अपराध और दंड (रूसी उपन्यास) : फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की - अनुवाद : नरेश नदीम

Crime and Punishment (Russian Novel in Hindi) : Fyodor Dostoevsky

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 1)

शुरू जुलाई का एक दिन, शाम का समय जब उमसभरी गर्मी पड़ रही थी, एक नौजवान अपनी दुछत्ती में से निकला, जिसमें वह गली स. में रहता था। पुल क. की ओर वह इस तरह धीरे-धीरे बढ़ा जैसे उसे कोई संकोच हो रहा हो।

सीढ़ियों पर मकान-मालकिन से मुठभेड़ नहीं हुई। इससे वह साफ बच कर निकल आया था। उसकी दुछत्ती एक पाँच-मंजिला, ऊँचे मकान की एकदम ऊपरवाली छत के नीचे थी। कमरा क्या था, गोया एक अलमारी थी। मकान-मालकिन, जिसने उसे यह दुछत्ती दे रखी थी, उसके ठीक नीचेवाली मंजिल पर रहती थी। वही उसे दोपहर का खाना देती थी। उसे कुछ और भी सुविधाएँ देती थी, लेकिन जब भी वह बाहर जाता था, उसे उसकी रसोई के सामने से हो कर जाना पड़ता था, जिसका दरवाजा हमेशा खुला रहता था। और उधर से गुजरते हुए हर बार उस नौजवान को झिझक भी होती थी और डर भी लगता था, जिसकी वजह से उसकी त्योरियों पर शिकन पड़ जाती थी और शर्म महसूस होती थी। उसके ऊपर मकान-मालकिन का इतना किराया बाकी चढ़ा हुआ था कि वह उससे मिलते डरता था।

इसकी वजह यह नहीं थी कि वह कायर और दब्बू था। बात बल्कि उल्टी ही थी। पर इधर कुछ समय से उसके दिमाग पर कुछ ज्यादा ही बोझ रहा और वह इतना चिड़चिड़ा हो गया था कि उसे अपने बीमार होने का भ्रम होने लगा था। वह अपने आपमें इस कदर खोया रहने लगा था और अपने साथियों से इस कदर कट चुका था कि उसे मकान-मालकिन से ही नहीं, किसी से भी मिलते हुए डर लगता था। गरीबी ने उसे बिलकुल कुचल कर रख दिया था। तो भी इधर कुछ समय से उसे अपनी हालत पर कोई चिंता नहीं रह गई थी। उसने रोजमर्रा की बातों की ओर ध्यान देना छोड़ दिया था; इसमें उसकी कोई इच्छा भी नहीं रह गई थी। वह मकान-मालकिन से, जो उसके खिलाफ कुछ भी कर सकती थी, कतई डरता नहीं था। लेकिन सीढ़ियों पर रोका जाना, उसकी छोटी-मोटी, बेसर-पैर की गप, पैसों की अदायगी के तकाजे, धमकियाँ और शिकायतें सुनने की मजबूरी और बहाने खोजने के लिए अपने दिमाग पर जोर देना, टालमटोल, झूठ बोलना-नहीं, इससे अच्छा तो वह यही समझता था कि दबे पाँव सीढ़ियों से नीचे खिसक जाए और किसी के देखे बिना वहाँ से चलता बने।

लेकिन इस बार जब वह बाहर निकला तो उसे अपनी मकान-मालकिन से सामना होने के डर का गहरा एहसास हुआ।

'मैं ऐसा काम करने की कोशिश करना चाहता हूँ और फिर भी छोटी-छोटी बातों से डरता हूँ,' उसने एक अजीब-सी मुस्कराहट के साथ सोचा। 'हुँह! ...सब कुछ होता आदमी के अपने हाथ में है और फिर भी वह बुजदिली की वजह से सब कुछ गँवा देता है। यह तो एक मानी हुई बात है। यह जानना भी कितना दिलचस्प होता है कि आदमी किस चीज से सबसे ज्यादा डरता है। सबसे ज्यादा वह डरता है कुछ नया करने से, कोई नई बात कहने से... लेकिन मैं बकबक बहुत करता हूँ और बकबक बहुत करता हूँ, इसीलिए कुछ करता नहीं। या शायद ऐसा न हो कि कुछ करता नहीं, इसलिए बकबक करता हूँ। यूँ बकबक करना मैंने इधर एक महीने में ही सीखा है... अपनी माँद में कई-कई दिन पड़े रह कर सोचते हुए... तमाम बकवास चीजों के बारे में। मैं इस वक्त वहाँ जा क्यों रहा हूँ मैं क्या वह काम कर पाऊँगा क्या मैं संजीदा भी हूँ यह तो महज अपना दिल बहलाने के लिए मेरी कोरी कल्पनाएँ हैं; खिलौने! हाँ शायद ये खिलौने ही हों।'

सड़क पर बेपनाह गर्मी थी। फिर यह दमघोंटू हवा, शोर-गुल और पलस्तर, पाड़, ईंटें, धूल और पीतर्सबर्ग की वह खास गर्मी वाली बदबू, जिससे वे सभी लोग अच्छी तरह परिचित हैं, जो गर्मियों में वहाँ से कहीं बाहर नहीं निकल पाते। इन सब चीजों ने उस नौजवान के मानसिक तनाव को और भी असहनीय बना दिया था। उन शराबखानों से आनेवाली असहनीय दुर्गंध ने, जिनकी संख्या शहर के इस हिस्से में औरों से कहीं ज्यादा ही थी, और नशे में चूर उन लोगों ने, जो उसे लगातार आते-जाते मिल रहे थे, बावजूद इसके आज काम का दिन था, इस तस्वीर के दुखद घिनौनेपन की रही-सही कमी भी पूरी कर दी थी। उस नौजवान के सुसंस्कृत चेहरे पर एक पल के लिए बेहद गहरी विरक्ति की झलक नजर आई। लगे हाथ हम यह बता दें कि वह बेहद खूबसूरत था। औसत से अधिक लंबा कद, गठा हुआ छरहरा बदन, सुंदर काली आँखें और गहरे सुनहरे बाल। जल्द ही वह गहरे विचारों में डूब गया, बल्कि यह कहना कहीं ज्यादा सही होगा कि उसका दिमाग किसी भी तरह के विचार से बिलकुल खाली था। यह देखे बिना कि उसके चारों ओर क्या हो रहा है, वह चलता रहता और उसे वह सब देखने की कोई फिक्र भी नहीं थी। अपने आपसे बातें करने की आदत की वजह से, जिसे उसने अभी-अभी अपने आपसे स्वीकार किया था, वह बीच-बीच में कुछ बुदबुदाने लगता था। इन पलों में उसे इस बात का एहसास होने लगता था कि उसके विचार कभी-कभी उलझ जाते थे। वह बहुत कमजोर हो चुका था; दो दिन से उसने शायद ही कुछ खाया होगा।

वह इतने गंदे कपड़े पहने था कि जिस आदमी को मैले-कुचैले रहने की आदत हो, उसे भी ऐसे चीथड़े पहन कर सड़क पर निकलने में शर्म आए। लेकिन शहर के उस हिस्से में कपड़ों की किसी भी कमी पर शायद ही किसी को हैरानी होती होगी। भूसामंडी की नजदीकी, बदनाम अड्डों की बहुतायत, और पीतर्सबर्ग के बीचोंबीच की इन सड़कों पर और इन गलियों में कारीगरों और दस्तकारों की धक्का-मुक्की की वजह से सड़कों पर ऐसे तरह-तरह के लोग दिखाई देते थे कि कोई आदमी कितना ही अजीब क्यों न हो, उस पर किसी को हैरानी नहीं होती थी। लेकिन नौजवान के दिल में इतनी तल्खी और इतनी धुतकार भरी थी कि उसे सड़क पर अपने फटे-पुराने कपड़ों की वजह से, नौजवानी की तमाम नाजुकमिजाजी के बावजूद, उलझन तो नहीं ही हो रही थी। जब किसी जान-पहचान के आदमी से या अपने किसी पिछले यार से उसकी मुलाकात हो जाती, जिससे मिलना उसे दरअसल किसी वक्त भी अच्छा नहीं लगता, तो बात दूसरी होती... फिर भी जब शराब के नशे में चूर एक आदमी, जिसे न जाने क्यों एक बड़ी-सी और एक तगड़े घोड़े से खींची जा रही गाड़ी में कहीं ले जाया जा रहा था, अचानक उसके पास से गुजरते समय उसकी ओर उँगली उठा कर और अपने गले का पूरा जोर लगा कर चिल्लाया 'अरे ओ, जर्मन हैटवाले!' तो वह नौजवान ठिठक गया। काँपते हुए हाथ से उसने अपनी हैट पकड़ ली। यह जिमरमान की बनी हुई ऊँची-सी गोल हैट थी, लेकिन बिलकुल घिस चुकी थी, इतनी पुरानी थी कि लगता था उसमें जंग लगी हो, बिलकुल फट गई थी और उस पर जगह-जगह मैल के चकते दिखाई पड़ रहे थे। उसकी कगार एक सिरे से गायब थी और वह एक तरफ बहुत बेढंगी झुकी हुई थी। लेकिन शर्म ने नहीं बल्कि एक बिलकुल ही दूसरी भावना ने, जो भय से मिलती-जुलती थी, उसे आ दबोचा।

'मैं जानता था,' वह बुदबुदाया। 'पहले ही सोचा था मैंने! सबसे बुरी बात यही है! ऐसी ही जरा-सी नादानी से, इतनी छोटी-सी बात से बना-बनाया सारा खेल बिगड़ सकता है! देखा न, सभी का ध्यान मेरी हैट की ओर जा रहा है... यह देखने में लगता ही इतना बेतुका है कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर जाए... अपने इन चीथड़ों पर मुझे पहननी चाहिए टोपी, किसी भी किस्म की पुरानी, चपटी, नान जैसी टोपी, न कि यह बेहूदा चीज। ऐसा हैट तो किसी को भी नहीं पहनना चाहिए। जो मील भर दूर से नजर आए, जो याद रहे... असल बात यह है कि यह लोगों को याद रहेगी, और इससे उन्हें सुराग भी मिलेगा। इस काम के लिए तो होना यह चाहिए कि आदमी नजर में जितना आए, उतना ही अच्छा... यही छोटी-छोटी बातें तो असल चीज होती हैं! ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से हमेशा सब कुछ तबाह होता है...'

उसे बहुत दूर नहीं जाना था; उसे बल्कि यह भी पता था कि उस मकान के दरवाजे से वह जगह कितने कदम की दूरी पर है। ठीक सात सौ तीस। एक बार जब वह अपने खयालों में खोया हुआ था, तब उसने ये कदम गिने भी थे। उस समय उसे इन सपनों पर कोई भरोसा नहीं था; वह तो उनकी भयानक और मनमोहक ढिठाई से बस अपने मन को उकसा रहा था। अब, एक महीने बाद, वह उन्हें बिलकुल दूसरे ढंग से देखने लगा था, और अपने आपसे, अपनी दुर्बलता और ढुलमुलपन के बारे में की गई बहुत-सी कड़वाहट भरी बातों के बावजूद उस सपने को एक व्यावहारिक योजना समझने लगा था, हालाँकि उसे अभी तक भरोसा नहीं था कि वह कभी इस काम को पूरा कर पाएगा। अब वह निश्चित रूप से इस योजना के रिहर्सल के लिए जा रहा था, और हर कदम के साथ उसका जोश अधिक तेज होता जा रहा था।

जब वह उस बड़े से मकान के पास पहुँचा, जिसके सामने एक ओर नहर थी और दूसरी ओर सड़क, तो उसका दिल डूब रहा था। वह घबराहट के मारे काँप रहा था। इस घर के छोटे-छोटे हिस्से किराए पर उठा दिए गए थे और उनमें हर तरह के मेहनत-मजदूरी करनेवाले लोग बसे हुए थे - दर्जी, ताले बनानेवाले, बावर्ची, कुछ जर्मन मूल के लोग, जिस तरह भी बने अपनी रोजी कमानेवाली लड़कियाँ, छोटे-मोटे किरानी, वगैरह। घर के दोनों दरवाजों से और उसके दोनों दालानों में लगातार आवाजाही रहती थी। तीन-चार दरबान भी पहरा देने के लिए थे। नौजवान बहुत खुश था कि उनमें से किसी से भी उसकी मुठभेड़ नहीं हुई। सबकी नजरें बचा कर वह फौरन दाहिनी तरफवाले दरवाजे में घुसा और ऊपर सीढ़ियों पर चला गया। यह पीछेवाली सीढ़ी थी, अँधेरी और सँकरी। वह उससे परिचित हो चुका था, और उसे अपना रास्ता मालूम भी था। उसे यहाँ का पूरा-का-पूरा वातावरण अच्छा लगा। ऐसे अँधेरे में तो खोजी से खोजी नजर से भी डरने की कोई आवश्यकता न थी। 'अगर मुझे अभी इतना डर लग रहा है, तो तब भला क्या होगा जब मान लो मैं सचमुच वह काम करने पर उतर आया' चौथी मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते वह अपने आपसे यह सवाल किए बिना न रह सका। यहाँ पर कुछ कुलियों ने उसका रास्ता रोका हुआ था, जो एक फ्लैट से सामान बाहर निकाल रहे थे। वह जानता था कि उस फ्लैट में सरकारी नौकरी से लगा एक जर्मन क्लर्क और उसका परिवार रहता था। 'तो यह जर्मन यहाँ से जा रहा है; अब इस सीढ़ी की तरफ से चौथी मंजिल पर उस बुढ़िया के अलावा कोई नहीं रह जाएगा। खूब, यह भी अच्छी बात है,' उसने बुढ़िया के फ्लैट की घंटी बजाते हुए अपने मन में सोचा। घंटी में फुसफुसी-सी टनटनाहट हुई, गोया वह ताँबे नहीं, टीन की बनी हो। इस तरह के छोटे-छोटे फ्लैटों की घंटियाँ हमेशा इसी तरह की आवाज करती हैं। वह उस घंटी की आवाज भूल चुका था। सो उसकी अजीब-सी टनटनाहट सुन कर अब उसे ऐसा लगा जैसे उसे कोई चीज याद आ गई हो और वही चीज साफ तौर पर उसके सामने आ गई हो। ...वह चौंका। उसकी रग-रग में बेहद तनाव पैदा हो चुका था। थोड़ी ही देर बाद दरवाजा जरा-सा खुला। बुढ़िया ने दरार में से अजनबी को स्पष्ट अविश्वास के साथ देखा, अँधेरे में उसकी चमकती हुई, छोटी-छोटी आँखों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन गलियारे में बहुत-से लोगों को देख कर उसका साहस बढ़ा और उसने दरवाजा पूरा खोल दिया। नौजवान ने अँधेरी ड्योढ़ी में कदम रखा, जिसे एक पर्दा लगा कर छोटी-सी रसोई से अलग कर दिया गया था। बुढ़िया उसके सामने चुप खड़ी थी और उसे सवालिया नजरों से देख रही थी। वह बहुत छोटे-से दुबले-पतले, सूखे शरीर की साठसाला बूढ़ी औरत थी। उसकी तीखी नजरों में कीना भरा हुआ था, और नाक बहुत छोटी-सी और नुकीली थी। बेरंग कुछ-कुछ भूरे बालों में ढेरों तेल चुपड़ा हुआ था, और वह अपने सिर पर रूमाल भी नहीं बाँधे हुए थी। लंबी पतली गर्दन के चारों ओर, जो देखने में मुर्गी की टाँग जैसी लगती थी, फलालैन का एक चीथड़ा-सा लिपटा हुआ था, और गर्मी के बावजूद कंधों पर फर का एक सड़ियल लबादा झूल रहा था, जो बहुत पुराना होने के कारण पीला पड़ चुका था। बुढ़िया हर साँस के साथ खाँसती और कराहती थी। नौजवान ने उसे कुछ अजीब से ही भाव से देखा होगा क्योंकि उसकी आँखों में फिर अविश्वास की चमक पैदा हो गई थी।

'मैं रस्कोलनिकोव हूँ; पढ़ता हूँ, यहाँ मैं एक महीना पहले ही आया था,' नौजवान जल्दी-जल्दी बुदबुदाया, फिर थोड़ा-सा झुका। उसे खयाल आ गया था कि उसे कुछ अधिक शिष्टता बरतनी चाहिए।

'मुझे याद है, जनाब, मुझे आपका यहाँ आना अच्छी तरह याद है,' बुढ़िया ने एक-एक शब्द का साफ उच्चारण करते हुए कहा। वह अपनी खोजी नजरें अभी तक उसके चेहरे पर जमाए हुए थी।

'और अब... अब मैं फिर उसी काम से आया हूँ,' रस्कोलनिकोव ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा। बुढ़िया का अविश्वास देख कर वह कुछ बेचैन हो उठा था और उसे कुछ उलझन हो रही थी।

'शायद वह हमेशा ऐसी ही रहती हो, मैंने पिछली बार गौर नहीं किया होगा,' उसने एक चिढ़भरी बेजारी से सोचा।

बुढ़िया कुछ देर रुकी, जैसे उसे संकोच हो रहा हो, फिर एक ओर हट कर, कमरे के दरवाजे की ओर इशारा करते हुए, मेहमान को अपने सामने से हो कर गुजरने का मौका देते हुए बोली, 'अंदर आइए, जनाब।'

उस छोटे-से कमरे में, जिसमें नौजवान ने कदम रखा, दीवारों पर पीला कागज मढ़ा हुआ था, खिड़कियों पर मलमल के पर्दे पड़े थे और जेरेनियम के फूल रखे हुए थे। डूबते हुए सूरज की वजह से उस समय वहाँ काफी रौशनी थी।

'तो उस समय भी सूरज चमक रहा होगा।' रस्कोलनिकोव के दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा और उसने तेजी से नजरें दौड़ा कर कमरे की हर चीज को एक बार देखा। जहाँ तक हो सका, उसकी कोशिश यही थी कि हर चीज की जगह को अच्छी तरह देख कर याद कर ले। सारा ही फर्नीचर बहुत पुराना, किसी पीली-सी लकड़ी का था। उसमें एक सोफा था जिसकी पीछे की बड़ी-सी लकड़ी की टेक कुछ झुकी हुई थी; उसके सामने एक अंडाकार मेज थी; खिड़कियों के बीच एक सिंगार-मेज थी, जिस पर आईना लगा हुआ था; दीवार से कुर्सियाँ लगी हुई रखी थीं, पीले रंग के फ्रेमों में दो-तीन बहुत सस्ती किस्म की तस्वीरें थीं, जिनमें जर्मन सुंदरियाँ हाथों में चिड़ियाँ लिए खड़ी थीं। बस, और कुछ नहीं। कोने में एक छोटी-सी मूरत के सामने रौशनी जल रही थी। हर चीज बहुत साफ-सुथरी थी। फर्श और फर्नीचर पर चमकदार पालिश थी; हर चीज दमक रही थी। 'यह सब काम लिजावेता का होगा,' नौजवान ने सोचा। पूरे फ्लैट में धूल का एक कण भी कहीं नहीं था। 'ऐसी सफाई तो सबसे चिढ़नेवाली बूढ़ी विधवाओं के घरों में ही देखने को मिलती है,' रस्कोलनिकोव ने फिर सोचा, और नजरें बचा कर दूसरे, छोटे-से कमरे में जानेवाले दरवाजे पर पड़े सूती पर्दे को देखा। उस कमरे में बुढ़िया का पलँग था और दराजोंवाली अलमारी थी। उसने इससे पहले उस कमरे पर कभी नजर नहीं डाली थी। पूरे फ्लैट में बस यही दो कमरे थे।

'क्या चाहिए?' बुढ़िया ने कमरे में आते हुए कठोर स्वर में कहा। वह पहले की तरह ही ठीक उसके सामने खड़ी हो गई ताकि सीधे उसकी नजरों में नजरें डाल कर देख सके।

'मैं कुछ गिरवी रखने लाया हूँ,' और यह कह कर उसने अपनी जेब से पुराने ढंग की, चाँदी की एक चपटी-सी घड़ी निकाली, जिसके पीछे दुनिया का गोल नक्शा खुदा हुआ था। घड़ी की जंजीर फौलाद की थी।

'लेकिन पिछली गिरवी की मीयाद पूरी हो चुकी। परसों एक महीना पूरा हो गया।'

'मैं आपको एक महीने का सूद और दे दूँगा। बस थोड़ी-सी मोहलत और दीजिए।'

'वो तो मैं वही करूँगी जनाब, जो मेरा जी चाहेगा, कि मोहलत दूँ या फौरन आपकी गिरवी रखी चीज बेच दूँ।'

'आप मुझे इस घड़ी का कितना देंगी अल्योना इवानोव्ना?'

'आप ऐसी छोटी-छोटी चीजें ले कर आते हैं जनाब कि कोई उनकी कीमत लगाए भी तो क्या लगाए। मैंने पिछली बार आपको आपकी अँगूठी के दो रूबल दिए थे और जौहरी की दुकान में वैसी ही बिलकुल नई अँगूठी डेढ़ रूबल में मिल सकती है।'

'आप मुझे इसके चार रूबल दे दीजिए। मैं इसे जरूर छुड़ा लूँगा क्योंकि यह मेरे बाप की थी। जल्द ही मुझे कुछ पैसा मिलनेवाला है।'

'डेढ़ रूबल, और सूद पेशगी। अगर आपका जी चाहे!'

'डेढ़ रूबल!' नौजवान चीख पड़ा।

'आपकी मर्जी,' यह कह कर बुढ़िया ने घड़ी उसे वापस कर दी। नौजवान ने घड़ी वापस ले ली। उसे इतना गुस्सा आ रहा था कि वह वहाँ से उठ कर शायद चला भी जाता। पर उसने फौरन अपने आपको रोका। उसे याद आया कि उसके पास जाने के लिए कोई और जगह नहीं थी, और फिर यहाँ आने के पीछे उसका एक और मकसद भी तो था।

'लाइए, दीजिए,' उसने बड़े कड़ेपन से कहा।

बुढ़िया ने अपनी जेब में चाभियाँ टटोलीं, और पर्दे के पीछे जा कर दूसरे कमरे में गायब हो गई। नौजवान कमरे के बीचोंबीच अकेला रह गया। वह बड़ी जिज्ञासा से कान लगा कर सुनने लगा, और कुछ सोचता रहा। दराजोंवाली अलमारी का ताला खुलने की आवाज उसे सुनाई पड़ी। 'सबसे ऊपरवाली दराज होगी,' उसने सोचा। 'तो चाभियाँ वह अपनी दाहिनी जेब में रखती है... सारी की सारी एक गुच्छे में, लोहे के छल्ले में पिरोई हुई... और उनमें एक चाभी बाकी से तीन गुनी बड़ी है, गहरे खाँचोंवाली। वह तो दराजोंवाली अलमारी की चाभी हो नहीं सकती... यानी कि कोई दूसरा बड़ा संदूक भी होगा या तिजोरी होगी... यह बात जाननी ही होगी। तिजोरी की चाभियाँ हमेशा ऐसी ही होती हैं... लेकिन यह सब कितना बड़ा कमीनापन है...'

बुढ़िया वापस आई।

'यह लीजिए साहब। जैसा कि हम लोगों में कहा जाता है, रूबल पीछे दस कोपेक महीना, इसलिए मैं डेढ़ रूबल में से एक महीने के पंद्रह कोपेक पेशगी काट रही हूँ। लेकिन जो दो रूबल मैंने आपको पहले दिए थे, उनके भी इस हिसाब से मेरे बीस कोपेक आपके जिम्मे पेशगी के निकलते हैं। इस तरह कुल मिला कर हुए पैंतीस कोपेक। अब मुझे आपको घड़ी के एक रूबल पंद्रह कोपेक देने हैं। सो ये रहे।'

'क्या कहा! कुल एक रूबल और पंद्रह कोपेक!'

'जी हाँ।'

नौजवान ने रकम कोई बहस किए बिना ले ली। उसने बुढ़िया को गौर से देखा। उसे वहाँ से जाने की कोई जल्दी नहीं थी, गोया वह अभी कुछ और कहना या करना चहता हो, लेकिन उसे खुद ठीक से पता न हो कि वह क्या कहना या करना चाहता है।

'एक-दो दिन में शायद मैं आपके पास कोई और चीज ले कर आऊँ अल्योना इवानोव्ना... कीमती चीज... चाँदी की... सिगरेट-केस, जैसे ही वह मुझे अपने दोस्त से वापस मिल जाएगा...' - उसने बौखला कर, अटकते हुए कहा।

'खैर, उसकी बात उसी वक्त होगी जनाब।'

'अच्छा, चलता हूँ... आप घर पर हमेशा अकेली रहती हैं, आपकी बहन यहाँ नहीं रहती क्या?' उसने ड्योढ़ी में निकलते हुए, जहाँ तक हो सका इस तरह पूछा जैसे कोई खास बात न हो।

'उससे आपको क्या लेना-देना?'

'नहीं, कोई खास बात नहीं, मैंने तो यों ही पूछा। आप तो बहुत जल्दी... अच्छा चलता हूँ, अल्योना इवानोव्ना।'

रस्कोलनिकोव बौखलाया हुआ, बाहर चला आया। उसकी यह बौखलाहट लगातार और गहराती गई, सीढ़ियाँ उतरते हुए वह बीच में दो-तीन बार ठिठका, गोया, अचानक उसे कुछ खयाल आ गया हो। जब वह बाहर सड़क पर निकल आया तो वह चिल्ला उठा :

'हे भगवान, यह सब कितनी घिनौनी बात है! और क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ, क्या यह मेरे लिए मुमकिन है... नहीं, यह सब बकवास है, सरासर बकवास है!' उसने जी कड़ा करके कहा। 'ऐसी बेहूदा बात मेरे दिमाग में आई कैसे? मेरा दिल भी कैसी गंदी-गंदी बातें सोचता है! सरासर गंदी, ऐसी कि नफरत होने लगे, घिनौनी, घिनौनी! ...और पूरे एक महीने से मैं...'

उसके अंदर जो तूफान उठ रहा था, उसे कोई भी शब्द, कोई भी चीख व्यक्त नहीं कर सकती थी। बुढ़िया के घर जाते समय नफरत की जिस भावना ने उसके दिल को लताड़ना और तकलीफें देना शुरू किया था, वह अब ऐसी सतह तक पहुँच गई और उसने ऐसा स्पष्ट रूप ले लिया कि उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने आपको इस मुसीबत से छुटकारा दिलाने के लिए वह क्या करे। वह शराब के नशे में चूर किसी शख्स की तरह सड़क की पटरी पर चला जा रहा था; उसे कोई खबर न थी कि कौन उसके पास से हो कर निकला और कौन उससे टकराता हुआ आगे बढ़ गया। उसे तब जा कर होश आया जब वह अगली सड़क पर पहुँच चुका था। उसने चारों ओर नजर दौड़ा कर देखा। मालूम हुआ कि वह एक शराबखाने के पास खड़ा हुआ है जिसमें जाने के लिए सड़क की पटरी से तहखाने तक सीढ़ियाँ चली गई थीं। उसी समय दो शराबी बाहर निकल कर दरवाजे पर आए और एक-दूसरे को गालियाँ बकते हुए एक-दूसरे को सहारा देते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। रुक कर कुछ सोचे बिना रस्कोलनिकोव फौरन सीढ़ियों से नीचे उतर गया। उस समय तक वह कभी किसी शराबखाने में नहीं गया था, लेकिन इस समय उसका सर चकरा रहा था और प्यास के मारे उसका गला सूखा जा रहा था। ठंडी बियर पीने को उसका जी बहुत चाह रहा था; उसने सोचा कि उसकी कमजोरी खाने की कमी की वजह से है। वह अँधेरे और गंदे कोने में छोटी-सी चिपचिपी मेज के सामने जा कर बैठ गया, बियर मँगाई और पहला गिलास एक साँस में गटक गया। फौरन उसे कुछ राहत मिली और वह साफ-साफ सोचने लगा।

'बकवास है वह सब कुछ,' उसने आशापूर्वक कहा, 'इस सबमें चिंता की कोई बात नहीं! यह बस शरीर की कमजोरी के सबब है! बस एक गिलास बियर, सूखी रोटी का एक टुकड़ा और एक पल में दिमाग में ताकत आ गई, खयाल पहले से ज्यादा साफ हो गए, और इरादा पक्का हो गया! छिः, ये सब कैसी टुच्ची बातें हैं!'

लेकिन इस सारे तिरस्कार भरे उद्गारों के बावजूद वह अब खुश दिखाई दे रहा था, गोया किसी भयानक बोझ से अचानक उसे छुटकारा मिल गया हो। बड़ी मित्रता के भाव से उसने कमरे में बैठे लोगों पर नजर डाली। लेकिन उस पल भी उसके मन में धुँधली-सी आशंका बनी हुई थी कि शायद उसके दिमाग की यह अधिक सुखमय स्थिति भी सामान्य तो नहीं ही है।

शराबखाने में उस समय बहुत थोड़े-से लोग थे। उन दो शराबियों के अलावा, जो उसे सीढ़ियों पर मिले थे, एक और टोली उसी वक्त बाहर गई थी, जिसमें अकार्दियन लिए पाँच आदमी थे और एक लड़की थी। उनके जाते ही कमरे में शांति छा गई थी और वह कुछ खाली-खाली लगने लगा था। जो लोग शराबखाने में रह गए थे उनमें एक आदमी था जो देखने से दस्तकार लगता था। उसने शराब जरूर पी रखी थी, लेकिन हद से कुछ ज्यादा भी नहीं। वह सामने एक बड़ा-सा बियर का मग रखे बैठा था। साथ में लंबे-चौड़े डीलडौलवाला, सफेद दाढ़ीवाला एक तगड़ा-सा आदमी था, जिसने एक छोटा-सा चुन्नटदार कोट पहन रखा था। वह बहुत पिए हुए था और बेंच पर ही सो गया था; थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह गोया सोते-सोते ही अपनी उँगलियाँ चटकाने लगता था। उसकी बाँहें पूरी फैली हुई थीं और जब वह कोई बेसर-पैर की धुन गुनगुनाने की कोशिश करता तो धड़ बेंच पर इधर-उधर हिलने-डुलने लगता था। वह कुछ इस तरह की पंक्तियाँ याद करने की कोशिश कर रहा था :

दिल से प्यार किया बीवी को पूरा-पूरा साल,

पूरा साल किया बीवी को दिल से मैंने प्यार...

फिर अचानक जाग कर वह गाने लगा,

फिर इक दिन वह राह में चलते मिली मुझे इक बार

वही पुरानी जाने-मन, जो कभी थी मेरी नार...

लेकिन इस मस्ती में कोई उसका साथ नहीं दे रहा था। उसका साथी खामोश, इन सब उद्गारों को विरोध और अविश्वास के भाव से देख रहा था। कमरे में एक और आदमी था जो देखने में मानो एक रिटायर्ड सरकारी क्लर्क लगता था। वह सबसे अलग बैठा, बीच-बीच में अपने मग में से एक चुस्की लगा लेता था और एक नजर वहाँ बैठे लोगों पर डाल लेता था। ऐसा लगता था कि वह भी किसी बात पर तिलमिलाया हुआ है।

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 2)

रस्कोलनिकोव भीड़ का आदी नहीं था और जैसा कि हम कह चुके हैं, वह हर तरह की संगत से कतराता था, खास तौर पर इधर कुछ समय से। लेकिन इस वक्त अचानक उसे दूसरे लोगों की संगत की इच्छा हुई। लगता था उसके अंदर कोई नई बात पैदा हो रही है, और उसके साथ ही उसमें किसी के साथ होने की प्यास-सी जाग रही है। घोर उलझनों और उदासी भरी बेचैनी में पूरे एक महीने फँसे रहने के बाद वह इतना थक गया था कि वह किसी दूसरी दुनिया में चाहे कोई भी हो, एक पल के लिए सही, आराम करने के लिए तड़प रहा था। इस समय अपने चारों ओर की गंदगी के बावजूद, शराबखाने में बैठे रह कर उसे खुशी हो रही थी।

शराबखाने का मालिक किसी दूसरे कमरे में रहा होगा। लेकिन थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह कुछ सीढ़ियाँ उतर कर बड़े कमरे में आता, और हर बार उसके बाकी शरीर से पहले उसके भड़कीले काले रंग के चमकदार लंबे जूते दिखाई देते जिनका ऊपरवाला लाल रंग का सिरा उसने पलट रखा था। उसने लंबा कोट और बुरी तरह चीकटदार काले रंग की साटन की वास्कट पहन रखी थी। उसने गुलूबंद नहीं पहना था, और पूरे चेहरे पर इतना तेल चुपड़ा हुआ था जैसे लोहे के ताले पर चुपड़ते हैं। काउंटर पर लगभग चौदह बरस का एक लड़का खड़ा था। उससे कुछ छोटा, एक और लड़का था जो जरूरत की चीजें ला कर देता था। काउंटर पर कुछ कटा हुआ खीरा था, सूखी काली डबल रोटी के कुछ टुकड़े थे और मछली के कुछ छोटे-छोटे कतले पड़े हुए थे, जिनसे बहुत बुरी बू आ रही थी। वहाँ बेहद घुटन थी और शराब के भभकों से हवा इस कदर बोझल थी कि ऐसे वातावरण में पाँच मिनट रहने से ही आदमी को नशा हो जाए।

कभी-कभी हमारी कुछ ऐसे अजनबियों से मुलाकात हो जाती है जिनमें हमें एक शब्द बातचीत के बिना भी पहले पल से ही दिलचस्पी पैदा हो जाती है। रस्कोलनिकोव पर उस आदमी ने भी कुछ ऐसा ही असर डाला जो उससे थोड़ी दूर बैठा हुआ था और देखने में रिटायर्ड क्लर्क लगता था। उस नौजवान ने बाद में अपने इस अनुभव की अकसर चर्चा की, और यहाँ तक कहता रहा कि वह मुलाकात किसी पूर्वबोध का परिणाम थी। वह बार-बार उस क्लर्क की ओर देखता रहा, कुछ तो यकीनन इसलिए कि वह क्लर्क लगातार उसे घूरे जा रहा था। स्पष्ट है कि वह उससे बातचीत करने के लिए उत्सुक था। वह क्लर्क कमरे के दूसरे लोगों को, शराबखाने के मालिक तक को, इस तरह देख रहा था, मानो वह उनके साथ का आदी हो चुका हो और उनसे उकता चुका हो। हैसियत और तहजीब के एतबार से उन्हें अपने से घटिया लोग समझने के कारण उसके मन में उनके प्रति कुछ तिरस्कार का भाव भी था, जिनके साथ बातचीत करना उसे बेकार लगता था। उस आदमी की उम्र पचास से ऊपर थी। गंजा सर, खिचड़ी बाल, दरमियाना कद, और गठा हुआ बदन। लगातार शराब पीने की वजह से उसका चेहरा फूल गया था और रंग कुछ पीला, कहीं-कहीं हरा भी पड़ गया था। पपोटे सूजे हुए थे जिनके अंदर से उसकी पैनी, गुलाबी आँखें ऐसे चमकती थीं जैसे छोटी-छोटी दरारों में से झाँक रही हों। लेकिन उसमें कोई बहुत अजीब बात भी थी। उसकी आँखों में ऐसी चमक थी जैसे वह किसी बात को बहुत गहराई से महसूस कर रहा हो। उनमें शायद चिंतन तथा प्रखर बुद्धि की झलक भी थी, लेकिन साथ ही उनमें पागलपन जैसी किसी चीज की चमक भी थी। वह एक बहुत पुराना, बेहद फटा हुआ, काले रंग का सूट के साथ का कोट पहने हुए था, जिसके एक को छोड़ कर सारे बटन टूटे हुए थे, और वह एक बटन उसने यूँ लगा रखा था; गोया इज्जतदार आदमी होने की इस आखिरी निशानी को सीने से लगाए रखना चाहता हो। मुड़ी-तुड़ी धब्बों और मैल के निशानों से भरी हुई कमीज का सामने का हिस्सा उसकी जीन की वास्कट के बाहर उभरा हुआ था। क्लर्कों की तरह उसकी भी दाढ़ी-मूँछें सफाचट थीं, लेकिन उसने इतने दिन से दाढ़ी नहीं बनाई थी कि ठोड़ी भूरे रंग के कड़े ब्रश जैसी लग रही थी। उसकी चाल-ढाल में भी कुछ ऐसी बात थी जिससे उसके इज्जतदार और अफसर समान होने का पता चलता था। लेकिन वह बेचैन था, बार-बार अपने बाल बिखेर लेता था और थोड़ी-थोड़ी देर बाद, कोट की फटी हुई कुहनियों को धब्बेदार और चिपचिपी मेज पर टिका कर, अपना सर हाथों से पकड़ कर बेहद मायूसी से बैठ जाता था। आखिरकार उसने रस्कोलनिकोव की आँखों में आँखें डाल कर देखा, और ऊँची आवाज में सधे ढंग से बोला, 'जनाब, क्या मैं आपसे कुछ रस्मी बातचीत करने की जुरअत कर सकता हूँ आप अपने रखरखाव से बाइज्जत तो नहीं मालूम होते, लेकिन मेरा तजर्बा कहता है कि आप पढ़े-लिखे आदमी हैं और आपको शराब पीने की आदत नहीं है। मैंने तालीम को हमेशा इज्जत की नजर से देखा है, अगर उसके साथ सच्चे जज्बात भी हों, और इसके अलावा ओहदे के एतबार से मैं **टाइटुलर कौंसिलर हूँ।1 मार्मेलादोव-मेरा यही नाम है; टाइटुलर कौंसिलर। मैं क्या आपसे यह पूछने की गुस्ताखी कर सकता हूँ कि आप किसी सरकारी नौकरी में रह चुके हैं?'

    • (रूसी सरकारी सेवा की 14 श्रेणियों में से 9वीं श्रेणी का एक पद, इस तरह यह बहुत निचली श्रेणी का पद हुआ करता था। ये श्रेणियाँ 1722 में प्योत्र महान के काल में बनाई गई थीं।)


'जी नहीं, मैं पढ़ता हूँ,' नौजवान ने जवाब दिया; उसे बोलनेवाले की गढ़ी हुई शैली पर भी कुछ हैरत हो रही थी और कुछ इस बात पर भी कि उसे इस तरह सीधे-सीधे संबोधित किया गया था। अभी वह किसी इनसान की संगत की क्षणिक इच्छा महसूस कर रहा था, उसके बावजूद जब उससे बात की गई तो उसे फौरन अपनी आदत के मुताबिक अपने करीब आनेवाले या करीब आने की कोशिश करनेवाले एक अजनबी के प्रति वही चिड़चिड़ाहट और बेचैनी भरी अरुचि पैदा हुई।

'तो आप छात्र हैं, या पहले छात्र रह चुके हैं,' उस क्लर्क ने ऊँची आवाज में कहा, 'मैंने भी यही सोचा था! तजर्बा जनाब, यह सब तजर्बे की बात है,' यह कह कर उसने अपने आपको शाबाशी देते हुए माथे पर एक उँगली रख कर दबाई। 'आप छात्र रह चुके हैं या तालीम के किसी इदारे में जाते रहे हैं! अगर आप इजाजत दें...' - वह उठ कर खड़ा हो गया, लड़खड़ाया, अपना जग और गिलास उठाया, और नौजवान के पास आ कर बैठ गया, कुछ इस तरह कि उसके सामने नौजवान के चेहरे का बगली हिस्सा पड़ता था। वह शराब के नशे में चूर था, लेकिन बिना अटके हुए, बड़े भरोसे के साथ बोल रहा था। बस बीच-बीच में उसकी बात का तार टूट जाता था और उसे अपने शब्दों को खींच कर बोलना पड़ता था। वह रस्कोलनिकोव पर ऐसे नदीदों की तरह टूटा जैसे किसी आदमी से महीने भर से बात न की हो।

'जनाब,' उसने ऐसे दिखावे के भाव से बोलना शुरू किया, गोया प्रवचन कर रहा हो, 'गरीबी कोई बुराई नहीं है, यही सच बात है। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि शराबी होना भी कोई अच्छी बात नहीं है, और यह बात उससे भी ज्यादा सच है। लेकिन कंगाल होना, जनाबे आली, कंगाल होना जरूर बुराई है। गरीबी में आप अपनी आत्मा की पैदाइशी बुनियादी नेकी बनाए रख सकते हैं, लेकिन कंगाली में कभी नहीं। कंगाल आदमी को डंडा ले कर समाज से खदेड़ा नहीं जाता, झाड़ू से बुहार कर बाहर फेंक दिया जाता है ताकि जितना ज्यादा हो सके, उसका अपमान हो। और यही ठीक भी है क्योंकि कंगाली में तो मैं खुद ही सबसे पहले अपना अपमान करने को तैयार रहूँगा। इसलिए जनाब, दारू की दुकान! जनाबे-आली, अभी एक महीना हुआ मिस्टर लेबेजियातनिकोव ने मेरी बीवी को पीटा, और मेरी बीवी मुझसे बिलकुल अलग ही किस्म की चीज है! आप समझ रहे हैं न! अच्छा, मैं महज अपनी जानकारी के लिए आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ; आपने कभी नेवा नदी पर भूसे की नाव पर रात बसर की है?'

'जी नहीं, कभी नहीं,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया। 'इसका क्या मतलब है?'

'बात बस यह है कि वहाँ इस तरह सोते हुए मुझे पाँच रातें हो गईं...'

