही होंगी। जब वह आँख बंद करके नजर दिखाएँ तो ले लीजिएगा। फिर आपमें और उनमें खुद ही बाते होंगी।

आजाद - ऐसा न हो कि मुझे देख कर डर जायँ।

महरी - जी नहीं, दिल की मजबूत हैं। वनों-जंगलों में फिर आई हैं।

इतने में किसी आदमी के गाने की आवाज आई।

बुते-जालिम नहीं सुनता किसी की;

गरीबों का खुदा फरियाद-रस है।

आजाद - यह इस वक्त इस वीराने में कौन गा रहा है?

महरी - सिड़ी है। खबर पाई होगी कि आज यहाँ आनेवाली हैं।

आजाद - बाबा साहब को इसका हाल मालूम है या नहीं?

महरी - सभी जानते हैं। दिन-रात यों ही बका करता है; और कोई काम ही नहीं।

आजाद - भला यह तो बताओ कि सुरैया बेगम के साथ कौन-कौन होगा?

महरी - दो-एक महरियाँ होंगी, मौलाई बेगम होंगी और दस-बारह सिपाही।

आजाद - महरियाँ अंदर साथ आएँगी या बाहर ही रहेंगी?

महरी - इस कमरे में कोई नहीं आ सकता।

इतने में सुरैया बेगम की सवारी दरवाजे पर आ पहुँची। आजाद का दिल धक-धक करता था। कुछ तो इस बात की खुशी थी कि मुद्दत के बाद अलारक्खी को देखेंगे और कुछ इस बात का खयाल कि कहीं परदा न खुल जाय।

आजाद - जरा देखो, पालकी से उतरीं या नहीं।

महरी - बाग में टहल रही हैं। मौलाई बेगम भी हैं। चलके दीवार के पास खड़े हो कर आड़ से देखिए।

आजाद - डर मालूम होता है कि कहीं देख न लें।

आखिर आजाद से न रहा गया। महरी के साथ आड़ में खड़े हुए तो देखा कि बाग में कई औरतें चमन की सैर कर रही हैं।

महरी - जो जरा भी इनको मालूम हो जाय कि आजाद खड़े देख रहे हैं तो खुदा जाने, दिल का क्या हाल हो।

आजाद - पुकारूँ? बेअख्तियार जी चाहता है कि पुकारूँ।

इतने में बेगम दीवार के पास आईं और बैठ कर बातें करने लगीं।

सुरैया - इस वक्त तो गाना सुनने को जी चाहता है।

मौलाई - देखिए, यह सौदाई क्या गा रहा है।

सुरैया - अरे! इस मुए को अब तक मौत न आई? इसे कौन मेरे आने की खबर दे दिया करता है। शाह जी से कहूँगी कि इसको मौत आए।

मौलाई - ऐ नहीं, काहे को मौत आए बेचारे को। मगर आवाज अच्छी है।

सुरैया - आग लगे इसकी आवाज को।

इतने में जोर से पानी बरसने लगा। सब की सब इधर-उधर दौड़ने लगीं। आखिर एक माली ने कहा कि हुजूर, सामने का बँगला खाली कर दिया है, उसमें बैठिए। सब की सब उस बँगले में गईं। जब कुछ देर तक बादल न खुला तो सुरैया बेगम ने कहा - भई, अब तो कुछ खाने को जी चाहता है।

ममोला नाम की एक महरी उनके साथ थी। बोली - शाह जी के यहाँ से कुछ लाऊँ? मगर फकीरों के पास दाल-रोटी के सिवा और क्या होगा।

सुरैया - जाओ, जो कुछ मिले, ले आओ। ऐसा न हो कि वहाँ कोई बेतुकी बात कहने लगो।

महरी ने दुपट्टे को लपेट कर ऊपर से डोली का परदा ओढ़ा। दूसरी महरी ने मशालची को हुक्म दिया कि मशाल जला। आगे-आगे मशालची, पीछे-पीछे दोनों महरियाँ दरवाजे पर आईं और आवाज दी। आजाद और महरी ने समझा कि बेगम साहब आ गईं, मगर दरवाजा खोला तो देखा कि महरियाँ हैं।

महरी - आओ, आओ। क्या बेगम साहब बाग ही में हैं?

ममोला - जी हाँ। मगर एक काम कीजिए। शाह साहब के पास भेजा है। यह बताओ कि इस वक्त कुछ खाने को है?

महरी ने शाह जी के बावरचीखाने से चार मोटी-मोटी रोटियाँ और एक प्याला मसूर की दाल का ला कर रख दिया। दोनों महरियाँ खाना ले कर बँगले में पहुँचीं तो सुरैया बेगम ने पूछा - कहो, बेटा कि बेटी?

ममोला - हुजूर, फकीरों के दरबार से भला कोई खाली हाथ आता है? लीजिए, वह मोटे-मोटे टिक्कड़ हैं।

मौलाई - इस वक्त यही गनीमत हैं।

ममोला - बेगम साहब आपसे एक अरज है।

सुरैया - क्या है, कहो तुम्हारी बातों से हमें उलझन होती हैं।

ममोला - हुजूर, जब हम खाना लेके आते थे तो देखा कि बाग के दरवाजे पर एक बेकस, बेगुनाह, बेचारा दबका दबकाया खड़ा भीग रहा है।

सुरैया - फिर तुमने वही पाजीपने की ली न! चलो हटो सामने से।

मौलाई - बहन, खुदा के लिए इतना कह दो कि जहाँ सिपाही बैठे हैं, वहीं उसे भी बुला लें।

सुरैया - फिर मुझसे क्या कहती हो?

सिपाहियों ने दीवाने को बुला कर बैठा लिया। उसने यहाँ आते ही तान लगाई -

पसे फिना हमें गरदूँ सताएगा फिर क्या,
मिटे हुए को यह जालिम मिटाएगा फिर क्या?

जईफ नालादिल उसका हिला नहीं सकता,
यह जाके अर्श का पाया हिलाएगा फिर क्या?

शरीक जो न हुआ एक दम को फूलों में,
वह फूल आके लेहद के उठाएगा फिर क्या?

खुदा को मानो न बिस्मिल को अपने जबह करो,
तड़प के सैर वह तुमको दिखाएगा फिर क्या?

सुरैया - देखा न। यह कंबख्त बे गुल मचाए कभी न रहेगा।

मौलाई - बस यही तो इसमें ऐब है। मगर गजल भी ढूँढ़ के अपने ही मतलब की कही है।

सुरैया - कंबख्त बदनाम करता फिरता है।

दोनों बेगमों ने हाथ धोया। उस वक्त वहाँ मसूर की दाल और रोटी पोलाव और कोरमे को मात करती थी। उस पर माली ने कैथे की चटनी तैयार कराके महरी के हाथ भेजवा दी। इस वक्त इस चटनी ने वह मजा दिया कि कोई सुरैया बेगम की जबान से सुने।

मौलाई - माली ने इनाम का काम किया है इस वक्त।

सुरैया - इसमें क्या शक। पाँच रुपए इनाम दे दो।

जब खुदा खुदा करके मेंह थमा और चाँदनी निखरी तो सुरैया बेगम ने महरी भेजी कि शाह जी का हुक्म हो तो हम हाजिर हों। वहाँ महरी ने कहा - हाँ, शौक से आएँ; पूछने की क्या जरूरत है।

सुरैया बेगम ने आँखें बंद कीं और शाह जी के पास गईं। आजाद ने उन्हें देखा तो दिल का अजब हाल हुआ। एक ठंडी साँस निकल आई। सुरैया बेगम घबराईं कि आज शाह साहब ठंडी साँसें क्यों ले रहे हैं। आँखें खोल दीं तो सामने आजाद को बैठे देखा। पहले तो समझीं कि आँखों ने धोखा दिया, मगर करीब से गौर करके देखा तो शक दूर हो गया।

उधर आजाद की जबान भी बंद हो गई। लाख चाहा कि दिल का हाल कह सुनाएँ, मगर जबान खोलना मुहाल हो गया। दोनों ने थोड़ी देर तक एक दूसरे को प्यार और हसरत की नजर से देखा, मगर बातें करने की हिम्मत न पड़ी। हाँ, आँखों पर दोनों में से किसी को अख्तियार न था। दोनों की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। एकाएक सुरैया बेगम वहाँ से उठ कर बाहर चली आईं।

ममोला ने पूछा - बेगम साहब, आज इतनी जल्दी क्यों की?

सुरैया - यों ही।

मौलाई - आँखों में आँसू क्यों हैं? शाह साहब से क्या बातें हुई?

सुरैया - कुछ, नहीं बहन, शाह साहब क्या कहते, जी ही तो है।

मौलाई - हाँ, मगर खुशी और रंज के लिए कोई सबब भी तो होता है।

सुरैया - बहन, हमसे इस वक्त सबब न पूछो। बड़ी लंबी कहानी है।

मौलाई - अच्छा, कुछ करत-ब्योंत करके कह दो।

सुरैया - बहन, बात सारी यह है कि इस वक्त शाह जी तक ने हमसे चाल की। जो कुछ हमने इस वक्त देखा, उसके देखने की तमन्ना बरसों से थी, मगर अब आँखें फेर-फेरके देखने के सिवा और क्या है?

मौलाई - (सुरैया के गले में हाथ डाल कर) क्या, आजाद मिल गए क्या?

सुरैया - चुप-चुप! कोई सुन न ले।

मौलाई - आजाद इस वक्त कहाँ से आ गए! हमें भी दिखला दो।

सुरैया - रोकता कौन है। जाके देख लो।

मौलाई बेगम चलीं तो सुरैया बेगम ने इनका हाथ पकड़ लिया और कहा - खबरदार, मेरी तरफ से कोई पैगाम न कहना।

मौलाई बेगम कुछ हिचकती, कुछ झिझकती आ कर आजाद से बोलीं - शाह जी कभी और भी इस तरफ आए थे?

आजाद - हम फकीरों को कहीं आने-जाने से क्या सरोकार। जिधर मौज हुई चल दिए। दिन को सफर, रात को खुदा की याद। हाँ, गम है तो यह कि खुदा को पाएँ।

मौलाई - सुनो शाह जी, आपकी फकीरी को हम खूब जानते हैं। यह सब काँटे आप ही के बोए हुए हैं। और अब आप फकीर बन कर यहाँ आए हैं। यह बतलाइए कि आपने उन्हें जो इतना परेशान किया तो किस लिए? इससे आपका क्या मतलब था?

आजाद - साफ-साफ तो यह है कि हम उनसे फकत दो-दो बातें करना चाहते हैं।

मौलाई - वाह, जब आँखें चार हुईं तब तो कुछ बोले नहीं; और वह बातें हुईं भी तो नतीजा क्या? उनके मिजाज को तो आप जानते हैं। एक बार जिसकी हो गईं, उसकी हो गईं।

आजाद - अच्छा, एक नजर तो दिखा दो।

मौलाई - अब यह मुमकिन नहीं। क्यों मुफ्त में अपनी जान को हलाकान करोगे।

आजाद - तो बिलकुल हाथ धो डालें? अच्छा चलिए, बाग में जरा दूर ही से दिल के फफोले फोड़ें।

मौलाई - वाह-वाह! जब बाग में हों भी।

आजाद - अच्छा साहब, लीजिए, सब्र करके बैठे जाते हैं।

मौलाई - मैं जा कर कहती हूँ, मगर उम्मेद नहीं कि मानें।

यह कह कर मौलाई बेगम उठीं और सुरैया बेगम के पास आ कर बोलीं - बहन, अल्लाह जानता है, कितना खूबसूरत जवान है।

सुरैया - हमारा जिक्र भी आया था? कुछ कहते थे?

मौलाई - तुम्हारे सिवा और जिक्र ही किसका था? बेचारे बहुत रोते थे। हमारी एक बात इस वक्त मानोगी? कहूँ?

सुरैया - कुछ मालूम तो हो, क्या कहोगी?

मौलाई - पहले कौल दो, फिर कहेंगे; यों नहीं।

सुरैया - वाह! बे-समझे-बूझे कौल कैसे दे दूँ?

मौलाई - हमारी इतनी खातिर भी न करोगी बहन!

सुरैया - अब क्या जानें, तुम क्या ऊल-जलूल बात कहो।

मौलाई - हम कोई ऐसी बात न कहेंगे जिससे नुकसान हो।

सुरैया - जो बात तुम्हारे दिल में है वह मेरे नाखून में है।

मौलाई - क्या कहना है। आप ऐसी ही हैं।

सुरैया - अच्छा, और सब तों मानेंगे सिवा एक बात के।

मौलाई - वह एक बात कौन सी है, हम सुन तो लें।

सुरैया - जिस तरह तुम छिपाती हो उसी तरह हम भी छिपाते हैं।

मौलाई - अल्लाह को गवाह करके कहती हूँ, रो रहा है। मुझसे हाथ जोड़ कर कहा है कि जिस तरह मुमकिन हो, मुझसे मिला दो। मैं इतना ही चाहता हूँ कि नजर भर कर देख लूँ।

सुरैया - क्या मजाल, ख्वाब तक में सूरत न दिखाऊँ।

मौलाई - मुझे बड़ा तरस आता है।

सुरैया - दुनिया का भी तो खयाल है।

मौलाई - दुनिया से हमें क्या काम? यहाँ ऐसा कौन आता-जाता है। डर काहे का है, चलके जरा देख लो, उसका अरमान तो निकल जाय।

सुरैया - ना, मुमकिन नहीं। अब यहाँ से चलोगी भी या नहीं?

मौलाई - हम तो तब तक न चलेंगे, जब तक तुम हमारा कहना न मानोगी।

सुरैया - सुनो मौलाई बेगम, हर काम का कोई न कोई नतीजा होता है। इसका नतीजा तुम क्या सोची हो?

मौलाई - उनका दिल खुश होगा। इस वक्त वह आपे में नहीं हैं, मगर जब इस मामले पर गौर करेंगे तो उन्हें जरूर रंज होगा।

दोनों बेगम पालकियों पर बैठ कर रवाना हुई। आजाद ने मकान की दीवार से सुरैया बेगम को देखा और ठंडी साँस ली।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 108

दूसरे दिन आजाद यहाँ से रुखसत हो कर हुस्नआरा से मिलने चले। बात-बात पर बाँछें खिली जाती थीं। दिमाग सातवें आसमान पर था। आज खुदा ने वह दिन दिखाया कि रूस और रूम की मंजिल पूरी करके यार के कूचे में पहुँचे। कहाँ रूस, कहाँ हिंदोस्तान! कहाँ लड़ाई का मैदान, कहाँ हुस्नआरा का मकान! दोनों लेडियों ने उन्हें छेड़ना शुरू किया -

क्लारिसा - आज भला आजाद के दिमाग काहे को मिलेंगे।

मीडा - इस वक्त मारे खुशी के इन्हें बात करना भी मुश्किल है।

आजाद - बड़ी मुश्किल है। बोलूँ तो हँसवाऊँ, न बोलूँ तो आवाजें कसे जायँ।

क्लारिसा - क्या इसमें कुछ झूठ भी है? जिसके लिए दुनिया भर की खाक छानी, उससे मिलने का नशा हुआ ही चाहे।

एकाएक कमरे के बाहर से आवाज आई - भला रे गीदी, भला और जरा देर में मियाँ खोजी कमरे में दाखिल हुए।

क्लारिसा - आप इतने दिन तक कहाँ थे ख्वाजा साहब?

खोजी - था कहाँ, जहाँ जाता हूँ वहाँ लोग पीछे पड़ जाते हैं। इतनी दावतें खाईं कि क्या किसी ने खाई होंगी। एक-एक दिन में दो-दो सौ बुलावे आ जाते हैं। अगर न जाऊँ तो लोग कहें, गुरूर करता है। जाऊँ तो इतना वक्त कहाँ! इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा।

आजाद - अब कुछ हमारे भी काम आओ।

खोजी - और दौड़ा आया किस लिए हूँ। कहो, हुस्नआरा को खबर हुई या नहीं? न हुई हो तो पहुँचूँ। मुझसे ज्यादा इस काम के लायक और किसी को न पाओगे। मैं बड़े काम का आदमी हूँ।

आजाद - इसमें क्या शक है भाईजान! बेशक हो!

खोजी - तो फिर मैं चलूँ?

आजाद - नेकी और पूछ-पूछ?

खोजी जाने वाले ही थे कि एक आदमी होटल की तरफ आता दिखाई दिया। उसकी शक्ल-सूरत बिलकुल खोजी से मिलती थी। वही नाटा कद, वही काला रंग, वही नन्हे-नन्हे हाथ-पाँव। खोजी का बड़ा भाई मालूम होता था।

आजाद - वल्लाह, बिलकुल खोजी ही हैं।

मीडा - बस, इनको छिपाओ, उनको दिखाओ। उनको छिपाओ, इनको दिखाओ। जरा फर्क नहीं।

खोजी - तू कौन है बे? कहाँ चला आता है? कुछ बेधा तो नहीं है? तुझ जैसे मसखरों का यहाँ क्या काम?

मसखरा - कोई हमसे बदके देख ले। बड़ा मर्द हो तो आ जाय।

खोजी - क्या कहता है? बरस पड़ूँ?

