अँधेरे बंद कमरे (उपन्यास-भाग 3) : मोहन राकेश

Andhere Band Kamre (Hindi Novel-Part 3) : Mohan Rakesh

हवा में कहीं एक कोहेनूर झिलमिलाता है...।

सुबह-सुबह हज़ारों साइकिलें शहर की विभिन्न बस्तियों से निकलती हैं और शाम को थकी-हारी उन्हीं बस्तियों को लौट जाती हैं। सन् दो की ओल्ड्स्मोबाइल से लेकर सन् साठ की डॉज किंग्सवे तक सैकड़ों तरह की गाडिय़ाँ यहाँ से वहाँ भटकती हैं—हार्डिंग रोड, सुन्दरनगर, चाणक्यपुरी, नॉर्थ एवेन्यू, साउथ एवेन्यू, जनपथ, राजपथ, ओल्ड मिल रोड, पार्लियामेंट स्ट्रीट, कनॉट प्लेस, कनॉट सर्कस!

इस होड़ में हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति का प्रतिद्वन्द्वी है। हरएक का हरएक के साथ युद्ध है। हरएक का घर उसकी अपनी गज़नी है...।

गाडिय़ों के पहिये कोलतार की सड़कों पर घिसते जाते हैं। सप्रू हाउस से विज्ञान भवन, विज्ञान भवन से अशोका, अशोका से चेम्सफ़ोर्ड क्लब, चेम्सफ़ोर्ड क्लब से लाल किला...।

कनॉट सर्कस के बरामदों में एक चुलबुली भीड़ इधर से उधर जाती नज़र आती है। कई रंग एक साथ आँखों के सामने बिखरते और एक बहाव में बहते चले जाते हैं। चुस्त कपड़ों में किसी का गदराया हुआ शरीर सँभाले नहीं सँभलता और बाहर को बिखर-बिखर जाना चाहता है। किसी की लम्बी-लम्बी उँगलियाँ आसपास की सारी भीड़ को जैसे सहलाती हुई चलती हैं। बस के पीछे दौड़ते हुए एक बाबू की रेज़गारी बिखर जाती है और वह शर्मिन्दा होकर उसे उठाने लगता है। चालीस की रफ़्तार से आता हुआ फटफटिया उसे बस इंच-भर बचाकर निकल जाता है। बस-स्टॉप पर एक और बस आ जाती है। बाबू को अपनी रेज़गारी में से एक चवन्नी नहीं मिल रही। वह अपनी चवन्नी भी ढूँढऩा चाहता है और क्यू में अपनी जगह भी बनाये रखना चाहता है...।

फुटपाथ की भीड़ में सहसा कोई परिचित मगर भूला हुआ चेहरा सामने पड़ जाता है। हम दोनों के चेहरों पर एक अर्थहीन मुसकान आ जाती है, जैसे पहचानना न चाहते हुए भी हमें एक-दूसरे को पहचानना पड़ रहा हो।

“आजकल दिल्ली में ही हो?”

“हाँ।”

“तुम तो लखनऊ में थे?”

“हाँ, कभी था। अब साल-भर से दिल्ली में ही हूँ।”

“अच्छा! मैं समझता था कि तुम अब तक लखनऊ में ही हो। आजकल क्या हो रहा है?”

“बस वक़्त कट रहा है।”

“आजकल वक़्त कट जाए, वही बहुत है। अच्छा...!” और वह परमहंस निर्लिप्त भाव से हाथ बढ़ा देता है, “कभी मेरे लायक कोई काम हो, तो बताना। मैं आजकल एक्साइज में हूँ। कभी स्कॉच-ऑच की ज़रूरत पड़े, या और कोई काम हो...।”

“कभी ज़रूरत होगी तो बताऊँगा।”

“अच्छा...!” और वह जल्दी-जल्दी सड़क पार करके चला जाता है। सड़क के पार पहुँचने तक शायद उसे मेरे अस्तित्व की याद भी नहीं रहती।

कॉफ़ी-हाउस परमहंसों का अड्डा है। वहाँ दाख़िल होते ही कई-एक जमघटों पर एक साथ नज़र पड़ती है। एक जमघट में पत्रकार लोग बैठते हैं। उनमें स्कूप, स्कैंडल और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बातें चलती हैं। दूसरे जमघट में कुछ ऐसे लोग हैं जिनमें आधारभूत साम्य एक ही है और वह यह कि वे शाम को कॉफ़ी-हाउस में इकट्ठे होते हैं। इनमें सुन्दर जुनेजा विटा-रोज़ की कम्पनी का डिस्ट्रीब्यूशन इन्चार्ज है। श्याम मलहोत्रा लाइफ़ इंश्योरेंस का एजेंट है। जयदेव उर्फ़ 'गन्दा इंजन’ सेनीटेशन के महकमे में नौकर है। भद्रसेन मकानों और ज़मीनों की दलाली करता है। चौधरी कई काम करता है—टेंडर देकर सरकार को माल सप्लाई करता है, फ़ौलाद और कोयले का कोटा लेकर ब्लैक मार्केट में बेचता है, मोटरों का बीमा करता है और पासपोर्टों के सम्बन्ध में हर तरह की जानकारी रखता है। ये लोग हर रोज़ एक जगह बैठकर यही बातें करते हैं जो इन्होंने इससे पहले दिन की थीं, या उससे पहले दिन की थीं। मल्होत्रा एक कुहनी मेज़ पर रखे तिरछी नज़र से आने-जानेवालों को देखता हुआ अपने साथियों को साहिर लुधियानवी या फ़ैज की नज़्में सुनाता है।

“कहता है कि...

तुम नाहक टुकड़े चुन-चुनकर

तुम...नाहक टुकड़े चुन-चुनकर

दामन में छिपाये बैठे हो।

और कि—

शीशों का मसीहा कोई नहीं,

शीशों का...मसीहा...कोई नहीं...

क्यों आस लगाये बैठे हो?”

उसके दोस्त इस तरह वाह-वाह करते हैं जैसे वह रचना उसकी अपनी हो। मलहोत्रा का अन्दाज़ तिरछे से और तिरछा होता जाता है और उसकी आवाज़ की गहराई बढ़ती जाती है। जब बात जयदेव उर्फ़ 'गन्दे इंजन’ पर आती है, तो वह अपनी पतली-पतली मूँछों पर ताव देता हुआ अपने नाम और धन्धे के अनुकूल चीज़ सुनाने लगता है : 'छल्ला सावी सीटी, ओ छल्ला सावी सीटी...।” मोटा भद्रसेन अपनी आँखें बन्द करता है और खोलता है, खोलता है और बन्द करता है। उसका भरा हुआ गोल चेहरा हँसी से और गोल होने लगता है तो वह कहता है, “यह साला 'गन्दा इंजन’ आज भी वैसा ही है जैसा लाहौर में था। इसमें तेरह साल में ज़रा भी फ़र्क़ नहीं आया। इसकी ज़बान आज भी उतनी ही गन्दी और उतनी ही मीठी है।” सुन्दर जुनेजा केवल हँसे जाता है। उससे पूछा जाए कि वह क्यों हँस रहा है, तो वह और हँसता है और चुप कर जाता है। चौधरी समझदारी के साथ मुसकराता है और घड़ी की तरफ़ देख लेता है। वह इस तरह उन लोगों के बीच बैठता है जैसे उसकी जगह उनके साथ न होकर कहीं और हो और उसे मजबूर होकर उनके साथ बैठना पड़ रहा हो। कॉफ़ी-हाउस से बाहर निकलकर वे पान खाते हैं और घंटा-भर सामने अहाते में खड़े होकर फिर वही बातें करते हैं। सुन्दर जुनेजा वहीं पर उनसे अलग हो जाता है। बाकी चारों चौधरी के घर जाकर शराब पीते हैं, उन्हीं बातों को फिर दोहराते हैं और अगले दिन फिर कॉफ़ी-हाउस में मिलने का कार्यक्रम बनाकर अपने-अपने घर चले जाते हैं। सबके चले जाने के बाद चौधरी अपने नौकर पर खफ़ा होता है और उसे गालियाँ देता हुआ यह तय करके सो जाता है कि आने वाले कल से वह अपने घर में यह मजलिस इकट्ठी नहीं होने देगा।

कॉफ़ी-हाउस का तीसरा जमघट वहाँ का आर्ट सर्कल है। यह वहाँ का सबसे आकर्षक और लोकप्रिय सर्कल है। इनकी बैठक फ़ेमिली-केबिन्स में से किसी एक में जमती है। इनमें कुछ रंगमंच के निर्देशक हैं, कुछ पुराने अनुभवी कलाकार हैं, दो-एक नाटककार हैं, एकाध नाट्य-समीक्षक है, कुछ नये एमेच्योर आर्टिस्ट हैं और दो-एक ऐसी लड़कियाँ हैं जो अभिनय के दिनों में टिकट बेचती हैं और ब्रोश्योर बाँटती हैं। इसमें बातचीत रंगमंच सम्बन्धी गम्भीर समस्याओं को लेकर होती है। भारत में और विशेष रूप से नयी दिल्ली में, व्यावसायिक रंगमंच का भविष्य क्या है? व्यावसायिक रंगमंच की रूपरेखा क्या होनी चाहिए? क्या लोकप्रिय रंगमंच ही व्यावसायिक रंगमंच हो सकता है? क्या साहित्यिक रंगमंच को भी व्यावसायिक आधार पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है? रंगमंच की प्रगति के लिए सरकारी सहायता कहाँ तक अपेक्षित है? सरकार कर देश-भर में नयी रंगशालाएँ स्थापित करने का कार्यक्रम रंगमंच की प्रगति में कहाँ तक सहायक सिद्ध होगा? हमारी जनता क्या चाहती है? हम जनता को क्या देना चाहते हैं? क्या भविष्य का रंगमंच सर्वथा प्रतीकात्मक होगा? नाटक में नृत्य और संगीत का क्या स्थान होना चाहिए? संगीत रूपक की अपने में क्या सम्भावनाएँ हैं?

बातचीत इन विषयों से आरम्भ होकर अधिक ठोस विषयों पर उतर आती है। 'विक्रमोर्वशीय’ में लाइट और सेट्स के सिवाय क्या था! 'चन्द्रगुप्त’ में चन्द्रगुप्त कितना भौंडा लगता था! चाणक्य के उच्चारण में कितनी पंजाबियत थी! 'ललित माधव’ की राधा राधा न लगकर क्या मेनका नहीं लगती थी। उसमें सिवा सेक्स अपील के था ही क्या? 'रंगदार शीशे’ में ड्राइंग-रूम का वातावरण कितना स्वाभाविक था! कितना अच्छा होता अगर उस ड्राइंग-रूम में चरित्रों को प्रवेश करने की इजाज़त न दी जाती! वे सब के सब क्या सब्जी मंडी से उठाकर लाये गये नहीं लगते थे? 'रूपसी’ में शची का नृत्य कितनी ग़लत जगह पर रखा गया था? 'मुग़ल दरबार’ क्या मुग़ल दरबार था? उसमें क्या मुग़लकालीन वातावरण का ज़रा भी टच था? ऐसे नहीं लगता था जैसे वह भेड़ों का तबेला हो जहाँ कई-कई भेड़ें एक साथ मिमिया रही हों। इस तरह के अभिनयों से क्या रंगमंच की प्रगति हो रही है? 'वेणी संहार’ का दुर्योधन देखा था? वह क्या ऐसे नहीं बोलता था जैसे कोई मंजन बेचनेवाला अपने मंजन का इश्तहार कर रहा हो?

“साहब, हद हो गयी!” नाट्य-समीक्षक सोमेन्द्र बार-बार अपने माथे पर हाथ मार लेता है। 'वेणी संहार’ वालों ने तो अच्छी भाँडों की मंडली इकट्ठी कर रखी थी। किसी को इतनी भी समझ नहीं थी कि स्टेज पर उसे हिलना-डुलना किस तरह चाहिए। ऐसे लगता था जैसे नाटक से कुछ ही देर पहले सब लोग चवन्नी-चवन्नी देकर बाहर से इकट्ठे कर लिये गये हों। स्टेज-कवरेज का उन्हें एक ही अर्थ आता था कि हाथ-पैर पटकते हुए इस तरफ़ से उस तरफ़ चले जाएँ और उस तरफ़ से इस तरफ़ चले आयें। कभी दसों आदमी इस कोने में जमा हो रहे हैं और कभी सब के सब बीच की तरफ़ कूच कर रहे हैं। मुझे तो कई बार लगता था कि मैं असली थियेटर न देखकर मॉक-थियेटर देख रहा हूँ। वैसे तो बहुत-बहुत भौंडे नाटक देखे हैं, मगर इतना भौंडा नाटक आज तक नहीं देखा।”

“ 'अलकापुरी’ में वह नारद कौन बना था?” शैलबाला कहती है। वह स्वयं दो नाटक प्रोड्यूस कर चुकी है और नाटकों की चर्चा करते समय उसे हमेशा उनकी याद हो आती है। “मेरे किसी नाटक में वह होता, तो मैं पहले ही दिन उसे चुटिया से पकड़कर रिहर्सल रूम से बाहर निकाल देती। जिन लोगों का असली काम है कि बनिये की दुकान पर बैठकर अनाज तोलें, वे भी एक्टर बनकर रंगमंच पर चले आते हैं। यह रंगमंच के साथ बलात्कार नहीं तो क्या है? मैं तो कहती हूँ कि ऐसे लोगों पर भी वही दफ़ा लागू होनी चाहिए जो दूसरे बलात्कार करनेवाले लोगों पर लागू होती है। ये लोग बल्कि और बुरे क्रिमिनल हैं। कला की पवित्रता...मैं कहती हूँ...एक स्त्री की पवित्रता से कहीं बड़ी और महत्त्वपूर्ण चीज़ है!”