उसने अपना गिलास भरा, गटक गया, और सोच में डूब गया। सचमुच उसके कपड़ों से भूसे के टुकड़े चिपके हुए थे, और उसके बालों में भी उलझे हुए थे। लगता था पाँच दिन से उसने कपड़े नहीं बदले थे और न मुँह-हाथ धोया था। खास तौर पर उसके हाथ तो बहुत ही गंदे थे। हाथ मोटे और लाल रंग के थे और नाखून बिलकुल काले हो रहे थे।

लगता था उसकी बातचीत आम तौर पर दिलचस्पी तो जगा रही थी, लेकिन बहुत जोश वाली नहीं। काउंटर पर काम करनेवाले लड़के खी-खी करके हँसने लगे। शराबखाने का मालिक खास इस 'मसखरे बंदे' की बातें सुनने के इरादे से ऊपरवाले कमरे से उतर कर नीचे आ गया, और थोड़ी दूर बैठ कर अलसाए ढंग से लेकिन गरिमा के साथ जम्हाई लेने लगा। साफ लगता था कि मार्मेलादोव यहाँ की एक जानी-पहचानी हस्ती था, और बहुत मुमकिन था कि उसमें लच्छेदार भाषण की कमजोरी इस वजह से पैदा हुई हो कि उसे शराबखाने में अकसर, तरह-तरह के अजनबियों से बातचीत करने की आदत थी। कुछ शराबियों में यह आदत बढ़ते-बढ़ते एक जरूरत बन जाती है, खास तौर पर उन लोगों में जिन पर घर में कड़ी नजर रखी जाती है और जिनकी बहुत बेकद्री की जाती है। इसलिए दूसरे पीनेवालों के बीच बैठ कर वे अपनी हरकतों को सही ठहराने की और मुमकिन हो तो उनकी हमदर्दी हासिल करने की भी कोशिश करते हैं।

'मसखरा बंदा है यह भी!' शराबखाने के मालिक ने अपना फरमान सुनाया। 'आखिर तुम काम क्यों नहीं करते या अगर तुम किसी नौकरी से लगे हो तो अपनी ड्यूटी पर क्यों नहीं हो?'

'जनाब, मैं अपनी ड्यूटी पर क्यों नहीं हूँ!' मार्मेलादोव ने सिर्फ रस्कोलनिकोव को संबोधित करते हुए अपनी बात जारी रखी, मानो वह सवाल उसी ने पूछा हो। 'मैं अपनी ड्यूटी पर क्यों नहीं हूँ? क्या यह सोच कर मेरा दिल नहीं दुखता कि मैं एक बेकार कीड़ा हूँ? एक महीना हुआ, मेरी बीवी को मिस्टर लेबेजियातनिकोव ने अपने हाथों से पीटा था, और मैं शराब के नशे में धुत पड़ा था। तब क्या मुझे तकलीफ नहीं हुई थी? माफ करना, नौजवान, क्या तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है... हुँह... मेरा मतलब है, तुम्हें कोई उम्मीद न होते हुए भी किसी से कर्ज के लिए फरियाद करनी पड़ी हो?'

'हाँ, हुआ है... लेकिन “कोई उम्मीद न होते हुए भी" से आपका क्या मतलब है?'

'हर मानी में कोई उम्मीद न होते हुए, जब तुम्हें पहले से मालूम हो कि तुम्हें कुछ मिलनेवाला नहीं है। गोया यूँ समझ लो, तुम्हें पूरे यकीन के साथ पहले से मालूम है कि यह आदमी, यह नामी-गिरामी शहरी, जिसकी लोग मिसाल देते हैं, किसी भी कीमत पर तुम्हें पैसा देनेवाला नहीं है। और सच तो यह है कि, मैं पूछता हूँ, वह क्यों पैसा दे। जाहिर है, वह जानता है कि मैं पैसा वापस नहीं करूँगा। तरस खा कर मिस्टर लेबेजियातनिकोव ने, जो हर नए से नए विचार की खबर रखते हैं, अभी उसी दिन समझाया था कि आजकल साइंस तक ने तरस खाने पर पाबंदी लगा दी है, और यह कि अब इंग्लैंड में यही होता है, जहाँ राजनीतिक अर्थशास्त्र का बोलबाला है। आखिर क्यों, मैं पूछता हूँ, वह मुझे पैसा क्यों दे फिर भी मैं उसके पास जाने के लिए चल पड़ता हूँ हालाँकि मैं पहले से जानता हूँ कि वह देनेवाला नहीं है, और...'

'क्यों जाते हैं आप?' रस्कोलनिकोव ने बात काट कर पूछा।

'लेकिन जब किसी का कोई न हो, जब उसके पास जाने को कोई दूसरा ठिकाना न हो तो! इसलिए कि हर आदमी के पास जाने के लिए कोई ठिकाना तो होना चाहिए। इसलिए कि ऐसे वक्त भी आते हैं जब आदमी को कहीं न कहीं जाना पड़ता है! जब मेरी बेटी पहली बार पीला टिकट (वेश्यावृत्ति का लाइसेंस) ले कर बाहर निकली थी तो मुझे जाना पड़ा था... (क्योंकि मेरी बेटी सड़कगर्दी से रोजी कमाती है),' उसने यह आखिरी बात नौजवान की ओर कुछ बेचैनी से देखते हुए दबी जबान से जोड़ी। 'कोई बात नहीं जनाब, कोई बात नहीं!' जब काउंटर पर बैठे हुए दोनों लड़के ठहाका मार कर हँस पड़े और शराबखाने का मालिक भी मुस्कराने लगा तो जल्दी-जल्दी और अपने आपको जाहिर तौर पर सँभालते हुए उसने अपनी बात जारी रखी। 'कोई बात नहीं, मुझे उनके सर हिलाने से जरा भी उलझन नहीं होती; क्योंकि इसके बारे में हर आदमी सब कुछ जानता है, और जो कुछ अब तक ढका-छिपा था, वह भी खुल कर सामने आ चुका है। और मैं यह सब कुछ तिरस्कार के साथ नहीं, बल्कि विनम्रता से मानता हूँ। ऐसा ही सही! ऐसा ही सही! इनसान को देखो!' माफ करना, नौजवान तुम क्या ऐसा कर सकते हो... नहीं, मैं अपनी बात ज्यादा जोरदार तरीके से और ज्यादा साफ-साफ कहूँगा : क्या तुम ऐसा कर सकते हो नहीं, बल्कि क्या तुममें ऐसा करने की हिम्मत है कि मुझे देख कर दावे के साथ कह सको कि मैं सुअर नहीं हूँ?'

जवाब में नौजवान ने एक शब्द भी नहीं कहा।

'खैर,' भाषण करनेवाले ने कमरे में खी-खी की आवाज के दबने की राह देखने के बाद एक बार फिर ज्यादा सधी आवाज में पहले से भी ज्यादा मर्यादा के साथ अपनी बात शुरू की। 'खैर, ऐसा ही सही, मैं तो सुअर हूँ लेकिन वह रईसजादी है! मैं तो जानवर हूँ लेकिन कतेरीना इवोनाव्ना, मेरी धर्मपत्नी, पढ़ी-लिखी औरत है और एक अफसर की बेटी है। माना, मान लिया कि मैं लफंगा हूँ, लेकिन वह दिल की हीरा औरत है, उसके दिल में भावनाएँ हैं, पढ़ाई-लिखाई ने उसकी आत्मा को निखार दिया है! लेकिन फिर भी... काश, उसके दिल में मेरे लिए भी कुछ दर्द होता! जनाब... जनाबे-आली, आप जानते हैं कि हर आदमी के पास कम-से-कम एक ठिकाना तो ऐसा होना ही चाहिए जहाँ लोगों के दिल में उसके लिए भी कुछ दर्द हो! लेकिन कतेरीना इवानोव्ना... हालाँकि वह बड़े दिल की औरत है, लेकिन उसमें इन्साफ नहीं है... लेकिन फिर भी मैं जानता हूँ कि जब वह मेरे बाल पकड़ कर घसीटती है तो तरस खा कर ही ऐसा करती है - क्योंकि नौजवान, मुझे एक बार फिर यह बात कहने में जरा भी शर्म नहीं आती, कि वह मेरे बाल पकड़ कर भी घसीटती है,' उसने एक बार फिर लोगों को खी-खी करके हँसते सुन कर फिर गरिमा के साथ ऐलान किया - 'लेकिन, हे मेरे भगवान, अगर वह एक बार भी... लेकिन नहीं! बेकार है यह सब कुछ और इसकी बात करने का भी कोई फायदा नहीं! इसलिए कि एक बार नहीं, कई बार मेरी तमन्ना पूरी हुई और कितनी ही बार उसके दिल में मेरा दर्द पैदा हुआ लेकिन... मेरा स्वभाव ही ऐसा है और मैं हूँ एक जन्मजात जानवर!'

'ठीक कहते हो!' शराबखाने के मालिक ने जम्हाई लेते हुए कहा।

मार्मेलादोव ने जोर से मेज पर मुक्का मारा।

'मेरा स्वभाव ही ऐसा है! आप जानते हैं जनाब, आपको मालूम है क्या कि शराब के लिए मैंने उसकी लंबी जुराबें तक बेच दीं उसके जूते नहीं - वह तो खैर कमोबेश इतनी बेजा बात न होती, लेकिन उसकी लंबी जुराबें मैंने शराब के लिए बेच दीं, उसकी जुराबें! उसकी पशमीने की शाल भी मैंने शराब के लिए बेच दी। वह उसे बहुत पहले तोहफे में मिली थी, उसकी अपनी चीज थी, मेरी नहीं थी। हम लोग ठिठुरते हुए एक ठंडे कमरे में रहते हैं और वह इस बार जाड़े में सर्दी खा गई और उसे खाँसी आने लगी है, साथ में खून भी आता है। हमारे तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं और कतेरीना इवानोव्ना सबेरे से रात तक काम में जुती रहती है, झाड़ू-बुहारू करती है, सारे कपड़े वगैरह धोती है और बच्चों को नहलाती-धुलाती है, क्योंकि उसे बचपन से सफाई की आदत रही है। लेकिन उसका सीना कमजोर है और तपेदिक हो जाने का डर लगा रहता है, और मैं इस बात को महसूस करता हूँ। क्या आप यह सोचते हैं कि मैं इस बात का महसूस नहीं करता? मैं जितनी ज्यादा पीता हूँ, उतना ही ज्यादा इस बात को महसूस करता हूँ। पीता भी मैं इसीलिए हूँ। शराब में मैं हमदर्दी खोजता हूँ और चाहता हूँ कि मुझ पर कोई तरस खाए... मैं पीता इसलिए हूँ कि मुझे दोगुनी तकलीफ हो!' यह कह कर, गोया निराश हो कर उसने अपना सिर मेज पर टिका लिया।

'नौजवान,' उसने सर उठा कर फिर कहना शुरू किया, 'तुम्हारे चेहरे में मुझे अपनी तकलीफ की कुछ झलक दिखाई देती है। जब तुम अंदर आए, तभी मैंने इसकी झलक पा ली थी, और इसीलिए मैंने फौरन तुमसे बातें करने का सिलसिला छेड़ा था। तुम्हारे सामने अगर मैं अपनी जिंदगी की दास्तान खोल कर रखना चाहता हूँ तो इसलिए नहीं कि इन निठल्ले सुननेवालों के सामने अपनी हँसी उड़वाऊँ, जिन्हें यूँ भी सब कुछ मालूम है, बल्कि इसलिए कि मुझे ऐसे आदमी की तलाश है जिसके दिल में दूसरों का दर्द हो और जो पढ़ा-लिखा हो। तो मैं बता रहा था कि मेरी बीवी रईसों की बेटियों के उम्दा स्कूल की पढ़ी हुई है, और स्कूल छोड़ते वक्त उसने गवर्नर साहब के और दूसरी बड़ी-बड़ी हस्तियों के सामने शालवाला नाच पेश किया था, और उसे इनाम में सोने का एक मेडल और प्रशंसापत्र दिया गया था। मेडल... खैर, मेडल तो जाहिर है, बेच दिया गया था - बहुत पहले ही, हुँह... लेकिन वह प्रशंसापत्र अभी तक उसके संदूक में रखा है और अभी, बहुत दिन नहीं हुए, उसने मकान-मालकिन को वह दिखाया था। यूँ तो मकान-मालकिन से उसकी कभी नहीं बनी, लेकिन वह किसी न किसी को अपने पिछले कमालों के बारे में और बीते हुए सुख के दिनों के बारे में बताना चाहती है। इसके लिए मैं उसे बुरा नहीं कहता, उसे कोई दोष नहीं देता, क्योंकि उसके पास बीते हुए दिनों की इन यादों के अलावा बचा ही क्या है, बाकी सब तो मिट्टी में मिल चुका! जी हाँ, जी हाँ, बड़े दिल-गुर्दे वाली खानदानी औरत है, कभी किसी के आगे सर नहीं झुकाया, और जो जी में ठान लिया उसे पूरा करके छोड़ा। अपने हाथ से झाड़ू देती है और खाने को काली रोटी के अलावा कुछ होती भी नहीं, लेकिन मजाल है कि कोई उसके साथ बेइज्जती का सलूक कर दे। इसीलिए तो मिस्टर लेबेजियातनिकोव ने उसके साथ जो बदतमीजी की, उसे वह अनदेखा करने को तैयार नहीं थी, और यही वजह है कि उन्होंने जब इस बात पर उसकी पिटाई की तो उसने चारपाई पकड़ ली... जो चोट लगी थी उसकी वजह से इतना नहीं, जितना इस वजह से कि उसकी भावनाओं को ठेस पहुँची थी। जब मैंने उससे शादी की थी, उस वक्त वह विधवा थी, तीन बच्चों की माँ और सभी नन्हे-मुन्ने। उसने अपने पति से, जो पैदल सेना में अफसर था, प्रेम करके शादी की थी, और बाप के घर से उसके साथ भागी थी। उसे बेहद लगाव था अपने पति से, लेकिन वह जुआ खेलने लगा, मुकद्दमे में फँस गया और उसी हालत में मरा भी। आखिर में वह उसे मारने-पीटने लगा था। हालाँकि वह भी जवाब में उसकी पिटाई करती थी, जिसका मेरे पास पक्का, लिखित सबूत है, लेकिन आज भी वह जब उसकी बात करती है तो उसकी आँखों में आँसू भर आते हैं और वह हमेशा उसका हवाला दे कर मुझे ताने देती रहती है। और मुझे खुशी है, इस बात की खुशी है कि कल्पना में ही सही, वह अपने बारे में सोचती तो है कि वह कभी सुखी थी... तो उसके मरने के बाद वह दूर-दराज के एक बीहड़ इलाके में तीन बच्चों के साथ अकेली रह गई। इत्तफाक से उन दिनों मैं भी वहीं था, और वह ऐसी घोर गरीबी की हालत में थी कि मैं हर तरह के बहुत-से उतार-चढ़ाव देखने के बावजूद अपने आपको इस लायक नहीं पाता कि उसका बयान कर सकूँ। उसके सभी रिश्तेदारों ने उससे एकदम नाता तोड़ लिया था। पर वह अपनी आन की पक्की थी, बेहद पक्की... और तब, जनाब तब मैंने... उस वक्त मेरी पहली बीवी मर चुकी थी और उससे एक चौदह साल की बेटी थी तो मैंने उसके सामने सुझाव रखा कि मुझसे शादी कर ले, क्योंकि मुझसे उसकी ऐसी दर्दनाक हालत नहीं देखी जाती थी। आप उसकी मुसीबतों का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि वह, इतनी पढ़ी-लिखी, इतनी सलीकेमंद, सचमुच ऐसे ऊँचे खानदान की औरत, मेरी बीवी बनने को राजी हो गई! सचमुच राजी हो गई! रोते और सिसकते हुए, अपने हाथ मलते हुए उसने मुझसे शादी कर ली। क्योंकि उसके पास कोई और ठिकाना नहीं था! आप समझते हैं, जनाब, आप समझते हैं न कि क्या मतलब होता है इसका, जब आपके पास एकदम कोई ठिकाना न हो नहीं आप अभी यह बात नहीं समझते... तो पूरे एक साल तक मैं अपने सारे फर्ज ईमानदारी और वफादारी के साथ पूरे करता रहा, और इसे छुआ तक नहीं' (यह कह कर उसने उँगली से अपने जग को टिकटिकाया), 'क्योंकि मेरे दिल में भी दर्द है, भावनाएँ हैं। लेकिन यह सब करके भी मैं उसे खुश नहीं कर सका। और फिर मेरी नौकरी भी छूट गई, पर उसमें मेरा कोई कुसूर नहीं था बल्कि दफ्तर में ही कुछ हेर-फेर हो गए थे; और तब मैंने इसे छुआ! ...कुछ ही दिनों में डेढ़ साल हो जाएँगे उस बात को जब हम कई जगह भटकने के बाद, कितनी ही मुसीबतें झेलने के बाद अनगिनत स्मारकों से सजी इस शानदार राजधानी में पहुँचे थे। यहाँ मुझे एक नौकरी मिल भी गई। ...मिल भी गई और छूट भी गई। आप समझ रहे हैं इस बार नौकरी मेरी अपनी गलती से गई क्योंकि मेरी यह कमजोरी उभर आई थी... अब हमारे पास अमालिया फ्योदोरोव्ना लिप्पेवेख्सेल के यहाँ एक कमरे का एक हिस्सा है; पर मैं यह नहीं बता सकता कि कहाँ से हम अपनी गुजर-बसर करते हैं और कहाँ से अपना किराया भरते हैं। वहाँ हमारे अलावा और भी बहुत से लोग रहते हैं। गंदगी और बेतरतीबी, बिल्कुल भटियारखाने जैसा... जी हाँ... और इस बीच पहली बीवी से मेरी जो बेटी थी वह बड़ी हो गई, और जिस जमाने में मेरी बेटी बड़ी हो रही थी उस दौरान उसे अपनी सौतेली माँ के हाथों क्या-क्या सहना पड़ा, इसके बारे में मैं कुछ भी नहीं कहूँगा। कतेरीना इवानोव्ना दिल की बहुत बड़ी तो है, लेकिन उसका मिजाज बहुत तेज है, बेहद चिड़चिड़ा, और गुस्सा जैसे उसकी नाक पर रखा रहता है... जी हाँ! लेकिन कोई फायदा नहीं! इन सब बातों की चर्चा से! सोन्या को, जैसा कि आप सोच सकते हैं, कभी पढ़ना-लिखना नसीब नहीं हुआ। चार साल पहले मैंने उसे भूगोल और दुनिया का इतिहास पढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन ये विषय मुझे खुद अच्छी तरह नहीं आते थे, हमारे पास ढंग की किताबें भी नहीं थीं, और जो थोड़ी-बहुत किताबें थीं भी... हुँह, बहरहाल अब तो वे भी नहीं रह गईं हमारे पास। सो हमारा पढ़ने-लिखने का सारा सिलसिला खत्म हो गया। हम फारस के बादशाह साइरस तक पहुँच कर उससे आगे नहीं बढ़ सके। जबसे वह जवान हो चली, उसने कुछ और रोमांटिक किस्म की किताबें पढ़ी हैं, और भी इधर हाल में उसने बड़ी दिलचस्पी से एक किताब पढ़ी है जो उसे मिस्टर लेबेजियातनिकोव के जरिए मिली थी, जार्ज लेबिस की 'शरीरक्रिया' - आप जानते तो होंगे इस किताब को ...उसने हमें उसके कुछ हिस्से सुनाए भी थे, तो बस यही है उसकी कुल पढ़ाई। और अब क्या मैं आपसे, जनाबे-आली, अपनी खातिर एक निजी किस्म का सवाल पूछने की हिम्मत कर सकता हूँ क्या आप सोचते हैं कि कोई गरीब इज्जतदार लड़की ईमानदारी से काम करके काफी पैसा कमा सकती है अगर वह इज्जतदार है और उसमें कोई खास हुनर नहीं है, दिन-भर में पंद्रह टके नहीं कमा सकती, और इतना भी कमाएगी तब, जब वह अपने काम में पल भर को दम न ले! और बात इतनी ही नहीं है; इवान इवानोविच क्लापस्टाक ने, वही जो सिविल कौंसिलर हैं - आपने उनका नाम सुना तो होगा - उससे लिनेन की जो आधा दर्जन कमीजें बनवाई थीं, उनके पैसे आज तक उसे नहीं दिए, बल्कि उल्टे उसे झिड़क कर भगा दिया। उन्होंने बहुत पाँव पटके और उसे बहुत बुरा-भला कहा; बहाना यह बनाया कि कमीजों के कालर वैसे नहीं थे जैसे नमूने की कमीज में थे, और टेढ़े लगे थे। इधर छोटे-छोटे बच्चे भूखे थे... कतेरीना इवानोव्ना हाथ मलते हुए इधर से उधर टहल रही थी, गाल तमतमाए हुए, जैसा कि इस बीमारी में हमेशा हो जाता है। बोली, 'यहाँ हमारे मत्थे रहती है, खाती है, पीती है और गर्म कमरे का मजा भी लेती है; काम करते छाती फटती है।' और क्या मिलता है उसे खाने-पीने को जब कि नन्हे बच्चों को तीन-तीन दिन एक कौर नसीब नहीं होता! और उस वक्त मैं पड़ा हुआ था... उससे क्या होता है! मैं शराब के नशे में धुत था और मैंने सोन्या को बोलते सुना (बहुत फूल-सी बच्ची है, बहुत कोमल और धीमी आवाज है उसकी... सुनहरे बाल और चेहरा ऐसा पीला और दुबला-पतला कि पूछिए नहीं)। वह बोली, 'कतेरीना इवानोव्ना, क्या आप सचमुच मुझसे वही काम करवाना चाहती हैं और दार्या फ्रांत्सोव्ना जैसी बदचलन औरत, जिसे पुलिस अच्छी तरह जानती है, दो-तीन बार मकान-मालकिन के जरिए उसे घेरने की कोशिश कर चुकी थी। 'क्यों, हर्ज ही क्या है कतेरीना इवानोव्ना ने ताने से कहा, 'तुम कहाँ की ऐसी अनमोल रतन लिए हुए हो कि तुम्हें सहेज कर रखा जाए!' लेकिन उसे दोष न दीजिए, साहब, उसे दोष न दीजिए! जिस वक्त उसने यह बात कही थी उस वक्त वह आपे में नहीं थी। अपनी बीमारी की वजह से और भूखे बच्चों के रोने-बिलखने की वजह से उसके होश उस वक्त ठिकाने नहीं थे; उसने वह बात किसी और वजह से नहीं, बस उसे चोट पहुँचाने के लिए कही थी... क्योंकि कतेरीना इवोनाव्ना का ऐसा ही स्वभाव है और जब बच्चे रोने लगते हैं, चाहे वे भूख से क्यों न रो रहे हों, वह फौरन उन्हें धुन कर रख देती है। कोई छह बजे मैंने देखा कि सोन्या उठी, सर पर रूमाल बाँधा, कंधे पर बिना आस्तीन का कोट डाला और कमरे के बाहर चली गई। वह लगभग नौ बजे लौटी। सीधे कतेरीना इवानोव्ना के पास गई और चुपचाप उनके सामने मेज पर तीस रूबल रख दिए। उसने एक बात भी नहीं कही, उनकी ओर देखा तक नहीं, बस हमारी बड़ी-सी हरे रंग की जनाना शाल उठाई (हम लोगों के पास बस एक शाल है, जनाना) और उसे सिर तक ओढ़ कर, दीवार की तरफ मुँह करके चारपाई पर लेट गई। उसके छोटे-छोटे कंधे और उसका सारा शरीर काँपता रहा... और मैं वहीं पड़ा रहा, बिलकुल वैसे ही जैसे पहले पड़ा था... और तब मैंने देखा, ऐ नौजवान, कि कतेरीना इवानोव्ना उसी तरह चुपचाप सोन्या की छोटी-सी चारपाई के पास गई; सारी रात घुटनों के बल बैठी सोन्या के पाँव चूमती रही, किसी तरह वहाँ से उठने का नाम न लिया, और फिर दोनों एक-दूसरे की बाँहों में लिपट कर सो गईं... एक साथ... जी हाँ... और मैं... मैं शराब के नशे में धुत पड़ा रहा।'

मार्मेलादोव अचानक चुप हो गया, गोया उसकी आवाज जवाब दे गई हो। फिर उसने जल्दी-जल्दी अपना गिलास भरा, गटका और अपना गला साफ किया।

'तो उसी वक्त से साहब,' कुछ देर रुक कर उसने फिर कहना शुरू किया, 'उसी वक्त से, कुछ तो बदनसीबी के हालात पैदा हो जाने की वजह से और कुछ बुरा चाहनेवाले लोगों के कान भरने की वजह से - जिसमें दार्या फ्रांत्सोव्ना ने, इस बहाने की आड़ ले कर कि उसके साथ इज्जत का सलूक नहीं किया गया था, बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया - उसी वक्त से मेरी बेटी सोन्या सेम्योनोव्ना को मजबूर हो कर पीला टिकट लेना पड़ा और इस वजह से वह अब हमारे साथ नहीं रह सकती। हमारी मकान-मालकिन अमालिया फ्योदोनोव्ना इस बात को सुनने तक को तैयार नहीं है (हालाँकि पहले उसी ने दार्या फ्रांत्सोव्ना को बढ़ावा दिया था) और मिस्टर लेबेजियातनिकोव भी... हुँह... उनके और कतेरीना इवानोव्ना के बीच जो बखेड़ा हुआ था वह सारा सोन्या को ले कर हुआ। पहले तो वह खुद सोन्या पर डोरे डाल रहे थे पर फिर अचानक उन्हें अपनी मान-मर्यादा का बहुत खयाल पैदा हो गया। बोले, 'मेरे जैसा इतना पढ़ा-लिखा आदमी उस जैसी लड़की के साथ उसी घर में कैसे रह सकता है?' तो कतेरीना इवानोव्ना भला कब ऐसी बात बर्दाश्त करनेवाली थी; उसने डट कर उसकी तरफदारी की... तो सारा किस्सा यह था। सो अब सोन्या हमारे यहाँ आती भी है तो ज्यादातर अँधेरा हो जाने के बाद; कतेरीना इवानोव्ना को तसल्ली देती है और जो कुछ बन पड़ता है, दे जाती है... उसने कापरनाउमोव के यहाँ एक कमरा ले रखा है; उसी के यहाँ किराए पर रहती है। कापरनाउमोव एक दर्जी है, लँगड़ा है और हकलाता है, उसके परिवार के सभी लोग हकलाते हैं, और उसकी बीवी भी हकलाती है... वे सभी एक कमरे में रहते हैं, लेकिन सोन्या के पास अपना कमरा है, जो आड़ लगा कर अलग कर दिया गया है... हुँह... वे सब बहुत गरीब लोग हैं और सभी हकलाते हैं... जी हाँ। तो मैं सबेरे उठा, अपने फटे-पुराने कपड़े पहने, दोनों हाथ आसमान की तरफ उठा कर दुआ माँगी, और महामहिम इवान अफानासिविच के यहाँ जाने के लिए चल पड़ा। महामहिम इवाना अफानासिविच, उन्हें तो आप जानते होंगे नहीं जानते फिर तो आप सचमुच एक बहुत ही अच्छे आदमी को नहीं जानते। वे मोम हैं... भगवान जानता है, बिलकुल मोम; मोम की ही तरह पिघल भी जाते हैं! मेरी कहानी सुन कर उनकी आँखें डबडबा आईं। कहा, 'मार्मेलादोव, तुम पहले एक बार मेरी उम्मीदों पर पानी फेर चुके हो... मैं एक बार फिर तुम्हें रख लूँगा, खुद अपनी जिम्मेदारी पर' - यही शब्द थे उनके, 'याद रखना', उन्होंने कहा, 'और अब तुम जा सकते हो।' मैंने उनके पाँव की धूल को चूमा - मेरा मतलब है मन ही मन, क्योंकि सचमुच तो वे मुझे कभी ऐसा नहीं करने देते, क्योंकि वे राजनेता हैं और आधुनिक राजनीतिक और प्रगतिशील विचारों के आदमी हैं। मैं घर लौट आया और जब मैंने सबको बताया कि मैं नौकरी पर फिर बहाल कर दिया गया हूँ और मुझे तनख्वाह मिला करेगी, तो कसम से, कैसा जश्न हुआ...'

मार्मेलादोव एक बार फिर बहुत उत्तेजित हो कर रुक गया। उसी वक्त पहले से ही शराब पिए हुए लोगों की पूरी टोली सड़क पर से हंगामा मचाती हुई अंदर आ गई। शराबखाने के दरवाजे पर सात साल का एक लड़का किराए के आर्केरियन पर अपनी महीन आवाज में 'छोटा-छोटा झोंपड़ा' गा रहा था। सारा कमरा शोर से भर गया। शराबखाने का मालिक और छोकरे नए गाहकों में उलझ गए। मार्मेलादोव ने नए आनेवालों की ओर कोई ध्यान दिए बिना अपना किस्सा जारी रखा। लगता था अब तक वह बेहद कमजोर हो चुका है, लेकिन उस पर शराब का नशा जितना ही ज्यादा चढ़ता गया, वह उतनी ही ज्यादा बातें करने लगा। लगता था नौकरी पाने में उसे हाल ही में जो सफलता मिली थी, उसकी याद करके उसमें नई जान आ गई थी, और यह बात निश्चित रूप से उसके चेहरे पर एक तरह की चमक में झलक रही थी। रस्कोलनिकोव ध्यान से सुनता रहा।

'यह बात पाँच हफ्ते पहले की है, जनाब। जी हाँ... तो जैसे ही कतेरीना इवानोव्ना और सोन्या ने इसके बारे में सुना, दया हो ऊपरवाले की हम पर, ऐसा लगा कि मैं स्वर्ग में पहुँच गया हूँ। पहले होता यह था कि जानवर की तरह पड़े रहो, कुछ भी गालियों के अलावा नहीं मिलता था। अब वे दबे पाँव चलती थीं, बच्चों से चुप रहने को कहती थीं। उन्हें समझाती थीं : 'सेम्योन जखारोविच दफ्तर में काम करते-करते थक गए हैं, आराम कर रहे हैं, शिः!' मेरे काम पर जाने से पहले वे मेरे लिए कॉफी बनाती थीं और उसमें क्रीम डाल कर देती थीं! अब वे मेरे लिए कहीं से असली क्रीम लाने लगीं, सुन रहे हैं न आप और मेरी समझ में यह भी नहीं आता कि कहाँ से उन्होंने मेरे पहनने के लिए ढंग के कपड़ों के पैसे जुटाए - पूरे ग्यारह रूबल पचास कोपेक। जूते, बेहतरीन सूती कमीज का सामना, कोट-पतलून। उन्होंने हर चीज बहुत ठाठदार जुटाई थी, महज साढ़े ग्यारह रूबल में। पहले दिन मैं शाम को जरा जल्दी लौटा तो क्या देखता हूँ कि कतेरीना इवानोव्ना ने दो कोर्स का डिनर तैयार कर रखा है - सूप और मसालेदार गोश्त, और मूली की चटनी -हमने कभी ऐसे खाने की कल्पना भी उस वक्त तक नहीं की थी। उसके पास ढंग के कपड़े नहीं हैं... हैं ही नहीं, लेकिन वह ऐसी सजी-सँवरी जैसे किसी से मिलने जा रही हो। और ऐसा भी नहीं कि उसके पास इसका साज-सामान रहा हो, वह तो बिना किसी चीज के सज गई। उसने सलीके से अपने बाल बनाए, जैसा भी बन पड़ा एक साफ कालर लगाया, आस्तीनों के सिरे पर कफ लगाए, और आप देखते कि कैसी कायापलट हो गई थी उसकी। पहले से ज्यादा जवान, और ज्यादा खूबसूरत। मेरी प्यारी बच्ची सोन्या ने तो सिर्फ पैसे से मदद की थी। उसने कहा था, 'अभी मेरे लिए यहाँ बहुत ज्यादा आना-जाना और आप लोगों से मिलना ठीक नहीं रहेगा। बस कभी-कभी अँधेरा हो जाने के बाद, जब कोई देख न सके।' सुना आपने खाना खा कर मैं एक झपकी लेने के लिए लेटा, और फिर क्या हुआ जानते हैं आप अभी पिछले ही हफ्ते कतेरीना इवानोव्ना का हमारी मकान-मालकिन अमालिया फ्योदोरोव्ना से भयानक झगड़ा हुआ था, लेकिन उस वक्त वह उसे कॉफी पीने के लिए बुलाए बिना न रह सकी। दो घंटे तक वे दोनों बैठी आपस में खुसर-पुसर करती रहीं। 'अब सेम्योन जखारोविच की फिर नौकरी लग गई है और तनख्वाह मिलने लगी,' वह बोली, 'वह खुद महामाहिम के पास गए थे और महामहिम खुद इनसे मिलने बाहर आए; बाकी सब लोगों को वहीं बाहर बिठाए रख कर वह सेम्योन जखारोविच का हाथ पकड़ कर सबके सामने, उन्हें अपने कमरे में ले गए।' सुनते हैं, कुछ सुना आपने 'यकीनन', वे बोले, 'सेम्योन जखारोविच, तुम्हारी पिछली खिदमतों को देखते हुए, वे बोले, और उस नादानी की कमजोरी की तरफ तुम्हारे झुकाव के बावजूद, चूँकि तुम अब वादा करते हो और इसके अलावा चूँकि तुम्हारे बिना हमारा काम भी ठीक से नहीं चल रहा है' (सुना आपने, कुछ सुना!) 'इसलिए', वे बोले, 'एक शरीफ आदमी की तरह तुम जो वादा कर रहे हो, उस पर मैं यकीन करता हूँ।' और मैं, आपको यकीन दिलाता हूँ कि ये सारी बातें उसने अपने मन से गढ़ी थीं। सिर्फ मन की मौज में आ कर नहीं या सिर्फ डींग मारने के लिए नहीं। जी नहीं, उसे इन सारी बातों पर खुद यकीन है, उसे अपने हवाई महल बनाने में मजा आता है, मेरी बात मानिए, उसे सचमुच मजा आता है। तो मैं इसके लिए उसे दोष भी नहीं देता। जी नहीं, मैं उसे बिलकुल दोष नहीं देता! ...छह दिन हुए मैंने अपनी पहली तनख्वाह पूरी की पूरी ला कर उसे दी - पूरे तेईस रूबल चालीस कोपेक - तो उसने मुझे बड़े लाड़ से अपना गुड्डा कहा था। 'गुड्डू', उसने कहा था, 'मेरे अच्छे गुड्डू।' और जब हम दोनों अकेले थे तो आप समझते हैं न आप मुझे बहुत खूबसूरत नहीं कहेंगे, शौहर की हैसियत से भी आप मुझमें कोई खास खूबी नहीं सोचते होंगे, क्यों है, न यही बात खैर, उसने मेरे गाल पर चुटकी भरी और बोली, 'मेरे अच्छे गुड्डू!'

मार्मेलादोव बातें करते-करते रुक गया और मुस्कराने की कोशिश की, पर अचानक उसकी ठोड़ी फड़कने लगी। लेकिन उसने अपने को किसी तरह सँभाला। यह शराबखाना, उस आदमी की फटीचर हालत, भूसे की नाव पर पाँच रातें काटना, और शराब की बोतल गटक जाना, फिर भी अपनी बीवी और बच्चों के लिए ऐसा दर्द भरा प्यार कि सुननेवाला दंग रह जाए! रस्कोलनिकोव उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था लेकिन साथ ही उसे बेचैनी भी हो रही थी। उसे उलझन हो रही थी कि यहाँ आया ही क्यों।

'जनाब, आली जनाब,' मार्मेलादोव ने अपने आपको पूरी तरह सँभाल कर ऊँची आवाज में कहा। 'अरे, जनाब, यह सब शायद आपको भी हँसी की बात लगती हो, जैसे दूसरों को लगती है, और शायद आपको मेरी घरेलू जिंदगी की इन छोटी-छोटी, बेवकूफी भरी बातों की वजह से उलझन हो रही हो, लेकिन मेरे लिए यह हँसी की बात नहीं है। क्योंकि इन सारी बातों को मैं महसूस करता हूँ... तो अपनी जिंदगी का वह पूरा सुनहरा दिन जब मेरी जिंदगी स्वर्ग बन गई थी, और वह पूरी शाम मैंने यही सपने बुनने में काट दी थी कि किस तरह मैं हर चीज का बंदोबस्त करूँगा, किस तरह सब बच्चों को अच्छे कपड़े पहनाऊँगा, किस तरह अपनी बीवी को कुछ आराम का मौका दूँगा और किस तरह अपनी बेटी को बेइज्जती की जिंदगी से छुटकारा दिला कर एक बार फिर उसके परिवार के दिल में बसाऊँगा और इसी तरह की न जाने कितनी और बातें। ...बिलकुल समझ में आनेवाली बात है, जनाब! खैर, तो फिर हुआ यह,' (मार्मेलादोव अचानक जैसे चौंक पड़ा, उसने अपना सर ऊपर उठाया और सुननेवाले की आँखों में आँखें डाल कर उसे घूरने लगा), 'तो हुआ यह कि वे सारे सपने बुनने के बाद अगले ही दिन, यानी ठीक पाँच दिन पहले, रात को मैंने तिकड़म से चोरों की तरह, कतेरीना इवानोव्ना के पास से उसके संदूक की चाभी उड़ा ली; मेरी तनख्वाह में से जो कुछ बचा था वह निकाल लिया... कितना था, यह अब मुझे याद भी नहीं रहा। और अब मेरी हालत देखिए आप सब लोग देखिए! घर छोड़े आज मुझे पाँचवाँ दिन है, और वहाँ सब लोग मुझे खोज रहे होंगे, मेरी नौकरी खत्म हो चुकी होगी, और मेरा कोट-पतलून मिस्त्री पुल के पास एक शराबखाने में पड़ा है। उसके बदले में मैंने ये कपड़े लिए थे, जो मैंने इस वक्त पहन रखे हैं। ...और अब कुछ भी नहीं रह गया, सब कुछ खत्म हो चुका है!'

मार्मेलादोव ने मुक्के से जोर से अपना माथा पीटा, दाँत कस कर भींचे, आँखें बंद कर लीं और मेज पर कुहनियाँ टिका कर, उन पर अपना सारा बोझ डाल कर झुक गया। लेकिन एक ही मिनट बाद उसके चेहरे का रंग अचानक बदल गया। जान-बूझ कर मक्कारी करते हुए और कुछ बनावटी शेखी के अंदाज से उसने एक नजर रस्कोलनिकोव को देखा, हँसा, और बोला :

'आज सुबह मैं सोन्या से मिलने गया था। उससे तलब मिटाने के लिए कुछ पैसे माँगने गया था! ही-ही-ही!'

