हिंदी आलेख संग्रह (3) : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

Hindi Articles (3) : Praful Singh "Bechain Kalam"

चापलूसी का बदलता स्वरूप : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

एक जमाना था जब चापलूसी बस जीभ तक ही सिमट के रहा करती थी। समस्त शरीर में सिर्फ मुँह ही चापलूसी का उद्गम और अधिकेंद्र हुआ करता था। कालांतर में फिर समय के साथ साथ बाह्य ताप और दाब के परिणामस्वरूप ये जीभ से हाथ और हाथ से पैर तक आ गया। किसी कूट भाषा में आजकल लोग उसे 'उठाना' बोल रहे हैं। अब चूंकि हर चीज का डिजिटलीकरण हो रहा है तो यह बड़ा ही यक्ष प्रश्न है कि फिर चापलूसी का डिजिटलीकरण क्या है ? बैरोमीटर की भांति क्या कोई मीटर बना है जो चापलूसी को माप सके? कोई लिखित साक्ष्य है जो चापलूसी का साइलेंट फीचर्स बता सके?

जब मुग़ल राजाओं का श्रेय और आश्रय पाने के लिए बड़े बड़े गद्य और पद्य का सृजन किया जाता था। चापलूसी के ऐसे किस्से गढ़े जाते थे कि मानो चापलूसी से बड़ा कोई कार्य नहीं है धरा पे। मध्यकाल से कई चरण से गुजरते और फिल्टर होते हुए आज आधुनिक काल में इसका रूप और विचित्र हो गया है।

पहले चापलूसी में लोग वचन और जबान दिया करते थे। लेकिन चूंकि अब फेसबुक का जमाना है तो फेंकने के लिए इससे भी बड़ा उपमा चाहिए इसीलिए लोग अब रक्त, मांसपेशी, ह्रदय और किडनी से नीचे की बात ही नहीं करते। अब चूँकि कोई बॉन्ड पेपर पर तो लिखना है नहीं इसीलिए लोग चापलूसी को फेसबुकी अक्षरों में अंकित करने में थोड़ा सा भी संशय नहीं करते।यदि लोगों का वश चले तो चापलूस बहादुर बनने के चक्कर में लोग ललाट पर गोदना तक गोदवा ले कि हाँ भाई चापलूसी कला नहीं, विज्ञान है। ये द्रव, ठोस व गैस के बाद पदार्थ की चौथी अवस्था है जिसका SI मात्रक फिक्स नहीं है।

हालांकि सोशल मीडिया ने लोगों को आदर्श चापलूस बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। "चापलूसी में आदर्शवाद" यह एक नया रिसर्च है और यह अभी सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों में विद्यमान हैं। ये लोग इतनी चतुरता से चापलूसी करते हैं कि चित्रगुप्त भी शरमा जाए इनकी चापलूसी लिखने में। मोटी चापलूसी तो सभी करते हैं अमूनन जीवन में। लेकिन महीन चापलूसी सबके वश की बात नहीं। इसके लिए बड़ी ही श्रद्धा और लगन की जरूरत होती है। एक हालिया रिपोर्ट में यह बात प्रकाशित हुई थी कि बढ़ते चापलुसिवाद मानव व समाज को गर्त की ओर ले जा रहा है। इसने न सिर्फ सीधे लोगों के विकास में रोड़ा का काम किया है अपितु आने वाली पीढ़ी के लिए एक नया प्रश्न खड़ा किया है कि 'क्या चापलूसी के बिना जीवन सम्भव है या नहीं ?' क्या चापलूसी किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है या सिर्फ आभासी परिकल्पना ?

ऐसा नहीं है कि चापलूसी के बिना मानव समाज जी नहीं सकते लेकिन आज के प्रदूषित माहौल में थोड़ा सांस लेना मुश्किल है। एक तरफ जहां लोग चापलूसी के किसी भी स्तर पर गिरने को तैयार हैं वहां पर नैतिक मूल्यों का खड़ा रहना थोड़ा सा कठिन सा है। एक ओर जहां लोग उठाने में थोड़ा सा भी बाज नहीं आते वहीं सरलता से दो गज जमीन तलाशने में थोड़ी कठिनाई तो जरूर है। चापलूसी ने एक नया प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है जहाँ आगे आने की होड़ में लोग किसी के गर्दन पर पैर रखकर दौड़ने के लिए तैयार हैं।

विदेशों की दोहरी नागरिकता की भांति अपने देश में दोहरी चापलूसी का चलन प्रचलित है। दोहरी चापलूसी का पर्याय यहाँ उन लोगों के लिए किया गया है जो दोहरी मानसिकता पर बल देते हैं। सरल शब्दों में इसे धूर्तता की संज्ञा दी सकती है। हालांकि धूर्तता शब्द थोड़ा चुभता है लेकिन धूर्तता का पर्यायवाची शब्द अभी याद नहीं आ रहा है। ये सोचने वाली बात है कि बदलते निज हित के चक्कर में इंसान कितना बड़ा व्यापारी हो गया है कि वो हर चीज बेचने पर तैयार है। अभी वो अपनी बात बेच रहा है कल जमीर भी बेच देगा। अभी वो सिद्धान्त बेच रहा है कल मूल्य भी बेच देगा। इसीलिए समय रहते चेत जाइये और इन भावनाओं के व्यापारियों से बच के रहिये। इनका मकसद सिर्फ यूरोपीय व्यापारियों की तरह बेचना ही नहीं अपितु एक नए उपनिवेशवाद को खड़ा करना है।

प्यार और स्नेह : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

सारा संसार मोह और भ्रम में डूबा हुआ है। जीवन में प्यार और स्नेह की इच्छा लगातार बढ़ती जाती है। अधीरता शांति के मार्ग में एक बाधा बन रही है। चिंता मनुष्य को तनाव दे रही है। मोह और माया जीवन की क्षणिक खुशी है, जबकि प्रेम एक शाश्वत उद्यम है, एक अंतहीन अमृत है। प्यार और स्नेह स्वार्थ की भावनाओं को खुद को देते हैं। प्रेम में परोपकारी गुण होते हैं। मोह और भ्रम से ग्रस्त मानव का पागलपन हमेशा दूसरों के लिए दर्दनाक होता है।

प्रेम प्रेरणा की आवाज है। आत्मीयता का एक अनूठा एहसास है। प्रेम हमेशा एक व्यक्ति को ऊर्जावान रखता है, जबकि मोह और माया कुछ समय बाद मानव जीवन को नीरस बना देते हैं। वे कर्तव्य के जीवन को विचलित करते हैं। अपने आरोप में, एक इंसान अपने गुणों को भूल जाता है और जहर और घमंड का शिकार हो जाता है। प्रेम में समर्पण और त्याग की भावना है, जबकि प्रेम और माया में केवल प्राप्त करने की इच्छा है। अपने लाभ के लिए सब कुछ गौण होने लगता है। प्रेम का मार्ग बहुत कठिन है। केवल स्वयं को चोट पहुँचाने की क्षमता ही उस मार्ग को पार कर सकती है और उसे प्रेम की नियति में मिला सकती है।

प्रेम केवल पवित्रता और सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। जब मन और आत्मा प्रेमी के साथ प्यार में पड़ने लगते हैं, तो प्यार वास्तव में अपनी परिणति तक पहुंच जाता है। जो प्रेम शरीर पर टिकी हुई है वह केवल वासना के प्रति आसक्ति है। क्रश टूट सकता है, लेकिन प्यार कभी भी भंग नहीं होता है। प्रेम एक निर्बाध, अक्षय और अलौकिक अभिव्यक्ति है। सिर्फ प्यार ही इंसान को इंसान बना सकता है। प्रेम की मिठास से ही दुनिया में दोस्ती की भावना बढ़ सकती है। मोह और माया दूरियां बढ़ाते हैं, लेकिन प्यार दूरी लाता है और हमें हमारे प्रियजनों के करीब लाता है। इसलिए प्यार करो, मोह और भ्रम से दूर रहो।

मानवता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

मानवता मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म होता हैं। मानवता हर मनुष्य के लिए ज़रूरी है। अगर कोई मनुष्य दूसरों की सहायता करके मानवता नहीं दिखायेगा तो उस मनुष्य की सहायता भगवान भी नहीं करता है।

जिस मनुष्य के पास मानवता नहीं होती है, उसका जीवन निरर्थक होता है। मानवता शब्द का सरल अर्थ होता है– मानव में मानव के गुण का होना,एकता की भावना का होना। अगर कोई मनुष्य जरुरत मंद लोगों की सहायता करता है, भूखे लोगों को खाना खिलाता है, प्यासे को पानी पिलाता है,तो यह माना जाता है कि वो मनुष्य मानवता का धर्म निभाता है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो समाज में सभी लोगों के साथ मिल जुलकर रहता है। मनुष्य कोई भी कार्य कभी अकेले नहीं कर सकता हैं। अगर इस धरती पर मनुष्य मानवता को भूल जायेगा तो उसे अपना जीवन जीना बहुत मुश्किल हो जायेगा।

जिस मनुष्य के अंदर दया और इंसानियत नहीं होती हैं, उसे कभी इंसान नहीं कह सकते हैं। इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है,जो दूसरों के दुखों को समझ सकता है,और उसके दुखों को कम कर सकता है। जो मनुष्य अपने जीवन में दूसरों की सहायता करता है, उस मनुष्य के कार्यों को याद रखा जाता है। प्राचीन समय से ही हमें मानव में मानवता की भावना देखने को मिलती है। वास्तव में,मानवता मनुष्य का धर्म होता है।

मनुष्य यह एक ऐसा प्राणी हैं, जो समाज में सभी लोगों के साथ मिल जुलकर रहता हैं। मनुष्य कोई भी कार्य कभी अकेले नहीं कर सकता हैं। अगर इस धरती पर मनुष्य मानवता को भूल जायेगा तो उसे अपना जीवन जीना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इनसानियत व मानवता सबसे बड़ा धर्म है। कहते हैं दुनिया में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो इनसान को गिरा सके, इंसान अब इंसान द्वारा ही गिराया जाता है। दुनिया में ऐसा नहीं है कि सभी लोग बुरे हैं, इस जगत में अच्छे-बुरे लोगों का संतुलन है। आज संस्कारों का चीरहरण हो रहा है ,खूनी रिश्ते खून बहा रहे हैं। संस्कृति का विनाश हो रहा है। दया ,धर्म ,ईमान का नामोनिशान मिट चुका है। इंसान ख़ुदगर्ज़ बनता जा रहा है। दुनिया में लोगों की सोच बदलती जा रही है। निजी स्वार्थों के लिए कई जघन्य अपराध हो रहे हैं। बुराई का सर्वत्र बोलबाला हो रहा है। आज ईमानदारों को मुख्यधारा से हाशिए पर धकेला जा रहा है। गिरगिटों व बेईमानों को गले से लगाया जा रहा है। विडंबना देखिए कि आज इनसान रिश्तों को कलंकित कर रहा है। भाई-भाई के खून का प्यासा है ,जमीन जायदाद के लिए मां-बाप को मौत के घाट उतारा जा रहा है। आज माता -पिता का बंटवारा हो रहा है। आज बुजुर्ग दाने- दाने का मोहताज है। कलयुगी श्रवणों का बोलबाला है।आज संतानें मां-बाप को वृद्ध आश्रमों में भेज रही हैं। शायद यह बुज़ुर्गों का दुर्भाग्य है कि जिन बच्चों की ख़ातिर भूखे प्यासे रहे, पेट काटकर जिन्हे सफलता दिलवाई आज वही संतानें घातक सिद्व हो रही हैं। मां-बाप दस बच्चों को पाल सकते हैं, लेकिन दस बच्चे मां-बाप का बंटवारा कर रहे हैं। साल भर उन्हें महीनों में बांटा जाता है। वर्तमान परिवेश में ऐसे हालात देखने को मिल रहे है। बेशक ईश्वर ने संसार में करोड़ों जीव जन्तु बनाए, लेकिन इंसान सबसे अहम कृति बनाई। लेकिन ईश्वर की यह कृति पथभ्रष्ट हो रही है। आज सड़को पर आदमी तड़फ-तड़फ कर मर रहा है। इंसान पशु से भी बदतर होता जा रहा है। क्योंकि यदि पशु को एक जगह खूंटे से बांध दिया जाए, तो वह अपने आप को उसी अवस्था में ढाल लेता है। जबकि मानव परिस्थितियों के मुताबिक गिरगिट की तरह रंग बदलता है। आज पैसे का बोलबाला है। ईमानदारी कराह रही है। अच्छाई बिलख रही है, भाईचारा, सहयोग, मदद एक अंधेरे कमरे में सिमट गये हैं। आत्मा सिसक रही है। वर्तमान में अच्छे व संस्कारवान मनुष्य की कोई गिनती नहीं है। झूठों का आदर सत्कार किया जाता है। आज हंस भीड में खोते जा रहे हैं,कौओं को मंच मिल रहा है। हजारों कंस पैदा हो रहे हैं एक कृष्ण कुछ नहीं कर सकता। आज कतरे भी खुद को दरिया समझने लगे है लेकिन समुद्र का अपना आस्तित्व है।

मानव आज दानव बनता जा रहा है। संवेदनाएं दम तोड़ रही हैं। मानव आज लापरवाही से जंगलों में आग लगा रहा है उस आग में हजारों जीव-जन्तु जलकर राख हो रहे हैं। जंगली जानवर शहरों की ओर भाग रहे हैं, जबकि सदियां गवाह हैं कि शहरों व आबादी वाले इलाकों में कभी नहीं आते थे, मगर जब मानव ने जानवरों का भोजन खत्म कर दिया। जीव-जन्तओं को काट खाया तो जंगली जानवर भूख मिटाने के लिए आबादी का ही रूख करेंगें। नरभक्षी बनेगें। आज संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। आज मानव मशीन बन गया है निजी स्वार्थो के आगे अंधा हो चुका है। अपने ऐशोआराम में मस्त है। दुनिया से कोई लेना देना नहीं है। संस्कारों का जनाज़ा निकाला जा रहा है। मर्यादाएं भंग हो रही हैं। मानव सेवा परम धर्म है। आज लोग भूखे प्यासे मर रहे हैं। दो जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं। भूखमरी इतनी है कि शहरों में आदमी व कुते लोगों की फेंकी हुई जूठन तक एक साथ खाते हैं। आज मानव भगवान को न मानकर मानव निर्मित तथाकथित भगवानों को मान रहा है। आज मानव इतना गिर चुका है कि रिश्ते नाते भूल चुका है। रिश्तों में संक्रमण बढ़ता जा रहा है। मानव धरती के लिए खून कर रहा है । कई पीढियां गुजर गई मगर आज तक न तो धरती किसी के साथ गई न जाएगी। फिर यह नफरत व दंगा फसाद क्यों हो रहा है। मानव ,मानव से भेदभाव रि रहा है। उंच-नीच का तांडव हो रहा है। खून का रंग एक है फिर भी यह भेदभाव क्यों। यह बहुत गहरी खाई है इसे पाटना सबसे बडा धर्म है।

