अंधी मां का बेटा : राम सरूप अणखी

Andhi Maan Ka Beta : Ram Sarup Ankhi

हर रोज की तरह आज भी शाम को लड़के-लड़कियां चौपाल में खेलने जुटे। कोई ताश खेल रहा था। कोइ रोड़े और कोई पीचो-बकरी। दीपा पीचो-बकरी खेल रहा था। उसके साथ दो लड़कियां और एक लड़का भी थे। अब दीपा अपनी बारी भुगता रहा था। उसका पैर लकीर पर पड़ गया। पर वह जल्दी से सारे घर लांघकर पार कर गया, जैसे इस उम्मीद में कि लकीर पर पड़े उसके पदचिन्ह का किसी को पता न लगा होगा। परंतु साथ खेल रही एक लड़की ने झट शोर मचा दिया- ‘लकीर काट दी। लकीर काट दी।’

दीपे ने कहा- ‘तू यों ही कह रही है!’

‘अंधा हो गया है तू? मेरे क्या आंखें नहीं?’ लड़की बोल रही थी और साथ ही उछल भी रही थी।

‘आंखें फूट गयी होगी तेरी। अंधी मां का बेटा जो ठहरा।’ लड़की भी बुरी तरह अड़ गयी थी।

‘अंधी होगी तेरी मां,’ दीपे ने चिढ़कर कहा।

‘जा, नहीं खेलना है तो न खेल!’ लड़की ने यह कहकर पीचो-बकरी बंद कर दी। दीपा ताश वालों के पास जा बैठा।

वह लौटा, तो उसकी मां अपने पैर पर चिथड़ा बांध रही थी।

‘मां! यह क्या हो गया?’ दीपे ने पूछा।

‘रसोई में से दाल का मटका निकाल रही थी। हाथों में मटका था। नजर नहीं आया। पीढ़े से ठोकर खाकर गिर पड़ी। पैर पर चोट लगी है। मुझे दिखाई कहां देता है बेटा!’ मां ने सरसरी तौर पर बताया।

दीपा जैसे सुन्न हो गया। पीचो-बकरी वाली लड़की की बात उसके हृदय को लगी ‘अंधी मां का बेटा!’

खेत से उसका बाप आया। नहा-धोकर खाना खाने को बैठा, तो दीपे को आवाज दी- ‘अबे, घड़े में से पानी का गिलास भरकर लाना तो।’

घड़ौंची पर रखे घड़े को टेढ़ा करके दीपा पानी का लोटा भरने लगा। घड़े में पानी कम था। उसका सारा ध्यान पानी और लोटे पर केंद्रित हो गया। घड़ा घड़ौंची से फर्श पर गिर पड़ा। उसने दांतों से जीभ काट ली। घड़ा टुकड़े-टुकड़े हो गया।

‘घड़े में से गिलास से पानी नहीं भरा जाता था तुझसे? लोटे में इस तरह पानी डालने को तुझे किसने कहा था?’ दिखाई नहीं देता था अंधी मां के बेटे? दीपे का बाप जैसे खेत से ऊबा हुआ आया था।

‘तुम खुद उठकर नहीं ले सकते थे क्या? अगर ईश्वर ने मुझ पर गुस्सा किया हुआ है, तो तुझे अंधी कहना ज़रूरी है क्या? जेठ आषाढ़ की धूप में तुम्हारा खाना ढोती रही हूं। आंखों में टीसें उठने लगीं। अगर उसी समय इलाज हो जाता, तो इस दुर्दशा को क्यों पहुंचती?’ दीपे की मां ने खीजकर कहा।

‘इलाज कराने को क्या मेरे पास अशर्फियों की थैली थी?’ उसने भी झुंझलाकर जवाब दिया।

‘अगर अशर्फियां नहीं थी, तो अब अंधी किसलिए कहते हो?’ दीपे की मां का दिल टूट चुका था।

‘तू अंधी किसलिए है, अंधेरा तो मैं ढो रहा हूं। हल पीछे टांगे घसीट-घसीटकर निढाल हो जाता हूं और घर में आकर खाना भी नसीब नहीं होता।’ दीपे के बाप के ये शब्द उसकी गृहस्थी की दुर्दशा को प्रकट करते थे।

दीपा इकलौता बेटा था। उसकी तीन बड़ी बहने सब शादीशुदा होकर अपने-अपने घर चलीं गयीं थीं। इन तीनों बेटियों के विवाह में घर चौपट हो गया था। जमापूंजी सब चली गयी थी। अब छोटा-सा परिवार बड़ी कठिनाई से गुजारा कर रहा था।

दीपे की मां की आंखों में एक बार टीसें उठीं। आंखों के कोये जैसे फटकर बाहर आ रहे थे। कनपटियों पर जैसे घूंसे लग रहे थे। उन दिनों गेंहू की बीजाई का जोर था। उनका खलिहान भी खेतों ही में था- घर से कोस-भर दूर। लड़कियों में से कोई नहीं आ पायी थी, जो पिता को खलिहान में खाना दे आती। दीपे से ढोर-डंगर ही मुश्कि से सम्भलते थे। उसकी मां बहुत गिड़गिड़ायी कि मुझे बरनाले ले जाकर मेरी आंखे दिखा दो, पर दीपे के बाप को उसकी आंखों की अपेक्षा खेतों की ज्यादा चिंता थी। आधी-आधी रात तक वह सिर पकड़े बैठी रहती।