'दिए तो नहीं होंगे उसने,' नए आनेवालों में से एक आदमी जोर से बोला। उसने यह बात चिल्ला कर कही और ठहाका मार कर हँस पड़ा।

'यह बोतल तो खरीदी गई है उसी के पैसे से,' मार्मेलादोव ने सिर्फ रस्कोलनिकोव को संबोधित करते हुए कहा। 'तीस कोपेक उसने अपने हाथ से मुझे दिए थे। ये आखिरी पैसे थे उसके, कल उसके पास इतने ही थे; मैंने अपनी आँखों देखा था। ...कुछ बोली नहीं, बस कुछ कहे बिना मेरी ओर देखा। ...इस तरह किसी को दोष दिए बिना इनसानों का मातम यहाँ, इस धरती पर नहीं, वहाँ ऊपर... किया जाता है। उन पर रोते हैं, लेकिन कोई दोष नहीं देते उन्हें! लेकिन उससे ज्यादा तकलीफ होती है; जब कोई दोष नहीं देता तो ज्यादा तकलीफ होती है। तीस कोपेक, जी हाँ! हो सकता है उसे उनकी जरूरत पड़े, क्यों आपका क्या खयाल है, जनाब उसे भी तो अब बड़े बनाव-सिंगार से रहना पड़ता है। पैसा लगता है इस सज-धज में, इस खास किस्म की सज-धज में, आप जानते ही होंगे समझ रहे हैं न आप और फिर, देखिए न, पाउडर-क्रीम का भी तो खर्च है। उसे तो सभी चीजों की जरूरत है; बढ़िया घेरेदार साया, कलफ लगा हुआ। जूतियाँ भी होनी चाहिए, सचमुच बाँकी जूतियाँ ताकि जब वह कीचड़ भरा गड्ढा पार करने को कदम उठाए तो सबकी नजरें उसके पाँव पर जम कर रह जाएँ। आप समझ रहे हैं न जनाब, आप जानते ही होंगे कि इस सारी सज-धज का मतलब क्या होता है। और एक मैं हूँ, उसका सगा बाप, कि उस पैसे में से भी तीस कोपेक शराब पीने के लिए मार लाया! और मैं वही शराब पी रहा हूँ! बल्कि पी चुका हूँ! बताइए, मुझ जैसे आदमी पर कौन तरस खाएगा, बोलिए आपको मुझे देख कर अफसोस होता है कि नहीं जनाब बताइए, आपको दुख होता है कि नहीं... ही-ही-ही।'

वह अपना गिलास फिर भर लेना चाहता था, लेकिन शराब बची ही नहीं थी। बोतल खाली थी।

'तुम पर कोई क्यों तरस खाए?' शराबखाने के मालिक ने फिर उसके पास आ कर, ऊँची आवाज में पूछा।

इसके बाद ठहाकेदार हँसी और ऊँची आवाज में गालियों का शोर सुनाई दिया। ये ठहाके और गालियाँ उन लोगों की थीं जो उसकी बातें सुन रहे थे और उनकी भी जिन्होंने कुछ भी नहीं सुना था, बल्कि नौकरी से निकाल दिए गए उस सरकारी क्लर्क को देख भर रहे थे।

'तरस खाए! मुझ पर कोई क्यों तरस खाए,' मार्मेलादोव अचानक अपना हाथ आगे बढ़ा कर खड़ा हो गया और भाषण देने लगा, गोया इसी सवाल की राह देख रहा था। 'मुझ पर कोई क्यों तरस खाए, आप कहते हैं जी हाँ! कोई वजह नहीं कि मुझ पर कोई तरस खाए! मुझ पर तरस नहीं खाया जाना चाहिए, मुझे तो फाँसी पर लटकाया जाना चाहिए, सूली चढ़ा देना चाहिए! मुझे सूली पर चढ़ा दो, ऐ इन्साफ करनेवालो, मुझे सूली पर चढ़ा दो लेकिन मुझ पर तरस खाओ! और फिर मैं सूली पर चढ़ने के लिए अपने आप चला जाऊँगा, क्योंकि मैं खुशी नहीं ढूँढ़ रहा हूँ, मुझे तो बस आँसुओं की और दर्द की तलाश है! क्या तुम यह बात समझते हो, तुम जो कि शराब बेचते हो, कि तुम्हारा यह अद्धा मुझे पीने में मीठा लगा इसकी तलछट में मुझे दर्द की तलाश थी, आँसुओं की और दर्द की, और सो मुझे मिल गया। सो मैंने उसे चखा। लेकिन मुझ पर तरस खाएगा वह ऊपरवाला जिसके दिल में हर इनसान के लिए रहम है, जिसने हर इनसान को और हर चीज को समझा है और वही एक इन्साफ करनेवाला भी है। वह उस दिन आएगा और पूछेगा : 'कहाँ है वह बेटी जिसने अपनी चिड़चिड़ी तपेदिक की मरीज सौतेली माँ के लिए, किसी और के नन्हे-मुन्ने बच्चों के लिए अपने आपको कुर्बान कर दिया कहाँ है वह बेटी जिसने एक गंदे शराबी की, अपने दुनियावी बाप की, दरिंदगी से जरा भी डरे बिना उस पर तरस खाया और वह कहेगा : 'मेरे पास आ! मैं एक बार तुझे माफ कर चुका हूँ... मैंने तुझे एक बार पहले भी माफ किया है। तेरे वे गुनाह बख्शे जाते हैं जिनकी कोई हद नहीं है, क्योंकि तूने बहुत प्यार किया है...' और वह मेरी सोन्या को माफ कर देगा, माफ कर देगा... मैं जानता हूँ... अभी जब मैं उसके पास था, मुझे दिल में ऐसा ही लग रहा था! और वह करेगा इन्साफ और कर देगा सबको माफ... अच्छों को भी और बुरों को भी, उन्हें भी जो समझदार हैं और उन्हें भी जो नादान हैं... और जब वह उन सबको निबटा चुका होगा तब हमें बुलाएगा। कहेगा : 'तुम भी आओ। आगे आओ, ऐ शराबियो, आगे आओ तुम लोग जो कि कमजोर हो, आगे आओ ऐ बेशर्म लोगो!' और हम सब आगे बढ़ेंगे, बिना किसी शर्म के, और जा कर उसके सामने खड़े हो जाएँगे। और वह हमसे कहेगा : 'सुअर हो तुम लोग, जानवरों के साँचे में ढले हुए हो, तुम्हारे ऊपर दरिंदगी की छाप है लेकिन आओ, तुम भी आओ!' और जो लोग अक्लमंद हैं, जो समझदार हैं वे कहेंगे : 'या खुदा, तू अपने पास क्यों इन लोगों को बुला रहा है?' और वह कहेगा : 'मैं इन्हें अपने पास इसलिए बुला रहा हूँ, ऐ अक्लवालो... मैं इन्हें इसलिए अपने पास बुला रहा हूँ, ऐ समझदारो कि इनमें से एक भी अपने आपको इसके लायक नहीं समझता था...' फिर वह हमारी ओर अपने हाथ बढ़ाएगा और हम उसके कदमों पर गिर पड़ेंगे... हम रोएँगे-गिड़गिड़ाएँगे... और हर बात हमारी समझ में आ जाएगी! उस वक्त हर बात हमारी समझ में आ जाएगी! ...सबकी समझ में आ जाएगी... कतेरीना इवानोव्ना समेत...

...ऐ मालिक, बना रहे तेरा राज।'

यह कह कर वह निढाल, एकदम बेबस हो कर, बेंच पर बैठ गया। उसने किसी की ओर नहीं देखा; उसे अपने इर्द-गिर्द की कोई खबर ही नहीं थी और वह गहरे सोच में डूबा हुआ था। उसके शब्दों का कुछ असर हुआ था। एक पल खामोशी रही, लेकिन थोड़ी ही देर में फिर ठहाके और गालियाँ सुनाई देने लगीं :

'यह इसकी अपनी समझ है!'

'बेवकूफी की बातें करता है!'

'हाकिम है न!' वगैरह-वगैरह!

'आइए चलें, साहब,' मार्मेलादोव ने अचानक अपना सर उठा कर रस्कोलनिकोव को संबोधित करते हुए कहा। 'आप मुझे घर तक छोड़ देंगे, कोजेल का घर है, अहाते के अंदरवाला। बहुत देर हो चुकी है, अब मुझे कतेरीना इवानोव्ना के पास जाना ही चाहिए।'

रस्कोलनिकोव काफी पहले ही वहाँ से उठ जाना चाहता था और सचमुच उसकी मदद करना चाहता था। मार्मेलादोव की जबान से ज्यादा उसके कदम लड़खड़ा रहे थे और उसने अपना सारा बोझ उस नौजवान पर डाल रखा था। उन्हें कोई दो-तीन सौ कदम जाना था। जैसे-जैसे घर पास आता गया, उस शराबी के डर और बौखलाहट में इजाफा होता गया।

'अब मुझे कतेरीना इवानोव्ना का डर नहीं,' वह अपनी बेचैनी में बुदबुदाया, 'और न इस बात का कि वह मेरे बाल पकड़ कर खींचेगी। मेरे बालों की बिसात ही क्या! भाड़ में जाएँ मेरे बाल! मेरा तो यही कहना है! सच तो यह है कि अच्छा यही होगा, वह मेरे बाल खींचे। उससे मुझे डर नहीं लगता। ...मुझे डर लगता है उसकी आँखों से! ...जी हाँ, उसकी आँखों से... उसके गालों की तमतमाहट से भी डर लगता है... और उसके साँस लेने से भी। आपने कभी देखा है कि इस बीमारी में लोग किस तरह साँस लेते हैं, जब उन्हें तैश आता है मुझे बच्चों के रोने से भी डर लगता है... क्योंकि अगर सोन्या ने उनके लिए खाने को कुछ नहीं भेजा होगा... तो न जाने क्या हुआ होगा! पता नहीं क्या हुआ होगा! लेकिन पिटने से मैं बिलकुल नहीं डरता... मैं आपको यह बता दूँ, साहब, इस तरह की पिटाई से मुझे कोई दर्द नहीं होता, बल्कि मजा ही आता है। सच तो यह है कि उनके बिना मेरा काम ही न चले... इस तरह ज्यादा अच्छा रहता है। वह मुझे खूब मारे, इससे उसके दिल का बोझ हल्का हो जाता है... यही बेहतर है... वह रहा घर। कोजेल का घर, वही जो ताले-चाभी बनाता है... जर्मन है, खाता-पीता आदमी है। आप जनाब, आगे-आगे चलिए!'

अहाता पार करके वे तीसरी मंजिल पर चढ़ गए। जैसे-जैसे वे ऊपर चढ़ते गए, सीढ़ियों पर अँधेरा बढ़ता गया। लगभग ग्यारह बजे थे। हालाँकि पीतर्सबर्ग में गर्मियों में रात तो होती ही नहीं है, फिर भी सीढ़ियों के ऊपर काफी अँधेरा था।

सीढ़ियों के ऊपरी सिरे पर एक छोटा-सा गंदा दरवाजा पूरा खुला हुआ था। दरवाजे से ही सारा कमरा दिखाई देता था। कोई दस कदम लंबा कमरा जिसमें थोड़ा-सा टूटा-फूटा फर्नीचर था, एक छोटी-सी शमा जल रही थी। हर चीज इधर-उधर बिखरी पड़ी थी। तरह-तरह के फटे-पुराने कपड़े चारों ओर पड़े हुए थे, खास तौर पर बच्चों के पहनने के कपड़े। दूरवाले सिरे पर एक फटी हुई चादर लटकी हुई थी। उसके पीछे शायद चारपाई रही होगी। कमरे में दो कुर्सियों और एक सोफे के अलावा कुछ भी नहीं था। सोफे पर मोमजामा चढ़ा हुआ था जिसमें जगह-जगह छेद थे। उसके सामने पुराने ढंग की एक चाय की मेज थी। बेरंग-रौगन और बे-मेजपोश ही था। मेज के सिरे पर, लोहे के शमादान में एक सिसकती हुई शमा जल रही थी। लगता था उस परिवार के पास कमरे का एक हिस्सा नहीं, पूरा कमरा था लेकिन उनका कमरा एक तरह से आवाजाही का रास्ता था। दूसरे कमरों में, बल्कि कहना चाहिए उन दूसरे कबूतरखानों में, जिनमें अमालिया लिप्पेवेख्सेल का घर बँटा हुआ था, जाने का दरवाजा आधा खुला हुआ था और इधर से शोर-गुल, हू-हा और ठहाकों की आवाजें आ रही थीं। लोग वहाँ शायद ताश खेल रहे थे और चाय पी रहे थे। बीच-बीच में उधर से बहुत बेहूदा किस्म की बातें भी सुनाई दे जाती थीं।

रस्कोलनिकोव ने कतेरीना इवानोव्ना को फौरन पहचान लिया। वह जरा लंबे कद और छरहरे बदन की सुडौल औरत थी - बेहद दुबली-पतली, सूखी हुई। गहरे बादामी रंग के शानदार बाल और गालों पर तमतमाहट की लाली। दोनों हाथों से अपना सीना दबाए हुए, उस छोटे से कमरे के एक से दूसरे सिरे तक टहल रही थी। होठ सूखे हुए थे और साँस उखड़ी-उखड़ी चल रही थी। उसकी आँखें ऐसी चमक रही थीं जैसे बुखार में चमकती हैं और बड़ी कठोरता से आस-पास की चीजों पर जम कर उन्हें घूर रही थीं। शमा के आखिरी टुकड़े की झिलमिलाती रौशनी में उसके तपेदिक के मारे हुए उत्तेजित चेहरे को देख कर बड़ी तकलीफ होती थी। रस्कोलनिकोव के हिसाब से वह कोई तीस साल की रही होगी और यकीनन मार्मेलादोव से बहुत ऊपर कोई चीज लगती थी... उसने न उसकी आहट सुनी, न उन्हें अंदर आते देखा। लगता था वह विचारों में खोई हुई है, न कुछ सुन रही है न देख रही है। कमरे में घुटन थी लेकिन उसने खिड़की नहीं खोली थी। सीढ़ियों से बदबू आ रही थी लेकिन उसने सीढ़ियों की ओर जानेवाला दरवाजा बंद नहीं किया था। अंदरवाले कमरे से धुएँ के बादल इधर आ रहे थे। वह खाँसती रही लेकिन उसने दरवाजा बंद नहीं किया। सबसे छोटी बच्ची, एक छह बरस की लड़की, फर्श पर गठरी बनी, सोफे से सर टिकाए सो रही थी। एक लड़का, जो उम्र में उससे साल भर बड़ा होगा, एक कोने में खड़ा थरथर काँप रहा था और रो रहा था। शायद उसे अभी-अभी मार पड़ी थी। उसके पास ही कोई नौ साल की लंबी-सी सींक जैसी पतली लड़की खड़ी थी। वह एक महीन-सी फटी हुई कमीज पहने थी और अपने खुले हुए कंधों पर उसने एक बेहद पुराना, जनाना ऊनी लबादा डाल रखा था। यह कोई दो साल पहले बना होगा और मुश्किल से उसके घुटनों तक पहुँचता था। उसकी लकड़ी जैसी सूखी हुई एक बाँह अपने भाई की गर्दन में पड़ी हुई थी। वह उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी और बहला-फुसला रही थी कि और न रोए। साथ ही वह अपनी बड़ी-बड़ी, काली आँखों से, जो उसके भयभीत दुबले-पतले चेहरे पर और भी बड़ी लगती थीं, आतंकित हो कर अपनी माँ को देख रही थी। मार्मेलादोव दरवाजे के अंदर नहीं घुसा बल्कि चौखट पर ही घुटनों के बल गिर पड़ा, और रस्कोलनिकोव को आगे कर दिया। औरत एक अजनबी को सामने खड़ा पा कर ठिठक गई और निरीह भाव से उसके सामने खड़ी हो गई। एक पल बाद वह सँभली और सोच में पड़ गई कि वह आदमी वहाँ क्यों आया होगा। लेकिन स्पष्ट रूप से वह इसी नतीजे पर पहुँची कि उसे बगलवाले कमरे में जाना होगा और उसके कमरे से हो कर ही वह वहाँ जा सकता था। यह सझ कर उसकी ओर और अधिक ध्यान दिए बिना वह बाहरवाला दरवाजा बंद करने उधर बढ़ी और चौखट पर अपने पति को घुटनों के बल बैठा देख कर अचानक चीख पड़ी।

'आहा!' वह जुनून से पागल हो कर चीखी, 'आ गया वापस! पापी! पिशाच! ...कहाँ है पैसा? जेब में क्या है, दिखा! और कपड़े भी वे नहीं हैं! कहाँ गए कपड़े कहाँ है पैसा बोल!'

इतना कह कर वह तलाशी लेने के लिए उस पर टूट पड़ी। मार्मेलादोव ने भीगी बिल्ली की तरह जरा भी चूँ-चपड़ किए बिना, दोनों हाथ ऊपर उठा दिए ताकि उसे तलाशी लेने में कोई कठिनाई न हो। उसके पास एक दमड़ी भी नहीं थी।

'कहाँ है पैसा?' उसने चीख कर पूछा। 'हे भगवान, सारा-का-सारा पी तो नहीं गया संदूक में चाँदी के बारह रूबल बचे थे!' यह कह कर उसने मार्मेलादोव को बाल पकड़ कर झिंझोड़ा और उसे कमरे में खींच लाई। मार्मेलादोव ने खुद घुटनों के बल रेंग कर उसकी इस कोशिश में मदद की।

'इसी से राहत मिलती है मुझे! इससे मुझे कोई तकलीफ नहीं होती, बल्कि यह मेरे लिए बड़ी रा-ह-त की बा-त है, जना-ब' वह चिल्ला कर बोलता रहा। उसे बाल पकड़ कर झिंझोड़ा जा रहा था और एक बार तो उसने खुद अपना माथा जमीन पर दे पटका। फर्श पर सोई बच्ची जाग पड़ी और रोने लगी। कोने में खड़ा लड़का भी धीरज खो बैठा और बेहद सहम कर, चिल्लाता हुआ अपनी बहन से चिपट गया, मानो उसे कोई दौरा पड़ा हो। बड़ी बेटी पत्ते की तरह काँप रही थी।

'सारा पी गया! यह सारा-का-सारा पी गया!' बेचारी औरत घोर निराशा में रो-रो कर चिल्लाने लगी, 'कपड़े भी सब चले गए! और ये सब भूखे हैं, भूख से बेहाल!' अपने हाथ मल-मल कर उसने बच्चों की तरफ इशारा किया। 'अरे, लानत है ऐसी जिंदगी पर! और आपको, आपको भी शर्म नहीं आती,' यह कह कर वह अचानक रस्कोलनिकोव की ओर मुड़ी, 'सीधे शराबखाने से चले आ रहे हैं! तो आप भी इनके साथ पी रहे थे? पी रहे थे न! निकल जाइए यहाँ से!'

नौजवान एक भी शब्द बोले बिना, जल्दी से वहाँ से खिसक जाने को तैयार हुआ। इतने में किसी ने अंदरवाला दरवाजा पूरा खोल दिया था और उसमें से कौतूहल भरे चेहरे झाँकने लगे। मुँह में पाइप और सिगरेटें लगाए हुए भोंडे बदसूरत चेहरे, टोपियाँ पहने हुए सर दरवाजे पर आ कर जमा हो गए और तमाशा देखने लगे। अंदर कमरे में कुछ आकृतियाँ दिखाई दे रही थीं जिनके शर्मनाक हद तक थोड़े कपड़े थे; कुछ के हाथों में ताश के पत्ते थे। उस वक्त उन लोगों को खासतौर पर मजा आया जब मार्मेलादोव के बाल पकड़ कर उसे घसीटा जा रहा था और वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि इसमें उसे बड़ी राहत मिल रही थी। कुछ लोग तो कमरे में भी आ गए। आखिरकार एक तीखी भयानक आवाज सुनाई दी। यह आवाज खुद अमालिया लिप्पेवेख्सेल की थी जो धक्के दे कर लोगों के बीच से रास्ता बनाती हुई, अपने ढंग से व्यवस्था कायम करने की कोशिश करने के लिए आगे आ रही थी। वह उस बेचारी औरत को सौवीं बार डराने-धमकाने के लिए भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रही थी और अगले ही दिन कमरा खाली कर देने का हुक्म दे रही थी। बाहर जाते-जाते रस्कोलनिकोव ने अपनी जेब में हाथ डाला और शराबखाने में दाम चुकाने के बाद रूबल में से जो रेजगारी मिली थी, उसमें से जितनी भी हाथ में आई, वह निकाल कर उसने सबकी आँख बचा कर खिड़की पर रख दी। बाद में, सीढ़ियाँ उतरते हुए उसकी नीयत बदली और वह वापस जाने का इरादा करने लगा।

'मैंने भी कितनी बड़ी बेवकूफी की है,' उसने मन में सोचा, 'उन्हें तो सोन्या का सहारा है पर मुझे तो खुद पैसों की जरूरत है।' लेकिन यह सोच कर कि अब वे पैसे वापस लेना नामुमकिन होगा, और वह यूँ भी उन्हें वापस न लेता, उसने झटके के साथ हवा में अपना हाथ घुमा कर इस विचार को अपने दिमाग से निकाल दिया और अपने घर वापस चला गया। 'सोन्या को क्रीम-पाउडर की भी तो जरूरत है,' उसने सड़क पर चलते-चलते कहा, और बड़ी तल्खी से हँसा, 'ऐसी सज-धज में पैसा लगता है... हुँह! और कौन जाने आज सोन्या के पास भी फूटी कौड़ी न हो, क्योंकि बड़ा शिकार फाँसने में... सोने की खान खोदने में हमेशा बहुत जोखिम रहता है... तब तो मेरे पैसों के बिना उनके पेट में कल एक दाना भी नहीं जाएगा। सोन्या जिंदाबाद! क्या सोने की खान हाथ लग गई है उनके! और वे भी उसका पूरा-पूरा फायदा उठा रहे हैं! जी हाँ, पूरा-पूरा फायदा उठा रहे हैं ये लोग उसका! वे इस बात पर बहुत रो-धो चुके और अब उन्हें इसकी आदत पड़ गई है। आदमी ठहरा बदमाश, उसे तो हर चीज की आदत पड़ जाती है।'

'पर अगर मेरा ऐसा सोचना गलत हुआ तो?' एक पल तक सोचने के बाद वह अचानक चीख पड़ा। 'अगर आदमी, मेरा मतलब है आम आदमी, इनसान की पूरी नस्ल, बदमाश न हो तो... बाकी सब कुछ हमारे अपने मन का खोट है, बनावटी है और कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। ऐसा ही होना भी चाहिए!'

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 3)

अगले दिन सुबह वह देर से उठा। उखड़ी-उखड़ी नींद के सबब उसमें कोई ताजगी नहीं आई थी। आँख खुलने पर वह झुँझलाया हुआ, चिड़चिड़ा और बदमिजाज हो रहा था और उसने अपने कमरे को बड़ी नफरत के साथ देखा। बहुत छोटा-सा, दड़बे जैसा कमरा, जिसकी लंबाई मुश्किल से छह कदम की रही होगी। हर तरफ कंगाली बरस रही थी। दीवारों पर धूल से अटा पीला कागज जगह-जगह से उखड़ने लगा था। कमरे की ऊँचाई भी इतनी कम थी कि औसत-कद आदमी को भी उलझन होती थी, हर वक्त यही डर लगा रहता था कि सर न जाने कब छत से टकरा जाए। जैसा कमरा था वैसा ही फर्नीचर भी था : तीन पुरानी कुर्सियाँ जिनकी चूलें हिल गई थीं; कोने में एक रँगी हुई मेज जिस पर कुछ कापियाँ और कुछ किताबें पड़ी थीं। उन पर धूल की मोटी परत जम गई थी जिससे पता चलता था कि उन्हें एक अरसे से किसी ने हाथ नहीं लगाया था। लगभग एक पूरी दीवार के सहारे एक बड़ा-सा बदसूरत सोफा पड़ा था जिसने आधे कमरे की जगह घेर रखी थी। किसी जमाने में उस पर छींट का कपड़ा मढ़ा गया था जो अब तार-तार हो चुका था, और अब वही सोफा रस्कोलनिकोव के लिए पलँग का काम देता था। अकसर वह कपड़े बदले बिना, चादर ओढ़े या बिछाए बगैर ही, छात्रोंवाला पुराना ओवरकोट लपेटे एक छोटे-से तकिए पर सिर रख कर सो जाता था, और उसे और ऊँचा करने के लिए उसके नीचे ओढ़ने-बिछाने के सारे मैले और साफ कपड़ों का ढेर लगा लेता था। सोफे के सामने एक छोटी-सी मेज पड़ी थी।

कंगाली और बदहाली के मामले में इससे नीची किसी सतह तक पहुँचना मुश्किल था, लेकिन इस वक्त रस्कोलनिकोव के दिमाग की जो हालत थी, उसमें उसे यह सब एकदम ठीक लगता था। उसने अपने आपको सबसे एकदम काट लिया था, जैसे कछुआ अपने खोल में सिमट जाता है; और जो नौकरानी उसकी सेवा-टहल करती थी और कभी-कभी कमरे में झाँक लेती थी, उसे भी देखते ही वह झुँझलाहट से तिलमिला उठता था। उसकी हालत उन सनकी लोगों जैसी हो रही थी जिनका ध्यान पूरी तरह किसी एक ही चीज पर लगा रहता है। उसकी मकान-मालकिन ने पिछले पंद्रह दिन से उसे खाना भिजवाना बंद कर दिया था, और अभी तक उसने इसके बारे में बात करने की सोची भी नहीं थी, हालाँकि उसे खाना खाए बिना ही रह जाना पड़ता था। नस्तास्या, जो खाना भी पकाती थी और मालकिन की अकेली नौकरानी थी, किराएदार की इस मनोदशा से काफी खुश थी। उसने उसके कमरे में झाड़ू देना, उसे ठीक-ठाक करना भी बंद कर दिया था। अब वह भूले-भटके, कभी आठवें-दसवें दिन उसके कमरे में झाड़ू ले कर आ जाती थी। उस दिन उसी ने उसे जगाया था।

'उठो। अभी तक सो रहे हो!' उसने पुकार कर उससे कहा। 'नौ बज चुके हैं। चाय लाई हूँ, एक प्याली पी लो। बहुत भूखे होगे!'

रस्कोलनिकोव ने चौंक कर आँखें खोली और नस्तास्या को पहचाना।

'चाय मकान-मालकिन ने भेजी है?' उसने धीरे से पूछा और बीमारों जैसी सूरत लिए हुए उठ कर सोफे पर बैठ गया।

'वो बड़ी आईं भेजनेवाली!'

उसने अपनी चिटकी हुई, हलकी और बासी चाय से भरी हुई चायदानी उसके सामने सजा दी और श कर के दो पीले डले रख दिए।

'ये ले नस्तास्या,' उसने अपनी जेब के अंदर टटोलते हुए (क्योंकि वह सारे कपड़े पहने हुए ही सो गया था) कुछ रेजगारी निकाली और बोला, 'जरा भाग कर मुझे एक डबलरोटी ला दे। और देखना, मिले तो कसाई के यहाँ से थोड़ी-सी सॉसेज भी लेती आना, वो जो सबसे सस्ती हो।'

'रोटी तो मैं अभी लाए देती हूँ, लेकिन सॉसेज की बजाय थोड़ा-सा बंदगोभी का शोरबा क्यों नहीं पी लेते बहुत बढ़िया शोरबा है, कल का। मैंने बचा कर रखा था लेकिन कल तुम देर से आए। सचमुच अच्छा शोरबा है।'

जब शोरबा आ गया और वह उसे पीने लगा तो नस्तास्या उसकी बगल में सोफे पर बैठ गई और बातें करने लगी। वह देहात की किसान औरत थी और बड़ी बातूनी थी।

'प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना पुलिस में तुम्हारी शिकायत करनेवाली हैं,' वह बोली।

उसने अजीब-सा टेढ़ा-मेढ़ा मुँह बनाया।

'पुलिस में क्यों, चाहती क्या है?'

'आप पैसा उन्हें देते नहीं और कमरा भी खाली नहीं करते। क्या चाहिए उन्हें, यह तो साफ है।'

'शैतान ले जाए उसे, यही चीज तो मेरे पास नहीं है,' वह दाँत पीस कर बुदबुदाया। 'नहीं, आजकल मेरे लिए यह मुमकिन ही नहीं है... वह भी बिलकुल बेवकूफ है,' उसने जोर से कहा। 'मैं आज ही जा कर उससे बात करूँगा।'

'बेवकूफ तो वह हैं, बेवकूफ जैसे मैं हूँ। लेकिन तुम अगर समझदार हो तो यहाँ पुराने बोरे की तरह पड़े क्यों रहते हो, फालतू? पहले तो तुम बाहर जाया करते थे। कहते थे बच्चों को पढ़ाने जाते हो। लेकिन अब क्यों कुछ नहीं करते?'

'कर रहा हूँ...' रस्कोलनिकोव ने उदासी से सकुचाते हुए कहना शुरू किया।

'क्या कर रहे हो?'

'काम...'

'कैसा काम?'

'मैं सोच रहा हूँ,' उसने कुछ देर रुक कर गंभीरता से जवाब दिया।

नस्तास्या हँसी से लोट-पोट हो गई। उसे हँसने की आदत थी और उसे कोई बात बहुत मजेदार लगती थी तो वह कोई आवाज निकाले बिना हँस पड़ती थी। उसका सारा बदन इतनी बुरी तरह काँपने और हिलने लगता था कि वह बेहाल हो जाती थी।

'और इसी सोचने के काम से तुमने बहुत पैसा कमाया है?' आखिरकार उसने किसी तरह बड़ी मुश्किल से कहा।

'ढंग के जूते भी न हों तो कोई कैसे पढ़ाने जाए और मैं इस काम से तंग आ चुका हूँ।'

'अपनी रोजी-रोटी से झगड़ा मोल मत लो।'

'पढ़ाने का पैसा भी तो कितना कम देते हैं। कोई चंद सिक्के ले कर करे तो क्या?' उसने झिझकते हुए जवाब दिया, मानो अपने ही विचारों का जवाब दे रहा हो।

'तो तुम चाहते हो कि एक बार में ही कहीं से छप्पर फाड़ कर दौलत मिल जाए।'

उसने नस्तास्या को अजीब ढंग से देखा।

'हाँ, मैं दौलत चाहता हूँ,' उसने कुछ देर रुक कर सधी आवाज में जवाब दिया।

'ऐसी बातें न करो, मुझे तुमसे डर लगने लगता है! अच्छा तो रोटी ला दूँ?'

'जैसी तुम्हारी मर्जी।'

'अरे हाँ, मैं तो भूल ही गई थी। कल जब तुम बाहर गए हुए थे, तुम्हारी एक चिट्ठी आई थी।'

'चिट्ठी मेरे लिए! किसकी?'

'सो मैं नहीं जानती। डाकिए को मैंने अपने पल्ले से तीन कोपेक दिए थे। लौटा दोगे न?'

'भगवान के लिए, वह चिट्ठी तो ला कर दो,' रस्कोलनिकोव बड़ी ब्रेसब्री से चिल्लाया। 'हे भगवान!'

एक पल में चिट्ठी ला कर उसे दे दी गई। तो यह बात थी : उसकी माँ ने भेजी थी, र. प्रांत से। उसका चेहरा चिट्ठी लेते ही पीला पड़ गया। एक जमाना हो गया था कि उसके पास कोई चिट्ठी नहीं आई थी। लेकिन अचानक एक और भावना उसके दिल में तीर की तरह चुभी।

'नस्तास्या, भगवान के लिए तुम जाओ। ये रहे तुम्हारे तीन कोपेक, लेकिन अब फौरन यहाँ से चली जाओ!'

खत उसके हाथों में काँप रहा था। उसे वह नस्तास्या के सामने नहीं खोलना चाहता था। वह चाहता था कि उस खत के साथ उसे अकेला छोड़ दिया जाए। नस्तास्या गई तो उसने झट से खत को होठों से लगा कर चूमा; फिर देर तक पता देखता रहा-छोटे-छोटे तिरछे अक्षरों की लिखावट, इतनी प्यारी और इतनी परिचित, उस माँ की जिसने कभी उसे पढ़ना-लिखना सिखाया था। वह झिझकता रहा; लगता था किसी बात से डर रहा हो। आखिरकार उसने खत खोला। बहुत मोटा भारी-भरकम खत था, दो औंस से ज्यादा ही रहा होगा। बहुत छोटे-छोटे अक्षरों की लिखाई में पूरे दो पन्ने भरे हुए थे।

'मेरे प्यारे रोद्या!'1 उसकी माँ ने लिखा था। 'दो महीने चिट्ठी के जरिए तुमसे बात किए हुए हो गए, जिसका मुझे बड़ा दुख है। रात-रात नींद नहीं आती, पड़े-पड़े सोचती रहती हूँ। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि इस चुप्पी के लिए तुम मुझे दोष नहीं दोगे; क्योंकि मैं लाचार थी। तुम जानते हो, मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ। हम लोगों को, दूनिया को और मुझे, एक तुम्हारा ही सहारा रह गया है; तुम्हीं हम लोगों के सब कुछ हो, हमारी सारी आस-उम्मीद, हमारा अकेला आसरा। मुझे यह सुन कर कितना दुख हुआ कि कुछ महीने पहले तुमने यूनिवर्सिटी छोड़ दी, क्योंकि तुम्हारे पास साधन नहीं थे और तुम्हारे ट्यूशन और दूसरे काम भी तुमसे छूट गए थे। साल में मुझे पेंशन के एक सौ बीस रूबल मिलते हैं; उनमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूँ मैंने चार महीने पहले तुम्हें पंद्रह रूबल जो भेजे थे वह भी, तुम तो जानते ही हो, मैंने अपनी पेंशन की जमानत पर इस शहर के एक सौदागर अफनासी इवानोविच बाखरूशिन से उधार लिए थे। वह एक नेकदिल आदमी है और तुम्हारे बाप से उसकी दोस्ती भी थी। लेकिन उसे पेंशन वसूल करने का अधिकार दे देने के बाद कर्ज चुकने तक मुझे इंतजार करना पड़ा और वह अब जा कर चुका है। इसीलिए मैं इतने दिनों तुम्हें कुछ नहीं भेज सकी। लेकिन भगवान की दया से अब मैं समझती हूँ, मैं तुम्हें कुछ और भेज सकूँगी। और सच पूछो तो हमें अब अपने भाग्य को सराहना चाहिए, जिसका पूरा हाल मैं तुम्हें अभी बता देना चाहती हूँ। पहली बात तो यह है, प्यारे रोद्या, क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी बहन पिछले छह हफ्ते से मेरे साथ ही रह रही है और अब हमें आगे भी कभी अलग नहीं होना पड़ेगा। उसके सारे कष्ट भगवान की कृपा से दूर हो गए हैं, लेकिन मैं तुम्हें सारी बात सिलसिलेवार बता दूँ ताकि तुम्हें मालूम हो जाए कि यह सब कुछ कैसे हुआ, जिसे हमने अभी तक तुमसे छिपाए रखा। दो महीने पहले तुमने लिखा था कि तुमने किसी से सुना था स्विद्रिगाइलोव के यहाँ दूनिया को बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ रही थीं। तब मुझसे सारी बात बताने को कहा था

1. रस्कोलनिकोव के प्रथम नाम रोदियोन का संक्षेप।

...पर जवाब में मैं तुम्हें भला क्या लिखती अगर तुम्हें सारी बात मैं सच लिख देती तो मुझे खूब मालूम है कि तुम सब कुछ छोड़-छाड़ कर हमारे पास चले आते, चाहे तुम्हें पैदल ही क्यों न आना पड़ता। मैं तुम्हारा स्वभाव और तुम्हारी भावनाएँ खूब जानती हूँ, सो तुम अपनी बहन का अपमान बर्दाश्त न कर पाते। मैं भी परेशान थी बेहद, लेकिन कर ही क्या सकती थी इसके अलावा, तब तक सारी बात मुझे भी नहीं मालूम थी। सारा मामला अगर इतना उलझ गया था तो इसीलिए कि दूनिया1 ने जब उनके परिवार में बच्चों की देखभाल करने का काम सँभाला था तो उसे पेशगी सौ रूबल मिले थे, कि हर महीने उसकी तनख्वाह में से कुछ-कुछ कटता रहेगा। इसलिए जब तक कर्जा चुक न जाता, उसका नौकरी छोड़ना नामुमकिन था। जब रकम (मेरे कलेजे के टुकड़े रोद्या, अब मैं यह सारी बात तुम्हें खोल कर बता सकती हूँ) उसने खास तौर पर तुम्हें साठ रूबल भेजने के लिए ली थी, जिसकी तुम्हें सख्त जरूरत थी और जो तुम्हें पिछले साल हमसे मिली थी। तब तुम्हें हमने धोखे में रखा था, और लिख दिया था कि यह रकम दूनिया की बचत में से भेजी जा रही है। लेकिन बात ऐसी नहीं थी, और अब मैं इसके बारे में सब कुछ बता रही हूँ क्योंकि भगवान की दया से हालत अचानक सुधर गई है, और इसलिए भी कि तुमको मालूम हो जाए कि दूनिया तुमको कितना प्यार करती है और उसने कितना बड़ा दिल पाया है। शुरू में मि. स्विद्रिगाइलोव सचमुच उसके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते थे और खाने की मेज पर उसका अपमान करनेवाली मजाक उड़ानेवाली बातें करते थे... लेकिन मैं उन सब तकलीफदेह बातों के ब्यौरे में नहीं जाना चाहती क्योंकि अब जबकि सब कुछ खत्म हो गया है, तुम बेकार में परेशानी में क्यों पड़ो। मतलब यह कि मि. स्विद्रिगाइलोव की पत्नी मार्फा पेत्रोव्ना की और बाकी सारे परिवार की नेकी के बावजूद और उदारता के व्यवहार के बावजूद दूनिया को बहुत कठिन दिन काटने पड़ रहे थे, खास तौर पर तब जब मि. स्विद्रिगाइलोव अपनी पुरानी फौजी आदतों के शिकार हो जाते थे और उन पर शराब सवारी गाँठने लगती थी। और जानते हो, बाद में इस सारे किस्से की क्या असलियत मालूम हुई तुम क्या यकीन करोगे कि उस दीवाने के दिल में शुरू से ही दूनिया के लिए बहुत गहरा लगाव पैदा हो गया था, लेकिन रुखार्ई और तिरस्कार का रवैया अपना कर उसने उस पर पर्दा डाले रखा। शायद अपनी उम्र को देखते हुए, और यह सोच कर कि वह कई बच्चों का बाप था, उसे खुद अपने हवाई मंसूबों पर शर्म आई होगी और वह अपने आपको धिक्कारने लगा होगा।

1. दूनिया या दुनेच्का - अण्दोत्या का घरेलू नाम।

इसलिए वह दूनिया से नाराज रहने लगा था। या यह भी हो सकता है कि उसे उम्मीद रही हो कि इस तरह का रुखाई और तिरस्कार का रवैया अपना कर वह सच्चाई को दूसरों से छिपा लेगा। लेकिन उसे अपने पर आखिरकार काबू नहीं रहा और उसकी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि दूनिया के सामने उसने बिलकुल खुला, बेहद शर्मनाक सुझाव रखा, उसे हर तरह के लालच दिए और इसके अलावा यहाँ तक वादा किया कि वह सब कुछ त्याग देगा और उसे ले कर अपनी किसी दूसरी जागीर में या जरूरत पड़ी तो विदेश भी चला जाएगा। तुम तो अंदाजा लगा सकते हो कि तब दूनिया पर क्या बीती होगी! उसके लिए अपनी नौकरी फौरन छोड़ देना - नामुमकिन था, सिर्फ कर्ज की रकम की वजह से नहीं, बल्कि इस खयाल से भी कि मार्फा पेत्रोव्ना की भावनाओं को ठेस न पहुँचे। तब उनके दिल में फौरन शक पैदा हो जाता और उस हालत में दूनिया परिवार में कलह का कारण बन जाती। फिर दूनिया की बेहद बदनामी भी होती और इससे बचने का कोई रास्ता न होता। और भी बहुत-सी बातें थीं जिनकी वजह से अगले छह हफ्तों तक दूनिया के लिए उस मनहूस घर से अपना पिंड छुड़ाने की कोई उम्मीद नहीं थी। तुम तो दूनिया को जानते ही हो कि वह कितनी होशियार और इरादे की पक्की है। दूनिया बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है और उसमें कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपने कदम जमाए रखने का हौसला है। उसने इस सारे मामले के बारे में तो मुझे भी नहीं लिखा, हालाँकि हम लोग अकसर ही एक-दूसरे को खत लिखा करते थे। सारा मुआमला अचानक ऐसे खत्म हो गया कि इस बारे में किसी ने कभी सोचा भी नहीं था। मार्फा पेत्रोव्ना ने इत्तफाक से बाग में अपने पति को दूनिया से मिन्नतें करते सुन लिया और उसका दूसरा ही मतलब लगा कर सारा दोष दूनिया के सर मढ़ दिया कि इस सारे किस्से की जड़ वही है। दोनों के बीच वहीं बाग में तू-तू मैं-मैं हुई। मार्फा पेत्रोव्ना ने तो दूनिया के एक हाथ भी जड़ दिया, उसकी कोई बात भी सुनने से इनकार कर दिया और घंटे भर तक उस पर चीखती रही, और उसके बाद हुक्म दिया कि दूनिया को फौरन एक मामूली किसान के छकड़े पर बिठा कर मेरे पास भिजवा दिया जाए। उसका सारा सामान, सारे कपड़े-लत्ते ज्यों के त्यों, तह किए बिना या बाँधे बिना उसी गाड़ी में फेंक दिए गए। फिर उसी बीच जोर का पानी भी बरसा और ठुकराई, दुतकारी गई दूनिया को एक किसान के साथ खुले छकड़े में बैठ कर पूरे सत्रह वेर्स्ता 1 पार करके शहर आना पड़ा। अब तुम्हीं सोचो, दो महीने पहले तुमने मुझे जो खत भेजा था, मैं उसका क्या जबाव देती और भला क्या लिखती मैं बिलकुल लाचार थी। सच बात तुम्हें लिख नहीं सकती थी क्योंकि तुम्हें बहुत दुख होता, तुम अपमान महसूस करते, तुम्हें बहुत गुस्सा आता, लेकिन तुम कर

