बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य : अपनी पंक्ति का अकेला लेखक – मस्तराम कपूर

Birendra Kumar Bhattacharya : Apni Pankti Ka Akela Lekhak - Mastram Kapoor

भारत छोड़ो’ आंदोलन को अपनी अमर साहित्यिक कृति मृत्युंजय में सजीव करनेवाले बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य आजादी के स्वर्ण जयंती वर्ष में ‘भारत छोड़ो’ दिवस की पूर्व संध्या पर दुनिया छोड़कर चुपचाप चले गये। आजादी की पचासवीं वर्षगांठ के तमाशों के आयोजन में लगी दिल्ली के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को उन्होंने अपनी अस्वस्थता की भनक भी नहीं लगने दी। साहित्य अकादेमी पुरस्कार और फिर सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित डॉ. बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य के निधन के समाचार राष्ट्रीय हिंदी समाचारपत्रों में भी आधे कालम का ही स्थान पा सके यह इस बात का प्रमाण है कि इस देश में साहित्य और साहित्यकार के लिए अब कोई जगह नहीं है। जगह सिर्फ उन लोगों के लिए है जो बाजार की माँग के अनुसार साहित्य का उत्पादन कर रंक से राजा बनने की चमत्कारी उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं। एक फिल्मी कलाकार, फिल्म निर्माता अथवा फिल्मी गायक के लिए इस व्यवस्था में स्थान है, फूहड़ गानों के कैसेट्स की फैक्टरी खड़ी कर फुटपाथ से राजमहल की यात्रा करनेवाले के लिए स्थान है, धोखाधड़ी और लूट से अकूत संपत्ति जमा करनेवालों के लिए यहाँ स्थान है लेकिन उस साहित्य-कर्मी के लिए नहीं, जो जिंदगी की विरूपताओं से लड़ते-लड़ते, मानव के लिए एक खूबसूरत सपना बुनने के प्रयास में, चुपचाप अपने जीवन की आहुति दे देता है। पैसे को सर्वोच्च मूल्य माननेवाली संस्कृति में निरंतर अभाव-ग्रस्त रहनेवाले लेखक का क्या महत्त्व?

लेकिन इसमें न आश्चर्य करने की कोई बात है न खेद करने की। यह आज ही नहीं हो रहा, यह हमेशा होता आया है। हर समाज ने अपने समय के श्रेष्ठ लेखकों और कलाकारों की उपेक्षा की है। मरने के बाद जरूर वह उन पर कुछ श्रद्धा-सुमन बिखेर देता है, पितरों को दिये जानेवाले पिंडदान के कर्मकाण्ड की तरह, किंतु उसके जीते जी तो उसे समाज की उपेक्षा ही मिलती है। यह विशेषकर उन लेखकों-कलाकारों के साथ होता है जो समाज को झकझोरने और उसे नींद से जगाने का काम करते हैं। निद्रा-सुख में बाधा डालनेवाला कभी प्रिय नहीं होता, वह झुँझलाहट और गुस्सा पैदा करता है। इसलिए सच्चे लेखक को समाज जैसे-तैसे बर्दाश्त करता है और उसके मरने पर उसे राहत मिलती है। तब वह पाखंड ओढ़कर उसके प्रति भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य समाज की इस सच्चाई से भलीभाँति परिचित थे। एक बार साहित्य अकादेमी की एक संगोष्ठी में पढ़े गये निबंध में उन्होंने यह बात कही। संभवतः सोल्जिनित्सिन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा : “बड़ा लेखक एक समानांतर व्यवस्था होता है, इसलिए कोई भी व्यवस्था, कोई भी राज-सत्ता उसे बर्दाश्त नहीं करती। वह सिर्फ दूसरे-तीसरे दर्जें के लेखकों का ही सम्मान करती है।”