मसखरा - जा, अपना काम कर। जो गरजता है, वह बरसता नहीं।

खोजी - बच्चा, तुम्हारी कजा मेरे ही हाथ से है।

मसखरा - माशे-भर का आदमी, बौनों के बराबर कद और चला है मुझे ललकारने!

खोजी - कोई है? लाना तो चंडू की निगाली। ले, आइए!

मसखरा - हम तो जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े हैं, शेर कहीं हटा करते हें। जमे, तो जमे।

खोजी - कजा खेल रही है तेरी। मैं इसको क्या करूँ। अब जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लो; थोड़ी देर में लाश फड़कती होगी।

मसखरा - जरी जबान सँभाले हुए हजरत! ऐसा न हो, मैं गरदन पर सवार हो जाऊँ।

होटल में जितने आदमी थे, उनको शिगूफा हाथ आया। सभी इन बौनों की कुश्ती देखने के लिए बेकरार थे। दोनों को चढ़ाने लगे।

एक - भई, हम सब तो ख्वाजा साहब की तरफ हैं।

दूसरा - हम भी। यह उससे कहीं तगड़े हैं।

तीसरा - कौन? कहीं हो न। इनमें और उसमें बीस और सोलह का फर्क है। बोलो, क्या - क्या बदते हो!

खोजी - जिसका रुपया फालतू हो, वह इसके हाथ पर बदे। जो कुछ बना कर घर ले जाना चाहे, वह हमारे हाथ पर बदे।

मसखरा - एक लपोटे में बोल जाइए तो सही। बात करते-करते पकड़ लाऊँ और चुटकी बजाते चित करूँ,( चुटकी बजा कर) यों-यों!

खोजी - मैं इतनी दूर नहीं लगाने का।

मसखरा - अरे चुप भी रह! यह मुँह खाय चौलाई! एक ऊँगली से वह पेंच बाँधूँ कि तड़पने लगे -

लिया जिसने हमारा नाम, मारा बेगुनाह उसको।

निशाँ जिसने बनाया, बस, वह तीरों का निशाना था।

आजाद - बढ़ गए ख्वाजा साहब, यह आपसे बढ़ गए। अब कोई फड़कता हुआ शेर कहिए तो इज्जत रहे।

खोजी - अजी, इससे अच्छा शेर लीजिए -

तड़पा कर जरा खंजर के तले
सिर अपना दिया शिकवा न किया,
था पासे अदब जो कातिल का
यह भी न हुआ वह भी न हुआ।

मसखरा - ले, अब आ।

खोजी - देख, तेरी कजा आ गई है।

मसखरा - जरा सामने आ। जमीन में सिर खोंस दूँगा।

खोजी - (ताल ठोक कर) अब भी कहा मान, न लड़।

मसखरा - या अली, मदद कर -

कब्र में जिनको न सोना था, सुलाया उनको, पर मुझे चर्ख सितमगर ने सोने न दिया।

आजाद - भई खोजी, शायरी में तुम बिलकुल दब गए।

खोजी जवाब देने ही वाले थे कि इतने में मसखरे ने उनकी गरदन में हाथ डाल दिया। करीब था कि जमीन पर दे पटके कि मियाँ खोजी सँभले और झल्ला के मसखरे की गरदन में दोनों हाथ डाल कर बोले - बस, अब तुम करे

मसखरा - आज तुझे जीता न छोड़ूँगा।

खोजी - देखो, हाथ टूटा तो नालिश कर दूँगा। कुश्ती में हाथा-पाई कैसी?

मसखरा - अपनी बुढ़िया को बुला लाओ। कोई लाश को रोनेवाली तो हो तुम्हारी!

खोजी - या तो कत्ल ही करेंगे या तो कत्ल होंगे।

मसखरा - और हम कत्ल ही करके छोड़ेंगे।

ख्वाजा साहब ने एक अंटी बताई तो मसखरा गिरा। साथ ही खोजी भी मुँह के बल जमीन पर आ रहे। अब न यह उठते हैं न वह। न वह इनकी गरदन छोड़ता है, न यह उसको छोड़ते हैं।

मसखरा - मार डाल, मगर गरदन न छोड़ूँगा।

खोजी - तू गरदन मरोड़ डाल, मगर मैं अधमरा करके छोड़ूँगा। हाय-हाय! गरदन गई! पसलियाँ चर-चर बोल रही हैं!

मसखरा - जो कुछ हो सो हो, कुछ परवा नहीं है।

खोजी - यहाँ किसको परवा है, कोई रोनेवाला भी नहीं है।

अब की खोजी ने गरदन छुड़ा ली; उधर मसखरा भी निकल भागा। दोनों अपनी-अपनी गरदन सहलाने लगे। यार लोगों ने फिर फिकरे चुस्त किए। भई, हम तो खोजी के दम के कायल हैं।

दूसरा बोला - वाह! अगर कच्ची आध घड़ी और कुश्ती रहती तो वह मार लेता।

तीसरे ने कहा - अच्छा, फिर अब की सही। किसी का दम थोड़े टूटा है।

यार लोग तो उनको तैयार करते थे, मगर उनमें दम न था। आधा घंटे तक दोनों हाँफा किए, मगर जबान चली जाती थी।

खोजी - जरा और देर होती तो फिर दिल्लगी देखते।

मसखरा - हाँ, बेशक।

खोजी - तकदीर थी, बच गए, वरना मुँह बिगाड़ देता।

मसखरा - अब तुम इस फिक्र में हो कि मैं फिर उठूँ।

आजाद - हुजूर, मैं बे नीचा दिखाए न मानूँगा।

खोजी - (मसखरे की गरदन पकड़ कर) आओ, दिखाओ नीचा।

मसखरा - अबे, तू गरदन तो छोड़ गरदन छोड़ दे हमारी।

खोजी - अब ही हमारा दाँव है!

मसखरा -(थप्पड़ लगा कर) एक-दो।

खोजी - (चपत दे कर) तीन।

फिकरेबाज - सौ तक गिन जाओ यों ही। हाँ, पाँच हुई।

दूसरा - ऐसे-ऐसे जवान और पाँच ही तक गिनके रह गए?

खोजी - (चपत दे कर) छह-छह और नहीं तो। लोग बड़ी देर से छह का इंतजार कर रहे थे।

अब की वह घमासान लड़ाई हुई कि दोनों बेदम हो कर गिर पड़े और रोने लगे।

खोजी - अब मौत करीब है। भई आजाद, हमारी कब्र किसी पोस्ते के खत के करीब बनवाना।

मसखरा - और हमारी कब्र शाहफसीह के तकिए में बनवाई जाय जहाँ हमारे वालिद ख्वाजा वलीग दफन हैं।

खोजी - कौन-कौन? इनके वालिद का क्या नाम था?

आजाद - ख्वाजा वलीग कहते हैं।

खोजी - (रो कर) अरे भाई, हमें पहचाना? मगर हमारी-तुम्हारी यों ही बदी थी।

मसखरे ने जो इनका नाम सुना तो सिर पीट लिया - भई क्या गजब हुआ! सगा भाई सगे भाई को मारे?

दोनों भाई गले मिल कर रोए। बड़े भाई ने अपना नाम मियाँ रईस बतलाया। बोले - बेटा, तुम मुझसे कोई बीस बरस छोटे हो। तुमने वालिद को अच्छी तरह से नहीं देखा था। बड़ी खूबियों के आदमी थे। हमको रोज दुकान पर ले जाया करते थे?

आजाद - काहे की दुकान थी हजरत?

रईस - जी, टाल थी। लकड़ियाँ बेचते थे।

खोजी ने भाई की तरफ घूर कर देखा।

रईस - कुछ दिन कपू में साहब लोगों के यहाँ खानसामा रहे थे। खोजी ने भाई की तरफ देख कर दाँत पीसा।

आजाद - बस हजरत, कलई खुल गई। अब्बाजान खानसामा थे और आप रईस बनते हैं।

आजाद चले गए तो दोनों भाइयों में खूब तकरार हुई। मगर थोड़ी ही देर में मेल हो गया और दोनों भाई साथ-साथ शहर की सैर को गए। इधर-उधर मटर-गस्त करके मियाँ रईस तो अपने अड्डे पर गए और खोजी हुस्नआरा बेगम के मकान पर जा पहुँचे। बूढ़े मियाँ बैठे हुक्का पी रहे थे।

खोजी - आदाब अर्ज है। पहचाना या भूल गए?

बूढ़े मियाँ - आप तो कुछ अजीब पागल मालूम होते हैं। जान न पहचान; त्योरियाँ बदलने लगे।

खोजी - अजी, हम तो सुनाएँ बादशाह को, तुम क्या माल हो।

बूढ़े मियाँ - अपने होश में हो या नहीं?

खोजी - कोई महलसरा में हुस्नआरा बेगम को इत्तला दो कि मुसाफिर आए हैं।

बूढ़े मियाँ - (खड़े हो कर) अख्खाह! ख्वाजा साहब तो नहीं हैं आप! माफ कीजिएगा। आइए गले मिल लें।

बूढ़े मियाँ ने आदमी को हुक्म दिया कि हुक्का भर दो, और अंदर जा कर बोले - लो साहब, खोजी दाखिल हो गए।

चारों बहनें बाग में गईं और चिक की आड़ से खोजी को देखने लगी।

नाजुक अदा - ओ-हो-हो! कैसा ग्रांडील जवान है!

जानी - अल्लाह जानता है, ऐसा जवान नहीं देखने में आया था। ऊँट की तो कोई कल शायद दुरुस्त भी हो, इसकी कोई कल दुरुस्त नहीं। हँसी आती है।

खोजी - इधर-उधर देखने लगे कि यह आवाज कहाँ से आती है। इतने में बूढ़े मियाँ आ गए।

खोजी - हजरत, इस मकान की अजब खासियत है।

बूढ़े मियाँ - क्या-क्या? इस मकान में कोई नई बात आपने देखी है?

खोजी - आवाजें आती हैं। मैं बैठा हुआ था, एक आवाज आई, फिर दूसरी आवाज आई।

बूढ़े मियाँ - आप क्या फरमाते हैं, हमने तो कोई बात ऐसी नहीं देखी।

जानी बेगम की रग-रग में शोखी भरी हुई थी। खोजी को बनाने की एक तरकीब सूझी। बोलीं - एक बात हमें सूझी है। अभी हम किसी से कहेंगे नहीं।

बहार बेगम - हमसे तो कह दो।

जानी ने बहार बेगम के कान में आहिस्ता से कुछ कहा।

बहार - क्या हरज है, बूढ़ा ही तो है।

सिपहआरा - आखिर कुछ कहो तो बाजीजान! हमसे कहने में कुछ हरज है?

बहार - जानी बेगम कह दें तो बता दूँ।

जानी - नहीं, किसे से न कहो।

जानी बेगम और बहार बेगम दोनों उठ कर दूसरे कमरे में चली गईं। यहाँ इन सबाके हैरत हो रही थीं कि या खुदा! इन सबों को कौन तरकीब सूझी है, जो इतना छिपा रही हैं। अपनी-अपनी अक्ल दौड़ाने लगीं।

नाजुक - हम समझ गए। अफीमी आदमी है। उसकी डिबिया चुराने की फिक्र होगी।

हुस्नआरा - यह बात नहीं, इसमें चोरी क्या थी?

इतने में बहार बेगम ने आ कर कहा - चलो, बाग में चल कर बैठें। ख्वाजा साहब पहले ही से बाग में बैठे हुए थे। एकाएक क्या देखते हैं कि एक गभरू जवान सामने से ऐंठता-अकड़ता चला आता है। अभी मसें भी नहीं भीगीं। जालीलोट का कुरता, उस पर शरबती कटावदार अँगरखा, सिर पर बाँकी पगिया और हाथ में कटार।

हुस्नआरा - यह कौन है अल्लाह? जरा पूछना तो।

सिपहआरा - ओफ्फोह! बाजीजान, पहचानो तो भला।

हुस्नआरा - अरे! बड़ा धोखा दिया।

नाजक - सचमुच! बेशक बड़ा धोखा दिया! ओफ्फोह!

सिपहआरा - मैं तो पहले समझी ही न थी कुछ।

इतने में वह जवान खोजी के करीब आया और यह चकराए कि इस बाग में इसका गुजर कैसे हुआ। उसकी तरफ ताक ही रहे थे कि बहार बेगम ने गुल मचा कर कहा - ऐ! यह कौन मरदुआ बाग में आ गया। ख्वाजा साहब, तुम बैठे देख रहे हो और यह लौंडा भीतर चला आता है! इसे निकाल क्यों नहीं देते हैं?

खोजी - अजी हजरत, आखिर आप कौन साहब हैं? पराए जनाने में घुसे जाते हो, यह माजरा क्या है?

जवान - कुछ तुम्हारी शामत तो नहीं आई है? चुपचाप बैठे रहो।

खोजी - सुनिए साहब, हम और आप दोनों एक ही पेशे के आदमी हैं।

जवान - (बात काट कर) हमने कह दिया, चुप रहो, वरना अभी सिर उड़ा दूँगा। हम हुस्नआरा बेगम के आशिक हैं। सुना है कि आजाद यहाँ आए हैं; और हुस्नआरा के पास निकाह का पैगाम भेजनेवाले हैं। बस,अब यही धुन है कि उनसे दो-दो हाथ चल जाय।

खोजी - आजाद का मुकाबिला तुम क्या खा कर करोगे। उसने लड़ाइयाँ सर की हैं। तुम अभी लौंडे हो।

जवान - तू भी तो उन्हीं का साथी है। क्यों न पहले तेरा ही काम तमाम कर दूँ।

खोजी - (पैंतरे बदल कर) हम किसी से दबनेवाले नहीं हैं।

जवान - आज ही का दिन तेरी मौत का था।

खोजी - (पीछे हट कर) अभी किसी मर्द से पाला नहीं पड़ा है।

जवान - क्यों नाहक गुस्सा दिलाता है। अच्छा, ले सँभल।

जवान ने तलवार घुमाई तो खोजी घबरा कर पीछे हटे और गिर पड़े। बस करौली की याद करने लगे। औरतें तालियाँ बजा-बजा कर हँसने लगीं।

जवान - बस, इसी बिरते पर भूला था?

खोजी - अजी, मैं अपने जोम में आप आ रहा। अभी उठूँ तो कयामत बरपा कर दूँ।

जवान - जा कर आजाद से कहना कि होशियार रहें।

खोजी - बहुतों का अरमान निकल गया। उनकी सूरत देख लो, तो बुखार आ जाय।

जवान - अच्छा, कल देखूँगा।

यह कह कर उसने बहार बेगम का हाथ पकड़ा और बेधड़क कोठे पर चढ़ गया। चारों बहनें भी उसके पीछे-पीछे ऊपर चली गईं।

खोजी यहाँ से चले तो दिल में सोचते जाते थे कि आजाद से चल कर कहता हूँ, हुस्नआरा के एक और चाहने वाले पैदा हुए हैं। कदम-कदम पर हाँक लगाते थे, घडी दो में मुरलिया बाजेगी। इत्तफाक से रास्ते में उसी होटल का खानसामा मिल गया, जहाँ आजाद ठहरे थे। बोला - अरे भाई! इस वक्त कहाँ लपके हुए जाते हो? खैर तो है? आज तो आप गरीबों से बात ही नहीं करते।

खोजी - घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

खानसामा - भई वाह! सारी दुनिया घूम आए, मगर कैंडा वही है। हम समझे थे कि आदमी बन कर आए होंगे।

खोजी - तुम जैसों से बातें करना हमारी शान के खिलाफ है।

खानसामा - हम देखते हैं, वहाँ से तुम और भी गाउदी हो कर आए हो।

थोड़ी देर में आप गिरते-पड़ते होटल में दाखिल हुए और आजाद को देखते ही मुँह बना कर सामने खड़े हो गए।

आजाद - क्या खबरें लाए?

खोजी - (करौली को दाएँ हाथ से बाएँ हाथ में ले कर) हूँ!!!

आजाद - अरे भाई, गए थे वहाँ?

खोजी - (करौली को बाएँ हाथ से दाएँ हाथ में ले कर) हूँ!!

आजाद - अरे, कुछ मुँह से बोलो भी तो मियाँ!

खोजी - घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

आजाद - क्या? कुछ सनक तो नहीं गए! मैं पूछता हूँ, हुस्नआरा बेगम के यहाँ गए थे? किसी से मुलाकात हुई? क्या रंग-ढंग है।

खोजी - वहाँ नहीं गए थे तो क्या जहन्नुम में गए थे? मगर कुछ दाल में काला है।

आजाद - भाई साहब, हम नहीं समझे। साफ-साफ कहो, क्या बात हुई? क्यों उलझन में डालते हो।

खोजी - अब वहाँ आपकी दाल नहीं गलने की।

आजाद - क्या? कैसी दाल? यह बकते क्या हो?

खोजी - बकता नहीं, सच कहता हूँ।

आजाद - खोजी, अगर साफ-साफ न बयान करोगे तो इस वक्त बुरी ठहरेगी।

खोजी - उलटे मुझी को डाँटते हो। मैंने क्या बिगाड़ा?

आजाद - वहाँ का मुफस्सल हाल क्यों नहीं बयान करते?