“आराम से शैल, आराम से, इतने ज़ोर से नहीं,” निर्देशक ज़हीर उसका कन्धा थपथपा देता है। “लोग सुनेंगे, तो क्या कहेंगे?” इस पर सब लोग ज़ोर से ठहाका लगाते हैं। शैल कुछ झेंप जाती है और झेंप मिटाने के लिए ज़हीर की बाँह पर मुक्के मारने लगती है, “तुम तो ज़हीर इतने बुरे आदमी हो कि तुम्हारे साथ बैठकर बात करना गुनाह है। तुम सीरियस बातचीत में भी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते।”

“मैंने सिर्फ़ तुम्हें चेतावनी दी है और क्या कहा है?” ज़हीर कहता है, “मैं तुम्हारा खैरख्वाह हूँ और तुम्हारी इज़्ज़त का ख़याल रखना मेरा फ़र्ज़ है। मैं जानता हूँ कि तुम जो बात कह रही थीं, बहुत भोलेपन से कह रही थीं, मगर...सुननेवाले तो सब तुम्हारी तरह भोले नहीं हैं।”

सब लोग फिर ठहाका लगाते हैं, तो शैल भी साथ हँस देती है और कहती है, “मैं ज़हीर, आज से तुमसे बात भी नहीं करूँगी। तुम्हें मेरा नहीं, तो इन छोटी-छोटी लड़कियों का तो लिहाज करना चाहिए जो न जाने मन में क्या-क्या विचार लेकर हमसे मिलने आती हैं! इन बेचारियों के दिमाग़ क्यों स्पॉयल करते हो?”

छोटी लड़कियाँ, अर्थात् मीना और सुदर्शन, जो रंगमंच के शौक़ से नयी-नयी उस सर्कल में आने लगी हैं, थोड़ा शरमाकर एक-दूसरी की तरफ़ देखती हैं और नज़रें झुका लेती हैं। नाटककार सुखवन्त जो हर चौथे महीने विदेश-यात्रा के लिए जाता है और विदेशी कला और संस्कृति के सम्बन्ध में बहुत अधिकार के साथ बात करता है, काफ़ी गम्भीर होकर कहता है, “इन लड़कियों के कॉम्प्लेक्स अगर दूर नहीं होंगे शैल, तो ये कुछ भी नहीं कर सकेंगी। इनमें लाइफ़ आनी चाहिए लाइफ़! और वह लाइफ़ इनमें कैसे आ सकती है? खूब खुलकर रहने और लोगों में घुल-मिलकर जीने से। अगर वह लाइफ़ इनमें नहीं होगी, तो ये सच्ची कलाकार नहीं बन सकेंगी। तुम ऐसी बात कहकर इनके मन में कॉम्प्लेक्स डाल रही हो। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ये लड़कियाँ अगर पैरिस, मैड्रिड या लन्दन में होतीं, तो इस ज़रा-सी बात से आँखें झुकाकर न बैठ जातीं। जो लड़कियाँ इतनी ज़रा-सी बात पर अपनी आँखें सीधी नहीं रख सकतीं, वे रंगमंच पर आकर क्या करेंगी? तुम्हें इनके लिए ऐसी बात कभी नहीं कहनी चाहिए!”

सुखवन्त के उपदेश से शैल कुछ फीकी पड़ जाती है। लड़कियाँ चेष्टा करके अपनी झुकी हुई आँखें ऊपर उठा लेती हैं और ज़हीर सुखवन्त की पीठ ठोककर कहता है, “शाबाश सुखवन्त! तुमने खूब मेरी वकालत की! तुम वकालत न करते, तो इन लड़कियों के साथ मेरी भी आँखें शरम से झुक जातीं।”

“आँखें झुकाकर रखना हिन्दुस्तानी लड़कियों के लिए शरम की बात नहीं है, फ़ख्र की बात है।” शैल फिर कहती है, “तुम्हें पैरिस और मैड्रिड की लड़कियों पर नाज़ है, तो मुझे अपनी इन हिन्दुस्तानी लड़कियों पर नाज़ है। मैं कभी नहीं चाहूँगी कि ये लड़कियाँ भी उन लड़कियों की तरह बेशरम हो जाएँ।”

इस पर मीना और सुदर्शन कुछ असमंजस में पड़कर एक-दूसरी की तरफ़ देखती हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि उन्होंने अपनी झुकी हुई आँखों को उठाकर अच्छा किया है या बुरा किया है। सुखवन्त अपनी दोनों कुहनियों पर झुककर शैल की बात के उत्तर में अपना उपदेश आगे आरम्भ कर देता है और उस उपदेश में इतने उद्धरण और अपनी विदेश-यात्राओं के इतने संस्मरण शामिल कर देता है कि अन्त तक फिर और किसी को बोलने का अवकाश नहीं मिलता।

पीछे की तरफ़ एक जमघट में कुछ लेखक, कवि और आलोचक बैठते हैं। इनकी बातचीत का सम्बन्ध प्राय: नये साहित्य से होता है। नयी कविता के माने क्या हैं? नयी कहानी कहाँ तक 'नयी’ कही जा सकती है? 'नयी’ की परिभाषा क्या है? किसकी नयी कहानी कम 'नयी’ है और किसी ज़्यादा 'नयी’? किसने किसकी रचना के सम्बन्ध में कहाँ क्या लिखा है? उस लेखक की ओर से उसका क्या उत्तर आया है? इस महीने किस-किस नयी पुस्तक का विज्ञापन निकला है?

विज्ञापनों से हटकर बात नयी कांशसनेस पर आ जाती है। आज के साहित्य में नयी कांशसनेस का प्रतिनिधित्व कहाँ तक हो रहा है? अन्य कलाओं की नयी कांशसनेस से साहित्य क्या अछूता रह सकता है? किन-किन लेखकों में वास्तविक नयी कांशसनेस के लक्षण विद्यमान हैं और किन-किन में नहीं हैं? किन-किन की नयी कांशसनेस वास्तविक है और किन-किनकी सिर्फ़ बाहरी है? कौन लोग नयी कांशसनेस का जामा ओढ़कर भी पुरानी कांशसनेस को ही अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त कर रहे हैं? एक नयी सैंसिटिविटी किस तरह नयी कांशसनेस की अनिवार्य शर्त है?

इनमें कलकत्ता से आया हुआ जनक सुखाडिय़ा अकेला आदमी है जो कवि, लेखक या आलोचक नहीं है। वह ऐसा विरक्त जीव है कि कॉफ़ी-हाउस में बैठकर भी कॉफ़ी नहीं पीता। उनकी आँखें हर समय लाल रहती हैं, जाने अनिद्रा के कारण या ऐसे ही; दाढ़ी दो-दो ह$फ्ते की बढ़ी होती है और सिर के बाल लगभग खड़े रहते हैं। वह बहुत गम्भीर होकर ये बातें सुनता है। सुनते हुए उसके चेहरे का भाव ऐसा हो जाता है जैसे उसकी आँखों के सामने उसे धोखा दिया जा रहा हो। जब उससे नहीं सहा जाता, तो वह बीच में बोल पड़ता है, 'च् च् च्! मेरी समझ में नहीं आता कि यह नयी कांशसनेस किस चिडिय़ा का नाम है! दुनिया को धोखा देने के लिए लोग नये-नये फ़ैशन निकाल लेते हैं और यह नयी कांशसनेस आज का फ़ैशन है और कुछ नहीं। नयी कांशसनेस! हँ! अगर वास्तव में ही लोगों की रचनाओं में कोई नयी कांशसनेस है, तो उन्हें पढ़कर उसका पता क्यों नहीं चलता? ज़्यादातर रचनाएँ तो ऐसी होती हैं कि मुझसे पढ़ी भी नहीं जातीं। क्या यही उनकी नयी कांशसनेस का सबूत है?”

लोग जनक सुखाडिय़ा की बातों को गम्भीरतापूर्वक नहीं लेना चाहते मगर उनसे कुछ अस्थिर ज़रूर हो जाते हैं। उसकी बातें इस तरह होती हैं जैसे चलते अभिनय में सहसा कोई व्यक्ति नेपथ्य में मंच पर चला आये और वहाँ पर खड़े चरित्रों को कन्धे से पकड़कर कहने लगे कि बालकराम, सुखराम सेठी और चन्द्रकला, तुम लोग अपने को कण्व, दुष्यन्त और शकुन्तला कहकर लोगों को धोखा क्यों दे रहे हो? क्या तुम लोग सच्चे दिल से कह सकते हो कि तुम बालकराम, सुखराम सेठी और चन्द्रकला भार्गव नहीं हो? तुम अपनी दाढ़ी-मूँछ और मेकअप उतार दो, तो लोगों को पता चल जाए कि असल में तुम लोग कौन हो। लोग क्या इतने अन्धे हैं कि तुम्हें कण्व, दुष्यन्त और शकुन्तला मान लेंगे? कवि, कहानीकार और आलोचक सुखाडिय़ा की बातों से कुछ क्षुब्ध हो उठते हैं। उसे नेपथ्य से मंच पर आने का अधिकार किसने दिया है? क्या वह उनके साथ अपनी मित्रता का अनुचित लाभ नहीं उठाता? कल का छोकरा...उसे नयी कांशसनेस का पता ही क्या है? जब बात और आगे बढ़ती है, तो सुखाडिय़ा के लिए वहाँ बैठना असम्भव हो जाता है। 'सब बकवास है,’ वह कहता है और सहसा उठकर चल देता है। उसके चले जाने से बातचीत में एक अस्वाभाविक गतिरोध आ जाता है। कवि-कहानीकार ब्रजेन्द्र खन्ना कहता है, “यह आदमी एक झपट्टे से सबके न$काब उठा देता है और उठकर चला जाता है। मुझे यह आदमी अच्छा लगता है।”

“इस आदमी का दृष्टिकोण नेगेटिव है, वैसे आदमी अच्छा है और समझदार भी है।” कवि श्रीनिवास तटस्थ भाव से कहता है।

“नेगेटिव हो या जो हो, वह बात ठीक कहता है।”

“तो तुम भी समझते हो कि नयी कांशसनेस कोई चीज़ नहीं है?” उसमें और श्रीनिवास में झड़प हो जाती है।

“मैं तो समझता हूँ कि नयी कांशसनेस हो या पुरानी, सब बेकार है।”

“तब तो तुम साहित्य को भी बेकार चीज़ मानोगे!”

“उसमें मानने न मानने को क्या है? उसमें रखा ही क्या है?”

“इसका मतलब है कि तुम्हारे लिए ज़िन्दगी का भी कोई अर्थ नहीं है!”

“ज़िन्दगी का अर्थ!” खन्ना हँस देता है, “यह मैं नयी बात सुन रहा हूँ कि ज़िन्दगी में कुछ अर्थ भी है।”

“तुम्हारा दृष्टिकोण ध्वंसात्मक है।”

“होगा। मैं नहीं जानता।”

“अगर ऐसी ही बात है, तो तुम स्वयं क्यों लिखते हो?”

“यह मुझे क्या पता है कि मैं क्यों लिखता हूँ? लिखने को मन होता है, इसलिए लिख देता हूँ।”

“लेकिन मन क्यों होता है?”

खन्ना कन्धे हिला देता है, “शायद इसलिए कि और किसी तरह मुझसे वक़्त नहीं कटता।”

“वक़्त काटने के लिए तो आदमी कुछ भी कर सकता है।”

“जैसे?”

“जैसे क्या? आदमी कुछ भी कर सकता है; ताश खेल सकता है, गप कर सकता है, और भी कितने फ़िजूल के काम कर सकता है।”

“तो इसकी बजाय बैठकर कुछ लिख ही लिया जाए, तो उसमें क्या बुराई है?”

“लिखकर तुम अपना ही नहीं, पढऩेवालों का भी तो वक़्त बरबाद करते हो।”

“तो उसमें क्या बुराई है? उनका भी कुछ वक़्त कट जाता है।”

“तुम सैडिस्ट हो।”

“तुम जो भी कह लो। मुझे जनक सुखाडिय़ा की बातें बहुत अच्छी लगती हैं।”

“तुम ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर सकोगे।”

“इससे भी क्या फ़र्क पड़ता है! जो लोग कुछ कर लेंगे, वही क्या कर लेंगे?”