भट्टाचार्य पहले दर्जे के लेखक थे, बावजूद सलमान रुश्दी के इस फतवे के कि भारतीय भाषाओं में तो पिछले पचास साल में कोई बड़ा लेखक नहीं हुआ। भट्टाचार्य इसलिए बड़े लेखक थे क्योंकि वे अपने समकालीन समाज के बीच रहते हुए उससे विद्रोह करने का जोखिम उठा सकते थे। एक ख्वाबी दुनिया में जीते हुए डॉन क्विग्जोट की तरह काल्पनिक राक्षसों पर तलवार का जौहर दिखाने के बजाय वे सीधे व्यवस्था के खिलाफ युद्ध में शरीक हो सकते थे। वे इतिहास-पुराण की रोमानी वादियों में प्रगतिशीलता के पौधे रोपनेवाले या अपने समाज के दुखदर्द से बेखबर होकर दूर के किसी पवित्र देश के लिए लहूलुहान होने की घोषणाएँ करनेवाले लेखक भी नहीं थे। वे जिस व्यवस्था में जी रहे थे उसी के खिलाफ युद्धरत लेखक थे। कालिदास के संबंध में प्रसिद्ध कथा के अनुसार वे जिस डाल पर बैठे थे उसी को काटने का काम कर रहे थे। यह काम सच्चा कलाकार ही कर सकता है जो गिरने और मरने से नहीं डरता। ऐसा लेखक मृत्युंजय होता है। मौत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

उन्होंने रौ मे बहने के बजाय रौ के विरुद्ध चलने का रास्ता चुना। ऐसे समय में जब प्रगतिशील होने के लिए अपनी कमीज पर मार्क्सवाद का बिल्ला चिपकाना जरूरी समझा जाता था, भट्टाचार्य ने अपने को समाजवादी घोषित किया। हिंदी में लोहिया से प्रेरित लेखकों ने भी अपने को समाजवादी कहने का साहस नहीं दिखाया। केवल विजयदेव नारायण साही आदि कुछ लेखक ही इसका अपवाद हैं। जहाँ तक मेरा ज्ञान है, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में साहित्यिक प्रवृत्तियों का अध्ययन पश्चिम की साहित्यिक प्रवृत्तियों की चौखट में ही किया गया है विशेषकर स्वातंत्र्योत्तर साहित्य का। प्रगतिवाद, जनवाद, अस्तित्ववाद, प्रयोगवाद या कलावाद, उत्तर आधुनिकतावाद, विखंडनवाद आदि, यहाँ तक कि दलित-साहित्य की मूल प्रेरणा भी अश्वेत कविता रही है। इन सब धाराओं से अलग रहना और अपने को समाजवादी कहना एक दुस्साहस ही है। यह दुस्साहस वही कर सकता है जिसके लिए समाजवाद महज फैशन की चीज नहीं, जीवन-दर्शन हो। भट्टाचार्य जी के लिए समाजवाद जीवन जीने की कला भी थी और जीवन –दृष्टि भी। इस जीवन-दृष्टि की झलक उनकी रचनाओं में सर्वत्र पायी जाती है।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस के लेखकों ने हिटलर की नाजी सेनाओं के खिलाफ भूमिगत रहकर आंदोलन चलाते हुए जो साहित्य-सृजन किया वह अस्तित्ववादी लेखन कहलाया। यह अपनी आजादी के लिए, अपने अस्तित्व के लिए युद्धरत (एनगेज) होकर किया गया लेखन था। इस लेखन के संबंध में सार्त्र ने अपनी पुस्तक व्हाट इज लिटरेचर में लिखा : “हम तीसरी पीढ़ी के लेखकों की स्थिति, जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के आस-पास लिखना शुरू किया, चार्ल्स बावरी जैसी थी जिसे पत्नी की मृत्यु के बाद उसके प्रेम-पत्रों को पढ़कर ऐसा लगा कि उसका बीस साल का सुखी वैवाहिक जीवन अचानक गायब होता जा रहा है।” यह स्वप्न से जागने और वास्तविकता से साक्षात्कार करने की स्थिति थी। इस स्थिति में कैसा साहित्य लिखा जा सकता है उसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने आगे लिखा : “हमने महसूस किया कि पाठ्यपुस्तकों के रूप में बच्चों को पढ़ाये जाने के लिए या शाश्वतता अथवा अमरता का पद पाने के लिए जो साहित्य अब तक लिखा जा रहा था वह उनके काम का नहीं था। स्थितियों से तटस्थ या बेलाग रहकर लिखा गया साहित्य मनोविलास ही हो सकता है।” उन्होंने निश्चय किया कि स्थितियों में रहते हुए, इतिहास की प्रक्रिया में संलग्न रहते हुए तथा अपनी आजादी की रक्षा का संघर्ष करते हुए साहित्य लिखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा हम सौंदर्य को रूप और पदार्थ से परिभाषित नहीं कर सकते, हमें उसे मनुष्य के भविष्य के संदर्भ में परिभाषित करना होगा।