आज लोग विलासिता पर हजारों -लाखों रूपये पानी की तरह बहा देते हैं ,मगर किसी भूखे को एक रोटी नहीं खिला सकते। शराब पर पैसा उडा रहे हैं। अनैतिक कार्यो से पैसा कमा रहे हैं। पैसा पीर हो गया है। मुंशी प्रेमचन्द ने कहा था कि जहां 100 में से 80 लोग भूखे मरते हों वहां शराब पीना गरीबों के खून पीने के बराबर है। भूखे को यदि रोटी दे दी जाए तो भूखे की आत्मा की तृप्ति देखकर जो आनन्द प्राप्त होगा वह सच्चा सुख है। आज प्रकृति से छेडछाड हो रही है। प्रकृति के बिना मानव प्रगति नहीं कर सकता। प्रकृति एक ऐसी देवी है जो भेदभाव नहीं करती ,प्रत्येक मानव को बराबर धूप व हवा दे रही है। मानव कृतध्न बनता जा रहा है। आज मानव स्वार्थ के कारण अंधा होता जा रहा है। नारी पर अत्याचार हो रहा है। मानवीय मूल्यों का पतन होता जा रहा है। नफ़रत को छोड़ देना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य की सहायता करनी चाहिए। भगवान के पास हर चीज़ का लेखा -जोखा है। ईश्वर की चक्की जब चलती है तो वह पाप व पापी को पीस कर रख देती है मानव सेवा ही नारायण सेवा है। यह अटल सत्य है। भगवान व शमशान को हर रोज याद करना चाहिए। किसी को दुखी नहीं करना चाहिए। अल्लाह की लाठी जब पड़ती है तो उसकी आवाज़ नहीं होती। ईश्वर इस धरा के कण -कण में विद्यमान है।

विवाद विनाश को आमंत्रित करता है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

लड़ने के लिए विनाश को आमंत्रित करना है और केवल मूर्खों को लड़ना है। अगर भक्त लड़ते हैं, तो उन्हें भक्त नहीं कहा जा सकता है। वे आत्मघाती हैं। वे नहीं जानते कि भगवान की भक्ति क्या है और भक्त का स्वभाव कैसा होना चाहिए। भक्ति के उद्देश्य को समझना भक्त का पहला कार्य है। ज्ञान केवल भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है। एक भक्त जिसे ज्ञान है वह सभी जीवित प्राणियों में अपनी पूजा की शक्ति को देखता है। तो आप अपनी पूजा से कैसे लड़ सकते हैं? भक्त के लिए, सभी प्राणियों, जानवरों, पेड़ों, पौधों, पत्थरों, पहाड़ों की पूजा की जाती है। वह आदरणीय का अनादर कैसे कर सकता है?

मानव जीवन की पूर्णता और सार्थकता प्रत्येक जीवित प्राणी के प्रेम को विकसित करके ही सफल मानी जाती है। इसके अभाव में, यहाँ तक कि स्वयं भगवान भी उनकी पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि उनमें भक्ति की भावना नहीं है। तुच्छता की भावना झगड़ालू स्थितियों के निर्माण का आधार बन जाती है। ईश्वर ने हर जीव को खुशी देने के लक्ष्य के साथ सृजन किया है और यह केवल हृदय में प्रेम का विकास संभव है। प्रेम पवित्रता को अपना रहा है। श्रद्धा से पवित्रता आती है। ईश्वर की कृपा से विश्वास प्राप्त होता है। भगवान की कृपा पुण्य की प्रधानता से होती है। पुण्य की प्राप्ति से सत्कर्म और सद्भावना का विकास होता है। सत्कर्म और अच्छे ज्ञान की वृद्धि के साथ, मनुष्य को देवता की श्रेणी प्राप्त होती है। और जो देवता हैं, भगवान उनकी हार मानते हैं, क्योंकि भगवान की रचना भगवान द्वारा संरक्षित है।

जबकि संस्कृति और सभ्यता की सभ्यता समृद्ध है, वहाँ सुख और शांति की वर्षा होती है। शांति आ रही है लड़ता असुर संस्कृति की पहचान है। प्रत्येक मनुष्य इन दुर्गों से बचने के लिए बुद्धिमान होने के बारे में जानता है। विवादों से संस्कृति दूषित होती है। इससे बचना आवश्यक है।

सृष्टिकर्ता तो एक ही है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

व्यक्ति को विभ्रम है कि वह कर्ता है, वस्तुतः यह संसार हमारे करनें के सामर्थ्य में आता ही नहीं. यहाँ प्रकृति की पूरी व्यवस्था उपस्थित है, यहाँ सबकुछ अज्ञेय कारण के साथ अकारण ही घटित हो रहा. जब चित्त अज्ञान, अधर्म, हिंसा और अहंकार के घनीभूत पाश में होता है तब उसे कर्ता होने का ही भ्रम होता है और जहाँ सृजन, वैराग्य, धर्म व देयता घटित होता है वहाँ सर्वप्रथम यहीं भाव जाग्रत होता है,जो वाणी से निकल कुछ यूं कहता है 'ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।

हवा के रूप में प्राण वायु बह रही है जो हवा मात्र ही नही है, उसे कौन बहा रहा..संपूर्ण जगत में कोई भी दो वस्तु एक जैसी नही, इतनी विभिन्नता कहाँ से स्फुटित होती है...सहस्त्र प्रकार के पुष्प व उनके अनगिनत रंग, उनके बीच बहता सौंदर्य व सुगंध, कोटि कोटि जीव समूह और सभी पृथक-पृथक, अनंत वृक्ष, अनंत तारामंडल, अनंत आकाश, अनंत वर्ण व कुल के खग, तितलियाँ, जलचर, वनचर...कितना कुछ यहां है, यह सबकुछ बिना व्यक्ति के किये निर्मित होता है, नष्ट होता है, विलीन होता है, यहां सबकुछ इतनी सूक्ष्मता में घटित हो रहा कि व्यक्ति को उसका भान तक नहीं..व्यक्ति अपनी आती जाती स्वांस तक का साक्षी नहीं और न ही उसका स्वामी...इस ब्रह्मांड में सबकुछ एक निमेष में परिवर्तित हो जाता है बिना हमारी समझ मे आये, बिना हमारी दृष्टि में आये, तिसपर जो स्वयं को कर्ता समझने की भूल करता है, वह समष्टि के प्रति आंख ढांप लेता है...जो सबकुछ करते हुए भी यह जान लेता है कि मैं कुछ नही कर सकता और न ही कर रहा।

वह जो उत्पत्ति के प्राण का संचारक है, वह जो अनाहत का तीव्र झंकार है-वह कर्ता है। वह जो किरणमाला में अभेद हो विभिन्न अवयवों में भेद का परिचायक है-वह कर्ता है। वह जो सुमन में, सुरभि में, अणु-अणु में, मधु में, मदिर में, लहर में, समीर में, कलरव मे, कालिमा की लालिमा में व्याप्त है-वह कर्ता है। वह जो चतुर्दिक छाया में शीतलता का वाहक है- वह कर्ता है। वह जो प्रसन्न होता है जब तुम अपनेपन में सागर की लहर की भांति उतराते हो- वह कर्ता है। वह जो द्रवित होता है बिसरी यादों में-वह कर्ता है। इस लंबे जीवनपथ में जब प्रेम-शिखा की लौ तुम्हे दीप्त करती है, तब उस शिखा की लौ में जो उतरता है-वह कर्ता है। जब कभी कोई घुले हृदय में घुल जाता है, जब तुम आलिंगन कर लेते हो किसी का और उसका उद्दीपन तुममें उस आत्मीयता का बोध कराता है जिसको तुम कोई नाम नही दे सकते, तो वह अनाम ही कर्ता है। जब तुम नींद में होते हो किंतु तुम्हे सुलाकर जो जागता रहता है- वह कर्ता है। वह जो पृथ्वी के घूर्णन, गुरुत्वाकर्षण का बल, दिवाकर का उदय, निशाकर की श्यामलता, कंठ का स्वर, स्वाद का तत्व, जल की तरलता, पर्वत की नवता, आकाश का संबल, पाताल का तल, अनुभव का पटल, और नेति नेति है, वह जो सोच व कल्पना के पार है,वह ही कर्ता है।

कर्ता अनैच्छिक की इच्छा है। कर्ता तब भी था जब इस पृथ्वी पर जीवन नही था। कर्ता तब भी था जब यह ब्रह्मांड सत व असत के परे था, और कर्ता तब भी रहेगा जब हम नही होंगे।

सुख की प्रतीक्षा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

दुनिया में कितने सुख है; जिनकी हम कल्पना नहीं करते। वे सहसा किसी फूल की तरह हमारी गोद में आकर गिरते हैं। ऐसे सुख महत्वपूर्ण होते हैं। हमारे लिए नहीं; दूसरे सुखों के लिए, जो कमाये हुए हैं; और ये स्वतः ही गोद में आ गिरे हैं।

हम उनको नकारते हैं। पर जब वे सुख सूख जाते हैं तब उनकी महत्ता हमें चोट करती है। हम उस चोट से मिले घावों को भरने के लिए; फिर वैसे ही किसी सुख की प्रतीक्षा करते हैं। प्रतीक्षा हमें किसी वृक्ष के नीचे पटक देती है। वहाँ रोज़ एक सुख टपकता है; किन्तु किसी दूसरे की गोद में। हम उसे कहना चाहते हैं; इसे नकारना नहीं। यही सत्य के सबसे नज़दीक ठहरने वाला सुख है। किन्तु उससे पहले वो नकारा जा चुका होता है।
हमारी प्रतीक्षा; उस सुख की तलाश में जीवन पर्यन्त भटकती है। हम थक जाते हैं। लेकिन हारते नहीं।

यहीं कहीं इन सबके बीच; उस चोट के घाव को भरने के लिए हम किसी मरहम की तलाश में बहुत दूर निकल जाते हैं। जैसे यात्री शांति की तलाश में और खोजी सत्य की खोज में।

हम चाहकर भी ऐसी मनःस्थितियों से लौट नहीं पाते क्योंकि ये हमने नहीं, इन्होंने हमको बनाया है। हम उनमें जड़ हो चुके होते हैं। प्रतीक्षा हमें पुकारती है। हम उसे भी नकारते हैं। हम सबकुछ नकारते हैं।

एक दिन कोई अदृश्य शक्ति हमारा हाथ खींचकर, उस वृक्ष के नीचे खड़ा कर देती है जहाँ हजारों सुख जमीन पर बिछे पड़े हैं। हम उन्हें रौंदते चले जाते हैं। सिर्फ़ उस सुख की तलाश में जिसे सबसे पहले हमने नकारा था।

आकर्षण की शक्ति एवं क्षमता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

[ भावनाएं और विचार पहले आते हैं, शब्द बाद में आते है। जब हम यह कहते है कि ‘गुलाब के फूल की खुशबू कितनी अच्छी है।’ इसका मतलब है कि खुशबू हमें पहले प्राप्त होती है जो हमारे मन को खुशनुमा एहसास देती है, शब्द बाद में सृजित होते है। विचार शब्दों के अलावा कार्यरुप में भी परिवर्तित होते है। प्रेम का आकर्षण ऐसा है जो दुनिया के सारे दुख-दर्द से हमें मुक्ति दिला सकता है। ]

हम जीवन को जो देते हैं, वही हमें वापस प्राप्त होता है। ऐसा आकर्षण के सिद्धान्त के कारण होता है। देते समय का आकर्षण वापसी तक हमसे जुड़ा रहता है। दुनिया में एक समान लोग सदैव आकर्षित होते हैं। यह सार्वभौमिक आकर्षण का नियम है। दुनिया में सब कुछ आकर्षण की शक्ति के कारण ही बंधा है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति प्रकृति पर सभी को संतुलित रखती है। यह गुरुत्वाकर्षण का आकर्षण है। चुम्बक में भी आकर्षण की शक्ति होती है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति और चुम्बक की शक्ति जिस प्रकार दिखाई नहीं देती है, उसी प्रकार प्रेम के आकर्षण की शक्ति भी दिखाई नहीं देती है, लेकिन इस शक्ति का अनुभव पूरी प्रकृति करती है। हम जिस वस्तु से सकारात्मक शक्ति महसूस करते है, हम उससे प्रेम करते है और जिस वस्तु से नकारात्मक शक्ति आती है उससे हम प्रेम नहीं करते है। संसार में केवल दो ही बाते होती है। दुनिया में प्रेम के प्रति सकारात्मकता हैं या नहीं है। आकर्षण का सर्वशक्तिमान नियम असंख्य आकाशगंगाओं से लेकर सूक्ष्म अणुओं और परमाणुओं तक को बांधे हुए हैं। आकर्षण का नियम ही प्रेम का नियम है। यह ब्रह्माण्ड की हर जीव और अजीव में सक्रिय है। आकर्षण की शक्ति ही प्रेम की शक्ति है। आकर्षण की शक्ति से ही हम दूसरों की ओर खींचते जाते है। इस शक्ति के कारण कोई खेल में तो कोई संगीत के प्रति रुझान रखता है।

