अन्धी गलियाँ (रूसी कहानी) : इवान बूनिन

Andhi Galiyan (Russian Story) : Ivan Bunin

पतझड़ के ठण्डे बरसाती मौसम में, बरसाती पानी से भरी, टूटी व गड्ढों वाली तुलना में शहर की एक बड़ी सड़क के किनारे बनी किसान की एक लम्बी-सी झोंपड़ी के पास कीचड़ में लथपथ अधखुली छत्तरी वाली एक बग्घी आकर रुकी। बग्घी को काफी साधारण-से तीन घोड़े खींच रहे थे, जिनकी पूँछे गन्दगी व कीचड़ के कारण उनके शरीर से चिपटी थीं। इस झोंपड़ी के एक तरफ सरकारी डाक बंगला व दूसरी तरफ एक अलग साफ-सुथरा कमरा था, जिसमें विश्राम किया जा सकता था या रात गुज़ारी जा सकती थी, अथवा दोपहर का खाना खाया जा सकता था या चाय पी जा सकती थी; कोचवान की गद्दी पर एक हट्टा-कट्टा गम्भीर गहरे वर्ण वाला आदमी बैठा था, जिसने अपने कोट को पेटी से कसकर बाँध रखा था, और पुराने ज़माने के डाकुओं जैसा लग रहा था, बग्घी में सुडौल, सयाना, अधेड़ उम्रवाला, काली भौंहों व सफेद मूंछों और गलमुंछों वाला एक सैनिक अधिकारी बैठा था। उसने बड़ी टोपी व ऊदबिलाव के फर से बने खड़े कालर वाला, सम्राट निकोलस के ज़माने में प्रचलित मटमैले रंग का ओवरकोट पहना था। उसकी सफ़ेद मूंछे उसी रंग के गलमुच्छों से चिपट गयी थीं, उसकी ठुड्डी मुड़ी हुई थी और उसका बाहरी रंग-रूप अल्येकसान्द्र द्वितीय से मिलता-जुलता था। इस तरह की वेश-भूषा अल्येकसान्द्र के शासन काल में सैनिक अधिकारियों के बीच काफी प्रचलित थी, सैनिक अधिकारी के चेहरे से कौतूहल एवं गांभीर्य के साथ थकान भी झलक रही थी।

जब घोड़े रुके, सैनिक अधिकारी ने पिण्डली तक पहने ऊँचे जूतों वाला अपना पैर बग्घी में से बाहर निकाला और स्वेद के दस्तानों वाले हाथों में ओवरकोट के पल्लों को पकड़ कर तेज़ी से झोंपड़ी की ड्योढ़ी की ओर बढ़ा।

गाड़ीवान अपनी सीट से कर्कश स्वर में चिल्लाया-बायीं तरफ सरकार। और सैनिक अधिकारी ने अपने लम्बे, चौड़े शरीर को देहली पर झुकाते हुए गलियारे में प्रवेश किया और फिर बायीं तरफ़ कमरे में।

कमरा साफ़-सुथरा व आरामदायक था, बायें कोने में ईसामसीह की नयी सुनहरी प्रतिमा टंगी थी, प्रतिमा के नीचे साफ़, भूरे मेज़पोश से ढंकी मेज़ थी, मेज़ के साथ साफ़-सुथरी बेंचें लगी थीं, दायें कोने में कुछ दूरी पर रसोई घर की भट्ठी थी। भट्ठी के पास ही एक चौकी थी। चौकी पर घोड़ों के ऊपर डालने वाला धब्बों वाला कम्बल बिछा था। चौकी भट्ठी के निकट थी, भट्ठी से “श्यी-सूप” में उबलते बन्द गोभी, माँस और तेजपत्ते की भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी।

आगंतुक ने अपना ओवरकोट उतार कर बेंच पर फेंका। उस समय वह अपनी वर्दी और ऊँचे जूतों में और भी छरहरा लग रहा था। उसने अपने दस्ताने व टोपी निकाले और थके हुए भाव से बालों पर अपना पीला कृत हाथ फेरा। उसका सफ़ेद बालों वाला केशविन्यास कनपटियों में आँखों के कोनों तक थोड़ा घुघराला था, उसके काली आँखों वाले सुन्दर लम्बे चेहरे पर अभी भी कहीं-कहीं चेचक के निशान थे। दरवाजे को घोड़ा गलियारे की ओर खींचते हुए तिरस्कारयुक्त स्वर में वह चिल्लाया :

“अरे वहाँ कोई है?"