प्रतिरोध आंदोलन में इन लेखकों ने आततायी सत्ता के खिलाफ हर तरह से विद्रोह किया। उन्होंने रेलगाड़ियों को ध्वस्त किया, पुल तोड़े, कानून की अवज्ञा की, झूठ भी बोला अर्थात् आजादी के लिए हर काम को जायज माना, घोर यातनाएँ मिलने पर भी अपने निश्चय से नहीं डिगे और अपनी आजादी का सौदा नहीं किया। इस प्रकार उन्होंने देखा कि स्वतंत्रता के दो रूप हैं- निषेध और निर्माण। …उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें उपभोग का साहित्य नहीं लिखना है जिसमें होने या जीने का मतलब है प्राप्त करना बल्कि उन्हें ऐसा साहित्य लिखना है जिसमें जीने का मतलब है कर्म करना।

फ्रांस का प्रतिरोध आंदोलन गांधी के सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा का ही अगला चरण था जिसे ‘करो या मरो’ का संघर्ष कहा जाता है। गांधी से प्रभावित रोमां रोलां जैसे लेखक इसके प्रेरणा-स्रोत बने। ठीक इन्हीं दिनों भारत मे भी यह प्रतिरोध आंदोलन ‘करो या मरो’ की भावना से चल रहा था। ब्रिटिश साम्राज्य के डेढ़ सौ साल के आधिपत्य के खिलाफ चला यह आंदोलन लगभग अढ़ाई साल चला जिसमें लगभग 80000 लोग जेलों में ठूंसे गए, 940 पुलिस और सेना की गोलियों से मरे, दो हजार के करीब जख्मी हुए और 50 के लगभग लोगों को फांसी दी गयी। 1857 के विद्रोह के बाद यह आजादी के लिए किया गया दूसरा बड़ा विद्रोह था और यह फ्रांस के प्रतिरोध आंदोलन से किसी भी रूप में कम नहीं था। लेकिन इस आंदोलन पर सिर्फ एक साहित्यिक कृति आयी और यह है बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य का मृत्युंजय । इस आंदोलन पर न कोई मार्क्सवादी कलम उठा सकता है और न तथाकथित भारतीय संस्कृतिवादी क्योंकि ये दोनों विचार- धाराएँ इस आंदोलन के विरोध में खड़ी थीं। प्रयोगवादी या कलावादी तो इसे लेखनी का विषय ही नहीं मानेंगे।

मृत्युंजय में असम के एक छोटे-से क्षेत्र में चले भूमिगत आंदोलन की कहानी है। गांधीजी के ‘करो या मरो’ के संदेश और डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि समाजवादी नेताओं के निर्देश- न हत्या न चोट- से चले इस आंदोलन को चलानेवाली थी नौजवान पीढ़ी जो स्कूल-कालेज छोड़कर युद्ध में कूद पड़ी थी। धानपुर लस्कर और उसके साथियों की टोली (जिसमें भिंभीराम, माणिक वोरा, दधी बारदोलाई, जयराम मेधी, अहिना कुँवर आदि नवयुवक थे) दायपारा के गोसाई के नेतृत्व में सैनिक गाड़ी को उलटने की योजना को कार्यान्वित करते हैं। इस काम में उन्हें दो-चार राइफलें इधर-उधर से इकट्ठा कर पुलिस और सेना से भी लड़ना पड़ता है और टोली के नेता धानपुर तथा गोसाईं को खोना पड़ता है।