1. लंबाई का एक रूसी माप, 1060 मीटर के बराबर।

क्या लेते। शायद बस अपने आपको तबाह कर लेते। और फिर यह बात भी तो थी कि दूनिया ऐसा कभी होने न देती; और यह मैं नहीं कर सकती थी कि जब मेरा अपना दिल इतना दुखी था तो अपना खत इधर-उधर की छोटी-मोटी बातों से भर देती। शहर में महीने भर इस कांड की चर्चा चलती रही। नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि लोग जिस तिरस्कार से हमें देखते थे, आपस में कानाफूसी करते थे, यहाँ तक कि जोर-जोर से हमारे ऊपर फिकरे कसते थे, उसकी वजह से दूनिया की और मेरी गिरजाघर जाने तक की हिम्मत न होती थी। जान-पहचान के सब लोग हमसे कतराने लगे थे, सड़क पर मिल जाते तो सलाम तक न करते, और मुझे पता चला कि कुछ दुकानदार और क्लर्क हमारे घर के दरवाजे पर तारकोल पोत कर बहुत बेहूदा ढंग से हमारा अपमान करने की सोच रहे थे, जिसका नतीजा यह हुआ कि मकान-मालिक हमसे घर खाली करने को कहने लगा। यह सब कुछ था मार्फा पेत्रोव्ना का किया-धरा; उन्होंने दूनिया को जी भर कर बदनाम किया और घर-घर जा कर उस पर कीचड़ उछाली। वे पास-पड़ोस के सारे लोगों को जानती हैं। उस महीने वे बार-बार शहर आती रहीं, और चूँकि वह कुछ बातूनी भी हैं और उन्हें अपने परिवार के मामलों के बारे में प्रपंच करने का और खास तौर पर हर ऐरे-गैरे से अपने पति की शिकायत करने का शौक है, जो बहुत ही गलत बात है, इसलिए थोड़े ही दिनों में उन्होंने यह किस्सा शहर में ही नहीं बल्कि आसपास, पूरे जिले में भी फैला दिया। मैं तो इन सब बातों की वजह से बीमार पड़ गई, लेकिन दूनिया यह सब कुछ मुझसे बेहतर ढंग से झेल गई; तुम देखते तो सही कि उसने सब कैसे सहा और कैसे मुझे तसल्ली देती रही, ढाढ़स बँधाती रही! वह तो बिलकुल फरिश्ता है! लेकिन भगवान की दया से बहुत जल्द हमारी सारी विपदा दूर हो गई। मि. स्विद्रिगोइलोव के होश ठिकाने आ गए; उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ, और शायद दूनिया की हालत पर तरस खा कर, उन्होंने उसके निर्दोष होने का पूरा और पक्का सबूत मार्फा पेत्रोव्ना के सामने रख दिया। वह सबूत एक खत था, जो बाग में मार्फा पेत्रोव्ना से मुठभेड़ होने से पहले दूनिया ने तंग आ कर मि. स्विद्रिगाइलोव को लिखा था। इस खत में, जो उसके चले आने के बाद उन्हीं के पास रह गया था, उसने निजी तौर पर कोई सफाई देने और उनसे चोरी-छिपे मिलने से साफ इनकार कर दिया था, जिसके लिए वह उसकी बड़ी मिन्नतें कर रहे थे। उसने, उस खत में बहुत ताव और गुस्से में आ कर, उन्हें मार्फा पेत्रोव्ना के साथ उनके नीच व्यवहार के लिए बहुत लताड़ा था, और उन्हें याद दिलाया था कि वह कई बच्चों के बाप थे और परिवार के मुखिया थे, और यह कि एक बेबस-लाचार लड़की को, जो पहले से ही काफी दुखी थी, इस तरह सताना और दुखी करना कितनी बड़ी दुष्टता थी। सचमुच, मेरे प्यारे रोद्या, उस खत के एक-एक अक्षर से ऐसे नेकी टपकती थी, उसकी एक-एक बात दिल को इस तरह छूती थी कि जब मैंने उसे पढ़ा तो मैं फूट-फूट कर रो पड़ी; अब भी जब मैं उसे पढ़ती हूँ तो आँखों में आँसू छलक आते हैं। इसके अलावा नौकरों की गवाही से भी दूनिया का सारा कलंक धुल गया। मि. स्विद्रिगाइलोव जितना सोचते थे, उससे कहीं ज्यादा उन लोगों ने देखा था और जानते थे जैसा कि नौकरों के साथ अकसर होता है। मार्फा पेत्रोव्ना बिलकुल दंग रह गईं और जैसा कि हमसे उन्होंने खुद कहा, 'एक बार फिर उनका दिल बैठ गया', लेकिन उन्हें दूनिया के निर्दोष होने का पूरा यकीन आ गया था। अगले ही दिन, जो इतवार था, वे सीधे गिरजाघर गईं और घुटने टेक कर आँखों में आँसू भर कर उन्होंने माता मरियम से प्रार्थना की कि वह उन्हें इतनी शक्ति दें कि वे इस नई परीक्षा को झेल सकें और अपना कर्तव्य निभा सकें। फिर वे गिरजाघर से सीधे हमारे पास आईं, हमें सारा किस्सा सुनाया, फूट-फूट कर रोईं, और अपने किए पर पछताते हुए उन्होंने दूनिया को गले से लगाया और उससे माफी माँगी। उसी दिन सबेरे जरा भी देर किए बिना, वे शहर के एक-एक घर में आँसू बहाती हुई गईं, और बड़ी प्रशंसा भरे शब्दों में उन्होंने सबको दूनिया के निर्दोष होने की बात, उसकी भावनाओं और उसके आचरण की शुद्धता पर जोर दे कर समझाया। फिर इससे भी बड़ी बात यह हुई कि उन्होंने मि. स्विद्रिगाइलोव के नाम दूनिया का लिखा हुआ खत सबको दिखाया और पढ़ कर सुनाया और उन्हें उस खत की नकल कर लेने की भी इजाजत दे दी, जिसकी मेरी राय में कोई जरूरत नहीं थी। इस तरह वे कई दिनों तक अपनी गाड़ी पर सारे शहर में घूमती रहीं, क्योंकि कुछ लोगों ने इस बात का बुरा माना था कि वह पहले दूसरों के यहाँ क्यों गईं। इस तरह सबको अपनी बारी के आने का इंतजार करना पड़ा, जिसका नतीजा यह हुआ कि हर घर में पहुँचने से पहले ही से उनकी राह देखी जाती थी, हर आदमी को मालूम होता था कि फलाँ-फलाँ दिन मार्फा पेत्रोव्ना फलाँ-फलाँ जगह वह खत पढ़ कर सुनाएँगी, और हर बार लोग भी जो खुद अपने घरों पर और दूसरे लोगों के घरों पर कई-कई बार पहले भी उस खत को सुन चुके थे। मेरी राय में इन सब बातों में बहुत कुछ एक बड़ी हद तक, ऐसा था जिसकी कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन मार्फा पेत्रोव्ना का स्वभाव ही ऐसा है। बहरहाल वे फिर से दूनिया की नेकनामी पूरी तरह कायम करने में कामयाब रहीं। इस कांड की सारी बदनामी कभी न मिटनेवाले कलंक की तरह उनके पति के मत्थे मढ़ दी गई; अकेले उन्हीं को सारा दोष दिया गया, यहाँ तक कि मुझे उन पर सचमुच तरस आने लगा। लोग सचमुच उस दीवाने के साथ जरूरत से ज्यादा सख्ती बरत रहे थे। दूनिया को फौरन कई परिवारों में पढ़ाने के लिए बुलावा आया लेकिन उसने इनकार कर दिया। लोग अचानक उसे बड़ी इज्जत की नजरों से देखने लगे और मानना होगा कि इन्हीं सब बातों की वजह से वह घटना हुई जिसने हमारे पूरे भाग्य को पलट दिया। प्यारे रोद्या, मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि एक आदमी दूनिया से ब्याह करना चाहता है और उसने भी यह शादी करने की हामी भर दी है। मैं तुम्हें जल्दी से इस सारे मामले के बारे में बता दूँ... यूँ तो सब कुछ तुम्हारी राय लिए बिना तय किया गया है, लेकिन मैं समझती हूँ कि तुम इस बात पर मुझसे या अपनी बहन से खफा नहीं होगे, क्योंकि बात यह है कि हम लोग ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते थे और तुम्हारा जवाब आने तक अपना फैसला टाल नहीं सकते थे। फिर तुम भी तो यहाँ मौजूद रहे बिना सारी बातों को परख नहीं सकते थे। असल में यह सब कुछ ऐसे हुआ। यह प्योत्र पेत्रोविच लूजिन कोर्ट कौंसिलर1 के ओहदे पर हैं और मार्फा पेत्रोव्ना के दूर के रिश्तेदार हैं, जो इन दोनों की जोड़ी मिलाने में बहुत सक्रिय रही हैं। सिलसिला शुरू यहाँ से हुआ कि लूजिन ने हम लोगों से जान-पहचान पैदा करने की इच्छा प्रकट की। उनका बड़े अच्छे ढंग से स्वागत किया गया, उन्होंने हम लोगों के साथ कॉफी पी, और अगले ही दिन उन्होंने हमें एक पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने बड़ी शिष्टता से शादी का पैगाम दिया और प्रार्थना की कि इसके बारे में जल्द ही पक्का जवाब दिया जाए। वे बहुत व्यस्त आदमी हैं और जल्दी से जल्दी पीतर्सबर्ग लौट जाना चाहते हैं, इसलिए उनके वास्ते एक-एक पल बहुत कीमती है। जाहिर है, शुरू-शुरू में तो हमें बहुत ताज्जुब हुआ क्योंकि यह सब कुछ इतनी जल्दी और ऐसे ढंग से हुआ कि उसका हमें गुमान भी नहीं था। हम लोगों ने दिन भर इसके बारे में सोच-विचार किया और बातें कीं। वे बहुत खाते-पीते, भरोसे के आदमी हैं; ओहदों पर लगे हुए हैं और बहुत काफी दौलत जमा कर चुके हैं। यह सच है कि उनकी उम्र पैंतालीस साल है, लेकिन सूरत-शक्ल काफी अच्छी है। औरतें उन्हें अब भी आकर्षक समझ सकती हैं; और वे बहुत ही शरीफ और देखने-सुनने में अच्छे आदमी हैं; अलबत्ता इतना जरूर है कि थोड़ा-सा उदास और कुछ घमंडी लगते हैं। लेकिन हो सकता है कि शायद पहली नजर में ही ऐसे लगते हों। और प्यारे रोद्या, जब पीतर्सबर्ग में उनसे मुलाकात हो, जो जल्दी ही होनी चाहिए, तो अगर उनकी कोई बात अच्छी न लगे तो उनके बारे में बहुत जल्दी में और सख्ती के साथ किसी राय पर पहुँचने से सावधान रहना, जैसी कि तुम्हारी आदत है। मैं यह तुम्हें पहले से जताए देती हूँ, हालाँकि मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारे ऊपर उनका अच्छा ही असर पड़ेगा। इसके अलावा किसी आदमी को समझने के लिए जरूरी है कि हम सोच-विचार से काम लें और उसके बारे में पहले से कोई राय या गलत धारणाएँ बना लेने के खिलाफ सावधान रहें, क्योंकि बाद में उन्हें सुधारने और दूर करने में बहुत कठिनाई होती है। फिर बहुत-सी दूसरी बातों से भी यह पता चलता है कि प्योत्र पेत्रोविच बहुत ही भले आदमी हैं। पहली ही मुलाकात में उन्होंने हमें बताया कि वे अच्छे

1. श्रेणीक्रम में सातवीं श्रेणी का अधिकारी।

आचार-व्यवहार के आदमी हैं, लेकिन इसके साथ ही, जैसा कि उन्होंने हमें बताया, कई बातों में वह 'हमारी सबसे उभरती हुई पीढ़ी की' आस्थाओं से सहमत हैं और हर तरह के पूर्वाग्रह के विरोधी हैं। उन्होंने और भी बहुत-सी बातें बताईं, क्योंकि वे जरा से घमंडी हैं और चाहते हैं कि उनकी बात सुनी जाए, लेकिन यह कोई ऐसी बुराई नहीं है। मेरी समझ में तो ज्यादा कुछ आया नहीं, लेकिन दूनिया ने मुझे बताया कि वे बहुत पढ़े-लिखे आदमी तो नहीं हैं लेकिन होशियार हैं और स्वभाव तो जानते ही हो। वह अपने इरादे की पक्की, समझदार, धीरज रखनेवाली और उदार लड़की है लेकिन उसका दिल बड़ा भावुक है; इतना मैं जानती हूँ। यह सच है कि कोई खास प्यार-मुहब्बत न इसकी तरफ से है और न उनकी तरफ से, लेकिन दूनिया समझदार लड़की है, दिल उसका फरिश्तों जैसा है, अपने पति को खुश रखना वह अपना कर्तव्य समझेगी और वे भी उसे सुखी रखने को अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। इसमें शक करने की कोई वजह नहीं है, हालाँकि यह सही है कि यह सारा मुआमला बहुत जल्दी में तय किया गया है। इसके अलावा वे बहुत समझदार आदमी हैं और यकीनन वे खुद यह समझ लेंगे कि दूनिया उनके साथ जितनी ज्यादा सुखी रहेगी उतना ही ज्यादा उनके भी सुखी रहने का भरोसा रहेगा। जहाँ तक स्वभाव की कुछ खराबियों का, कुछ आदतों का और कुछ बातों पर मतभेद का सवाल है, वे सुखी से सुखी विवाहित जीवन में भी होते ही होते हैं। तो दूनिया ने कहा है कि जहाँ तक इन सब बातों का सवाल है, उसे अपने ऊपर पूरा भरोसा है, इन बातों के बारे में परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है, यह कि वह बहुत कुछ बर्दाश्त करने को तैयार है, बशर्ते आगे भी उनका संबंध ईमानदारी और इन्साफ पर कायम रह सके। मिसाल के लिए, शुरू-शुरू में वे मुझे भी कुछ अक्खड़ मालूम हुए, लेकिन यह भी तो हो सकता था कि वे साफ बात कहनेवाले आदमी हों, और दरअसल बात थी भी यही। जैसे, दूनिया की रजामंदी मिलने के बाद जब वे दूसरी बार हमारे यहाँ आए तो बातचीत के दौरान उन्होंने साफ कहा कि दूनिया से जान-पहचान होने से पहले ही उन्होंने अपने मन में ठान ली थी कि दहेज लिए बिना वे किसी ऐसी लड़की से ब्याह करेंगे जो चाल-चलन की अच्छी हो, और सबसे बढ़ कर यह कि जिसने गरीबी के दिन देखे हों क्योंकि, जैसा कि उन्होंने समझाया, किसी आदमी को अपनी बीवी का मोहताज नहीं होना चाहिए, बल्कि अच्छा यही है कि औरत अपने पति को अपना उपकारी समझे। मैं यह भी बता दूँ कि जिस तरह मैंने कही है, उससे कहीं ज्यादा नमी और शिष्टता से उन्होंने यह बात कही थी। उनके शब्द तो मैं भूल गई हूँ; मुझे बस उनका मतलब याद रह गया है। इसके अलावा जाहिर है कि उन्होंने यह बात किसी खास मंसूबे के तहत नहीं कही थी बल्कि यह बातचीत के दौरान सहज भाव से उनके मुँह से निकल गई थी, जिसकी वजह से बाद में उन्होंने अपनी बात को ठीक करने और सुधारने की कोशिश की, यूँ फिर भी मुझे वह बात कुछ अक्खड़पन से कही हुई लगी और बाद में मैंने दूनिया से कहा भी। लेकिन दूनिया परेशान हो गई और उसने जवाब दिया कि 'आदमी की कथनी उसकी करनी नहीं होती' और यह बात सच भी है। अपना मन पक्का करने से पहले रात-भर दूनिया सोई नहीं। यह सोच कर कि मैं सो गई हूँ, वह बिस्तर से उठी और रात-भर कमरे में इधर-से-उधर टहलती रही; आखिरकार प्रतिमा के सामने घुटने टेक कर बैठ गई, बड़ी देर तक तन्मय हो कर प्रार्थना करती रही और सुबह उसने मुझे बताया कि उसने फैसला कर लिया है।

'मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि प्योत्र पेत्रोविच जल्दी ही पीतर्सबर्ग के लिए रवाना होनेवाले हैं, जहाँ उनका बहुत बड़ा कारोबार है और जहाँ वे वकालत का दफ्तर खोलना चाहते हैं। कई साल से वकालत कर रहे हैं और अभी कुछ दिन पहले बहुत बड़ा मुकद्दमा जीत चुके हैं। उन्हें पीतर्सबर्ग में इसलिए भी रहना है कि सेनेट के सामने उनके एक बहुत अहम मुकद्दमे की सुनवाई है। इसलिए, प्यारे रोद्या, हर तरह से वे तुम्हारे काम आ सकते हैं। दूनिया और मैं, दोनों यही समझते हैं कि तुम आज ही से अपनी रोजी कमाना शुरू कर सकते हो और यह समझ सकते हो कि तुम्हारा भविष्य तय और पक्का हो चुका है। काश, ऐसा ही हो। इससे इतना फायदा होगा कि हम इसे दैवी वरदान समझ सकते हैं। दूनिया तो हरदम इसी के सपने देखती रहती है। हम लोगों ने हिम्मत करके प्योत्र पेत्रोविच से इसकी चर्चा छेड़ी भी। उन्होंने जवाब देने में बहुत सोच-विचार से काम लिया और कहा कि उनका काम सेक्रेटरी के बिना तो चल नहीं सकता, और यह कि किसी गैर को पैसा देने से बेहतर तो यही है कि अपने किसी रिश्तेदार की तनख्वाह बाँध दी जाए, अगर वह उस काम के लिए योग्य हो (जैसे तुम्हारे योग्य होने में कोई शक हो सकता है!), लेकिन उन्हें यह शंका जरूर थी कि यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के बाद तुम्हारे पास दफ्तर में काम करने के लिए समय भी बचेगा या नहीं। बात फिलहाल यहीं पर खत्म हो गई है लेकिन दूनिया अब और किसी बारे में सोचती भी नहीं। पिछले कुछ दिनों से उस पर जैसे कोई जुनून सवार है, और उसने इस बात की एक पूरी योजना बना ली है कि आखिर में तुम प्योत्र पेत्रोविच के वकालत के धंधे में उनके सहयोगी ही नहीं बल्कि साझेदार भी बन जाओ, यह तो अच्छा ही है कि तुम कानून पढ़ रहे हो। रोद्या, मैं इसमें पूरी तरह उससे सहमत हूँ, और समझती हूँ कि उन्हें पूरा करना बिलकुल मुमकिन है। सो प्योत्र पेत्रोविच की गोलमोल बातों के बावजूद, जो इस वक्त बहुत स्वाभाविक बात है। (क्योंकि वे तुम्हें जानते तक नहीं हैं), दूनिया को पूरा भरोसा है कि अपने होनेवाले पति पर अपने अच्छे प्रभाव बूते पर वह यह सब कुछ हासिल कर लेगी; वह इसी की आस लगाए बैठी है। जाहिर है, हम लोगों ने इतनी सावधानी तो बरती ही है कि आगे कि इन योजनाओं के बारे में, और खास तौर पर उनके कारोबार में तुम्हारे साझेदार बनने के बारे में, हमने प्योत्र पेत्रोविच से कोई चर्चा नहीं की है। वह बहुत व्यवहारकुशल आदमी हैं और हो सकता है कि इसके बारे में कोई उत्साह न दिखाएँ; उन्हें ये सारी बातें हो सकता है केवल कोरी कल्पनाएँ लगें। हमें इसकी कितनी उम्मीद है कि तुम्हारी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई का खर्च उठाने में वे हमारी मदद करेंगे। इसके बारे में न तो दूनिया ने उनसे एक शब्द कहा है और न मैंने। इसकी चर्चा हम लोगों ने सबसे पहले तो इसलिए नहीं की कि आगे चल कर यह सब अपने आप हो जाएगा, और वे कोई लंबी-चौड़ी बात किए बिना खुद ही अपनी तरफ से इसका सुझाव रखेंगे (भला वे दूनिया की इतनी-सी बात को टाल ही कैसे सकते हैं!), इसलिए तुम खुद अपनी कोशिश से आसानी से दफ्तर में उनका दाहिना हाथ बन जाओगे, और तुम्हें उनकी यह मदद खैरात में नहीं मिलेगी बल्कि अपने काम के बदले, वह तुम्हारी अपनी कमाई होगी। दूनिया सारा बंदोबस्त इसी तरह से करना चाहती है और मैं उससे पूरी तरह सहमत हूँ। फिर हमने अपनी योजनाओं के बारे में एक दूसरी वजह से भी बात नहीं की। इसलिए कि मैं खास तौर पर यह चाहती थी कि जब तुम पहली बार उनसे मिलो तो बराबरी की हैसियत से मिलो। जब दूनिया ने बड़े जोश के साथ तुम्हारे बारे में उनसे बात की, तो उन्होंने जवाब दिया कि कोई आदमी खुद किसी को करीब से देखे बिना उसके बारे में कोई राय नहीं कायम कर सकता, और यह कि वे तुमसे जान-पहचान हो जाने के बाद खुद अपनी राय बनाना चाहेंगे। मेरे अनमोल रोद्या, मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि कुछ वजहों से (जिनका प्योत्र पेत्रोविच से कोई संबंध नहीं है और जो महज मेरी निजी, बूढ़ी औरतोंवाली सनक है) शायद बेहतर यही हो कि शादी के बाद मैं उन लोगों के साथ रहने की बजाय अलग अकेली ही रहूँ। मुझे पूरा विश्वास है, वह इतनी उदारता और शिष्टता दिखाएँगे कि मुझे न्योता दें और अनुरोध करें कि मैं आगे भी अपनी बेटी के साथ ही रहूँ; और अगर उन्होंने अभी तक इसके बारे में कुछ नहीं कहा है, तो उसकी वजह यही है कि यह तो एक मानी हुई बात समझ ली गई है। लेकिन मैं तो खुद मना कर दूँगी। मैंने जिंदगी में कितनी ही बार देखा है कि लोगों की शादी के बाद सास से नहीं निभती है। मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से किसी को जरा भी तकलीफ हो, और अपनी खातिर भी मैं यही चाहूँगी कि जब तक मुझे अपनी रोटी का एक टुकड़ा नसीब है, और तुम्हारी और दुनेच्का जैसी औलादें हैं, तब तक मैं अपने बूते पर ही खड़ी रहूँ, किसी पर बोझ न बनूँ। अगर हो सका तो मैं तुम्हारे दोनों के पास ही कहीं आ कर बस जाऊँगी क्योंकि, प्यारे रोद्या, सबसे बड़ी खुश-खबरी तो मैंने अपने खत के आखिरी हिस्से के लिए बचा रखी है। मेरे प्यारे बेटे, मैं तुम्हें बता दूँ कि शायद बहुत जल्द ही हम सब फिर एक जगह इकट्ठे हों और लगभग तीन साल की जुदाई के बाद फिर एक-दूसरे से गले मिलें! यह पक्के तौर पर तय हो गया है कि दूनिया और मैं दोनों पीतर्सबर्ग जाएँगे। यह तो मुझे मालूम नहीं कि कब, लेकिन बहुत जल्दी ही जाएँगे; शायद एक हफ्ते के अंदर। इसका दारोमदार प्योत्र पेत्रोविच पर है; उन्हें जब पीतर्सबर्ग में सारी बातों का पता लगाने की फुरसत मिलेगी, तब वही तय करके हमें खबर कर देंगे। खुद अपनी सुविधा के लिए वे बहुत उत्सुक हैं कि जितनी जल्दी हो सके, यह रस्म पूरी कर दी जाए, अगर मुमकिन हो तो देवी के व्रत1 से पहले ही, और अगर इतनी जल्दी तैयारी न हो सके, तो उसके फौरन बाद। अपने कलेजे से तुम्हें लगा कर कितनी खुशी मुझे होगी! तुमसे मिलने की खुशी की बात सोच कर ही दूनिया का दिल बल्लियों उछल रहा है; एक दिन तो उसने मजाक में यहाँ तक कहा कि वह सिर्फ इसके लिए ही प्योत्र पेत्रोविच से ब्याह करने को तैयार है। बिलकुल फरिश्ता है! वह अभी तुम्हें कुछ नहीं लिख रही है, लेकिन उसने मुझसे बस इतना लिखने को कहा है कि उसे तुम्हें इतनी बातें, इतनी ढेर सारी बातें बतानी हैं कि वह अभी कुछ भी नहीं लिख रही है। कुछ लाइनों में तो वह तुम्हें कुछ बता नहीं सकेगी, और इससे उसका जी बेचैन ही होगा। उसने मुझसे कहा है कि उसकी ओर से मैं तुम्हें बहुत सारा प्यार और ढेरों चुंबन भेज दूँ। हालाँकि हम लोगों की मुलाकात जल्द ही होगी लेकिन एक-दो दिन में मैं तुम्हें जितना पैसा भी हो सका, भेज दूँगी। अब चूँकि सबको मालूम हो गया है कि दूनिया की शादी प्योत्र पेत्रोविच से होनेवाली है, मेरी साख अचानक बढ़ गई है और मैं जानती हूँ कि अफानासी इवानोविच अब मेरी पेंशन की जमानत पर पचहत्तर रूबल के लिए भी मुझ पर भरोसा कर लेगा और इस तरह मैं तुम्हें पच्चीस या तीस रूबल भी भेज सकूँगी। भेजती तो मैं वैसे इससे भी ज्यादा, लेकिन मुझे सफर के खर्च की चिंता है। प्योत्र पेत्रोविच ने हमारे सफर के खर्च का कुछ हिस्सा अपने जिम्मे ले लिया है, मतलब यह कि हमारा सामान और बड़ा संदूक पहुँचवाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है (जो उनकी जान-पहचान के किसी आदमी के हाथ पहुँचवा दिया जाएगा), फिर भी पीतर्सबर्ग पहुँचने पर थोड़े-बहुत खर्च का बंदोबस्त तो हमें करना ही पड़ेगा, क्योंकि कम-से-कम पहले कुछ दिनों में तो ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारे पास एक कौड़ी भी न हो। वैसे हमने-दूनिया ने और मैंने-पाई-पाई हिसाब लगा लिया है, और इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि इस सफर में खर्च बहुत ज्यादा नहीं होगा। हमारे यहाँ से रेलवे स्टेशन की दूरी कुल नब्बे वेर्स्त कि है और हमने यहाँ जान-पहचान के एक गाड़ीवान से सब कुछ तय कर लिया है ताकि वह तैयार रहे; और वहाँ से मैं और दूनिया बड़े आराम से तीसरे दर्जे में सफर कर सकते हैं। इसलिए मुमकिन है कि मैं तुम्हें पच्चीस नहीं बल्कि तीस रूबल भेजूँ। बस काफी हो गया; मैं दो पूरे पन्ने भर चुकी हूँ और अब ज्यादा लिखने के लिए जगह नहीं है। मैंने

1. सभी आर्थोडाक्स चर्च के चार व्रतों में से एक। आम तौर पर यह अगस्त के पहले पखवाड़े में पड़ता है।

तो अपनी पूरी राम-कहानी लिख दी है, लेकिन इस बीच हुआ भी तो बहुत कुछ है! और अब, मेरे अनमोल रोद्या, मैं तुम्हें कलेजे से लगाती हूँ और मुलाकात होने तक के लिए माँ का आशीर्वाद भेजती हूँ अपनी बहन दूनिया को प्यार करना, रोद्या; उसको उसी तरह प्यार करना जैसे वह तुमको करती है। यह समझ लेना कि वह तुमको हर चीज से बढ़ कर, अपने आप से भी बढ़ कर, प्यार करती है। वह फरिश्ता है और तुम, रोद्या, तुम्हीं हम लोगों के लिए सब कुछ हो। हमारी अकेली उम्मीद, हमारा अकेला सहारा। बस तुम सुखी रहो, इसी में हमारा सुख है। रोद्या, तुम अभी तक रोज प्रार्थना तो करते हो, कि नहीं, और हमारे विधाता और मुक्तिदाता की दया पर विश्वास रखते हो कि नहीं मेरे मन में डर लगा रहता है कि आजकल नास्तिकता की जो नई भावना फैल रही है, कहीं तुम भी तो उसका शिकार नहीं हो गए अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगी। प्यारे बेटे, याद है न, बचपन में जब तुम्हारे बाप जिंदा थे, तुम मेरी गोदी में बैठ कर तुतला-पुतला कर प्रार्थना किया करते थे और उन दिनों हम सब लोग कितने खुश रहते थे! अच्छा, अब मैं मुलाकात होने तक के लिए विदा लेती हूँ और तुम्हें अपने कलेजे से लगाती हूँ। ढेर सारा प्यार।

मरते दम तक तुम्हारी,

पुल्खेरिया रस्कोलनिकोवा।'

पत्र पढ़ते हुए लगभग शुरू से ही रस्कोलनिकोव का चेहरा आँसुओं से भीगा रहा। लेकिन जब उसने पत्र खत्म किया तो उसका चेहरा पीला पड़ चुका और विकृत हो गया था, और उसके होठों पर कड़वी, क्रोधभरी और द्वेषभरी मुस्कराहट थी। उसने अपने फटे हुए मैले तकिए पर सर टिका दिया और सोचने लगा, बड़ी देर तक सोचता रहा। उसका दिल जोरों से धड़क रहा था, और दिमाग में एक तूफान मचा हुआ था। आखिरकार उस छोटे से पीले कमरे में, जो किसी कबूतरखाने या संदूक जैसा था, उसे घुटन महसूस होने लगी, जैसे किसी ने उसे वहाँ जकड़ रखा हो। उसकी आँखें और उसका दिमाग खुली जगह के लिए तड़प उठे। उसने अपना हैट उठाया और बाहर निकल गया। इस बार उसे किसी से मुलाकात का डर नहीं सता रहा था; वह अपना डर भूल चुका था। वही बसील्येव्स्की ओस्त्रोव की दिशा में मुड़ा और व. प्रॉस्पेक्ट पर इस तरह चलता रहा जैसे उसे किसी काम से कहीं पहुँचने की जल्दी हो। लेकिन, जैसी कि उसकी आदत थी, वह अपने रास्ते के बारे में कोई ध्यान दिए बिना चल रहा था, और मन-ही-मन कुछ बुदबुदाता जा रहा था। वह बीच-बीच में अपने आपसे, जोर-जोर से बातें भी करने लगता था, जिस पर राह चलनेवालों को आश्चर्य होता था। उनमें से बहुतेरे तो यह समझते थे कि वह पिए हुए है।

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 4)

अपनी माँ के पत्र से उसे बेहद तकलीफ हुई थी। लेकिन जहाँ तक उसमें कही गई मुख्य बात का सवाल था, उसके बारे में उसे एक पल के लिए भी कोई कशमकश नहीं हुई, उस समय भी नहीं जब वह पत्र पढ़ रहा था। उसके दिमाग ने बुनियादी सवाल का फैसला कर लिया था, और अटल फैसला किया था, 'जब तक मैं जिंदा हूँ, यह शादी कभी नहीं हो सकती; भाड़ में जाएँ मिस्टर लूजिन!'

अपने फैसले की कामयाबी का पहले से ही अनुमान करके वह द्वेषभरी मुस्कराहट के साथ मन-ही-मन बुदबुदाया : 'बात बिलकुल साफ है। नहीं माँ, नहीं दूनिया, तुम लोग मुझे धोखा नहीं दे सकतीं! और ऊपर से ये लोग मुझसे इस बात की माफी भी माँगती हैं कि उन्होंने मेरी सलाह नहीं ली और बिना मेरे, फैसला कर लिया! वे और कर भी क्या सकती थीं! सोचती हैं कि अब सारी बात तय हो चुकी है और यह शादी तोड़ी नहीं जा सकती; लेकिन हम देखेंगे कि तोड़ी जा सकती है या नहीं! क्या अच्छा बहाना है : 'प्योत्र पेत्रोविच इतने व्यस्त आदमी हैं कि उनकी शादी भी फौरन से पेशतर होनी चाहिए, बिलकुल डाकगाड़ी की रफ्तार से।' नहीं दुनेच्का, सब समझता हूँ मैं, मुझे मालूम है कि तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो। और मैं यह भी जानता हूँ कि जब तुम रात-भर इधर-से-उधर टहलती रही थीं तो तुम क्या सोच रही थीं और माँ के सोने के कमरे में कजान की देवी1 की जो प्रतिमा रखी हुई है, उसके सामने तुमने क्या प्रार्थना की होगी। बलिवेदी तक पहुँचने की चढ़ाई बड़ी कष्टमय तो होती है। ...हुँह ...तो सब कुछ तय हो गया है। तो अव्दोत्या रोमानोव्ना, तुमने एक समझदार और कामकाजी आदमी से शादी करने का फैसला कर लिया है, जिसके पास बहुत दौलत है (जो बहुत दौलत जमा कर चुका है, जिसकी वजह से उसकी हैसियत कहीं ज्यादा ठोस और रोबदार हो गई है); एक ऐसे आदमी से जो दो-दो ओहदों पर लगा हुआ है, जो हमारी सबसे उभरती हुई पीढ़ी के विचारों से सहमत है, जैसा कि माँ ने लिखा है, और जो स्वभाव का अच्छा मालूम होता है, जैसी कि खुद दुनेच्का की राय है। इस मालूम होता है का भी जवाब नहीं! और वही दूनिया इसी मालूम होता है के चलते उससे शादी कर रही है! वाह, क्या कहने!

'...लेकिन मैं जानना चाहूँगा कि माँ ने मुझे 'हमारी सबसे उभरती हुई पीढ़ी' के बारे में क्यों लिखा सिर्फ मुझे यह बताने के लिए कि मिस्टर लूजिन किस तरह के आदमी हैं या उनके मन में कोई और बात थी या यह सोच कर कि पहले से ही मुझ पर मिस्टर लूजिन की अच्छी छाप डाल सकें ओह, कितने काइयाँ हैं ये लोग! मैं एक बात और जानना चाहूँगा : उस दिन और उस रात और उसके बाद दोनों ने एक-दूसरे से कितने

1. (कजान शहर में विशेष श्रद्धा के साथ पूजी जाने वाली देवी। वैसे उसकी तस्वीरें पूरे देश में मिल जाती थीं।)

खुल कर बातें कीं? क्या हर बात शब्दों में कही गई थी, या दोनों ने यह समझ लिया था कि दोनों के दिल और दिमाग में एक ही बात है और इसलिए उसके बारे में जोरों से बातें करने की कोई जरूरत नहीं है, और उसकी चर्चा न करना ही बेहतर है? सबसे ज्यादा संभव यही है कि कुछ हद तक यही बात हो। जैसा कि माँ के खत से साफ जाहिर है, वह उन्हें थोड़ा अक्खड़ लगे, और अपने भोलेपन में माँ ने अपनी राय दूनिया को बताई। दूनिया को परेशान तो होना ही था और उसने 'उन्हें बहुत गुस्से से जवाब दिया'। स्वाभाविक-सी बात थी। और गुस्सा किसे न आता जबकि भोलेपन के सवाल पूछे बिना भी यह बात स्पष्ट थी और यह बात पहले से समझ ली गई थी कि उसके बारे में बहस करना बेकार है और उन्होंने मुझे यह क्यों लिखा कि 'रोद्या, दूनिया को प्यार करना, और वह तुम्हें अपने आप से भी बढ़ कर प्यार करती है।' क्या उनका जमीर अंदर-ही-अंदर उन्हें धिक्कार तो नहीं रहा कि अपने बेटे की खातिर उन्होंने अपनी बेटी को बलि चढ़ा दिया 'तुम्हीं हमारा अकेला सहारा हो, तुम्हीं हमारा सब कुछ हो।' ओह, माँ!'

उसकी कड़वाहट लगातार और गहरी होती गई, और अगर उसी क्षण मि. लूजिन से उसकी मुलाकात हो जाती, तो वह उन्हें जान से मार देता।

'हुँह... यह सच है,' जो विचार उसके दिमाग में तूफान की तरह मँडराते हुए एक-दूसरे का पीछा कर रहे थे, उनका सिलसिला पकड़ कर वह बुदबुदाता रहा, 'यह सच है कि किसी आदमी को 'समझने में समय लगता है और सावधानी बरतनी पड़ती है', लेकिन मिस्टर लूजिन के बारे में कोई गलती नहीं हो सकती। खास बात यह है कि वह 'कारोबारी आदमी हैं और बहुत भले मालूम होते हैं' : तो बड़ा कमाल किया उन्होंने, जो उन लोगों का सारा सामान और बड़ा संदूक भिजवा दिया! सचमुच बहुत भले आदमी हैं कि उन्होंने इतना कर दिया। लेकिन उनकी दुल्हन और उसकी माँ को बोरे से ढँके हुए छकड़े में बैठ कर सफर करना होगा (मैं भी तो उसमें बैठ कर सफर कर चुका हूँ)! कोई बात नहीं है! कुल नब्बे ही वेर्स्त तो है और फिर एक हजार वेर्स्त तक वे 'तीसरे दर्जे में बड़े आराम से सफर कर सकती हैं!' ठीक ही तो है : चादर जितनी हूजियो उतना पैर पसार। लेकिन आप अपनी बात सोचिए, लूजिन साहब। वह आपकी दुल्हन है... सो आपको यह भी तो मालूम होगा कि उसकी माँ को इस सफर के लिए अपनी पेंशन गिरवी रख कर पैसा जुटाना पड़ेगा। जाहिर है यह व्यापार का मामला है, ऐसी साझेदारी जिसमें दोनों का फायदा हो, जिसमें दोनों के हिस्से बराबर हों और खर्च भी दोनों बराबर उठाएँ। जैसा कि रूसी भाई लोग कहते हैं : खाने-पीने को तो मिलेगा, लेकिन तंबाकू का पैसा देना पड़ेगा। यहाँ भी व्यापारी उन्हें दाँव दे गया। सामान पहुँचवाने का खर्च किराए से कम होगा और मुमकिन है मुफ्त ही चला जाए। ये सारी बातें उन दोनों की समझ में कैसे नहीं आतीं या वे इसे समझना ही नहीं चाहतीं या वे खुश हैं, इसी बात पर खुश हैं! और जरा सोचिए, यह तो अभी बौर ही लगा है, असली फल तो बाद में लगेंगे! लेकिन असली सवाल कंजूसी का नहीं है, कमीनेपन का भी नहीं है, बल्कि इस पूरे मामले की भावना का है। शादी के बाद भी क्या यही भावना रहेगी; अभी तो यह सिर्फ बानगी है। और माँ भी... वह पानी की तरह क्यों पैसा बहा रही हैं पीतर्सबर्ग पहुँचने तक उनके पास क्या बच रहेगा चाँदी के तीन रूबल या दो नोट1, जैसा कि वह सूदखोर बुढ़िया कहती है... हुँह! वे पीतर्सबर्ग में बाद में रहेंगी काहे के सहारे? अभी से उनको अंदाजा हो चला है कि शादी हो जाने के बाद वे दूनिया के साथ नहीं रह सकतीं, शुरू के कुछ महीने भी नहीं। उस भले आदमी ने लगे हाथ इसके बारे में भी कुछ कह दिया होगा, हालाँकि माँ इस बात को मानेंगी नहीं, कहती हैं : 'मैं खुद मना कर दूँगी,' फिर वह किसका आसरा लगाए हुए हैं? क्या अफानासी इवानोविच का कर्ज चुकाने के बाद उनकी एक सौ बीस रूबल की पेन्शन में से जो कुछ बचेगा, उसके भरोसे बैठी हैं ऊनी शालें बुन-बुन कर, कफ काढ़-काढ़ कर अपनी बूढ़ी आँखें खराब कर रही हैं। और जितनी शालें वे बुनती हैं, उनसे उनकी एक सौ बीस रूबल सालाना की आमदनी में बीस रूबल से ज्यादा की बढ़त नहीं होती, यह बात मैं जानता हूँ। इसलिए हर जगह वे मि. लूजिन की उदारता के बल पर ही सारी उम्मीदें बाँधे हुए हैं : 'वह खुद अपनी तरफ से कहेंगे, वह मेरे ऊपर इसके लिए दबाव डालेंगे'। आँखें पथरा जाएँगी इसका इंतजार कर-करके! इन शिलर के पात्रों जैसे नेकदिल लोगों का हमेशा यही हाल होता है; आखिरी वक्त तक उन्हें हर बत्तख हंस दिखाई देती है, आखिरी दम तक वे अच्छी-से-अच्छी बात की उम्मीद लगाए रहते हैं, उन्हें कोई खराबी दिखाई नहीं देती। हालाँकि उन्हें तस्वीर के दूसरे रुख का थोड़ा-बहुत अंदाजा जरूर होता है लेकिन जब तक उन्हें मजबूर न कर दिया जाए, वे सच्चाई का सामना करने को तैयार नहीं होते; उसकी बात सोच कर ही काँप उठते हैं; दोनों हाथों से सच्चाई को दूर ढकेलते रहते हैं, जब तक कि वह आदमी, जिसे वे झूठे रंग-रूप में सजा-सँवार कर पेश करते हैं, खुद अपने हाथों से उन्हें बेवकूफोंवाली टोपी न पहना दें। मैं जानना चाहूँगा क्या लूजिन साहब को कभी कोई सनद मिली है? मैं दावे से कह सकता हूँ कि उनके पास कालर पर फूल के काज में लगाने के लिए सेंट एन का तमगा जरूर होगा और जब वह ठेकेदारों या व्यापारियों के साथ दावतें खाने जाते होंगे, तो उसे लगा लेते होंगे। मुझे यकीन है, अपनी शादी के मौके पर भी वह उसे लगाएँगे! मैं तो तंग आ गया उनसे, भाड़ में जाएँ वह!...

