अनशन (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा

Anshan (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma

पांडेय मस्तराम का कहना है कि मित्रों के आग्रह से उस दिन, सुबह भंग पीने के आदी न होते हुए भी, उन्होंने भंग बनाई और मित्रों का कहना है कि सुबह उठते ही पांडेयजी परीक्षा समाप्त हो जाने की प्रसन्नता में हम लोगों को भंग पीने के लिए आमन्त्रित करके सिल- लोढ़े पर जुट पड़े। पांडेयजी का कहना है कि उनके मित्रों ने काफी भाँग पी और उनके लिए सिर्फ दो लोटे भाँग बची थी और मित्रों का कहना है कि पांडेयजी ने पहले दो लोटे भाँग जमा ली, फिर इसके बाद बची हुई लोटे-भर भाँग को चुल्लुओं की नाप से हम लोगों में प्रसाद रूप में वितरित किया। पांडेयजी की बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं दिखलाई देता; पर उनके मित्रों की बात पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता। इतना तय है कि पांडेय मस्तराम ने उस दिन सुबह नौ बजे भाँग पी पूरे दो लोटे और इसके बाद एक सप्ताह तक उन्होंने उस भाँग का आनन्द उठाया ।

पता नहीं किस प्रकार अपने पुत्र के जन्मकाल के समय ही पांडेयजी के पिता को अपने पुत्र के गुण मालूम हो गए थे क्योंकि ज्योतिषी वे थे नहीं और फिजियोनॉमी साइंस का अध्ययन करने का उन्हें कभी मौका न मिला था; पर उन्होंने अपने पुत्र का नाम सोलह आने उसके गुणानुसार रखा था, पांडेय मस्तराम को जाननेवाले यह दावे के साथ कह सकते हैं। लम्बे-चौड़े गोल-मटोल और गोरे - चिट्टे जवान थे, हँसते थे तो बोर्डिंग की छत हिल उठी थी । दीन-दुनिया की उन्हें फिक्र न थी। पढ़ने-लिखने में उनका मन न लगता था। खाना, सोना और जब इनसे फुर्सत मिले तब गप लड़ाना - बस यही उनका काम था ।

हाँ, तो उस दिन पांडेय मस्तराम ने सुबह नौ बजे भाँग पी, दस बजे स्नान किया और ग्यारह बजे भोजन पर बैठे। एक दिन पहले परीक्षा समाप्त हुई थी; पर उस दिन पर्चा खराब हो जाने के कारण परीक्षा समाप्त होनेवाली निश्चिन्तता का आनन्द वह न ले सके थे। खाना खाकर ग्यारह बजे सुबह सोए थे और उठे थे शाम को छह बजे, इसके बाद खाना खाकर फिर सो गए और दूसरे दिन सुबह चार बजे उनकी आँख खुली। उस समय तक उनका दुःख दूर हो गया था क्योंकि पहला काम जो उन्होंने किया था, वह था प्रभाती की अलाप भरना । दुःख के समय कोई गाना नहीं गा सकता, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। हिन्दुस्तानी थिएटरों की बात जाने दीजिए, वहाँ तो दूसरों को मरने के समय या स्वयं अपने मरने के समय लोग एक-से-एक मीठी तानों के साथ मीड़ों और मूर्च्छनाओं से युक्त शुद्ध राग-रागिनियों में तबला और हारमोनियम के ऊपर अलापें भरते हैं और कला का प्रदर्शन करते हैं।

उस दिन न तो एकादशी थी और न कोई पर्व, पर पांडेयजी का कहना है कि उन्होंने व्रत रखा था। पांडेयजी की बात मानते हुए इसी निर्णय पर पहुँचा जा सकता था कि उनका व्रत अपने बिगड़े हुए परचे के परीक्षक इष्टदेव को प्रसन्न करने के लिए था, जो पांडेयजी की कॉपी जाँचते समय परीक्षक के हृदय में करुणा और दया की भावनाओं का स्रोत प्रवाहित कर दे।

पांडेयजी के सामने मखाने की खीर से भरा ढाई सेरवाला कटोरा था ( कटोरा का वजन मय खीर के बतलाया जा रहा है) और चीनी पड़ी हुई आध सेर बालाई थी। ठीक ग्यारह बजे भोजन आरम्भ करके साढ़े ग्यारह बजे उन्होंने भोजन समाप्त किया और चौके से उठने के लिए पेट में पहुँचे हुए माल का उतना हिस्सा बचाने के लिए जो उनके हिलने-डुलने में बाधक हो रहा था, आध घंटे तक पैर फैलाए हुए चौके में बैठकर बारह बजे वे उठे ।