आंदोलन में महिलाओं की भी सक्रिय भागीदारी थी। उनकी नेता थी बूढ़ी कोली बैड्यू। एक मिकिर लड़की डिमी ने अपने साहसिक कामों से अविस्मरणीय भूमिका निभायी और गोसाईं की पत्नी तथा उसकी बहन अनुपमा ने भी। कपिली और कालंग नदियों के बीच मयंग के क्षेत्र में चले आजादी के इस संघर्ष में भोगेश्वरी फुकनानी, लक्खी हजारिका, कनकलता आदि की शहादत ने भी प्रेरणा दी। सशस्त्र क्रांति के विचार से प्रेरित रूपनारायण जो वकील सैकिया की पुत्री आरती के प्रेम का त्याग करता है और डिमी और धानपुर के असफल प्रेम की कहानियाँ इस संघर्ष-कथा को प्रेम, त्याग, बलिदान की मानवीय भावनाओं से रस-सिक्त करती हैं। यह एक महान संघर्ष की महान कथा है जिसपर लेखक को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था।

भट्टाचार्य का एक और उपन्यास प्रजा का राज हिंदी में अनूदित है। इस उपन्यास पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था। यह नगालैंड के कुछ गाँवों की कहानी है जहाँ एक ओर कबीलाई द्वेष से प्रेरित खूनी संघर्ष होते हैं, दूसरी ओर ईसाई तथा गैरईसाई संघर्ष है। बूढ़ी पीढ़ियाँ बैर और प्रतिशोध की नशई हो चुकी हैं, नौजवान पीढ़ियाँ गुवाहाटी, कलकत्ता आदि बड़े शहरों में पढ़-लिखकर अपने पारंपरिक जीवन में परिवर्तन लाने के लिए उत्सुक हैं। इस जटिल तानेबाने में रिश्वांग, खांटिंग और फानिट्फांग नाम के तीन युवक अपने लिए भिन्न-भिन्न मार्ग चुनते हैं। रिश्वांग कलकत्ता में शिक्षा प्राप्त करने के बाद गाँव की समस्याओं में उलझ जाता है और जीवन नामक अध्यापक की प्रेरणा से विभिन्न कबीलों के बीच सद्भाव स्थापित करने के लिए काम करता है। विद्रोही नगाओं के एक ग्रुप का विरोध उसे सहना करना पड़ता है किंतु वह लोगों को समझाने और लोकतंत्र के रास्ते पर उन्हें लाने में काफी हद तक सफल होता है। भिंडेश्वेली विद्रोह नगा ग्रुप का नेता है जो सुभाषचंद्र बोस की सशस्त्र क्रांति का समर्थक है।

इस उपन्यास में दो पात्र ऐसे हैं जो अपनी गहरी अमिट छाप पाठकों पर छोड़ते हैं। एक है शारेंला नाम की लड़की जो जापानी आधिपत्य के दिनों में जापानी सैनिकों के बलात्कार का शिकार हुई थी और बाद में गाँववालों की तरफ से तिरस्कृत-अपमानित होने पर भी अपने उच्च मानवीय गुणों के कारण सारे उपन्यास में छायी रहती है। दूसरा है जीवन मास्टर जो गुवाहाटी का निवासी होने पर नगा लड़की से विवाह करने के बाद पूरी तरह नगा बन जाता है और अपने सगे-संबंधियों को भूल जाता है। गाँवों मे शांति स्थापित करने के प्रयास में वह अपना जीवन भी बलिदान कर देता है। स्वतंत्रता और सुविधा अथवा तथाकथित विकास का द्वंद्व इस उपन्यास की विशेषता है।

डॉ.(बीरेन्द्र कुमार) भट्टाचार्य ने कहानी, उपन्यास, यात्रावृत्त, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में पचास से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनका अधिकांश लेखन असमिया में हुआ। हिंदी में उनका बहुत थोड़ा साहित्य उपलब्ध है। लेकिन उससे यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि वह किस कोटि के लेखक थे। उन्होंने अछूते विषयों को उठाया और पूरे रागात्मक बोध के साथ उनमें प्रवेश कर उन्हें सजीव बनाया। उनकी रचनाओं में असम के ग्राम्यांचलों का जनजीवन मूर्त हो उठता है। नगालैंड की पहाड़ियाँ और जंगल-नदियाँ, धान के खेत और उन खेतों में काम करते स्त्री-पुरुष अपनी खुशियों और व्यथाओं के साथ पाठक की स्मृतियों में बस जाते हैं। किसी लेखक की कसौटी होती है टाइम और स्पेस (देश-काल) को बाँधने की क्षमता। प्रवहमान क्षणों को पकड़ना और उन्हें कील देना ही कला है। इस काम के लिए कलाकार को जिस स्पेस या कैनवस की जरूरत होती है उसके रेशे-रेशे से परिचित होना उसके लिए जरूरी होता है।