और यह बात तब तक चलती रहती है जब तक उनमें से कोई घड़ी देखकर उठने का प्रस्ताव नहीं कर देता।

इन सब जमघटों से हटकर कला-समीक्षक गजानन बिल्कुल अकेला बैठता है। उसे शायद लगता है कि दूसरे लोगों के साथ बैठने से उसका सफ़ेद कोट कुछ मैला हो जाएगा। उसे अपनी टाई की गाँठ का भी बहुत ध्यान रहता है और वह उसे हर समय सहलाता रहता है कि कहीं बैठे-बैठे वह ढीली न पड़ गयी हो। जो लोग उसके साथ घनिष्ठता रखना चाहते हैं, उनकी तरफ़ से वह प्राय: उदासीन रहता है और उन्हीं से बात करना पसन्द करता है जो उसकी घनिष्ठता से बचते हैं। वह जानता है कि अकेलेपन में एक विशिष्टता रहती है जो व्यक्ति को थोड़ा रहस्यमय बना देती है और कि लोग इस रहस्यमयता का सम्मान करते हैं। उसकी समीक्षाएँ यदि वे प्रशंसात्मक न हों, तो बहुत कटु और निर्मम होती हैं, इसलिए लोग उससे घबराते हैं और वह घबराहट भी एक तरह के सम्मान का रूप ले लेती है। इस क्षेत्र में सबसे पुराना खिलाड़ी वही है। उसे कलाकारों को उठाते और गिराते बीस साल हो चुके हैं। जब वह मुँह से बात नहीं करता और केवल सिगरेट का धुआँ छोड़ता है, तो वह धुआँ भी एक समीक्षात्मक अन्दाज़ में हिलता है। उस धुएँ की गोलाइयों से भी कई बार लोग उसके मत का अनुमान लगा लेते हैं।

“अकेले?” मैं उसके पास से गुज़रते हुए कहता हूँ।

“हाँ, हमेशा की तरह,” वह अपने सिगरेट के धुएँ को देखता हुआ कहता है, “आओ, बैठो।”

“मेरे पास बैठने से तुम्हारे अकेलेपन में खलल नहीं पड़ेगा?”

वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने पास बिठा लेता है। “मुझे पता है, तुम मेरे पास बैठकर प्रोफ़ेशनल बातें नहीं करोगे।” वह कहता है, “वैसे आदमी जब अकेला रहना चाहे, तो सैकड़ों आदमियों के बीच बैठकर भी अकेला रह सकता है। नहीं?”

“तुम्हारे जैसा आदमी ज़रूर रह सकता है।”

“इसका मतलब है कि तुम्हारी भी मेरे बारे में वही राय है जो और सब लोगों की है।”

“तुम्हारी सफलता का रहस्य भी तो शायद यही है।” मैं कहता हूँ, “इधर मैं हूँ कि अपने सम्पादक को कभी खुश ही नहीं कर पाता।”

“यह लक्षण तो बुरा नहीं है।” वह कहता है, “मैंने बीस साल में पाँच सम्पादकों के नीचे काम किया है और आज तक उनमें से एक भी मुझसे $खुश नहीं रहा।”

“तो क्या ख़याल है कि एक दिन हम दोनों एक-एक टिप्पणी अपने सम्पादकों पर लिखें...?”

“इस तरह लिखने की बात हो, तो मैं न जाने किस-किस पर टिप्पणी लिखना चाहूँगा।” वह हँसकर कहता है, “हर दूसरा आदमी जिससे मैं मिलता हूँ, उस पर मेरा मन होगा कि एक टिप्पणी लिख दूँ। मैं जिससे भी मिलता हूँ लगता है वह एक छीना-झपटी में पड़ा है। लोगों ने इसे एक सुन्दर-सा नाम भी दे रखा है, 'व्यक्तिगत सुख की खोज’। वह सुख की खोज क्या है? झूठ बोलो, काम से बचो, जैसे भी हो पैसा जमा करो और अधिकार पाने के लिए कुछ भी कुरबान कर दो। इस नैतिकता का एक बना-बनाया शास्त्र है जो कोई किसी को नहीं पढ़ाता, फिर भी सब लोग उसके पंडित हैं। और यह शास्त्र कहता है कि अपने अलावा हरएक को हीन समझो, हरएक को अविश्वास की नज़र से देखो, खुद झूठ बोलो और दूसरों के झूठ पर नाक-भौं चढ़ाओ, कोई तुमसे मूल्यों की बात करे, तो कन्धे हिलाकर मुँह बिचका दो और एक ही विश्वास लेकर जियो कि बड़े लोगों से मिल-जुलकर और अपने सहयोगियों को बेवकूफ़ बनाकर तुम्हें अपना उल्लू सीधा करना है। सरकार से अपने काम निकालो और दोस्तों में बैठकर सरकार की निन्दा करो। अगर तुम्हारा सम्बन्ध इंटलेक्चुअल वर्ग से है, तो बड़ी-बड़ी डींगें मारो, विदेश में जाकर रहने के सपने देखो और अपने ओछे स्वार्थों को सिद्धान्त और दर्शन का रूप दे लो। और इस सबसे प्राप्त होनेवाला व्यक्तिगत सुख क्या है? सोशल स्टेटस।”

“मुझे नहीं पता था कि आज तुम सारी दुनिया से ही कुढ़े हुए बैठे हो।” मैं कहता हूँ, “लगता है दो-एक दिन से तुमने किसी नृत्य या नाटक पर टिप्पणी नहीं लिखी।”

इस पर वह फिर हँस पड़ता है, “सच पूछो, तो अब मेरा नृत्यों और नाटकों पर टिप्पणियाँ लिखने को मन नहीं होता। आज तक जिन-जिन लोगों की मैंने प्रशंसा की है, वे सब मेरे प्रतिद्वन्द्वी हैं और जिन-जिन लोगों की मैंने निन्दा की है, वे सब आज मेरे दुश्मन हैं।”

वह और भी बात करना चाहता है, मगर मैं जल्दी ही उससे विदा ले लेता हूँ। उसके पास से उठकर चलते हुए अचानक मेरी एक उर्दू शायर से मुठभेड़ हो जाती है। वह शराब के नशे में झूमता हुआ मेरे पास से गुज़र जाता है, मगर दो क़दम जाकर मुझे पीछे से आवाज़ दे देता है, “मधुसूदन भाई, ज़रा बात सुनना...।” मैं रुककर उसकी तरफ़ देखता हूँ, तो वह पास आकर मेरे दोनों कन्धों पर हाथ रख देता है। “देखो, मैं हिन्दी की एक किताब पढ़ रहा था,” वह कहता है।

“तो...?”

“उसमें एक बात लिखी थी...।”

“क्या?”

“उसमें लिखा था कि...मगर आओ, बैठकर बात करें। मैं यह बात तुमसे अच्छी तरह समझना चाहता हूँ।”

हम लोग बैठ जाते हैं, तो वह कहता है,...”उस किताब में लिखा था कि भारतमाता गाँवों में रहती है।”

“मगर तुम मुझसे क्या बात समझना चाहते थे?”

“मैं तुमसे यह जानना चाहता था कि भारतमाता क्या हमेशा गाँवों में ही रहती है, और दिल्ली कभी नहीं आती...?”

मैं उसकी बात पर हँस देता हूँ, तो वह कहता है, “देखो, हँसने की बात नहीं। मैंने जब से यह बात पढ़ी है तभी से सोच रहा हूँ कि भारतमाता गाँवों में ही क्यों रहती है! क्या वह कभी दिल्ली आयी ही नहीं, या दिल्ली की हवा रास न आने से वापस गाँवों में चली गयी है? और अगर भारतमाता राजधानी में नहीं रहती, तो जो यहाँ रहती है, वह कौन है? वह क्या भारत की सौतेली माँ है? वह जो बुड्ढा राजपूत है...,” और वह दीवार पर लगे पोस्टर की तरफ़ इशारा करता है, “उसकी माँ कहाँ रहती है? क्या वह अपने बेटे को कभी चिट्ठी नहीं लिखती कि मुझे अपने पास दिल्ली बुला लो? मेरी माँ की तो मेरे पास हर आठवें दिन चिट्ठी आती है...।” और वह उसी लहजे में बात किये जाता है। मेरी आँखें कुछ देर दीवार पर लगे पोस्टर पर टिकी रहती हैं। झाग जैसी दाढ़ीवाले बुड्ढे राजपूत का चेहरा और गरम कॉफ़ी की एक प्याली! साथ दिया हुआ शीर्षक 'यह सुन्दर कॉफ़ी और यह सुन्दर चेहरा दोनों भारतीय हैं।’ फिर मैं अपने शायर दोस्त के चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या यह सुन्दर चेहरा भी भारतीय नहीं?

कॉफ़ी-हाउस का शीशे का दरवाज़ा बार-बार खुलता और बन्द होता है। कुछ लोग इस तरह अन्दर आते हैं जैसे वहाँ किसी अभियुक्त की तलाश कर रहे हों। आकर दो-एक जगह ठिठककर चारों तरफ़ देखते हैं और जब कहीं से भी कोई परिचित हाथ हिलाता नज़र नहीं आता, तो निराश होकर लौट जाते हैं। सिगरेटों के धुएँ में चीनी की प्यालियों और काँच के गिलासों के रखने-उठाने की आवाज़ पृष्ठभूमि के संगीत की तरह चलती रहती है। हर नये व्यक्ति के आने के साथ कुरसियों की व्यवस्था बदल जाती है। इधर की कुरसियाँ उधर घिसट जाती हैं और उधर की कुरसियाँ कहीं और आगे चली जाती हैं। “मे आई...?” और बिना दूसरे की हाँ या ना की प्रतीक्षा किये कुरसी उठा ली जाती है। कहीं से एक क़हक़हा उठता है, कोई कुरसी सहसा अपनी कुरसी से आ टकराती है, कहीं चम्मच और छुरी-काँटे झनझनाते हैं, और कहीं कोई गिलास सहसा गिरकर टूट जाता है जिससे उफनते हुए शोर में पल-भर के लिए एक विराम आ जाता है।

'यह सुन्दर कॉफ़ी और सुन्दर चेहरा दोनों भारतीय हैं!’

शीशे का दरवाज़ा खुलता है और हरबंस नाक की सीध में देखता हुआ अन्दर दाख़िल होता है। वह दूर से ही थका हुआ और खोया-सा नज़र आता है। उसके आगे को झुके हुए कन्धे और कनपटियों के सफ़ेद बाल भी ये कहते-से लगते हैं कि हम परेशान हैं, हमसे बात मत करो। वह आसपास बैठे हुए लोगों पर एक उड़ती हुई नज़र डालकर एक केबिन में चला जाता है। मैं भी अपनी जगह से उठता हूँ और उसके पास उसके केबिन में चला जाता हूँ। थोड़ी देर में नीलिमा भी अरुण के साथ वहाँ आ जाती है। उसके साथ बम्बई के एक साप्ताहिक का विशेष प्रतिनिधि भुवन शर्मा भी है। नानावती कांड की रिपोर्टों के कारण उसकी बहुत ख्याति हुई है। वह दिल्ली में कुछ राजनीतिज्ञों के विशेष इंटरव्यू लेने के लिए आया है। उसे अपने पत्र में तीसरी पंचवर्षीय योजना पर विशेष लेख देना है। वह बहुत व्यस्त है, बड़ी मुश्किल से समय निकालकर आया है। हरबंस बताता है कि वह जिन दिनों लन्दन में था, उन दिनों भुवन भी वहीं था और उन लोगों की मित्रता वहीं से हुई है। वह उसे भुवनभाई कहकर बुलाता है। भुवनभाई एक संरक्षक की तरह बाँहें फैलाकर बात करता है।

“आज कोई भी काम असम्भव नहीं है।” वह कहता है, “सिर्फ़ दो चीज़ों की ज़रूरत है—एक टैक्ट की और दूसरे कांटैक्ट की। टैक्ट तुम इस्तेमाल करो, कांटैक्ट तुम जिससे चाहो, तुम्हारा मैं बना देता हूँ। और अगर तुम सोचो कि इन चीज़ों के बिना तुम लोग कुछ कर सकते हो, तो नामुमकिन बात है।”

“यह तो सरकस के अन्दर करतब करने की तरह है।” हरबंस कहता है, “कला का अपना कोई मूल्य नहीं, मूल्य है तो इस बात का कि आप कुछ साधन-सम्पन्न लोगों के इशारे पर चलते हैं या नहीं।”