न्यूटन का नियम कहता है कि हर क्रिया की उसी के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इस प्रकार देने की हर क्रिया पाने की ही प्रतिक्रिया है। हम जो भी देते है, वह हमारी ओर अवश्य लौटता है। हम यदि प्रकृति के जीव-अजीव को सकारात्मकता देते हैं, तो हमें बदले में उनसे सकारात्मकता मिलती है। सकारात्मकता में अच्छी चीजों और तनाव रहित ऊर्जा और नकारात्मकता में बुरी चीजों की भरमार होगी। ऐसे में हम कह सकते है कि हमारे विचार और भावनाएं सकारात्मक या नकारात्मक होने के लिए जिम्मेदार है। ये भावनाएं ही हमारे जीवन का सृजन करती है। उदाहरण के तौर पर जब हम किसी पर क्रोध करते है तो वह क्रोध हमारे जीवन में नकारात्मक परिस्थितियों के रुप में लौटता है। जब हम मुश्किलों के बारे में सोचते है, तो तनाव होने लगता है। मुश्किलों और तनाव के बारे में पहले से ही सोचने से तनावपूर्ण परिस्थितियों को हम आकर्षित करने लगते हैं। विचार और भावनाएं चुम्बक की तरह होती है। ऐसे में यदि हम सकारात्मकता को गले से लगाए रखे तो सकारात्मक चीजे हमें अपनी ओर आकर्षित करती रहेंगी। धन-दौलत के बारे में भी यदि हम नकारात्मक विचार रखे तो धन-दौलत के प्रति नकारात्मक विचार रखने वालों को हम अपनी ओर आकर्षित करने लगते है। ऐसे में धन की कमी होने लगती है। धन-दौलत के प्रति सकारात्मक विचार धन-दौलत को हमारी ओर आकर्षित करेंगी। आकर्षण का नियम प्रतिक्रिया करता है। भावनाएं और विचार पहले आते हैं, शब्द बाद में आते है। जब हम यह कहते है कि ‘गुलाब के फूल की खुशबू कितनी अच्छी है।’ इसका मतलब है कि खुशबू हमें पहले प्राप्त होती है जो हमारे मन को खुशनुमा एहसास देती है, शब्द बाद में सृजित होते है। विचार शब्दों के अलावा कार्यरुप में भी परिवर्तित होते है। प्रेम का आकर्षण ऐसा है जो दुनिया के सारे दुख-दर्द से हमें मुक्ति दिला सकता है। नकारात्मक बाते नकारात्मक विचारों को आकर्षित करती है।

प्रेम एक ऐसा सत्य है, जिसके बारे में ज्ञान हो जाने पर पिंजरे के कैद से मुक्ति मिल जाती है। प्रेम की शक्ति के वश में घिरने पर सब कुछ संभव है। हमारे समक्ष युद्ध जैसी परिस्थितियां ही क्यों न हो प्रेम हमें सभी परिस्थितियों से मुक्त कर देता हैं। हमारे जीवन में कुछ भी संयोगवश नहीं है। हम जो देते हैं, उसी के आधार पर उतना ही हमें वापस मिलता है। जैसे कुएं के मुख पर खड़े होकर बोले तो उसकी अनुगूंज हमें वापस सुनाई देती है, जीवन भी एक अनुगूंज की तरह ही है। प्रेम सृष्टि की महानतम शक्ति का परिणाम है। जब हम प्रकृति के हर जीव व अजीव के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते है तो हम सृष्टि की सबसे शक्तिशाली शक्ति का इस्तेमाल कर रहे होते है। भावना एक रहस्य की तरह है, जो हमारे अन्तर्तम के गहरे सागर की तली तक अपने को आच्छादित किए रहती है।

हम सभी भावनात्मक जीव है। एहसास के लिए हमारे पास इन्द्रियां हैं। भावनाओं के अनुसार ही हममें विचार पनपते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि हम केवल विचारों और शब्दों से सृष्टि की ऊर्जा का प्रयोग नहीं कर सकते। मन में अनेकों विचार आते हैं, कुछ विचार निरर्थक होते है, ये निरर्थक इसीलिए हैं, क्योंकि इन विचारों को लेकर कोई प्रबल भावना नहीं बनी होती है। भावना में सकारात्मक विचार हो तो हमारा दूसरों के साथ सम्बन्ध निश्चित ही बेहतर होगा। हम जितना निराश होते है, हमारी भावनाएं उतनी ही नकारात्मक होती जाती हैं। इसमें बदलाव तभी होता है जब भावनाएं बदलती हैं। हम जितना बेहतर महसूस करते है उतना ही प्रेम हमसे बाहर फैलने लगता हैं। इस फैलते प्रेम के एहसास के बदले में प्रेम की प्राप्ति होने लगती है। अच्छा महसूस करने का मतलब ही है कि हमारे विचार प्रेमपूर्ण भावनाओं के कारण सकारात्मकता से बंधे हुए है। एहसास ही वह पैमाना है जो बताता है कि हम प्रकृति को क्या दे रहे है। दुख, क्रोध, निराशा, डर, भय, चिंता ये सभी नकारात्मक भावनाओं की विभिन्न श्रेणियां हैं। मन में अच्छी भावना के आने का मतलब ही है कि हम प्रेम की शक्ति से जुड़ गए है। ऐसे में उक्त भावनाओं का सृजन बंद हो जाता है। चूंकि प्रेम ही समस्त अच्छी भावनाओं का स्रोत है। इसलिए सृष्टि की अद्भुत शक्ति प्रेम के आकर्षण में बंधकर जीवन को शांतिपूर्ण, प्रेममय और रस-सरसमय भावनाओं में डूबाएं रखना ही जीवन की वास्तविक सकारात्मकता है।

झूठ चलने के साथ दौड़ता भी है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

झूठ ! झूठ एक ऐसी चीज़ है जिसके बारे में हमें बचपन से यही सिखाया जाता है की कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए. मुझे याद है मेरी बचपन की किसी हिंदी या नैतिक शिक्षा की किताब में एक अलग पाठ था, जो ये शिक्षा देता था क इंसान को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए. और तो और एक कविता भी थी, “गडरिये और भेड़” वाली, जिसमें वो गडरिया हमेशा झूठ बोलकर गांववालों को परेशान करता रहता है और एक दिन सच में भेड़िया आकर उसकी भेड़ ले जाता है और उसकी मदद को कोई नहीं आता क्यूकी सब सोचते हैं की वो फिर से झूठ बोल रहा है। ये कविता तो मुझे आज भी याद है और बहुत अच्छी भी लगती है. हम इसे छोटे बच्चों को सिखाते भी हैं, जिससे की वो लोग कभी झूठ न बोले।

पर मुद्दा यहाँ ये नहीं है की बचपन में हमने कितने पाठ और कवितायेँ पढ़ीं हैं झूठ न बोलने के बारे में. सोचना तो ये है की जो बात हम लोगों को बचपन से हमेशा सिखाई गयी उसका अनुसरण हम अपने जीवन में कितना करते हैं? अरे हाँ हम तो भूल ही गए थे जब थोड़े बड़े हुए, शायद क्लास 6th में, एक और बात सिखाई गयी की झूठ अगर किसी की भलाई के लिए बोला जाये तो वो सच से बढ़कर होता है. हाँ अब उस भलाई में किस किस तरह की भलाई शामिल है वो शायद नहीं बताया गया था।

लोग अक्सर ही अपने रोज़मर्रा के जीवन में झूठ का सहारा लेते हैं, कभी खुद की भलाई के लिए और कभी दूसरों की ! मेरा मतलब कभी खुद को बचाने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी दूसरों को, कभी खुद को सही साबित करने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी अपने दोस्तों को सही साबित करने के लिए, कुछ नहीं तो मज़ाक में तो झूठ चलता ही है, कुछ भी बोलो और फिर कह दो “अरे यार मैं तो मज़ाक कर रहा था"

झूठ भी सिर्फ झूठ नहीं होता, इसके भी कई रूप होते हैं. झूठ किसी ने अपने फायदे के लिए बोला और आपने समझ लिया तो वो इंसान स्वार्थी नज़र आता है. किसी ने झूठ अपने किसी दोस्त को मुश्किल से बहार निकालने के लिए बोला तो वो परोपकारी नज़र आता है. और झूठ अगर मज़ाक में बोला गया हो तो उसका तो कोई अर्थ ही नहीं, अरे वो तो मज़ाक था, तो वो इंसान भी बड़ा मजाकिया किस्म का नज़र आता है! हालांकि मुझे विश्वास नहीं की वो मज़ाक ही होता है या कुछ और?

इस तरह झूठ हमारे जीवन का एक अहम् हिस्सा बनता जाता है और बिना इसके जीवन ही बड़ा मुश्किल नज़र आता है. और बचपन का सिखाया गया पथ वहीँ बचपन की किताबों में रहता है जिसे अब दुसरे बच्चे पढ़ रहे हैं. पर वो भी सीख नहीं रहे होंगे क्यूंकि जब हमने ही नहीं सीखा तो हमारे आने वाली पीढ़ी के बच्चे कैसे सीखेंगे. और याद रखिये की पाठ पढने और सीखने में बहुत अंतर होता है. और सीखे गए पाठ को अपने जीवन में उतारना तो बिलकुल ही अलग काम है और शायद कई गुना कठिन भी..!!

क्रोध मानव जीवन की मजबूरी और समस्या दोनों : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

क्रोध मानव जीवन की समस्या है। मानव जीवन के सभी गुण जिनमें क्रोध एक महान कौशल है, पर चर्चा की जाती है। अक्सर कहा जाता है कि गुस्से की स्थिति में, कोई भी निर्णय लेने से बचें, क्योंकि यह निश्चित रूप से गलत होगा। हमारे ग्रंथ भी अधिक क्रोध से बचने की सलाह देते हैं। वास्तव में, क्रोध मानव मन को प्रभावित करता है। यदि क्रोध किसी भी व्यक्ति के स्वभाव में व्याप्त है, तो यह अलोकप्रिय हो जाता है। हमारी सोचने की शक्ति क्रोध से फैलने लगती है। इससे हमारा मन बेचैन रहता है। एक व्यक्ति बेचैन मन से कभी प्रगति नहीं कर सकता।

कई बार हमें लगता है कि एक व्यक्ति को विनम्र चुंबन सफलता के शिखर पर कम योग्यता होने के बावजूद। वहीं, अधिक क्षमता होने के बावजूद स्वभाव का व्यक्ति सफल नहीं होता है। क्रोधी व्यक्ति मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने लगता है। अंत में, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह खुद को और दूसरों को नुकसान पहुंचाने से पीछे नहीं हटता है। वह स्वतः ही इसके विनाश के लिए एक रास्ता बनाना शुरू कर देता है।

गौतम बुद्ध ने कहा: “मन में क्रोध का होना, गर्म कोयले को किसी अन्य व्यक्ति पर फेंकने के इरादे से रखने जैसा है। आप बस इसी से जलें।” यह स्पष्ट है कि क्रोध व्यक्ति को उतना नुकसान नहीं पहुंचाता है जितना कि सामने वाला व्यक्ति। कई बार वे खुद को नुकसान पहुंचा लेते हैं। इंद्रियों के नियंत्रण से क्रोध पैदा होता है। हमें खुद को नियंत्रित करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। जब क्रोध हावी होने लगे तो हमें खुद को अकेलापन देना चाहिए। अकेलापन हमारे गुस्से को नियंत्रित करने की शक्ति रखता है। क्रोध के उत्प्रेरक तत्वों से हमेशा दूर रहना उचित है। योग, ध्यान और भक्ति क्रोध के मूल लक्षणों को नष्ट करते हैं। जब गुस्सा आना शुरू हो जाता है, तो अपने आप को रोकने की कोशिश करें।

ईश्वर एक विश्वास : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

ईश्वर विश्वास पर ही मानव प्रगति का इतिहास टिका हुआ है। जब यह डगमगा जाता है तो व्यक्ति इधर- उधर हाथ पाँव फेंकता विक्षुब्ध मनः स्थिति को प्राप्त होता दिखाई देता है। ईश्वर चेतना की वह शक्ति है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर जो कुछ है, उस सब में संव्याप्त है। उसके अगणित क्रिया कलाप हैं जिनमें एक कार्य इस प्रकृति का- विश्व व्यवस्था का संचालन भी है। संचालक होते हुए भी वह दिखाई नहीं देता क्योंकि वह सर्वव्यापी सर्वनियंत्रक है। इसी गुत्थी के कारण कि वह दिखाई क्यों नहीं देता, एक प्रश्न साधारण मानव के मन में उठता है- ईश्वर कौन है, कहाँ है, कैसा है ??