उससे भी महत्त्वपूर्ण काम होता है जनजीवन के भीतर प्रवेश करना, स्त्रियों, पुरुषों, बच्चों, बूढ़ों के मन में झाँक कर देखना कि उनके मन में क्या द्वंद्व चल रहे हैं। उनकी आकांक्षाएँ, उनके सपने और सपनों में बाधा बननेवाले उनके पूर्वाग्रह, अंधविश्वास, भय और आशंकाएँ जिनपर काबू पाने के लिए उनके भीतर काल का महासमर चल रहा होता है। प्रजा का राज उपन्यास में नगालैंड के जीवन की हमें ऐसी ही समग्र झाँकी मिलती है। नगालैंड के विद्रोही और आशंकाओं से घिरे जीवन में मानवता की सुंदरतम भावनाओं के स्रोत भी बहते हैं ऐसे कि उनके स्पर्श मात्र से जीवन के सारे कलुष धुल जाते हैं, यह बोध शारेंला, खुंटिला, गांठिंगखू की पत्नी, इयेंमांशु की पत्नी आदि कुछ स्त्री-पात्रों के माध्यम से होता है। वास्तव में भट्टाचार्य जी के उपन्यासों का एक विशेष पहलू उनके स्त्री-पात्रों की योजना है। उनके स्त्री-पात्र डॉ. राममनोहर लोहिया के ‘नर-नारी समता’ के विचार से अनुप्राणित हैं। वे सिर्फ घर में बैठकर रोने-धोने वाली, भाग्य पर बिसूरनेवाली, पुरुष की छाया बनकर रहनेवाली या उनकी सेक्स-भूख का उपकरणमात्र नहीं हैं।

ये कर्मठ महिलाएँ हैं जो संघर्ष का नेतृत्व करती हैं, पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कर्म-क्षेत्र में उतरती हैं। इस मायने में वे मार्क्सवादी उपन्यासों के स्त्री-पात्रों से भिन्न हैं जहाँ स्त्रियों की उपयोगिता कामरेड नायक की प्रेमिका या अधिक से अधिक पीए की ही होती है। कोली बैड्यू जैसी बूढ़ी औरत और डिमी जैसी कमसिन लड़की मृत्युंजय में संघर्ष को दिशा देती हैं। शारेंला, डिमी आदि स्त्रियाँ सिर्फ सेक्स की पुतलियाँ नहीं हैं, वे कर्म-वीर और उदात्त मानवीय गुणों की स्रोतस्विनियाँ भी हैं। वे अपने पसंद के पुरुष से प्यार करती हैं, उस प्यार के लिए तड़पती भी हैं लेकिन अगर वह नहीं मिलता है तो उसी को लेकर जीवन बर्बाद नहीं करती हैं। प्यार में घुल-घुल कर मरना या आत्महत्या करना या गुलाम बनकर जीना, इन स्त्री–पात्रों की खसलत नहीं है।

एक और बात जो उन्हें अलग पंक्ति और अलग श्रेणी का लेखक बनाती है, यह है कि वे अपने आसपास घटनेवाली घटनाओं, बनती-बिगड़ती स्थितियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील थे। वे उन लेखकों में नहीं थे जो घर में लगी आग का तमाशा देखते हुए अपनी बीन पर दिव्य-संगीत बजाने को कवि-कर्म मानते हैं या आसपास की गंदगी से अपने को बचाते हुए (व्यवस्था को कोसकर) पिटे-पिटाये मुहावरों में क्रांति का आह्वान कर संतुष्ट हो जाते हैं या धर्म की अफीम पाठकों को चटाकर समाज की सारी गंदगी को पचा जाने का प्रबोधन पाठकों को करते हैं। वे व्यवस्था के टकराव से बचते हुए दोनों हाथों से माल उड़ाने वाले ‘विशुद्ध’ लेखक भी नहीं थे।