खोजी - तो जनाब, साफ-साफ यह है कि हुस्नआरा बेगम के एक और चाहने वाले पैदा हुए हैं। हुस्नआरा बेगम और उनकी बहनें बाग के बँगले में बैठी थीं कि एक जवान अंदर आ पहुँचा और मुझे देखते ही गुस्से से लाल हो गया।

आजाद - कोई खूबसूरत आदमी है?

खोजी - निहायत हसीन, और कमसिन।

आजाद - इसमें कुछ भेद है जरूर। तुम्हें उल्लू बनाने के लिए शायद दिल्लगी की हो। मगर हमें इसका यकीन नहीं आता।

खोजी - यकीन तो हमें भी मरते दम तक नहीं आता, मगर वहाँ तो उसे देखते ही कहकहे पड़ने लगे।

अब उधर का हाल सुनिए। सिपहआरा ने कहा - अब दिल्लगी हो कि वह जा कर आजाद से सारा किस्सा कहे।

हुस्नआरा - आजाद ऐसे कच्चे नहीं हैं।

सिपहआरा - खुदा जाने, वह सिड़ी वहाँ जा कर क्या बके। आजाद को चाहे पहले यकीन न आए, लेकिन जब वह कसमें खा कर कहने लगेगा तो उनको जरूर शक हो जायगा।

हुस्नआरा - हाँ, शक हो सकता है, मगर क्या क्या जाय। क्यों न किसी को भेज कर खोजी को होटल से बुलवाओ। जो आदमी बुलाने जाय वह हँसी-हँसी में आजाद से यह बात कह दे।

हुस्नआरा की सलाह से बूढ़े मियाँ आजाद के पास पहुँचे, और बड़े तपाक से मिलने के बाद बोले - वह आपके मियाँ खोजी कहाँ हैं? जरा उनको बुलवाइए।

आजाद - आपके यहाँ से जो अये तो गुस्से में भरे हुए। अब मुझसे बात ही नहीं करते।

बूढ़े मियाँ - वह तो आज खूब ही बनाए गए।

बूढ़े मियाँ ने सारा किस्सा बयान कर दिया। आजाद सुन कर खूब हँसे और खोजी को बुला कर उनके सामने ही बूढ़े मियाँ से बोले - क्यों साहब, आपके यहाँ क्या दस्तूर है कि कटारबाजों को बुला-बुला कर शरीफों से भिड़वाते हें।

बूढ़े मियाँ - ख्वाजा साहब को आज खुदा ही ने बचाया।

आजाद- मगर यह तो हमसे कहते थे कि वह जवान बहुत दुबला-पतला आदमी है। इनसे-उससे अगर चलती तो यह उनको जरूर नीचा दिखाते।

खोजी - अजी, कैसा नीचा दिखाना? वह तलवार चलाना क्या जाने!

आजाद - आज उसको बुलवाइए, तो इनसे मुकाबिला हो जाय।

खोजी - हमारे नजदीक उसको बुलवाना फजूल है। मुफ्त की ठाँय-ठाँय से क्या फायदा। हाँ, अगर आप लोग उस बेचारे की जान के दुश्मन हुए हैं तो बुलवा लीजिए।

यह बातें हो ही रही थीं कि बैरा ने आ कर कहा - हुजूर, एक गाड़ी पर औरतें आई हैं। एक खिदमतगार ने जो गाड़ी के साथ है, हुजूर का नाम लिया और कहा कि जरा यहाँ तक चले आएँ।

आजाद को हैरत हुई कि औरतें कहाँ से आ गईं! खोजी को भेजा कि जा कर देखो। खोजी अकड़ते हुए सामने पहुँचे, मगर गाड़ी से दस कदम अलग।

खिदमतगार - हजरत, जरी सामने यहाँ तक आइए।

खोजी - ओ गीदी, खबरदार जो बोला!

खिदमतगार - ऐं! कुछ सनक गए हो क्या?

बैरा - गाड़ी के पास के नहीं जो भई! दूर क्यों खड़े हो?

खोजी - (करौली तौल कर) बस खबरदार!

बैरा - ऐं! तुमको हुआ क्या है? जाते क्यों नहीं सामने?

खोजी - चुप रहो जी। जानो न बूझो, आए वहाँ से। क्या मेरी जान फालतू है, जो गाड़ी के सामने जाऊँ?

इत्तफाक से आजाद ने उनकी बेतुकी हाँक सुन ली। फौरन बाहर आए कि कहीं किसी से लड़ न पड़ें। खोली से पूछा - क्यों साहब, यह आप किस पर बिगड़ रहे हैं? जवाब नदारद। वहाँ से झपट कर आजाद के पास आए और करोली घुमाते हुए पैतरे बदलने लगे।

आजाद - कुछ मुँह से तो कहो। खुद भी जलील होते हो और मुझे भी जलील करते हो।

खोजी - (गाड़ी की तरफ इशारा करके) अब क्या होगा?

खिदमतगार - हुजूर, इन्होंने आते ही पैतरा बदला, और यह काठ का खिलौना नचाना शुरू किया। न मेरी सुनते हैं, न अपनी कहते हैं।

खोजी - (आजाद के कान में) मियाँ, इस गाड़ी में औरतें नहीं है। वही लौंडा तुमसे लड़ने आया होगा।

आजाद - यह कहिए, आपके दिल में वह बात जमी हुई थी। आप मेरे साथ बहुत हमदर्दी न कीजिए, अलग जाके बैठिए।

मगर खोजी के दिल में खुप गई थी कि इस गाड़ी में वही जवान छिपके आया है। उन्होंने रोना शुरू किया। अब आजाद लाख-लाख समझाते हैं कि देखो, होटल के और मुसाफिरों को बुरा मालूम होगा, मगर खोजी चुप ही नहीं होते। आखिर आपने कहा - जो लोग इस पर सवार हों, वह उतर आएँ। पहले में देख लूँ, फिर आप जायँ। आजाद ने खिदमतगार से कहा - भाई, अगर वह लोग मंजूर करें तो यह बूढ़ा आदमी झाँक कर देख ले। इस सिड़ी को शक हुआ है कि इसमें कोई और बैठा है। खिदमतगार ने जा कर पूछा, और बोला - सरकार कहती हैं, हाँ, मंजूर है। चलिए, मगर दूर ही से झाँकिएगा।

खोजी - (सबसे रुखसत हो कर) लो यारो, अब आखिरी सलाम है। आजाद खुदा तुमको दोनों जहान में सुर्खरू रखे।

छुटता है मुकाम, कूच करता हूँ मैं,

रुखसत ऐ जिंदगी कि मरता हूँ मैं।

अल्लाह से लौ लगी हुई है मेरी;

ऊपर के दम इस वास्ते भरता हूँ।

खिदमतगार - अब आखिर मरने तो जाते ही हो, जरा कदम बढ़ाते न चलो। जैसे अब मरे, वैसे आध घड़ी के बाद।

आजाद - क्यों मुरदे को छेड़ते हो जी।

बग्घी से हँसी की आवाजें आ रही थीं। खोजी आँखों में आँसू भरे चले आ रहे थे कि उनके भाई नजर पड़े। उनको देखते ही खोजी ने हाँक लगाई - आइए भाई साहब! आखिरी वक्त आपसे खूब मुलाकात हुई।

रईस - खैर तो है भाई! क्या अकेले ही चले जाओगे? मुझे किसके भरोसे छोड़े जाते हो?

खोजी भाई के गले मिल कर रोने लगे। जब दोनों गले मिल कर खूब रो चुके तो खोजी ने गाड़ी के पास जा कर खिदमतगार से कहा - खोल दे। ज्यों ही गरदन अंदर डाली तो देखा, दो औरतें बैठी हैं। इनका सिर ज्यों ही अंदर पहुँचा, उन्होंने इनकी पगड़ी उतार कर दो चपतें लगा दीं। खोजी की जान में जान आई। हँस दिए। आ कर आजाद से बोले - अब आप जायँ, कुछ मुजायका नहीं है। आजाद ने होटल के आदमियों को वहाँ से हटा दिया और उन औरतों से बातें करने लगे।

आजाद - आप कौन साहब हैं?

बग्घी में से आवाज आई - आदमी हैं साहब! सुना कि आप आए हैं, तो देखने चले आए। इस तरह मिलना बुरा तो जरूर है; मगर दिल ने न माना।

आजाद - जब इतनी इनायत की है तो अब नकाब दूर कीजिए और मेरे कमरे तक आइए।

आवाज - अच्छा, पेट से पाँव निकले! हाथ देते ही पहुँचा पकड़ लिया।

आजाद - अगर आप न आयँगी तो मेरी दिलशिकनी होगी। इतना समझ लीजिए।

आवाज - ऐ, हाँ! खूब याद आया। वह जो दो लेडियाँ आपके साथ आई हैं, वह कहाँ हैं? परदा करा दो तो हम उनसे मिल लें।

आजाद - बहुत अच्छा, लेकिन मैं रहूँ या न रहूँ?

आवाज - आप से क्या परदा है।

आजाद ने परदा करा दिया। दोनों औरतें गाड़ी से उतर पड़ीं और कमरे में आईं। मिसों ने उनसे हाथ मिलाया; मगर बातें क्या होतीं। मिसें उर्दू क्या जानें और बेगमों को फ्रांसीसी जबान से क्या मतलब। कुछ देर तक वहाँ बैठे रहने के बाद, उनमें से एक ने, जो बहुत ही हसीन और शोख थी; आजाद से कहा - भई, यहाँ बैठे-बैठे तो दम घुटता है। अगर परदा हो सके तो चलिए, बाग की सैर करें।

आजाद - यहाँ तो ऐसा कोई बाग नहीं। मुझे याद नहीं आता कि आपसे पहले कब मुलाकात हुई।

हसीना ने आँखों में आँसू भर कर कहा - हाँ साहब, आपको क्यों याद आएगा। आप हम गरीबों को क्यों याद करने लगे। क्या यहाँ कोई ऐसी जगह भी नहीं, जहाँ कोई गैर न हो। यहाँ तो कुछ कहते-सुनते नहीं बनता। चलिए, किसी दूसरे कमरे में चलें।

आजाद को एक अजनबी औरत के साथ दूसरे कमरे में जाते शर्म तो आती थी, मगर यह समझ कर कि इसे शायद कोई परदे की बात कहनी होगी, उसे दूसरे कमरे में ले गए और पूछा- मुझे आपका हाल सुनने की बड़ी तमन्ना है। जहाँ तक मुझे याद आता है, मैंने आपको कभी नहीं देखा है। आपने मुझे कहाँ देखा था?

औरत - खुदा की कसम, बड़े बेवफा हो। (आजाद के गले में हाथ डाल कर) अब भी याद नहीं आता! वाह से हम!

आजाद - तुम मुझे बेवफा चाहे कह लो; पर मेरी याद इस वक्त धोखा दे रही है।

औरत - हाय अफसोस! ऐसा जालिम नहीं देखा -

न क्योंकर दम निकल जाए कि याद आता है रह-रह कर;

वह तेरा मुसकिराना कुछ मुझे ओठों में कह-कह कर।

आजाद - मेरी समझ ही में नहीं आता कि यह क्या माजरा है।

औरत - दिल छीन के बातें बनाते हो? इतना भी नहीं होता कि एक बोसा तो ले लो।

आजाद - यह मेरी आदत नहीं।

औरत - हाय! दिल सा घर तूने गारत कर दिया, और अब कहता है, यह मेरी आदत नहीं।

आजाद - अब मुझे फुरसत नहीं है, फिर किसी रोज आइएगा।

औरत - अच्छा, अब कब मिलोगे?

आजाद - अब आप तकलीफ न कीजिएगा।

यह कहते हुए आजाद उस कमरे से निकल आए। उनके पीछे-पीछे वह औरत भी बाहर निकली। दोनों लेडियों ने उसे देखा तो कट गईं। उसके बाल बिखरे हुए थे, चोली मसकी हुई। उस औरत ने आते ही आते आजाद को कोसना शुरू किया - तुम लोग गवाह रहना। यह मुझे अलग कमरे में ले गए और एक घंटे के बाद मुझे छोड़ा। मेरी जो हालत है, आप लोग देख रही हैं।

आजाद - खैरियत इसी में है कि अब आप जाइए।

औरत - अब मैं जाऊँ! अब किसी होके रहूँ?

क्लारिसा - (फ्रांसीसी में) यह क्या माजरा है आजाद?

आजाद - कोई छँटी हुई औरत है।

आजाद के तो होश उड़े हुए थे कि अच्छे घर बयाना दिया और वह चमक कर यही कहती थी - अच्छा, तुम्हीं कसम खाओ कि तुम मेरे साथ अकेले कमरे में थे या नहीं?

आजाद - अब जलील हो कर यहाँ से जाओगी तुम। अजब मुसीबत में जान पड़ी है।

औरत - ऐ है, अब मुसीबत याद आई! पहले क्या समझे थे?

आजाद - बस, अब ज्यादा न बढ़ना।

औरत - गाड़ीवान से कहो, गाड़ी बरामदे में लाए।

आजाद - हाँ, खुदा के लिए तुम यहाँ से जाओ।

औरत - जाती तो हूँ, मगर देखो तो क्या होता है!

जब गाड़ी रवाना हुई तो खोजी ने अंदर आ कर पूछा - इनसे तुम्हारी कब की जान-पहचान थी?

आजाद - अरे भाई, आज तो गजब हो गया।

खोजी - मना तो करता था कि इनसे दूर रहो, मगर आप सुनते किसकी हैं।

आजाद - झूठ बकते हो। तुमने तो कहा था कि आप जायँ, कुछ मुजायका नहीं है; और अब निकले जाते हो।

खोजी - अच्छा साहब, मुझी से गलती हुई। मैंने गाड़ीवान को चकमा दे कर सारा हाल मालूम कर लिया। यह दोनों कुंदन की छोकरियाँ हैं। अब यह सारे शहर में मशहूर करेंगी कि आजाद का हमसे निकाह होने वाला है।

आजाद - इस वक्त हमें बड़ी उलझन है भाई! कोई तदबीर सोचो।

खोजी - तदबीर तो यही हैं कि मैं कुंदन के पास जाऊँ और उसे समझा-बुझा कर ढर्रे पर ले आऊँ।

आजाद - तो फिर देर न कीजिए। उम्र भर आपका एहसान मानूँगा।

खोजी - तो इधर रवाना हुए। अब आजाद ने दोनों लेडियों की तरफ देखा तो दोनों के चेहरे गुस्से से तमतमाए हुए थे। क्लारिसा एक नाविल पढ़ रही थी और मीडा सिर झुकाए हुए थी। उन दोनों को यकीन हो गया था कि औरत या तो आजाद की ब्याहता बीवी है या आशना। अगर जान-पहचान न होती तो उस कमरे में जा कर बैठने की दोनों में से एक को भी हिम्मत न होती। थोड़ी देर तक बिलकुल सन्नाटा रहा, आखिर आजाद ने खुद ही अपनी सफाई देनी शुरू की। बोले किसी ने सच कहा है, 'कर तो डर, न कर तो डर'; मैंने इस औरत की आज तक सूरत भी न देखी थी। समझा कि कोई शरीफजादी मुझसे मिलने आई होगी। मगर ऐसी मक्कार और बेशर्म औरत मेरी नजर से नहीं गुजरी।

दोनों लेडियों ने इसका कुछ जवाब न दिया। उन्होंने समझा कि आजाद हमें चकमा दे रहे हैं। अब तो आजाद के रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। कुछ देर तक तो जब्त किया मगर न रहा गया। बोले - मिस मीडा, तुमने इस मुल्क की मक्कार औरतें अभी नहीं देखीं।

मीडा - मुझे इन बातों से क्या सरोकार है।

आजाद - उसकी शरारत देखी?

मीडा - मेरा ध्यान उस वक्त उधर न था।

आजाद - मिस क्लारिसा, तुम कुछ समझीं या नहीं।

क्लारिसा - मैंने कुछ खयाल नहीं किया।

आजाद - मुझ सा अहमक भी कम होगा। सारी दुनिया से आ कर यहाँ चरका खा गया।

मीडा - अपने किए का क्या इलाज, जैसा किया, वैसा भुगतो।

आजाद - हाँ, यही तो मैं चाहता था कि कुछ कहो तो सही। मीडा, सच कहता हूँ, जो कभी पहले इसकी सूरत भी देखी हो। मगर इसने वह दाँव-पेंच किया कि बिलकुल अहमक बन गए।

मीडा - अगर ऐसा था तो उसे अलग कमरे में क्यों ले गए?

आजाद - इसी गलती का तो रोना है। मैं क्या जानता था कि वह यह रंग लाएगी।

मीडा - यह तो जो कुछ हुआ सो हुआ। अब आगे के लिए क्या फिक्र की है? उसकी बाचतीत से मालूम होता था कि वह जरूर नालिश करेगी।

आजाद - इसी का तो मुझे भी खौफ है। खोजी को भेजा है कि जा कर उसे धमकाएँ। देखो, क्या करके आते हैं।

उधर खोजी गिरते-पड़ते कुंदन के घर पहुँचे, तो दो-तीन औरतों को कुछ बाते करते सुना। कान लगा कर सुनने लगे।

'बेटा, तुम तो समझती ही नहीं हो; बदनामी कितनी बड़ी है।'

'तो अम्माँ जान, बदनामी का ऐसा ही डर हो तो सभी न दब जाया करें?'