मात्र स्रष्टि संचालन ही ईश्वर का काम नहीं है चूंकि हमारा संबंध उसके साथ इसी सीमा तक है, अपनी मान्यता यही है कि वह इसी क्रिया- प्रक्रिया में निरत रहता होगा, अतः उसे दिखाई भी देना चाहिए। मनुष्य की यह आकांक्षा एक बाल कौतुक ही कही जानी चाहिए क्योंकि अचिन्त्य, अगोचर, अगम्य परमात्मा- पर ब्रह्म- ब्राह्मी चेतना के रूप में अपने ऐश्वर्यशाली रूप में सारे ब्रह्माण्ड में, इको सिस्टम के कण- कण में संव्याप्त है।

ईश्वर कैसा है व कौन है, यह जानने के लिए हमें उसे सबसे पहले आत्मविश्वास- सुदृढ़ आत्म- बल के रूप में अपने भीतर ही खोजना होगा। ईश्वर सद्गुणों का- सत्प्रवृत्तियों का- श्रेष्ठताओं का समुच्चय है जो अपने अन्दर जिस परिमाण में जितना इन सद्गुणों को उतारता चला जाता है, वह उतना ही ईश्वरत्व से अभिपूरित होता चला जाता है। ईश्वर तत्व की- आस्तिकता की यह परिभाषा अपने आप में अनूठी है ईश्वर ''रसो वैसैः'' के रूप में भी विद्यमान है तथा वेदान्त के तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म के रूप में भी। व्यक्तित्व के स्तर को ''जीवो ब्रह्मैव नापरः'' की उक्ति के अनुसार परिष्कात कर परमहंस- स्थित प्रज्ञ की स्थिति प्राप्त कर आत्म साक्षात्कार कर लेना ही ईश्वर दर्शन है- आत्म साक्षात्कार है- जीवन्मुक्त स्थिति है।

एक जटिल तत्त्व दर्शन जिसमें नास्तिकता का प्रतिपादन करने वाले एक- एक तथ्य की काट की गयी है, को कैसे सरस बनाकर व्यक्ति को आस्तिकता मानने पर विवश कर दिया जाय, यह विज्ञ जन वाङ्मय के इस खण्ड को पढ़कर अनुभव कर सकते हैं। ईश्वर के संबंध में भ्रान्तियाँ भी कम नहीं हैं। बालबुद्धि के लोग कशाय कल्मषों को धोकर साधना के राज- मार्ग पर चलने को एक झंझट मानकर सस्ती पगडण्डी का मार्ग खोजते हैं। उन्हें वही शार्टकट पसन्द आता है। वे सोचते हैं कि दृष्टिकोण को घटिया बनाए रखकर भी थोड़ा बहुत पूजा उपचार करके ईश्वर को प्रसन्न भी किया जा सकता है व ईश्वर विश्वास का दिखावा भी, जब कि ऐसा नहीं है। उपासना, साधना, आराधना की त्रिविध राह पर चल कर ही ईश्वर दर्शन संभव है यह समझाते हैं व तत्त्व- दर्शन के साथ- साथ व्यावहारिक समाधान भी देते हैं।

ईश्वर कौन है, कैसा है- यह जान लेने पर, वह भी रोजमर्रा के उदाहरणों से विज्ञान सम्मत शैली द्वारा समझ लेने पर किसी को भी कोई संशय नहीं रह जाता कि आस्तिकता का तत्त्व दर्शन ही सही है। चार्वाकवादी नास्तिकता परक मान्यताएँ नहीं। यह इसलिए भी जरूरी है कि ईश्वर विश्वास यदि धरती पर नहीं होगा तो समाज में अनीति मूलक मान्यताओं, वर्जनाओं को लाँघकर किये गए दुष्कर्म का ही बाहुल्य चारों ओर होगा, कर्मफल से फिर कोई डरेगा नहीं और चारों ओर नरपशु, नरकीटकों का या '' जिसकी लाठी उसकी भैंस का'' शासन नजर आएगा। अपने कर्मों के प्रति व्यक्ति सजग रहे, इसीलिए ईश्वर विश्वास जरूरी है ।। कर्मों के फल को उसी को अर्पण कर उसी के निमित्त मनुष्य कार्य करता रहे, यही ईश्वर की इच्छा है जो गीताकार ने भी समझाई है।

ईश्वर शब्द बड़ा अभव्यंजनात्मक है। सारी स्रष्टि में जिसका ऐश्वर्य छाया पड़ा हो, चारों ओर जिसका सौंदर्य दिखाई देता हो- स्रष्टि के हर कण में उसकी झाँकी देखी जा सकती हो, वह कितना ऐश्वर्यशाली होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसीलिए उसे अचिन्त्य बताया गया है। इस सृष्टि में यदि हर वस्तु का कोई निमित्त कारण है- कर्त्ता है, तो वह ईश्वर है। वह बाजीगर की तरह अपनी सारी कठपुतलियों को नचाया करता है व ऊपर से बैठकर तमाशा देखता रहता है। यही पर ब्रह्म- ब्राह्मी चेतना जिसे हर श्वाँस में हर कार्य में, हर पल अनुभव किया जा सकता है- सही अर्थों में ईश्वर है। प्राणों के समुच्चय को जिस प्रकार महाप्राण कहते हैं, ऐसे ही आत्माओं के समुच्चय को- सर्वोच्च सर्वोत्कृष्टता को- हम सब के परमपिता को परमात्मा कहते हैं, ईश्वर के संबंध में एक गूढ़ विवेचन का सरल सुबोध प्रतिपादन हर पाठक- परिजन को संतुष्ट कर उसे सही अर्थों में आस्तिक बनाएगा, ऐसा हमारा विश्वास है।

पुरुष समन्दर तो स्त्री समर्पण : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

पुरुष का प्रेम समुंदर सा होता है..गहरा, अथाह..पर वेगपूर्ण लहर के समान उतावला। हर बार तट तक आता है, स्त्री को खींचने, स्त्री शांत है मंथन करती है, पहले ख़ुद को बचाती है इस प्रेम के वेग से.. झट से साथ मे नहीं बहती। पर जब देखती है लहर को उसी वेग से बार बार आते तो समर्पित हो जाती है समुंदर में गहराई तक, डूबने का भी ख़्याल नहीं करती, साथ में बहने लगती है।

समुंदर अब शांत है, उछाल कम है, स्त्री उसके पास है। पर स्त्री मचल उठती है इतना प्रेम देख प्रतिदान के लिए, वो उड़कर बादल बन जाती है, अपना प्रेम दिखाने को तत्पर हो वो बरसने लगती है, पहले हल्की हल्की, समुंदर को अच्छा लगता है वो भी बहने लगता है, कभी कभी वेग से उछलता है प्रेम पाकर, फिर शांत हो जाता है।

पर स्त्री बरसती रहती है लगातार झूमकर दो दिन, तीन दिन, बहुत दिन तक। मगर अब पुरुष से इतना प्रेम समेटना मुश्किल होने लगता है..अंदर अथाह प्रेम होने पर भी समुंदर को ऊपर से शांत रहना है क्यूँकि उसे सब देखना है, आते जाते जहाज, उगता डूबता सूरज, तट पर लोग। मगर स्त्री प्रेम के उन्माद में बरस रही है, अंदर तक घुलने को व्याकुल..

लेकिन जब अंदर उमड़ते घुमड़ते ख़्यालों के कारण सुनामी आने के डर से, समुंदर से संभलता नहीं, तो वो रुकने कहता, किसी और देश जाने कहता। पर प्रेम में समर्पित स्त्री को रोकना असंभव है, जब देखती है कि समुंदर अब नहीं चाहता तो वो दर्द के आवेग में बरसती है पास बुलाने को, स्त्री के आँसू ख़तरनाक होते हैं, बाढ़ आने लगती, पुल टूटने लगते, पानी घरों में जाने लगता, सब तहस नहस होने लगता। फिर धीरे धीरे बादल ख़त्म होने लगते हैं, आँसू सूख जाते हैं, सूखा, अकाल आ जाता है, स्त्री पत्थर हो जाती है।

पर स्त्री का स्वभाव समर्पण है, वो फिर किसी समुंदर किनारे खड़ी कर दी जाती है, एक नई लहर आवेग में आती है, स्त्री बचती है पर फिर बह जाती है समर्पित होने के लिए भीतर तक..!!

परम सुख : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है। कोई भी व्यक्ति उदासी, अभाव की स्थिति को पसंद नहीं करता है, लेकिन क्या आपको केवल इच्छा होने से खुशी मिलती है? नहीं, अगर कोई पुरुष खुशी चाहता है, तो उसे खुशी पाने के लिए अपने स्नेह से चिपके रहना होगा। उदाहरण के लिए, जब आप प्यासे होते हैं, तो पानी की तलाश करें। कुएँ, पोखर, तालाब, झरने, नदी के पास पहुँचकर अपनी प्यास बुझाओ। यदि कोई व्यक्ति रेगिस्तान में प्यासा है और पानी की तलाश करता है, तो क्या उसकी इच्छा पूरी हो सकती है? कोई रास्ता नहीं। जब आप पानी की तलाश में वहां जाएंगे, तो आप जीवन में और मुसीबत में मर जाएंगे।

इसी तरह, आज मनुष्य भी वास्तविक सुख के साथ भौतिक सुखों को भ्रमित कर रहे हैं। सभी रिद्धि-सिद्धि के शिक्षक होने के बावजूद, उन्होंने एक भिखारी के रूप में एक जगह से दूसरी जगह ठोकर खाने के लिए गलत रास्ता चुना है। वह धन, इच्छा, वासना में खुशी ढूंढ रहा है, जो नश्वर हैं। सच्चे आनंद का भंडार उसके भीतर भरा है। परमेश्‍वर ने उसमें अपना अंश छिपाया है, जो परम सुख, शांति का स्रोत है। जैसे मृग की नाभि में अनमोल सीप होते हैं, लेकिन वह नहीं जानता। यदि ज्ञात हो, तो उस सुगंध को प्राप्त करने के लिए जंगल में घूमने की आवश्यकता नहीं है।

मनुष्य ने आज के भौतिक सुखों के पीछे आध्यात्मिक सुखों को भी नजरअंदाज कर दिया है। यह समझा जाता है कि मानव जीवन का उद्देश्य पशु जीवन जीना है। भौतिक सुखों की उपलब्धि के पीछे, वह भूल गया है कि वह भगवान का हिस्सा है। भगवान सभी पहलुओं में अमीर हैं, लेकिन उनका बेटा गरीब हो गया है। इसका कारण यह है कि आज के मनुष्य ईश्वर से अलग हो चुके हैं। अगर वह अपने भीतर देखने की कोशिश करता है, अगर वह परमात्मा से जुड़ता है, तो उसे शाश्वत सुख मिलने लगेगा।

सच की मानवीयता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

मन में सदा अच्छे विचारों को स्थान दीजिए। दूसरे के लिए अच्छा सोचने वाले का अपना भी सब कुछ अच्छा होता ।यदि किसी के मन में दुर्भावनाएँ स्थायी रूप से अपना घर बना लेती हैं तो उस व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़कर रख देती है।

कहा भी गया है कोई किसी के लिए गड्डा खोदता है,उसके लिए खाई तैयार हो जाती है।इसलिए मन में हमें शुभ विचारों को प्रश्रय देना चाहिए। आप किसी की भलाई करते हैं तो मन में संतुष्टि का भाव उठता है और शुभकामनाओं के निकले शब्दों से हृदय शीतल हो जाता है।आत्मिक शांति मिलती है।

सत्य की अपनी प्रतिष्ठा है।सत्य बोलने वाले सबके प्रिय पात्र होते हैं।यह भी देखा गया है कि कुछ लोग अक्सर झूठ की खेती करते हैं मगर दूसरे से उनकी अपेक्षा रहती है कि वह सत्य को साथ लेकर उनके सामने आए।ऐसा इसलिए कि झूठा व्यक्ति को भी सत्य ही प्रिय होता है।झूठ का सहारा लेने वाले को भी आप सच का कद्र करते देख सकते हैं।अक्सर हमें किसी एक झूठ को छिपाने के लिए हजार झूठों का सहारा लेना पड़ता है।तब फिर सत्य बोलकर आप-हम निश्चिंत क्यों न रहें?हाँ,जब किसी के प्राण बचाने हों या जहाँ किसी की भावना या प्रतिष्ठा आहट हो रही हो या प्रेम-सौहार्द्र को बनाए रखना हो,वहाँ झूठ बोलना चलता है।लेकिन बात-बात में झूठ का सहारा लेने वाले व्यक्ति को कोई भी नहीं पसंद करता है।लोग उनकी बातों पर विश्वास नहीं करते और समाज की नज़रों में जरा भी उसकी इज्ज़त नहीं होती है।

शब्द को ब्रह्म कहा गया है। इसके दुरुपयोग से हमें बचना चाहिए।कहा भी गया है कि धनुष से छुटे बाण और मुख से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते हैं।वाणी-संयम का अपना महत्व है।हमें व्यवहार में सोच -समझ कर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।शरीर के घाव भर जाते हैं परंतु वाणी से आहट हृदय सदा दग्ध रहता है।अक्सर देखा जाता है कि किसी भी दो व्यक्तियों के बीच का मनमुटाव की शुरुआत 'बात' से ही होती है। इसलिए हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि किसी के दिल को अपनी बातों से न दुखाएँ। यदि किसी के हृदय को आपकी बातों से दुःख पहुँचा हो और संयोग से पता चल जाए तो क्षमा माँगने में जरा भी देर मत कीजिए।

ज़िंदगी दो दिनों का मेला है।दुनिया से कूच करने के बाद सब कुछ यहीं छुट जाता है। आप अपना व्यवहार अच्छा रखिए।अच्छा बनकर किसी से भी मिलिए,सब कुछ अच्छा ही होगा।आप प्यार बाँटिए चलिए निश्चय ही बदले में आपको प्यार ही मिलेगा।

सम्पूर्ण कौन है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

आज के समय मे जो तन और धन से सक्षम है उसी को सम्पूर्ण इंसान समझा जाता है अगर कोई तन से विकलांग है या उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नही है तो उसे सब एक अपूर्ण और नकारा इंसान समझते है हेय दृष्टि से देखते है यही मानसिकता है सम्पूर्णता की।

मेरी दृष्टि मे ऐसी सोंच रखने वाला हर वो इंसान अपूर्ण और विकलांग है जो स्वयं को महत्वपूर्ण और दूसरो को महत्वहींन समझता है सबको अपनी सोंच की कसौटी पर तोलता है। सबको तोलते वक्त वो स्वयं को तोलना भूल जाता है क्योकि उसे तो अभिमान होता है स्वयं की सम्पूर्णता का अपने ज्ञान का वैभव का वो ये कभी जान ही नही पाता वो कितना अपूर्ण है जिसे वो विकलांग या छोटा समझकर हेय दृष्टि से देखता है उसकी अपूर्णता तो सबकी नजरे देख पाती है क्यूकि वो तो प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है परंतु जो मानसिक रुप से विकलांग है अपूर्ण है अपनी सोंच और विचारो से सबसे छुपाये रहता है अपनी कमजोरी को हर एक पर अपनी झूठी शान का धाक बनाना चाहता है कि वो तो सम्पूर्ण है कुछ भी कर या कह सकता है।

ऐसे लोगो की दिनचर्या ही स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होता है चाहे जैसे भी इनके जीवन का सबसे श्रेष्ठ और अहम मुद्दा होता है औरो को नीचा दिखाना , अपमानित करना इसी से शुरुवात होती है इनके दिन की चाहे घर रहे या बाहर जी हुजूर सूनना इनके कानो को बहुत अच्छा लगता है । दूसरो को तिरस्कृत करके इनकी जुबान मीठी हो जाती है। अपमानित करने का स्वाद ही निराला होता है जिसे ये जब चाहे जहाँ चाहे मजे से ले लेते है सम्पूर्ण जो होते है।

परंतु ये भूल जाते है कि दिखाई देने वाली कमियां तो किसी न किसी तरह पूरी की जा सकती है मगर आंतरिक विकलांगता को स्वयं ही दूर करना होता है संकीर्ण मन या सोंच रखने वाला इंसान बोझ होता है क्यूकि दूसरो को खाली और खुद को महानता से लबालब भरा पाता है कभी स्वीकार ही नही पाता की उसमे भी त्रूटि या कमी है।
सबकुछ तो है फिर कैसी कमी मान, प्रतिष्ठा, दौलत , सोहरत और क्या चाहिए पर क्या इन सबमे इंसानियत भी है, हम भी है कही?