आपातकाल के दिनों में हमारे बड़े-बड़े साहित्यकार गूँगे हो गये थे। कुछ ने तो आपातकाल की प्रशंसा में भी लिखा। कुछ व्यवस्था के टकराव से बचते हुए कला और प्रयोग की आड़ में छिप गये। आपातकाल खत्म होने के बाद कइयों ने अपनी आपातकाल विरोधी रचनाएँ तकिये के नीचे से निकालीं और प्रदर्शित कीं। 1980 में इंदिरा गांधी के दोबारा सत्ता में आने के बाद कुछ लेखकों ने अपनी उन रचनाओं को वापस ले लिया और फिर तकिये के नीचे छिपा लिया। बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य की मानसिक गढ़न इन सबसे अलग थी। वे जिस तत्परता के साथ ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन, आजाद हिंद फौज के साहसिक प्रयास, नगालैंड के विद्रोह और उत्तर-पूर्वी राज्यों की व्याकुलता पर कलम उठा सकते थे उसी तत्परता के साथ आपातकाल जैसे राष्ट्रीय संकट, राजनीति के चतुर्दिक ह्रास, सांप्रदायिकता की समस्या आदि विषयों पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते थे। उन्होंने आपातकाल की विभीषिका पर एक सुंदर पुस्तक लिखी है। वर्तमान राजनैतिक कीचड़ से बाहर निकलने के प्रयास में उन्होंने गांधी और लोहिया के विचारों के आधार पर नयी व्यवस्था का स्वप्न भी बुना है। यह पुस्तक अपने अंतिम दिनों में लिखकर उन्होंने पूरी की जो अब छपने वाली है।

देश का सर्वोच्च सम्मान प्राप्त बड़ा लेखक होने के साथ-साथ बीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य बहुत सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं सका था। साहित्य अकादेमी जैसी सर्वोच्च साहित्यिक संस्था का अध्यक्ष होते हुए भी वे युवा लेखकों की बैठकों में शामिल होने में अत्यंत प्रसन्नता अनुभव करते थे। जब वे साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष थे तो इन पंक्तियों के लेखक ने उनके सामने, साधारण बातचीत के दौरान, प्रस्ताव रखा कि साहित्य अकादेमी द्वारा बाल-साहित्य को मान्यता दी जानी चाहिए और हर साल कम से कम एक पुरस्कार, भारतीय भाषाओं के बाल-साहित्य लेखक को दिया जाना चाहिए लेकिन इसकी राशि दूसरे पुरस्कारों के समान हो। बाल साहित्य को साहित्य अकादेमी साहित्य ही न माने यह बहुत गलत बात है। उन्होंने मुझे लिखित प्रस्ताव देने को कहा और उसे संस्कृति मंत्रालय में भेजने का वायदा किया। उस प्रस्ताव पर तो कुछ नहीं हुआ किंतु साहित्य अकादेमी ने बाल साहित्य की अंतरभारतीय पुस्तकमाला प्रकाशित करना मान लिया।

दिल्ली आने पर वे अकसर असम भवन में ठहरते थे। एक बार उन्हें इसलिए असम भवन में कमरा नहीं दिया गया क्योंकि वहाँ राज्यपाल महोदय आनेवाले थे। वे परेशान थे कि कहाँ जाएँ। तभी डॉ. हरिदेव शर्मा को पता चला और वे उन्हें अपने घर ले आए। डॉ. शर्मा का परिवार शाकाहारी था और भट्टाचार्य को भोजन में मछली आदि प्रिय थी। डॉ. शर्मा का संकोच देखकर बोले, ‘कुरुक्षेत्र में रहकर मैं भी शाकाहारी हो गया हूँ।’

बड़े लेखक के साथ-साथ वे बड़े इंसान भी थे। उनका अचानक उठकर चले जाना राष्ट्र की क्षति है।

(साभार : समता मार्ग)