“आज ज़िन्दगी का सारा ढाँचा ही इस तरह का है।” भुवनभाई की बाँहें और फैल जाती हैं, “इसमें हम और तुम क्या कर सकते हैं? आज वह ज़माना नहीं है जब योग्यता, मेहनत और ईमानदारी का कोई मूल्य था। आज की ज़िन्दगी में ये सब शब्द पुराने पड़ गये हैं। जिसके हाथ में साधन हैं, वह दूसरों को अपने ढंग से नचा सकता है। तब आपको उसके चाबुक का भी सम्मान करना होगा। आप चाबुक खाकर भी उसके आगे दुम हिला सकते हैं और उसके बताये हुए करतब कर सकते हैं, तो ठीक है। आपकी खुराक आपके लिए हाज़िर है। और अगर नहीं, तो आप भूखे रहिए। जंगल का रास्ता भी आपके लिए खुला नहीं है। यह कोई बरदाश्त नहीं करेगा कि आपके लिए जो पिंजरा बनाने में इतना ख़र्च किया गया है, आप अपनी मर$जी से उसमें से निकलकर चल दें। और अगर आप किसी तरह निकल भी जाएँ, तो जंगल में जाकर भी आपको पता चलेगा कि वहाँ की घास भी उन्हीं ठेकेदारों की ख़रीदी हुई है और आपको उसमें मुँह मारने का हक नहीं है। तब आप झख मारकर पिंजरे में लौट आएँगे और वही घास खाएँगे और वही करतब करेंगे। और कोई चारा ही नहीं है।”

हरबंस इस तरह गुर्राता है जैसे वह अपने सामने की घास को ठोकर मारना चाहता हो। “मैं इसीलिए इससे कहता हूँ कि यह घर में अभ्यास करती है, करती रहे।” वह कहता है, “मगर उसका प्रदर्शन करने के लिए यह मुझे इन सब झंझटों में क्यों घसीटना चाहती है? मैं यूरोप के दौरे में ही बहुत कुछ देख चुका हूँ। अब और देखना मेरी हिम्मत से बाहर की बात है।”

“इससे तो अच्छा है कि तुम कहो कि मैं हाथ-पैर बाँधकर कुएँ में जा पड़ूँ।” नीलिमा चिल्लाकर कहती है, “घर में अभ्यास करती रहूँ! और दीवारों पर लगी हुई गुडिय़ों और तसवीरों को दिखाती रहूँ! तुम यह जिस वजह से कहते हो, वह मैं जानती हूँ...।”

“मैं किसी वजह से नहीं कहता।” हरबंस उसी स्वर में उसका विरोध करता है, “मुझसे यह सरकस का खेल नहीं खेला जाता। आज इससे मिलो, कल उसकी पार्टी में जाओ। क्या हो रहा है? कांटैक्ट बन रहे हैं! किसलिए? कि हमें कोई अच्छा-सा ग्रुप स्पांसर कर दे, कि बड़ी-बड़ी जगहों पर हमारा ज़िक्र होने लगे, लोग हमें जानने लगें, और जब हमारा प्रदर्शन हो, तो वे वहाँ आकर वाहवाही करें; उनके पत्रों में हमारी प्रशंसा निकले, बड़े-बड़े घरों में हमारी दावतें हों। मैं इतने दिनों से कोशिश कर रहा हूँ, मगर मुझसे ये ची$जें निभती नहीं।”

“तो तुम कुछ मत करो। मुझे जो कुछ करना होगा, मैं आप कर लूँगी।” नीलिमा और तल्ख हो जाती है, “तुम मदद तो करोगे नहीं, मेरे रास्ते में रुकावटें ही डालोगे। मैं इतने दिनों से इसलिए अभ्यास नहीं कर रही कि घर का फ़र्श तोड़ती रहूँ।”

भुवनभाई मध्यस्थ की तरह हँसता है। “तुम लोग बच्चों की तरह आपस में लड़ते हो।” वह कहता है, “हरबंस यह बात भूल जाता है कि जो काम यह तुम्हारे लिए करने से कतराता है, वही काम इसे अपनी रो$जी के लिए करना पड़ता है। तो जहाँ दिन में चार बार नाक घिसानी पड़ती है, वहाँ दस बार सही। इससे नाक और मज़बूत ही होती है। क्यों भाई मधुसूदन?”

मैं तिरछे रास्ते से बात में से निकलने की कोशिश करता हूँ, “हो सकता है आप ठीक कहते हों। मुझे अभी आप जितना तजरबा नहीं है।”

“देखा, लोग बातचीत में भी कितनी सावधानी बरतते हैं?” भुवनभाई मेरे ऊपर पिल पड़ता है, “लोग आजकल दोस्तों में बैठकर भी इस तरह तौल-तौलकर बातें करतें हैं जैसे अदालत के कठघरे में खड़े होकर बयान दे रहे हों। जहाँ आपस में इतना सन्देह और विश्वास हो, वहाँ नाक को मज़बूत किये बिना काम कैसे चल सकता है? आपको जीना है और ठीक ढंग से जीना है, तो आपको बेशरमी का सबक पढऩा पड़ेगा। आपको अपना एक रैकेट बनाना पड़ेगा। अगर आपका कोई रैकेट नहीं है, तो समझ लीजिए कि आप बिना बुनियाद के खड़े हैं। जो चाहे आपको गिराकर आगे बढ़ सकता है। आप सफलता चाहते हैं, प्रसिद्धि चाहते हैं, पैसा चाहते हैं, तो अपना एक रैकेट बनाइए या नाक लम्बी करके किसी बड़े-से रैकेट में घुस जाइए। अगर आपका रैकेट मज़बूत है, तो लोग आपसे डरेंगे, आपकी इज़्ज़त करेंगे और आपके घटिया से घटिया काम में भी महत्ता के बीज खोज निकालेंगे। और आपका रैकेट नहीं है, तो आप चाहे जितनी कलाबाज़ियाँ दिखाइए, लोग उन्हें देखेंगे भी नहीं। और देखेंगे तो देखकर हँस देंगे। जो हँसेंगे नहीं, वे संरक्षकों की तरह आपको बताएँगे कि आपमें कहाँ क्या कमी है। वही काम जो इस समय मैं कर रहा हूँ...।” और वह हँसता है। नीलिमा भी हँसकर कहती है, “भुवनभाई बातें बहुत अच्छी करते हैं।”

“मैं सच बात कहता हूँ।” भुवनभाई कहता है, “तुम लोग आज नहीं तो कल समझोगे। मगर तब तक बा$जी तुम्हारे हाथ से निकल जाएगी और तुम सिर्फ़ मुँह देखने के लिए रह जाओगे। पिछले आठ-दस सालों में जितने लोगों का कुछ नाम हुआ है और जिनकी आज गिनती की जाती है, तुम उनमें से किसी एक को भी ले लो। हरएक का एक अपना रैकेट है। इनमें से कई रैकेट कुछ बड़ी-बड़ी संस्थाओं के हाथों में हैं। जिसका रैकेट जितना बड़ा है, वह आदमी भी उतना ही बड़ा है...। यह एक पुरानी कहावत है कि नहीं कि बड़े बनने के लिए बड़ों के क़दमों के निशान देखने चाहिए?”

एक व्यक्ति है जो इस बीच बिल्कुल गम्भीर बना रहता है—अरुण। वह चुपचाप अपना पनीर का सैंडविच चबाये जाता है। सहसा वह सैंडविच छोड़कर उठ खड़ा होता है। “ममी, मैं पान ले आऊँ?” वह कहता है, “अपने लिए भी लाऊँगा और बिनी के लिए भी।” और वह गर्व के साथ अपनी छोटी-सी जेब में हाथ डाले हुए बाहर चला जाता है।

कॉफ़ी-हाउस से निकलते हुए दरवाज़े के पास शुद्ध खादी का पाजामा-कुरता पहने एक युवक मेरा रास्ता रोक लेता है, “कहिए मधुसूदनजी, क्या हाल-चाल हैं?” वह बहुत शिष्टता के साथ कहता है।

मैं गौर से उसे देखता हूँ और सहसा मेरे मुँह से निकल पड़ता है, “अरे बत्रा, तुम? यह तुम्हारा कायाकल्प कैसे हो गया?”

“मैं आजकल राजनीतिक काम कर रहा हूँ।” वह उसी शिष्टता के साथ कहता है, “आप आजकल कहाँ हैं?”

“मैं 'न्यू हैरल्ड’ में हूँ। तुमने 'इरावती’ से काम छोड़ दिया?”

वह बहुत शिष्ट ढंग से मुसकराता है, “नहीं, वह पत्रिका अब मेरे ही पास है...।”

“तुम्हारे पास...?”

“मैंने डेढ़ साल हुआ वह पत्रिका बाल भास्कर से ख़रीद ली थी।”

“अच्छा?” मुझे विश्वास नहीं होता कि वह सच कह रहा है, “और बाल भास्कर आजकल क्या कर रहा है?”

“वह आजकल बड़े बिजनेस में है। ज़मीनों के ठेके लेकर कॉलोनियाँ बनवा रहा है।” और वह बाल भास्कर की बनवायी हुई दो-एक कॉलोनियों के नाम गिना देता है, “बहुत बड़े चक्कर में है वह...।”

“अच्छा...!” मैं चलने लगता हूँ, तो वह बहुत कोमल ढंग से मुझसे हाथ मिलाता है और कहता है, “कभी उधर आइएगा। आपका तो वह अपना ही कार्यालय है।”

“हाँ-हाँ, कभी ज़रूर आऊँगा...।”

“मुझे बहुत-बहुत $खुशी होगी।” और वह थोड़ा झुककर विदा लेता है और कुरते की आस्तीन ठीक करता हुआ अन्दर चला जाता है।

बाहर आने पर मुझे लेखकों, कवियों और आलोचकों की मंडली साइकिल स्टैंड के पास खड़ी मिलती है। वहाँ क्षण की अनुभूति और अनुभूति के क्षण को लेकर वाद-विवाद चल रहा है। कवि विनीत, जिसका प्यार का नाम बबुआ है, क्षण की सार्थकता पर भाषण दे रहा है। ब्रजेन्द्र खन्ना अपनी मोटर-साइकिल पर बैठा हुआ भी ज़मीन पर पैर रखकर रुका हुआ है।

“एक क्षण से दूसरे क्षण तक मेरा अवचेतन न जाने अनुभूति के किन-किन स्तरों पर से गुज़र जाता है।” विनीत कह रहा है, “और उसके एक-एक स्तर पर भी न जाने कितनी गहराइयाँ हैं! यदि मैं अपनी रचना में उनमें से किसी एक भी गहराई का ठीक से उद्घाटन कर पाता हूँ, तो मैं अपने प्रति भी ईमानदार हूँ और उस क्षण के प्रति भी, क्योंकि मैं किसी बाह्य प्रभाव से चालित नहीं हूँ। उससे अगले क्षण यदि मैं अनुभूति के किसी और स्तर पर हूँ जो मुझे पहले स्तर से विपरीत ले जाता है, तो मेरी ईमानदारी की माँग है कि मैं उसी स्तर से अपने को अभिव्यक्त करूँ, यदि मैं अपनी रचना में बाहर के प्रभावों से मुक्त नहीं रह पाता...।”

ब्रजेन्द्र खन्ना की मोटर साइकिल चल पड़ती है। कोई उससे पूछता है, “जा रहे हो?”

“मुझे भूख लग आयी है,” ब्रजेन्द्र कहता है और उसकी साइकिल सामने से आते हुए पैदल व्यक्ति को बचाकर आगे निकल जाती है। विनीत न जाने कब तक क्षण की सार्थकता की व्याख्या करता हुआ वहाँ खड़ा रहता है!

...और इस तरह खुली आँखों से देखा हुआ सपना समाप्त होने में ही नहीं आता था। बत्तियाँ उसी तरह जलती-बुझती रहतीं, सराय रुहेला स्टेशन से नयी-नयी गाडिय़ाँ गुज़रती जातीं और मैं कई-कई बार खिड़कियाँ बदलने के बाद उस सपने को आँखों में लिये हुए बिस्तर में लेट जाता। हर बीते हुए दिन के साथ सपना पहले से बड़ा हो जाता था, फिर भी मुझे लगता था कि जो कुछ मैं देखता हूँ, वह बहुत-बहुत अधूरा है। “यहाँ आओ मधुसूदन! यहाँ खड़े होकर ज़रा इस भीड़ को देखो...।” बस पर धक्कमधक्का करते हुए लोगों की गाली-गलौज, मद्रास होटल के पास के ग्राउंड में नवयुवती के साथ संदिग्ध स्थिति में पकड़े गये नवयुवक की भीड़ और पुलिस द्वारा मरम्मत, गेलार्ड के सामने बिकती हुई बेला और गुलाब की बेनियाँ, पुलिसमैन के डर से भागते हुए बूट-पॉलिश करनेवाले लड़के, थिएटर कम्यूनिकेशन्स बिल्ंिडग के सामने फुटपाथ पर पड़े हुए अपाहिज की कराह, भीड़ में खोये हुए अपने लड़के के लिए बिलखती हुई माँ, कुछ लड़कियों को होटलों के कमरे में ले जाती हुई डी.एल.ए. के ख़ास-ख़ास नम्बरों की गाडिय़ाँ, पंजाबी सूबे के नारे लगाता हुआ जुलूस, शराबियों की-सी चाल में कनॉट प्लेस में आड़ी-तिरछी होकर चलती हुई कारें, फैक्टरियों से काम करके लौटते हुए मज़दूर, दफ़्तरों से आते हुए बाबू, विदेशों से नाजायज़ तौर पर लाये गये माल को बेचते हुए लड़के, अख़बारों की सुर्खियाँ, कॉन्फ्रेंसें और भाषण, स्वागत और अभिनन्दन, इंटरव्यू और बयान, फ़ाइलें और फ़ीते, कला की प्रदर्शनियाँ, सौन्दर्य की खोज, मूल्यों की खोज, मौलिकता की खोज, मनुष्य की खोज, एक्सटेंशन लैक्चर्स, मैमोरियल लैक्चर्स, तारा-रा लारा-रा,...क्या सह सम्भव था कि इस पूरी भीड़ को तो क्या, इसके किसी एक हिस्से, किसी एक समूह या किसी एक व्यक्ति को ही खिड़की के पास खड़े होकर अच्छी तरह देखा जा सके?