लोगों का कहना है कि गर्मियों में सुबह बनारस की, शाम लखनऊ की और रात बुन्देलखंड की मशहूर है, और मैं कहूँगा कि उनमें यदि दोपहर इलाहाबाद की भी जोड़ ली जाय, तो अनुचित न होगा। लू के झोंके और एक सौ बारह डिगरी का टेम्परेचर ! पर महीना था अप्रैल का, गर्मी की शुरुआत भर थी। पांडेयजी अपने कमरे में गए, बिस्तर पर लेटे और धीरे-धीरे उन्हें मालूम हुआ कि अनादिकाल से उनके कमरे में भट्ठी जलती चली आई है। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि उस कमरे में वे अभी तक जीवित किस प्रकार बचे रहे। उधर शरीर शिथिल पड़ रहा था, आँखें झपी जा रही थीं।

एकाएक पांडेयजी उछल पड़े। उन्होंने शीतलपाटी बगल में दबाई, कमरे के बाहर निकलकर दरवाजे पर ताला दिया, और अल्फ्रेड पार्क की राह पकड़ी। चारों तरफ सन्नाटा था, दोपहर जल रही थी- 'तले की मुलमुल ऊपर घाम' पांडेयजी ने मिसरा बनाया और एकाएक उनको परचा खराब होने की बात याद आ गई। दूसरा मिसरा उसी समय बना, 'हमें पास करवा दो राम !' पांडेयजी मुस्कुराए, उनमें कवित्व-प्रतिभा जाग उठी, फिर क्या था, मिसरे-पर-मिसरे बनने लगे :

मस्तराम है मेरा नाम । मौज उड़ाना अपना काम ।
मिले जिन्दगी-भर आराम। लगे न मुँह में कभी लगाम ।

और उनकी ठोड़ी पर एक मक्खी बैठी, उसे उड़ाने के लिए उन्होंने ठोड़ी पर हाथ मारा। मक्खी तो उड़ गई, हाथ पड़ा ठोड़ी पर और ऐसा मालूम हुआ कि खड़ी सुइयों के गुच्छे पर उन्होंने अपना हाथ पटक दिया। याद आया कि इम्तिहान की फिक्र में उन्होंने एक हफ्ते से दाढ़ी नहीं बनवाई, मिसरा लगा :

हमें चाहिए अब हज्जाम

जेब में हाथ डाला; उसी समय दूसरा मिसरा बना :

टेंट में अपनी नहीं छदाम !

इस समय तक पांडेयजी की आँखें बन्द थीं। एक गढ़े में पैर पड़ा और आँखें खुल गईं। देखा कि अल्फ्रेड पार्क में चले जा रहे हैं, उसी समय मिसरा बना :

अब करना होगा विश्राम !

पांडेयजी ने अपने चारों ओर दृष्टि डाली, निर्जन एकान्त और धूप के रूप में आसमान से बरसती हुई आग। उस पर हल्की लू भी चल रही थी। थोड़ी दूर पर नाला था, काफी गहरा । दिमाग न काम किया, नाले के नीचे कोई बाधा नहीं है, न कोई आदमी आवेगा और न कोई अड़चन पड़ेगी। फिर जमीन से करीब पन्द्रह फीट नीचे होने के कारण तहखाने का काम भी दे सकता है। पांडेयजी नाले में उतर पड़े। एक सघन वृक्ष के तले उन्होंने अपने बनाए हुए मिसरों को याद करने का प्रयत्न किया, पर भाँग के बोझ से लदे हुए दिमाग ने जब इससे इनकार कर दिया, तब महाकवि बनने की कल्पना करने लगे । दिमाग पर पेट ने विजय पाई, जो काफी भरा हुआ था। पांडेयजी ने दाहिनी करवट ली, चैन न मिली, बाईं करवट ली, चैन न मिली, चित्त लेटे, फिर भी चैन नदारद । पेट के बल औंधे लेटे-इस समय तक शायद चैन को उन पर रहम आ गया था और सो गए।