यही सवाल खुद से करना भूल जाते है भटकते रहते है उस मृग की तरह जिसकी कस्तूरी उसकी ही नाभि मे होती है परंतु उसकी महक उसे भटकाती रहती है वो जान ही नही पाता कि जिस महक के लिए वो भटक रहा है वो उसी की है ठीक वैसे ही अधिक से अधिक पा लेने की हमारी तृष्णा हमे कभी तृप्त ही नही होने देती हमारी जिंदगी हमेशा तुलनात्मक ही रहती है। भावनात्मक तो हम हो ही नही पाते बस तुलना ही करते रह जाते है दूसरो की उनके पास ये है तो हमारे पास क्यूँ नही इसी मे उलझे जीवन के अनमोल पलो को खोते रहते है जितना मिला था उसे भी हर पल नष्ट करते रहते है सिर्फ लालसा और तृष्णा के पीछे भागते रहते है।

मेरी सोच तो यही कहती है शारीरिक और भौतिक सम्पूर्णता से ज्यादे महत्वपूर्ण मानसिक सम्पूर्णता होती है तन अगर कमजोर भी हो तो अगर मन सुदृढ और मजबूत है तो हम कुछ भी कर सकते है। मेरी नजर मे हर वो इंसान सम्पूर्ण और सक्षम है जो इंसानियत को सर्वोपरी मानता है, स्वयं को जानता और समझता है, अगर किसी को झुकाना जानता है तो झुकता भी है। सम्मान चाहता है तो सम्मान देता भी है।

छल,कपट,फरेब का जाल हमारे चारो ओर फैला है पर जो इन सबसे परे हो, सच्चा हो, ईमानदार हो,स्वाभिमानी हो किसी की आर्थिक स्थिति देखकर सम्मान न देता हो बल्कि उसके विचारो को उसकी अभिव्यक्ती के आधार पर एक इंसान होने के नाते उसे सम्मान पूर्वक देखता हो वही सम्पूर्ण और नेक इंसान है।

क्यों ना दिखावे का जीवन छोड़कर स्वयं को स्वयं की अपूर्णता का भान कराए उसे स्वयं ही दूर करे। एक सम्पूर्ण और नेक इंसान बने जो सिर्फ तन और धन से ही नही बल्कि इंसानियत से सक्षम हो।
परिपूर्ण हो मानसिक और व्यवहारिक रुप से यही हमारी वास्तविक संम्पूर्णता होगी।

दूसरे के भले से खुद का भला : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हमें ज़िंदगी को जी भरके जीना सीखना चाहिए।किसी से यह बात छिपी नहीं है कि छोटी-सी ज़िंदगानी है।सब कुछ यहीं रह जाता है। हम ऐसा कोई काम न करें जो देश और समाज के लिए अहितकारी हो। सगे-संबधियों या मित्रों की भूलों या गलतियों को हृदय में सदा-सदा के लिए बैठा लेना कतई उचित नहीं।

यदि आप अपनी भलाई चाहते हैं तो आपको माफ़ करना आना ही चाहिए। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई गलती करके भी अपने को सही ही साबित करते रहता है,तब भी आपको उदारता से काम लेना चाहिए।व्यक्ति का अहं उसे झुकने नहीं देता है।और वह अपने को सत्य सिद्ध करने लिए अपना ही तर्क गढ़ लेता है।तब हम क्यों उसके पीछे अपना समय बर्वाद करें?हो सकता है कि आपके सद् व्यवहार से एक दिन उसे स्वतः अपनी नादानियों का एहसास हो जाए।

आप चाहकर भी किसी की प्रवृत्ति बदल नहीं सकते हैं।हाँ,अपने को हम सच्चाई के रास्ते पर ही चला सकते हैं।यदि बुराइयों से हम अपने को बचाए रख सकें तो बहुत बड़ी बात होगी।इसके 'आत्मबल' की आवश्यकता होती हैं।

कई बार देखा गया है कि कुछ लोग हरदम एक-दूसरे की टाँग खींचने में ही लगे रहते हैं।अगर वैसे व्यक्ति से आज आपका मधुर संबंध है तब इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कल वह व्यक्ति आपकी बुराई न करने लगे।इसलिए जहाँ तक हो सके 'बुरे लोग' से दूर ही रहें। काजल की कोठरी से सयाने लोग भी बिना दाग लगाए निकल नहीं पाते हैं।यह आप गाँठ बाँध लीजिए।

किसी भी व्यक्ति को प्रतिष्ठा पाने के लिए अपनी सारी उमर गुजार देनी पड़ती है। प्रतिष्ठा पाना जितना कठिन है उससे भी मुश्किल है उसे बचाए रखना। एक बार आपको गरिमा और महिमा मिल गई तो आप सामान्य से विशेष बन जाते हैं। जब कोई व्यक्ति सामान्य से 'विशेष' बन जाता है तो उसकी हरेक छोटी-बड़ी गतिविधियों पर समाज की नज़र लगी रहती है। ऐसे में आपको सावधान रहने की आवश्यकता है। आप कुसंग से बचे रहें, नहीं तो आपकी उपार्जित प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित होते देर नहीं लगेगी।कई बार बुरे व्यक्ति के माध्यम से आप-हम अपना काम निकालते हैं। फलस्वरूप जानते हुए भी हम उसके दोषों और अवगुणों को नज़र अंदाज़ कर देते हैं। यदि आप ऐसे 'दुष्ट' या 'दुर्जनों' का संग लेते हैं या देते हैं,तो भगवान ही आपका मालिक है। छोटे-मोटे काम निकालने के चक्कर में आप अपना बहुत भारी नुकसान कर लेते हैं।

देखने में आता है, कई लोग धन प्रपंच या छल से प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे व्यक्ति भले ही ऊपर-ऊपर सुखी दिखाई देते हैं। मगर उनकी अंतरात्मा सदा उन्हें धिक्कारते ही रहती है। हम भले ही देवता नहीं बन सकते तो मानव बनकर तो रह ही सकते हैं। इससे दुनियाँ से सारे झगड़े-फ़साद ही मिट जाएँगे। सारा जहान सुंदर और सुखद हो जाएगा।

आस-पास के लोगों को बदलना हमारे बस में नहीं है परंतु हमें किसके साथ में रहना है। यह हमारे और आपके हाथ में है।अतः हम भले व्यक्ति के साथ खड़े रहें और भले का ही साथ लें। आपके इस छोटे-से प्रयास से संसार बदलेगा।हम आदमी हैं तो आदमी बनकर रहें। यदि दूसरों का हम भला नहीं कर सकते हैं तो कम-से कम किसी का अहित भी न करें।

हम सबसे ही है इतिहास : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हर एक व्यक्ति की अपनी-अपनी क्षमता और प्रतिभा होती है।हमें अपनी प्रतिभा को निखारने की जरूरत है और उसके अनुरूप अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए।आज हो रहा है सबकुछ उल्टा। लोग भेड़-चाल में चल रहे हैं।इस संसार में रास्ते बहुत हैं, आपको अपने लिए एक सही रास्ता चुनना है।सब जगह भीड़ है।मुकाबला भी कठिन है।संघर्ष आपको ही करना है।जीवन का नाम ही संघर्ष है।बाधाएँ आती ही रहती हैं।उससे पार पाने के लिए आपको मजबूती के साथ अपने लक्ष्य के संग खड़ा होना होगा।अगर संघर्ष के बाद सफलता मिलती है तो खुशियाँ भी कई गुनी बढ़ जाती हैं।

आपको स्वयं का अपना दोस्त बनना होगा।सच्चा मित्र,जो भले-बुरे की पहचान करा सके।जब भी अवसर मिले तो अपने आप से बातें कीजिए।अपनी खूबियों को पहचानिए।लोग सराहें या न सराहें,स्वयं अपने आपको शाबाशी देने में कभी कोताही मत कीजिए।

साकारात्मकता को अपने जीवन का हिस्सा बनाइए।आप इस दुनिया में सबसे अलग हैं।जो आप में हैं, वह औरों के पास नहीं हैं।सदा मन में उच्च भाव को प्रतिष्ठित रखिए।दूसरे क्या कर रहे हैं उस पर ध्यान देने से सिवाय इस बात का ध्यान दीजिए कि आप स्वयं क्या कर सकते हैं?और आप जो कर सकते हैं,उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगाइए।ईश्वर आपकी सहायता करेगा।लोग भी आपके साथ चलने लगेंगे।आपका कुछ भी करने का तरीका नवाचार से प्रेरित हो तो कहना ही क्या? काम सब करते हैं पर जो व्यक्ति सामान्य काम को भी विशेष बनाकर करता है,वही इतिहास बनाता है।

आत्मविश्लेषण प्रगति का द्वार खोलता है।हमारा स्वभाव है,यदि कोई हमारी गलतियों या कमियों की ओर इंगित करता है तो मन में भारी कोफ़्त होती है।मेरा तो मानना है आपका कम -से-कम एक मित्र ऐसा अवश्य ही होना चाहिए जो समय-समय आपको डाँट-पट भी सके।कहने का आशय है कि वह आपको सही सलाह देने वाला हो।केवल हाँ में हाँ मिलानेवाला नहीं। यदि आपका ऐसा कोई दोस्त नहीं है तो कोई बात नहीं।आप अपनी गलतियों या भूलों पर अपने आप को डाँटना सीखिए।शुरु-शुरु में यह काम थोड़ा कठिन लगेगा।मगर इसमें एक बहुत बड़ा लाभ छिपा हुआ है।धीरे-धीरे ऐसे मौके कम आएँगे जब आपको अपने किए पर पछताना पड़ेगा।और आपके चरण निरंतर प्रगति के पथ पर गतिमान रहेंगे। हाँ ,एक बात और आपसे कहने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ।आप वही कीजिए जो आपको पसंद है।पसंद के काम करने में जो अपूर्व आनंद मिलता है उसकी अनुभूति अलौकिक है।जब हम किसी काम को भार मान कर करते हैं तो कठिन लगने लगता है।फिर उस कार्य में सफलता की संभावनाएँ भी घट जाती हैं।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिस क्षेत्र को आपने चुना है उसमें चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ भरी पडी हैं।डरिए मत लड़िए।जीत आपकी होगी।कोई आपको अपने लक्ष्य तक पहुँचने से रोक नहीं सकता है।कोशिश करने वालों की हार नहीं होती है।और कोशिश आपको ही करना होगा।आनेवाले तूफानों से आपको खु़द ही मुकाबला करना है।आप कभी भी अपने को अकेला मत समझिए।कोई आपका साथ दे या न दे।आपको अपना साथ खुद देना है। यदि आप अपने साथ खड़े हैं तो दुनियाँ आपका साथ देने लगेगी।बढ़ना है आपको बहुत ही आगे तक। चलते ही रहना है।रुकना मौत की निशानी है।हौसलों के साथ अपने कदम बढ़ाइए।आपके हाथों में जादू है।उस 'जादू ' से आप मनचाही मुरादें पूरी कर सकते हैं।दुनिया को बदलने वाले आपके और हमारे जैसे लोग ही होते हैं मगर उनके अंदर एक बेचैनी होती है जो उन्हें कभी चैन से बैठने नहीं देती है।और वह छटपटाहट ही उन्हें ऐसे-ऐसे काम करने के लिए प्रेरित करती है जिसे देखकर लोग दाँतों तले उंगलियाँ दबाने लगते हैं।इतिहास आपकी भी प्रतीक्षा कर रहा है।आप अपना काम दिल से कीजिए, निश्चय ही आपकी विजय होगी।

संस्कृत हमारी संस्कृति : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

विश्व की प्राचीनतम भाषा और आज के योग की कई भाषाओं की जननी कही जाने वाली देव भाषा संस्कृत की भारत में उपेक्षा किसी से छुपी नहीं है। देव भाषा संस्कृत के प्रति जहा देश में अलगाव की स्थिति है जिसका कारण हम सभी हैं। मगर अब जाकर कुछ संस्थान इस आवाह्न हेतु आगे आये है की देवभाषा संस्कृत को उसकी गरिमा फिर से दिलाई जा सके।

आश्चर्य की बात यह है कि संस्कृत शब्दों का विपुल भंडार है। खास बात यह है कि किसी और भाषा के सापेक्ष संस्कृत में सबसे कम शब्दों में वाक्य पूरा हो जाता है. नासा से अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले प्रक्षेपण यान में अगर किसी अन्य भाषा का प्रयोग किया जाए तो अर्थ बदलने का खतरा रहता है, लेकिन संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि संस्कृत के वाक्य उल्टे हो जाने पर भी अपना अर्थ नहीं बदलते। संस्कृत वैश्विक पटल पर एकमात्र ऐसी भाषा है जिसे बोलने में जिह्वा की सभी मांसपेशियों का प्रयोग होता है।

संस्कृत मात्र एक भाषा नहीं अपितु एक संस्कृति है जिसे संजोने की जरुरत है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि वर्ष में एक दिन हर भारतीय को यह स्मरण कराया जाए कि उसके अपने देश की भाषा कहीं पीछे छूटती जा रही है। संस्कृत के लोग इसलिए भी कम समझते हैं क्योंकि इसे लोगों ने भारत में अंग्रेजी भाषा जैसा स्थान नहीं दिया है।

राष्ट्र की अस्मिता के संवर्धन के लिए मैं अपनी व्यवहारिक भाषा में संस्कृत शब्दों का उपयोग करूंगा, उसी प्रकार अपने दैनंदिन व्यवहार में संस्कृत के छोटे-छोटे वाक्य, श्‍लोक, मंत्र का उपयोग कर सतत संस्कृत सीखने और सिखाने के लिए प्रयत्नशील रहूंगा।

अपनी ही तलाश में : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जीवन हर पल नया होता है इसलिए इसे किसी भी एक रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता। हर दिन के अलग-अलग अनुभव,कभी अच्छे तो कभी बुरे और कभी कुछ खास नहीं,सामान्य। यह तो सभी जानते हैं कि यही उतार-चढ़ाव जीवन का रूप हैं,यही जीवन है पर फिर भी सदा यही समझ नहीं आता कि कौन से रूप को जीवन कहा जाए और यदि ये रूप ही जीवन हैं तो फिर जीवन का अपना अस्तित्व कया है? क्या वो स्वयं अस्तित्वहीन है और अभी वो अपनी ही तलाश में है। अनेकानेक सवाल उपजते हैं मन मे जवाब की तलाश में। अनेकों रूप तो दिखते हैं पर जीवन नहीं कयोंकि इन रूपों की अपनी वजह है,अपना वजूद है अतः ये जीवन नहीं। इनका स्वतंत्र रूप ही इनकी पहचान है और ‘रूप’ में आप सुख-दुख,हास्य-क्रोध,अमीरी-गरीबी जैसी हजारों भावनायें महसूस कर सकते हैं,जिनके आधार पर जीवन के मायने तलाशने लगते हैं-किंतु ‘जीवन’ जिसकी स्वयं की कोई पहचान नहीं उसके मायने ?