'दबते ही हैं। उस फौजी अफसर से नहीं खड़े-खड़े गिनवा लिए!'

'अच्छा अम्माँजान, तुम्हें अख्तियार है; मगर नतीजा अच्छा न होगा।'

खोजी से अब न रहा गया। झल्ला कर बोले - ओ गीदी, निकल तो आ। देख तो कितनी करौलियाँ भोंकता हूँ। बढ़-बढ़के बातें बनाती हैं? नालिश करेगी, और बदनाम करेगी।

कुंदन ने यह आवाज सुनी तो खिड़की से झाँका। देखा, तो एक ठिंगना सा आदमी पैतरे बदल रहा है। महरी से कहा कि दरवाजा खोल कर बुला लो। महरी ने आ कर कहा - कौन साहब हैं? आइए।

खोजी अकड़ते हुए अंदर गए और एक मोढ़े पर बैठे। बैठना ही था कि सिर नीचे और टाँगें ऊपर! औरतें हँसने लगीं। खैर, आप सँभल कर दूसरे मोढ़े पर बैठे और कुछ बोलना ही चाहते थे कि कुंदन सामने आई और आते ही खोजी को एक धक्का दे कर बोली - चूल्हे में जाय ऐसा मियाँ। बरसों के बाद आज सूरत दिखाई तो भेस बदल कर आया। निगोड़े, तेरा जनाजा निकले। तू अब तक था कहाँ?

खोजी - यह दिल्लगी हमको पसंद नहीं।

कुंदन - (धप लगा कर) तो शादी क्या समझ कर की थी?

शादी का नाम सुन कर खोजी की बाँछें खिल गईं। समझे कि मुफ्त में औरत हाथ आई। बोले - तो शादी इसलिए की थी कि जूतियाँ खायँ?

कुंदन - आखिर, तू इतने दिन था कहाँ? ला, क्या कमा कर लाया है।

यह कह कर कुंदन ने उनकी जेब टटोली तो तीन रुपए और कुछ पैसे निकले। वह निकाल लिए। वह बेचारे हाँ-हाँ करते ही रहे कि सबों ने उन्हें घर से निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया। खोजी वहाँ से भागे और रोनी सूरत बनाए हुए होटल में दाखिल हुए।

आजाद ने पूछा - कहो भाई, क्या कर आए? ऐं! तुम तो पिटे हुए से जान पड़ते हो।

खोजी - जरा दम लेने दो। मामला बहुत नाजुक है। तुम तो फँसे ही थे, मैं भी फँस गया। इस सूरत का बुरा हो, जहाँ जाता हूँ वहीं चाहने वाले निकल आते हैं। एक पंडित ने कहा था कि तुम्हारे पास मोहिनी है। उस वक्त तो उसकी बात मुझे कुछ न जँची, मगर अब देखता हूँ तो उसने बिलकुल सच कहा था।

आजाद - तुम तो हो सिड़ी। ऐसे ही तो बड़ी हसीन हो। मेरी बाबत भी कुंदन से कुछ बातचीत हुई या आँखें ही सेकते रहे?

खोजी - बड़े घर की तैयारी कर रखो। बंदा वहाँ भी तुम्हारे साथ होगा।

आजाद - बाज आया आपके साथ से। तुम्हें खिलाना-पिलाना सब अकारथ गया। बेहतर है, तुम कहीं और चले जाओ।

इस पर खोजी बहुत बिगड़े। बोले - हाँ साहब, काम निकल गया न? अब तो मुझसे बुरा कोई न होगा।

खानसामा - क्या है ख्वाजा जी, क्यों बिगड़ गए?

खोजी - तू चुप रह कुली, ख्वाजा जी! और सुनिएगा?

खानसामा - मैंने तो आपकी इज्जत की थी।

खोजी - नहीं, आप माफ कीजिए। क्या खूब। टके का आदमी और हमसे इस तरह पर पेश आए। मगर तुम क्या करोगे भाई, हमारा नसीबा ही फिरा हुआ है। खैर, जो चाहो, सुनाओ। अब हम यहाँ से कूच करते हैं। जहाँ हमारे कद्रदाँ हैं, वहाँ जायँगे।

खानसामा - यहाँ से बढ़के आपका कौन कद्रदाँ होगा? खाना आपको दें, कपड़ा आपको दें, उस पर दोस्त बना कर रखें; फिर अब और क्या चाहिए?

खोजी - सच है भाई, सच है। हम आजाद के गुलाम तो हैं ही। उन्हीं से कसम लो कि उनके बाद-दादा हमारे बुजुर्गों के टुकड़े खा कर पले थे या नहीं।

आजाद - आपकी बातें सुन रहा हूँ। जरा इधर देखिएगा।

खोजी - सौ सोनार की, तो एक लोहार की।

आजाद - हमारे बाप-दादा आपके टुकड़खोरे थे?

खोजी - जी हाँ, क्या इसमें कुछ शक भी है?

इतने में खानसामा ने दूर से कहा - ख्वाजा साहब, हमने तो सुना है कि आपके वालिद अंडे बेचा करते थे।

इतना सुनना था कि खोजी आग हो गए और एक तवा उठा कर खानसामा की तरफ दौड़े। तवा बहुत गर्म था। अच्छी तरह उठा भी नहीं पाए थे कि हाथ जल गया। झिझक कर तवे को जो फेंका तो खुद भी मुँह के बल गिर पड़े।

खानसामा - या अली, बचाइयो।

बैरा - तवा तो जल रहा था, हाथ जल गया होगा।

मीडा - डाक्टर को फौरन बुलाओ।

खानसामा - उठ बैठो भाई, कैसे पहलवान हो!

आजाद - खुदा ने बचा लिया, वरना जान ही गई थी।

ख्वाजा साहब चुपचाप पड़े हुए थे। खानसामा ने बरामदे में एक पलंग बिछाया और दो आदमियों ने मिल कर खोजी को उठाया कि बरामदे में ले जायँ। उसी वक्त एक आदमी ने कहा - अब बचना मुश्किल है। खोजी अक्ल के दुश्मन तो थे ही। उनको यकीन हो गया कि अब आखिरी वक्त है। रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। खानसामा और होटल के और नौकर-चाकर उनको बनाने लगे।

खानसामा - भाई, दुनिया इसी का नाम है। जिंदगी का एतबार क्या।

बैरा - इसी बहाने मौत लिखी थी।

मुहर्रिर - और अभी नौजवान आदमी हैं। इनकी उम्र ही क्या है!

आजाद - क्या, हाल क्या है? नब्ज का कुछ पता है?

खानसामा - हुजूर, अब आखिरी वक्त है। अब कफन-दफन की फिक्र कीजिए।

यह सुन कर खोजी जल-भुन गए। मगर आखिरी वक्त था, कुछ बोल न सके।

आजाद - किसी मौलवी को बुलाओ।

मुहर्रिर - हुजूर, यह न होगा। हमने कभी इनको नमाज पढ़ते नहीं देखा।

आजाद - भई, इस वक्त यह जिक्र न करो।

मुहर्रिर - हुजूर मालिक हैं, मगर यह मुसलमान नहीं हैं।

खोजी का बस चलता तो मुहर्रिर की बोटियाँ नोच लेते; मगर इस वक्त वह मर रहे थे।

खानसामा - कब्र खुदवाइए, अब इनमें क्या है?

बैरा - इसी सामनेवाले मैदान में इनको तोप दो।

खोजी का चेहरा सुर्ख हो गया। कंबख्त कहता है, तोप दो! यह नहीं कहता कि आपको दफन कर दो।

आजाद - बड़ा अच्छा आदमी था बेचारा।

खानसामा - लाख सिड़ी थे, मगर थे नेक।

बैरा - नेक क्या थे। हाँ, यह कहो कि किसी तरह निभ गई।

खोजी अपना खून पीके रह गए, मगर मजबूर थे।

मुहर्रिर - अब इनको मिलके तोप ही दीजिए।

आजाद - घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

बैरा - ख्वाजा साहब, कहिए, अब कितनी देर में मुरलिया बाजेगी?

आजाद - अब इस वक्त क्या बताएँ बेचारे अफसोस है!

खानसामा - अफसोस क्यों हुजूर, अब मरने के तो दिन ही थे। जवान-जवान मरते जाते हैं। यह तो अपनी उम्र तमाम कर चुके। अब क्या आकबत के बोरिये बटोरेंगे?

आजाद - हाँ, है तो ऐसा ही, मगर जान बड़ी प्यारी होती है। आदमी चाहे दो सौ बरस का होके मरे, मगर मरते वक्त यही जी चाहता है कि दस बरस और जिंदा रहता।

खानसामा - तो हुजूर, यह तमन्ना तो उसको हो, जिसका कोई रोनेवाला हो। इनके कौन बैठा है।

इतने में होटल का एक आदमी एक चपरासी को हकीम बना कर लाया!

आजाद - कुर्सी पर बैठिए हकीम साहब।

हकीम - यह गुस्ताखी मुझसे न होगी। हुजूर बैठें।

आजाद - इस वक्त सब माफ है।

हकीम - यह बेअदबी मुझसे न होगी।

आजाद - हकीम साहब, मरीज की जान जाती है और आप तकल्लुफ करते हैं।

हकीम - चाहे मरीज मर जाय; मगर मैं अदब को हाथ से न जानू दूँगा।

खोजी को हकीम की सूरत से नफरत हो गई।

आजाद - आप तकल्लुफ में मरीज की जान ले लेंगे।

हकीम - अगर मौत है तो मरेगा ही, मैं अपनी आदत क्यों छोड़ूँ?

आजाद ने खोजी के कान में जोर से कहा - हकीम साहब आए हैं।

खोजी ने हकीम साहब को सलाम किया और हाथ बढ़ाया।

हकीम - (नब्ज पर हाथ रख कर) अब क्या बाकी है, मगर अभी तीन-चार दिन की नब्ज है; इस वक्त इनको ठंडे पानी से नहलाया जाय तो बेहतर है, बल्कि अगर पानी में बर्फ डाल दीजिए तो और भी बेहतर है।

आजाद - बहुत अच्छा। अभी लीजिए।

हकीम - बस, एक दो मन बर्फ काफी होगी।

इतने मे मिस मीडा ने आजाद से कहा - तुम भी अजीब आदमी हो। दो-चार होटलवालों को ले कर एक गरीब का खून अपनी गरदन पर लेते हो। खोजी की चारपाई हमारे कमरे के सामने बिछवा दो और इन आदमियों से कह दो कि कोई खोजी के करीब न आए।

इस तरह खोजी की जान बची। आराम से सोए। दूसरे दिन घूमते-घामते एक चंडूखाने में जा पहुँचे और छींटे उड़ाने लगे। एकाएक हुस्नआरा का जिक्र सुन कर उनके कान खड़ हुए। कोई कह रहा था कि हुस्नआरा पर एक शाहजादे आशिक हुए हैं, जिनका नाम कमरुद्दौला है। खोजी बिगड़ कर बोले - खबरदार, जो अब किसी ने हुस्नआरा का नाम फिर लिया। शरीफजादियों का नाम बद करता है बे!

एक चंडूबाज - हम तो सुनी-सुनाई कहते हैं साहब। शहर भर में यह खबर मशहूर है, आप किस-किसकी जबान रोकिएगा।

खोजी - झूठ है, बिलकुल झूठ।

चंडूबाज - अच्छा, हम झूठ कहते हैं तो ईदू से पूछ लीजिए।

ईदू - हमने तो यह सुना था कि बेगम साहब ने अखबार में कुछ लिखा था तो वह शाहजादे ने पढ़ा और आशिक हो गए, फौरन बेगम साहब के नाम से खत लिखा और शायद किसी बाँके को मुकर्रर किया है कि आजाद को मार डाले। खुदा जाने, सच है या झूठ।

खोजी - तुमने किससे सुनी है यह बात? इस धोखे में न रहना। थाने पर चलकर गवाही देनी होगी।

ईदू - हुजूर क्या आजाद के दोस्त हैं?

खोजी - दोस्त नहीं हूँ, उस्ताद हूँ। मेरा शागिर्द है।

ईदू - आपके कितने शागिर्द होंगे?

खोजी - यहाँ से ले कर रूम और शाम तक।

खोजी शाहजादे का पता पूछते हुए लाल कुएँ पर पहुँचे। देखा तो सैकड़ों आदमी पानी भर रहे हैं।

खोजी- क्यों भाई, यह कुआँ तो आज तक देखने में नहीं आया था।

भिश्ती- क्या कहीं बाहर गए थे आप?

खोजी - हाँ भई, बड़ा लंबा सफर करके लौटा हूँ।

भिश्ती - इसे बने तो चार महीने हो गए।

खोजी - अहा-हा! यह कहो, भला किसने बनवाया है?

भिश्ती - शाहजादा कमरूद्दौला ने।

खोजी - शाहजादा साहब रहते कहाँ हैं?

भिश्ती - तुम तो मालूम होता है, इस शहर में आज ही आए हो। सामने उन्हीं की बारादरी तो है।

खोजी यहाँ से महल के चोबदार के पास पहुँचे और अलेक-सलेक करके बोले - भाई, कोई नौकरी दिलवाते हो।

दरबान - दारोगा साहब से कहिए, शायद मतलब निकले।

खोजी - उनसे कब मुलाकात होगी?

दरबान - उनके मकान पर जाइए, और कुछ चटाइए।

खोजी - भला शाहजादे तक रसोई हो सकती है या नहीं?

दरबान - अगर कोई अच्छी सूरत दिखाओ तो पौ बारह हैं।

इतने में अंदर से एक आदमी निकला। दरबान से पूछा - किधर चले शेख जी?

शेख - हुक्म हुआ है कि किसी रम्माल को बहुत जल्द हाजिर करो।

खोजी - तो हमको ले चलिए। इस फन में हम अपना सानी नहीं रखते।

शेख - ऐसा न हो, आप वहाँ चल कर बेवकूफ बनें।

खोजी - अजी, ले तो चलिए। खुदा ने चाहा तो सुर्खरु ही रहूँगा।

शेख साहब उनको ले कर बारादरी में पहुँचे। शाहजादा साहब मसनद लगाए पेचवान पी रहे थे और मुसाहब लोग उन्हें घेरे बैठे हुए थे। खोजी ने अदब से सलाम किया और फर्श पर जा बैठे।

आगा - हुजूर, अगर हुक्म हो तो तारे आसमान से उतार लूँ।

मुन्ने - हक है। ऐसा ही रोब है हमारे सरकार का।

मिरजा - खुदावंद, अब हुजूर की तबीयत का क्या हाल है?

आगा - खुदा का फजल है। खुदा ने चाहा तो सुबह-शाम शिप्पा लड़ा ही चाहता है। हुजूर का नाम सुन कर कोई निकाह से इनकार करेगा भला?

मुन्ने - अजी, परिस्तान की हूर हो तो लौंडी बन जाय।

खोजी - खुदा गवाह है कि शहर में दूसरा रईस टक्कर का नहीं है। यह मालूम होता है कि खुदा ने अपने हाथ से बनाया है।

मिरजा - सुभान-अल्लाह! वाह! खाँ साहब, वाह! सच है।

शेख - खाँ साहब नहीं, ख्वाजा साहब कहिए।

मिरजा - अजी, वह कोई हों, हम तो इनसाफ के लोग हैं। खुदा को मुँह दिखाना है। क्या बात कही है। ख्वाजा साहब, आप तो पहली मरतबा इस सोहबत में शरीक हुए हैं। रफ्ता-रफ्ता देखिएगा कि हुजूर ने कैसा मिजाज पाया है।

शेख - बूढ़ों में बूढ़ें, जवानों में जवान।

खोजी - मुझसे कहते हो। शहर में कौन रईस है, जिससे मैं वाकिफ नहीं?

आगा - भई मिरजा, अब फतह है। उधर का रंग फीका हो रहा है। अब तो इधर ही झुकी हुई हैं।

मिरजा - वल्लाह! हाथ लाइएगा। मरदों का वार खाली जाय?

आगा - यह सब हुजूर का इकबाल है।

कमरुद्दौला - मैं तो तड़प रहा था, जिंदगी से बेजार था! आप लोगों की बदौलत इतना तो हो गया।

खोजी - हैरान थे कि यह क्या माजरा है। हुस्नआरा को यह क्या हो गया कि कमरुद्दौला पर रीझीं! कभी यकीन आता था, कभी शक होता था।

आगा - हुजूर का दूर-दूर तक नाम है।

मिरजा - क्यों नहीं, लंदन तक।

खोजी - कह दिया न भाईजान, कि दूसरा नजर नहीं आता।

शाहजादा - (आगा से) यह कहाँ रहते हैं और कौन हैं?