मिस्टर जे.पी. श्रीवास्तव, जैसा वे स्वयं अपने को कहते थे, बाबू झटपटप्रसाद, जैसा उनके वालिद व अन्य सम्बन्धी उनका नाम बतलाते थे, और झटपट मुंशी जैसा कि उनके हमजोलियों ने उनका नाम रख दिया था, काफी तेज व चलते पुरजे आदमी थे। दुबला-पतला मझोला कद, मुँह लम्बा सा और उस पर बुरी तरह चेचक के दाग, रंग साँवला और आँखें छोटी-छोटी तथा चमकीली, और लाल शुतुरमुर्ग की तरह। उनकी परीक्षा उसी दिन समाप्त हुई थी । हाल से निकलकर वे सीधे अपनी भावी ससुराल गए। उनके भावी ससुर ने परचे कैसे हुए इसका विवरण सुना, भावी सास ने विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाए, भावी साले ने शाम के समय के लिए सिनेमा में आमन्त्रित किया और भावी पत्नी ने हारमोनियम पर दो गाने सुनाए और भावी सलहज ने कुछ देर तक इनके चेहरे को गौर से देखने के बाद मुस्कुराते हुए कहा - "बाबू, तबीयत होती है, तुम्हारा मुँह चूम लूँ, तुम इतने सुन्दर दिख रहे हो !” झटपट मुंशी की सलहज सुन्दरी थी और उसके उद्गार सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इन सबमें एक बज गया, सिविल लाइंस में सवारी मिलना मुश्किल होता है, मुंशीजी पैदल ही बोर्डिंग को रवाना हो गए। कायस्थ पाठशाला बोर्डिंग जाना था, अल्फ्रेड पार्क से उन्होंने शार्टकट लिया। झटपट मुंशी की प्रसन्नता की सीमा न थी, लम्बे-लम्बे डग रखते हुए चले जा रहे थे । वे सोच रहे थे- “उफ ! रामू की बीवी (रामू उनके भावी साले का नाम था ) गजब की खूबसूरत है, सरला से कहीं अधिक ! ( सरला इनकी भावी पत्नी का नाम था) क्या रामू की बीवी मुझसे प्रेम करती है, हाँ, जरूर प्रेम करती है, तभी तो उसने मुझसे वह सब कहा। लेकिन नहीं, मुझे उससे प्रेम करने का कोई अधिकार नहीं - मैं सरला के प्रति अन्याय न करूँगा । आह रामू की बीवी ! मुझे क्षमा करना, मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करती हो; पर मैं तुमसे प्रेम नहीं कर सकता - हर्गिज नहीं कर सकता !"

अचानक यह सुखद विचारधारा टूट गई। जिस नाले के बगल से वे जा रहे थे, उसके नीचे झटपट मुंशी की नजर गई। वे चौंक उठे, उनका मुख सफेद हो गया और सारा शरीर काँपने लगा। इस एकान्त में अल्फ्रेड पार्क के नाले में इस आदमी मरा हुआ पड़ा था - चारों ओर निर्जन एकान्त ! कोई फकीर न था - अच्छे कपड़े पहने हुए कोई सुशिक्षित व्यक्ति । सम्भवतः कोई विद्यार्थी । अरे हाँ, उन्होंने कई बार सुना था कि फेल हो जाने पर कोई-कोई व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं । आजकल परीक्षाएँ हो रही हैं, इसने आत्महत्या की होगी; पर अभी परीक्षाफल निकला नहीं, आत्महत्या करने के ये दिन तो नहीं। बहुत सम्भव है किसी ने इसे मारकर डाल दिया हो । झटपट मुंशी ने यह सब एक साँस में सोच डाला।

यह तय था कि उसकी इत्तिला थाने में देनी चाहिए, कर्नलगंज थाना बोर्डिंग के रास्ते में पड़ता था, वे चल दिए। थाने पहुँचकर उन्होंने दारोगा गिरफ्तारअली के पास इत्तिला भिजवाई।

दारोगा गिरफ्तारअली खस की टट्टियों से सुवासित कमरे में लेटे हुए अपनी तोंद पर हाथ फेर रहे थे । सिपाही से खबर सुनते ही वे मरनेवाले को और मरनेवाले की इत्तिला देनेवाले को कोसते हुए बाहर निकले। आजाद की मृत्यु के बाद से दारोगा गिरफ्तार अली के दिमाग में क्रान्तिकारी बुरी तरह से घुस गए थे। मृत मनुष्य की हुलिया सुनते ही उन्होंने गम्भीरतापूर्वक सिर हिलाते हुए कहा - "जरूर कोई क्रान्तिकारी होगा !” थाने से बारह सिपाही छाँटे गए, झटपट मुंशी के साथ पुलिस फोर्स ने अल्फ्रेड पार्क की ओर मार्च किया।

नाले के पास पहुँचकर झटपट मुंशी ने इशारा करते हुए कहा - "देखिए, लाश वहाँ पड़ी है !"