अपने फ़ीचर के सिलसिले में मैं दफ़्तर के फ़ोटोग्राफ़र के साथ दरीबा में घूम रहा था।

पहले जब कभी मैं दरीबा के पास से गुज़रा था, तो इस ख़याल से नहीं गुज़रा था कि वह मेरे लिए एक फ़ीचर का विषय भी हो सकता है। शहर के जिस हिस्से में नादिरशाह के सिपाहियों ने सबसे ज़्यादा क़त्लेआम किया था, मैं कितनी ही बार बिना उसके ऐतिहासिक महत्त्व की ओर ध्यान दिये उस हिस्से से होकर निकल गया था। मगर उस समय मैं वहाँ ख़ास मतलब से आया था और मुझे वहाँ की हर छोटी से छोटी चीज़ को नोट करना था। पॉइंट एक—मोड़ के दोनों तरफ़ हलवाइयों की दुकानें हैं। पॉइंट दो—बाज़ार में दाख़िल होते ही दोनों तरफ़ जौहरियों की दुकानें हैं। पॉइंट तीन—पहले दायें हाथ को एक छोटी-सी गली है, फिर बायें हाथ को दो गलियाँ हैं। पॉइंट चार—बायें हाथ की गली का नाम कटरा मसरू है।

फ़ोटोग्राफ़र कुढ़ रहा था। ज्यों-ज्यों हम कटरा मसरू के अन्दर बढ़ते जाते थे, गली तंग होती जाती थी। आगे वह हिस्सा आ गया जहाँ एक के पीछे एक आदमी ही मुश्किल से गुज़र सकता था। गली पानी और कई-कई लेसीले द्रव्यों से इस तरह चिपचिपी हो रही थी कि एक-एक क़दम बहुत सँभालकर रखना पड़ता था। फ़ोटोग्राफ़र सुबह से भूखा-प्यासा गलियों के चक्कर काटता हुआ बुरी तरह तंग आ गया था। वह चाहता था कि जल्दी से दो-एक तसवीरें और ली जायें और वापस चला जाए। मगर मैं अपने फ़ीचर से सिर्फ़ तीन-चार इलाकों का वर्णन करके ही रह जाना चाहता था। मुझे जैसे भी हो, अपने सम्पादक की नज़रों में अपनी जगह बनानी थी और मैं अभी कम से कम तीन-चार इलाकों में और जाना चाहता था।

सारी गली एक बहुत बड़े उगालदान की तरह थी जहाँ बरसों का उगाल कई-कई तहों में जमा हुआ है। कैमरा से ली हुई कोई भी तसवीर क्या उसका सही चित्र प्रस्तुत कर सकती थी? लगता था जैसे गली का हर घर बरसों से क्षय रोग का मरीज़ हो और दुर्गन्ध और बच्चों और स्त्रियों के शोर के रूप में एक भयानक खाँसी उसके अन्दर से उठ रही हो। फ़ोटोग्राफ़र आगे नहीं जाना चाहता था, मगर मैं किसी तरह उसे रा$जी करके लिये जा रहा था। एक घर के अन्दर से एक स्त्री कूड़ा गली में फेंकने के लिए बाहर निकली, मगर हम लोगों को देखकर कूड़ा हाथ में लिये वैसे ही खड़ी रह गयी। उसके चेहरे की झाइयों को देखकर मुझे सहसा क़स्साबपुरा के घर की और ठकुराइन की याद हो आयी। स्त्री ने कूड़ा फेंक दिया और अन्दर चली गयी। इस बीच फ़ोटोग्राफ़र ने उसकी तसवीर ले ली थी। उसने शायद सोचा हो कि एकाध तसवीर और ले लेने से झंझट समाप्त हो जाएगा। फ़िल्म बाइंड करके उसने नाक पर रूमाल रखे हुए कहा, “इससे आगे चलने की मेरे अन्दर बिल्कुल हिम्मत नहीं है। आपको जाना हो, आप आगे हो आइए। मैं गली के बाहर आपका इन्तज़ार करूँगा।”

“मगर मैं तो यहाँ के बाद अभी और भी कुछ जगह जाना चाहता हूँ।” मैंने कहा, “अभी तो हमने कुछ भी मैटीरियल इकट्ठा नहीं किया। जहाँ-जहाँ हम गये हैं, वे सब तो अच्छी-खासी मध्य-वर्ग की बस्तियाँ हैं। एकाध ऐसे इलाके का और चक्कर लगाकर मैं चाहूँगा कि हम इससे निचले वर्ग के उन इलाकों में चलें जो कि वास्तव में स्लम्स के इलाके हैं।” मैं नहीं चाहता था कि सम्पादक को मेरे इस काम में भी दोष निकालने का मौका मिले। मैं उसकी व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहट देख-देखकर बेज़ार हो चुका था।

“मेरे अन्दर अब और हिम्मत नहीं है।” फ़ोटोग्राफ़र अड़ गया, “आपको भी जाने कैसा फ़ीचर लिखने की सूझी है!”

“तुम्हें पता है सम्पादक ने यह फ़ीचर ख़ास तौर पर लिखने के लिए कहा है?”

“उसके दिमाग़ में भी कोई न कोई फ़ितूर उठता रहता है।” फ़ोटोग्राफ़र अपनी जगह से एक क़दम नहीं चला। “उससे कहिए, कभी खुद भी आकर इन गलियों का चक्कर काट जाए। जिस किसी को उसे तंग करना होता है, उसे वह इस तरह का काम सौंप देता है। मैं उसे जानता नहीं? आप तो अभी साल-भर पहले आये हैं, मैं उसके साथ छ: साल से काम कर रहा हूँ। और यह सारा झंझट वह किसी के इलेक्शन के लिए करा रहा होगा। आपको अन्दर की बातों का अभी पता नहीं है।”

“ख़ैर, तसवीरें बहुत हो गयी हैं।” मैंने कहा, “तुम वापस जाना चाहो, तो जाओ। मगर मुझे फ़ीचर के लिए कुछ और मैटीरियल भी चाहिए। मैं कुछ देर और चक्कर लगाकर वापस आऊँगा। अगर दे सको, तो अपना छोटा कैमरा मुझे दे दो। ज़रूरत हुई तो एकाध तसवीर मैं खुद ले लूँगा।”

फ़ोटोग्राफ़र इस बुरी तरह उस काम से उकताया हुआ था कि उसने झट अपना छोटा कैमरा उतारकर मुझे दे दिया। “मैं पहले कहीं जाकर चाय की एक प्याली पिऊँगा।” उसने कहा, “मुझे डर लग रहा है कि कहीं मेरी तबीयत ज़्यादा न मितलाने लगे।”

उस गली से बाहर आकर जब फ़ोटोग्राफ़र चला गया, तो मैंने डायरी में कुछ नोट्स लिखे और सोचने लगा कि अब मुझे किस इलाके की तरफ़ चलना चाहिए। एक मन था कि पहाडग़ंज के पुल की तरफ़ जो टीन, चटाई और टाट के गले-सड़े घर हैं, एक चक्कर उनका लगा आऊँ। पुल पर से गुज़रते हुए वह पूरी की पूरी आबादी कूड़े के एक बड़े-से ढेर की तरह नज़र आती थी। मैं जानता था कि एक बार वहाँ चक्कर लगा आने का कुछ भी अर्थ नहीं है—बल्कि चक्कर लगाने का जो काम मैं कर रहा हूँ, उस सारे काम का ही कोई अर्थ नहीं है—फिर भी जितनी अच्छी सुर्खी मुझे उन घरों में जाकर मिल सकती थी, उतनी अपने अब तक के चक्कर में नहीं मिली थी। और मुझे एक अच्छी सुर्खी ज़रूर चाहिए थी। कुछ आकर्षक सब-टाइटल्स मैंने सोच लिये थे। मगर सुर्खी बहुत ज़रूरी थी ताकि सम्पादक को व्यंग्य-भरी नज़र के साथ मेरी तरफ़ देखने का अवसर न मिले। मगर मेरा दूसरा मन यह हो रहा था कि इतने बरसों के बाद कम से कम आज एक बार क़स्साबपुरा की उस गली में भी हो आऊँ जिसमें कभी मैं खुद रहता था। आख़िर व्यक्ति की माँग दूसरी माँग से ज़्यादा शक्तिशाली सिद्ध हुई और मैं चाँदनी चौक से स्कूटर लेकर सदर के चौक में आ उतरा। सोचा कि आज भी काठ बाज़ार से होता हुआ ही क़स्साबपुरा में जाऊँगा।

काठ बाज़ार में दाख़िल हुआ, तो वहाँ का बदला हुआ न$क्शा देखकर मुझे कम अचम्भा नहीं हुआ। यह जानते हुए भी कि वेश्यावृत्ति सरकारी तौर पर बन्द कर दी गयी है, मैंने उस बाज़ार को इतने बदले हुए रूप में देखने की कल्पना नहीं की थी। यह चौकोर अहाता अब अहाता न लगकर एक साधारण बाज़ार-सा ही लग रहा था जहाँ पहले के पिंजरानुमा कठघरों की जगह अब गल्ले और आढ़त की दुकानें खुली हुई थीं। सिर्फ़ कहीं-कहीं पुराने जाली और सींखचेदार दरवाज़े अब भी नज़र आ रहे थे, जो कि शायद गुज़रे हुए दिनों की बात अभी भूले नहीं थे। वरना उस बाज़ार को देखकर पहले के दिनों का कुछ अनुमान तक नहीं होता था।

काठ बाज़ार का रूप बिल्कुल बदला होने पर भी वहाँ आकर मेरी चाल कुछ तेज़ हो गयी थी। वह बाज़ार जितना बदल गया था, मेरे मन का संस्कार उतना नहीं बदला था। जब तक उस इलाके को पार करके मैं बस्ती हरफूल में नहीं पहुँच गया, तब तक मेरे मन में एक तनाव बना ही रहा। उस चौकोर अहाते में क्या उन दिनों गुजरे हुए मेरे क़दमों की एक आहट अभी बाकी थी? और उस आहट के अलावा सींखचों के पीछे से झाँकते हुए चेहरों की एक छाया भी? क्या समय की भी अपनी प्रतिध्वनियाँ नहीं होतीं जो उसके बीत जाने के बाद भी बनी रहती हैं?

बस्ती हरफूल में ज़िन्दगी लगभग उसी तरह थी—उतनी ही सुस्त और उतनी ही ठहरी हुई। वही दुकानें, वही ठेले, वैसे ही आते-जाते हुए लोग। क़स्साबपुरा की पहली गली के मोड़ पर एक भीड़ जमा थी, वैसी ही जैसी हमेशा गली में आनेवाले मदारियों के इर्द-गिर्द जमा हुआ करती थी। सिर्फ़ मदारी के तमाशे की जगह वहाँ उस समय एक तरह का मुजरा चल रहा था। एक तेरह-चौदह साल की लड़की अपनी हरी ओढऩी के दोनों छोर हाथों में लिये एक फ़िल्मी गीत गाती हुई नाच रही थी :

'हवा में उड़ता जाये,

मेरा लाल दुपट्टा मलमल का

जी मेरा लाल दुपट्टा मलमल का,

ओ जी, ओ जी...!’

उसके इर्द-गिर्द जमा भीड़ में कुछ लोग उसे पास बुलाने के लिए हाथों में चवन्नियाँ और अठन्नियाँ लिये थे। वह जिस किसी के नज़दीक जाती थी, वही उसका हाथ थाम लेना चाहता था। हारमोनियम बजानेवाला उस्ताद हारमोनियम में से आवा$जें पैदा करने के साथ-साथ आँखों से कुछ इशारे किये जाता था।

“दुनिया नहीं मानती बाबूजी।” मैं वहाँ से आगे चला तो मेरे साथ-साथ चलता हुआ एक अँगोछेवाला व्यक्ति मुझसे बोला। पहले वह भी मेरी तरह भीड़ के पीछे से एडिय़ाँ उठाकर मुजरा देख रहा था। “सरकार अपनी जगह होशियार है, तो ये लोग सरकार से ज़्यादा होशियार हैं। क्यों?”