खोजी - जी, गरीब का मकान मुर्गी-बाजार में है।

आगा - जभी आप कुड़क रहे थे।

मिरजा - हाँ, अंडे बेचते तो हमने भी देखा था।

खोजी - जभी आप सदर-बाजार में टापा करते हैं।

शाहजादा - ख्वाजा साहब जिले में ताक हैं।

खोजी - आपकी कद्रदानी है।

बातों-बातों में यहाँ की टोह ले कर खोजी घर चले। होटल में पहुँचे तो आजाद को बूढ़े मियाँ से बातें करते देखा। ललकार कर बोले - लो, मैं भी आ पहुँचा।

आजाद - गुल न मचाओ, हम लोग न जाने कैसी सलाह कर रहे हैं, तुमको क्या; बे-फिक्रे हो। कुछ बसंत की भी खबर है? यहाँ एक नया गुल खिला है!

खोजी - अजी, हमें सब मालूम हैं। हमें क्या सिखाते हो।

आजाद - तुमसे किसने कहा?

खोजी - अजी, हमसे बढ़ कर टोहिया कोई हो तो ले। अभी उन्हीं कमरुद्दौला के यहाँ जा पहुँचा। पूरे एक घंटे तक हमसे-उनसे बातचीत रही। आदमी तो खब्ती सा है और बिलकुल जाहिल। मगर उसने हुस्नआरा को कहाँ से देख लिया? छोकरी है चुलबुली। कोठे पर गई होगी, बस उसकी नजर पड़ गई होगी।

बूढ़े मियाँ - जरा जबान सँभाल कर!

खोजी - आप जब देखो, तिरछे ही हो कर बातें करते हैं? क्या कोई आपका दिया खाता है या आपका दबैल है? बड़े अक्लमंद आप ही तो हैं एक!

इतने में फिटन पर एक अंगरेज आजाद को पूछता हुआ आ पहुँचा। आजाद ने बढ़ कर उससे हाथ मिलया और पूछा तो मालूम हुआ कि वह फौजी अफसर है। आजाद को एक जलसे का चेयरमैन बनने के लिए कहने आया है।

आजाद - इसके लिए आपने क्यों इतनी तकलीफ की? एक खत काफी था।

साहब - मैं चााहता हूँ कि आप इसी वक्त मेरे साथ चलें। लेक्चर का वक्त बहुत करीब है।

आजाद साहब के साथ चल दिए। टाउन-हाल में बहुत से आदमी जमा थे। आजाद के पहुँचते ही लोग उन्हें देखने के लिए टूट पड़े। और जब वह बोलने के लिए मेज के सामने खड़े हुए तो चारों तरफ समा बँध गया। जब वह बैठना चाहते तो लोग गुल मचाते थे, अभी कुछ और फरमाइए। यहाँ तक कि आजाद ही के बोलते-बोलते वक्त पूरा हो गया और साहब बहादुर के बोलने की नौबत न आई। शाहजादा कमरुद्दौला भी मुसाहबों के साथ जलसे में मौजूद थे। ज्यों ही आजाद बैठे, उन्होंने आगा से कहा - सच कहना, ऐसा खूबसूरत आदमी देखा है?

आगा - बिलकुल शेर मालूम होता है।

शाहजादा - ऐसा जवान दुनिया में न होगा।

आगा - और तकरीर कितनी प्यारी है?

शाहजादा - क्यों साहब, जब हम मरदों का यह हाल है, तो औरतों का क्या हाल होता होगा?

आगा - औरत क्या, परी आशिक हो जाय।

शाहजादा साहब जब यहाँ से चले तो दिल में सोचा-भला आजाद के सामने मेरी दाल क्या गलेगी? मेरा और आजाद का मुकाबिला क्या? अपनी हिमाकत पर बहुत शर्मिंदा हुए। ज्योंही मकान पर पहुँचे, मुसाहबों ने बेपर की उड़ानी शुरू की।

मिरजा - खुदावंद, आज तो मुँह मीठा कराइए। वह खुशखबरी सुनाऊँ कि फड़क जाइए। हुजूर उनके यहाँ एक महरी नौकर है। वह मुझसे कहती थी कि आज आपके सरकार की तसवीर का आजाद की तसवीर से मुकाबिला किया और बोलीं - मेरी शाहजादे पर जान जाती है।

और मुसाहबों ने भी खुशामद करनी शुरू की; मगर नवाब साहब ने किसी से कुछ न कहा। थोड़ी देर तक बैठे रहे। फिर अंदर चले गए। उनके जाने के बाद मुसाहबों ने आगा से पूछा - अरे मियाँ! बताओ तो, क्या माजरा है? क्या सबब है कि सरकार आज इतने उदास हैं?

आगा - भई, कुछ न पूछिए। बस, यही समझ लो कि सरकार की आँखें खुल गईं।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 109

आजाद के आने के बाद ही बड़ी बेगम ने शादी की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। बड़ी बेगम चाहती थीं कि बरात खूब धूम-धाम से आए। आजाद धूम-धाम के खिलाफ थे। इस पर हुस्नआरा की बहनों में बातें होने लगीं -

बहार बेगम - यह सब दिखाने की बातें हैं। किसी से दो हाथी माँगे, किसी से दो-चार घोड़े; कहीं से सिपाही आए, कहीं से बरछी-बरदार! लो साहब, बरात आई है। माँगे-ताँगे की बरात से फायदा?

बड़ी बेगम - हमको तो यह तमन्ना महीं है कि बरात धूम ही से दरवाजे पर आए। मगर कम से कम इतना तो जरूर होना चाहिए कि जग-हँसाई न हो।

जानी बेगम - एक काम कीजिए, एक खत लिख भेजिए।

गेती - हमारे खानदान में कभी ऐसा हुआ ही नहीं। हमने तो आज तक नहीं सुना। धुनिये जुलाहों के यहाँ तक तो अंगरेजी बाजा बरात के साथ होता है।

बहार - हाँ साहब, बरात तो वही है, जिसमें 50 हाथी, बल्कि फीलखाने का फीलखाना हो, साँड़िनियों की कतार दो मुहल्ले तक जाय। शहर भर के घोड़े और हवादार और तामदान हों और कई रिसाले, बल्कि तोपखाना भी जरूर हो। कदम-कदम पर आतशबाजी छूटती हो और गोले दगते हों। मालूम हो कि बरात क्या, किला फतह किया जाता है।

नाजुक - यह बस बुरी बातें हैं, क्यों?

बहार - जी नहीं, इन्हें बुरी कौन कहेगा भला।

नाजुक - अच्छा, वह जानें, उनका काम जाने।

हुस्नआरा ने जब देखा कि आजाद की जिद से बड़ी बेगम नाराज हुई जाती हैं तो आजाद के नाम एक खत लिखा -

प्यारे आजाद,

माना कि तुम्हारे खयालात बहुत ऊँचे हैं, मगर राह-रस्म में दखल देने से क्या नतीजा निकलेगा। अम्माँजान जिद करती हैं, और तुम इन्कार, खुदा ही खैर करे। हमारी खातिर से मान लो, और जो वह कहें सो करो।

आजाद ने इसका जवाब लिखा - जैसी तुम्हारी मर्जी। मुझे कोई उज्र नहीं है।

हुस्नआरा ने यह खत पढ़ा तो तस्कीन हुई। नाजुकअदा से बोलीं - लो बहन, जवाब आ गया।

नाजुक - मान गए या नहीं?

हुस्नआरा - न कैसे मानते।

नाजुक - चलो, अब अम्माँजान को भी तस्कीन हो गई।

बहार - मिठाइयाँ बाँटो। अब इससे बढ़ कर खुशी की और क्या बात होगी?

नाजुक - आखिर फिर रुपया अल्लाह ने किस काम के लिए दिया है?

बहार - वाह री अक्ल! बस, रुपया इसीलिए है कि आतशबाजी में फूँके या सजावट में लुटाये। और कोई काम ही नहीं?

नाजुक - और आखिर क्या काम है? क्या परचून की दुकान करे? चने बेचे? कुछ मालूम तो हो कि रुपया किस काम में खर्च किया जाय? दिल का हौसला और कैसे निकाले!

बहार - अपनी-अपनी समझ है।

नाजुक - खुदा न करे कि किसी की ऐसी उलटी समझ हो। लो साहब, अब बरात भी गुनाह है। हाथी, घोड़े, बाजा सब ऐब में दाखिल। जो बरात निकालते हैं, सब गधे हैं। एक तुम और दूसरे मियाँ आजाद दो आदमियों पर अक्ल खतम हो गई। जरा आने तो दो मियाँ को, सारी शेखी निकल जायगी।

दूसरे दिन बड़ी धूम-धाम से माँझे की तैयारी हुई। आजाद की तरफ खोजी मुहतमिम थे। आपने पुराने ढंग की जामदानी की अचकन पहनी जिसमें कीमती बेल टँकी हुई थी। सिर पर एक बहुत बड़ा शमला। कंधे पर कश्मीर का हरा दुशाला। इस ठाट से आप बाहर आए तो लोगों ने तालियाँ बजाईं। इस पर आप बहुत ही खफा हो कर बोले - यह तालियाँ हम पर नहीं बजाते हो। यह अपने बाप-दादों पर तालियाँ बजाते हो। यह खास उनका लिबास है। कई लौंडों ने उनके मुँह पर हँसना शुरू किया, मगर इंतजाम के धुन में खोजी को और कुछ न सूझता था। कड़क कर बोले - हाथियों को उसी तरफ रहने दो। बस, उसी लाइन में ला-ला कर हाथी लगाओ।

एक फीलवान - यहाँ कहीं जगह भी है? सबका भुरता बनाएँगे आप?

खोजी - चुप रह, बदमाश!

मिरजा साहब भी खड़े तमाशा देख रहे थे। बोले - भई, इस फन में तो तुम उस्ताद हो।

खोजी - (मुसकिरा कर) आपकी कद्रदानी है।

मिरजा - आपका रोब सब मानते हैं।

खोजी - हम किस लायक हैं भाईजान! दोस्तों का इकबाल है।

गरज इस धूम-धाम से माँझा दुलहिन के मकान पर पहुँचा कि सारे शहर में शोर मच गया। सवारियाँ उतरीं। मीरासिनों ने समधिनों को गालियाँ दीं। मियाँ आजाद बाहर से बुलवाये गए और उनसे कहा गया कि मढ़े के नीचे बैठिए। आजाद बहुत इनकार करते रहे; मगर औरतों ने एक न सुनी। नाजुक बेगम ने कहा - आप तो कभी से बिचकने लगे। अभी तो माँझे का जोड़ा पहनना पड़ेगा।

आजाद - यह मुझसे नहीं होने का।

जान बेगम - क्या फजूल रस्म है!

जानी - ले, अब पहनते हो कि तकरार करते हो? हमसे जनरैली न चलेगी।

बेगम - भला, यह भी कोई बात है कि माँझे का जोड़ा न पहनेंगे?

आजाद - अगर आपकी खातिर इसी में है तो लाइए, टोपी दे लूँ।

नाजुक बेगम - जब तक माँझे का पूरा जोड़ा न पहनोगे, यहाँ से उठने न पाओगे।

आजाद ने बहुत हाथ जोड़े, गिड़गिड़ा कर कहा कि खुदा के लिए मुझे इस पीले जोड़े से बचाओ। मगर कुछ बस न चला। सालियों ने अँगरखा पहनाया, कंगन बाँधा। सारी बातें रस्म के मुताबिक पूरी हुई।

जब आजाद बाहर गए तो सब बेगमें मिल कर बाग की सैर करने चलीं। गेतीआरा ने एक फूल तोड़ कर जानी बेगम की तरफ फेंका। उसने वह फूल रोक कर उन पर ताक के मारा तो आँचल से लगता हुआ चमन में गिरा। फिर क्या था, बाग में चारों तरफ फूलों की मार होने लगी। इसके बाद नाजुकअदा ने यह गजल गाई -

वाकिफ नहीं है कासिद मेरे गमे-निहाँ से,
वह काश हाल मेरा सुनते मेरी जबाँ से।

क्यों त्योरियों पर बल है, माथे पर शिकन है?
क्यों इस कदर हो बरहम, कुछ तो कहो जबाँ से।

कोई तो आशियाना सैयाद ने जलाया,
काली घटाएँ रो कर पलटी हैं बोस्ताँ से।

जाने को जाओ लेकिन, यह तो बताते जाओ,
किसर तरह बारे फुरकत उठेगा नातवाँ से।

बहार - जी चाहता है, तुम्हारी आवाज को चूम लूँ।

नाजुक - और मेरा जी चाहता है कि तुम्हारी तारीफ चूम लूँ।

बहार - हम तुम्हारी आवाज के आशिक हैं।

नाजुक - आपकी मेहरबानी। मगर कोई खूबसूरत मर्द आशिक हो तो बात है। तुम हम पर रीझीं तो क्या? कुछ बात नहीं।

बहार - बस, इन्हीं बातों से लोग उँगलियाँ उठाते हैं। और तुम नहीं छोड़तीं।

जानी - सच्ची आवाज भी कितनी प्यारी होती है!

नाजुक - क्या कहना है! अब दो ही चीजों में तो असर है, एक गाना, दूसरे हुस्न। अगर हमको अल्लाह ने ऐसा हुस्न न दिया होता, तो हमारे मियाँ हम पर क्यों रीझते?

बहार - तुम्हारा हुस्न तुम्हारे मियाँ को मुबारक हो! हम तो तुम्हारी आवाज पर मिटे हुए हैं।

नाजुक - और मैं तुम्हारे हुस्न पर जान देती हूँ। अब मैं भी बनाव-चुनाव करना तुमसे सीखूँगी।

नाजुक - बहन, अब तुम झेंपती हो। जब कभी तुम मिलीं, तुम्हें बनते-ठनते देखा। मुझसे दो-तीन साल बड़ी हो, मगर बारह बरस की बनी रहती हो। हैं तुम्हारे मियाँ किस्मत के धनी।

बहार - सुनो बहन, हमारी राय यह है कि अगर औरत समझदार हो, तो मर्द की ताकत नहीं कि उसे बाहर का चस्का पड़े।

साचिक के दिन जब चाँदी का पिटारा बाहर आया, तो खोजी बार-बार पिटारे का ढकना उठा कर देखने लगे कि कहीं शीशियाँ न गिरने लगें। मोतिये का इत्र खुदा जाने, किन दिक्कतों से लाया हूँ। यह वह इत्र है, जो आसफुद्दौला के यहाँ से बादशाह की बेगम के लिए गया था।

एक आदमी ने हँस कर कहा - इतना पुराना इत्र हुजूर को कहाँ से मिल गया?

खोजी - हूँ! कहाँ से मिल गया! मिल कहाँ से जाता? महीनों दौड़ा हूँ, तब जाके यह चीज हाथ लगी है।

आदमी - क्यों साहब यह बरसों का इत्र चिटक न गया होगा?

खोजी - वाह! अक्ल बड़ी कि भैंस? बादशाही कोठों के इत्र कहीं चिटका करते हैं? यह भी उन गंधियों का तेल हुआ, जो फेरी लगाते फिरते हैं!

आदमी - और क्यों साहब, केवड़ा कहाँ का है?

खोजी - केवड़िस्तान एक मुकाम है, कजलीवन के पास। वहाँ के केवड़ों से खींचा गया है।

आदमी - केवड़िस्तान! यह नाम तो आज ही सुना।

खोजी - अभी तुमने सुना ही क्या है? केवड़िस्तान का नाम ही सुन कर घबड़ा गए।

आदमी - क्यों हुजूर, यह कजलीवन कौन सा है, वही न, जहाँ घोड़े बहुत होते हैं?

खोजी - (हँस कर) अब बनाते हैं आप। कजलीवन में घोड़े नहीं, खास हाथियों का जंगल है।

आदमी - क्यों जनाब, केवड़िस्तान से तो केवड़ा आया, और गुलाब कहाँ का है? शायद गुलाबिस्तान का होगा?

खोजी - शाबाश! यह हमारी सोहबत का असर है कि अपने परों आप उड़ने लगे। गुलाबिस्तान कामरू-कमच्छा के पास है, जहाँ का जादू मशहूर है।

रात को जब साचिक का जुलूस निकला तो खोजी ने एक पनशाखेवाली का हाथ पकड़ा और कहा - जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा।

वह बिगड़ कर बोली - दुर मुए! दाढ़ी झुलस दूँगी, हाँ। आया वहाँ से बरात का दारोगा बनके, सिवा मुरहेपन के दूसरी बात नहीं।

खोजी - निकाल दो इस हरामजादी को यहाँ से।

औरत - निकाल दो इस मूड़ी को।

खोजी - अब मैं छूरी भोंक दूँगा, बस!

औरत - अपने पनशाखे से मुँह झुलस दूँगी। मुआ दीवाना, औरतों को रास्ते में छेड़ता चलता है।

खोजी - अरे मियाँ कांस्टेबिल, निकाल दो इस औरत को।

औरत - तू खुद निकाल दे, पहले।

जुलूस के साथ कई बिगड़े दिल भी थे। उन्होंने खोजी को चकमा दिया- जनाब, अगर इसने सजा न पाई तो आपकी बड़ी किरकिरी होगी। बदरोबी हो जायगी। आखिर, यह फैसला हुआ, आप कमर कस कर बड़े जोश के साथ पनशाखेवाली की तरफ झपटे। झपटते ही उसने पनशाखा सीधा किया और कहा - अल्लाह की कसम! न झुलस दूँ तो अपने बाप की नहीं।

लोगों ने खोजी पर फबतियाँ कसनी शुरू कीं।

एक - क्यों मेजर साहब, अब तो हारी मानी?