दारोगाजी रुक गए और उनके रुकते ही सिपाही भी रुक गए। दारोगाजी झटपट मुंशी के साथ आगे बढ़े, ठीक उस जगह पहुँचकर, जिसके नीचे पांडेयजी विश्राम कर रहे थे, दारोगाजी रुके, गौर से उन्होंने नीचे देखा, फिर धीरे से कहा- “ जनाब ! जैसा मैंने कहा था, साफ जाहिर है कि कोई क्रान्तिकारी है।"

इस समय तक सब सिपाही दारोगाजी को घेरकर खड़े हो गए थे। एक ने मुस्कुराते हुए कहा- "हुजूर, मालूम होता है कि यह यहीं का कोई तालिब-इल्म है जिसने खुदकुशी कर ली है।"

दूसरे ने कहा - "शायद कोई बनिया है, बदमाशों ने रकम छीन ली है और मारकर यहाँ डाल गए हैं।"

इस पर तीसरे ने कहा- "लेकिन फिर इसके नीचे चटाई कैसे आई ?"

चौथे ने कहा- "मुमकिन है कि किसी इसके रिश्तेदार ने इसे घर पर ही मार डाला, फिर चटाई में लपेटकर यहाँ डाल गए।"

बातें हो रही थीं, पर नीचे कोई न उतरता था। करीब पन्द्रह मिनट तक काफी मशविरे के बाद सब लोग नाले के नीचे उतरे। फूँक-फूँककर कदम रखते हुए वे पास पहुँचे और खड़े हो गए, हाथ लगाने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ी। दारोगा झटपट मुंशी के साथ ऊपर ही खड़े थे, चिल्लाकर उन्होंने कहा - "अरे चुप खड़े हो, लाश सीधी तो करो ।” सब लोग एक-दूसरे को आगे बढ़ने को उत्तेजित करने लगे। दारोगाजी इस बार गरज उठे -“नमकहरामो, पुलिस की नौकरी करने चले हो और यहाँ नानी मर रही है ।"

दारोगाजी इस जोर से गरजे कि पांडेयजी की नींद खुल गई, उन्होंने करवट ली, आँखें खोलीं, देखा कि लाल पगड़ियाँ उनको घेरे खड़ी हैं, और फिर आँखें बन्द कर लीं।

दारोगाजी ने जब देखा कि नाले में पड़ा हुआ आदमी मरा नहीं है, तब और भी झल्लाए। उन्होंने झटपट मुंशी पर तीव्र दृष्टि डाली, मानो वे उन्हें खा जाएँगे और तेजी के साथ नीचे उतरे। इधर झटपट मुंशी ने मामला बिगड़ते हुए देखकर लम्बे-लम्बे डग रखते अपने घर की राह ली ।

दारोगाजी ने पांडेयजी का कन्धा पकड़कर हिलाया, पांडेयजी उठकर बैठ गए। दारोगाजी ने पूछा - "तुम यहाँ क्यों पड़े हो ?"

पांडेयजी ने जम्हाई लेते हुए कहा- "मेरी तबीयत... !”

इस जलती हुई दोपहर में खस की टट्टियों के बाहर निकलकर बारह सिपाहियों को मार्च करवाते हुए थाने से अल्फ्रेड पार्क आने से दारोगाजी का दिमाग गरम हो गया था। उन्हें झटपट मुंशी पर क्रोध आ रहा था, उन्होंने यह कहते हुए सिर उठाया - “क्यों जी...” लेकिन मुंशी गायब !

अब दारोगाजी आपे से बाहर हो गए, दाँत किटकिटाते हुए उन्होंने पूछा - "तुम्हारा नाम ?"