‘हम खुश हैं तो जीवन अच्छा हम दुखी जीवन बुरा’यही सब मानते हैं लेकिन अच्छा या बुरा हमसे जुड़ा है जीवन से नहीं फिर इस जीवन के विषय में इतनी चर्चा क्यों,हर ज़ुबाँ पर इसी का नाम क्यों।

शायद! अस्तित्वहीन चीज़ें अपने अस्तित्व की पहचान के लिए अधिक शोर मचाती हैं ताकि कोई तो उन्हें उनकी पहचान एक नाम दिला सके,और जीवन इसमें सर्वोपरि है तभी वो हर रूप,हर बात,हर क्षण खुद को अपनी मौजूदगी बताता है और अपने होने की शिनाख़्त चाहता है। तरस आता है जीवन पर,इसकी तमाम कोशिशों पर जो भटक रहे हैं अपनी ही तलाश में..!!

सपनो की क़द्र करने वाला लायक और अपनों की क़द्र करने वाला नालायक : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

सत्र 2017 नवम्बर माह में आगरा से लखनऊ आ रहा था। रेलवे स्टेशन से घर के लिए एक बस में बैठ गया। मेरे पास में एक बुजुर्ग बैठे थे और उनके पास ही एक नौजवान खड़ा था जो उनका पूरा ख्याल रख रहा था। जब भी चालक ब्रेक लेता वो नौजवान उस बुजुर्ग के सर के पास हाथ रख देता ताकि उसके पिता जी को थोड़ा भी चोट न आये। उन्हें अपने हाथों से पानी पिलाता ,ग्लूकोज़ देता और बस में चढ़ाता उतारता, या कहे तो उस बुजुर्ग का लाठी था वो नौजवान। उसके बिना उनका हर काम ही अधूरा था ,खाना, पीना ,चलना, उठना ,बैठना, सम्भलना ,सबकुछ ।उनका पैर भी वही था उनका हाथ भी वही, उनका आँख भी वही उनका कान भी वही।

सफर आधी दुरी तय कर चुकी थी अचानक उस बुजुर्ग के एक पुराने मित्र मिल गए। उन्हें देखते ही बुजुर्ग के एक सूखे सिकुड़े हुए चेहरे पर एक हल्की सी लहराती मुस्कान आ गयी और अपने तोतले आवाज में बोले पांडेय जी आप कहा से ।पांडेय जी भी अपने पुराने मित्र को देखकर अति प्रसन्न हुए और बोले अरे बस शर्मा जी कुछ काम से आया था अब वापस घर जा रहा हु। साथ में खड़ा नौजवान बड़े सज्जनता से पांडेय जी का पैर छूता और आशीर्वाद लेता है। पांडेय जी उसे देख कर प्रसन्न होते हुए शर्मा जी से सवाल करते है ये आपका छोटा वाला रवि है न ? शर्मा जी भी सहमति से सर हिलाते है। फिर पांडेय जी उस नौजवान से पूछते है, क्या करते हो बेटा ? नौजवान कुछ बोल पाता उस से पहले शर्मा जी उदास होते हुए बोल पड़े कुछ नहीं बस ऐसे ही एक छोटा सा दुकान है वही देखता है और क्या करेगा और उनकी आवाज फँसने लगी। तभी पास खड़ा वो नौजवान पॉलिथीन से एक दवा और गिलास में पानी लेकर बोलता है, पापा यह दवा खाने का समय हो गया। दवा खाने के बाद शर्मा जी फिर से अपने मित्र की ओर देखते है और बिना पूछे फिर से शुरू हो जाते है। इस बार शर्मा जी काफी खुश होकर बोलते है । जानते है पांडेय जी मेरा बड़ा वाला बेटा दिनेश MBA करके अमेरिका में रहता है इतना बड़ा आदमी बन गया है कि ऑफिस का सारा काम उसे ही देखना पड़ता है उसे फुर्सत ही नहीं की घर आये । 3 साल हो गये है, उसे आये हुए। फिर शर्मा जी आगे और प्रसन्न होते हुए बोले की बीच वाला मुकेश तो और बड़ा आदमी बन गया है इंजीनियर है और अपने कम्पनी का सारा प्रोदेक्ट(ठीक से प्रोजेक्ट भी नहीं बोल पा रहे थे) खुद ही देखता है ।अभी कम्पनी के काम से 2 साल से विदेश में है। 1 लाख सैलरी है पुरे एक लाख पांडेय जी ।ये सब कहते हुए शर्मा जी के आँखों में चमक थी। और फिर आखिर में अचानक से वो नौजवान के तरफ देखते है और फिर उदास मन से पांडेय जी के तरफ मुखातिब होते हुए बोलते है-और ये मेरा तीसरा और सबसे छोटा बेटा रवि, एक यही नालायक निकला पढ़ने में मन नहीं लगा और किसी तरह एक नौकरी भी मिली चेन्नई में तो छोड़ कर आ गया। और बहाने बनाता है कि पापा आपके पास रहना है और नालायक एक किराना दुकान चलाता है घर पर ही। इसे शर्म नहीं आती की इसके भाई कहा पहूँच गए और ये कहा पड़ा हुआ है। पांडेय जी सब चुप चाप सुन रहे थे और उस नौजवान के तरफ गर्व से देख रहे थे और मन ही मन कोस रहे थे की हाय रे कलयुग भाग दौड़ की दुनिया में तू कितना बदल गया है सपनो की कद्र करने वाला लायक और अपनों की कद्र करने वाला नालायक, ये कैसा इन्साफ है।

अचानक बोलते बोलते शर्मा जी की उल्टियां शुरू हो गयी और वो नौजवान बिना एक पल गवाये अपना हाथ उनके मुंह के सामने रख दिया और एक हाथ से सर सहलाने लगा। पांडेय जी के मन में बहुत सारी बातें दौड़ रही थी और उनकी गर्व भरी आँखे आँसुओ के बूंदों से चमक रही थी और एकटक उस नौजवान के तरफ देखे जा रही थी। पलके थी की ढलने को तैयार नहीं। फिर जब पांडेय जी बस से उतरने लगे तो शर्मा जी से बोले आप जरूर कोई महान आत्मा है शर्मा जी क्योंकि आपकी तपस्या, आपका सम्पति ,आपका अहंकार ,आपका जन्नत ,आपका बचपन, आपका जवानी, आपका हीरा , ये सबकुछ आपके करीब है। इतना कह कर पांडेय जी मुस्कुराते हुए चले गए। शर्मा जी अपने छोटे बेटे की तरफ देखते रहे और पांडेय जी की बातों को सोचते रहे।

मैं भी ये सारा किस्सा देखकर बस एक गहरे समुन्द्र के भाति शान्त था। मेरी नजर उस नौजवान पर गर्व से देख रही थी जिसे सामाज अपने नजर से नालायक की तरह देखता है क्योंकि उसे अपने सपनो से ज्यादा अपनों की कद्र है। उसे अपने पिता के इस हालात में देख 1 लाख की पैकेज और बड़ी बड़ी कंपनियां नहीं दिखती जहाँ पैसे है पर वक़्त नही की जिसने उसे इस लायक बनाया उसे एक ग्लास पानी भी दे सके। तभी मेरा स्टॉप आ गया। मैं उस नौजवान का किस्सा, शर्मा जी और पाण्डेय जी के वार्तालाप और समाज की सच्चाई के उस बेमेल मिश्रण को अपने जेहन में लिए बस से उतर गया। और बार बार हर एक शब्द और वो छोटी कहानी मेरे दिमाग में घूमता रहा।

कहानियों का महत्व एवं उपयोगिता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

कहानी सुनाना सीखने-सिखाने की सबसे पुरानी और शक्तिशाली विधि है। दुनिया भर की संस्कृतियों ने हमेशा से ही विश्वास, परंपराओं और इतिहास को भविष्य की पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए कथाओं / कहानियों का उपयोग किया है। कहानियां कल्पनाशीलता को बढ़ाती हैं , कहानी कहने और सुनने वाले के बीच समझ स्थापित करने के लिए सेतु का काम करती है और बहुसांस्कृतिक समाज में श्रोताओं के लिए समान आधार तैयार करती है।

कहानी सुनाने का उद्देश्य मनोरंजन के साथ साथ समसामयिक जीवन को समझने, उसमें अपनी भूमिका को देखने, पात्रों के बारे में चर्चा के माध्यम से विभिन्न परिस्थितियों को समझने व उसके अनुसार व्यवहार करने की समझ दीर्घकाल में विकसित करना होता है। कहानी सुनने का आनंद सर्वोच्च है और बाकी सारी चीज़ें अनायास ही एक सार्थक प्रयास से पूरी होती जाती है। मनुष्य में मौखिक भाषा के उपयोग से सिखाने , समझाने और मनोरंजन करने की स्वाभाविक क्षमता होती है , इसी कारण से कहानी का उपयोग रोजमर्रा की जिंदगी में बेहद प्रचलित है।

भारत के संदर्भों में जहाँ बहुसांस्कृतिक समाज है , कहानी स्कूलों में शिक्षण शास्त्र का एक सशक्त माध्यम हो सकती हैं । राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा इस बात की अनुशंसा करता है कि स्कूली ज्ञान को समुदाय के ज्ञान से जोड़ा जाए। विभिन्न समुदायों में ज्ञान के संसाधन के रूप में प्रचलित कहानियां , स्कूल को समुदाय से जोड़ने का एक अच्छा साधन है। कहानियाँ बच्चों को समूह में चुप्पी तोड़ने , समुदाय से सीखने , कहानी लिखने , कहानी की घटनाओं पर आधारित रचनात्मक चित्र बनाने और अर्थपूर्ण सीखने के अनुभव बनाने के लिए प्रेरित करती हैं। स्कूलों में यह महत्वपूर्ण विधा बच्चों के लिए उपयोगी शिक्षण उपकरण है। कहानी के उपयोग से विषयों में भी रोचकता आ जाती है। भाषा का कहानी कहने की कला से स्वाभाविक जुड़ाव होता है । दूसरे विषयों में भी कहानी के उपयोग से जांच पड़ताल / खोजबीन का काम किया जा सकता है।

कहानी को परिभाषित करने से पहले एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि जिस प्रकार गीली मिट्टी को अलग अलग रूपों में ढ़ाला जा सकता है , उसी प्रकार हमारी कहानियां भी अपनी प्रकृति , सुनने / पढ़ने वालों और परिस्थिति के अनुसार अपने आप को अलग-अलग रूपों में ढ़ाल सकती हैं।

कहानी किसी सच्ची या काल्पनिक घटना का इस प्रकार का वर्णन है जिसमें कहानी सुनने वाला सुनकर कुछ अनुभव करता है या कुछ सीखता है। कहानी जानकारी , अनुभव , दृष्टिकोण या रुख को समझाने का एक माध्यम भी है। हर कहानी के लिए एक कहानीकार और एक सुनने वाला होता है। माध्यम चाहे कोई भी हो , यह जरूरी है कि एक कहानी कहने वाला और एक कहानी को ग्रहण करने वाला होना ही चाहिए।

हम सब रोज कहानियां कहते हैं। ज्यादातर अपने आप से। किसी विषय पर अपने विचार बनाने , भविष्य के बारे में कल्पना करने , अपने आप को कुछ याद दिलाने , समझाने आदि के लिए हम अपने आपको कहानी सुनाते हैं। हम सभी के अंदर कहानी सुनाने का एक तंत्र होता है और सामग्री से भरपूर होता है । यही वो जगह है जहां कहानियों का जन्म होता है। इस प्रकार पहले कहानीकार और कहानी के पहले श्रोता हम स्वयं ही हैं।

कहानी ‘एक उत्सव’ भी है इस आयोजन से जहां स्कूल और समुदाय की दूरी घटी , वहीं शिक्षक समुदाय में एक नयी चर्चा शुरु हुई कि सामुदायिक-ज्ञान स्कूली-ज्ञान का आधार है और समुदाय के सांस्कृतिक प्रसंगो की मदद से भाषा , विज्ञान , सामाजिक जीवन आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

कहानी-उत्सव के आयोजन के पश्चात स्कूलों में बहुत सी सामुदायिक कहानियां और उनसे संबंधित चित्र उपलब्ध हुए जो दीवार-पुस्तिका , बड़ी और छोटी किताब , आदि बनाने के लिए उपयोगी साबित हुए। साथ ही बच्चों की रचनात्मक प्रतिभा उनके स्कूल की गतिविधियों का हिस्सा बनीं।