दूसरा - ऐं! करौली और छुरी क्या हुई!

तीसरा - एक पनशाखेवाली से नहीं जीत पाते, बड़े सिपाही की दुम बने हैं!

औरत - क्या दिल्लगी है! जरा जगह से बढ़ा, और मैंने दाढ़ी और मूँछ दोनों झुलस दिया।

खोजी - देखो, सब के सब देख रहे हैं कि औरत समझ कर इसको छोड़ दिया। वरना कोई देव भी होता तो हम बे कत्ल किए न छोड़ते इस वक्त।

जब साचिक दुलहिन के घर पहुँचा, तो दुलहिन की बहनों ने चंदन से समधिन की माँग भरी। हुस्नआरा का निखार आज देखने के काबिल था। जिसने देखा, फड़क गई। दुलहिन को फूलों का गहना पहनाया गया। इसके बाद छड़ियों की मार होने लगी। नाजुकअदा और जानी बेगम के हाथ में फूलों की छड़ियाँ थीं। समधिनों पर इतनी छड़ियाँ पड़ीं की बेचारी घबड़ा गईं।

जब माँझे और साचिक की रस्म अदा हो चुकी तो मेहँदी का जुलूस निकला। दुलहिन के यहाँ महफिल सजी हुई थी। डोमिनियाँ गा रही थीं। कमरे की दीवारें इस तरह रँगी हुई थीं कि नजर नहीं ठहरती थी। छतगीर की जगह सुर्ख मखमल का था। झाड़ और कँवल, मृदंग और हाँड़ियाँ सब सुर्ख। कमरा शीशमहल हो गया था। बेगमें भारी-भारी जोड़े पहने चहकती फिरती थीं। इतने में एक सुखपाल ले कर महरियाँ सहन में आईं। उस पर से एक बेगम साहब उतरीं, जिनका नाम परीबानू था।

सिपहआरा बोलीं - हाँ, अब नाजुकअदा बहन की जवाब देनेवाली आ गईं। बराबर की जोड़ है! यह कम न वह कम।

रूहअफजा - नाम बड़ा प्यारा है।

नाजुक - प्यारा क्यों न हो। इनके मियाँ ने यह नाम रखा है।

परीबानू - और तुम्हारे मियाँ ने तुम्हारा नाम क्या रखा है। चरबाँक महल?

इस पर बड़ी हँसी उड़ी। बारह बजे रात को मेहंदी रवाना हुई। जब जुलूस सज गया तो ख्वाजा साहब आ पहुँचे और आते ही गुल मचाना शुरू किया - सब चींजें करीने के साथ लगाओ और मेरे हुक्म के बगैर कोई कदम भी आगे न रखे। वरना बुरा होगा।

सजावट के तख्त बड़े-बड़े कारीगरों से बनवाए गए थे। जिसने देखा, दंग हो गया।

एक - यों तो सभी चीजें अच्छी हैं, मगर तख्त सबसे बढ़-चढ़ कर हैं।

दूसरा - बड़ा रुपया इन्होंने सर्फ किया है साहब।

तीसरा - ऐसा मालूम होता है कि सचमुच के फूल खिले हैं।

चौथा - जरा चंडूबाजों के तख्त को देखिए। ओहो-हो! सब के सब औंधे पड़े हुए हैं। आँखों से नशा टपका पड़ता है। कमाल इसे कहते हैं। मालूम होता है, सचमुच चंडूखाना ही है। वह देखिए, एक बैठा हुआ किस मजे से पौंडा छील रहा है।

इसके बाद तुर्क सवारों का तख्त आया। जवान लाल बानात की कुर्तियाँ पहने, सिर पर बाँकी टोपियाँ दिए, बूट चढ़ाए, हाथ में नंगी तलवारें लिए, बस यही मालूम होता था कि रिसाले ने अब धावा किया।

जब जुलूस दूल्हा के यहाँ पहुँचा तो बेगमें पालकियों से उतरीं। दूल्हा की बहनें और भावजें दरवाजे तक उन्हें लाने आईं। सब समधिनें बैठीं तो डोमिनियों ने मुबारकबाद गाई। फिर गालियों की बौछार होने लगी। आजाद को जब यह खबर हुई तो बहुत ही बिगड़े; मगर किसी ने एक न सुनी। अब आजाद के हाथों में मेहँदी लगाने की बारी आई। उनका इरादा था कि एक ही उँगली में मेहँदी लगाएँ, मगर जब एक तरफ सिपहआरा और दूसरी तरफ रूहअफजा बेगम ने दोनों हाथों में मेहँदी लगानी शुरू की तो उनकी हिम्मत न पड़ी कि हाथ खींच लें।

हँसी-हँसी में उन्होंने कहा - हिंदुओं के देखा-देखी हम लोगों ने यह रस्म सीखी है। नहीं तो अरब में कौन मेहँदी लगाता है।

सिपहआरा - जिन हाथों से तलवार चलाई, उन हाथों को कोई हँस नहीं सकता। सिपाही को कौन हँसेगा भला?

रूहअफजा - क्या बात कही है! जवाब दो तो जानें।

दो बजे रात को रूहअफजा बेगम को शरारत जो सूझी तो गेरू घोल कर सोते में महरियों को रँग दिया और लगे हाथ कई बेगमों के मुँह भी रँग दिए। सुबह को जानी बेगम उठीं तो उनको देख कर सब की सब हँसने लगीं। चकराईं कि आज माजरा क्या है। पूछा - हमें देख कर हँस रही हो क्या!

रूहअफजा - घबराओ नहीं, अभी मालूम हो जायगा।

नाजुक - कुछ अपने चेहरे की भी खबर है?

जानी - तुम अपने चेहरे की तो खबर लो।

दोनों आईने के पास जाके देखती हैं, तो मुँह रँगा हुआ। बहुत शर्मिंदा हुई।

रूहअफजा - क्यों बहन, क्या यह भी कोई सिंगार है?

जानी - अच्छा, क्या मुजायका है; मगर अच्छे घर बयाना दिया। आज रात होने दो। ऐसा बदला लूँ कि याद ही करो।

रूहअफजा - हम दरवाजे बंद करके सो रहेंगे। फिर कोई क्या करेगा!

जानी - चाहे दरवाजा बंद कर लो, चाहे दस मन का ताला डाल दो, हम उस स्याही से मुँह रँगेंगी, जिससे जूते साफ किए जाते हैं।

रूहअफजा - बहन, अब तो माफ करो। और यों हम हाजिर हैं। जूतों का हार गले में डाल दो।

इस तरह चहल-पहल के साथ मेहँदी की रस्म अदा हुई।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 110

खोजी ने जब देखा कि आजाद की चारों तरफ तारीफ हो रही है, और हमें कोई नहीं पूछता, तो बहुत झल्लाए और कुल शहर के अफीमचियों को जमा करके उन्होंने भी जलसा किया और यों स्पीच दी - भाइयों! लोगों का खयाल है कि अफीम खा कर आदमी किसी काम का नहीं रहता। मैं कहता हूँ, बिलकुल गलत। मैंने रूम की लड़ाई में जैसे-जैसे काम किए, उन पर बड़े से बड़ा सिपाही भी नाज कर सकता है। मैंने अकेले दो-दो लाख आदमियों का मुकाबिला किया है। तोपों के सामने बेधड़क चला गया हूँ। बड़े-बड़े पहलवानों को नीचा दिखा दिया है। और मैं वह आदमी हूँ, जिसके यहाँ सत्तर पुश्तों से लोग अफीम खाते आए हैं।

लोग - सुभान अल्लाह! सुभान-अल्लाह!!

खोजी - रही अक्ल की बात, तो मैं दुनिया के बड़े से बड़े शायर, बड़े से बड़े फिलास्फर को चुनौती देता हूँ कि वह आ कर मेरे सामने खड़ा हो जाय। अगर एक डपट में भगा न दूँ तो अपना नाम बदल डालूँ।

लोग - क्यों न हो।

खोजी - मगर आप लोग कहेंगे कि तुम अफीम की तारीफ करके इसे और गिराँ कर दोगे, क्योंकि जिस चीज की माँग ज्यादा होती है, वह महँगी बिकती है। मैं कहता हूँ कि इस शक को दिल में न आने दीजिए; क्योंकि सबसे ज्यादा जरूरत दुनिया में गल्ले की है। अगर माँग के ज्यादा होने से चीजें महँगी हो जातीं तो गल्ला अब तक देखने को भी न मिलता। मगर इतना सस्ता है कि कोरी चमार, धुनिये-जुलाहे सब खरीदते और खाते हैं। वजह यह कि जब लोगों ने देखा कि गल्ले की जरूरत ज्यादा है, तो गल्ला ज्यादा बोने लगे। इसी तरह जब अफीम की माँग होगी, तो गल्ले की तरह बोई जायगी और सस्ती बिकेगी। इसलिए हर एक सच्चे अफीमची का फर्ज है कि वह इसके फायदों को दुनिया पर रोशन कर दे।

एक - क्या कहना है! क्या बात पैदा की।

दूसरा - कमाल है, कमाल!

तीसरा - आप इस फन के खुदा हैं।

चौथा - मेरी तसल्ली नहीं हुई। आखिर, अफीम दिन-दिन क्यों महँगी होती जाती है?

पाँचवाँ - चुप रह! नामाकूल? ख्वाजा साहब की बात पर एतराज करता है! जा कर ख्वाजा साहब के पैरों पर गिरो और कहो कि कुसूर माफ कीजिए।

खोजी - भाइयो! किसी भाई को जलील करना मेरी आदत नहीं। गोकि खुदा ने मुझे बड़ा रुत्बा दिया है और मेरा नाम सारी दुनिया में रोशन है; मगर आदमी नहीं, आदमी का जौहर है। मैं अपनी जबान से किसी को कुछ न कहूँगा। मुझे यही कहना चाहिए कि मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नालायक, सबसे ज्यादा बदनसीब और सबसे ज्यादा जलील हूँ। मैंने मिस्र के पहलवान को पटकनी नहीं दी थी, उसी ने उठाके मुझे दे मारा था। जहाँ गया, पिटके आया। गो दुनिया जानती है कि ख्वाजा साहब का जोड़ नहीं; मगर अपनी जबान से मैं क्यों कहूँ। मैं तो यही कहूँगा कि बुआ जाफरान ने मुझे पीट लिया और मैंने उफ तक न की।

एक - खुदा बख्शे आपको। क्या कहना है उस्ताद।

दूसरा - पिट गए और उफ तक न की?

खोजी - भाइयों! गोकि मैं अपनी शान में इज्जत के बड़े-बड़े खिताब पेश कर सकता हूँ; मगर जब मुझे कुछ कहना होगा तो यही कहॅूगा कि मैं झक मारता हूँ। अगर अपना जिक्र करूँगा तो यही कहूँगा कि मैं पाजी हूँ। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे जलीज समझें ताकि मुझे गुरूर न हो।

लोग - वाह-वाह! कितनी आजिजी है! जभी तो खुदा ने आपको यह रुतबा दिया।

खोजी - आजकल जमाना नाजुक है। किसी ने जरा टेढ़ी बात की और धर लिए गए। किसी को एक धौल लगाई और चालान हो गया। हाकिम ने 10 रुपया जुर्माना कर दिया या दो महीने की कैद। अब बैठे हुए चक्की पीस रहे हैं। इस जमाने में अगर निबाह है, तो आजिजी में। और अफीम से बढ़ कर आजिजी का सबक देने वाली दूसरी चीज नहीं।

लोग - क्या दलीलें हैं! सुभान अल्लाह!

खोजी - भाइयों, मेरी इतनी तारीफ न कीजिए, वरना मुझे गुरूर हो जायगा। मैं वह शेर हूँ, जिसने जंग के मैदान में करोड़ों को नीचा दिखाया। मगर अब तो आपका गुलाम हूँ।

एक - आप इस काबिल हैं कि डिबिया में बंद कर दे।

दूसरा - आपके कदमों की खाक ले कर ताबीज बनानी चाहिए।

तीसरा - इस आदमी की जबान चूमने के काबिल है।

चौथा - भाई, यह सब अफीम के दम का जहूरा है।

खोजी - बहुत ठीक। जिसने यह बात कही, हम उसे अपना उस्ताद मानते हैं। यह मेरी खानदानी सिफत है। एक नकल सुनिए - एक दिन बाजार में किसी ने चिड़ीमार से एक उल्लू के दाम पूछे। उसने कहा, आठ आने। उसी के बगल में एक और छोटा उल्लू भी था। पूछा, इसकी क्या कीमत है? कहा, एक रुपया। तब तो गाहक ने कान खड़े किए और कहा - इतने बड़े उल्लू के दाम आठ आने और जरा से जानवर का मोल एक रुपया? चिड़िमार ने कहा - आप तो हैं उल्लू। इतना नहीं समझते कि इस बड़े उल्लू में सिर्फ यह सिफत है कि यह उल्लू है और इस छोटे में दो सिफतें हैं। एक यह कि खुद उल्लू है, दूसरे उल्लू का पट्ठा है। तो भाइयो! आपका यह गुलाम सिर्फ उल्लू नहीं, बल्कि उल्लू का पट्ठा है।

एक - हम आज से अपने को उल्लू की दुम फाख्ता लिखा करेंगे।

दूसरा - हम तो जाहिल आदमी हैं, मगर अब अपना नाम लिखेंगे तो गधे का नाम बढ़ा देंगे। आज से हम आजिजी सीख गए।

खोजी - सुनिए, इस उल्लू के पट्ठे ने जो-हो काम किया, कोई करे तो जानें; उसकी टाँग की राह निकल जायँ। पहाड़ों को हमने काटा और बड़े-बड़े पत्थर उठा कर दुश्मन पर फेंके। एक दिन 44 मन का एक पत्थर एक हाथ से उठाकर रूसियों पर मारा तो दो लाख पच्चीस हजार सात सौ उनसठ आदमी कुचल के मर गए।

एक - ओफ्फोह! इन दुबले-पतले हाथ-पाँवों पर यह ताकत!

खोजी - क्या कहा? दुबले-पतले हाथ-पाँव! यह हाथ-पाँव दुबले-पतले नहीं। मगर बदन-चोर है। देखने में तो मालूम होता है कि मरा हुआ आदमी है; मगर कपड़े उतारे और देव मालूम होने लगा। इसी तरह मेरे कद का भी हाल है। गँवार आदमी देखे तो कहे कि बौना है। मगर जाननेवाले जानते हैं कि मेरा कद कितना ऊँचा है। रूम में जब दो-एक गँवारों ने मुझे बौना कहा, तो बेअख्तियार हँसी आ गई। यह खुदा की देन है कि हूँ तो मैं इतना ऊँचा; मगर कोई कलियुग की खूँटी कहता है, कोई बौना बनाता है। हूँ तो शरीफजादा; मगर देखनेवाले कहते हैं कि यह कोई पाजी है। अक्ल इस कदर कूट-कूट कर भरी है कि अगर फलातून जिंदा होता, तो शागिर्दी करता। मगर जो देखता है, कहता है कि यह गधा है। यह दरजा अफीम की बदौलत ही हासिल हुआ है।

अब तो यह हाल है कि अगर कोई आदमी मेरे सिर को जूतों से पीटे, तो उफ न करूँ। अगर किसी ने कहा कि ख्वाजा गधा है, तो हँस कर जवाब दिया कि मैं ही नहीं, मेरे बाप और दादा भी ऐसे ही थे।

एक - दुनिया में ऐसे-ऐसे औलिया पड़े हुए हैं!

खोजी - मगर इस आजिजी के साथ दिलेर भी ऐसा हूँ कि किसी ने बात कही और मैंने चाँटा जड़ा। मिस्र के नामी पहलवान को मारा। यह बात किसी अफीमची में नहीं देखी। मेरे वालिद भी तोलों अफीम पीते थे और दिन भर दुकानों पर चिलमें भरा करते थे। मगर यह बात उनमें भी न थी।

लोग - आपने अपने बाप का नाम रोशन कर दिया।

खोजी - अब मैं आप लोगों से चंडू की सिफत बयान करना चाहता हूँ। बगैर चंडू पिए आदमी में इनसानियत आ नहीं सकती। आप लोग शायद इसकी दलील चाहते होंगे। सुनिए - बगैर लेटे हुए कोई चंडू पी नहीं सकता और लेटना अपने को खाक में मिलाना है। बाबा सादी ने कहा है -

खाक शो पेश अजाँ कि खाक शबीं।

(मरने से पहले खाक हो जा।)

चंड की दूसरी सिफत यह है कि हरदम लौ लगी रहती है। इससे आदमी का दिल रोशन हो जाता है। तीसरी सिफत यह है कि इसकी पिनक में फिक्र करीब नहीं आने पाती। चुस्की लगाई और गोते में आए। चौथी सिफत यह है कि अफीमची को रात भर नींद नहीं आती। और यह बात पहुँचे हुए फकीर ही को हासिल होती है। पाँचवीं सिफत यह है कि अफीमची तड़के ही उठ बैठता है। सबेरा हुआ और आग लेने दौड़े। और जमाना जानता है कि सबेरे उठने से बीमारी नहीं आती।

इस पर एक पुराने खुर्राट अफीमची ने कहा - हजरत, यहाँ मुझे एक शक है। जो लोग चीन गए हैं। वह कहते हैं कि वहाँ तीस बरस से ज्यादा उम्र का आदमी ही नहीं। इससे तो यही साबित होता है कि अफीमियों की उम्र कम होती है।

खोजी - यह आपसे किसने कहा? चीन वाले किसी को अपने मुल्क में नहीं जाने देते। असल बात यह है कि चीन में तीस बरस के बाद लड़का पैदा होता है।

लोग - क्या तीस बरस के बाद लड़का पैदा होता है! इसका तो यकीन नहीं आता।

एक - हाँ-हाँ होगा। इसमें यकीन न आने की कौन बात है। मतलब यह कि जब औरत तीस बरस की हो जाती है, तब कहीं लड़का पैदा होता है।

खोजी - नहीं-नहीं; यह मतलब हीं है। मतलब यह है कि लड़का तीस बरस तक हमल में रहता है।

लोग - बिलकूल झूठ! खुदा की मार इस झूठ पर।

खोजी - क्या कहा? यह आवाज किधर से आई? अरे, यह कौन बोला था? यह किसने कहा कि झूठ है?