फौरन लाल कार्डिगन व काले ऊनी स्कर्ट में एक औरत ने कमरे में प्रवेश किया। इस औरत के भौंहें व बाल काले थे, अपनी उम्र के हिसाब से वह काफ़ी सुन्दर थी। अधेड़ बंजारिन जैसी, उसके ऊपरी होंठ एवं गालों पर हल्के रोएँ थे। थोड़ी मोटी थी वह, किन्तु फुर्तीली। विशाल वक्षस्थल, हंसिनी सरीखा तिकोना पेट था।

“मालिक आइए, आइए, आपका स्वागत है-खाना पसन्द करेंगे या चाय पीना, समवार लाऊँ?" वह बोली। आगंतुक ने सरसरी निगाह से उसके गोल-मटोल कन्धों व पतले लाल रंग के घिसे-फटे तातारी बनावट के जूतों वाली उसकी टाँगों की ओर देखा और रुक-रुक कर असावधानी से बोला :

“समवार। मालकिन हो या नौकरानी?"

“मालकिन, हुजूर।”

“यानी, खुद ही कारोबार संभाला है?"

“बिलकुल ठीक। खुद ही।"

"ऐसा क्यों? विधवा हो क्या, इसलिए खुद कारोबार चलाती हो?"

“विधवा नहीं हूँ मालिक, जिन्दगी तो किसी तरह काटनी है न। और मुझे घर-बार चलाना अच्छा लगता है।"

“अच्छा, अच्छा यह अच्छी बात है। तुम्हारा यह कमरा काफ़ी साफ़-सुथरा व अच्छा है।" औरत सारे समय कौतूहल से आँखें सिकोड़ कर उसे देख रही थी।

“जी हाँ, मुझे सफाई पसन्द है।" वह औरत बोली। “बड़े घरानों में पली-बढ़ी हूँ, भला सलीके से कैसे नहीं रहूँगी। निकोलाय अल्येकस्येयविच।” उसने एकदम सीधे होकर आँखें खोली और उसका चेहरा लाल हो गया।

“नदयेज्दा ! तू?" उसने हड़बड़ी से कहा।

"हाँ, मैं निकोलाय अल्येकस्येयविच!" उसने कहा।

बेंच पर बैठते हुए और एकटक उसकी ओर देखते हुए उसने कहा-“हे भगवान! हे भगवान! कौन यह सब सोच सकता था? कितने वर्षों से हमने एक-दूसरे को नहीं देखा? करीब पैंतीस?"

“तीस, निकोलाय अल्येकस्येयविच! मैं इस समय अड़तालीस साल की हूँ, और शायद आप साठ के आस-पास होंगे।"

"लगभग इतना ही-हे भगवान, कितनी अजीब बात है।"

"इसमें क्या अजीब है, मालिक?"

“सब कुछ, समझती नहीं हो क्या।” उसकी थकावट व उदासी लुप्त हो गयी थी। वह खड़ा हुआ और फर्श पर नज़रें डालते हुए कमरे में चहलकदमी करने लगा। फिर उसने रुक कर शर्म के मारे लाल होते हुए कहना शुरू किया :

"तब से मुझे तुम्हारे विषय में कुछ भी नहीं मालूम।"

"तुम यहाँ कैसे आ पड़ीं? अपने मालिक के पास क्यों नहीं रुकीं?"

"आपके जाने के बाद मालिक ने मुझे स्वतन्त्र कर दिया।"

“फिर इसके बाद तुम कहाँ रहीं?"

“यह एक लम्बी कहानी है, मालिक।"

“कहती हो कि तुमने शादी नहीं की?"

"हाँ, नहीं की।”

"क्यों? इतनी सुन्दर होने के बावजूद?" “शादी मैं कर नहीं पायी।"

“क्यों नहीं कर पायी? तुम कहना क्या चाहती हो?"

“इसमें कहने की क्या बात है। शायद आपको याद है कि मैं आपको कितना प्यार करती थी।"

शर्म के मारे उसकी आँखों में आँसू छलक पड़े। वह भौंहें चढ़ाये हुए पुनः चहलकदमी करने लगा।

“अब समाप्त हो जाता है मेरी दोस्त, वह बड़बड़ाया। प्यार, यौवन सभी कुछ। सभी कुछ नगण्य व साधारण-सी बातें हैं। समय के साथ सब समाप्त हो जाता है। जैसा कि बाइबिल के पूर्व विधान में कहा गया है, 'बहते पानी को कैसे याद रखा जा सकता है।"

“जो जिसके भाग्य में है! निकोलाय अल्येकस्ययेविच! यौवन सबका समाप्त हो जाता है, लेकिन प्यार की बात दूसरी है।"

उसने अपनी गर्दन उठायी और खड़े होकर बीमारों जैसी मुस्कराहट के साथ बोला :

"ज़िन्दगी भर तो तुम मुझे प्यार नहीं कर सकती थीं।"