'खैर... माँ पर मुझे कोई ताज्जुब नहीं होता, वे तो हैं ही ऐसी, भगवान उन्हें सुखी

1. क्रांतिपूर्व रूस में चाँदी के रूबल और कागज के रूबल के मूल्यों में अंतर था।

रखे, लेकिन दूनिया को क्या कहा जाए? प्यारी दूनिया, क्या मैं तुम्हें जानता नहीं! जब मैं पिछली बार तुमसे मिला था, तुम लगभग बीस साल की थीं : तभी मैं तुम्हें समझ गया था। माँ ने लिखा है कि 'दूनिया बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है'। मैं यह बात तो बहुत ही अच्छी तरह जानता हूँ। यह बात मुझे ढाई साल पहले ही मालूम थी, और पिछले ढाई साल से मैं इसके बारे में सोचता रहा हूँ, बस इसी के बारे में सोचता रहा हूँ कि 'दूनिया बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है'। अगर उसने स्विद्रिगाइलोव साहब को और उन बाकी सारी बातों को बर्दाश्त कर लिया, तो वह सचमुच बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है। और अब माँ ने और उसने अपने मन में यही बात बिठा ली है कि वह लूजिन साहब को बर्दाश्त कर सकती है, जो इस सिद्धांत का बखान करते हैं कि जिन बीवियों को कंगाली से बाहर निकाल कर लाया जाता है और जो हर चीज के लिए अपने शौहरों की मेहरबानी की मोहताज रहती हैं, वे ज्यादा अच्छी होती हैं - और इस सिद्धांत का बखान भी उन्होंने लगभग पहली ही मुलाकात में किया था। माना कि यह बात उनके 'मुँह से निकल गई थी', हालाँकि वह समझदार आदमी हैं (यह भी तो हो सकता है कि बात उनके मुँह से अनजाने न निकली हो, बल्कि वे यही चाहते ही हों कि अपना रवैया जल्दी से जल्दी साफ-साफ बता दें), लेकिन दूनिया... दूनिया को क्या हो गया वह उस आदमी को समझती है, सच है, लेकिन उसे उस आदमी के साथ रहना भी तो होगा। वह रूखी रोटी खा कर और पानी पी कर अपने दिन काट देगी लेकिन अपनी आत्मा कभी नहीं बेचेगी; सुख-सुविधा के बदले अपनी नैतिक स्वतंत्रता का कभी सौदा नहीं करेगी; लूजिन साहब के पैसे की बिसात ही क्या है, वह तो श्लेसविग-हाल्सटाइन की सारी जागीर के बदले भी उसका सौदा नहीं करेगी। नहीं, जब मैं दूनिया को जानता था, तब वह ऐसी नहीं थी और

...यकीनन वह अब भी वैसी ही है! अलबत्ता, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि स्विद्रिगाइलोव परिवार में उसका अनुभव बहुत कड़वा रहा! मुफस्सिल के किसी कस्बे में दो सौ रूबल सालाना पर गवर्नेस का काम करना यूँ भी काफी कड़वा अनुभव होता है। लेकिन मैं जानता हूँ कि वह बागान में हब्शी मजदूरों की तरह काम कर लेगी या किसी जर्मन जमींदार के यहाँ बाल्तिक प्रदेश से आनेवाले खेत-मजदूरों की तरह अपने दिन काट लेगी, लेकिन अपने स्वार्थ की खातिर वह अपनी आत्मा को और अपनी नैतिक प्रतिष्ठा को हमेशा के लिए अपने आपको किसी ऐसे आदमी के साथ बाँध कर नीचे नहीं गिराएगी, जिसकी वह इज्जत न करती हो और जिसकी कोई भी चीज उससे न मिलती हो। और अगर लूजिन साहब एकदम खरा सोना भी होते, या हीरे का बड़ा-सा डला भी होते, तब भी वह उनकी कानूनी रखैल बनने को कभी राजी न होती! फिर वह राजी क्यों हो गई बात क्या है आखिर जवाब इसका क्या है बात काफी साफ है : खुद अपनी खातिर, अपने आराम की खातिर, अपनी जान बचाने की खातिर वह अपने आपको कभी न बेचती, लेकिन किसी और की खातिर वह ऐसा कर रही है! वह किसी ऐसे आदमी की खातिर अपने आपको बेच देगी। जिसे वह प्यार करती है, जिसे वह सराहती है। तमाम बातों का निचोड़ यही है : अपने भाई की खातिर, अपनी माँ की खातिर वह अपने आपको बेच देगी! हर चीज बेच देगी! ऐसी हालत में जरूरत पड़ने पर हम अपनी नैतिक भावना को भी दबा देते हैं; स्वतंत्रता, शांति, यहाँ तक कि अंतरात्मा भी, सब कुछ, हर चीज बाजार में ले आई जाती है। हमारी जिंदगी भले ही तबाह हो जाए, बस हमारे प्रियजन सुखी रहें! इतना ही नहीं, हम धर्म और अधर्म की मीमांसा भी करने लगते हैं, छल-कपट भरी गोल-मोल बातें करना सीख लेते हैं, और कुछ समय के लिए हम अपने आपको तसल्ली दे सकते हैं, अपने मन को समझा सकते हैं कि एक अच्छे लक्ष्य के लिए हमारा कर्तव्य यही है। यह बात सूरज की रौशनी की तरह साफ है कि हम लोग हैं ही ऐसे। यह बात एकदम साफ है कि रोदिओन रोमानोविच रस्कोलनिकोव इस पूरे किस्से का केंद्रीय पात्र है, कोई दूसरा नहीं। जी हाँ, वह उसके जीवन को सुखी बनाने का पक्का बंदोबस्त कर सकती है, यूनिवर्सिटी में उसके पढ़ते रहने का इंतजाम कर सकती है, उसे दफ्तर में साझेदार बना सकती है, उसके पूरे भविष्य को सुरक्षित बना सकती है; शायद आगे चल कर वह धनी भी बन जाए; दौलतवाला, इज्जतवाला, और कौन जाने बहुत मशहूर आदमी हो कर मरे! लेकिन मेरी माँ उसके लिए तो रोद्या ही सब कुछ है, जान से प्यारा रोद्या, उसकी पहली संतान! ऐसे बेटे की खातिर कौन अपनी बेटी की बलि नहीं दे देगा! ओह, प्यार भरे, घोर पक्षपाती हृदय! अरे, उसकी खातिर तो हम सोन्या जैसा जीवन अपनाने में भी संकोच नहीं करेंगे! सोन्या... सोन्या मार्मेलादोवा... जब तक यह दूनिया रहेगी, उसको ही सारी मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी! क्या तुमने, तुम दोनों ने, अपनी कुर्बानी की थाह ली है क्या यह सही है क्या तुम इसे झेल सकोगी क्या इसका कोई फायदा है इसकी कोई तुक है क्या और दुनेच्का, मैं तुम्हें इतना बता दूँ कि मिस्टर लूजिन के साथ तुम्हारी जिंदगी जैसी होगी, सोन्या की जिंदगी उससे बदतर नहीं है। 'प्यार-मुहब्बत का तो कोई सवाल ही नहीं हो सकता,' माँ ने लिखा है। और अगर इज्जत भी न मिली तो अगर इसकी बजाय उलटे दुराव, तिरस्कार और नफरत मिली तो फिर तो तुम्हें भी 'बनाव-सिंगार से रहना पड़ेगा'। यही बात है न तुम समझती हो क्या कि उस सज-धज का क्या मतलब होता है तुम इस बात को समझती हो क्या कि लूजिन की सज-धज एकदम वैसी ही चीज है जैसे सोन्या की और शायद उससे भी बदतर, उससे भी निकृष्ट, उससे भी गिरी हुई चीज हो। इसलिए दुनेच्का कि तुम्हारे मामले में तो यह बहरहाल ऐश-आराम का सौदा है, जबकि सोन्या के लिए तो भूखे मरने का सवाल है। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है दूनिया, कीमत चुकानी पड़ती है, इस सज-धज की! बाद में चल कर अगर यह सब तुम्हारी बर्दाश्त के बाहर हुआ तो, अगर तुम्हें इसका पछतावा हुआ तो कड़वाहट, व्यथा, तिरस्कार, सारी दुनिया से छिप कर आँसू बहाना, क्योंकि तुम मार्फा पेत्रोव्ना नहीं हो। और तुम्हारी माँ को तब कैसा लगेगा? अभी से उन्हें बेचैनी हो रही है, चिंता लगी हुई है, लेकिन तब क्या होगा जब उन्हें हर बात साफ दिखाई देने लगेगी और मैं हाँ, मुझे, आखिर तुम लोगों ने समझा क्या है मुझे तुम्हारी कुर्बानी नहीं चाहिए दूनिया, मुझे यह कुर्बानी नहीं चाहिए माँ! मेरे जीते जी यह नहीं होगा, कभी नहीं होगा!'

उसके विचारों का सिलसिला अचानक रुक गया और वह चुपचाप खड़ा रहा।

'मैं इसे कबूल करने से रहा।' लेकिन इसे रोकने के लिए तुम करोगे क्या? मना कर दोगे, लेकिन तुम्हें इसका अधिकार क्या है? अपनी ओर से तुम उन्हें किस चीज की उम्मीद दिला सकते हो जो वे तुम्हें इसका अधिकार दें। जब तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लोगे और तुम्हें नौकरी मिल जाएगी, तब अपना सारा भविष्य उन्हें अर्पित कर दोगे अरे, यह सब कुछ तो हम पहले भी सुन चुके हैं; ये सब केवल बाद की बातें हैं। लेकिन इस वक्त कुछ करना होगा, अभी इसी वक्त कर क्या रहे हो तुम उनके सहारे जी रहे हो। वे अपनी सौ रूबल की पेंशन के बूते कर्ज लेती हैं। वे स्विद्रिगाइलोव परिवार से पैसा उधार लेती हैं! और ऐ भावी कुबेर, ऐ उनके भाग्य-विधाता जीयस, तुम उन्हें स्विद्रिगाइलोव जैसे लोगों से, अफानासी इवानोविच बाखरूशिन से कैसे बचाओगे... तुम जो उनकी जिंदगी की सारी व्यवस्था करनेवाले हो अगले दस साल में अगले दस साल में तो माँ शालें बुन-बुन कर अंधी हो जाएँगी, हो सकता है रो-रो कर भी। भूखी रह-रह कर वह सूख कर, तिनका हो जाएँगी। और मेरी बहन एक पल के लिए सोचो तो सही कि दस साल में तुम्हारी बहन का क्या अन्जाम होगा उन दस बरसों में उस पर क्या बीतेगी सोच सकते हो?'

वह इसी तरह अपने आपको यातना देता रहा, इसी तरह के सवालों से उलझता रहा और इसमें उसे एक तरह का मजा आता रहा। फिर भी ये सारे सवाल ऐसे नए सवाल नहीं थे, जो अचानक उसके सामने आ गए हों। ये तो पुराने जाने-पहचाने दर्द थे। बहुत पहले ही इन्होंने उसके दिल को अपने शिकंजे में जकड़ना और कचोके देना शुरू कर दिया था। उसकी आज की तकलीफ बहुत पहले शुरू हुई थी, बढ़ती आई थी, प्रबल होती गई थी, परिपक्व और घनीभूत होती गई थी, यहाँ तक कि उसने एक भयानक और कल्पनातीत प्रश्न का रूप धारण कर लिया था, जो उसके दिल और दिमाग को सालता रहता था और जवाब के लिए बार-बार शोर मचाता रहता था। उसकी माँ का खत बिजली की तरह उसके ऊपर आन टूटा था। स्पष्ट था कि अब वह चुपचाप सब कुछ सहता नहीं रह सकता था; ऐसे सवालों की चिंता में डूबा नहीं रह सकता था, जो हल नहीं हुए थे। उसे बल्कि कुछ करना होगा, फौरन करना होगा, और जल्दी करना होगा। बहरहाल, उसे कुछ-न-कुछ फैसला तो करना ही होगा, वरना... 'वरना जिंदगी से बिलकुल नाता तोड़ लेना होगा!' एकाएक जुनून से बेचैन हो कर वह चिल्लाया, 'अपने मुकद्दर को हमेशा के लिए ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना होगा, अपने अंदर की हर चीज का गला घोंट देना होगा, कुछ करने का, जिंदगी का और मुहब्बत का हर दावा छोड़ देना होगा।'

'आप समझते हैं जनाब, आपको पता है, इसका क्या मतलब होता है, जब किसी के पास जाने को एकदम कोई ठिकाना न हो?' मार्मेलादोव का कल का सवाल अचानक उसके दिमाग में उठा, 'क्योंकि हर आदमी के पास जाने को कोई ठिकाना तो होना ही चाहिए...'

अचानक वह चौंका। एक और विचार, जो कल उसके मन में उठा था, चुपके से उसके दिमाग में वापस आ गया। लेकिन वह इस बात पर नहीं चौंका कि यही विचार दोबारा उसके दिमाग में उठा था, क्योंकि वह जानता था, वह पहले ही महसूस कर चुका था कि वही विचार लौट कर फिर आएगा। वह उसकी राह देख रहा था। अलावा इसके, वह महज कल का ही विचार नहीं था। फर्क बस इतना था कि एक महीना पहले तक, बल्कि कल तक भी, यह विचार केवल एक सपना था, लेकिन अब... अब वह सपना बिलकुल नहीं मालूम होता था। उसने एक नया, खतरनाक और एकदम अपरिचित रूप धारण कर लिया था, और एकाएक उसे इस बात का स्वयं आभास हो चला था... उसे लगा जैसे कोई उसके सर के अंदर हथौड़ा चला रहा है। आँखों के आगे अँधेरा छा गया।

उसने चारों ओर जल्दी-जल्दी नजर दौड़ाई। वह कोई चीज ढूँढ़ रहा था। वह बैठना चाहता था और कोई बेंच खोज रहा था; वह ह. बूलेवार पर चला जा रहा था। उसके सामने कोई सौ कदम की दूरी पर एक बेंच थी। जितनी तेजी से हो सका, वह उसकी ओर लपका। लेकिन बीच में ही अकस्मात एक ऐसी छोटी-सी घटना हो गई, जिसने उसका सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया।

बेंच ढूँढ़ते समय उसने देख लिया था कि एक औरत उससे कोई बीस कदम आगे चली जा रही थी, लेकिन शुरू में उसने उसकी तरफ रास्ते में आनेवाली दूसरी चीजों के मुकाबले कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। घर जाते हुए पहले भी कितनी ही बार उसके साथ ऐसा हो चुका था। जिस रास्ते से जाता था उसकी तरफ ध्यान नहीं देता था, और वह इसी तरह चलने का आदी हो गया था। लेकिन आज एक ही बार देखने पर आगे जाती इस औरत में ऐसी कुछ अजीब बात नजर आई कि धीरे-धीरे उसका ध्यान उस पर जम कर रह गया; शुरू में तो अनमनेपन से और गोया एक चिढ़ के साथ लेकिन बाद में अधिकाधिक एकाग्रता के साथ। अचानक उसमें यह पता लगाने की इच्छा जागी कि उस औरत में ऐसी विचित्र क्या बात थी। पहली बात तो यह थी कि वह देखने में बिलकुल नौजवान लगती थी, और उस सख्त गर्मी में भी नंगे सर चली जा रही थी। न छतरी थी न दस्ताने, और वह चलते हुए अपनी बाँहें बड़े बेतुके ढंग से हिला रही थी। वह किसी हलके रेशमी कपड़े की पोशाक पहने थी, लेकिन उसने उसे कुछ अजीब उलटे-सीधे तरीके से पहन रखा था। बटन भी ठीक से नहीं लगे हुए थे और कमर के पास स्कर्ट से ऊपर वह फट कर खुली हुई थी; उसका एक बड़ा-सा टुकड़ा जगह छोड़ कर नीचे लटक आया था। नंगी गर्दन में एक छोटा-सा रूमाल पड़ा हुआ था लेकिन वह एक ओर को कुछ तिरछा हो गया था। उस लड़की के पाँव भी सीधे नहीं पड़ रहे थे, वह लड़खड़ाती और कुछ झूमती हुई चल रही थी। आखिरकार उसने रस्कोलनिकोव का सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। बेंच तक पहुँचते-पहुँचते वह उस लड़की के बिलकुल बराबर आ चुका था। लेकिन वहाँ पहुँच कर वह बेंच के एक कोने में गिर पड़ी; बेंच की पुश्त पर अपना सिर टिका दिया और आँखें मूँद लीं। साफ मालूम होता था कि वह थक कर निढाल हो गई है। गौर से उसे देखने पर फौरन वह समझ गया कि वह शराब के नशे में चूर है। बहुत अजीब, दिल को धक्का पहुँचानेवाला मंजर था। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि वह जो कुछ देख रहा था, वह सच था। आँखों के सामने एक बिलकुल कमसिन, सुनहरे बालोंवाली लड़की का चेहरा था - सोलह की रही होगी या शायद पंद्रह से ज्यादा की न हो। सुंदर भोला-सा चेहरा, लेकिन तमतमाया हुआ। देखने में कुछ भारी-सा जैसे जरा सूजा हुआ हो। लगता था उस लड़की को कुछ भी होश नहीं कि वह क्या कर रही है। उसने बड़े भोंदे ढंग से एक टाँग उठा कर दूसरी पर चढ़ा ली। उसके व्यवहार में इस बात के सभी संकेत मौजूद थे कि उसे अपने सड़क पर होने का कोई एहसास नहीं था।

रस्कोलनिकोव बैठा नहीं, न उसे वहीं छोड़ जाने का मन हुआ; वह बस दुविधा में पड़ा उसके सामने खड़ा रहा। इस सड़क पर कभी भी बहुत आवाजाही नहीं रहती थी; और अब दो बजे, इस घुटन भरी गर्मी में तो वह एकदम सुनसान थी। फिर भी सड़क की दूसरी तरफ कोई पंद्रह कदम की दूरी पर, फुटपाथ की कगार पर एक सज्जन खड़े थे और साफ जाहिर था कि वे अपने किसी निजी स्वार्थ से उस लड़की के पास आना चाहते थे। शायद उन्होंने भी उस लड़की को दूर से देखा हो और उसका पीछा करते हुए आ रहे हों, लेकिन रस्कोलनिकोव उनके रास्ते में आ गया था। उन्होंने रस्कोलनिकोव को गुस्से से देखा, हालाँकि उसकी नजरों से बचने की पूरी कोशिश करते रहे। वे बड़ी बेचैनी से मौके की ताक में खड़े रहे कि कबाब में हड्डी की तरह बीच में आनेवाला यह चीथड़ों में लिपटा शख्स आदमी वहाँ से टले तो सही। उनकी नीयत के बारे में किसी तरह का संदेह नहीं था। वे सज्जन भरे बदन के, गठे हुए शरीरवाले आदमी थे, यही कोई तीस के लगभग। फैशनेबुल कपड़े पहने हुए, लाल होठ औ मूँछें रखे हुए। रस्कोलनिकोव को बेहद गुस्सा आया; अचानक उसके जी में आया कि किसी तरह इस मोटे छैले का अपमान तो करे। पल-भर के लिए लड़की को वहीं छोड़ कर वह उन जनाब की ओर बढ़ा।

'अरे ओ स्विद्रिगाइलोव! यहाँ क्या कर रहा है तू?' उसने मुस्कराते हुए मगर मुट्ठियाँ भींच कर, जोर से चिल्ला कर कहा। गुस्से के मारे उसके होठ टेढ़े हो रहे थे।

'क्या मतलब?' उन सज्जन ने बड़ी सख्ती से हैरान हो कर त्योरियों पर बल लिए हुए पूछा।

'चले जाओ यहाँ से; मतलब बस यही है!'

'कमीने, तेरी यह मजाल!'

यह कह कर उन्होंने अपना बेंत उठाया। रस्कोलनिकोव मुट्ठियाँ भींच कर उनकी ओर झपटा; उसने यह भी न सोचा कि वह तगड़ा आदमी उसके जैसे दो आदमियों के लिए काफी था। लेकिन उसी पल पीछे से आ कर किसी ने उसे धर दबोचा। अब उन दोनों के बीच एक पुलिसवाला खड़ा था।

'बस, साहब, बस सड़क पर कोई झगड़ा नहीं। तुम्हें चाहिए क्या? तुम हो कौन?' उसने रस्कोलनिकोव के फटे-पुराने कपड़े देख कर उससे सख्ती से पूछा।

रस्कोलनिकोव ने उसे गौर से देखा। सीधा-सादा, समझदार, सिपाहियों जैसा चेहरा। सफेद मूँछें और गलमुच्छे।

'मुझे तुम्हारे ही जैसे आदमी की तलाश थी,' रस्कोलनिकोव ने उसकी बाँह पकड़ कर ऊँची आवाज में कहा। 'मैं कॉलेज में पढ़ता था, नाम मेरा है रस्कोलनिकोव... आप भी जानना चाहें तो जान लीजिए,' उसने उन जनाब को संबोधित करते हुए इतना और जोड़ दिया। 'आओ, तुम्हें एक चीज दिखाऊँ।'

इतना कह कर उसने पुलिसवाले का हाथ पकड़ा और उसे बेंच की ओर ले चला।

'इसे देखो, यह बुरी तरह शराब पिए हुए है। अभी इसी बड़ी सड़क से इधर आई है। न जाने कौन है और क्या करती है, देखने में तो पेशेवाली नहीं मालूम होती। मुझे तो लगता है कि किसी ने शराब पिला कर इसे धोखा दिया है... पहली बार... समझते हो न और फिर उन लोगों ने इसे सड़क पर इस हालत में छोड़ दिया है। देखो तो, इसके कपड़े कैसे फटे हुए हैं, और किस तरह इसने उन्हें पहन रखा है। इसने खुद कपड़े नहीं पहने हैं, किसी ने उसे पहनाए हैं, और जिसने भी पहनाए हैं उसे इसकी आदत नहीं रही होगी। साफ जाहिर है किसी मर्द ने पहनाए हैं। और अब उधर देखो : वह छैला जिससे मैं लड़ने जा रहा था, मैं उसे जानता तक नहीं हूँ; उसे पहली बार अभी देखा है; लेकिन उसने भी इस लड़की को सड़क पर देखा है, अभी-अभी, शराब पिए हुए, एकदम असहाय, और वह इसे अपने कब्जे में करने के लिए बेताब है, कि उसे इसी हालत में कहीं ले जाए... इसमें तो जरा भी शक नहीं है। मेरी बात मानो, मैं गलत नहीं कह रहा हूँ। मैंने खुद उसे इस लड़की को घूरते हुए, इसका पीछा करते हुए देखा है, लेकिन मैं उसकी राह में आ गया, और अब वह इस ताक में है कि मैं कब यहाँ से टलूँ। अब वह वहाँ से हट कर जरा दूर चला गया है और चुपचाप खड़ा है, जैसे सिगरेट बना रहा हो... कोई तरकीब आती है तुम्हारी समझ में कि कैसे इसे उसके पंजे से बचाया जाए और किस तरह इसे इसके घर पहुँचाया जाए?'

पलक झपकते भर में पुलिसवाले की समझ में सब कुछ आ गया। गठे हुए शरीरवाले उन छैले के इरादों को समझना कोई मुश्किल काम नहीं था, पर सवाल उस लड़की के बारे में सोचने का था। पुलिसवाला झुक कर उसे और करीब से देखने लगा। उसके चेहरे पर सचमुच दया का भाव उभर आया।

'आह, कितने अफसोस की बात है!' उसने सर हिलाते हुए कहा। 'अभी एकदम बच्ची है। किसी ने इसे बहला-फुसला कर धोखा दिया है, इतना तो साफ दिखाई देता है। 'सुनिए मिस,' उसने उस लड़की से कहना शुरू किया, 'आप रहती कहाँ हैं?' लड़की ने थकी हुई उनींदी आँखें खोलीं, बोलनेवालों को शून्य भाव से एकटक देखा, और अपना हाथ हवा में घुमा दिया।

'यह लो,' रस्कोलनिकोव ने अपनी जेब टटोल कर उसमें से बीस कोपेक निकाला और बोला, 'यह लो, एक गाड़ी बुला कर इसे इसके पते पर पहुँचवा दो। सवाल बस इसका पता मालूम करने का है।'

'मिस साहिबा, मिस साहिबा,' पुलिसवाले ने पैसे ले कर फिर कहना शुरू किया, 'मैं गाड़ी लिए आता हूँ, आपको मैं खुद घर पहुँचा आऊँगा। कहाँ पहुँचा दूँ, बोलिए आप कहाँ रहती हैं?'

'जाओ, चले जाओ! किसी तरह पीछा ही नहीं, छोड़ते,' लड़की बुदबुदाई और फिर एक बार हवा में हाथ घुमाया।

'छिः कितनी बुरी बात है! कोई क्या कहेगा, मिस साहिबा, बड़ी शर्म की बात है!' उसने एक बार फिर दुख, सहानुभूति और क्रोध के मिले-जुले भाव से अपना सर हिलाया। 'बड़ा मुश्किल काम है,' पुलिसवाले ने रस्कोलनिकोव से कहा और यह कहते हुए उसने बड़ी तेजी से अपनी नजर ऊपर-नीचे दौड़ाई। रस्कोलनिकोव भी उसे बड़ा अजीब आदमी लगा होगा : खुद तो फटे-पुराने चीथड़े पहने था और उसे पैसे थमा रहा था!

'तुम्हारी इससे मुलाकात यहाँ से काफी दूर हुई थी क्या?' पुलिसवाले ने उससे पूछा।

'मैंने बताया न, यह मेरे सामने लड़खड़ाती हुई चल रही थी। इसी सड़क पर। इस बेंच के पास पहुँच कर धम से इस पर गिर पड़ी।'

'आह, आजकल दुनिया में कैसा-कैसा पाप हो रहा है, भगवान ही बचाए! ऐसी मासूम बच्ची और अभी से शराब पीने लगी है। इसमें तो कोई शक नहीं, इसे धोखा दिया गया है। देखो, इसके कपड़े कितनी बुरी तरह फटे हुए हैं... आजकल कैसा-कैसा कुकर्म देखने को मिलता है! यह किसी शरीफ घर की लगती है, भले ही गरीब हो... आजकल ऐसी कितनी ही लड़कियाँ हैं और देखने में शरीफ भी लगती हैं, जैसे कोई रईसजादी हो,' यह कह कर वह एक बार फिर झुक कर उसे देखने लगा।

शायद उसकी अपनी बेटियाँ भी इसी तरह बड़ी हो रही होंगी। 'देखने में रईसजादियाँ और शरीफ,' जो अपने बनाव-सिंगार और रख-रखाव से भले, शरीफ घर की होने का दावा करती होंगी...

'असली काम तो यह है,' रस्कोलनिकोव अपनी बात कहता रहा, 'कि इसे किस तरह उस बदमाश के पंजे से बचाया जाए! उसे क्यों इसकी लाज लूटने का मौका मिले यह बात तो एकदम साफ है कि वह किस फेर में है। हरामजादा किसी तरह यहाँ से टलता ही नहीं!'

रस्कोलनिकोव ने यह बात ऊँची आवाज में कही और उसकी ओर इशारा किया। उस छैले ने उसकी बात सुन ली और लगा कि उनका गुस्सा फिर भड़कने वाला था। लेकिन कुछ सोच कर वह रुक गया और उसने बस तौहीन की नजर इस पर डाल कर उसे देख कर संतोष कर लिया। इसके बाद वह धीरे-धीरे चलते हुए वहाँ से दस कदम और दूर बढ़ गया और वहाँ जा कर रुक गया।

'उससे हम इसे बचा तो सकते हैं,' पुलिसवाला विचारमग्न हो कर बोला, 'लेकिन यह कुछ बताए तो सही कि इसे कहाँ जाना है।' लेकिन इस तरह तो... 'मिस साहिबा, ऐ मिस साहिबा!' वह एक बार फिर उसकी ओर झुका।

लड़की ने अचानक अपनी आँखें पूरी खोल दीं, गौर से चारों ओर देखा, गोया कुछ उसकी समझ में आया हो और बेंच से उठ कर उसी तरफ चल पड़ी जिधर से आई थी।

'ये नीच लोग किसी तरह पीछा ही नहीं छोड़ते!' वह एक बार फिर हवा में अपना हाथ घुमा कर बोली। वह तेज कदम बढ़ाती हुई चली जा रही थी, हालाँकि अब भी पहले की ही तरह लड़खड़ा रही थी। वह छैला भी उसके पीछे चला लेकिन छायादार पेड़ों के बीच दूसरे रास्ते पर। उसकी नजरें लगातार उस लड़की पर थीं।

'आप फिक्र न करें, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा,' मूँछदार पुलिसवाले ने दोनों के पीछे बढ़ते हुए मजबूती से कहा।

'आह, आजकल कैसा-कैसा कुकर्म देखने को मिलता है!' उसने आह भर कर फिर एक बार जोर से कहा।

अचानक ऐसा लगा गोया किसी चीज ने रस्कोलनिकोव को डंक मारा हो। एक पल में ही वह घृणा की भावना से भर उठा।

'ऐ, सुनो,' उसने पुलिसवाले को पुकारा।

पुलिसवाले ने मुड़ कर देखा।

'छोड़ो भी उनको! तुमसे क्या मतलब लूटने दो मजा उसको।' (उसने उस छैले की तरफ इशारा किया) : 'तुम्हें भला क्या मतलब?'

पुलिसवाला चकरा गया और उसे आँखें फाड़ कर घूरने लगा। रस्कोलनिकोव हँस पड़ा।

'अच्छा!' पुलिसवाला बड़े तिरस्कार के भाव से हैरान हो कर बोला और उस छैले और लड़की के पीछे चला। हो सकता है उसने रस्कोलनिकोव को पागल समझा हो या उसके बारे में कोई इससे भी बुरी सोची हो।

'मेरे बीस कोपेक भी मार ले गया,' रस्कोलनिकोव जब अकेला रह गया तो गुस्से से बुदबुदाया। 'खैर, चाहे तो वह उससे भी लड़की को उसके हवाले कर देने का जितना चाहे ऐंठ ले और मुआमला खत्म हो। लेकिन मैं भला क्यों बीच में पड़ना चाहता था मुझ जैसा आदमी मदद भी करना चाहे तो क्या सकता है क्या मुझे उसकी मदद करने का कोई अधिकार है वे चाहें तो एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएँ - मुझे क्या और मैंने उसे बीस कोपेक देने की हिम्मत कैसे की? क्या वे मेरे थे?'

ऐसी उखड़ी-उखड़ी अजीब बातें सोचने के बावजूद उसका मन उसे अंदर ही अंदर धिक्कार रहा था। वह खाली बेंच पर बैठ गया। उसके विचार बेमकसद भटकने लगे... उस पल उसे किसी भी बात पर अपना ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई हो रही थी। बुरी तरह उसका जी चाह रहा था कि वह अपने आपको भूल जाए, हर चीज को भूल जाए, फिर जागे और जीवन नए सिरे से शुरू करे...

'बेचारी!' उसने बेंच के उस खाली कोने को देखते हुए कहा, जहाँ वह लेटी थी। 'कुछ देर में उसे होश आएगा और वह रोएगी। और फिर उसकी माँ को पता लगेगा... वह उसे पीटेगी, बुरी तरह धुन कर रख देगी, फिर शायद उसे घर से भी निकाल देगी... या अगर न भी निकाले तो दार्या फ्रांत्सोव्ना जैसी किसी औरत को इसकी भनक मिलेगी, और फिर यही लड़की चोरी-छिपे इधर-उधर जाने लगेगी। फिर सीधे अस्पताल का रास्ता (शरीफ माँओं की ऐसी बेटियों का, जो चोरी-छिपे गलत रास्ते पर चल पड़ती हैं, यह अन्जाम होता है), और फिर... फिर अस्पताल... शराब... शराबखाना... और फिर वही अस्पताल... दो-तीन साल में बिखर जाएगी चूर-चूर हो कर और अठारह-उन्नीस की उम्र में जिंदगी उसकी खत्म हो जाएगी... क्या मैं ऐसे किस्से पहले नहीं देख चुका और उन सबका सिलसिला शुरू हुआ कैसे तो सबने इसी तरह शुरू किया... उफ, लेकिन क्या फर्क पड़ता है! लोग कहते हैं, ऐसा तो होता ही रहता है। हमको कहा जाता है कि हर साल कुछ प्रतिशत लड़कियों को जाना ही होता है... इसी रास्ते पर... नरक में। शायद इसलिए कि बाकी लड़कियाँ अछूती रहें, कोई उनके साथ छेड़छाड़ न करे। कुछ प्रतिशत! कितने शानदार शब्द हैं इन लोगों के पास! विज्ञान की कसौटी पर कैसे खरे उतरनेवाले, और दिल को तसल्ली देनेवाले। एक बार बस 'प्रतिशत' कह दिया कि फिर किसी बात की कोई चिंता नहीं रहती। अगर कोई दूसरा शब्द होता... तो शायद हमें ज्यादा परेशानी होती... लेकिन अगर इसी प्रतिशत में दुनेच्का हो तो या इस प्रतिशत में न सही, किसी और प्रतिशत में...

'पर मैं जा कहाँ रहा हूँ?' उसने एकाएक सोचा। 'अजीब तो बात है। मैं तो किसी काम से निकला था। खत पढ़ते ही मैं बाहर निकल आया था... मैं वसील्येव्स्की ओस्त्रोव जा रहा था, रजुमीखिन के पास। यही काम था... अब याद आया। लेकिन किसलिए और मेरे दिमाग में रजुमीखिन के पास जाने की बात इस वक्त कैसे आई अजीब बात है।'

उसे अपने आप पर हैरानी होने लगी। रजुमीखिन यूनिवर्सिटी में एक पुराना दोस्त था। मजे की बात यह थी कि यूनिवर्सिटी में रस्कोलनिकोव का शायद ही कोई दोस्त रहा हो। वह सबसे अलग रहता था, किसी से मिलने नहीं जाता था, और अगर कोई उससे मिलने आता था तो उससे तपाक से मिलता भी नहीं था। जाहिर है लोगों ने जल्दी ही उससे मिलना-जुलना छोड़ दिया। वह छात्रों की सभाओं, उनके मनोरंजनों या उनकी बातचीत में भी कोई हिस्सा नहीं लेता था। तन-मन की सुध बिसरा कर वह बड़ी लगन से काम करता था, और इस बात के लिए सब लोग उसकी इज्जत करते थे। पर उसे पसंद कोई नहीं करता था। वह बहुत गरीब था, पर उसमें एक तरह का दंभ और सबसे अलग-थलग रहने का भाव था, मानो वह किसी चीज को अपने तक ही रखना चाहता हो। उसके कुछ साथियों को लगता था कि वह उन सबको अपने सामने बच्चा समझ कर बड़े तिरस्कार से देखता था, गोया विकास, ज्ञान और आस्थाओं के एतबार से वह उनसे बढ़-चढ़ कर हो, गोया उनके विश्वास और उनकी रुचियाँ उसके स्तर के बहुत नीचे हों।

रजुमीखिन से उसकी निभती थी, या कम से कम वह उससे बहुत ज्यादा अलगाव नहीं रखता था और दूसरों के मुकाबले उससे बातचीत भी कुछ ज्यादा कर लेता था। रजुमीखिन के साथ कोई इसके अलावा कोई बर्ताव कर भी नहीं सकता था। वह बेहद खुशमिजाज, खुले दिल का नौजवान था और भोलेपन की हद तक अच्छे स्वभाववाला था, हालाँकि उस भोलेपन में एक गहराई भी छिपी हुई थी और स्वाभिमान भी। उसके ज्यादातर साथी इस बात को समझते थे, और सभी उसे बेहद पसंद करते थे। वह बेहद तेज दिमाग का लड़का था, हालाँकि कभी-कभी वास्तव में भोले बाबा भी नजर आता था। उसका चेहरा-मोहरा और डीलडौल बरबस अपनी ओर खींचते थे-लंबा कद, छरहरा बदन, काले बाल, दाढ़ी हमेशा कुछ बढ़ी हुई। कभी-कभी वह आपे से बाहर हो जाता और मशहूर यह था कि उसके शरीर में काफी बल था। एक रात जब वह कुछ मस्त दोस्तों के साथ बाहर टहल रहा था, उसने एक भारी-भरकम पुलिसवाले को एक ही घूँसे में चित कर दिया था। पीने पर आता तो कोई सीमा नहीं होती थी, और न पिए तो बिलकुल नहीं पीता था। शरारत में कभी-कभी हद से आगे निकल जाता था, लेकिन कभी ऐसा भी होता था कि वह कोई भी शरारत नहीं करता था। रजुमीखिन में एक खूबी और थी : बड़ी-से-बड़ी नाकामी से भी वह मायूस नहीं होता था, और लगता था कोई भी मुसीबत उसका मनोबल नहीं तोड़ सकती। वह छत पर भी सो सकता था; कड़ी-से-कड़ी सर्दी और भूख भी बर्दाश्त कर सकता था। वह बहुत गरीब था और किसी-न-किसी तरह का काम करके जो भी थोड़ा-बहुत कमाता था, उसी में गुजर करता था। पैसा कमाने की उसे कितनी तरकीबें आती थीं, इसका कोई अंत नहीं था। एक बार उसने पूरा जाड़ा कमरा गर्म करने का चूल्हा जलाए बिना काट दिया और कहा करता था कि इस तरह उसे ज्यादा अच्छा लगता है, क्योंकि ठंड में नींद गहरी आती है। हाल में उसे भी मजबूर हो कर कुछ समय के लिए यूनिवर्सिटी छोड़नी पड़ी थी और वह अपना पूरा जोर लगा कर काम कर रहा था ताकि इतना पैसा बचा ले कि फिर से अपनी पढ़ाई जारी रख सके। पिछले चार महीनों से रस्कोलनिकोव उससे मिलने नहीं गया था, और रजुमीखिन को तो उसका पता भी मालूम नहीं था। लगभग दो महीने पहले इत्तफाकन सड़क पर उनका आमना-सामना हो गया था, लेकिन रस्कोलनिकोव मुँह फेर कर सड़क की दूसरी पटरी पर पहुँच गया ताकि उसे वह देख न ले। रजुमीखिन ने उसे देख तो लिया था लेकिन अनजान हो कर आगे बढ़ गया था, क्योंकि वह अपने दोस्त को किसी उलझन में नहीं डालना चाहता था।

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 5)

'अरे हाँ, कुछ दिनों से तो मैं कोई काम माँगने के लिए रजुमीखिन के पास जाने का इरादा कर ही रहा था, यह कहने कि वह मुझे कहीं पढ़ाने का या कोई दूसरा काम दिलवा दे...' रस्कोलनिकोव ने सोचा, 'लेकिन वह मेरी अब क्या मदद कर सकता है मान लिया कि उसने कहीं पढ़ाने का काम दिलवा दिया, मान लिया कि अगर उसके पास कुल एक दमड़ी हो और उसमें से भी वह आधी मुझे दे दे, ताकि मैं अपने लिए जूते खरीद सकूँ और अपने को इतना सजा-सँवार सकूँ कि कहीं पढ़ाने जाने लायक बन जाऊँ... हुँह... तो, तो फिर क्या मुझे जो थोड़े से कोपेक सिक्के मिलेंगे, उनसे मैं करूँगा क्या इस वक्त क्या मुझे इसकी जरूरत है मेरा रजुमीखिन के पास जाना तो सरासर बकवास है...'

इस वक्त वह रजुमीखिन के पास किसलिए जा रहा था इस सवाल ने उसे जितना एहसास था, उससे भी ज्यादा बेचैन कर रखा था। वह अपनी इस हरकत में, जो देखने में बहुत ही मामूली लगती थी, बड़ी बेचैनी से कोई मनहूस अहमियत देखने की कोशिश कर रहा था।

'कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं अकेले रजुमीखिन के सहारे सब कुछ ठीक कर लेने की आस लगाए बैठा था, कोई हल ढूँढ़ निकालने की उम्मीद कर रहा था?' उसने परेशान हो कर अपने आपसे सवाल किया।

वह सोच में डूबा अपना माथा रगड़ता रहा और अजीब बात यह थी कि बहुत देर सोचते रहने के बाद अचानक गोया अपने आप और संयोग से उसके दिमाग में एक अनोखा विचार आया।

'हुँह... उसके पास,' उसने एकाएक बड़े शांत भाव से कहा, मानो वह किसी आखिरी अटल फैसले पर पहुँच गया हो। 'जाऊँगा मैं रजुमीखिन के पास, जरूर जाऊँगा, लेकिन... अभी नहीं, मैं उसके पास जाऊँगा... उसके अगले दिन, जब वह काम पूरा हो जाएगा और हर चीज फिर नए सिरे से शुरू होगी...'

अब उसे अचानक महसूस हुआ कि वह क्या सोच रहा था।

'उसके बाद,' वह बेंच से चीख कर उछला, चीखा, 'लेकिन वह सचमुच होनेवाला है क्या? क्या यह मुमकिन है कि वह सचमुच हो जाए?'