पांडेयजी अजब चक्कर में थे- इतने लाल पगड़ीवाले क्यों वहाँ खड़े थे। फिर कच्ची नींद जगाए जाने पर उन्हें बुरा भी लग रहा था। दारोगाजी की बात सुनकर पांडेयजी को भी क्रोध आ गया, उन्होंने कहा - "जनाब, आदमियत से बात कीजिए !”

दारोगाजी ने आँखें तरेरते हुए कहा - " आप नाम बतलाते हैं कि नहीं ?"

पांडेयजी का क्रोध बढ़ता जा रहा था - " नाम नहीं बतलाऊँगा, यहाँ से जाते हो या नहीं ?"

सिपाही एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे, दारोगाजी ने कहा- “अच्छा तुम सीधी तरह से नहीं मानोगे !"

पांडेयजी ने बैठे-ही-बैठे कहा- “ जनाब आप अब मार खाएँगे !"

दारोगाजी दो कदम पीछे हट गए - " समझ गया, जनाब आप हिरासत में ले लिये गए।”— और सिपाहियों को उन्होंने पांडेयजी को गिरफ्तार कर लेने का हुक्म दिया ।

पांडेयजी की तलाशी ली गई, इसके बाद वे कोतवाली भेज दिए गए। वहाँ भी पांडेयजी ने अपना नाम व पता बतलाने से इनकार किया, और वे कोतवाली से हवालात भेज दिए गए। दारोगाजी ने लिखा- “यह शख्स मुश्तबा हालत में अल्फ्रेड पार्क में पाया गया, मालूम होता है कि कोई रिवेल्यूशनरी है; क्योंकि अपना नाम व पता बतलाने से कत्तई इनकार करता है- फिलहाल इसका चालान आवारागर्दी में किया जाता है।"

पांडेयजी ने जेल का फाटक देखा, और उनका सारा नशा उतर गया। दारोगा के सवालों का जवाब न देनेवाली भूल उन्हें मालूम हो गई। सुपरिंटेंडेंट जेल के सामने जब वे पेश किए गए, तब तक उन्होंने अपना नाम व पता सब कुछ बतला दिया; लेकिन अब तो बहुत कुछ हो गया था - जेल में वे बन्द कर दिए गए।

नॉन-कोऑपरेशन मूवमेंट उन दिनों जोरों पर था - जेल में लोग ठसाठस भरे हुए थे 1 पांडेयजी ने बड़े-बड़े नेताओं के दर्शन किए, कुछ ढाँढ़स बँधा; लेकिन भोजनों की तकलीफ। रात किसी तरह से बीती- सुबह सुपरिंटेंडेंट साहब का राउंड हुआ। पांडेयजी रात-भर में जेल-जीवन से ऊब गए थे, सुबह नाश्ता कुछ मिला नहीं, बिगड़कर सुपरिंटेंडेंट साहब से बोले - " जनाब, न तो नाश्ता मिलता है और न मेरी समझ में आता है कि मैं यहाँ क्यों बन्द हूँ।” सुपरिंटेंडेंट साहब ने पांडेयजी को गौर से देखा, फिर मुस्कुराए - " जनाब यह तो जेल है, यहाँ नाश्ता कुछ नहीं मिलने का।" और आगे बढ़ गए ।

गुस्से के मारे पांडेयजी की बुरी हालत पर कर क्या सकते थे ? पास खड़े हुए कुछ पोलिटिकल कैदी मुस्कुरा रहे थे। इस गुस्से में पांडेयजी ने दिन में खाना नहीं खाया । सन्ध्या के समय पांडेयजी ने जेलर से कहलाया कि भाँग-बूटी का प्रबन्ध करवा दिया जाए। इस पर उन्हें कोई उत्तर न मिला।

जेल में एक सज्जन अनशन कर रहे थे, उनकी माँगें पूरी हो गई थीं और उस दिन सुबह उन्होंने अनशन तोड़ा था। रात के समय यह इत्तिला पांडेयजी को भी मिली, और अब पांडेयजी ने भी अनशन की ठानी।

रात के समय फिर पांडेयजी ने भोजन न किया, उन्होंने घोषित कर दिया कि जब तक उनकी माँगें पूरी न की जाएँगी, तब तक वे अनशन करेंगे। उनकी माँगें दरयाफ्त की गईं, उन्होंने कहा - "सुबह दूध - जलेबी का नाश्ता, दोपहर को भोजन के साथ आध पाव घी, सन्ध्या के समय भाँग और रात के समय पूड़ी तथा बालाई ।" यह मानी हुई बात थी कि पांडेयजी की माँगें स्वीकार नहीं की गईं।