लेखन बाजारीकरण नहीं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

भारत के युवा लेखक (हिन्दी) बाज़ारोन्मुख नहीं। दूसरे शब्दों में पश्चिम के बाज़ारवादी लेखन से अलग वे बाज़ार के लिये नहीं लिखते। यह प्रचार भ्रामक हो सकता है। यह एक ऐसी मानसिकता को जन्म देता है जहां मांग-आपूर्ति के स्वाभाविक सिद्धांत का उल्लंघन ही नहीं होता वरन जिससे एक किस्म की अराजकता भी उत्पन्न होती है।

लेखन का मूल और अंतिम उद्देश्य क्रय-विक्रय नहीं, यह सच है। लेकिन क्रय-विक्रय के केन्द्र में जो मांग-आपूर्ति, गुणवत्ता, उपयोगिता और स्पर्धा जैसे साकारात्मक तत्त्व हैं उनपर विचार करना आवश्यक है। स्वांत: सुखाय किस्म का लेखन एक अलग किस्म का लेखन है और उसकी उपयोगिता सिद्ध होने के लिये एक लेखक को संत होने की प्रक्रिया से गुजरना और संत होने की शर्त भी शामिल है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिये। हर स्वांत: सुखाय किस्म का लेखन उच्च कोटि का लेखन हो ऐसा जरूरी नहीं और हर उच्च कोटि का लेखन स्वांत: सुखाय हो ऐसा भी जरूरी नहीं। एक उच्च कोटि के लेखन का क्या मापदंड होना चाहिये वह विचारणीय है। किसी भी प्रकार के लेखन के लिये आवश्यक तत्त्व है उसका उपयोगी होना - व्यक्ति, समाज, देश और काल के लिये। अगर कोई वस्तु उपयोगी है तो हम उसका मूल्य भी देने के लिये तैयार होते है। इसलिये एक अच्छे लेखन के लिये उसका बाज़ार में बिक पाना एक सहज ही मापदंड हो जाता है।

आज अगर हम हिंदी समाज में हो रहे लेखन की मात्रा पर गौर करे तो वह आशातीत लगती है। यह एक साकारात्मक रूख है। लेकिन उसके बाज़ार पर ध्यान दें तो स्थिति अगर दयनीय नहीं भी तो बहुत अच्छी भी नहीं। और अगर एक स्वतंत्र हिंदी लेखक की आर्थिक दशा पर गौर करें तो स्थिति और भी साफ हो जायेगी। आज का अधिकांश हिंदी लेखक दोहरी जीवनवृत्ति अपनाने के लिये बाध्य है। और इसके कारण भी हैं। लेकिन ऐसा होने के कारण लेखक अपने और अपने लेखन के साथ पूरा न्याय न कर सकने के कारण वह स्वयं वह सब नहीं पा पाता जो उसे मिलना चाहिये और भाषा-साहित्य-समाज को वह सब नहीं मिल पाता जो उसे मिल सकता था। यही नहीं यह कई किस्म की कुरीतियों को भी जन्म देता है - वैचारिक गुटबंदियां, सरकारी पदों-अनुदानों और पुरस्कारों की होड आदि जिसका खामियाजा न सिर्फ़ साहित्य बल्कि पाठकों और समाज को भी भरना पडता है।

अक्सर यह सुनने को मिलता है कि हिंदी साहित्य का बाज़ार बहुत बडा नहीं है। यह सच है। लेकिन यह जानना जरूरी है कि अगर भारत में अंग्रेजी साहित्य का बाज़ार हिंदी साहित्य से बडा है तो उसके कारण क्या हैं । बात फिर भारत के मध्यवर्ग पर आकर ठहरती है। पिछली सदी से मध्यवर्ग दो टुकडों में बंट या खिंच गया है। उच्च मध्यवर्ग ने उच्च वर्ग की तरह ही साहित्य और समाज से अपने सरोकारों को खत्म कर लिया। निम्न मध्यवर्ग जिसका सरोकार आज भी साहित्य और समाज से ज्यादा है अपने दैनंदिन की उहापोह और समाज के बदले तेवर के बीच आधु्निकता, प्रगतिशीलता और संस्कारों के तिराहे पर किंकर्त्तव्यविमूढ की तरह खडा नज़र आ रहा है। ऐसे में साहित्य की उपयोगिता ही संदिग्ध है तो इसके बाज़ार के अस्तित्व का खतरे में पड जाना स्वाभाविक ही है। तो क्या यह मान लेना चाहिये कि अब कुछ भी नहीं हो सकता ?

आज हम चुनौतियों के बीच जी रहे हैं और ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हर सभ्यता-साहित्य-संस्कृति के इतिहास में ऐसी परिस्थितियां आती रही हैं । जिन्होंने इनका न सिर्फ़ सामना किया बल्कि इनसे सीखते हुए अपना मार्ग निर्धारित और प्रशस्त किया वे दृढ से दृढतर होते चले गये।

लेखन के उद्देश्य निर्धारित होने चाहिये। समय और समाज के बदलते तेवर के साथ सामंजस्य स्थापित होना चाहिये। लेखन की मात्रा और गुणवत्ता के बीच संतुलन होना चाहिये। लेखकों को लेखन का प्रशिक्षण लेना चाहिये। अभिव्यक्ति के अन्य लोकप्रिय माध्यमों (मीडिया, फ़िल्म, टीवी आदि) के साथ मिलकर एक दूसरे को और उपयोगी और उन्नत होने में मदद करनी चाहिये।

मन में यह विश्वास होना चाहिये कि अगर आज भी सूर, तुलसी, मीरा, प्रेमचंद, प्रसाद, रेणु, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा आदि की पुस्तकें बाज़ार में बिकती है, उनकी मांगे हैं तो आज का हिंदी लेखक भी अपने प्रयासों के बल पर आज की पीढी ही नहीं बल्कि आने वाली अनेकानेक पीढियों के बीच अपने लेखन की मांग को न सिर्फ़ बनायेगा बल्कि कायम भी रख पायेगा। इसके लिये हर किसी को बना बनाया रास्ता चुनना नहीं बल्कि स्वयं बनाना और उस पर बढना होगा।

समय की महत्ता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

समय का सदुपयोग नामक इस शब्द से तात्पर्य है। समय की महत्ता को समझते हुए अपने जीवन के हर क्षेत्र में समय का कुशलता पूर्वक प्रयोग करना। समय एक ऐसी चीज है, जो किसी भी स्थिति में अपने निरंतरता में बाध्यता नहीं आने देती है। यह हर पल चलती ही रहती है। हम मानव के जीवन में इसका सबसे अधिक महत्व है।

हमारी सफलता और असफलता इसी पर निर्भर करती है। क्योंकि सदियों से हमारे जीवन में ऐसा होता आया है कि, अगर सही समय पर हम किसी भी काम को सही ढंग से करते हैं। तो हमें निश्चित रूप से सफलता हासिल होती है। परंतु उसी काम को सही ढंग से करने के बावजूद भी अगर उसे सही समय पर नहीं करते हैं। तो हमारा असफल होना निश्चित सा हो जाता है। समय हमारे जीवन का वह बहुमूल्य तथ्य है। जिसे एक बार खो देने के बाद, पुनः हाँसिल नहीं किया जा सकता है। अतः निश्चित रूप से हमें अपने जीवन में सफल होने के लिए इसके महत्व को आत्मसात करना आवश्यक है।

हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक “समय नामक यह शब्द हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा होता है। अपने जीवन में समय का कुशलता पूर्वक उपयोग करना ही कहलाता है। समय किसी का इंतजार नहीं करती है। यह हर-हमेशा चलती ही रहती है। इसकी अमूल्यता का अनुमान हम इन बातों से भी लगा सकते हैं कि, हर सफल आदमी से अगर उसकी सफलता का मूल मंत्र पूछा जाता है। तो, उनके सभी बातों के अलावा एक बात “समय को पहचानना” निश्चित जुड़ा होता है। जो मनुष्य जीवन में समय की मूल्यता को नहीं समझता है। उसके द्वारा जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता हाँसिल करना असंभव है।

जिस प्रकार दूध से एक बार दही बना देने के बाद उसे पुनः दूध के रूप में प्राप्त नहीं किया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार जीवन में जो क्षण बीत जाता है। उसे पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है। हर मनुष्य के जीवन में एक सीमित समय होता है और जब इसका अंत हो जाता है। तो हमारे जीवन का भी अंत हो जाता है। समय वह रत्न है, जिसका सही ढंग से उपयोग करने पर गरीब भी अमीर बन जाता है और गलत ढंग से प्रयोग करने पर अमीर-से-अमीर व्यक्ति भी गरीब हो जाता है। अर्थात जो लोग समय को बर्बाद करते हैं। समय उसे बर्बाद कर देती है। समय के महत्तता और निरंतरता को ध्यान में रखते हुए कविवर कबीरदास जी ने ठीक ही लिखा है _ “काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलै होएगी, बहुरी करौगे कब॥”

अर्थात हमें शीघ्रता से समय रहते अपना काम पूरा कर लेना है। अन्यथा हम मुंह ताकते रह जाएंगे। अतः निश्चित रूप से किसी भी मनुष्य को अपने जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए समय का सदुपयोग करना अनिवार्य है मानव जीवन का प्रत्येक क्षण अमूल्य है। यदि एक क्षण का भी दुरुपयोग होता है। तो मानव सभ्यता का विकास चक्र रुक जाता है। एक पल की शिथिलता जीवन भर का पश्चाताप बन जाती है।

संसार में आज तक जिस मनुष्य ने समय के मूल्य को पहचाना है और उसका सदुपयोग किया है। उन्होंने ही दुनिया के समक्ष अपना लोहा मनवाया है। हम मानव समय के साथ निरंतर चल नहीं पाते हैं। जबकि समय नामक अमूल्य संपदा का भंडार हमेशा हमारे पास होता है। और जब हम इस मूल्यवान संपदा को बिना सोचे समझे खर्च कर देते हैं। तब हमें इसकी महत्ता समझ में आती ।है परंतु यह एक ऐसी चीज है। जिसे एक बार खो देने के बाद हमें पछताने के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता है। इसलिए तो विद्वानों ने भी कहा है कि, समय रहते हमें समय की महत्ता को समझ लेनी चाहिए तभी हम जीवन में सफल हो पाएंगे। इतना ही नहीं कई विद्वानों ने तो समय की महत्ता को स्पष्ट करने हेतु अपना विचार भी लिखे हैं।

समय ही एक ऐसी चीज है। जो हमें ऊंचाई की शिखर तक पहुंचा सकती है। और हमें गर्त में भी ले जा सकती है। समय दुनिया के उन चीजों में अपना स्थान रखती है जिस पर दुनिया के किसी भी चीज का वश नहीं चलता है। क्योंकि इसे न कोई शुरू कर सकता है, न अंत। न कोई खरीद सकता है, न कोई बेच सकता है। कुल मिलाकर कहें तो, समय पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। यह एक ऐसा शासक है, जो दुनिया के समस्त संपदा को अपने अनुसार चलाती है। यहां तक कि हमारी प्रकृति भी समय के अनुसार ही चलती है।

मानव खोए हुए स्वास्थ्य को भी बुद्धिमान वेदो की सम्मति पर चलकर, पुष्टि-कारक औषधियों का सेवन करके तथा संयम जीवन व्यतीत करके एक बार फिर प्राप्त कर लेता है। भूली हुई और खोए हुए प्रतिष्ठा को मनुष्य थोड़े से शर्म से पुनः प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। सदियों के भूले-बिछड़े मिल जाते हैं। परंतु जीवन के जो छन एक बार चले गए। वह फिर इस जीवन में नहीं मिलता। कितनी अमूल्यता है क्षणों की, कितनी तीव्रता है, इसकी गति में। जो न आते मालूम पड़ते हैं, न जाते। परंतु चले जाते हैं।

जो अपने एक क्षण का भी अपव्यय नहीं करते, अपितु अधिक से अधिक उसका उपयोग अर्थात समय का सदुपयोग करते हैं। यही कारण है कि, संसार का महान से महान और कठिन से कठिन कार्य भी उनके लिए सुलभ हो जाता है। अब यह आपके ऊपर है कि, इन क्षणो का आप कैसे उपयोग करते हैं?

निद्रा में या निजी कार्य पूर्ति में, विद्या में या विवाद में, मैत्री में या कलह में, रक्षा में या परपीडन में। समय की अमूल्यता की घोतक कबीर की पंक्तियां भी कितनी महान है। “काल करै सो आज करै, आज करै सो अब, पल में परलै होएगी बहुरी करैगा कब"..!!