बेंच छोड़ कर वह उठ खड़ा हुआ और लगभग दौड़ पड़ा। उसका इरादा पीछे मुड़ कर घर जाने का था, लेकिन घर जाने के विचार से ही अचानक उसे गहरी नफरत होने लगी - उस बिल में अपने उस छोटे से मनहूस दड़बे में जहाँ पिछले एक महीने से यह सब उसके अंदर-ही-अंदर पक रहा था वह बेमकसद चलता रहा।

उसकी घबराहट की कँपकँपी ने बढ़ते-बढ़ते बुखार का रूप ले लिया था, जिसकी वजह से वह हिलने लगा था। उसे गर्मी के बावजूद ठंड लग रही थी। किसी तरह कोशिश करके वह लगभग अनायास जैसे किसी प्रबल आंतरिक इच्छा से प्रेरित हो कर, अपने सामने आनेवाली हर चीज को घूरने लगा, जैसे अपना ध्यान बँटाने के लिए किसी चीज को तलाश रहा हो। लेकिन वह सफल न हो सका। बार-बार कुछ ही पल बाद वह अपने ही विचारों में डूब जाता था। अचानक चौंक कर वह अपना सर उठाता, चारों ओर नजर दौड़ाता और फौरन भूल जाता कि अभी क्या सोच रहा था। उसे यह तक याद न रहता कि वह जा कहाँ रहा था। इसी तरह चलते-चलते वह पूरा वसील्येव्स्की ओस्त्रोव पार कर गया, छोटी नेवा के पास आ निकला और पुल पार करके द्वीपों की ओर बढ़ा। शहर की धूल-गर्द, पलस्तर और चारों ओर से उसे घेरे हुए, उस पर एक बोझ बने बड़े-बड़े मकानों के बाद यहाँ की हरियाली और ताजगी से शुरू-शुरू में उसकी थकी हुई आँखों को कुछ राहत मिली। न शराबखाने थे यहाँ, न दम घोंट देनेवाला बंद वातावरण, न कोई बदबू। लेकिन जल्द ही ये नई सुखद संवेदनाएँ बीमारों जैसी चिड़चिड़ाहट में बदल गईं। कभी वह हरियाली के बीच चटकीले रंगों में पुते किसी बँगले के सामने ठिठक कर चुपचाप खड़ा हो जाता और अहाते के पार एकटक घूरता वहाँ दूर बरामदों में और छज्जों पर सजी-बनी, अच्छे-अच्छे कपड़े पहने औरतें और बागों में दौड़ते बच्चे नजर आते। फूलों की ओर उसका ध्यान विशेष रूप से जाता; उन्हें वह किसी भी दूसरी चीज के मुकाबले ज्यादा देर तक और ध्यान से देखता रहता। उसे रास्ते में ठाठदार बग्घियाँ, घोड़ों पर सवार औरतें और मर्द भी मिलते; वह उन्हें कौतूहल-भरी दृष्टि से देखता और इससे पहले कि वे उसकी आँखों से ओझल हों, उन्हें भूल भी जाता। एक बार उसने चुपचाप खड़े अपने पैसे गिने, पता चला कि उसके पास तीस कोपेक थे। 'बीस पुलिसवाले को, तीन नस्तास्या को चिट्ठी के लिए, इसका मतलब है कि कल मार्मेलादोव के यहाँ मैं सैंतालीस या पचास छोड़ आया हूँगा,' न जाने क्यों उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया। लेकिन जल्द ही वह भूल गया कि उसने जेब से पैसे क्यों निकाले थे। किसी ढाबे या शराबखाने के सामने से गुजरते हुए उसे यह सब याद आया, और लगा कि वह भूखा है। शराबखाने में जा कर उसने एक गिलास वोदका पी और एक पेस्टी खाई। वहाँ से चलने तक वह उसे पूरा खा चुका था। उसने बहुत समय बाद बोदका पी थी और वह उसे फौरन चढ़ गई, हालाँकि उसने सिर्फ एक छोटा-सा गिलास ही पिया था। उसे अपनी टाँगें अचानक भारी लगने लगीं और नींद-सी आने लगी। वह घर की ओर मुड़ा, लेकिन पेत्रोव्स्की ओस्त्रोव के पास पहुँच कर रुक गया। थक कर वह चूर हो चुका था। सड़क से वह झाड़ियों की ओर बढ़ा और घास पर लंबे हो कर फौरन सो गया।

दिमाग जब हो बीमारी की हालत में, तो सपनों में अकसर एक अनोखी वास्तविकता, स्पष्टता, यथार्थ से एक असाधारण समानता पैदा हो जाती है। कभी-कभी भयानक शक्लें भी बनती हैं। लेकिन पूरा वातावरण, पूरा चित्र ऐसा जीता-जागता होता है, ऐसी कोमल, अप्रत्याशित लेकिन कला की दृष्टि से ऐसी सुसंगत बारीकियों से भरा होता है कि सपना देखनेवाला, चाहे वह पुश्किन या तुर्गनेव जैसा कलाकार ही क्यों न हो, जागते में अपनी कल्पना-शक्ति से कभी उनका सृजन नहीं कर सकता था। इस तरह के बीमार सपने बहुत समय तक यादों के झरोखों में सजे रहते हैं और भारी तनाव में जकड़े हुए, उत्तेजित मानसतंत्र पर गहरी छाप छोड़ते हैं।

रस्कोलनिकोव ने एक भयानक सपना देखा। देखा कि जिस छोटे से कस्बे में वह पैदा हुआ था, वहीं अपने बचपन के दिनों में वापस पहुँच गया है। लगभग सात बरस का बच्चा बना, वह अपने बाप के साथ एक छुट्टी के दिन, शाम को देहात में घूम रहा था। मौसम धुँधला और बोझिल था। देहात भी वैसा ही था जैसा उसे याद था; अलबत्ता उसकी यादों में देहात का जो चित्र था, उससे कहीं अधिक स्पष्ट वह उसे सपने में नजर आया। वह छोटा-सा कस्बा एक खुले मैदान में आबाद था, जो हथेली की तरह सपाट था। दूर-दूर तक कोई बेद का पेड़ भी नजर नहीं आता था। बहुत दूर पेड़ों का एक झुरमुट दिखाई देता था, क्षितिज के छोर पर गहरी धुंध की तरह। कस्बे के आखिरी बगीचे से कुछ कदम पर एक शराबखाना था, बड़ा-सा उसके सामने से हो कर जब भी वह अपने बाप के साथ गुजरता था, उसे मतली-सी होती थी और डर भी लगता था। वहाँ हरदम भीड़ लगी रहती थी, लोग हमेशा चिल्लाते रहते थे, ठहाकों और गालियों की आवाजें गूँजती रहती थीं, लोग भयानक फटी हुई आवाज में गाते रहते थे और अकसर मारपीट भी होती थी। शराब के नशे में धुत और देखने में भयानक आकृतियाँ शराबखाने के आसपास मँडराती रहती थीं। जब भी उनसे सामना होता था, वह काँप उठता और अपने बाप से चिपक जाता था। शराबखाने के पास पहुँच कर सड़क धूल से अटी एक कच्ची सड़क बन गई थी। वहाँ हमेशा काली गर्द उड़ती रहती थी। यह टेढ़ी-मेढ़ी चक्करदार सड़क कोई तीन सौ कदम आगे जा कर दाहिनी तरफ से कब्रिस्तान के पीछे चली जाती थी। कब्रिस्तान के बीच हरे रंग के गुंबदवाला, पत्थर का एक गिरजाघर था। वहाँ वह अपने माँ-बाप के साथ साल में दो-तीन बार जाता था, जब उसकी दादी की याद में विशेष प्रार्थना का आयोजन होता था। दादी बहुत दिन हुए मर चुकी थीं और उसे उसने देखा भी नहीं था। ऐसे अवसरों पर वे लोग वहाँ सफेद कपड़े में लपेट कर, सफेद तश्तरी में एक खास किस्म की खीर ले जाते थे जिस पर सलीब की शक्ल में किशमिशें चिपकी होती थीं। उस गिरजाघर से उसे बड़ा लगाव था। पुराने ढंग की बिना फ्रेम की मूर्तियाँ और एक बूढ़ा पादरी जिसका सर हमेशा हिलता रहता था। उसकी दादी की कब्र के पास ही, जिस पर निशानी के लिए एक तख्ती लगी हुई थी, उसके छोटे भाई की नन्ही-सी कब्र थी, जो छह महीने का हो कर मर गया था। उसे अपने छोटे भाई की जरा भी याद बाकी नहीं थी, लेकिन उसने दूसरों के मुँह से उसके बारे में सुना था। जब भी वह कब्रिस्तान जाता था, बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ अपनी उँगलियों से सीने पर सलीब का निशान बनाता था और झुक कर उस नन्ही-सी कब्र को चूमता था। सो अब उसने अपने सपने में देखा कि वह अपने बाप के साथ शराबखाने के सामने के कब्रिस्तान की ओर जा रहा था। वह अपने बाप की उँगली पकड़े हुए था और सहमा हुआ शराबखाने को देख रहा था। एक विशेष परिस्थिति ने उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। लगता था जैसे वहाँ कोई मेला लगा हो; रंग-बिरंगे कपड़े पहने शहरी लोगों, किसान औरतों, उनके मर्दों और हर तरह के फालतू लोगों की भीड़ वहाँ जमा थी। सभी गा रहे थे और सभी ने थोड़ी-बहुत पी रखी थी। शराबखाने के दरवाजे के पास एक गाड़ी खड़ी थी, लेकिन अजीब-सी गाड़ी थी। उसी तरह की बड़ी-सी गाड़ी जिसमें तगड़े घोड़े जोते जाते हैं और जिन पर शराब के पीपे या दूसरा भारी सामान लादा जाता है। उसे गाड़ी खींचनेवाले बड़े-बड़े घोड़ों को देख कर मजा आता था। गर्दन पर लंबे बाल, मोटी टाँगें, और धीमी सधी हुई चाल, पहाड़ जैसा बोझ खींचते हुए, लेकिन देखने से लगता नहीं था कि जरा-सा भी जोर लगाना पड़ रहा हो, गोया बोझ खींचना बिना बोझ के चलने से कहीं ज्यादा आसान हो। लेकिन अजीब बात थी कि इस वक्त इस तरह की गाड़ी के बमों के बीच उसने एक छोटी-सी दुबली-पतली बादामी रंग की घोड़ी जुती हुई देखा। किसानों के उन टट्टुओं जैसी जिन्हें उसने अकसर सारा जोर लगा कर लकड़ी या भूसे का भारी बोझ खींचते हुए देखा था, खास तौर पर उस वक्त जब गाड़ी के पहिए कीचड़ या किसी लीक में फँस जाते थे। तब किसान उन्हें काफी बेरहमी से कभी-कभी तो नाक और आँखों पर भी पीटते थे, और उसे उन जानवरों पर इतना तरस आता था कि उसके आँसू निकलने को आ जाते थे। तब उसकी माँ हमेशा उसे खिड़की के पास से हटा लिया करती थी। अचानक चिल्लाने, गाने और बलालाइका बजाने का जबरदस्त शोर उठा और शराबखाने में से बहुत से लंबे-तगड़े किसान धुत हो कर निकले। लाल और नीली कमीजें पहने हुए अपने-अपने कोट कंधों पर डाले हुए। 'बैठो, बैठ जाओ!' उनमें से एक चिल्लाया; यह एक मोटी गर्दनवाला नौजवान किसान था, जिसका मांसल, फूला हुआ चेहरा गाजर की तरह लाल हो रहा था। 'सबको ले चलूँगा, बैठ जाओ!' लेकिन अचानक भीड़ में ठहाका लगा, लोग फब्तियाँ कसने लगे :

'ऐसा जानवर हम सबको ले जाएगा!'

'अरे ओ मिकोल्का, तुम दीवाने तो नहीं हो गए कि ऐसी गाड़ी में मरियल घोड़ी जोत रखी है!'

'यह घोड़ी भी तो बीस साल से एक दिन कम की नहीं होगी।'

'चढ़ जाओ, सबको ले चलूँगा,' मिकोल्का फिर चिल्लाया और सबसे पहले कूद कर गाड़ी पर चढ़ गया। उसने रास अपने हाथ में थाम ली और गाड़ी के सामनेवाले हिस्से पर तन कर सीधा खड़ा हो गया। 'वह कत्थई घोड़ा मत्वेई ले गया है,' उसने गाड़ी पर से चीख कर कहा, 'और भैया, इस डाइन से तो मैं तंग आ चुका हूँ। जी चाहता है, इसे जान से मार दूँ। बस खाए चली जाती है। चढ़ जाओ, मैं कहता हूँ! सरपट भगाऊँगा! सरपट दौड़ेगी!' यह कह कर उसने चाबुक उठाई और चटखारा ले कर उस घोड़ी को मारने के लिए तैयार हुआ।

'चलो बैठ ही जाते हैं!' भीड़ ठहाका मार कर हँसी। 'सुनते हो इसकी बातें सरपट भागेगी!'

'दस बरस से तो इसमें सरपट भागने का दम रहा नहीं है!'

'दुलकी चल ले तो गनीमत समझो!'

'उसकी चिंता मत करो भैया, तुम लोग अपने-अपने चाबुक के साथ तैयार हो जाओ!'

'ठीक है! लगाओ कसके!'

हँसते और मजाक करते हुए वे सब मिकोल्का की गाड़ी पर चढ़ गए। छह आदमी जब चढ़ गए तो भी कई लोगों की जगह और थी। उन लोगों ने एक मोटी, गुलाबी गालोंवाली औरत को भी ऊपर खींच लिया। वह लाल रंग की मलमली पोशाक, सर पर कढ़ाई के काम की नोकदार टोपी और चमड़े के फर लगे जूते पहने थी; वह पिंघलफली खा रही और हँस रही थी। उनके चारों ओर की भीड़ भी हँस रही थी, और हँसे बिना वह रहती भी कैसे कि उस मरियल घोड़ी को, उस पूरी गाड़ी के बोझ को सरपट चाल से खींच कर ले जाना था। गाड़ी पर बैठे दो नौजवान मिकोल्का की मदद करने के लिए अपनी चाबुकें उठा चुके थे। 'चल' की आवाज सुनते ही घोड़ी ने पूरा जोर लगा कर गाड़ी खींचने की कोशिश की लेकिन सरपट भागना तो दूर, आगे ही खिसक नहीं पाई। वह पैर जमा कर पूरा जोर लगा रही थी, हाँफ रही थी और तीन चाबुकों की ओलों की बौछार जैसी मार से बचने की कोशिश कर रही थी। गाड़ी में और चारों ओर खड़ी हुई भीड़ में हँसी के फव्वारे दोगुने जोर से फूट पड़े। लेकिन मिकोल्का को ताव आ गया और वह बेतहाशा घोड़ी की धुनाई करने लगा, मानो वह सचमुच सरपट भाग सकती हो।

'मुझे भी आने दो यार,' भीड़ में से एक बंदा चिल्लाया। उसे भी जोश आ गया था।

'आओ, सब आओ,' मिलोल्का चिल्लाया। 'सबको खींच कर ले जाएगी। मैं तो मार-मार कर जान निकाल दूँगा इसकी!' फिर गुस्से में आपे से बाहर हो कर वह घोड़ी को बुरी तरह पीटने पर आ गया।

'बाबा, बाबा,' बच्चा चिल्ला कर बाप से बोला, 'ये लोग क्या कर रहे हैं बाबा बाबा, बेचारी घोड़ी को ये लोग मार रहे हैं!'

'चलो, आओ चलें!' बाप ने कहा। 'शराब पिए हुए हैं और इस वक्त मस्ती में हैं बेवकूफ। चलो, उधर मत देखो!' यह कह कर बाप ने उसे वहाँ से खींच ले जाने की कोशिश की। लेकिन उसने बाप के हाथ से अपना हाथ छुड़ा लिया और इस भयानक दृश्य को देख कर घोड़ी की ओर बेकाबू भागा। बेचारी का बुरा हाल था। वह खड़ी हाँफ रही थी। उसने एक बार फिर गाड़ी खींचने के लिए जोर लगाया और गिरते-गिरते बची।

'मारो कचूमर निकाल दो इसका,' मिकोल्का चिल्लाया। 'और कोई चारा ही नहीं है। मैं अभी इसकी खबर लेता हूँ!'

'क्या करना चाहता है तू? अपने को ईसाई कहता है, कसाई कहीं का!' भीड़ में से एक बूढ़ा चिल्लाया।

'कभी देखा है किसी ने कि ऐसी मरियल घोड़ी इतना गाड़ी भर बोझ खींचे?' दूसरा बोला।

'मर जाएगी,' तीसरा चिल्लाया।

'बीच में तुम टाँग न अड़ाओ! मेरा माल है, मैं जो चाहूँ करूँ। आओ, और आओ! सब आ जाओ! मैं इसे सरपट भगा कर ही दम लूँगा!'

एकाएक हँसी की गूँज उठी और हर चीज पर छा गई। चाबुकों की बौछार झेलने में नाकाम हो कर घोड़ी ने अपनी बेजान टाँगों में दुलत्ती झाड़नी शुरू कर दी। बूढ़ा भी मुस्कराए बिना न रह सका। सोचो तो सही, ऐसा छोटा-सा मरियल जानवर और दुलत्ती झाड़ने की कोशिश करे!

भीड़ में से दो छोकरे चाबुकें उठा कर घोड़ी को पसलियों पर मारने के लिए बढ़े। दोनों ने एक-एक तरफ की जिम्मेदारी सँभाल ली।

'मुँह पर मारो, और आँखों पर भी!' मिकोल्का जोर से चिल्लाया।

'कोई धुन छेड़ो, साथियो,' गाड़ी में से कोई चिल्लाया और उसमें बैठे सब लोग हंगामा मचा देनेवाले गीत में शामिल हो गए। खंजरी खड़की और सीटियाँ बजने लगीं। गाड़ी पर बैठी हुई औरत पिंघलफली खाती रही और हँसती रही।

...वह घोड़ी की बगल में और उसके सामने दौड़ा। वह उसकी आँखों के आर-पार, ठीक आँखों पर, चाबुक पड़ते देख रहा था! वह रो रहा था, उसका गला रुँधा जा रहा था, आँखों से आँसू बह रहे थे। एक आदमी का चाबुक उसके चेहरे पर लगा, लेकिन उसे कुछ महसूस नहीं हुआ। अपने हाथ मलता हुआ और चीखता हुआ वह भाग कर सफेद बालों और सफेद दाढ़ीवाले बूढ़े के पास पहुँचा। बूढ़ा सर हिला रहा था, उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। एक औरत ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे वहाँ से खींच कर अलग ले जाना चाहती थी, लेकिन वह हाथ छुड़ा कर फिर दौड़ कर सीधे घोड़ी के पास पहुँच गया। वह दम तोड़ रही थी, लेकिन वह फिर भी दुलत्ती झाड़ने की कोशिश कर रही थी।

'मैं अभी तेरी खबर लेता हूँ,' मिकोल्का खूँखार जानवर की तरह चिल्लाया। उसने चाबुक फेंक दी और आगे झुक कर गाड़ी में से एक मोटी-सी लंबी बल्ली निकाली। दोनों हाथों से उसका एक सिरा पकड़ कर उसने, पूरा जोर लगा कर, घोड़ी के ऊपर बल्ली चलाई।

'अरे, उसकी हड्डी-पसली एक कर देगा क्या,' चारों ओर से लोग चिल्लाए। 'उसे मार डालेगा क्या!'

'मेरी चीज है,' मिकोल्का चिल्लाया और हाथ घुमा कर बल्ली से भरपूर वार किया। एक जोर की थप हुई।

'मारो इसे, रुको मत,' भीड़ में से कुछ आवाजें आईं।

मिकोल्का ने फिर एक बार बल्ली घुमाई और एक और चोट उसी अभागी घोड़ी की कमर पर पड़ी। वह कूल्हों के बल ढेर हो गई, लेकिन झटके से उठते हुए उसने पूरा जोर लगा कर बोझ खींचना शुरू किया। पहले एक ओर झुक कर खींचा, फिर दूसरी ओर झुक कर। वह गाड़ी को किसी तरह आगे खिसकाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उस पर चारों ओर से छह चाबुकों की मार पड़ रही थी। बल्ली एक बार फिर ऊपर उठी और नपे-तुले वार के साथ तीसरी बार उस पर पड़ी। फिर चौथी बार। मिकोल्का इसलिए आग-बगूला हो रहा था कि अपने पहले ही वार में उसे जान से क्यों नहीं मार सका।

'बड़ी दमदार है,' भीड़ में से किसी ने जोर से कहा।

'अभी ढेर हुई जाती है यार, उसका काम तमाम होते देर नहीं लगेगी,' भीड़ में से किसी तमाशाई की जोश भरी आवाज आई।

'कुल्हाड़ी लो और सफाया कर दो इसका,' एक और शख्स चिल्लाया।

'मैं अभी दिखाता हूँ! पीछे हट जाओ!' मिकोल्का दीवानों की तरह चिल्लाया। उसने बल्ली नीचे फेंक दी और झुक कर गाड़ी में से लोहे की एक मोटी-सी छड़ निकाली। 'देखते जाओ,' वह चिल्लाया और अपनी सारी ताकत लगा कर बेचारी घोड़ी पर भरपूर वार किया। वार निशाने पर पड़ा। घोड़ी लड़खड़ाई और बैठ गई। उसने गाड़ी खींचने की कोशिश की, लेकिन घुमा कर चलाई गई छड़ का वार फिर उसकी पीठ पर पड़ा और वह जमीन पर गिर पड़ी जैसे कि चारों पैर काट दिए गए हों।

'खतम कर दो!' मिकोल्का चिल्लाया और आपे से बाहर हो कर गाड़ी से नीचे कूद पड़ा। नशे में चूर कई दूसरे नौजवान भी, जो कुछ हाथ लगा-चाबुकें, लाठियाँ, बल्लियाँ-ले कर दौड़े और दम तोड़ती घोड़ी की तरफ लपके। मिकोल्का एक ओर खड़ा, अंधाधुंध लोहे की छड़ से उस पर वार किए जा रहा था। घोड़ी ने अपनी गर्दन आगे तानी, एक लंबी साँस ली, और दम तोड़ दिया।

'काम तमाम कर दिया न उसका,' भीड़ में से कोई चिल्लाया।

'आखिर वह सरपट भागी क्यों नहीं?'

'मेरी चीज थी!' मिकोल्का चिल्लाया। लोहे की छड़ उसके हाथों में चमक रही थी और आँखों में खून उतर आया था। वह वहाँ ऐसे खड़ा था गोया उसे इस बात का बड़ा दुख हो कि अब उसके पास पीटने के लिए कुछ भी नहीं बचा था।

'तुम किसी काफिर से बेहतर नहीं हो,' भीड़ में से कई लोग चिल्लाए।

लेकिन वह बेचारा लड़का बेकाबू हो कर, रोता-बिलखता, भीड़ को चीरता हुआ बादामी रंग की उस घोड़ी के पास पहुँच गया। उसने उसके मुर्दा, लहूलुहान सर पर बाँहें डाल कर उसे प्यार किया, उसकी आँखों पर प्यार किया, उसके होठों पर प्यार किया... फिर उछल कर खड़ा हो गया और पागलों की तरह अपनी नन्ही-नन्ही मुट्ठियाँ तान कर मिकोल्का पर झपटा। उसी पल उसके बाप ने, जो देर से उसके पीछे पड़ा था, लपक कर उसे उठा लिया और ले कर भीड़ के बाहर चला गया।

'आओ चलें! घर चलें,' उसने अपने बेटे से कहा।

'बाबा! उन लोगों ने... बेचारी घोड़ी को... मार क्यों डाला?' उसने सिसकते हुए पूछा। उसकी आवाज उखड़ रही थी और हाँफते हुए सीने में से शब्द चीख़ों की शक्ल में निकल रहे थे।

'पिए हुए हैं, सब जानवर हैं, बेवकूफ... लेकिन हमें क्या लेना उनसे!' बाप ने कहा। बच्चे ने अपनी बाँहें बाप के गले में डाल दीं, लेकिन ऐसा लग रहा था कि उसका दम घुटा जा रहा है। उसने लंबी साँस लेने की कोशिश की, चीखना चाहा, और जाग पड़ा।

आँख खुली तो वह हाँफ रहा था। उसकी साँस ठहर नहीं रही थी; बाल पसीने में तर थे। वह सहम कर उठ खड़ा हुआ।

'हे भगवान, तेरी दया यह सपना ही था।' उसने उठ कर एक पेड़ के नीचे बैठते हुए और लंबी साँसें लेते हुए कहा। 'लेकिन यह क्या, मुझे बुखार चढ़ रहा है क्या? ऐसा भयानक सपना!'

उसे ऐसा लगा कि वह एकदम टूट गया है : अँधेरा और उलझन उसकी आत्मा में समाए हुए थे। उसने अपनी कुहनियाँ घुटनों पर टिका लीं और सर अपने हाथों पर झुका लिया।

'हे भगवान!' वह चिल्लाया, 'क्या यह हो सकता है, क्या यह संभव है कि मैं सचमुच कुल्हाड़ी उठाऊँ, उसे सर पर मारूँगा, उसकी खोपड़ी खोल दूँ... कि मैं चिपचिपे गर्म खून में चलूँ, ताला तोड़ूँ, चोरी करूँ और थरथर काँपूँ; सर से पाँव तक खून के धब्बों से अटा हुआ कहीं छिप जाऊँ... कुल्हाड़ी के साथ... हे भगवान, ऐसा हो सकता है क्या?'

यह कहते हुए वह पत्ते की तरह काँप रहा था।

'लेकिन मैं इस चक्कर में क्यों हूँ?' एक बार फिर सीधे बैठते हुए गोया गहरी हैरानी के साथ वह कहता रहा। 'मुझे पता था कि मैं कभी यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा, तो फिर मैं अभी तक अपने आपको क्यों सताता रहा कल, अभी कल, जब मैं इसकी कोशिश करने गया था, तो मुझे पूरी तरह अंदाजा हो गया था कि ऐसी करनी मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकूँगा... फिर मैं दोबारा उसकी बात को क्यों दोहरा रहा हूँ? मैं अभी तक दुविधा में क्यों हूँ? कल जब मैं सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था तो मैंने अपने आपसे कहा था कि यह कमीनापन है, घिनौना काम है, नीचता है, पाप है... इसकी बात सोच कर ही मुझे मितली होने लगी थी और मुझे मेरा रोम-रोम धिक्कारने लगा था।

'नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा, नहीं कर सकूँगा! माना कि इस सारे हिसाब-किताब में कहीं कोई खराबी नहीं है, कि इस पिछले एक महीने में मैं जिस नतीजे पर भी पहुँचा हूँ वह आईने की तरह साफ है, गणित की तरह सीधा-सादा है। हे भगवान! फिर भी यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा! मैं नहीं कर सकूँगा, नहीं कर सकूँगा! फिर क्यों, मैं क्यों अभी तक...'

वह उठ कर खड़ा हो गया, चारों ओर हैरानी से देखा, गोया उसे अपने आपको इस जगह पा कर आश्चर्य हो रहा है, और त. पुल की ओर चल पड़ा। उसका रंग पीला पड़ गया था, आँखें अंगारों की तरह दहक रही थीं, अंग-अंग थकन से चूर था, लेकिन लग रहा था उसे साँस लेने में अब उतनी कठिनाई नहीं हो रही है। ऐसा महसूस हो रहा था कि अचानक उसने वह भयानक बोझ उतार फेंका है जो अब तक उस पर पहाड़ की तरह लदा हुआ था। एकाएक उसे राहत और आत्मा में शांति का एहसास हुआ। 'भगवान,' उसने प्रार्थना करते हुए कहा, 'मुझे रास्ता दिखाओ... मैं अपने उस... मनहूस सपने से कोई भी नाता नहीं रखना चाहता!'

पुल पार करते हुए वह चुपचाप और शांत भाव से नेवा नदी को और दहकते आकाश पर डूबते हुए सूरज की लाली को एकटक देखता रहा। कमजोरी के बावजूद उसे थकान का एहसास नहीं हो रहा था। लग रहा था पिछले एक महीने से उसके दिल में जो फोड़ा पक रहा था, वह अचानक फूट गया हो। छुटकारा! आजादी! उस सम्मोहन से, उस जादू से, उस सनक से उसे छुटकारा मिल चुका था।

बाद में जब उसने उस समय का, और उन दिनों के दौरान उसके साथ जो कुछ हुआ था उसके एक-एक मिनट का, एक-एक बात का, लेखा किया तो एक घटना का उस पर अंधविश्वास जैसा गहरा प्रभाव पड़ा। हालाँकि अपने आपमें वह घटना बहुत असाधारण नहीं थी, लेकिन बाद में चल कर उसे हमेशा यही लगा कि वह उसकी नियति का एक पूर्व-निर्धारित और निर्णायक मोड़ थी। यह बात उसकी समझ में कभी नहीं आई और वह खुद को कभी इसका कारण नहीं समझा सका कि जब वह थका हुआ और एकदम निढाल था, जब उसके लिए अधिक सुविधाजनक यही होता कि सबसे छोटे और सबसे सीधे रास्ते से अपने घर चला जाए, तो फिर वह भूसामंडी के रास्ते क्यों लौटा था, जहाँ जाने की उसे कोई जरूरत नहीं थी। चक्कर ज्यादा लंबा तो नहीं था लेकिन बेमतलब और अनावश्यक जरूर था। यह सच है कि उसके साथ दर्जनों बार ऐसा हो चुका था कि वह बिना इस बात की ओर ध्यान दिए घर वापस पहुँच जाता था कि वह किन सड़कों से हो कर गुजरा था। लेकिन वह हमेशा अपने आपसे यह सवाल पूछता रहता था कि इसका क्या कारण था कि ऐसी महत्वपूर्ण, ऐसी निर्णायक और साथ ही ऐसी एकदम अप्रत्याशित मुलाकात भूसामंडी में (जहाँ उसके जाने की कोई वजह भी नहीं थी) ठीक उसी घड़ी में जीवन में ठीक उसी पल हुई थी, जब उसकी मनोदशा और उसकी परिस्थितियाँ एकदम ऐसी थीं जिनमें वह मुलाकात उसकी पूरी नियति पर सबसे गंभीर और सबसे निर्णायक प्रभाव डाल सकी गोया वह इसी काम के लिए वहाँ घात लगाए बैठी हो!

जब वह उस चौक से हो कर गुजरा लगभग नौ बज रहे थे। खोखों में और दुकानों में बाजार के सभी लोग अपना कारोबार समेट रहे थे, अपना माल बटोर कर बाँध रहे थे और अपने गाहकों की ही तरह घर जाने की तैयारी कर रहे थे। भूसामंडी से लगे मकानों की निचली मंजिलों के ढाबों के पास, गंदे और बदबूदार अहातों में और खास कर शराबखानों में तरह-तरह के कबाड़ी और फेरीवाले जमा हो रहे थे। रस्कोलनिकोव जब सड़कों पर बेमतलब फिरता रहता था, तब उसे यह जगह और इसके आसपास की गलियाँ खास तौर पर बहुत अच्छी लगती थीं। यहाँ उसके चीथड़ों पर किसी की अपमान-भाव से भरी नजर नहीं टिकती थी। यहाँ कोई किसी भी तरह के कपड़े पहन कर घूम सकता था और किसी का जरा भी ध्यान नहीं जाता था। क. गली के नुक्कड़ पर एक फेरीवाले और उसकी घरवाली ने फीते, धागे, सूती रूमाल वगैरह दो मेजों पर सजा रखे थे। वे भी घर जाने के लिए उठे तो सही लेकिन जान-पहचान की एक औरत आ गई थी और वे उससे बातें करने में लग गए थे। यह औरत थी लिजावेता इवानोव्ना, या सिर्फ लिजावेता, जैसा कि सभी लोग उसे कहते थे। वह सामान गिरवी रखने का धंधा करनेवाली उसी बुढ़िया अल्योना इवानोव्ना की छोटी बहन थी, जिसके यहाँ रस्कोलनिकोव अभी कल ही अपनी घड़ी गिरवी रखने और वह कोशिश करने गया था... उसे लिजावेता के बारे में पहले से सब कुछ मालूम था और उसे वह भी थोड़ा-बहुत जानती थी। वह लगभग पैंतीस साल की बिनब्याही औरत थी - लंबी, फूहड़, दब्बू, डरपोक और लगभग पूरी तरह बौड़म। वह पूरी तरह अपनी बहन की चाकर थी और उसके डर से हरदम थरथर काँपती रहती थी। उससे उसकी बहन दिन-रात काम लेती थी और उसे पीटती भी थी। वह एक पोटली लिए उस फेरीवाले और उसकी औरत के सामने खड़ी थी और बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रही थी। वे उसे बड़े जोश के साथ किसी चीज के बारे में समझा रहे थे। ज्यों ही रस्कोलनिकोव की नजर उस पर पड़ी, उसे गोया गहरे, विचित्र आश्चर्य ने आ दबोचा, हालाँकि इस मुलाकात में आश्चर्य की कोई बात नहीं थी।

'तुमको अपना मन पक्का करना होगा लिजावेता इवानोव्ना,' फेरीवाला ऊँचे स्वर में कह रहा था। 'कल छह बजे के बाद हमारे यहाँ आना। वे लोग भी होंगे।'

'कल' लिजावेता ने धीरे-धीरे, कुछ सोचते हुए कहा, गोया वह फैसला न कर पा रही हो।

'सच कहती हूँ, तुम तो अल्योना इवानोव्ना से सचमुच डरी रहती हो,' फेरीवाले की औरत बड़बड़ाई। वह बहुत चुस्त-चालाक औरत थी। 'तुम्हें देखती हूँ तो लगता है जैसे तुम कोई नन्ही बच्ची हो। बहू तुम्हारी सगी बहन तो है नहीं, सौतेली ही तो है, पर कैसा कस कर रखती है तुम्हें अपनी मुट्ठी में!'

'लेकिन इस बार अल्योना इवानोव्ना से कुछ न कहना,' उसका पति बीच में बोल पड़ा, 'मेरी यही सलाह है। बस उससे पूछे बिना हमारे पास चली आना। कुछ भला ही होगा तुम्हारा। बाद में तुम्हारी बहन को भी इसका कुछ पता हो ही जाएगा।'

'तो फिर मैं आऊँ?'

'कल छह के बाद वे लोग यहाँ होंगे। तुम खुद फैसला कर लेना।'

'हम इस मौके पर समोवार भर चाय भी तैयार रखेंगे,' उसकी घरवाली ने बात जोड़ी।

'अच्छी बात है, मैं आ जाऊँगी,' लिजावेता ने अभी भी कुछ सोचते हुए कहा। फिर वह धीरे-धीरे वहाँ से जाने लगी।

रस्कोलनिकोव उसी वक्त उधर से गुजर रहा था और उसने इसके अलावा कुछ नहीं सुना था। वह दबे पाँव, सबकी नजरें बचा कर एक-एक शब्द अच्छी तरह सुनने की कोशिश करता हुआ वहाँ से गुजर गया। शुरू-शुरू में उसे हैरानी हुई थी, उसके बाद उसने भयानकता के रोमांच का एहसास किया। उसे पता लग गया था, अचानक और पहले से किसी उम्मीद के बिना ही पता लग गया था, कि अगले दिन ठीक सात बजे उस बुढ़िया की बहन और उसकी एकमात्र साथी, लिजावेता घर पर नहीं होगी। यानी कि उस वक्त बुढ़िया वहाँ अकेली होगी।

अभी वह अपने घर में कुछ ही कदम की दूरी पर था। वह घर में एक ऐसे आदमी की तरह घुसा जिसे मौत की सजा दी गई हो। उसने किसी भी बात के बारे में नहीं सोचा; उसमें सोचने की सकत भी बाकी नहीं थी। लेकिन अचानक उसने अपने रोम-रोम में अनुभव किया कि अब उसके पास सोचने की स्वतंत्रता रह ही नहीं गई थी, जरा भी इच्छा-शक्ति नहीं रह गई थी और यह कि हर बात का अचानक और अटल फैसला हो चुका था।

इसमें शक नहीं कि अगर वह उचित अवसर की प्रतीक्षा में कई वर्ष भी लगा देता तो वह अपनी योजना की सफलता के लिए उससे अधिक सुनिश्चित स्थिति की कल्पना कर सकता था, जो अभी उसके सामने अपने आप आ गई थी। पहले से और गहरे भरोसे के साथ, इससे ज्यादा सही तौर पर कम जोखिम के साथ, खतरनाक पूछताछ और छानबीन के बिना, यह पता लगाना कठिन होता कि अगले दिन एक बुढ़िया, एक खास वक्त पर जिसे कत्ल करने की योजना बनाई जा रही थी, घर पर और निपट अकेली होगी भी या नहीं।

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 6)

रस्कोलनिकोव को बाद में किसी तरह मालूम हो गया कि फेरीवाले और उसकी औरत ने लिजावेता को किसलिए बुलाया था। बहुत मामूली-सा काम था और उसमें कोई ऐसी असाधारण बात नहीं थी। एक परिवार, जो उस शहर में रहने आया था और कंगाल हो गया था, अपने घर का सामान और कपड़े-लत्ते बेच रहा था। सब चीजें औरतों के मतलब की थीं। चूँकि बाजार में उन चीजों के बहुत थोड़े दाम मिलते, इसलिए वे लोग किसी ऐसे आदमी की तालाश में थे जो उनका यह सारा सामान बिकवा दे। लिजावेता यही काम करती थी। वह ऐसे कामों की जिम्मेदारी ले लेती थी और लोग अकसर उसे इस काम के लिए रख लेते थे क्योंकि वह बहुत ईमानदार थी और हमेशा मुनासिब दाम लगा कर उस पर टिकी रहती थी। वह हमेशा बहुत कम बोलती थी और, जैसा कि हम कह चुके हैं, वह बहुत दब्बू और डरपोक थी।

लेकिन रस्कोलनिकोव इधर कुछ अरसे से अंधविश्वासी हो गया था। अंधविश्वास के ये चिह्न उसमें बहुत बाद तक बाकी रहे और लगभग अमिट हो गए। इन सब बातों में उसे बाद में चल कर कोई विचित्र और रहस्यमय बात देखने की प्रवृत्ति पैदा हो गई थी, गोया कुछ अनोखे प्रभाव तथा संयोग उनके पीछे काम कर रहे हों। पिछले जाड़े में उसकी जान-पहचान के एक छात्र ने, जिसका नाम पोकोरेव था और जो खार्कोव चला गया था, यूँ ही बातों-बातों में उसे उस बुढ़िया अल्योना इवानोव्ना का पता दे दिया था, जो चीजें गिरवी रखने का काम करती थी, कि शायद कभी उसे कोई चीज गिरवी रखने की जरूरत पड़े। वह बहुत दिनों तक उसके पास नहीं गया क्योंकि उसके पास पढ़ाने का काम था और वह किसी तरह अपनी गाड़ी चला ही रहा था। उसे वह पता छह हफ्ते पहले याद आया। उसके पास गिरवी रखने लायक दो चीजें थीं : एक तो उसके बाप की पुरानी चाँदी की घड़ी और दूसरी चलते समय उसकी बहन की दी हुई, छोटी-सी सोने की अँगूठी, जिसमें तीन लाल नग जड़े हुए थे। उसने अँगूठी ले जाने का फैसला किया। जब उसने उस बुढ़िया को ढूँढ़ निकाला तो देखते ही उसके मन में उसके लिए बेपनाह नफरत पैदा हुई, हालाँकि वह उसके बारे में कोई खास बात नहीं जानता था। उसे उस बुढ़िया से दो नोट मिले थे और घर वापस जाते हुए वह एक छोटे-से फटीचर ढाबे में घुस गया। चाय मँगा कर वह वहाँ बैठ गया और गहरे सोच में डूब गया। एक अजीब विचार उसके दिमाग को कचोट रहा था, जैसे अंडे के अंदर मुर्गी का बच्चा चोंच मारता है, और वह उस विचार में पूरी तरह उलझ गया।

लगभग उसकी बगल में ही अगली मेज पर एक छात्र बैठा था, जिसे वह जानता नहीं था। उसके साथ एक नौजवान अफसर था। वे बिलियर्ड खेल कर आए थे और चाय पीने बैठे थे। अचानक उस लड़के ने उस अफसर से चीजें गिरवी रखनेवाली अल्योना इवानोव्ना की चर्चा की और उसे उसका पता दिया। यह बात अपने आपमें रस्कोलनिकोव को कुछ अजीब मालूम हुई; वह अभी-अभी उसी के यहाँ से आया था और आते ही यहाँ उसके नाम की चर्चा सुनाई पड़ी थी। जाहिर है कि यह संयोग की बात थी, लेकिन उसके दिमाग पर जो असाधारण छाप पड़ी थी, उसे वह किसी तरह दूर नहीं कर पा रहा था। गोया यहाँ कोई आदमी उसी को सुनाने के लिए सब कुछ कह रहा था। वह छात्र अपने दोस्त को अल्योना इवानोव्ना के बारे में बहुत-सी ब्योरे की बातें बताने लगा।

'उसका मुआमला पक्का है,' वह बोला। 'उससे किसी भी वक्त पैसा मिल सकता है। यहूदियों जैसी अमीर है, एक साथ पाँच हजार रूबल तक दे सकती है। लेकिन उसे एक रूबल की चीज गिरवी रखने में भी कोई खास एतराज नहीं है। उसके साथ हमारे कई साथियों को व्यवहार रह चुका है। लेकिन बुढ़िया है बला की खूसट...'

फिर वह बताने लगा कि वह कैसी कमीनी है और उसके बारे में भरोसे के साथ कुछ कहा ही नहीं जा सकता। अगर सूद चुकाने में एक दिन की भी देर हो जाए तो गिरवी रखा हुआ माल गया समझो। वह तो माल की बस चौथाई कीमत देती है और उस पर हर महीने पाँच ही नहीं बल्कि कभी-कभी तो सात फीसदी तक सूद लेती है। वगैरह-वगैरह। वह छात्र लगातार बोलता रहा। उसने बताया कि बुढ़िया की एक बहन लिजावेता है, जिसे यह कमबख्त ठिगनी बुढ़िया हर वक्त पीटती रहती है और बिलकुल बच्चों की तरह अपने शिकंजे में जकड़ कर गुलामों की तरह रखती है, हालाँकि लिजावेता पाँच फुट दस इंच की तो होगी ही।

'बिलकुल बच्ची चीज है वह,' छात्र ने ऊँचे स्वर में कहा और हँस पड़ा।

वे लिजावेता के बारे में बातें करने लगे। छात्र उसकी बातें खास चटखरा ले कर कर रहा था और लगातार हँसे जा रहा था। अफसर उसकी बातें बड़ी दिलचस्पी से सुन रहा था। छात्र से उसने कहा कि लिजावेता को कुछ कपड़ों की मरम्मत के लिए उसके पास भेज दे। रस्कोलनिकोव एक शब्द भी सुनने से नहीं चूका और उसके बारे में सब कुछ जान लिया। लिजावेता उम्र में बुढ़िया से छोटी थी और उसकी सौतेली बहन थी; वह दूसरी माँ से थी और पैंतीस साल की थी। रात-दिन वह अपनी बहन का काम-काज करती थी, खाना पकाने और कपड़े धोने के अलावा सीने-पिरोने और दूसरों के यहाँ झाड़ू-बुहारू का काम भी करती थी और जो कुछ कमाती थी, सब ला कर अपनी बहन को दे देती थी। अपनी बहन से पूछे बिना किसी भी तरह का काम लेने या कोई नौकरी पकड़ने की हिम्मत उसे नहीं होती थी। बुढ़िया अपनी वसीयत लिख चुकी थी, और लिजावेता को यह बात मालूम थी। इस वसीयत के अनुसार उसे एक दमड़ी भी मिलनेवाली नहीं थी। घर के सामान, कुर्सियों वगैरह के अलावा कुछ भी नहीं। सारा पैसा न. प्रांत के एक मठ के नाम कर दिया गया था ताकि उसके मरने के बाद हर बरसी पर उसके वास्ते प्रार्थना की जाए। लिजावेता अपनी बहन से कम हैसियत की थी, बिनब्याही थी, और सूरत-शक्ल की बेहद भोंडी थी। बेहद लंबा कद। उसकी लंबी-लंबी टाँगें देखने में ऐसी लगती थीं, गोया बाहर की ओर मुड़ी हुई हों। हमेशा बकरी की खाल के फटे-पुराने जूते पहने रहती थी और खुद बहुत साफ-सुथरी रहती थी। उस छात्र ने जिस बात पर सबसे अधिक आश्चर्य प्रकट किया और जो बात उसे सबसे ज्यादा मजेदार लगी, यह थी कि लिजावेता हमेशा पेट से रहती थी।

'लेकिन तुमने तो कहा कि वह बेहद बदसूरत है,' अफसर ने अपनी राय जाहिर की।

'उसका रंग गहरा जरूर है और देखने में लगती है गोया किसी सिपाही को जनाने कपड़े पहना दिए गए हों, लेकिन वह बदसूरत एकदम नहीं है। उसके चेहरे पर और उसकी आँखों में बहुत ही रहम है। हद से ज्यादा। इसका सबूत यह है कि बहुत से लोग उस पर रीझ जाते हैं। इतने कोमल और अच्छे स्वभाव की औरत है कि पूछिए ही नहीं। सब कुछ हँसी-खुशी सहती है, हर बात मान लेती है, कुछ भी मान लेने को तैयार रहती है। और उसकी मुस्कराहट तो सचमुच ही मीठी है।'

'लगता है तुम खुद उस पर रीझे हुए हो,' अफसर हँस कर बोला।

'उसके अनोखेपन की वजह से। मैं बताऊँ बात क्या है। मैं तो उस कमबख्त बुढ़िया को जान से मार दूँ, उसका सारा पैसा ले कर चंपत हो जाऊँ और मैं आपसे सच कहता हूँ, इस पर मेरी आत्मा को जरा भी दुख नहीं होगा,' लड़के ने अपनी बात जारी रखते हुए बहुत जोश के साथ कहा।

अफसर फिर हँसा और रस्कोलनिकोव काँप उठा। कैसी अजीब बात थी!