मेरे क़दमों की रफ़्तार फिर कुछ तेज़ हो गयी। मैं उसे कुछ भी उत्तर न देकर अपनी गली के मोड़ पर पहुँच गया।

पानवाले की दुकान वहीं थी, सिर्फ़ वहाँ बैठनेवाला कोई और था। सब्$जीवाले खोमचे भी लगभग उसी तरह लगे थे। मुझे एक बार तो ऐसे लगा था जैसे मैं सुबह ही वहाँ से गया था और दोपहर होते-होते फिर वहाँ वापस आ गया हूँ। मगर गली में बढ़ते हुए मुझे लगने लगा कि वहाँ की भीड़ पहले से कुछ ज़्यादा हो गयी है। पहले दोपहर को वहाँ इतनी भीड़ नहीं होती थी। घरों और दरवाज़ों की पहचानी हुई सूरतें लगभग उसी तरह थीं—हाँ, उनकी खस्ताहाली पहले से थोड़ी बढ़ गयी थी। मगर गली में चलता हुआ वही नालियों का पानी था, वैसी ही आवा$जें थीं और वही बिना बरसात का कीचड़ था।

गली में आकर जहाँ घर और दरवाज़े मुझे बहुत परिचित और पहचाने हुए लग रहे थे, वहाँ गली की भीड़ में एक भी ऐसा चेहरा नज़र नहीं आ रहा था जिसे मैं पहचान सकता था। खोमचों पर बैठनेवाले प्राय: सभी लोग अब दूसरे थे—जैसे दस साल में उस मुहल्ले में एक पूरी पीढ़ी बीत चुकी थी और उसकी जगह उसके बाद की पीढ़ी ने ले ली थी। यह सोचकर मेरे मन में एक निराशा की लहर दौड़ गयी कि शायद अब ठकुराइन और उसका परिवार भी मुझे उस घर में नहीं मिलेगा; मैं वहाँ का दरवाज़ा खटखटाऊँगा तो कोई और ही किरायेदार उस दरवाज़े से बाहर झाँककर देखेगा और उसे शायद यह पता ही नहीं होगा कि कभी सरस्वती ठकुराइन नाम की कोई स्त्री भी वहाँ अपने पति और लड़की के साथ रहती थी। घर के पास पहुँचते ही सबसे पहले मेरी नज़र बाहर लगी हुई त$ख्ती पर पड़ी। उसका नीचे का आधा हिस्सा जाने टूटकर गिर गया था या ऐसे ही धीरे-धीरे झड़ गया था। जितना हिस्सा बाकी था, वह अपनी जंग खायी कील के सहारे किसी तरह झूल रहा था। अब उस पर लिखे हुए नाम में से इबादत और अली, दोनों बिल्कुल गायब हो गये थे; इसका एक हल्का आभास मात्र रह गया था कि उस त$ख्ती पर कभी कोई नाम भी था। बाहर की जिस कोठरी में मैं और अरविन्द रहा करते थे, उसकी दहलीज़ पर एक बूढ़ी-सी औरत बैठी थी। उसे देखते ही मेरे क़दम सहसा लौटने को हो गये। मगर एक बार कोठरी को अन्दर से देखने का मोह मुझसे नहीं रोका गया और मैंने उस औरत के पास जाकर पूछ लिया कि वहाँ पहले जो एक ठाकुर साहब रहते थे, वे आजकल कहाँ हैं। वह औरत पल-भर ध्यान से मेरे चेहरे को देखती रही और फिर सहसा बोली, “अरे लाला, तुम हो? अपनी भाभी को पहचाना नहीं क्या?” और यह कहती हुई वह दहलीज़ से गली में उतर आयी।

“भाभी!” मेरी छाती में कोई चीज़ अटक गयी, “तुम एकदम इतनी कैसे बदल गयीं? मैं तो सचमुच तुम्हें पहचान ही नहीं सका।”

“आओ, अन्दर तो चलो।” ठकुराइन बोली, “भाभी के घर को तो तुम एक बार जाने के बाद फिर भूल ही गये। मैं तो सोचती थी कि तुम कहीं विलायत-इलायत चले गये होगे। इतने बरसों में कभी भाभी को पाँच नये पैसे की चिट्ठी भी नहीं डाली?”

मैंने कोठरी में क़दम रखा, तो वह भी मुझे ठकुराइन के चेहरे की तरह ही बदली हुई लगी। उसका पलस्तर इतनी जगह से उतर चुका था कि जो दो-चार टुकड़े बचे थे वे बहुत अस्वाभाविक रूप से वहाँ चिपकाये गये से लगते थे। छत की कडिय़ाँ बिल्कुल स्याह पड़ चुकी थीं। दीवारों पर जगह-जगह गेरू से स्वस्तिक बने थे और राम नाम लिखा था। दोनों कोठरियों के बीच का दरवाज़ा चौखट समेत बाहर को झूल आया था। सारी कोठरी में एक इस तरह की गन्ध फैली थी जैसी पुराने कपड़ों के ढेर में से आती है। एक चीज़ जो उस कोठरी को फिर भी बहुत परिचित बना रही थी, वह थी ऊपर से आती हुई स्त्रियों के लडऩे की आवाज़। मुझे लगा जैसे दस साल से वह लड़ाई लगातार उसी तरह चल रही हो और अभी तक उसका फ़ैसला न हुआ हो।

“दिल्ली कब आये हो?” ठकुराइन ने पूछा।

मुझे यह बताते हुए संकोच हुआ कि मुझे यहाँ आये एक साल हो गया है। “अभी थोड़े ही दिन हुए आया हूँ।” मैंने कहा, “मैंने फिर यहीं नौकरी कर ली है।”

“अच्छा!” ठकुराइन ने जाने कहाँ से निकालकर एक पुराना स्याह पड़ा हुआ मोढ़ा मेरे बैठने के लिए रख दिया और कहा, “बैठो। हमारे लिए तो यही बहुत है कि तुम्हें हम गरीबों की याद तो आयी। इस बार कहाँ घर लिया है?”

“करोल बाग के पास एक जगह कमरा ले रखा है।”

“हाँ भैया, अब तुम भाभी के पास इस तरह के कबाडख़ाने में थोड़े ही रहोगे। तब भाभी के दिन फिर भी अच्छे थे, अब तो भाभी का भाग ऐसा उलटा है कि बस...!”

“नहीं भाभी, आजकल मेरा दफ़्तर उस तरफ़ है न...।” मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उससे क्या कहूँ। ठकुराइन की आवाज़ में भी पहले से कुछ फ़र्क़ आ गया था, जैसे उसके गले के सुरों में से दो-एक सुर टूट गये हों। मैं लगातार उसके चेहरे की तरफ़ देख रहा था कि ठकुराइन इस अरसे में सचमुच बुड्ढी हो गयी है या मुद्दत के बाद देखने से मेरी आँखों को ही ऐसा लग रहा है।

“ठाकुर साहब तो आजकल भी उसी दफ़्तर में काम करते हैं न?” मैंने पूछा।

ठकुराइन की बुढिय़ायी हुई आँखें पल-भर के लिए मिची-मिची-सी हो रहीं और उसने कहा, “तुम्हारे भैया तो लाला दूसरे ही दफ़्तर में चले गये। वो होते तो तुम भाभी की आज यह हालत देखते? अब तो तुम्हारी भाभी को कोई पानी पूछनेवाला भी नहीं है।” और उसकी आँखें छलछला आयीं। उन्हें अपनी फटी हुई धोती के पल्ले से पोंछकर वह छत की तरफ़ देखती हुई बोली, “जिस मुये की आयी थी, वह तो मरा नहीं और जिसे जाने अभी कितने बरस जीना था, वह चलता हुआ।” और वह विस्तार के साथ बताने लगी कि मियाँ इबादत अली उन दिनों बहुत बीमार था। सारी-सारी रात उसे बुरी तरह खाँसी आती थी। हकीम ने कह दिया था कि वह अब दो-चार दिन से ज़्यादा नहीं बचेगा। एक रात को उसकी हालत बहुत ख़राब हो गयी। लोगों का ख़याल था कि सुबह होने से पहले ही वह चल बसेगा। मजीद और कई दूसरे लोग रात-भर उसके पास बैठे रहे। उन्होंने एक मौलवी को भी बुला लिया जो रात-भर मियाँ के सिरहाने बैठकर क़लमा पढ़ता रहा। उन्होंने उसे दफ़नाने ले जाने के लिए इन्तज़ाम भी कर लिया था।

“मगर जाने लाला, उस मौलवी ने क़लमा पढ़कर क्या जादू किया कि दिन भी चढ़ गया, रात भी हो गयी, मगर वह मरदूद फिर भी साँस लेता रहा। उसी रात तुम्हारे भैया को दमे का दौरा पड़ गया। शिकायत तो उन्हें पहले से थी मगर दौरा पड़ता भी था और ठीक भी हो जाता था। मगर उस दिन जो वार हुआ, वह ऐसा कि कहे कि मैं तुम्हारी जान ही लेकर छोड़ूँगा। सो चार-पाँच दिन में मियाँ तो भला-चंगा होकर बैठ गया और तुम्हारे भैया हमें छोड़कर चलते हुए। आज तो उन्हें गुज़रे भी तीन साल हो गये और मियाँ आज भी भला-चंगा उसी तरह खाता-पीता है। मैं जब भी उसे देखती हूँ, तो मेरी छाती पर साँप लोट जाता है। मन करता है कि मुये की लकड़ी छीनकर मुये को गली में धक्का दे दूँ। अपनी आयी मेरे घर भेजकर मुये ने मेरा घर तो मसान कर दिया और आप पाव-भर गोश्त रोज खाने के लिए आज भी बचा हुआ है। मेरा बस हो तो मैं तो किसी दिन ऊपर जाकर मुये की सितार उठा लाऊँ और उससे अपना एक बखत का चूल्हा जलाऊँ।”

ठकुराइन की बात सुनते हुए मुझे उस दिन की घटना याद आ रही थी जिस दिन मैं इबादत अली के पास बैठकर सितार सुनने के इरादे से अन्दर गया था और मैंने पहली बार उस टूटे-फूटे सितार को देखा था जिसमें से मियाँ की उँगलियाँ जाने कैसे वे तीव्र और कोमल स्वर पैदा कर लेती थीं जो मेरी उनींदी आँखों में नींद भर देते थे। उस दिन के साथ मेरे मन में एक और याद भी जुड़ी हुई थी—फटी हुई शेरवानी सीती हुई खुरशीद की आँखों में भरी हुई उपेक्षा और भत्र्सना की याद! उस लड़की के मन में प्रतिशोध की कितनी प्रबल भावना थी!

“मियाँ की वह एक लड़की थी न खुरशीद!” मैंने ठकुराइन से कहा, “उसकी मियाँ ने शादी-आदी कर दी या अब भी वह उसके पास ही रहती है?” और यह कहते हुए मुझे लगा कि वह लड़की अभी-अभी दरवाज़ा खोलकर कॉपी हाथ में लिये वहाँ आ जाएगी और कहेगी, “माईजी, आज पहली तारीख़ है, किराया दे दीजिए।”

“अरे लाला, उस लड़की के लच्छन क्या तुम्हें शादी कराने के दीखते थे?” ठकुराइन उसी ताव में बोली, “उसकी चाल-ढाल उन दिनों तुम देखते नहीं थे क्या? भूखी बाघनी की तरह हर मरद को घूरती रहती थी। हम तो तभी कहती थीं कि एक न एक दिन यह लड़की कोई गुल खिलाकर रहेगी। सो वही बात हुई। जब सिर पर माँ न हो, और बाप होकर भी न होने के बराबर हो, तो ऐसी लड़की जो न करे वह थोड़ा है। उसे लेकर घर में वह लंका-कांड हुआ कि तुम्हें क्या बताऊँ!”

और यह कहते-कहते ठकुराइन सहसा उठ खड़ी हुई, “तुम भी कहोगे लाला कि इतने बरसों में भाभी के घर आया तो घर आने पर उसने चाय की भी नहीं पूछी। मैं निम्मा को भेजती हूँ कि जाकर दो पैसे का दूध ले आये। तुम्हारी भाभी की आज जुगत ही इतनी है, नहीं तो तुम्हारे आने पर जाने तुम्हारी क्या-क्या खातिर करती!”

“मगर भाभी...,” मैं कुछ कहने को हुआ, तो ठकुराइन ने बीच में ही टोक दिया, “ना लाला, मैं तुम्हारे मुँह से ना नहीं सुनूँगी। तुम्हारी भाभी ग़रीब है, तो क्या तुम्हें दो पैसे की चाय भी नहीं पिला सकती? तुम्हें सौगन्ध लगे, अगर तुम मना करो तो!”