एक - हुजूर, उस कोने से आवाज आई थी।

दूसरा - हुजूर, यह गलत कहते हैं। इन्हीं की तरफ से आवाज आई थी।

खोजी - उन बदमाशों को कत्ल कर डालो। आग लगा दो। हम, और झूठ! मगर नहीं, हमीं चूके। मुझे इतना गुस्सा न चाहिए। अच्छा साहब हम झूठे, हम गप्पी, बल्कि हमारे बाप बेईमान, जालसाज और जमाने भर के दगाबाज। आप लोग बतलाएँ, मेरी क्या उम्र होगी?

एक - आप कोई पचास के पेटे में होंगे।

दूसरा - नहीं-नहीं, आप कोई सत्तर के होंगे।

खोजी - एक हुई, याद रखिएगा हजरत। हमारा सिन न पचास का, न साठ का। हम दो ऊपर सौ बरस के हैं। जिसको यकीन न आए वह काफिर।

लोग - उफ्फोह, दो ऊपर सौ बरस का सिन है।

खोजी - जी हाँ, दो ऊपर सौ बरस का सिन है।

एक - अगर यह सही है तो यह एतराज उठ गया कि अफीमियों की उम्र कम होती है। अब भी अगर कोई अफीम न पिए, तो बदनसीब है।

खोजी - दो ऊपर सौ बरस का सिन हुआ और अब तक वही खमदम है कहो, हजार से लड़ें, कहो, लाख से। अच्छा अब आप लोग भी अपने-अपने तजरबे बयान करें। मेरी तो बहुत सुन चुके; अब कुछ अपनी भी कहिए।

इस पर गट्टू नाम का एक अफीमची उठ कर बोला - भाई पंचों, मैं कलवार हूँ। मुल शराब हमारे यहाँ नहीं बिकती। हम जब लड़के से थे, तब से हम अफीम पीते हैं। एक बार होली के दिन हम घर से निकले। ऐ बस, एक जगह कोई पचास हों, पैतालिस हों, इतने आदमी खड़े थे। किसी के हाथ में लोटा, किसी के हाथ में पिचकारी। हम उधर से जो चले, तो एक आदमी ने पीछे से दो जूता दिया, तो खोपड़ी भन्ना गई। अगर चाहता तो उन सबको डपट लेता, मगर चुप हो रहा।

खोजी - शाबाश! हम तुमसे बहुत खुश हुए गुट्टू।

गुट्टू - हुजूर की दुआ से यह सब है।

इसके बाद नूरखाँ नाम का एक अफीमची उठा। कहा - पंचो! हम हाथ जोड़ कर कहते हैं कि हमने कई साल से अफीम, चंडू पीना शुरू किया है। एक दिन हम एक चने के खेत में बैठे बूट खा रहे थे। किसान था दिल्लगीबाज। आया और मेरा हाथ पकड़ कर कानीहौज ले चला। मैं कान दबाए हुए उसके साथ चला आया।

इसके बाद कई अफीमचियों ने अपने-अपने हाल बयान किए। आखिर में एक बुड्ढे जोगादारी अफीमी ने खड़े हो कर कहा - भाइयों! आज तक अफीमियों में किसी ने ऐसा काम नहीं किया था। इसलिए हमारा फर्ज है कि हम अपने सरदार को कोई खिताब दे। इस पर सब लोगों ने मिलकर खुशी से तालियाँ बजाईं और खोजी को गीदी का खिताब दिया। खोजी ने उन सबका शुक्रिया अदा किया और मजलिस बरखास्त हुई।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 111

आज बड़ी बेगम का मकान परिस्तान बना हुआ है। जिधर देखिए, सजावट की बहार है। बेगमें धमा-चौकड़ी मचा रही हैं।

जानी - दूल्हा के यहाँ तो आज मीरासिनों की धूम है। कहाँ तो मियाँ आजाद को नाच-गाने से इतनी चिढ़ थी कि मजाल क्या, कोई डोमिनी घर के अंदर कदम रखने पाए। और आज सुनती हूँ कि तबले पर थाप पड़ रही है और गजलें, ठुमरियाँ, टप्पे गाए जाते हैं।

नाजुक - सुना है, आज सुरैया बेगम भी आने वाली हैं।

बहार - उस मालजादी का हमारे सामने जिक्र न किया करो।

नाजुक - (दाँतों तले उँगली दबा कर।) ऐसा न कहो, बहन!

जानी - ऐसी पाक-दामन औरत है कि उसका सा होना मुश्किल है।

नाजुक - यह लोग खुदा जाने, क्या समझती हैं सुरैया बेगम को।

बहार - ऐ है! सच कहना, सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली।

इतने में एक पालकी से एक बेगम साहब उतरीं। जानी बेगम और नाजुक अदा में इशारे होने लगे। यह सुरैया बेगम थीं।

सुरैया - हमने कहा, चलके जरी दुलहिन को देख आएँ।

रूहअफजा - अच्छी तरह आराम से बैठिए।

सुरैया - मैं बहुत अच्छी बैठी हूँ। तकल्लुफ क्या है।

नाजुक - यहाँ तो आपको हमारे और जानी बेगम के सिवा किसी ने न देखा होगा।

सुरैया - मैं तो एक बार हुस्नआरा से मिल चुकी हूँ।

सिपहआरा - और हमसे भी?

सुरैया - हाँ, तुमसे मिले थे, मगर बताएँगे नहीं।

सिपहआरा - कब मिले थे अल्लाह! किस मकान में थे?

सुरैया - अजी, मैं मजाक करती थी। हुस्नआरा बेगम को देख कर दिल शाद हो गया।

नाजुक - क्या हमसे ज्यादा खूबसूरत हैं?

सुरैया - तुम्हारी तो दुनिया के परदे पर जवाब नहीं है।

नाजुक - भला दूल्हा से आपसे बातचीत हुई थी?

सुरैया - बातचीत आपसे हुई होगी। मैंने तो एक दफा राह में देखा था।

नाजुक - भला दूसरा निकाह भी मंजूर करते हैं वह।

सुरैया - यह तो उनसे कोई जाके पूछे।

नाजुक - तुम्हीं पूछ लो बहन, खुदा के वास्ते।

सुरैया - अगर मंजूर हो दूसरा निकाह, तो फिर क्या?

नाजुक - फिर क्या, तुमको इससे क्या मतलब?

रूहअफजा - आखिर दूसरे निकाह के लिए किसे तजवीजा है।

नाजुक - हम खुद अपना पैगाम करेंगे।

रूहअफजा - बस, हद हो गई नाजुकअदा बहन! ओफ्फोह!

नाजुक - (आहिस्ता से) सुरैया बेगम, तुमने गलती की। धीरज न रख सकीं।

सुरैया - हम जान फिदा करते, गर वादा वफा होता,

मरना ही मुकद्दर था, वह आते तो क्या होता!

नाजुक - हाँ, है तो यही बात। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ, मसलहत भी यही थी।

हुस्नआरा बेगम ने यह शेर सुना और नाजुक बेगम की बातें को तौला, तो समझ गईं कि हो न हो, सुरैया बेगम यही हैं। कनखियों से देखा और गरदन फेर कर इशारे से सिपहआरा को बुला कर कहा - इनको पहचाना? सोचो तो, यह कौन हैं?

सिपहआरा - ऐ बाजी, तुम तो पहेलियाँ बुझवाती हो।

हुस्नआरा - तुम ऐसी तबीयतदार, और कब तक न समझ सकीं?

सिपहआरा - तो कोई उड़ती चिड़िया तो नहीं पकड़ सकता।

हुस्नआरा - उस शेर पर गौर करो।

सिपहआरा - अख्खाह, (सुरैया बेगम की तरफ देख कर) अब समझ गई।

हुस्नआरा - है औरत हसीन।

सिपहआरा - हाँ हैं; मगर तुमसे क्या मुकाबिला।

हुस्नआरा - सच कहना, कितनी जल्द समझ गई हूँ।

सिपहआरा - इसमें क्या शक है, मगर यह तुमसे कब मिली थीं? मुझे तो बाद नहीं आता।

हुस्नआरा - खुदा जाने। अलारक्खी बनके आने न पाती, जोगिन के भेस में कोई फटकने न देता। शिब्बोजान का यहाँ क्या काम?

सिपहआरा - शायद महरी-वहरी बनके गुजर हुआ हो।

हुस्नआरा - सच तो यह है कि हमको इनका आना बहुत खटकता है। इन्हें तो यह चाहिए था कि जहाँ आजाद का नाम सुनतीं, वहाँ से हट जातीं, न कि ऐसी जगह आना।

सिपहआरा - इनसे यहाँ तक आया क्योंकर गया?

हुस्नआरा - ऐसा न हो कि यहाँ कोई गुल खिले।

सिपहआरा ने जा कर बहार बेगम से कहा - जो बेगम अभी आई हैं, उनको तुमने पहचाना? सुरैया बेगम यही हैं। तब तो बहार बेगम के कान खड़े हुए। गौर से देख कर बोलीं - माशा-अल्लाह! कितनी हसीन औरत है! ऐसी नमकीनी भी कम देखने में आई।

सिपहआरा - बाजी को खौफ है कि कोई गुल न खिलाएँ।

बहार - गुल क्या खिलाएँगी। अब तो इनका निकाह हो गया।

सिपहआरा - ऐ है, बाजी! निकाह पर न जाना। यह वह खिलाड़ है कि घूँघट के आड़ में शिकार खेलें।

बहार - ऐ नहीं, क्यों बिचारी को बदनाम करती हो।

सिपहआरा - वाह! बदनामी की एक ही कही। कोई पेशा, कोई कर्म इनसे छूटा? लगावटबाजी में इनकी धूम है।

बहार - हम जब इस ढब पर आने भी दें।

उधर नाजुकअदा बेगम ने बातों-बातों में सुरैया बेगम से पूछा - बहन, यह बात अब तक न खुली कि तुम पादरी के यहाँ से क्यों निकल आईं। सुरैया बेगम ने कहा - बहन, इस जिक्र से रंज होता है। जो हुआ; वह हुआ, अब उसका घड़ी-घड़ी जिक्र करना फजूल है। लेकिन जब नाजुकअदा बेगम ने बहुत जिद की तो उन्होंने कहा - बात यह हुई कि बेचारे पादरी ने मुझ पर तरस खा कर अपने घर में रखा और जिस तरह कोई खास अपनी बेटियों से पेश आता है, उसी तरह मुझसे पेश आते। मुझे पढ़ाया-लिखाया, मुझसे रोज कहते कि तुम ईसाई हो जाओ; लेकिन मैं हँस के टाल दिया करती थी। एक दिन पादरी साहब तो चले गए थे किसी काम को, उनका भतीजा, तो फौज में नौकर है, उनसे मिलने आया। पूछा - कहाँ गए हैं? मैंने कहा - कहीं बाहर गए हैं। इतना सुनना था कि वह गाड़ी से उतर आया और अपनी जेब से बोतल निकाल कर शराब पी। जब नशा हुआ तो मुझसे कहने लगा, तुम भी पियो। उसने समझा, मैं राजी हूँ। मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं उससे अपना हाथ छुड़ाने लगी। मगर वह मर्द, मैं औरत! फिर फौजी जवान, कुछ करते-धरते नहीं बनती थी। आखिर बोली - साहब, तुम फौज के जवान हो। मैं भला तुमसे क्या जीत पाऊँगी? मेरा हाथ छोड़ दो। इस पर हँस कर बोला - हम बिना पिलाए न मानेंगे। मेरा तो खून सूख गया। अब करूँ तो क्या करूँ। अगर किसी को पुकारती हूँ, तो यह इस वक्त मार ही डालगा। और बेइज्जत करने पर तो तुला ही हुआ है। चाहा कि झपट के निकल जाऊँ, पर उसने मुझे गोद में उठा लिया और बोला - हमसे शादी क्यों नहीं कर लेतीं? मेरा बदन थर-थर काँप रहा था कि या खुदा, आज कैसे इज्जत बचेगी, और क्या होगा! मगर आबरू को बचानेवाला अल्लाह है। उसी वक्त पादरी साहब आ पहुँचे। बस, अपना सा मुँह ले कर रह गया। चुपके से खिसक गया। पादरी साहब उसको तो क्या कहते। जब बराबर का लड़का या भतीजा कमाता-धमाता हो, तो बड़ा-बूढ़ा उसका लिहाज करता ही है। जब वह भाग गया, तो मेरे पास आ कर बोले - मिस पालेन, अब तुम यहाँ नहीं रह सकतीं।

मैं - पादरी साहब, इसमें मेरा जरा कुसूर नहीं।

पादरी - मैंने खुद देखा कि तुम और वह हाथापाई करते थे।

मैं - वह मुझे जबर्दस्ती शराब पिलाना चाहते थे।

पादरी - अजी, मैं खूब जानता हूँ। मैं तुमको बहुत नेक समझता था।

मैं - पूरी बात तो सुन लीजिए।

पादरी - अब तुम मेरी आँखों से गिर गईं। बस अब तुम्हारा निबाह यहाँ नहीं हो सकता। कल तक तुम अपना बंदोबस्त कर लो। मैं नहीं जानता था कि तुम्हारे यह ढंग हैं।

उसी दिन रात को मैं वहाँ से भागी।

उधर बड़ी बेगम साहब इंतजाम करने में लगी हुई थीं। बात-बात पर कहती जाती थीं कि अल्लाह! आत तो बहुत थकी। अब मेरा सिन थोड़ा हैं कि इतने चक्कर लगाऊँ। उस्तानी जी हाँ-में-हाँ मिलाती जाती थीं।

बड़ी बेगम - उस्तानी जी, अल्लाह गवाह है, आज बहुत शल हो गई।

उस्तारी - अरे तो हुजूर दौड़ती भी कितनी हैं! इधर से उधर, उधर से इधर।

महरी - दूसरा हो तो बैठ जाय।

उस्तानी - इस सिन में इतनी दौड़-धूप मुश्किल है।

महरी - ऐसा न हो, दुश्मनों की तबीयत खराब हो जाय। आखिर हम लोग किस लिए हैं?

बड़ी बेगम - अभी दो-तीन दिन तो न बोलो, फिर देखा जायगा। इसके बाद करना ही क्या है।

उस्तानी - यह क्यों? खुदा सलामत रखे; पोते-पोतियाँ न होंगे?

बड़ी बेगम - बहन, जिंदगानी का कौन ठिकाना है।

अब बरात का हाल सुनिए। कोई पहर रात गए बड़ी धूम-धाम से बरात रवाना हुई। सबके आगे निशान का हाथी झूमता हुआ जाता था। हाथी के सामने कदम-कदम पर अनार छूटते जाते थे। महताब की रोशनी से चाँद का रंग फक था। चर्खी की आनबान से आसमान का कलेजा धक था। तमाशाइयों की भीड़ से दोनों तरफ के कमरे फटे पड़ते थे। जिस वक्त गोरों का बाजा चौक में पहुँचा और उन्होंने बैंड बजाया तो लोग समझे कि आसमान के फरिश्ते बाजा बजाते-बजाते उतर आए हैं।

इतने में मियाँ खोजी इधर-उधर फुदकते हुए आए।

खोजी - ओ शहनाईवालो! मुँह न फैलाओ बहुत।

लोग - आइए, आइए! बस आप ही की कसर थी।

खोजी - अरे, हम क्या कहते हैं? मुँह न फैलाओ बहुत।

लोग - कोई आपकी सुनता ही नहीं।

खोजी - ये तो नौसिखिए हैं। मेरी बातें क्या समझेंगे।

लोग - इनसे कुछ फर्माइश कीजिए;

खोजी - अच्छा, वल्लाह! वह समाँ बाँधू की दंग हो जाइए। यह चीज छेड़ना भाई -

करेजवा में दरद उठी;
कासे कहूँ ननदी मोरे राम।
सोती थी मैं अपने मँदिल में;
अचानक चौंक पड़ी मोरे राम।
(करेजवा में दरद उठी....।)

लोग - सुभान-अल्लाह! आप इस फन के उस्ताद हैं। मगर शहनाईवाले अब तक आपका हुक्म नहीं मानते।

खोजी - नहीं भई, हुक्म तो मानें दौड़ते हुए और न मानें तो मैं निकाल दूँ। मगर इसको क्या किया जाय कि अनाड़ी हैं। बस, जरा मुझे आने में देर हुई और सारा काम बिगड़ गया।

इतने में एक दूसरे आदमी ने खोजी के नजदीक जा कर जरा कंधे का इशारा किया तो खोजी लड़खड़ाए और उनके चेले अफीमी भाइयों ने बिगड़ना शुरू किया।

एक - अरे मियाँ! क्या आँखों के अंधे हो?