'मैं, तुमसे एक संजीदा सवाल पूछना चाहता हूँ,' छात्र ने उत्तेजित हो कर कहा। 'जाहिर है मैं तो मजाक कर रहा था, लेकिन एक बात बताओ : एक तरफ तो वह बेवकूफ, नासमझ, निकम्मी, सबका बुरा चाहनेवाली, बीमार, बेहूदा बुढ़िया है, जो न सिर्फ बेकार है बल्कि जान-बूझ कर दूसरों को नुकसान पहुँचाती है, जिसे खुद नहीं पता है कि वह किसलिए जी रही है, और जो दो-चार दिन में यूँ भी मर जाएगी। समझ रहे हो न!'

'हाँ, समझ रहा हूँ,' अफसर ने अपने गरमाए हुए साथी को ध्यान से देखते हुए जवाब दिया।

'अच्छा तो और सुनो। दूसरी ओर, हजारों की तादाद में नई नौजवान जिंदगियाँ हर तरफ मदद की कमी की वजह से तबाह हो रही हैं! उस बुढ़िया के पैसे से, जो जा कर किसी मठ में दफन हो जाएगा, सैकड़ों नेक काम किए जा सकते हैं, हजारों नेक कामों में मदद पहुँचाई जा सकती है। सैकड़ों, शायद हजारों लोगों को सही रास्ते पर लगाया जा सकता है। दर्जनों परिवारों को कंगाली से, तबाही से, बदकारी से, गुप्त रोगों के अस्पतालों से बचाया जा सकता है - और यह सब कुछ उसके पैसे से। उसे मार डालो, उसका पैसा ले लो और उसकी मदद से मानवता की सेवा में और सभी लोगों की भलाई के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो। क्या राय है तुम्हारी, क्या हजारों नेक कामों से यह एक छोटा-सा अपराध नहीं धुल जाएगा एक जान ले कर हजारों लोगों को भ्रष्ट और पतित होने से बचाया जा सकेगा। एक मौत, और उसके बदले सैकड़ों जिंदगियाँ - सीधा-सादा हिसाब है! इसके अलावा, जिंदगी के तराजू पर तोल कर देखें तो उस मरियल, बेवकूफ, चिड़चिड़ी बुढ़िया के जीवन की कीमत ही क्या है एक जूँ से या एक तिलचट्टे से अधिक कुछ भी नहीं, बल्कि उससे कुछ कम ही होगा क्योंकि वह जहरीली है। दूसरों की जिंदगियों को वह खोखला बना रही है। अभी उस दिन उसने महज जलन के मारे लिजावेता की उँगली पर काट लिया। बाल-बाल बच गई बेचारी नहीं तो उँगली ही काटनी पड़ती।'

'जाहिर है उसे जिंदा रहने का कोई हक नहीं है,' अफसर बोला, 'लेकिन यह तो प्रकृति का मामला है।'

'सो तो ठीक है दोस्त, लेकिन हमें प्रकृति को भी ठीक करना होगा, उसे सही दिशा में ले जाना होगा, और अगर हमने यह न किया तो हम दुराग्रहों के बोझ तले दब जाएँगे। अगर ऐसा न किया जाता तो कभी कोई बड़ा आदमी होता ही नहीं। लोग कर्तव्य की, अंतरात्मा की बातें करते हैं। मैं कर्तव्य और अंतरात्मा के खिलाफ कुछ नहीं कहना चाहता, लेकिन सवाल यह है कि उनसे हमारा अभिप्राय क्या है। ठहरो, मुझे तुमसे एक और सवाल पूछना है। सुनो!'

'नहीं, तुम ठहरो। पहले मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ। सुनो!'

'वह क्या?'

'तुम बहुत बातें कर रहे हो और भाषण झाड़ रहे हो, लेकिन यह बताओ, क्या तुम खुद उस बुढ़िया को जान से मारने को तैयार हो?'

'हरगिज नहीं! मैं तो बस यह कह रहा था कि ऐसा करना ही इन्साफ की बात होगी... इसका मुझसे कोई संबंध नहीं...'

'लेकिन मैं समझता हूँ कि तुम खुद अगर यह काम करने को तैयार नहीं तो इसमें इन्साफ की कोई बात नहीं! आओ, एक बाजी और खेलें!'

रस्कोलनिकोव बेहद बेचैन हो उठा। जाहिर है ये सब आए दिन की वही नौजवानी की बातें थीं और नौजवानी के विचार थे, जो वह पहले भी अलग-अलग शक्लों में और अलग-अलग विषयों पर सुन चुका था। लेकिन यह संयोग क्यों हुआ कि इस तरह की बातचीत और इस तरह के विचार उसे ठीक उसी पल सुनने को मिले, जब खुद उसके दिमाग में ठीक वही विचार पनप रहे थे और ऐसा क्यों था कि जब वह उस बुढ़िया के यहाँ से अपने इस विचार का अंकुर ले कर आया, ठीक उसी पल उसे उसके बारे में बातचीत सुनने का संयोग हुआ था यह संयोग उसे हमेशा बहुत विचित्र लगता था। बाद में चल कर उसने जो कुछ किया उस पर ढाबे की इस मामूली बातचीत का बहुत गहरा असर पड़ा। गोया उसमें सचमुच कोई मार्गदर्शक संकेत था, कुछ ऐसा था जो पूर्व-निर्धारित था...।

भूसामंडी से लौट कर वह सीधा सोफे पर ढेर हो गया और घंटे भर तक बिना हिले-डुले वहीं बैठा रहा। इसी बीच अँधेरा हो गया। उसके पास कोई मोमबत्ती भी नहीं थी लेकिन होती तो भी रोशनी करने की बात उसे सूझती भी नहीं। बाद में भी उसे कभी यह याद नहीं आया कि वह उस वक्त किसी चीज के बारे में सोच भी रहा था या नहीं। आखिरकार उसे अपने पहलेवाले बुखार और कँपकँपी का एहसास हुआ, और उसने बड़ी राहत के साथ महसूस किया कि वह सोफे पर लेट सकता था। जल्दी ही उसे गहरी और बोझल नींद आ गई, गोया वह किसी भारी चीज के नीचे कुचल गया हो।

वह बहुत देर तक सोता रहा और कोई सपना भी नहीं देखा। अगले दिन सुबह दस बजे जब नस्तास्या उसके कमरे में आई, तो वह भी उसे बड़ी मुश्किल से जगा पाई। वह उसके लिए चाय और रोटी लाई थी। चाय इस बार भी पत्तियाँ दोबारा उबाल कर बनाई गई थी और इस बार भी वह उसे अपनी ही चायदानी में लाई थी।

'हे भगवान, कैसी नींद है!' वह गुस्से से चिल्लाई। 'जब देखो, सोता ही रहता है!'

वह कोशिश करके उठा। उसका सर दर्द कर रहा था। वह उठ कर खड़ा हुआ, अपनी कोठरी में एक चक्कर लगाया और फिर धम से सोफे पर गिर पड़ा।

'फिर सोने जा रहे हो!,' नस्तास्या जोर से चिल्लाई। 'कुछ बीमार हो क्या?'

उससे कोई जवाब नहीं दिया।

'चाय चाहिए?'

'बाद में,' उसने काफी कोशिश के बाद, फिर से अपनी आँखें बंद करते हुए और दीवार की ओर करवट बदलते हुए कहा।

नस्तास्या उसके ऊपर झुक कर खड़ी हो गई।

'हो सकता है सचमुच बीमार हो,' वह बोली, और मुड़ कर बाहर चली गई।

दो बजे वह फिर सूप ले कर आई। वह पहले की ही तरह लेटा हुआ था। चाय वैसी ही रखी थी। नस्तास्या को सचमुच बुरा लगा और वह गुस्सा हो कर उसे जगाने लगी।

'इस तरह क्यों पड़े हो?' वह चिढ़ के साथ उसे देखते हुए जोर से चिल्लाई।

वह उठ कर बैठ गया, लेकिन कुछ बोला नहीं। फर्श को घूरता रहा।

'जी अच्छा है, कि नहीं' नस्तास्या ने पूछा और इस बार भी उसे कोई जवाब नहीं मिला। 'बाहर जा कर थोड़ी हवा खा आओ, ठीक हो जाओगे,' उसने कुछ देर रुक कर कहा। 'कुछ खाना भी है कि नहीं?'

'बाद में,' उसने कमजोर आवाज में कहा। 'तुम जाओ!' और उसने हाथ के इशारे से उसे बाहर जाने को कहा।

वह कुछ देर और वहीं खड़ी रह कर बड़ी दया के साथ उसे देखती रही, फिर बाहर चली गई।

कुछ देर बाद उसने आँखें उठाईं और देर तक चाय और सूप को देखता रहा। फिर उसने रोटी उठाई, एक चम्मच लिया और खाना शुरू किया।

उसने भूख न होते हुए भी, गोया कि मशीन की तरह, थोड़ा-सा खाया, कोई तीन-चार चम्मच। सर का दर्द कुछ कम हो गया था। खा कर वह फिर सोफे पर लेट गया, लेकिन अब उसे नींद नहीं आई। तकिए में मुँह छिपा कर वह बेहरकत पड़ा रहा। उसे दिन सपने सताते रहे और वह भी कैसे अजीब-अजीब। ऐसे ही एक दिन सपने में, जो उसे बार-बार आता रहा, उसने कल्पना की कि वह अफ्रीका में था। मिस्र के किसी नख्लिस्तान में। कफिला आराम कर रहा था; ऊँट आराम से लेटे हुए थे; चारों ओर घेरा बनाए खजूर के पेड़ खड़े थे। पूरा काफिला खाना खा रहा था। लेकिन वह एक चश्मे से पानी पी रहा था, जो पास ही कलकल ध्वनि करता हुआ बह रहा था। वह पानी भी बहुत ठंडा था, मजेदार, नीला, ठंडा पानी रंग-बिरंगे पत्थरों और साफ रेत पर से हो कर बह रहा था, जो जहाँ-तहाँ सोने की तरह चमक रही थी। ...अचानक उसे कहीं घड़ियाल बजने की आवाज सुनाई दी। उसने चौंक कर आँखें खोल दीं, सर उठा कर खिड़की के बाहर देखा, और यह देख कर कि कितनी देर हो चुकी थी वह पूरी तरह अचानक उछल कर जाग पड़ा, जैसे किसी ने उसे सोफे पर से खींच कर उठा दिया हो। वह धीरे-धीरे दबे पाँव दरवाजे तक गया, चुपके से उसे खोला, और सीढ़ियों की ओर कान लगा कर सुनने लगा। दिल बुरी तरह धड़क रहा था। सीढ़ियों पर पूरा सन्नाटा था, जैसे हर आदमी सो रहा हो। ...उसे यह बात बहुत अजीब और भयानक लगी कि वह इस तरह सब कुछ भूल कर कल से सो रहा था और कुछ भी नहीं किया था, अभी तक कोई तैयारी नहीं की थी... इसी बीच शायद छह बज गए थे। ऊँघते रहने और कुछ भी किए बिना पड़े रहने के बाद उस पर एक असाधारण, तूफानी, जुनूनवाला, जल्दबाजी का दौरा पड़ा। लेकिन तैयारियाँ कुछ ज्यादा नहीं करनी थीं। उसने अपनी सारी शक्तियाँ हर चीज के बारे में सोचने और कुछ भी न भूलने पर केंद्रित कर दीं। दिल इतनी बुरी तरह धड़कता रहा कि उसके लिए साँस लेना भी मुश्किल हो गया। पहले तो उसे एक फंदा बना कर अपने ओवरकोट के अंदर सी लेना था। यह पलभर का काम था। उसने अपने तकिए के नीचे हर चीज को उलट-पुलट कर देखा और उसके नीचे ठुँसे हुए कपड़ों में से उसने एक फटी हुई, पुरानी मैली कमीज निकाली। उसके चीथड़ों में से उसने एक लंबी-सी धज्जी फाड़ी, कोई दो-तीन इंच चौड़ी और लगभग सोलह इंच लंबी। उसने इस धज्जी को दोहरा तह किया, अपना किसी मजबूत सूती कपड़े का बना, गर्मियों में पहनने का मोटा ओवरकोट निकाला (बाहर पहनने के लिए उसके पास यही एक कपड़ा था) और उस धज्जी के दोनों सिरे उसके अंदर बाईं बाँह के सूराख के नीचे सिलने लगा। सिलाई करते वक्त उसके हाथ काँप रहे थे। फिर भी उसने यह काम इतनी कामयाबी से किया कि जब उस कोट को उसने दोबारा पहना तो बाहर से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। सुई-धागा उसने बहुत पहले से तैयार कर रखा था और ये दोनों चीजें कागज के एक टुकड़े में लिपटी हुई उसकी मेज की दराज में पड़ी थीं। जहाँ तक फंदे का सवाल था, यह उसकी अपनी सूझ-बूझ से पैदा एक बहुत ही निराली तरकीब थी। यह फंदा कुल्हाड़ी के लिए था। हाथ में कुल्हाड़ी ले कर तो वह सड़क पर निकल नहीं सकता था। लेकिन अगर कोट के अंदर छिपा कर भी ले जाता तब भी उसे अपने हाथ से सहारा देना पड़ता और इस पर किसी की नजर भी पड़ सकती थी। अब उसे सिर्फ कुल्हाड़ी का फाल उस फंदे में फँसा देना था, और वह अंदर उसकी बाँह के नीचे चुपचाप लटकी रहेगी। अपना हाथ कोट की जेब में डाल कर वह उसकी बेंट का सिरा रास्ते भर पकड़े रह सकता था ताकि वह झूले नहीं। कोट तो लंबा और ढीला था ही, बल्कि कोट क्या था, पूरा बोरा था, इसलिए बाहर से कोई यह नहीं देख सकता था कि उसकी जेब में जो हाथ था, उससे उसने क्या कोई चीज पकड़ रखी थी। इस फंदे की रूपरेखा उसने पंद्रह दिन पहले ही सोच ली थी।

यह काम पूरा करने के बाद उसने अपना हाथ सोफे और फर्श के बीच की पतली-सी जगह में डाला और बाएँ कोने में टटोल कर गिरवी रखने की बीच निकाली, जिसे उसने बहुत पहले ही तैयार करके वहाँ छिपा दिया था। लेकिन जो चीज वह गिरवी रखनेवाला था वह चाँदी के सिगरेट-केस की लंबाई-चौड़ाई और उतनी ही मोटाईवाली लकड़ी की एक तख्ती थी, जिसे रंदा चला कर खूब चिकना कर दिया गया था। लकड़ी की यह तख्ती उसने एक दिन किसी अहाते में टहलते हुए उठा ली थी, जहाँ किसी किस्म का छोटा-मोटा कारखाना था। बाद में उसने लकड़ी की इस तख्ती के साथ लोहे की पतली-सी चादर का एक चिकना टुकड़ा जोड़ दिया था; लोहे का यह टुकड़ा भी उसने उसी वक्त कहीं सड़क पर से उठाया था। लोहे का टुकड़ा आकार में थोड़ा छोटा था और उसे लकड़ी की तख्ती पर रख कर उसने दोनों को आर-पार धागा लपेट कर कस कर बाँध दिया था। फिर उसने बड़ी सावधानी और सफाई से इनको एक साफ, सफेद कागज में लपेटा था और इस तरह बाँध दिया था कि वह आसानी से खुल न सके। ऐसा इसलिए किया गया था कि गाँठ खोलने की कोशिश करते समय बुढ़िया का ध्यान उधर ही लगा रहे, और इस तरह उसे कुछ समय मिल जाए। लोहे की पट्टी उसे भारी बनाने के लिए जोड़ दी गई थी, ताकि उस औरत को छूटते ही यह अंदाजा न हो पाए कि वह रेहन का 'माल' लकड़ी का बना हुआ है। ये सारी चीजें उसने पहले ही से सोफे के नीचे जमा कर रखी थीं। उसने गिरवी रखने की चीज अभी निकाली ही थी कि अचानक उसे नीचे अहाते में से किसी के जोर से चिल्लाने की आवाज सुनाई दी :

'छह बजे तो कितनी ही देर हो गई!'

'सचमुच! हे भगवान!'

वह दरवाजे की तरफ लपका, कान लगा कर सुना, झपट कर अपनी टोपी उठाई और बड़ी होशियारी से, कोई आवाज किए बिना, बिल्ली की तरह अपने तेरह जीने उतरने लगा। सबसे जरूरी काम अभी बाकी ही था - रसोई में से कुल्हाड़ी चुराने का काम। वह काम कुल्हाड़ी से ही अन्जाम देना है; यह उसने बहुत पहले तय कर लिया था। उसके पास खटकेदार चाकू भी था, लेकिन वह चाकू पर भरोसा नहीं कर सकता था, अपनी ताकत पर उसे और भी कम भरोसा था, और इसीलिए आखिर में उसने कुल्हाड़ी के इस्तेमाल का फैसला किया था। लगे हाथ हम उन सभी आखिरी फैसलों के बारे में, जो उसने इस सिलसिले में किए थे, एक और विचित्र बात का उल्लेख कर दें। उनमें एक अजीब विशेषता थी : किसी काम का फैसला जितना ही पक्का होता जाता था, उसकी नजरों में वह फौरन उतना ही अधिक बीभत्स, उतना ही अधिक बेतुका मालूम होने लगता था। अपने समस्त कष्टदायक आंतरिक संघर्ष के बावजूद उसने इस पूरे अरसे में कभी एक पल के लिए भी अपनी योजना की व्यावहारिकता पर विश्वास नहीं किया था।

यूँ अगर कभी ऐसा हो जाता कि हर चीज की छोटी-से-छोटी बारीकी पर भी विचार कर लिया गया होता, उसे अंतिम रूप से तय कर लिया गया होता और किसी तरह की कोई दुविधा बाकी न रहती, तो भी वह लगता है इस पूरे मामले को बेतुका, दानवीय और असंभव कह कर त्याग देता। लेकिन ऐसी बहुत सारी छोटी-छोटी बातें और दुविधाएँ बाकी रह गईं, जिनके बारे में कोई फैसला नहीं किया जा सका। जहाँ तक कुल्हाड़ी हथियाने का सवाल था, इस मामूली से काम की वजह से उसे कभी कोई चिंता नहीं हुई, क्योंकि इससे आसान कोई और काम हो भी नहीं सकता था। नस्तास्या हर वक्त घर के बाहर रहती थी, खास तौर पर शाम को। वह अकसर भाग कर पड़ोसियों के यहाँ या किसी दुकान पर चली जाती और हमेशा दरवाजा खुला छोड़ जाती। मकान-मालकिन बस इसी एक बात के लिए उसे हमेशा डाँटती रहती थी। इसलिए वक्त आने पर उसे बस चुपके से रसोई में जा कर कुल्हाड़ी उठा लानी थी, और घंटे भर बाद (सारा काम पूरा हो जाने पर) उसे जा कर वापस रख देना था। लेकिन ये सब बातें ऐसी थीं जिनमें शक की गुंजाइश थी। मान लीजिए, घंटे भर बाद वह उसे वापस रखने गया और उस वक्त तक नस्तास्या लौट आई और वहाँ पर मौजूद हुई तो जाहिर है उसे वहाँ से गुजर जाना होगा और उसके दोबारा बाहर जाने का इंतजार करना होगा। लेकिन मान लीजिए कि इसी बीच उसे कुल्हाड़ी की जरूरत पड़ी और वह उसे न मिली; उसने उसे ढूँढ़ा और एक बखेड़ा खड़ा कर दिया तो... इसका मतलब होगा शक। कम-से-कम शक की गुंजाइश तो जरूर ही होती।

लेकिन ये सब बहुत छोटी-छोटी, मामूली बातें थीं जिनके बारे में उसने सोचना शुरू भी नहीं किया था, और न ही उसके पास वक्त था। वह सबसे खास बात के बारे में सोच रहा था और छोटी-छोटी बातों को उस वक्त तक के लिए टालता जा रहा था, जब तक कि वह पूरे मामले के बारे में विश्वस्त न हो जाए। लेकिन ऐसा होना असंभव लगता था। कम-से-कम उसे तो ऐसा ही लगता था। मिसाल के तौर पर, वह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कभी यूँ भी होगा कि वह सोचना छोड़ दे, उठ खड़ा हो और बस सीधा वहाँ चला जाए... उसकी कुछ दिन पहले की कोशिश भी (अर्थात उस जगह को पक्के ढंग से अच्छी तरह, देख आने के मकसद से उसका वहाँ जाना भी) असली चीज से कोसों दूर की महज एक आजमाइश थी, जैसे कोई कहे कि 'आओ, चलें और आजमा कर देख तो लें - खाली-खूली सपने देखने में क्या फायदा' - तब उसका मनोबल फौरन चूर हो गया था और वह वहाँ से कोसता हुआ, अपने आप पर झुँझलाता हुआ भाग खड़ा हुआ था। इसी बीच, जहाँ तक नैतिक प्रश्न की बात थी, लगता है उसके बारे में उसका विश्लेषण पूरा हो चुका था; उसकी भलाई-बुराई की परख की क्षमता उस्तरे की धार की तरह तेज हो गई थी और उसे अपने अंदर कोई तर्कसंगत आपत्ति नहीं मिल सकी थी। लेकिन आखिरी सहारे के तौर पर उसने अपने आप पर भी विश्वास करना बंद कर दिया था और वह पूरी तरह जुट कर, गुलामी के बंधनों में जकड़े हुए किसी मजबूर आदमी की तरह, हर दिशा में आपत्तियाँ खोजता फिरता था, उनके लिए हर चीज को टटोलता रहता था, गोया कोई उसे इस काम के लिए मजबूर कर रहा हो और जबरदस्ती उसकी ओर खींच रहा हो। लेकिन इस आखिरी दिन का, जो इस तरह अचानक आ गया था और जिसने आनन-फानन हर बात का फैसला कर दिया था, लगभग अपने आप ही उस पर असर पड़ा था। लगता था कोई उसका हाथ पकड़ कर उसे अंधों की तरह, अदम्य शक्ति से, किसी पारलौकिक बल के सहारे अपने पीछे खींचे लिए जा रहा था और वह कोई आपत्ति भी नहीं कर पा रहा था। लगता था उसके लिबास का किनारा मशीन के पहिए में फँस गया था और वह मशीन में खिंचा चला जा रहा था।

शुरू में - वास्तव में बहुत पहले - वह महज एक सवाल से बेहद हैरान रहता था : ऐसा क्यों कि लगभग सभी अपराध बहुत फूहड़पन से छिपाए जाते हैं और बहुत आसानी से उनका पता भी लग जाता है या ऐसा क्यों कि लगभग सभी अपराधी अपने पीछे एकदम खुले सुराग छोड़ जाते हैं धीरे-धीरे वह कई अलग-अलग और विचित्र निष्कर्षों पर पहुँचा था, और उसकी राय में इसका मुख्य कारण इस बात में उतना निहित नहीं था कि अपराध को छिपाना भौतिक दृष्टि से असंभव था, जितना कि स्वयं अपराधी में। ठीक उसी पल जब समझदारी और होशियारी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बच्चों जैसी और हद दर्जे की लापरवाही की वजह से लगभग हर अपराधी इच्छा-शक्ति और विवेक-बुद्धि के लोप का शिकार हो जाता है। उसे इसका पक्का विश्वास था कि विवेक-बुद्धि और इच्छा-शक्ति के लोप का यह हमला मनुष्य पर एक ऐसी बीमारी की तरह होता है, जो धीरे-धीरे बढ़ कर अपराध किए जाने से ठीक पहले अपने चरम-बिंदु पर पहुँच जाती है, अपराध के पल में और अलग-अलग मिसालों में उसके बाद भी अधिक या कम समय तक उतनी ही उग्रता से जारी रहती है, और फिर किसी भी दूसरी बीमारी की तरह धीरे-धीरे ठीक हो जाती है। अभी तक वह इस सवाल का जवाब देने की क्षमता अपने अंदर महसूस नहीं करता था कि वह बीमारी अपराध को जन्म देती है या स्वयं अपराध के विशिष्ट लक्षण के कारण उसके साथ ही बीमारी के कुछ लक्षण भी पाए जाते हैं।

जब वह इन नतीजों पर पहुँच चुका तो उसने फैसला किया कि उसके अपने मामले में इस तरह की विकार से पैदा उथल-पुथल नहीं होगी। अपनी योजना पूरी करते समय उसकी विवेक-बुद्धि तथा इच्छा-शक्ति केवल इस कारण ज्यों की त्यों बनी रहेगी कि उसकी योजना 'अपराध नहीं' थी... हम उस पूरी प्रक्रिया को अभी छोड़ देंगे जिसके जरिए वह इस अंतिम निर्णय तक पहुँचा था; हम यों भी जरूरत से ज्यादा आगे निकल आए हैं। ...हम केवल इतना और बता दें कि उसके दिमाग में इस मामले की व्यावहारिक और शुद्ध रूप से भौतिक कठिनाइयों का बस एक गौण स्थान था। 'उनसे निबटने के लिए आदमी को बस अपनी इच्छा-शक्ति और अपनी विवेक-बुद्धि पर काबू रखना चाहिए। आदमी ने जहाँ अपने आपको इस कारोबार के छोटे से छोटे ब्यौरे से परिचित कर लिया कि फिर तो समय आने पर वे सभी दूर हो जाते हैं।' लेकिन यह कारोबार शुरू भी तो नहीं हो रहा था। अपने आखिरी फैसलों पर उसे सबसे कम भरोसा रह गया था, और जब वह घड़ी आई तो सब कुछ एकदम ही दूसरे ढंग से, गोया आकस्मिक और प्रत्याशित रूप से हुआ।

वह अभी सीढ़ियाँ पूरी तरह उतरा भी नहीं था कि एक छोटी-सी बात ने उसका सारा हिसाब गड़बड़ा दिया। वह जब मकान-मालकिन की रसोई के पास पहुँचा, जिसका दरवाजा हमेशा की तरह खुला हुआ था, तो उसने बड़ी चालाकी से अंदर नजर डाली कि नस्तास्या के मौजूद न होने पर कहीं मकान-मालकिन खुद तो वहाँ नहीं है, या अगर वह वहाँ नहीं है तो उसके अपने कमरे का दरवाजा तो बंद है, ताकि जब वह कुल्हाड़ी लेने अंदर जाए तो वह कहीं बाहर न झाँकने लगे। लेकिन अचानक यह देख कर उसके आश्चर्य की सीमा न रही कि नस्तास्या न सिर्फ रसोई में थी, बल्कि वहाँ काम में व्यस्त थी। वह एक पिटारी में से कपड़े निकाल कर अलगनी पर फैला रही थी! उसे देख कर वह, कपड़े फैलाना बंद करके, उसकी ओर मुड़ी तब तक उसे घूरती रही, जब तक वह वहाँ से गुजर न गया। उसने अपनी आँखें फेर लीं और वहाँ से इस तरह गुजर गया जैसे कुछ देखा ही न हो। लेकिन अब तो सारा किस्सा ही खलास हो चुका था। उसके पास कुल्हाड़ी ही नहीं थी! उसके होश उड़ गए।

'मैंने यह क्यों समझ लिया था,' दालान से गुजरते हुए वह सोचने लगा, 'मैंने यह क्यों मान लिया था कि उस पल वह घर पर नहीं ही होगी क्यों, आखिर क्यों मैंने इस बात को इतने यकीन के साथ मान लिया था' उसका हौसला पस्त हो चुका था और वह अपमानित भी महसूस कर रहा था। क्रोध में उसका जी अपने आप पर हँसने को चाह रहा था... उसके अंदर पशुओं जैसा अंधा क्रोध खौल रहा था।

संकोच में पड़ा वह कुछ देर तक दालान के फाटक में खड़ा रहा। सड़क पर जाना, महज दिखावे के लिए टहलने निकल जाना उसे नापसंद था; अपने कमरे में वापस चला जाना और भी नापसंद था। 'कितना बढ़िया मौका मैंने हमेशा के लिए खो दिया!' दरबान की छोटी-सी अँधेरी कोठरी के ठीक सामने, फाटक के बीच में बेमकसद खड़े-खड़े वह बुदबुदाया। कोठरी का दरवाजा भी खुला हुआ था। अचानक वह चौंक पड़ा। उससे दो कदम की दूरी पर, दरबान की कोठरी में दाहिनी तरफ बेंच के नीचे किसी चमकती हुई चीज पर उसकी नजर पड़ी। ...उसने अपने चारों ओर देखा-कोई नहीं था। पंजों के बल चलता हुआ कोठरी तक गया, दो कदम उसके अंदर घुसा, और दबी जबान से दरबान को पुकारा। 'हाँ, घर पर नहीं है! लेकिन कहीं पास ही होगा अहाते में, क्योंकि दरवाजा पूरा खुला हुआ है।' वह कुल्हाड़ी की ओर झपटा (वह कुल्हाड़ी ही थी), और उसे बेंच के नीचे से खींच कर निकाला जहाँ वह दो चैलों के बीच पड़ी हुई थी। कोठरी से बाहर निकलने से पहले, उसने जल्दी से उसे फंदे में अटका लिया, दोनों हाथ अपनी जेबों में डाले, और कोठरी के बाहर चला गया। किसी ने उसे देखा नहीं था! 'जब अक्ल काम नहीं करती तो शैतान काम करता है!' उसने अजीब-सी मुस्कराहट के साथ सोचा। इस संयोग से उसका हौसला बेहद बढ़ गया।

वह शांत भाव से, कोई जल्दी किए बिना, चुपचाप चलता रहा ताकि किसी को शक न हो। वह आसपास से गुजरनेवालों को भी कम ही देख रहा था। वह उनके चेहरों को देखने से कतराने की कोशिश कर रहा था, और इस बात की भी कि जहाँ तक हो सके, खुद उसकी ओर दूसरों का ध्यान कम-से-कम जाए। अचानक उसे अपने हैट का खयाल आया। 'लानत है! अभी परसों मेरे पास पैसे थे और उनसे पहनने के लिए मैंने एक टोपी भी नहीं खरीदी!' उसकी आत्मा की गहराई से एक गाली निकली।

एक दुकान के अंदर कनखियों से देखते हुए एक दीवार घड़ी पर उसकी नजर पड़ी। वह सात दस का समय बता रही थी। उसे जल्दी करनी थी और साथ ही कुछ चक्कर लगा कर जाना था ताकि उस घर में दूसरी ओर से घुसे...

पहले इन सब बातों की कल्पना करते समय कभी-कभी वह यह भी सोचता था कि उसे डर तो बहुत लगेगा। लेकिन इस वक्त उसे कुछ ज्यादा डर नहीं लग रहा था, बल्कि बिलकुल नहीं लग रहा था। उसका दिमाग बेमतलब चीजों में भी उलझा, लेकिन देर तक किसी भी चीज में नहीं। जब वह युसूपोव बाग के पास से हो कर गुजरा तो बड़े-बड़े फव्वारे बनाने के बारे में गहरे चिंतन में डूबा हुआ था और हर चौक के वातावरण पर उनके सुखद प्रभाव पर विचार कर रहा था। धीरे-धीरे उसे विश्वास होता गया कि इस ग्रीष्म-उद्यान को बढ़ा कर अगर मार्स मैदान तक फैला दिया जाए, और शायद मिखाइलोव्स्की शाही बाग से जोड़ दिया जाए, तो बहुत ही शानदार बात होगी और उससे पूरे शहर में बहुत फायदा होगा। फिर उसे इस सवाल में दिलचस्पी पैदा हुई : क्या वजह है कि सभी बड़े शहरों में लोग सीधे-सीधे आवश्यकता से प्रेरित नहीं होते, बल्कि अजीब बात है कि उनमें शहर के उन हिस्सों में रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है, जहाँ न बाग होते हैं न फव्वारे; जहाँ सबसे ज्यादा गर्द, बदबू और हर तरह की गंदगी होती है। फिर उसे किसी जमाने में भूसामंडी से हो कर खुद अपने गुजरने की याद आई, और एक क्षण के लिए सारी वास्तविकता उसके सामने आ गई, जैसे वह अचानक जाग पड़ा हो। 'क्या बकवास है!' उसने सोचा। 'इससे तो बेहतर है किसी बारे में सोचो ही नहीं!'

'इसी तरह शायद जब लोगों को फाँसी के तख्ते की ओर ले जाते हैं तो अपने दिमाग में वे रास्ते में आनेवाली हर चीज को मजबूती से पकड़ लेने की कोशिश करते हैं,' उसके दिमाग में यह विचार कौंधा, लेकिन केवल कौंधा, बिजली की तरह। उसने जल्दी से इस विचार को अपने दिमाग से निकाल दिया... अब वह बिलकुल पास पहुँच गया था। यह रहा घर; यह रहा फाटक। अचानक कहीं घड़ियाल ने एक घंटा बजाया। 'क्या साढ़े सात बज गए नामुमकिन घड़ी तेज होगी!'

किस्मत ने एक बार फिर उसका साथ दिया। फाटक पर कोई अड़चन नहीं हुई। गोया खास उसी की सुविधा के लिए, ठीक उसी पल भूसे से लदी एक बड़ी-सी गाड़ी फाटक के अंदर आई, जिसने उसे फाटक के दर से गुजरते समय पूरी तरह अपनी आड़ में ले लिया। फिर गाड़ी अभी अहाते में पहुँची भी नहीं कि पलक झपकते वह दाहिनी ओर को हो लिया। गाड़ी की दूसरी ओर उसे चिल्लाने और झगड़ने को आवाजें सुनाई दे रही थीं; लेकिन किसी ने न तो उसे देखा और न ही कोई उसको मिला। बड़े से चौकोर दालान के सामनेवाली बहुत-सी खिड़कियाँ उस समय खुली हुई थीं, लेकिन उसने सिर उठा कर देखा तक नहीं। उसमें इतनी ताकत भी नहीं थी। बुढ़िया के कमरे को जानेवाली सीढ़ियाँ पास ही थीं, फाटक के पल्ले से ठीक दाहिनी ओर। वह सीढ़ियों पर पहुँच चुका था...

एक लंबी साँस खींच कर, धड़कते हुए दिल पर हाथ रख कर, कुल्हाड़ी को एक बार फिर टटोल कर देखने और उसे सीधी कर लेने के बाद, धीरे-धीरे और बड़ी सावधानी से, लगातार कान लगा कर सुनते हुए, उसने सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू किया। लेकिन सीढ़ियों पर भी पूरा-पूरा सन्नाटा था। सारे दरवाजे बंद थे। उसे कोई भी नहीं मिला। पहली मंजिल पर अलबत्ता एक फ्लैट का दरवाजा पूरा खुला हुआ था और पुताई मजदूर वहाँ काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह शांत खड़ा रहा, एक पल कुछ सोचा और आगे बढ़ गया। 'अच्छा तो यही होता कि ये लोग यहाँ न होते, लेकिन... वह जगह तो इन लोगों से दो मंजिल ऊपर है।'

और यह रही चौथी मंजिल, यह रहा दरवाजा, यह रहा सामनेवाला फ्लैट, खालीवाला। बुढ़िया के ठीक नीचेवाला फ्लैट भी देखने में खाली ही लगता था; दरवाजे पर कील से ठुँका हुआ विजिटिंग-कार्ड नोच दिया गया था - वे लोग चले गए थे! ...उसका दम फूल रहा था। 'वापस न चला जाऊँ?' एक पल के लिए यह विचार उसके दिमाग में तैर कर निकल गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया और बुढ़िया के दरवाजे पर कान लगा कर सुनने लगा - मुकम्मल खामोशी थी। इसके बाद उसने एक बार फिर सीढ़ियों की ओर कान लगा कर सुना और बड़ी देर तक ध्यान लगा कर सुनता रहा... फिर उसने आखिरी बार चारों ओर नजर डाली, अपने आपको सँभाला, सीधा तन कर खड़ा हो गया, और फिर एक बार फंदे में अटकी हुई कुल्हाड़ी को हिला-डुला कर देखा। 'मेरे चेहरे का रंग उड़ा तो नहीं' वह सोचने लगा। 'कहीं मैं देखने में बौखलाया हुआ तो नहीं लग रहा हूँ वह बहुत शक्की है... थोड़ी देर और इंतजार न कर लूँ... जब तक मेरा दिल धौंकनी की तरह चलना बंद न कर दे...' लेकिन उसका दिल उसी तरह धड़कता रहा। नहीं, गोया कि उसे चिढ़ाने के लिए, उसकी धड़कन और भी तेज हो गई... वह अब और अधिक सहन नहीं कर सकता था। उसने धीरे से घंटी की ओर हाथ बढ़ाया और उसे बजाया। आधे मिनट बाद उसने फिर घंटी बजाई। इस बार और भी जोर से।

कोई जवाब नहीं। घंटी बजाते रहना बेकार भी था और इसका कोई तुक भी नहीं था। बुढ़िया घर पर तो थी, लेकिन वह शक्की थी और अकेली थी। रस्कोलनिकोव को उसकी आदतों का कुछ-कुछ ज्ञान था। ...उसने एक बार फिर दरवाजे से अपना कान लगाया। या तो उसकी इंद्रियाँ विशेष रूप से सजग थीं (जिस बात को मानना जरा कठिन है) या आवाज सचमुच बहुत साफ थी। बहरहाल, अचानक उसने किसी के बड़ी सावधानी से ताले को छूने की और उसी दरवाजे के पास फ्राक की सरसराहट की आवाज सुनी। कोई चोरी से ताले के पास खड़ा हुआ था और ठीक उसी तरह जैसे वह बाहर खड़ा हुआ कर रहा था, कोई अंदर से छिप कर सुन रहा था। लगता था कि वह भी अपना कान दरवाजे से लगाए हुए है...

वह जान-बूझ कर थोड़ा-सा खिसका और ऊँची आवाज में कुछ बुदबुदाया ताकि यह न मालूम हो कि वह छिपा खड़ा है। फिर उसने तीसरी बार घंटी बजाई, पर धीरे-से गंभीरता से और जरा भी बेसब्री दिखाए बिना। बाद में याद करने पर, वह पल उसके दिमाग में जीता-जागता, एकदम साफ, हमेशा के लिए अंकित हो गया था। उसकी समझ में नहीं आता था कि उसमें इतना काइयाँपन कहाँ से आ गया था, क्योंकि एक तरह से ऐसे पल बीच-बीच में आते थे, जब उसका दिमाग बिलकुल धुँधला हो जाता था और अपने शरीर से वह एकदम बेखबर हो जाता था... एक पल बाद उसने कुंडी खोले जाने की आवाज सुनी।

अपराध और दंड : (अध्याय 1-भाग 7)

इस बार भी पहले की ही तरह दरवाजे में एक पतली-सी दरार खुली, और दो तेज, संदेह भरी आँखों ने उसे अँधेरे में घूरा। रस्कोलनिकोव अपना मानसिक संतुलन खो बैठा और एक बहुत बड़ी गलती करते-करते बचा।

इस डर से कि अकेले होने की वजह से बुढ़िया घबरा जाएगी, और इस उम्मीद के बिना कि उसे देख कर उसके सारे शक दूर हो जाएँगे, उसने दरवाजा पकड़ कर अपनी और खींचा, ताकि बुढ़िया उसे फिर से बंद करने की कोशिश न कर सके। यह देख कर बुढ़िया ने दरवाजा अपनी ओर तो नहीं खींचा लेकिन दरवाजे का हत्था भी नहीं छोड़ा। नतीजा यह हुआ कि वह उसे दरवाजे के साथ लगभग घसीटता हुआ सीढ़ियों तक चला गया। यह देख कर कि वह दरवाजे के बीच में खड़ी है और उसे अंदर आने नहीं देगी, वह सीधे उसकी ओर बढ़ा। वह सहम कर पीछे हट गई, उसने कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन लगा कि वह बोल नहीं पा रही थी, और उसे फटी-फटी आँखों से घूर रही थी।

'नमस्कार, अल्योना इवानोव्ना,' उसने सहज भाव से बोलने की कोशिश की। लेकिन उसकी आवाज साथ नहीं दे रही थी, और उखड़ी-उखड़ी, भर्रायी हुई निकल रही थी। 'मैं आया हूँ... मैं कुछ लाया हूँ... लेकिन अंदर आ जाएँ तो ठीक रहेगा... रोशनी में...' फिर उसे वहीं छोड़ कर वह बिन बुलाए, सीधा कमरे में घुस गया। बुढ़िया उसके पीछे लपकी; उसकी जबान चल निकली थी।

'हे भगवान! यह है क्या कौन हैं आप आप चाहिए आपको?'