और वह झूलते हुए चौखट को पार करके अन्दर की कोठरी में चली गयी और कुछ ही देर में गिलास लिये और निम्मा की बाँह पकड़े बाहर आ गयी। निम्मा हँस भी रही थी और संकोच से अपनी बाँह भी छुड़ा रही थी।

“देखो लाला, पहचानते हो इसे?” ठकुराइन आकर मुझसे बोली, “जब तुम यहाँ रहते थे, तो यह इतनी-सी थी। अब देखो, कितनी बड़ी हो गयी है। लड़की और अनार का पेड़, इन्हें बढऩे में कितनी देर लगती है!” निम्मा ने एक उड़ती हुई नज़र मेरे चेहरे पर डाली, जल्दी से हाथ जोड़े और माँ के हाथ से गिलास लेकर गली में उतर गयी। ठकुराइन ने अपनी जगह पर आकर कहा, “कितनी सयानी लगने लगी है!”

“हाँ, मैं तो इसे पहचान ही नहीं सका।” मैंने कहा, “उन दिनों तो यह मिट्टी खाया करती थी और गली में खेला करती थी।”

“अब तो भैया मुझे इसी की चिन्ता खाये जाती है।” ठकुराइन के चेहरे की झुर्रियाँ गहरी हो गयीं, “वो आप तो रहे नहीं कि कहीं देखभाल करके इसकी शादी कर देते। मेरे पास जो तिनका-पत्ता था वह उनके बाद हम दोनों जनी खा-पी गयीं। अब तो रामजी का ही भरोसा है। हम दोनों जनी चार घरों में जाकर बरतन मलती हैं, तो रोटी का टुकड़ा मुँह में जाता है। इतनी बड़ी मूरत को लोगों के घरों में भेजते मेरे मन में हौल उठता है। तुम जानते ही हो आजकल ज़माना कैसा आ रहा है। अपने सगों का भरोसा नहीं, दूसरों की तो बात ही क्या है!”

मेरी आँखें पल-भर के लिए नीचे झुकी रहीं। कहीं ठकुराइन का इशारा दस साल पहले की उस घटना की ओर तो नहीं था जिसकी वजह से मैं यह घर छोड़कर चला गया था? मगर ठकुराइन के चेहरे पर या बात के लहजे में कहीं शिकायत का भाव नहीं था।

“घर में जवान लड़की तो भैया काँच की इमारत होती है।” वह फिर बोली, “इसे टूटते कितनीे देर लगती है? कोई एक बात भी कह दे, तो माँ-बाप का मरना हो जाता है। मैं इसीलिए अब आगे की कोठरी में कोई किरायेदार भी नहीं रखती। एक को साधु-महात्मा समझकर रख लिया था, तो वह भी एक मुस्टंडा निकला। ये देखो, दीवारों पर उसी महात्मा ने अपना चरित्तर लिख रखा है। सवेरे-शाम राम नाम का जाप करता था और धूनी रमाता था। मैं सोचती थी घर में इतना धरम-करम होता है, तो उसका कुछ फल हमें भी मिलेगा। मैं क्या जानती थी कि फल मिलेगा तो ऐसा कि बस याद रहे। ऊपर से तो धरम-करम और अन्दर से मुये का दिल भी धूनी की लकड़ी की तरह काला! मुआ लड़की को रात-दिन बेटी-बेटी कहता था और दोनों टेम धूनी की राख इसके माथे पर लगाता था। मगर एक दिन उसने वह करनी की कि ठाकुर साहब होते, तो जूते मार-मारकर मुये की चमड़ी उधेड़ देते। पहले लड़की के माथे पर राख लगायी और फिर उसके मुँह को पकड़ लिया और उसकी बाँह खींचने लगा। लड़की बाँह छुड़ाकर भागती हुई मेरे पास आयी और कहने लगी कि अम्माँ, इस बाबाजी को आज ही घर से निकाल दो। मैं सारी बात समझ गयी। मैंने कहा कि शोर मचाऊँगी, तो अपनी लड़की पर ही बात आएगी। इसलिए मैंने ऊपर से तो चुप साध रखी मगर उस मुये से उसी बखत कह दिया कि हमारे घर के लोग बाहर से आनेवाले हैं, इसलिए दिन चढ़ते ही अपना बोरिया लेकर यहाँ से चला जाए। मुये को डर था कि यहाँ रहा, तो जूते ही न खाने पड़ें, इसलिए उसने ज़रा चूँचरा नहीं की और दूसरे दिन सवेरे ही यहाँ से चला गया।”

मैंने फिर ठकुराइन की आँखों में देखा कि वहाँ कोई पुराना शिकवा या व्यंग्य का भाव तो नहीं है। यह भी सोचा कि क्या आनेवाले दस साल में उसे साधु महाराज की घटना भी भूल जाएगी और वह उसे भी मेरी तरह चाय पीने को कह सकेगी? या कि वह अपने साथ हुई घटना को क्षमा कर सकती थी मगर अपनी लड़की के साथ हुई घटना को नहीं...?

“ठाकुर साहब के उठ जाने का मुझे सचमुच ही बहुत अफ़सोस है।” मैंने अपनी शर्मिन्दगी को छिपाने की चेष्टा करते हुए कहा। “मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि इतनी जल्दी ऐसी घटना हो जाएगी। उनकी अभी उम्र ही क्या थी! वे रहते, तो तुम्हें इस तरह की चिन्ता क्यों करनी पड़ती?” मगर यह कहते हुए भी मैं देख यही रहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि ठकुराइन को दस साल पहले की घटना भी याद है और वह केवल शिष्टाचार रखने के लिए ही उस भाव को दबाये हुए है।

“वो रहते, तो कोई लड़की की तरफ़ आँख उठाकर भी देख सकता था?” वह बोली, “वो उसकी आँख न निकालकर रख देते?”

मेरी शर्मिन्दगी बढ़ती जा रही थी और मैं सोच रहा था कि कहीं ठकुराइन यह सब बात मुझी को सुनाने के लिए तो नहीं कह रही? कहीं आज भी उसे मुझसे डर तो नहीं लग रहा और वह इन बातों से मेरे मन में एक डर ही तो नहीं बिठाना चाहती? ठकुराइन ने शायद मेरे मन के असमंजस को भाँप लिया, क्योंकि उसने कहा, “उन दिनों तुम लोग पास में रहते थे, तो मुझे भी कोई खटका नहीं था। देवर-भौजाई में सौ-सौ बातें कह-सुन ली जाती हैं, मगर बखत पडऩे पर तुम लोग किसी को भाभी या भाभी की लड़की की तरफ़ आँख उठाकर देखने देते? मगर अब तो भैया दुनिया ऐसी खाली हुई है कि अपना कहने को कोई नज़र ही नहीं आता। मैं रात-दिन भगवान से यही मनाती हूँ कि तू किसी तरह इस लड़की का बेड़ा पार लगा दे, फिर चाहे तू मुझे मौत ले आना। जब तक इस इमारत का कोई रखवाला नहीं मिल जाता, तब तक मैं मरना नहीं चाहती। अगले लोक में जाकर ठाकुर साहब से क्या कहूँगी कि लड़की को ऐसे ही हवा-पानी के भरोसे छोड़ आयी हूँ? उस कलमुँही खुरशीद की बात सोचकर जान और मुँह को आती है।”

खुरशीद की बात ठकुराइन ने तब भी बीच में ही छोड़ दी थी और मेरे मन में उस बात को सुनने की उत्सुकता बनी हुई थी। “उस लड़की की तुम क्या बात कह रही थीं?” मैंने कहा, “कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी थी क्या?”

“उसकी बात तुम क्या पूछते हो, भैया!” ठकुराइन की आँखें ऐसी हो गयीं जैसे वह अपने सामने एक भयानक दृश्य देख रही हो, “वह कोई बात जैसी बात थी?” उस दृश्य की याद उसके चेहरे पर एक छाया-सी ले आयी थी। उसकी आवाज़ बहुत धीमी हो गयी और वह ज़रा पास को सरक आयी, “पहले दो-तीन महीने तो किसी को पता नहीं चला। मगर हमें कुछ शक ज़रूर हो गया कि क्या बात है जो अब पहले की तरह दबंग होकर किराया नहीं माँगती, बहुत धीरे-से आकर कहती है। एक बार किराया लेने आयी तो गोपाल की माँ को लग गया कि क्या बात है। तुम जानो हम लोग तो चिडिय़ा की भी चाल पहचानती हैं। बात मरदों के कान में पहुँची, तो उन्होंने जाकर मियाँ को पकड़ा। इस पर यहाँ वह बखेड़ा हुआ, वह बखेड़ा हुआ कि तुम्हें क्या बताऊँ! मरदों ने मियाँ से कह दिया कि या तो लड़की को इसका वह जो है, उसके पास भेज दो या घर खाली करके चले जाओ। मगर तुम जानो यह मियाँ मरदूद ऐसे जानेवाला है? जो पाकिस्तान से जायदाद के लिए यहाँ आ गया, वह लोगों के कहने से घर छोड़ देगा? कहने लगा कि मेरी लड़की को कुछ नहीं है; और अगर हो भी तो आप लोगों को दख़ल देने का कोई हक़ नहीं है। मैं न तो अपनी लड़की को छोड़ सकता हूँ और न ही अपना घर छोड़कर जा सकता हूँ। निकलेगी, तो इस घर से मेरी लाश ही निकलेगी। उस दिन मरदों ने इसके साथ वह बुरी की कि क्या बताऊँ! आगे-पीछे की सब कसर निकाल ली। बन्तासिंह ने तो इसकी दाढ़ी तक नोच ली, मगर वह अपने हठ पर अड़ा रहा कि चाहे जो हो जाए, मैं न लड़की को भेजूँगा, और न घर ही छोड़कर कहीं जाऊँगा।”

“अच्छा!” उस स्थिति की कल्पना से मेरे रोंगटे खड़े हो गये।

“एक दिन तो इसी चीं-चीं में-में में निकल गया। मरदों ने उससे कह दिया कि सुबह तक तुमने कुछ न किया, तो हमें तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती करनी पड़ेगी। हम अपनी बेटियों और बहुओं के बीच ऐसी लड़की को नहीं रहने दे सकते। हम लोग बहुत डर रही थीं कि कहीं इससे खार खाकर साथ की गली के मुसलमान दंगा ही न शुरू कर दें। रात को हम लोगों को ठीक से नींद भी नहीं आयी। मैंने अपने सब दरवाज़े अन्दर से बन्द रखे। मगर सवेरे उठते ही पता चला कि वह लड़की रातों-रात जाने कहाँ चली गयी है। बाप को भी बताकर नहीं गयी। वह दिन-भर माथा पीट-पीटकर रोता रहा। कोई कहता था कि जमुना में कूद मरी है। कोई कहता था कि अपने उसी के साथ भागकर पाकिस्तान चली गयी है। कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। मगर चली गयी, इसी से हमने शुक्र किया कि बला टली। नहीं जाने यहाँ क्या-क्या हो जाता और किस-किसकी जान जाती!”

“उसके जाने के बाद मियाँ ने उसके बारे में पूछताछ नहीं की?”

“वह कई दिन अपनी कोठरी से बाहर ही नहीं निकला। वहीं पड़ा रहा और रोता रहा। हमको तरस भी बहुत आता था कि राँड को जाना ही था तो बाप को भी साथ ले जाती। इस बुढ़ापे में उसकी रोटी बनानेवाला भी कौन है जिसके भरोसे उसे छोड़ गयी? उसके बाद तो मियाँ को ऐसा लकवा मार गया कि न उठे-बैठे, न खाये-पिये और न कभी सितार बजाये। अब थोड़े दिनों से फिर रात को अपनी टुन-टुन करने लगा है। रोटी कसाइयों के ढाबे में जाकर खाता है। कई बार तो सारी-सारी रात सितार बजाने में लगा रहता है जैसे अपने साथ दूसरों की नींद से भी दुश्मनी हो। मगर अब कोई उससे कुछ कहता नहीं है। वह भी इस घर में किसी से बात नहीं करता। सिर्फ़ महीने में एक बार किराये की कॉपी लेकर सबके दरवाज़े पर आ खड़ा होता है। किराया तो मैं कहती हूँ कि जिस दिन वह मरेगा, उस दिन भी लोगों से इकट्ठा करके साथ अपनी क़ब्र में ले जाएगा। मुआ और सब कुछ छोड़ देगा, मगर किराये की उगाही नहीं छोड़ेगा।...अच्छा भैया, एक बात बताओ, जब यह मर जाएगा, तो इस मकान के किराये की वसूली का क्या होगा? यहाँ की मलकियत हम लोगों की हो जाएगी, या सरकार फिर भी हमसे किराया लिया करेगी? मेरे सिर पर तो पहले ही छ: महीने का किराया चढ़ा हुआ है। ठाकुर साहब के बाद से हम दो बख़त रोटी मुश्किल से खाती हैं, किराया कहाँ से दें? मुये ने अपनी आयी मेरे घर भेज दी, मेरे लिए तो वह भूत के समान है। जिस दिन मरेगा, उस दिन मैं पाँच पैसे का परसाद चढ़ाऊँगी।”

कोठरी में दोपहर भी शाम की तरह उदास और भारी लग रही थी। वहाँ की हर चीज़ वीरान और उजड़ी हुई-सी हो रही थी। उस कोठरी में पहले ऐसा क्या था जो अब नहीं रहा था? न जाने क्यों मुझे वह पहले से कहीं ज़्यादा ख़ाली और अकेली महसूस हो रही थी।

निम्मा दूध का गिलास लिये हुए आ गयी। धूप से उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। उसकी कमीज़ के आधे बटन खुले थे। इतनी बड़ी होकर भी उसे शरीर का होश रखना नहीं आया था। ठकुराइन ने गिलास उसके हाथ से लेकर उसे अपने पास बिठा लिया।

“मरी, तू इन्हें पहचानती नहीं?”