दूसरा - ईंट की ऐनक लगाओ मियाँ।

तीसरा - और ख्वाजा साहब भी धक्का देते तो कैसी होती?

चौथा - मुँह के बल गिरे होते और क्या।

पाँचवाँ - अजी, यों कहो कि नाक सिलपट हो जाती।

खोजी - अरे भाई, अब इससे क्या वास्ता है। हम किसी से लड़ते-झगड़ते थोड़े ही हैं। मगर हाँ, अगर कोई गीदी हमसे बोले तो इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि याद करे।

जब बरात दुलहिन के घर पहुँची तो दूल्हे को दरवाजे के सामने लाए और दुलहिन का नहाया हुआ पानी घोड़े के सुमों के नीचे डाला। इसके बाद घी और शक्कर मिला कर घोड़े के पाँव में लगाया। दूल्हा महल में आया। दूल्हा की बहनें उस पर दुपट्टे का आँचल डाले हुए थीं। दुलहिन की तरफ से औरतें बीड़ा हर कदम पर डालती जाती थीं। इस तरह दूल्हा मड़वे के नीचे पहुँचा। उसी वक्त एक औरत उठी और रूमाल से आँखें पोंछती हुई बाहर चली गई। यह सुरैया बेगम थीं।

आजाद मँड़वे के नीचे उस चौकी पर खड़े किए गए जिस पर दुलहिन नहाई थी। मीरासिनों ने दुलहिन के उबटन का, जो माँझे के दिन से रखा हुआ था, एक भेड़ और एक शेर बनाया और दूल्हा से कहा - कहिए, दूल्हा भेड़, दुलहिन शेर।

आजाद - अच्छा साहब, हम शेर, वह भेड़, बस?

डोमिनी - ऐ वाह! यह तो अच्छे दूल्हा आए। आप भेड़, वह शेर।

आजाद - अच्छा साहब यों सही। आप भेड़, वह शेर।

डोमिनी - ऐ हुजूर, कहिए, यह शेर, मैं भेड़।

आजाद - अच्छा साहब, मैं भेड़, वह शेर।

इस पर खूब कहकहा पड़ा। इसी तरह और भी कई रस्में अदा हुई, और तब दूल्हा महफिल में गया। यहाँ नाच-गाना हो रहा था। एक नाजनीन बीच में बैठी थीं, मजाक हो रहा था। एक नवाब साहब ने यह फिकरा कसा - बी साहब, आपने गजब का गला पाया है। उसकी तारीफ ही करना फजूल है।

नाजनीन - कोई समझदार तारीफ करे तो खैर, अताई-अनाड़ी ने तारीफ की तो क्या?

नवाब - ऐ साहब, हम तो खुद तारीफ करते हैं।

नाजनीन - तो आप अपना शुमार भी समझदारों में करते हैं? बतलाइए, यह बिहाग का वक्त है या घनाक्षरी का।

नवाब - यह किसी ढाड़ी-बचे से पूछो जाके।

नाजनीन - ऐ लो! जो इस फन के नुकते समझे, वह ढाड़ी-बचा कहलाए। वाह री अक्ल, वह अमीर नहीं, गँवार है, जो दो बातें न जानता हो - गाना और पकाना। आपके से दो-एक घामड़ रईस शहर में और हों तो सारा शहर बस जाय।

नाजनीन ने यह गजल गाई -

लगा न रहने दे झगड़े को यार तू बाकी;
रुके न हाथ अभी है रँगे-गुलू बाकी।

जो एक रात भी सोया वह गुल गले मिल कर;
तो भीनी-भीनी महीनों रही है बू बाकी।

हमारे फूल उठा के वह बोला गुँच-देहन;
अभी तलक है मुहब्बत की इसमें बू बाकी।

फिना है सबके लिए मुझप' कुछ नहीं मौकूफ;
यह रंज है कि अकेला रहेगा तू बाकी।
जो इस जमाने में रह जाय आबरू बाकी।

नवाब - हाँ, यह सबसे ज्यादा मुकद्दम चीज है।

नाजनीन - मगर हयादारों के लिए। बगड़ेबाजों को क्या?

इस पर इस जोर से कहकहा पड़ा कि नवाब साहब झेंप गए।

नाजनीन - अब कुछ और फरमाइए हुजूर! चेहरे का रंग क्यों फक हो गया?

मिरजा - आपसे नवाब साहब बहुत डरते हैं।

नवाब - जी हाँ, हरामजादे से सभी डरा करते हें।

नाजनीन - ऐ है, जभी आप अपने अब्बाजान से इतना डरते हैं।

इस पर फिर कहकहा पड़ा और नवाब साहब की जबान बंद हो गई।

उधर दुलहिन को सात सुहागिनों ने मिल कर इस तरह सँवारा कि हुस्न की आब और भी भड़क उठी। निकाह की रस्म शुरू हुई। काजी साहब अंदर आए और दो गवाहों को साथ लाए। इसके बाद दुलहिन से पूछा गया कि आजाद पाशा के साथ निकाह मंजूर है? दुलहिन ने शर्म से सिर झुका लिया।

बड़ी बेगम - ऐ बेटा, कह दो।

रूहअफजा - हुस्नआरा, बोलो बहन। देर क्यों करती हो?

नाजुक - बस, तुम हाँ कह दो।

जानी - (आहिस्ता से) बजरे पर सैर कर चुकीं, हवा खा चुकीं और अब इस वक्त नखरे बघारती हैं।

आखिर बड़ी कोशिश के बाद हुस्नआरा ने धीरे से 'हूँ' कहा।

बड़ी बेगम - लीजिए, दुलहिन ने हुँकारी भरी।

काजी - हमने तो आवाज नहीं सुनी।

बड़ी बेगम - हमने सुन लिया, बहुत से गवाह हैं।

काजी साहब ने बाहर आ कर दूल्हा से भी यही सवाल किया।

आजाद - जी हाँ कुबूल किया!

काजी साहब चले गए और महफिल में तायफों ने मिल कर मुबारकबाद गाई। इसके बाद एक परी ने यह गजल गाई -

तड़प रहे हैं शबे-इंतजार सोने दे;
न छेड़ हमको दिले-बेकरार सोने दे।

कफस में आँख लगी है अभी असीरों की,
गरज न बाग में अबरे-बहार सोने दे।

अभी तो सोए हैं यादे-चमन में अहले-कफस;
जगा न उनको नसीमे बहार सोने दे।
तड़प रहे हैं दिले-बेकरार सोने दे।

शरबत-पिलाई के बाद दूल्हा और दुलहिन एक ही पलंग पर बिठाए गए। गेतीआरा ने कहा - बहन, जूती तो छुलाओ।

जानी - वाह! यह तो सिमटी-सिमटाई बैठी हैं।

बहार - आखिर हया भी तो कोई चीज है!

नाजुक - अरे, जूती कंधे पर छुआ लो बहन, वाह!

उस्तानी - अगले वक्तों में तो सिर पर पड़ती थीं।

नाजुक - इस जूती का मजा कोई मर्दों के दिल से पूछे।

जब दुलहिन ने जरा भी जुंबिश न की तो बहार बेगम ने दुलहिन के दाहने पैर की जूती दूल्हा के कंधे पर छुला ली।

नाजुक - कहिए, आपकी डोली के साथ चलूँगा।

रूहअफजा - और जूतियाँ झाड़के धरूँगा।

जानी - और सुराही हाथ में ले चलूँगा।

आजाद - ऐ! क्यों नहीं, जरूर कहूँगा।

जानी - रंडियों से नखरे बहुत सीखे हैं।

इस फिकरे पर ऐसा कहकहा पड़ा कि मियाँ आजाद शर्मा गए। जानी बेगम इक्कीस पान का बीड़ा लाईं और उसे कई बार आजाद के मुँह तक ला-ला कर हटाने के बाद खिला दिया।

सिपहआरा - सुहाग लाईं और दूल्हा के कान में कहा - कहो, सोने में सुहागा मोतियों में धागा और बने का जी बनी से लागा!

इसके बाद आरसी की रस्म अदा हुई।

जानी - बन्नू, जल्दी आँख न खोलना।

नाजुक - जब तक अपने मुँह से गुलाम न बनें।

हैदरी - कहिए, बीबी, मैं आपका गुलाम हूँ।

आजाद - बीबी मैं आपका बिन दामों गुलाम हूँ।

बड़ी बेगम - बेटा, अब तो कहवा लिया, अब आँखें खोल दो।

जानी - एक ही बार तो कहा।

हैदरी - ऐ हुजूर, खुशामद तो कीजिए।

आजाद - यह खुशामद से न मानेंगी।

हैदरी - हो कहा है, उसका खयाल रहे। बीवी के गुलाम बने रहिएगा।

आखिर बड़ी मुश्किलों से दुलहिन ने आँखें खोलीं, मगर आँखों में आँसू भरे हुए थे। बे-अख्तियार रोने लगीं। लोग समझाते-समझाते आरी हो गए, मगर आँसू न थमे। तब आजाद ने सिर झुका कर कान में कहा - यह क्या करती हो, दिल को मजबूत रखो।

रूहअफजा - बहन, खुदा के लिए चुप हो जाओ। इसका कौन-सा मौका है?

बहार - अम्माँजान, आप ही समझाएँ। नाहक अपने को हलाकान करती हैं हुस्नआरा।

उस्तानी - तर कपड़े से मुँह पोंछो।

जब हुस्नआरा का जी बहाल हुआ तो आजाद ने सुहाग पुड़े से मसाला निकाल कर दुलहिन की माँग भरी। तब दुलहिन को गोद में उठा कर सुखपाल पर बिठा दिया। वहाँ जितनी औरतें थीं, सबकी आँखों में आँसू जारी हो गए और बड़ी बेगम तो पछाड़ें खाने लगीं। जब बरात रुखसत हो गई तो बातें होने लगीं -

रुहअफजा - अल्लाह करे, आजाद ने जितनी तकलीफें उठाई हैं, उतना ही आराम भी पाएँ।

अब्बासी - अल्लाह ऐसा ही करेगा।

जानी - मगर आजाद का सा दूल्हा भी किसी ने कम देखा होगा।

नाजुक - लाखों कुओं का पानी पी चुके हैं।

बहार - बड़े खुशमजाक आदमी मालूम होते हैं।

जानी - इस वक्त हुस्नआरा के दिल का क्या हाल होगा?

नाजुक - चौथी के दिन हम ताक-ताक निशाने लगाएँगे।

रूहअफजा - आजाद से कोई न जीत पाएगा।

जानी - कौन! देख लेना बहन, अगर हारी न बोलें जभी कहना। वह अगर तेज हैं, तो हम भी कम नहीं।

आजाद-कथा : भाग 2 - अंत

प्रिय पाठक, शास्त्रानुसार नायक और नायिका के संयोग के साथ ही कथा का अंत हो जाता है। इसलिए हम भी अब लेखनी को विश्राम देते हैं। पर कदाचित कुछ पाठकों को यह जानने की इच्छा होगी कि ख्वाजा साहब का क्या हाल हुआ और मिस मीडा और मिस क्लारिसा पर क्या बीती। इन तीनों पात्रों के सिवा हमारे विचार में तो और कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके विषय में कुछ कहना बाकी रह गया हो। अच्छा सुनिए। मियाँ खोजी मरते दम तक आजाद के वफादार दोस्त बने रहे। अफीम की डिबिया और करौली की धुन ने कभी उनका साथ न छोड़ा। मिस मीडा औ मिस क्लारिसा ने उर्दू और हिंदी पढ़ी और दोनो थियासोफिस्ट हो गईं। दोनों ही ने स्त्रियों की सेवा करना ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। क्लारिसा तो कलकत्ता की तरफ चली गईं, मीडा बंबई से लौट कर आजाद से मिलने आईं तो आजाद ने हँस कर कहा - अब तो थियासोफिस्ट हैं आप?

मीडा - जी हाँ, खुदा का शुक्र है कि मुझे उसने हिदायत की।

आजाद - तो यह कहिए कि अब आप पर खुदा का नूर नाजिल हुआ। इस मजहब में कौन-कौन आलिम शरीक हैं?

मीडा - अफसोस है आजाद, कि तुम थियासोफी से बिलकुल वाकिफ नहीं हो। इसमें बड़े-बड़े नामी आलिम और फिलासफर शरीक हैं, जिनके नाम के इस वक्त दुनिया में झंडे गड़े हुए हैं। यूरोप के अकसर आलिमों का झुकाव इसी तरफ है।

आजाद - हमने सुना है कि थियासोफी वाले रूह से बातें करते हैं। मुझे तो यह शोबदेबाजी मालूम होती है।

मीडा - तुम इसे शोबदेबाजी समझते हो?

आजाद - शोबदा नहीं तो और क्या है, मदारियों का खेल?

मीडा - अगर इसका नाम शोबदा है तो न्यूटन और हरशेल भी बड़े शोबदेबाज थे?

आजाद - वाह, कहाँ न्यूटन और कहाँ थियासोफी। हमने सुना है कि थियासोफिस्ट लोग गैब का हाल बता देते हैं। बंबई में बैठे हुए अमेरिकावालों से बिना किसी वसीले के बातें करते हैं। यहाँ तक सुना है कि एक साहब जो थियासोफिस्टों में बहुत ऊँचा दरजा रखते हैं वह डाक से खत न भेज कर जादू से भेजते हैं। वह खत लिख कर मेज पर रख देते हैं और जिन लोग उठा कर पहुँचा देते हैं।

मीडा - तो इसमें ताज्जुब की कौन बात है? जो लोग लिखना-पढ़ना नहीं जानते वह दो आदमियों को हरफों से बातें करते देख कर जरूर दिल में सोचेंगे कि जादूगर हैं। जिस तरह आपको ताज्जुब होता है कि मेज पर रखा हुआ खत पते पर कैसे पहुँच गया उसी तरह उन जंगली आदमियों को हैरत होती है कि दो आदमी चुप-चाप खड़े हैं, न बोलते हैं, न चालते हैं, और लकीरों से बातें कर लेते हैं। अफ्रीका के हबशियों से कहा जाय कि एक मिनट में हम लाखों मील पर बैठे हुए आदमियों के पास खबरें भेज सकते हैं तो वे कभी न मानेंगे। उनकी समझ में न आएगा कि तार के खटखटाने से कैसे इतनी दूर खबरें पहुँच जाती हैं। इसी तरह तुम लोग थियासोफी की करामात को शोबदा समझते हो।

आजाद - तुम मेस्मेरिज्म को मानती हो?

मीडा - मैं समझती हूँ, जिसे जरा भी समझ होगी वह इससे इनकार नहीं कर सकता।

आजाद - खुदा तुमको सीधे रास्ते पर लाए, बस और क्या कहूँ।

मीडा - मुझे तो सीधे रास्ते पर लाया। अब मेरी दुआ है कि खुदा तुमको भी सीधे ढर्रे पर लगाए।

आजाद - आखिर इस मजहब में नई कौन सी बात है।

मीडा - समझाते-समझाते थक गई मगर तुमने मजहब कहना न छोड़ा।

आजाद - खता हुई, मुआफ करना, लेकिन मुझे तो यकीन नहीं आता कि बिना किसी वसीले के एक दूसरे के दिल का हाल क्योंकर मालूम हो सकता है। मैंने सुना कि मैडम व्लेवेट्स्की खतों को बगैर खोले पढ़ लेती हैं।

मीडा - हाँ-हाँ, पढ़ लेती हैं, एक नहीं हजारों बार मैंने अपनी आँखों देखा है और खुदा ने चाहा तो कुछ दिनों में मैं भी वही करके दिखा दूँगी।

आजाद - खुदा करे, वह दिन जल्द आए। मैं बराबर दुआ करूँगा।

यह बातें हो रही थीं कि बैरा ने अंदर आ कर एक कार्ड दिया। आजाद ने कार्ड देख कर बैरा से कहा - नवाब साहब को दीवानखाने में बैठाओ, हम अभी आते हैं।

मीडा ने पूछा - कौन नवाब साहब हैं?

आजाद - मिरजा हुमायूँ फर के छोटे भाई हैं, जिनके साथ सिपहआरा की शादी हुई है।

मीडा - तो यों कहिए कि आपके साढ़ हैं। तो फिर जाइए। मैं भी उनसे मिलूँगी।

आजाद - मैं उन्हीं यहीं लाऊँगा।

यह कहते हुए आजाद दीवानखाने की तरफ चले गए।

  • आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 91-100
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