युवा वर्ग साहित्य से मीलों दूर : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

युवा वर्ग साहित्य से दूर होता जा रहा है। इसका पहला संभावित कारण है कि साहित्य व्यावहारिक नहीं रहा। दूसरा कारण है कि युवा करियर की स्पर्धा में है तथा उनका रुझान सोशल मीडिया व इंटरनेट की ओर है। इसके अलावा अध्ययन व अध्यापन में साहित्य का घटता दायरा भी इसके लिए जिम्मेवार है। युवाओं के साहित्य से दूर होने के क्या कारण हो सकते हैं, युवाओं में साहित्य पढ़ने के लिए न तो समय, न ही रुचि है।

सोशल मीडिया में पूरी तरह व्यस्त आज का युवा साहित्य से दूर होता जा रहा है। साहित्य में उसकी रुचि कम होती जा रही है। बहुत कम ही युवा ऐसे हैं जो साहित्य में रुचि रखते हैं। दरअसल साहित्य पढ़ने के लिए उनके पास समय ही नहीं है। अगर थोड़ा-बहुत समय है भी, तो उनकी साहित्य में रुचि नहीं बन पाती है। युवा सोशल मीडिया पर इतना व्यस्त है कि उसे साहित्य पढ़ने का तो क्या, उसे पलटने तक का समय नहीं है। समाज के लिए यह चिंता का एक विषय है। साहित्य से युवा क्यों दूर होता जा रहा है।

"साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है " वर्तमान में साहित्य के, युवा वर्ग के और उससे जुड़े सरोकार के अर्थ पूरी तरह बदल गए हैं। समय बदल गया है। लेखन बदल गया है और इससे अधिक युवा पीढ़ी की सोच बदल गई है। पाठ्यक्रमों से सद्-साहित्य नदारद है। पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया है। अब हर जरूरत के लिए " गूगल पंडित" मौजूद है। शिक्षाप्रद साहित्य का स्थान मनोरंजक साहित्य ने ले लिया है।

युवा ही क्यों ? सभी आयु वर्ग के कहीं न कहीं हल्के-फुल्के मनोरंजन की तलाश में रहने लगे हैं। स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या तेजी से घट रही है। रही-सही कसर हर हाथ में उपलब्ध मोबाइल, कम्प्यूटर से दुनिया मुट्ठी में आ गई है। इस मुट्ठी में क्या "बंद" हो रहा है, यह बताने की किसी को भी जरूरत नहीं है।

दो-तीन दशक पहले पढ़ने से ज्यादा सरल और सस्ता कोई मनोरंजन नही था। चंदामामा, नंदन, चंपक कॉमिक्स आदि हमारे ज्ञानवर्धन और मनोरंजन तथा आंनद के साधन थे, किंतु अब हम बिना पठन-पाठन के ही आंनदित और अलंकृत होना चाहते हैं।

गिरावट का यह दौर हमारे समाज और राष्ट्र के नैतिक परिवर्तन का कारण बनता जा रहा है, बावजूद इसके साहित्य के क्षेत्र में अनेक नाम ऐसे हैं जो अपने लेखन से समाज को दिशा देने के लिए कटिबद्ध हैं। इनका लेखन भी नई पौध को आकर्षित कर रहा है। यह भी सही है कि अब पत्र-पत्रिकाओं का स्वरूप भी डिजिटल होता जा रहा है जिसे उपलब्धि के रूप में ही देखा जाना चाहिए। "युवा वर्ग" इसका सद् उपयोग करें, अच्छा साहित्य पढ़ें, अच्छे लेखकों से जुड़ें - यह अपेक्षा तो रहेगी ही । वर्तमान में फेसबुक को इसके लिए मैं एक सशक्त मंच के रूप में देखता हूं। युवा मित्र यदि इसका बखूबी उपयोग करें और इसमें पोस्ट लेख, कहानियां, रिपोर्ताज , व्यंग्य, कविताएं पढ़कर उस पर अपने विचार लिखें, तो इससे उनकी विचार शक्ति, शब्द् कोष तो बढ़ेगा ही, लेखन के प्रति सम्मान भी बढ़ेगा और वे भी लिख पाएंगे, अच्छा लिख पाएंगे। यही उनका साहित्य और समाज से सरोकार भी होगा।

साहित्य है क्या ? जो समाज का हित करे, वही तो साहित्य है। हम सब जानते हैं कि हमारे अंदर उमड़ते-घुमड़ते विचारों की जब तक किसी भी रूप में अभिव्यक्ति नहीं हो जाती तब तक हम तनाव और अवसाद में रहते हैं। क्रोधित भी होते हैं तो इन्ही अंदर के विचारों, आकांक्षाओं और लालसाओं को विविध तरीके से प्रकट कर तनाव मुक्त हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ लेखन के साथ भी करें। शांत और एकाग्र मन से किसी विषय पर चिंतन करें और कागज पर उसे उतार दें, हो गया लेखन। फिर यह परिष्कृत तो धीरे-धीरे बढ़ते अध्ययन से हो ही जाता है। शुरुआत तो करें। बस इतना ध्यान रखें कि आपके सकारात्मक विचार पाठकों में ऊर्जा और प्रेरणा भरेंगे इसलिए निराशा से बचें। निराशा नकारात्मकता पैदा करती है जो हमेशा सबके लिए घातक होती है।

अंत में इसी अपेक्षा के साथ युवा साहित्यिक मित्रों से कहना चाहूंगा कि वे लिखने से पहले पढ़ें जरूर। और ऐसे पढ़ें, जैसे मनोरंजन के लिए पढ़ रहे हों। धीरे-धीरे जब हम उसमें रमने लगेंगे, तो ऐसा लगेगा जैसे पढ़ने से सस्ता कोई मनोरंजन नहीं और लिखने से अच्छा कोई आंनद नहीं। एक बात और, किताबों को या डिजिटल माध्यमों को मित्र, गुरु और सलाहकार बनाइए। कहा भी गया है - कि किताबें मित्रों में सबसे अधिक शांत और स्थिर होती हैं। सलाहकारों में सबसे सुलभ और बुद्धिमान होती हैं। यही नहीं, किताबें सबसे ज्यादा धैर्यवान शिक्षक भी होती हैं। इसीलिए कहा - इन्हें मित्र, गुरु और सलाहकार बनाइए। ये आपको अवसाद और तनाव से भी मुक्त रखेंगी क्योंकि आज युवा वर्ग की यह भी एक त्रासद स्थिति है।

मेरी प्रार्थनाओं का स्पर्श तुम्हें सदा सुरक्षित रखेगा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जीवन कोई उपहास नहीं घुटन सी होती है कभी-कभी। सोचता हूँ क्या सीमाओं का बाँध ज़रूरी है? मुझे प्रतीत होता था नहीं। क्या आँखों को आँसुओं की अभिलाषा होती है? नहीं बिल्कुल नहीं पर ये आँसू आँखो में रहना चाहते हैं, शायद उनकी नमी में सपने पल रहे होते हैं।

पर जब ये नमी ह्रदय में पहुँची तो शत्रु बन गई वेदनाएं पनपने लगी बिना सोचे समझे। मेरे अपने विवेक ने भी मेरा साथ नहीं दिया सारी क्षमताएं एक सीमा पर आकर मौन होकर ठहर गई किसी अपरिचित की तरह। सच है ये पर न जाने क्यों मन इससे अपनत्व नहीं करना चाहता। संकीर्णताओं का आस-पास होना हमेशा बाधक बन जाता है, विचारों की स्पष्टता में उसके विस्तार में।

कोई नहीं सुनता भावनाओं का क्रंदन, अधिकारों पर आघात का कष्ट, यहाँ तक कि किसी को अपार पीड़ा देकर भी कोई बोझ नहीं होता जीवन पर निर्दोष होकर भी, समय की तपती लपटे झुलसने पर मजबूर कर देती है। कुछ घाव समय के साथ भी नहीं भरते लाख प्रयत्नों के बाद भी। कुछ पीड़ाएं, कुछ अनुभव सीमाओं में बाँधकर मृत कर देते हैं मनुष्य को किससे कहूँ कुछ भी।

मुझे आभास है मैं अकेला हूँ, अकेला होकर भी प्रेम की सम्पूर्णता को जीना चाहता हूँ। अपने जीवन ने ही ऐसे पाठ पढ़ाए तो तमाम किताबों से भी नहीं मिला। सम्बन्ध औपचारिकता मात्र नहीं होते उन्हे जीवित रहने के लिए,विश्वास रूपी साँसों की आवश्यकता भी होती है।सर पर हाथ होने का आभास मात्र ही जीवन जीने के लिए काफी होता है। पर एकान्तता की चीखे विचलित कर देती है मन को। परिस्थितियों से लड़कर हम जीत सकते थे, पर अब मेरे पास तो कुछ भी नही बचा कुछ भी नहीं। न सुकून, न खुशी न कोई आशा कुछ भी नहीं। शायद यही नियती थी या फिर मेरा भाग्य। जो कुछ भी हो नहीं पता पर हाँ...
मेरी प्राथनाओं का स्पर्श तुम्हें सदा सुरक्षित रखेगा, दूर नहीं रह सकता तुम्हारे ह्रदय से। दूर होकर भी साथ रहूंगा पर हां तुम्हें आभास भी न होगा।।

गुरुकुल शिक्षा ही हमारी पहचान : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

वैदिक ऋषियों ने अज्ञान को नष्ट करने वाले ब्रह्म रूपी प्रकाश को गुरु की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं, तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नम: कह कर भारतीय मनीषा ने जिस गुरु तत्व की अभ्यर्थना की है, वह अपने आप में अनूठी है। हमारी सनातन संस्कृति में गुरु को महज व्यक्ति नहीं ऐसी मार्गदर्शक सत्ता माना गया है जो भ्रम व अज्ञान के सभी आवरण हटाकर शिष्य के अन्तस को आत्मज्ञान की ज्योति से आलोकित कर देता है। इसी चिर पुरातन गुरु-शिष्य परम्परा के कारण प्राचीन काल में हमारा भारत आत्मविद्या के शीर्ष पर था। संस्कृति के पुण्य प्रवाह में हमारी आध्यात्मिक धरा के तप:पूत आचार्यों के आत्मज्ञान की प्रखर ऊर्जा ने समूचे राष्ट्रजीवन को प्रकाशमान किया था तथा अपने सुपात्र शिष्यों के माध्यम से इस दिव्य आत्मविद्या के सतत प्रवाहमान बने रहने की व्यवस्था भी सुनिश्चित की थी। शाश्वत जीवन मूल्यों और सुसंस्कारों के सतत बीजारोपण की इस अमूल्य परम्परा ने हमारे भारत को दुनिया का सर्वाधिक महान राष्ट्र और विश्वगुरु बनाया था।

भारत की गुरु-शिष्य परम्परा की महत्ता को उजागर करता पाश्चात्य दार्शनिक शोपेनहॉवर का यह कथन वाकई काबिलेगौर है कि विश्व में यदि कभी कोई सर्वाधिक प्रभावशाली व सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति आई है तो वह केवल उपनिषदों की भूमि-भारत से। जिज्ञासु शिष्यों ने ज्ञानी गुरु के समीप बैठकर उनके प्रतिपादनों को क्रमबद्ध कर उपनिषदों के रूप में दुनिया को जो दिव्य धरोहर दी है, उसका कोई सानी नहीं है। शोपेनहॉवर का कहना था, ‘यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सी वह भूमि है, जहां के मानव ने अपने हृदय में दैवीय गुणों का पूर्ण विकास किया तो मेरी उंगली भारत की ओर ही उठेगी। यदि मैं स्वयं से पूछूं कि वह कौन सा साहित्य है जिससे अब तक ग्रीक, रोमन व यहूदी विचारों में पलते आये यूरोपवासी प्रेरणा ले सकते हैं तो मेरी उंगली केवल भारत की ओर ही उठेगी।’

विश्वमंच से भारत की पुरातन ज्ञान सम्पदा का गौरवगान करने वाले स्वामी विवेकानंद का कहना था, हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी इस भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसके महान गुरुओं ने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है। समय की प्रचण्ड धाराओं में जहां यूनान, रोम, सीरीया, बेबीलोन जैसी तमाम प्राचीन संस्कृतियां बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं, वहीं एकमात्र हमारी भारतीय संस्कृति इन प्रवाहों के समक्ष चट्टान के समान अविचल बनी रही क्योंकि हमें हमारी आत्मज्ञान सम्पन्न दिव्य-विभूतियों का सशक्त मार्गदर्शन सतत मिलता रहा।

भारत की गुरु-शिष्य परंपरा की प्रासंगिकता के बारे में गायत्री महाविद्या के महामनीषी युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य बेहद तर्कपूर्ण बात कहते हैं, गुरु-शिष्य परम्परा यानी आत्मज्ञान की पूंजी को आने वाली पीढिय़ों तक पहुंचाने का दिव्य सोपान। प्राचीनकाल में जब किसी आत्मज्ञान के जिज्ञासु साधक के अंतस में अन्र्तप्रज्ञा जाग्रत होती थी तो वह किसी ऐसे सुपात्र को खोजता था जिसे उस आत्मज्ञान को हस्तांतरित कर सके। भारत में यह सिलसिला बिना किसी बाधा के सदियों तक लगातार चलता रहा। पौराणिक युग में परशुराम, कणाद, वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, सांदीपनि, व्यास, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अगत्स्य आदि ऋषि महर्षियों की सुदीर्घ श्रंखला ने हमारे देश को ऐसे-ऐसे नररत्न दिये, जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। वन प्रांतों के शांत, शुद्ध व यज्ञधूम्र से पवित्र गुरुकुलों में तत्वदर्शी गुरु अपने अंतर्ज्ञान को अटूट विश्वास, पूर्ण समर्पण और गहरी घनिष्ठता के माहौल में अपने शिष्यों तक पहुंचाते थे।

भारत सदा से विद्या का उपासक रहा है। शास्त्रज्ञ कहते हैं- सा विद्या या विमुक्तये अर्थात सच्ची विद्या वह है जो हमारे अन्तस से प्रभुत्व को मिटाकर देवत्व की भावना जाग्रत करती है, हमें जीवन का सत्य स्वरूप और सन्मार्ग दिखाती है। पश्चिमी चिंतन में गुरु का कोई महत्व नहीं है, इसीलिए वे लोग शिक्षा व विद्या का भेद नहीं जानते।

भारत का जीवन-दर्शन रहा है शिक्षा-विद्या, भोग योग, भौतिकता आध्यात्मिकता, शरीर-आत्मा, प्रकृति परमात्मा आदि का सन्तुलन एवं समन्वय। हम भारतीय अज्ञान के नहीं, ज्ञान के उपासक रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। पश्चिमी जगत मनुष्य का आकलन इस बात से करता है कि तुम्हारे पास क्या है! क्योंकि उनका जीवन दर्शन भोगप्रधान है। जबकि भारतीय चिंतन में व्यक्ति को इस तराजू पर तौला जाता है कि तुम क्या हो! क्योंकि हमारा भारतीय दर्शन आत्मप्रधान है। एक समय हमारी देवभूमि की इसी ज्ञान-संपदा ने विश्व को दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भारतीय समाज में बेकारी की समस्या नहीं थी। भारतीय समाज में कर्म के अनुसार जातियां तो थीं पर जातिवाद नहीं था। दो शताब्दियों की गुलामी ने हमें पाश्चात्य सोच का गुलाम बना दिया। यदि इस दृश्य को बदलना है तो हमें गुरु शिष्य परम्परा को पुनर्जीवित करना ही होगा।