“मतलब, कर सकती थी। जीवन का जो भी समय बिताया, अकेले बिताया। मैं जानती थी कि आपके लिए कभी का सब कुछ समाप्त हो गया। आपके लिए शायद कुछ हुआ ही न हो और...आपको दोषी ठहराने में भी देर हो गयी, मगर सच है कि आपने बड़ी निर्दयता से मुझे छोड़ दिया। कई दूसरी बातें भुला भी दी जाएँ, किन्तु केवल अपमान के कारण मैंने कई बार आत्महत्या की सोची। निकोलाय अल्येकस्येयविच, कैसा समय था वह, जब मैं आपको निकोल्येनका कह कर पुकारती थी, और आपको याद है न? आप मुझे पुकारते थे? आप मुझे सारे समय घने वृक्षों से अन्धकारयुक्त वीथियों के बारे में कविताएँ सुनाया करते थे।" उसने दुखभरी मुस्कान से कहा।

“ओह! तू कितनी अच्छी थी।" उसने सिर हिलाते हुए कहा-“कितनी मादक, कितनी सुन्दर। कैसा रूप, कैसी आँखें। याद है कैसे तुमको सब निहारा करते थे?"

“उससे भी ज़्यादा बेरहमी से उसने मुझे छोड़ा। मैं बेटे को बहुत प्यार करता था, उसके बड़े होने तक मैंने कई आशाएँ उस पर बाँध रखी थीं। लेकिन वह बदमाश, फ़िजूल खर्च, धृष्ट, बेरहम, बेईमान व निष्ठुर निकला। हाँ, ये सब भी बहुत साधारण मामूली बातें हैं। खुश रहो मेरी प्रिय दोस्त। मैं सोचता हूँ कि तुम्हें खोकर मैंने जिन्दगी की सबसे मूल्यवान चीज़ खो दी।"

वह उसके पास आयी। उसका हाथ चूमा, उसने भी उसके हाथ का चुम्बन लिया।

"घोड़े मँगवाओ।"

जब घोड़े आगे निकल गये, वह भौंहे चढ़ाकर सोचने लगा, “कितनी आकर्षक थी। मनमोहक सौन्दर्य।” उसने शर्म के मारे अपने आखिरी शब्दों को याद किया। फिर वह भी याद किया कि उसने उसका हाथ चूमा और एकाएक उसे अपनी ही शर्म पर शर्मिंदगी महसूस हुई। “क्या यह सच नहीं है कि उसने अपनी ज़िन्दगी के सबसे अच्छे क्षण मुझे दिये?"

निस्तेज सूरज अस्त हो रहा था। कोचवान सारे वक्त खतरनाक गड्डों को छोड़ते हुए कम खन्दकों वाले रास्ते से घोड़ों को दौड़ाते हुए मन ही मन कुछ सोच रहा था। अन्ततः उसने गम्भीर स्वर में कहा :

“और वह, मालिक जैसे ही हम वहाँ से निकले, खिड़की से देख रही थी। लगता है, काफ़ी अरसे से उसे जानते हैं क्या?"

"हाँ, काफ़ी अरसे से भाई।"

“काफ़ी बुद्धिमान औरत है। बताते हैं कि दिन-प्रतिदिन वह धनी हो रही है। रुपये सूद पर देती है।”

“यह सब कोई माने नहीं रखता।"

"क्यों नहीं! कौन और अच्छी तरह से जीना नहीं चाहता। और यदि ईमानदारी से दिया जाये तो उसमें हर्ज क्या है। बताते हैं वह ईमानदार है। लेकिन सख्त है। रुपये यदि समय से नहीं लौटाया, तो अपने को ही दोषी समझो।"

“हाँ, हाँ, अपने को ही दोषी मानो...ज़रा घोड़ों को तेज़ भगाओ, ताकि गाड़ी पकड़ने में हमें देर न हो...”

डूबते सूरज की सुनहरी किरणें खाली खेतों पर पड़ रही थी, घोड़े पानी भरे गड्ढों पर चल रहे थे। वह घोड़ों की उछलती हुई नालों की ओर देख रहा था, और अपनी काली भौंहें चढ़ाये सोच रहा था :

“हाँ, अपने को ही दोषी समझो। हाँ वास्तव में अच्छे क्षण मेरे बुरे लेकिन सचमुच चमत्कारी।” चारों तरफ़ जंगली लाल गुलाब खिल रहे थे, घनी लिंडन वृक्ष की वीथियाँ, लेकिन, हे भगवान! आगे क्या हुआ होता? यदि मैंने उसे छोड़ा न होता? कितनी लज्जा की बात। यही नदयेज्दा सराय की मालकिन न होकर, मेरी पत्नी, मेरे पीटर्सबर्ग के घर की मालकिन व मेरे बच्चों की माँ होती?

आँखें बन्द किये वह सिर हिला रहा था।

अनुवाद : जगदीश प्रसाद डिमरी