रात भर नींद न आई-भूख के मारे आँतें कल्ला रही थीं। पर दो-तीन राजनीतिक कैदी भी उनके साथ थे। उन्होंने पांडेयजी का उत्साह बढ़ाया। एक ने कहा- देखो, कायरता न करना-अपना अधिकार क्यों छोड़ रहे हो। तुम पर अभी कोई मुदकमा नहीं चला, व्यर्थ ही लोग तुम्हें पकड़ लाए-जब तक तुम पर जुर्म न साबित हो जाय, तुम्हें कष्ट देने का गवर्नमेंट को कोई अधिकार नहीं है। दो-एक दिन का कष्ट है, सहन करो, कष्ट सहन करने के लिए तो मनुष्य का जन्म ही हुआ है।" आदि आदि ।

दूसरे दिन बुरे हाल थे- आँखों-तले अँधेरा छाया था; पर दूसरा दिन भी पांडेयजी ने काट दिया।

तीसरे दिन सुपरिंटेंडेंट जेल के सामने पांडेयजी का मामला पेश हुआ। उनकी माँगें बतलाई गई और यह भी बतलाया गया कि दो दिन से उन्होंने कोई भोजन नहीं किया । सुपरिंटेंडेंट ने सिर हिलाते हुए ऑर्डर दिया- “फोर्स फीडिंग हो ।" और साथ ही उन्होंने कह दिया- “देखो, ज्यादा सख्ती से काम न लेना आसामी कोई गहरा नहीं है। जल्दी ही काबू में आ जावेगा।"

दोपहर के समय मेडिकल ऑफिसर के साथ तीन आदमी पांडेयजी की सेवा में उपस्थित हुए। दूध और दूध पिलानेवाली नली साथ में पांडेयजी ने पूछा - "तुम लोग क्यों आए हो ?"

"आपको जबर्दस्ती दूध पिलाने,” मेडिकल ऑफिसर ने उत्तर दिया ।

पांडेयजी हिचकिचाए, तबीयत हो रही थी कि कह दें- "जबर्दस्ती क्यों, लाओ मैं खुद ही पी लूँ - यहाँ तो मारे भूख के वैसे ही जान निकली जा रही है।" पर उनकी दृष्टि अपने साथियों पर पड़ गई। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि मानो उनके साथियों की आँखें कह रही हैं - " साहस करो, मनुष्य को निर्बल नहीं होना चाहिए।" और पांडेयजी ने दबी जबान उत्तर दिया- “नहीं, मैं दूध नहीं पियूँगा।” दो आदमियों ने पांडेयजी के हाथ पकड़े और एक ने पैर पांडेयजी लिटा दिए गए। नली पांडेयजी के मुँह में डाल दी गई और पांडेयजी दूध पी गए। इसके बाद सब लोग चले गए।

अब सुबह- शाम पांडेयजी को दूध मिलने लगा। मेडिकल ऑफिसर के आते ही पांडेयजी स्वयं लेट जाते थे और चिल्लाने लगते थे कि “मैं खाना नहीं खाऊँगा, कभी नहीं खाऊँगा" - और उसके बाद दूध पी जाते थे ।

पाँचवें दिन पांडेयजी को दोपहर में बड़ी भूख लगी- वे बाहर निकले और चिल्लाने लगे – “मैं खाना नहीं खाऊँगा । कभी नहीं खाऊँगा।" बात वार्डरों के कानों तक पहुँची । वार्डरों ने जेलर से कहा । जेलर हँसा, मेडिकल ऑफिसर के साथ दूध और नली उसने भिजवा दी, पांडेयजी दूध पी गए। यह खबर जेल भर में फैल गई। अब क्या था, जहाँ पांडेयजी को भूख लगी और उन्होंने हल्ला मचाना शुरू किया, और जहाँ पांडेयजी ने हल्ला मचाया, वहाँ लोग दूध और नली लेकर पांडेयजी की सेवा में उपस्थित हो गए । साथ ही दर्शकों की भीड़ लग जाती थी ।

सातवें दिन पुलिस की तहकीकात समाप्त हुई और पांडेयजी छोड़ दिए गए।

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