‘जब मेरी जान निकल जायेगी, तब तो तुम कुछ करोगे?’ दीपे की मां ने बड़ी दीनता से कहा था।

‘इतने पैसे कहां है कि डाकदर (डाक्टर) को दिखाऊं? तू आज रसौत डालकर देख!’ दीपे के बाप ने विवशता से उत्तर दिया था।

और उसी रात दीपे की मां ने रसौत और उसमें थोड़ी-सी अफीम भी घोलकर आंकों में डलवा ली। उसकी आंखे जैसे जल ही तो गयीं। पसीना छूट गया। उसने पीड़ा से ओंठ मींच लिये, जैसे आंखे बाहर को निकलने लगी हो। सारी रात वह चारपाई के पाये से सिर लगाकर बैठी रही। लाचार अगली सुबह उसे डाक्टर के पास ले जाना पड़ा। दीपे के बाप की जेब में उसे समय विष खाने को भी पैसा नहीं था। गेहूं निकलने पर पचास देने का वादा करके किसी बनिये से चालीस रुपये लिये और वे बरनाले गये।

दीपे की मां का दर्द तो दूर हो गया, पर नजर एक चौथाई भी न रही।

दीपे का बाप मुश्किल से दिन काट रहा था। दीपे की मां अंधी नहीं, तो अंधों जैसी अवश्य हो गयी थी। दीपा स्वयं एक भेंस, एक बकरी और एक बछड़ा इन तीनों पशुओं को चराने में सारा दिन उलझा रहता था।

एक दिन उसके सारे साथी पिछले पहर की चाय के साथ रोटी खाने लगे। दीपे ने कपड़े के चिथड़े में से बासी रोटी निकाली, जो राख से सनी हुई थी।

‘रोटी से राख नहीं झाड़ी, अंधी मां के बेटे?’ एक लड़के ने ताना कसा।

दीपे की आंखों में पानी आ गया। उसने नजरें झुकाकर सूखी-कसैली रोटी चाय के साथ पेट में ठूंस ली।

इस बार बारिश अच्छी हो गयी थी और इससे बढ़कर और ज़रूरत भी नहीं थी। सावन की मंडी बरनाले में काफी भरने वाली थी। दीपे के तीन-चार दोस्तों ने सलाह की कि मंडी में चला जाये। दीपे ने बहुत जिद की कि मुझे अपने बछड़े के लिए घुंघरू लाने हैं, पर उसके बाप ने बड़ी मुश्किल से एक अठन्नी ही दी। और एक रुपया उसने पहले ही बचा रखा था।

तीन-चार साथियों के साथ वह बरनाले चला गया। हथिनी जैसे बछड़े, और मोरों की-सी चाल वाले बैलों से मंडी झिलमिल-झिलमिल कर रही थी। किसी ने घुंघरू लिये, किसी ने गानी (मनकों का हार), किसी ने बकरी की झांझरें लीं। मगर दीपे ने सारी मंडी छान मारी और उसे कोई भी चीज पसंद न आयी।

एक जगह एक संन्यासी बैठा दवाइंया बेच रहा था। उसकी जबान आरी की तरह चल रही थी?

‘यह है सुरमे की डली। यह वह सुरमा नहीं है, जो बाज़ार में दुकान पर आम मिलता है… बारह और बारह चौबीस, और यह…’ उसने अपने दोनों हाथों की दसों उंगलियां खोलीं और फिर दायें हाथ की दो उंगलियां खड़ी करके कहा-‘पूरी छत्तीस जड़ी-बूटियों का इसमें प्रयोग किया गया है। एक ही फुंकार में सांस ले लेने वाले काले नाग के मुख में इसे पूरा सवा महीना रखा गया है और फिर जल में धोया गया है। नये खरल में घिसकर तीन दिन-रात इसे आंखों में डालिये। सफेद मोतियाबंद की जड़ खत्म। सात दिन डालो, तो काला मोतियाबिंद को भी खत्म करेगा। नजर को तेज करेगा। सूई में धागा डालो। चलती हुई चींटी को देखो। अंधे पुरुष नेत्रवान हो जायें। एक डली की कीमत सिर्फ आठ आने।’

‘अंधी मां का बेटा!’ दीपे के दिमाग में हथौड़ियां बज रही थीं। मंडी में उसने कुछ न खाया, न पिया। मोटर का भाड़ा रखकर आठ आने निकालकर संन्यासी बाबा की हथेली पर रख दिये। सभी दोस्तों ने देखा कि उसने मंडी में कुछ नहीं खरीदा है।

गांव वापस लौटे, तो उसके बापू ने पूछा- ‘क्या-क्या खाया-पिया मंडी में दीपे?’

‘सुरमे की डली लाया हूं बापू। सवा महीना सांप के मुंह में रखी गयी है। बस अब बेबे की नजर तेज हो जायेगी।’ दीपे के शब्दों में अजीब उत्साह था।

‘अच्छा? दिखा तो ज़रा!’ उसके बापू ने विस्मय प्रकट किया।

पगड़ी के छोर से डली खोलकर उसने बापू के हाथ पर रख दी और मुस्कराया।

उसके बापू ने काली-सी कंकरी को टटोलकर देखा और कहा-‘यह तो पत्थर का कोयला है वे… तेरी आंखें कहां गयी थीं बेवकूफ!…’