'आह अल्योना इवानोव्ना, तुम मुझे पहचानती नहीं हो क्या? ...रस्कोलनिकोव ...यह देखो, मैं तुम्हारे पास यह चीज गिरवी रखने लाया हूँ, जिसका मैंने उस दिन वादा किया था...' यह कह कर उसने पैकेट उसके सामने कर दिया।

बुढ़िया ने पैकेट को एक नजर देखा, फिर फौरन ही अपने बिन-बुलाए मेहमान की आँखों में आँखें डाल कर उसे घूरने लगी। वह बड़े गौर से, कीना और शक भरी नजरों से उसे देख रही थी। एक पल इसी तरह बीत गया। उसे लगा बुढ़िया की आँखों में तिरस्कार का भाव भी था, जैसे उसने सब कुछ भाँप लिया है। रस्कोलनिकोव को लगा कि उसके होश गुम होते जा रहे हैं, कि वह डर-सा रहा है, इतना डर रहा था कि अगर वह आधे पल तक और इसी तरह देखती रही और कुछ भी न कहा तो शायद वह उसके पास से भाग जाएगा।

'मुझे तुम इस तरह क्यों देख रही हो जैसे मुझे जानती ही नहीं,' उसने भी अचानक चिढ़ के साथ कहा। 'जी चाहे तो रख लो, नहीं तो मैं कहीं और ले जाऊँ। मुझे जल्दी है।'

उसने यह बात कहने के बारे में सोचा भी नहीं था, लेकिन अचानक यह अपने आप ही उसके मुँह से निकल गई। बुढ़िया ने अपने आपको सँभाला, लगा कि मेहमान के सख्त लहजे की वजह से उसमें फिर आत्मविश्वास पैदा हो गया।

'लेकिन इतनी जल्दबाजी क्यों जनाब... क्या है यह?' उसने पैकेट की ओर देख कर पूछा।

'चाँदी का सिगरेट-केस। मैंने पिछली बार इसकी ही बात की थी, याद है न।'

बुढ़िया ने अपना हाथ बढ़ा दिया।

'लेकिन तुम इतने पीले क्यों पड़ रहे हो और तुम्हारे हाथ भी तो काँप रहे हैं! कहीं नहाने गए थे, क्या?'

'बुखार,' उसने झट से जवाब दिया। 'आदमी के पास खाने को कुछ न हो तो पीला तो पड़ ही जाएगा...' उसने बड़ी मुश्किल से अपने शब्दों को उच्चारण करते हुए इतना जोड़ दिया। उसकी ताकत एक बार फिर जवाब देने लगी थी, लेकिन उसके उत्तर में सच्चाई मालूम हो रही थी। बुढ़िया ने पैकेट ले लिया।

'क्या है यह?' रस्कोलनिकोव को ध्यान से देखते हुए और पैकेट को हाथ में तोलते हुए उसने एक बार फिर पूछा।

'है एक चीज... सिगरेट-केस... चाँदी का... देख तो लो।'

'मगर चाँदी का तो नहीं लगता... लपेट कैसे रखा है!'

डोरी खोलने की कोशिश करते हुए वह खिड़की की ओर, रोशनी की तरफ मुड़ी। (दमघोंटू गर्मी के बावजूद सारी खिड़कियाँ बंद थीं) रस्कोलनिकोव को कुछ पलों के लिए उसने एकदम अकेला छोड़ दिया और उसकी तरफ पीठ करके खड़ी हो गई। रस्कोलनिकोव ने कोट का बटन खोल और कुल्हाड़ी को फंदे में से छुड़ा लिया। लेकिन उसने उसे पूरी तरह बाहर नहीं निकाला, बस उसे कोट के नीचे अपने दाहिने हाथ में पकड़े रहा। उसके हाथ बेहद कमजोर थे; ऐसा लग रहा था हर पल वे और भी कमजोर और बेजान, लकड़ी जैसे होते जा रहे हैं। उसे डर लग रहा था कि कुल्हाड़ी कहीं फिसल कर गिर न पड़े... अचानक उसका सर चकराने-सा लगा।

'इतना कस कर क्यों बाँध रखा है?' बुढ़िया झुँझला कर चिल्लाई और उसकी ओर बढ़ी।

अब उसके पास एक पल का भी समय खोने के लिए नहीं था। उसने कुल्हाड़ी पूरी तरह बाहर निकाल ली, दोनों हाथों में फिराया, उसे खुद भी एहसास नहीं था कि वह कर क्या रहा है, और लगभग बिना किसी कोशिश के एकदम मशीन की तरह, कुल्हाड़ी का कुंद सिरा बुढ़िया के सर पर दे मारा। कहीं से ऐसा नहीं लग रहा था कि इस काम में वह अपनी खुद की ताकत इस्तेमाल कर रहा है। पर एक बार कुल्हाड़ी चलाते ही उसकी सारी ताकत लौट आई।

बुढ़िया हमेशा की तरह नंगे सर थी। उसके पतले, छितरे बाल, जिनमें कहीं-कहीं सफेदी की धारियाँ थीं और जिनमें उसने ढेर-सा तेल चुपड़ रखा था, चूहे की दुम जैसी एक चोटी में गुँथे हुए थे और उन्हें सींग की एक टूटी कंघी से अटका दिया गया था जो उसकी गुद्दी पर ऊपर को उभरी हुई थी। चूँकि वह छोटे कद की थी इसलिए कुल्हाड़ी का वार सीधा उसकी खोपड़ी पर पड़ा। वह चीखी, लेकिन बहुत कमजोर आवाज में, और अपने हाथ सर की ओर उठाती हुई वहीं फर्श पर ढेर हो गई। अपने एक हाथ में वह अब भी वही 'गिरवी की चीज' पकड़े हुए थी। रस्कोलनिकोव ने कुल्हाड़ी के कुंद सिरे से एक और वार उसी जगह किया; फिर एक और। खून इस तरह बह निकला जैसे कोई गिलास उलट गया हो। शरीर पीछे की ओर लुढ़क गया। रस्कोलनिकोव पीछे हटा, उसके शरीर को नीचे गिरने दिया और फौरन उसके चेहरे की ओर झुका। वह मर चुकी थी। लग रहा था उसकी आँखें अभी अपने कोटरों में से बाहर निकल आएँगी। उसके माथे और पूरे चेहरे की खाल तन गई थी और वह इस तरह विकृत हो गया था जैसे उसे कोई दौरा पड़ा हो।

उसने कुल्हाड़ी लाश के पास डाल दी और इस बात की कोशिश करते हुए कि बहते हुए खून से बचा रहे, वह फौरन बुढ़िया की जेब टटोलने लगा। वही दाहिने हाथवाली जेब जिसमें से पिछली बार उसके यहाँ आने पर बुढ़िया ने चाभी निकाली थी। उसके हवास सही-सलामत थे। वह न बौखलाया हुआ था न उसे चक्कर आ रहा था, हालाँकि हाथ अब भी काँप रहे थे। बाद में उसने अकसर याद किया कि उस समय वह खास तौर पर सुलझा हुआ और सावधान था और सारे वक्त यही कोशिश करता रहा था कि उसे खून का एक धब्बा भी न लगने पाए... उसने चाभियाँ फौरन बाहर निकाल लीं; पहले की ही तरह वे सब लोहे के एक छल्ले में पिरोई हुई थीं। उन्हें ले कर वह फौरन भागता हुआ सोने के कमरे में पहुँचा। यह बहुत छोटा-सा कमरा था जिसमें मूर्तियों की एक पूरी वेदी बनी हुई थी। दूसरी दीवार के किनारे एक बड़ा-सा पलँग था। साफ-सुथरा और उस पर एक रेशमी लेवा जैसी रजाई बिछी हुई थी। तीसरी दीवार के साथ दराजोंवाली बड़ी अलमारी थी। अजीब बात थी कि जैसे ही उसने अलमारी में चाभियाँ लगाना शुरू किया, उसे एक झनकार सुनाई पड़ी और उसके पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। अचानक फिर एक बार जी चाहा कि सब कुछ छोड़ कर चला जाए। लेकिन यह भावना केवल पल भर रही। वापसी के लिए अब बहुत देर हो चुकी थी। वह अपने आप पर मुस्कराया भी पर एकाएक एक भयानक विचार उसके दिमाग में आया। वह अचानक कल्पना करने लगा कि कौन जाने बुढ़िया अभी जिंदा हो और फिर होश में आ जाए। चाभियाँ अलमारी में लगी छोड़ कर वह लाश के पास भाग कर पहुँचा, झपट कर कुल्हाड़ी उठाई और एक बार फिर उसे बुढ़िया के ऊपर ताना, लेकिन उसे चलाया नहीं। इसमें कोई शक नहीं था कि वह मर चुकी थी। नीचे झुक कर उसे गौर से एक बार फिर देखने पर साफ नजर आता था कि उसकी खोपड़ी फट गई थी और एक तरफ अंदर भी धँस गई थी। वह उसे अपनी उँगली से छू कर देखनेवाला था, लेकिन अपना हाथ पीछे खींच लिया। बिना छूए भी यह बात साफ नजर आ रही थी। इसी बीच वहाँ खून का एक अच्छा खासा ढेर बन गया था। एकाएक उसे बुढ़िया के गले में एक डोरी पड़ी दिखाई दी। उसने उसे खींचा, लेकिन डोरी मजबूत थी और टूटी नहीं। इसके अलावा वह खून में भी तर-बतर थी। उसने उसे उसकी पोशाक के अंदर से खींच कर निकालने की कोशिश की लेकिन वह किसी चीज में अटकी हुई थी और बाहर नहीं निकली। उसने बेसब्री में डोरी को ऊपर से, उसके शरीर पर ही काट देने के लिए फिर कुल्हाड़ी उठाई लेकिन उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। बड़ी मुश्किल से, कुछ देर जूझने के बाद और अपना हाथ और कुल्हाड़ी खून में सान लेने के बाद, उसने लाश को कुल्हाड़ी से छूए बिना डोरी को काट दिया और उसे बाहर खींच लिया। उसका अनुमान गलत नहीं था। वह बटुआ ही था। डोरी में दो सलीबें बँधी - एक साइप्रस की लकड़ी की प्रतिमा थी और दूसरी ताँबे की, चाँदी के तार के कामवाली एक छोटी-सी प्रतिमा थी। साथ में चमड़े का एक छोटा-सा; चीकटदार मखमली बटुआ था जिस पर लोहे का छल्ला लगा हुआ था। बटुआ ठसाठस भरा हुआ था। रस्कोलनिकोव ने देखे बिना ही उसे अपनी जेब में ठूँस लिया। दोनों सलीबें उसने बुढ़िया के सीने पर फेंक दीं और भाग कर सोने के कमरे में वापस चला गया। इस बार कुल्हाड़ी भी अपने साथ लेता गया।

वह बेहद जल्दी में था। उसने चाभियाँ झपट कर उठाईं और उन्हें फिर लगा कर देखने लगा। लेकिन काम कुछ बना नहीं। उनमें से कोई भी चाभी तालों में लग ही नहीं रही थी। वजह यह नहीं थी कि उसके हाथ काँप रहे थे, बल्कि इससे भी बड़ी वजह यह थी कि वह हर बार कोई-न-कोई गलती कर देता था। मिसाल के लिए, जब वह देख भी लेता था कि कोई चाभी ठीक नहीं है और लगेगी नहीं, तब भी उसे फिर लगाने की कोशिश करता था। अचानक उसे खयाल आया कि गुच्छे में छोटी चाभियों के साथ गहरे खाँचोंवाली जो बड़ी चाभी लगी हुई थी, वह दराजोंवाली अलमारी की नहीं हो सकती (जब वह यहाँ पिछली बार आया था, तभी उसे यह बात खटकी थी), बल्कि वह किसी तिजोरी की होगी, और शायद सब कुछ उसी तिजोरी में छिपा कर रखा गया होगा। उसने दराजोंवाली अलमारी को छोड़ दिया और फौरन पलँग के नीचे टटोलने लगा, क्योंकि उसे पता था कि बूढ़ी औरतें अपनी तिजोरियाँ आम तौर पर पलँग के नीचे रखती हैं। यह बात थी भी। पलँग के नीचे एक बड़ा-सा संदूक था। कम-से-कम गज भर लंबा रहा होगा, उसके मेहराबी ढक्कन पर लाल चमड़ा मढ़ा हुआ था और उसमें लोहे की कीलें जड़ी थीं। वह खाँचेदार चाभी फौरन चादर के नीचे खरगोश की खाल का एक कोट था जिसमें लाल जरी की गोट लगी हुई थी। उसके नीचे एक रेशमी पोशाक थी, फिर एक शाल। लग रहा था नीचे भी कपड़ों के अलावा कुछ नहीं है। उसने सबसे पहला काम यह किया कि लाल जरी से अपने हाथों पर लगे खून के धब्बे पोंछ डाले। 'इसका रंग लाल है,' यह विचार उसके दिमाग में आया, फिर अचानक उसे होश आया। लानत है, मेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है' उसने भयभीत हो कर सोचा।

उसने कपड़ों को हाथ लगाया ही था कि फर के कोट के नीचे से सोने की एक घड़ी गिरी। उसने जल्दी-जल्दी सारे कपड़े खँगाल डाले। कपड़ों के बीच सचमुच सोने की बनी बहुत-सी चीजें रखी थीं। शायद ये सब गिरवी रखी हुई चीजें थीं जिन्हें या तो छुड़ाया नहीं गया था या जिन्हें अभी छुड़ाने का वक्त नहीं आया था - कंगन, जंजीरें, कान की बालियाँ, पिनें और ऐसी ही बहुत-सी दूसरी चीजें। कुछ डिब्बों में रखी थीं तो कुछ अखबारी कागज को बड़ी सावधानी से तह करके उसमें लपेट दी गई थीं और ऊपर से फीता बाँध दिया गया था। जरा भी देर किए बिना वह पैकेटों और डब्बों को खोल कर देखे बिना ही अपने पतलून और ओवरकोट की जेबों में भरने लगा। पर उसके पास बहुत ज्यादा चीजें ले जाने का चारा भी तो नहीं था।

अचानक उसे उस कमरे में, जहाँ बुढ़िया पड़ी हुई थी, किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। वह चौंका और सन्नाटे में आ गया, जैसे साँप सूँघ गया हो। लेकिन हर तरफ खामोशी थी। शायद उसे वहम हुआ हो। इतने में उसे किसी की हलकी-सी चीख साफ सुनाई दी, जैसे किसी न धीमी-सी उखड़ी हुई सिसकी ली हो। फिर एक-दो मिनट तक पूरा-पूरा सन्नाटा रहा। वह संदूक के पास उकड़ूँ बैठा, दम साधे इंतजार करता रहा। यकबयक वह उछल कर खड़ा हो गया, कुल्हाड़ी उठा ली, और सोने के कमरे के बाहर निकला।

बाहरवाले कमरे के बीच में लिजावेता एक पोटली लिए हुए खड़ी थी और हक्का-बक्का अपनी बहन की लाश को घूरे जा रही थी। चेहरा बिलकुल सफेद पड़ गया था और लग रहा था कि उसमें चीखने की ताकत भी नहीं रही। उसे भाग कर सोने के कमरे से बाहर आता देख कर वह पत्ते की तरह थर-थर काँपने लगी, चेहरे पर सिहरन दौड़ गई। हाथ उठा कर उसने मुँह तो जरूर खोला लेकिन चीख नहीं निकली। वह धीरे-धीरे उससे दूर, कोने की ओर खिसकने लगी। वह उसे एकटक घूरे जा रही थी, फिर भी उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली, गोया चीखने के लिए उसके सीने में दम ही न रहा हो। रस्कोलनिकोव कुल्हाड़ी ले कर उसकी ओर झपटा। लिजावेता के होठ दयनीय ढंग से फड़कने लगे, जैसे बच्चों के तब फड़कते हैं जब उन्हें डर लगता है। तब वे भी उस चीज को, जिससे उन्हें डर लगता है, एकटक घूरते रहते हैं, और चीखने के करीब पहुँच जाते हैं। फिर यह बेचारी लिजावेता तो इतनी सीधी थी, इतनी बुरी तरह दबी-सहमी रहती थी कि उसने अपना चेहरा बचाने के लिए हाथ तक नहीं उठाया, हालाँकि उस क्षण उसके लिए यही सबसे आवश्यक और स्वाभाविक होता, क्योंकि कुल्हाड़ी ठीक उसके चेहरे के ऊपर तनी हुई थी। उसने बस अपना खालीवाला हाथ ऊपर उठाया, लेकिन चेहरे तक नहीं, और धीरे-धीरे उसे इस तरह सामने की ओर बढ़ाया जैसे उसे दूर हटने का इशारा कर रही हो। कुल्हाड़ी की तेज धार ठीक उसकी खोपड़ी पर पड़ी और एक ही बार में पूरी खोपड़ी खुल गई। वह फौरन वहीं, कटे पेड़ की तरह ढेर हो गई। रस्कोलनिकोव के होश उड़ गए। उसने झपट कर उसकी पोटली उठाई लेकिन फौरन ही उसे फेंक दिया और ड्योढ़ी की तरफ भागा।

धीरे-धीरे खौफ उसे अपने शिकंजे में और भी मजबूती से जकड़ता गया, खास तौर पर इस दूसरे कत्ल के बाद, जिसका उसने गुमान तक नहीं किया था। वह जल्दी से जल्दी उस जगह से भाग जाना चाहता था। उस पल अगर उसमें चीजों को सही-सही देखने और उनके बारे में विवेक से सोचने की क्षमता होती, अगर वह अपनी स्थिति की सारी कठिनाइयों को, उसकी बेबसी को, उसकी भयानकता को, उसके बेतुकेपन को महसूस कर सकता और साथ ही यह समझ सकता कि उस जगह से निकलने के लिए और घर तक पहुँचने के लिए उसे अभी कितनी और अड़चनें पार करनी होंगी या कितने और अपराध करने होंगे, तो बहुत मुमकिन है कि उसने सब कुछ को फौरन अलविदा कह दिया होता और सीधे जा कर अपने आपको पुलिस के हवाले कर देता, डर के मारे नहीं बल्कि जो कुछ उसने किया था, उससे सीधी-सादी बेजारी और नफरत की वजह से। नफरत की यह भावना उसके अंदर खास तौर पर उभरी और हर पल गहरी होती रही। अब वह किसी भी कीमत पर उस बक्से के पास या कमरों में ही जाने को तैयार न था।

लेकिन धीरे-धीरे एक तरह का खालीपन आने लगा, बल्कि ऊँघ भी उस पर छाने लगी। कुछ पल ऐसे आते थे, जब वह अपने को भूल जाता था। या यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह यह भूल जाता था कि महत्वपूर्ण कौन-सी बात है और छोटी-छोटी महत्वहीन बातों को पकड़ कर बैठ जाता था। लेकिन रसोई में नजर डालने पर जब उसे एक बेंच पर पानी से आधी भरी बाल्टी नजर आई तो उसने सोचा कि अपने हाथ और कुल्हाड़ी धो डाले। उसके हाथ खून से चिपचिपे हो रहे थे। उसने कुल्हाड़ी का फाल पानी में डाल दिया, खिड़की पर एक टूटी हुई तश्तरी में रखा साबुन का टुकड़ा झपट कर उठाया और बाल्टी में ही अपने हाथ धोने लगा। हाथ धो कर उसने कुल्हाड़ी बाल्टी में से निकाली, उसका फाल धोया और काफी समय, कोई तीन मिनट, लगाया उसकी लकड़ी की बेंट को साबुन से मल-मल कर धोने में, जिस पर खून के कुछ धब्बे थे। फिर उसने रसोई में सूखने के लिए फैलाए गए एक कपड़े से हर चीज को अच्छी तरह पोंछा और देर तक खिड़की के पास खड़ा, कुल्हाड़ी को उलट-पुलट कर अच्छी तरह देखता रहा। उस पर कोई धब्बा बाकी नहीं था; बस लकड़ी थोड़ी गीली थी। बड़ी सावधानी से कुल्हाड़ी उसने अपने कोट के नीचे फंदे में लटका ली। फिर उसने अपने ओवरकोट, पतलून और जूतों को रसोई की मद्धिम रोशनी में जहाँ तक हो सका, अच्छी तरह देखा। पहली नजर में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा, बस जूते पर कुछ धब्बे थे। उसने कपड़ा भिगो कर जूते को अच्छी तरह रगड़ा। लेकिन उसे एहसास था कि वह अच्छी तरह नहीं देख रहा है, कि शायद कोई ऐसी चीज हो जो आसानी से देखी जा सकती हो और जिसकी ओर उसका ध्यान न गया हो। विचारों में डूबा हुआ वह कमरे के बीच में खड़ा रहा। उसके दिमाग में एक मनहूस, तकलीफदेह विचार उठ रहा था - यह कि वह पागल है और उस पल अपनी विवेक-बुद्धि खो चुका है, कि वह अपने आपको बचा नहीं सकता, कि इस वक्त वह जो कुछ कर रहा है, उससे शायद एकदम अलग किस्म का कोई कदम उठाना चाहिए। 'हे भगवान!' वह बुदबुदाया, 'भाग जाना चाहिए मुझे, भाग जाना चाहिए,' और यह सोचते ही वह भाग कर ड्योढ़ी में पहुँच गया। लेकिन वहाँ पहुँच कर उसे ऐसा भयानक सदमा पहुँचा, जैसे इससे पहले उसने कभी नहीं झेला था।

वह खड़ा घूरता रहा और उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं आया। दरवाजा, सीढ़ियों से आने पर बाहरवाला दरवाजा, जहाँ अभी कुछ देर पहले उसने घंटी बजाई थी और जिससे हो कर भीतर आया था, उसकी कुंडी नहीं लगी थी। वह दरवाजा काफी कुछ खुला हुआ था। पूरे वक्त उसमें न ताला लगा था, न कुंडी लगी थी! उसके अंदर आने के बाद उसे बंद नहीं किया होगा! लेकिन, लानत है मुझ पर! उसने लिजावेता को उसके बाद ही तो देखा था! तब वह क्यों नहीं समझ सका, क्यों नहीं सोच सका कि वह अंदर कैसे आई होगी दीवार फाड़ कर तो नहीं आई होगी!

वह झपट कर दरवाजे के पास गया और उसने कुंडी चढ़ा दी।

'लेकिन नहीं, फिर वही गलती! मुझे भाग जाना चाहिए, निकल जाना चाहिए यहाँ से...'

उसने कुंडी सरकाई, दरवाजा खोला और सीढ़ियों की ओर कान लगा कर सुनने लगा।

बड़ी देर तक वह सुनता रहा। कहीं दूर, शायद फाटक के पास से चिल्लाने, लड़ने और डाँटने-फटकारने की दो ऊँची और तीखी आवाजें आ रही थीं। 'ये आवाजें कैसी हैं?' वह धीरज के साथ इंतजार करता रहा। आखिरकार चारों ओर खामोशी छा गई, जैसे किसी ने अचानक आवाजों को काट दिया हो। लड़नेवाले अलग हो गए होंगे। वह अभी बाहर जाने की सोच ही रहा था कि नीचेवाली मंजिल पर जोर से दरवाजा खुलने की आवाज आई। कोई आदमी गुनगुनाता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। 'आखिर ये सब लोग इतना शोर क्यों मचाते हैं,' दिमाग में यह बात बिजली की तरह कौंधी। एक बार फिर वह दरवाजा बंद करके इंतजार करने लगा। आखिरकार चारों ओर फिर खामोशी छा गई, पत्ता तक नहीं खड़क रहा था। उसने सीढ़ियों की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि फिर उसे किसी के कदमों की आहट सुनाई दी।

यह आहट कुछ दूर से आती मालूम होती थी, सीढ़ियों के एकदम नीचे से, लेकिन यह बात उसे अच्छी तरह और साफ तौर पर याद रही कि पहली आहट सुनते ही न जाने क्यों उसे यह शक हुआ था कि यह कोई ऐसा आदमी था जो वहीं आ रहा था। चौथी मंजिल पर। उसी बुढ़िया के यहाँ। क्यों क्या इन कदमों की आवाज में कोई खास बात थी कोई अहम बात कदम भारी और सधे हुए थे, और उनमें कोई जल्दबाजी नहीं थी। अब वह पहली मंजिल पार कर चुका था, और ऊपर चढ़ रहा था, क्योंकि कदमों की आहट अब ज्यादा साफ होती जा रही थी! उसे उसकी गहरी साँसों की आवाज सुनाई दे रही थी। अब तीसरी मंजिल आ चुकी थी... यहीं आ रहा है! फिर अचानक उसे लगा कि वह पथरा गया है, कि यह एक ऐसा सपना था, जिसमें किसी का पीछा किया जा रहा है, कि वह लगभग पकड़ा जा चुका है और मार डाला जाएगा, कि वह उसी जगह गड़ कर रह गया है और हाथ तक नहीं हिला सकता।

आखिर जब वह नामालूम आदमी चौथी मंजिल की ओर बढ़ने लगा तो रस्कोलनिकोव अचानक चौंक पड़ा। बड़ी फुर्ती के साथ वह वापस फ्लैट में सरक गया और अंदर पहुँच कर दरवाजा बंद कर लिया। फिर उसने हुक उठाया और धीरे-से, कोई आवाज किए बिना, उसे कुंडे में फँसा दिया। सहजबुद्धि काम आई। इतना कर चुकने के बाद वह दम साधे, दरवाजे के पास दुबक गया। नामालूम आनेवाला भी तब तक दरवाजे पर पहुँच चुका था। अब वे दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े थे। ठीक उसकी तरह जैसे कुछ ही देर पहले वह और बुढ़िया खड़े थे जब उनके बीच सिर्फ दरवाजा था और वह कान लगाए सुन रहा था।

आनेवाला कई बार हाँफा। 'कोई बड़े डीलडौल का मोटा आदमी होगा,' रस्कोलनिकोव ने कुल्हाड़ी अपने हाथ में कस कर पकड़ते हुए सोचा। सचमुच यह एक सपना मालूम होता था। आनेवाले ने जोर से घंटी बजाई।

घंटी की टनटनाहट सुनते ही रस्कोलनिकोव को लगा कि कमरे में कोई चीज हिल-डुल रही है। कुछ सेकंडों तक वह बहुत ध्यान से सुनता रहा। नामालूम आदमी ने फिर घंटी बजाई, कुछ देर इंतजार किया और अचानक बड़ी अधीरता से दरवाजे का हत्था जोर से खींचा। रस्कोलनिकोव दहशत से कुंडे में फँसे हुक को हिलता हुआ देखता रहा, और आतंकित हो कर हर पल यही सोचता रहा कि कुंडा अब उखड़ा कि तब उखड़ा। वह उसे इतनी जोरों से हिला रहा था कि यह बात एकदम संभव लग रही थी। उसका जी चाहा कि कुंडा पकड़ ले, लेकिन फिर तो उसे पता लग जाएगा। उसे फिर चक्कर आने लगा। 'मैं गिर पड़ूँगा!' यह विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा, लेकिन वह नामालूम आदमी बड़बड़ाने लगा और रस्कोलनिकोव फौरन सँभल गया।

'बात क्या है, सो रही है या किसी ने मार डाला? भ-भ-भाड़ में जाएँ!' वह मोटी आवाज से दहाड़ा। 'ऐ, अल्योना इवानोव्ना, चुड़ैल! अरे ओ लिजावेता इवानोव्ना, जान! दरवाजा तो खोलो! दोनों जाएँ जहन्नुम में! सो रही हैं क्या?'

एक बार फिर तैश में आ कर उसने पूरी ताकत से कोई दस बार घंटी बजाई। जरूर कोई रोबदार, गहरी जान-पहचानवाला आदमी होगा।

उसी क्षण सीढ़ियों पर कहीं पास से ही, किसी के जल्दी-जल्दी, फुर्तीले कदमों से चलने की आहट आई। कोई और आ रहा था। पहले रस्कोलनिकोव ने इन कदमों की आहट नहीं सुनी थी।

'क्या सचमुच घर पर कोई नहीं है?' नवागंतुक ने पहले आए हुए उस शख्स को खिली हुई, गूँजती आवाज से संबोधित करते हुए कहा, जो अभी तक घंटी बजाए चला जा रहा था। 'नमस्ते कोख!'

'आवाज से लगता है कि नौजवान होगा,' रस्कोलनिकोन ने सोचा।

'भगवान जाने! मैं तो दरवाजा खींच-खींच कर थक गया, ताला टूटने में बस थोड़ी ही कसर रह गई है,' कोख ने जवाब दिया। 'लेकिन तुम मुझे कैसे जानते हो?'

'अरे! 'गैंब्रिनुस' में अभी परसों ही तो लगातार तीन बार तुम्हें बिलियर्ड में हराया था।'

'अरे, हाँ!'

'सो ये लोग घर पर नहीं हैं क्या अजीब बात है, हालाँकि बेतुका मालूम होता है। बुढ़िया आखिर कहाँ गई होगी मैं तो काम से आया था।'

'हाँ, मुझे भी उससे काम है!'

'तो अब क्या किया जाए मैं समझता हूँ वापस चलना चाहिए! बेड़ा गर्क हो इसका। मैं तो यह उम्मीद ले कर आया था कि कुछ पैसा मिल जाएगा!' वह नौजवान ऊँचे स्वर में बोला।

'जाहिर है, अब तो मन मार कर वापस ही जाना होगा, लेकिन उसने यह वक्त तय ही क्यों किया था उस चुड़ैल ने खुद मुझसे इसी वक्त आने को कहा था। फिर यह जगह मेरे रास्ते में भी नहीं पड़ती। समझ में नहीं आता, कमबख्त कहाँ गई होगी। वैसे वह खूसट बुढ़िया तो साल के बारहों महीने यहीं जमी रहती है। उसकी टाँगें ठीक नहीं हैं और फिर भी न जाने क्या सूझी कि टहलने चल पड़ी!'

'चल कर दरबान से न पूछें?'

'क्या?'

'यही कि कहाँ गई है और कब लौट कर आएगी।'

'हुँह... जहन्नुम में जाए! ...मगर वह तो कभी कहीं जाती नहीं है।' और उसने एक बार फिर दरवाजे का हत्था पकड़ कर जोर से खींचा। 'लानत है! कुछ नहीं किया जा सकता, चलो चलें!'

'जरा ठहरो!' नौजवान अचानक चीखा। 'देख रहे हो न, तुम जब दरवाजे को खींचते हो तो यह किस तरह हिलता है।'

'तो?'

'इससे लगता है कि इसमें ताला नहीं बंद है! सुनो तो सही, हुक किस तरह खनकता है'

'तो?'

'अरे, नहीं समझे इससे पता चलता है कि दोनों में से एक तो जरूर घर पर है। दोनों बाहर होतीं तो बाहर दरवाजे में चाभीवाला ताला लगाया होता, अंदर से हुक लगा कर दरवाजा न बंद किया होता। सुनो, तो सही, हुक किस तरह खनक रहा है। अंदर से हुक लगाने का मतलब यह हुआ कि वे घर पर ही होंगी, समझे बस, अंदर बैठी हैं और दरवाजा नहीं खोलतीं!'

'हाँ! ऐसी ही बात होगी!' कोख ताज्जुब से चिल्लाया। 'लेकिन अंदर आखिर कर क्या रही हैं' यह कह कर उसने जोर से दरवाजा भड़भड़ाना शुरू किया।

'ठहरो!' नौजवान फिर चिल्लाया। 'दरवाजा मत खींचो! कोई न कोई गड़बड़ जरूर है... इतनी देर से तो तुम घंटी बजा रहे हो, दरवाजा भड़भड़ा रहे हो, और फिर भी नहीं खोलतीं! इसलिए या तो दोनों बेहोश हैं या फिर...'

'क्या?'

'मैं बताता हूँ। चलो, चल कर दरबान को ले आएँ। वही आ कर इन्हें जगाएगा।'

'अच्छी बात है!' दोनों फिर नीचे जाने लगे।

'ठहरो! तुम यहीं रुको, मैं भाग कर दरबान को बुलाए लाता हूँ।'

'मैं किसलिए यहाँ ठहरूँ?'

'यही अच्छा रहेगा।'

'शायद तुम्हारी बात ठीक हो।'

'मैं वकालत पढ़ रहा हूँ, जानते हो! यह बात एकदम साफ है, एक...दम सा...फ कि कोई न कोई गड़बड़ है!' नौजवान जोश में आ कर जोर से बोला और भाग कर सीढ़ियाँ उतरने लगा।

कोख वहीं रुक गया। उसने एक बार फिर धीरे-से घंटी को छुआ जो एक बार टुनटुनाई। फिर उसने बड़ी नर्मी से, मानो कुछ सोच रहा हो, और दरवाजे को देखते हुए हत्था पकड़ कर उसे खींचना और छोड़ना शुरू किया। वह एक बार फिर इस बात का पक्का यकीन कर लेना चाहता था कि उसे सिर्फ हुक लगा कर अटकाया गया है। फिर हाँफते हुए झुक कर वह चाभी के सूराख में से देखने लगा। लेकिन ताले में अंदर से चाभी लगी हुई थी, इसलिए कुछ नजर नहीं आ रहा था।

रस्कोलनिकोव कुल्हाड़ी को कस कर पकड़े हुए खड़ा रहा। उस पर एक तरह की मदहोशी छाई हुई थी। वह उन लोगों के अंदर आने पर उनसे लड़ने तक की तैयारी कर रहा था। जब वे दोनों दरवाजा खटखटा रहे और आपस में बातें कर रहे थे तो उसके दिमाग में अचानक कई बार यह खयाल आया कि वह दरवाजे से निकल कर उनसे चिल्ला कर सब कुछ कह डाले और इस पूर किस्से को खत्म कर दे। उनसे जब दरवाजा नहीं खुल रहा था, बीच-बीच में कई बार उसका जी चाहा कि उन्हें गाली दे और उनका मजाक उड़ाए। 'बस, किसी तरह जल्दी से यह किस्सा खत्म हो!' उसके दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा।

'अब यह कमबख्त...' कोख बुदबुदाया।

एक मिनट बीता, फिर दूसरा मिनट... कोई नहीं आया। कोख बेचैन होने लगा।

'भाड़ में जाए!' अचानक उसने जोर से कहा, बेचैन हो कर अपनी पहरा देने की जिम्मेदारी को सलाम किया और जल्दी-जल्दी भारी जूतों से, सीढ़ियों पर धप-धप की आवाज करता, नीचे उतर गया। उसके कदमों की आहट आनी बंद हो गई।

'हे भगवान! मैं अब क्या करूँ।'

रस्कोलनिकोव ने कुंडे में से हुक निकाला और दरवाजा खोला। कहीं कोई आवाज नहीं थी। एक झटके से, कुछ भी सोचे बिना, वह बाहर निकला और दरवाजा जितनी भी मजबूती से हो सका, बंद करके सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा।

वह अभी तीन ही सीढ़ियाँ उतरा था कि अचानक उसे नीचे भारी शोर सुनाई दिया। अब वह कहाँ जाए छिपने की कोई जगह नहीं थी। उसे उसी फ्लैट में अब फिर वापस जाना था।

'वो रहा! पकड़ो बदमाश को।'

नीचेवाले फ्लैट से निकल कर कोई चिल्लाता हुआ भागा। लग रहा था कि वह भाग कर सीढ़ियाँ नहीं उतर रहा बल्कि उन पर से लुढ़क रहा है। वह अपनी पूरी आवाज से चिल्ला रहा था :

'मित्या! मित्या! मित्या1! रुक जा शैतान कहीं का।'

चिल्लाने की आवाज एक चीख में बदल कर खत्म हो गई। आखिरी आवाजें नीचे आँगन में से आईं और चारों तरफ शांति छा गई। लेकिन उसी पल कई लोग ऊँची आवाज में और जल्दी-जल्दी बातें करते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। तीन-चार आदमी थे। उसने नौजवान की गूँजती हुई आवाज पहचानी। 'वही लोग हैं!'

बच निकलने का कोई रास्ता न पा कर वह जान हथेली पर रखे सीधे उनकी तरफ बढ़ता रहा। यह सोच कर कि अब जो कुछ होना हो, हो ले! अगर उन लोगों ने उसे रोका तो बचने की कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि उन्हें उसकी सूरत तो याद ही रहेगी। वे पास आते जा रहे थे। अभी उससे एक ही मंजिल नीचे रह गए थे कि अचानक बचने की राह निकल आई! कुछ ही कदमों की दूरी पर दाहिनी ओर एक खाली फ्लैट था जिसका दरवाजा पूरा खुला हुआ था। दूसरी मंजिल का वही फ्लैट जहाँ पुताई करनेवाले काम कर रहे थे और गोया उसी की निजात के लिए, अभी-अभी वहाँ से चले गए थे। तय था कि अभी-अभी वे ही लोग चिल्लाते हुए भाग कर नीचे गए थे। उस मंजिल की अभी-अभी पुताई हुई थी, कमरे के बीच में एक बाल्टी थी और एक टूटा बर्तन रखा था, जिसमें रंग और ब्रश थे। चुटकी बजाते वह खुले हुए दरवाजे से अंदर जा पहुँचा और दीवार के पीछे छिप गया। पल भर की देर भी होती तो वह मारा जाता; वे लोग उस मंजिल पर पहुँच

1. द्मित्री का संक्षेप।

चुके थे। इसके बाद वे लोग मुड़े और जोर-जोर से बातें करते हुए चौथी मंजिल तक चढ़ते चले गए। कुछ देर राह देखने के बाद वह पंजों के बल चल कर बाहर निकला और भाग कर सीढ़ियाँ उतरने लगा।

सीढ़ियों पर कोई भी नहीं था, न कोई फाटक पर था। जल्दी से वह फाटक से बाहर निकला और बाईं ओर सड़क पर मुड़ गया।

वह जानता था, अच्छी तरह जानता था कि उस पल वे लोग उसी फ्लैट में थे, उसे खुला पा कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हो रहा था क्योंकि अभी कुछ देर पहले तो दरवाजा अंदर से बंद था, कि अब वे लाशों को देख रहे थे, कि अभी मिनट भर में वे लोग अंदाजा लगा लेंगे और उन्हें पूरी तरह यह बात समझ में आ जाएगी कि हत्यारा अभी कुछ देर पहले वहाँ था, कि वह उन्हें चकमा दे कर भागा और कहीं जा कर छिप गया होगा। बहुत मुमकिन है, वे यह अटकल भी लगा लें कि जिस वक्त वे लोग ऊपर जा रहे थे, वह खाली फ्लैट में था। हालाँकि अगला मोड़ अब भी लगभग सौ गज दूर था, लेकिन उसे अपनी रफ्तार तेज करने का हौसला नहीं हो रहा था। 'क्यों न चुपके से किसी फाटक में घुस जाऊँ और वह हंगामा खत्म होने तक किसी सीढ़ी पर कुछ देर इंतजार करूँ। नहीं, ऐसा करना मुसीबत को बुलाना होगा। कुल्हाड़ी कहीं फेंक दूँ या एक द्राशकी (घोड़ागाड़ी) ले लूँ क्या करूँ!'

आखिर वह गली तक पहुँच गया। जब वह उधर मुड़ा तो जिंदा से ज्यादा मुर्दा था। वह सुरक्षा के सफर का आधा रास्ता तय कर चुका था और यह बात जानता था। यहाँ जोखिम कम था क्योंकि यहाँ बहुत से लोगों की रेलपेल थी, और उसमें वह समुद्र तट पर बालू के कण की तरह खो गया था। लेकिन उस पर जो कुछ बीत गई थी, उससे वह इतना कमजोर हो चुका था कि चला नहीं जा रहा था। पसीना बुरी तरह बह रहा था, गर्दन बिलकुल भीग गई थी। जब वह नहर के किनारे आ पहुँचा तो किसी ने ऊँची आवाज में कहा, 'जी भरके चढ़ा ली है, क्यों?'

अपने बारे में अब उसे बहुत धुँधली-सी चेतना ही रह गई थी। जितना ही वह आगे बढ़ता जा रहा था, उसकी हालत उतनी ही बुरी होती जा रही थी। लेकिन इतना उसे याद था कि जब वह नहर के किनारे पहुँचा तो वहाँ बहुत थोड़े से लोगों को देख कर डर गया था क्योंकि उनके बीच वह ज्यादा आसानी से पहचाना जा सकता था, और इसीलिए उसने गली में वापस लौट जाने की बात सोची थी। हालाँकि वह थकान के मारे निढाल हो रहा था लेकिन उसने काफी लंबा चक्कर लगाया और बिलकुल दूसरी तरफ से घर पहुँचा।

उसे इस बात की भी पूरी-पूरी चेतना नहीं थी कि कब वह अपने घर के फाटक से हो कर गुजरा, जब उसे कुल्हाड़ी का खयाल आया, वह सीढ़ियों पर पहुँच चुका था। लेकिन उसके सामने गंभीर समस्या यह थी कि कैसे उसे इस तरह वापस रखे कि जहाँ तक हो सके, कोई देख न पाए कि वह क्या कर रहा है। जाहिर है उसमें यह सोचने की तो क्षमता भी नहीं बची थी कि कुल्हाड़ी वापस न रख कर बाद में उसे किसी अहाते में फेंक आना कहीं ज्यादा बेहतर होगा।

लेकिन जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। दरबान की कोठरी का दरवाजा बंद था पर उसमें ताला नहीं लगा हुआ था। यही लगता था कि दरबान घर पर ही था। लेकिन रस्कोलनिकोव सोचने की शक्ति इस कदर खो चुका था कि सीधे दरवाजे तक पहुँचा और उसे खोल दिया। अगर दरबान पूछता कि 'क्या चाहिए' तो शायद वह उसे कुल्हाड़ी ही थमा देता। लेकिन इस बार भी दरबान घर पर नहीं था। उसने न सिर्फ कुल्हाड़ी बेंच के नीचे रख दी बल्कि पहले की तरह उस पर एक चैला भी रख दिया। बाद में अपने कमरे की ओर जाते हुए उसे कोई भी नहीं मिला, चिड़िया तक नहीं। मकान-मालकिन का दरवाजा भी बंद था। कमरे में पहुँच कर वह उसी तरह सोफे पर ढेर हो गया। सोया नहीं बल्कि खाली-जेहनी के गड्ढे में डूब गया। अगर तब कोई उसके कमरे में आता तो रस्कोलनिकोव उछल पड़ता और चीखने लगता। दिमाग में विचारों की धज्जियाँ झुंड बाँधे इधर-से-उधर मँडरा रही थीं, लेकिन वह लाख कोशिश करके भी किसी एक को पकड़ नहीं पा रहा था, किसी एक पर भी टिक नहीं पा रहा था...

  • अपराध और दंड (अध्याय 2) : फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की
  • फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की रूसी कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
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