निम्मा मुँह खोलकर मुसकरायी और उसने सिर हिला दिया।

“हाँ, पहचानोगी कैसे नहीं?” ठकुराइन बोली, “तुम्हीं भैया हमें भूल जाओ तो भूल जाओ। हम लोग थोड़े ही तुम्हें भूल सकती हैं? यहाँ से जाकर न तो तुमने चिट्ठी लिखी, न ही अरविन्द भैया ने लिखी। तुम लोग तो भैया विलायतवालों से जान-पहचान रखोगे, हम लोगों की याद भी तुम्हें कैसे आ सकती है?”

निम्मा खोजती हुई-सी आँखों से मेरे चेहरे की तरफ़ देख रही थी। वह शायद समझना चाहती थी कि विलायतवालों से जान-पहचान रखनेवाला व्यक्ति कैसा होता है।

“तू इनके लिए चाय बनाकर लाएगी कि मैं जाऊँ?” ठकुराइन ने उससे कहा, तो वह तुरन्त उठ खड़ी हुई, “मैं बनाकर ला रही हूँ।” उसने कहा और गिलास लिये हुए वहाँ से चली गयी।

“उन दिनों गुडिय़ों-पटोलों से खेलती थी और...अब देखो कितनी होशियार हो गयी है।” ठकुराइन एक उसाँस में बोली, “वैसे अभी सोलह की हुई है मगर लगता है जैसे अठारह-बीस को छू रही हो। भैया, तुम्हारी तो इतनी जान-पहचान है, तुम इसके लिए कोई लड़का नहीं बता सकते? मैं तुम्हारा ज़िन्दगी-भर अहसान मानूँगी। यही सोचकर कि बिना बाप की लड़की है, तुम इसके लिए कुछ खोज-ख़बर करो। कोई सत्तर-अस्सी कमानेवाला लड़का हो जिसे लेन-देन का लोभ न हो, तो मैं इसके हाथ पीले करके निश्चिन्त हो जाऊँ। यह ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, मेरी जान घटती जाती है। तुम्हारे पास तो सैकड़ों काम करते होंगे। उनमें कोई अच्छा लड़का तुम्हारी नज़र में हो, तो उससे बात करो। मुझे जात-पाँत का भी कोई विचार नहीं। ये विचार अब रहे ही कहाँ हैं? कहना, मेरे अपने रिश्ते में ही एक लड़की है...।”

“मैं पता करूँगा।” मैंने कहा, यह जानते हुए भी कि मैं सिर्फ़ टाल रहा हूँ और आज के बाद दूसरी बार शायद मैं इस तरफ़ आऊँगा भी नहीं। मगर ठकुराइन इतने से ही काफ़ी आश्वस्त हो गयी। झूठ का सहारा भी आखिर सहारा तो होता ही है।

“ज़रूर पता करना भैया!” ठकुराइन थोड़ा और पास को सरक आयी, “लड़का लड़की को देखकर हाँ करना चाहे, तो मैं दिखा भी दूँगी। आजकल की जो रीति है, वही तो हमें करनी पड़ेगी। तुम जानो आजकल लड़के लड़की देखे बगैर शादी नहीं करते। लड़की देखने में तो ठीक ही लगती है। नहीं?”

“मैं पता करूँगा।” मैंने फिर वही बात कह दी।

“हाँ, भैया, तुम इसका काम ज़रूर करा दो। मैं तुम्हारे पाँव पकडऩे को तैयार हूँ।” ठकुराइन सचमुच पाँव पकडऩे लगी, तो मैंने उसे हाथ से पकड़कर रोक दिया।

“न-न भाभी, यह तुम क्या कर रही हो? मैंने कहा है कि मैं ज़रूर पता करूँगा।”

ठकुराइन कुछ देर चुप रहकर मुझे देखती रही। उसकी आँखें भर आयी थीं—जाने स्नेह या आभार से!

“कोई लड़का है तुम्हारी नज़र में?” उसने पूछा।

“नहीं, है तो नहीं, मगर पता तो किया जा सकता है।” मैंने कहा।

वह कुछ देर न जाने क्या सोचती रही। फिर बोली, “तुम अपने लिए कोई मेम ले आये कि नहीं?”

“नहीं, अभी नहीं।” मैंने एक खोखली हँसी के साथ कहा, “कोई मेम मुझे पसन्द ही नहीं करती।”

“हाँ पसन्द नहीं करती!” ठकुराइन अपने हाथ को झटककर बोली, “झूठे कहीं के! मेरी कोई मेम वाकिफ़ नहीं, नहीं मैं तो कल ही तुम्हारा उससे ब्याह करा दूँ।”

“अरविन्द मेरे जाने के बाद कितने दिन यहाँ रहा था?” मैंने चाहा कि यह शादी-ब्याह का विषय किसी तरह बदल जाए।

“तुम्हारे जाने के छ: महीने बाद वे भी यहाँ से चले गये थे।” ठकुराइन बोली, “और तुम्हारी तरह उन्होंने भी जाकर फिर कभी सुध नहीं ली कि हम लोग जीते हैं या मर-खप गये।” और उसके बाद ही वह तुरन्त पहले प्रकरण पर लौट आयी, “अब साल-छ: महीने में तुम इस लड़की का कुछ करा दो, फिर चाहे मैं मर-खप भी जाऊँ। यह सातवीं तक पढ़ी थी, आगे मैं इसे नहीं पढ़ा सकी। अगर इस तरह कोई न मिले, और तुम ठीक समझो, तो मैं इसे फिर स्कूल में दाख़िल करा दूँ और ग्यारहवीं करा दूँ। अब तो सुना है दसवीं की ग्यारहवीं होने लगी है। मुए ग़रीबों का एक साल और ख़राब करते हैं, और क्या?”

मैंने फिर चेष्टा की कि बात उस प्रकरण से हट जाए मगर ठकुराइन लड़की के बारे में मुझे पूरी जानकारी देती रही। लड़की बहुत होशियार है। सब काम बहुत समझदारी से करती है। गली में चलती है, तो आँखें नीचे करके। कभी किसी की तरफ़ देखती भी नहीं। थोड़ी-बहुत कढ़ाई भी कर लेती है, पढ़ती थी तो अपनी क्लास में दूसरी-तीसरी आया करती थी।

“भैया, तुम कभी-कभी आ जाया करो।” इसके अलावा वह मुझसे अनुरोध करती रही, “मुझे हौसला रहेगा कि मेरा भी दुनिया में कोई अपना है। तुम्हें लड़के की तसल्ली हो जाए, तो तुम्हीं मेरी तरफ़ से हाँ कर देना। लड़के को चाहे कभी अपने साथ ही ले आना। वह आप ही देख लेगा कि लड़की में क्या-क्या गुण हैं। वह और कोई चीज़ सिखाने को कहे तो मैं वह इसे सिखा दूँगी। मैं कहती हूँ बस किसी तरह इसका पार लग जाए।”

निम्मा चाय ले आयी। उसका चेहरा पहले से लाल हो रहा था। वह चाय का गिलास मेरे सामने रखकर जल्दी से वापस लौट गयी। ठकुराइन हँसने लगी।

“मरी ब्याह की बात से ही शरमाने लगी।” वह बोली, “उधर से सब सुन रही थी। इसे कान-रस बहुत है। मैं इससे बचकर किसी से एक बात भी नहीं कर सकती।” और फिर उसने प्यार से आवाज़ दी, “निम्मो!” निम्मा नहीं आयी, तो उसने फिर आवाज़ दी, “मरी इधर आ, बात सुन!”

निम्मा दुपट्टे का पल्ला मुँह में लिये हुए बीच की चौखट के पास आकर खड़ी हो गयी। उसके बटन उसी तरह खुले थे। कमीज़ वैसे भी कई जगह से मैली और फटी हुई थी। सलवार ऊँची बँधी होने से उसके खुश्क टखने बाहर नज़र आ रहे थे। उसकी कमीज़ इस तरह हिल रही थी जैसे वह बहुत तेज़ दौड़कर आयी हो और उसकी साँस फूल रही हो। “अम्माँ, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो दे जाऊँ?” उसने पल्ला मुँह से निकालकर कहा और उसे फिर उसी तरह दबा लिया।

“क्यों लाला, खाने को कुछ मँगवाऊँ?” ठकुराइन ने पूछा।

“नहीं भाभी! मुझे देर हो रही है, अब मैं चलूँगा। बस जल्दी से चाय पी लूँ।”

मैं गिलास उठाकर जल्दी-जल्दी चाय के घूँट भरने लगा। मुझे अपने से कोफ़्त हो रही थी कि दफ़्तर से किस काम के लिए आया हूँ, और यहाँ आकर क्या झख मार रहा हूँ। फ़ोटोग्राफर से अलग होने के बाद मैंने किया ही क्या था? उसका कैमरा कन्धे पर डालकर ले आया था और तसवीर अब तक एक भी नहीं ली थी।

“अम्माँ, इनसे कहो ये अपनी मशीन से हमारी तसवीर खींच दें।” निम्मा बोली, “हम अपनी तसवीर शीशे में जड़ाकर दीवार पर लगाएँगे।”

“मरी, जाने कित्ता ख़र्च होता है तसवीर खींचने पर!” ठकुराइन बोली, “तसवीर ऐसे ही थोड़े खिंच जाती है!”

“इसमें फ़िल्म नहीं है, फ़िल्म होती तो मैं खींच देता,” मैंने कहा। मन एक बार झुँझला उठा कि उसकी एक तसवीर खींच ही देता, तो क्या था! मगर फिर सोचा कि ठीक ही तो है—वह कैमरा मैं प्रोफ़ेशनल काम के लिए लाया हूँ, या इस तरह की तसवीरें खींचने के लिए? अपने फ़ीचर में मैं निम्मा की तसवीर को किस तरह इस्तेमाल कर सकता हूँ? मगर मेरा एक मन यह भी था कि उस घर की सीढिय़ाँ चढ़कर ऊपर की कोठरी में जाऊँ और वहाँ टूटी चारपाई पर पड़े हुए मियाँ इबादत अली की एक तसवीर ले लूँ। उस तसवीर का तो मैं प्रोफ़ेशनल तौर पर इस्तेमाल कर सकता था। उस पर तो बल्कि एक बहुत अच्छा शीर्षक भी दिया जा सकता था। साथ के विवरण में मियाँ इबादत अली के पाकिस्तान जाने और लौटकर आने की बात और उसकी लड़की खुरशीद का किस्सा भी दिया जा सकता था। इससे फ़ीचर काफ़ी रोचक बन सकता था। मगर निम्मा के सामने बोला हुआ झूठ मेरी मजबूरी बन गया था। मैं अब इबादत अली की तसवीर भी कैसे ले सकता था?

मैं उनके यहाँ से चला तो ठकुराइन मुझे गली के मोड़ तक छोडऩे साथ चली आयी। गली में आकर भी वह वही बातें दोहराती रही। लड़की के ब्याह पर वह ज़्यादा नहीं, मगर चार-पाँच सौ तो ख़र्च करेगी ही। ठाकुर साहब होते तो जाने कितना करते! मैं उनके यहाँ फिर कब आऊँगा? मैं न आ सकूँ, तो वही कभी मेरे घर पर आकर मुझसे पूछ ले। मैं एक कार्ड पर अपना पता लिखकर उसे ज़रूर भेज दूँ। कार्ड लिखूँ, तो ठाकुर साहब के नाम से ही लिखूँ...।

ठकुराइन के लौट जाने पर मैं पानवाले से सिगरेट ख़रीदने के लिए रुका, तो उसने सिर से पैर तक मेरा ज़ायज़ा लेते हुए कहा, “क्यों साहब, आप इनके रिश्तेदार हैं?”

“क्यों?” उसकी बदतमी$जी पर मुझे गुस्सा आ गया।

“ऐसे ही पूछ रहे हैं।” वह बोला, “हम तो समझते थे ये माँ-बेटी अकेली ही हैं।”

“मेरी इन लोगों के साथ पुरानी वाक़फियत है।” मैंने कहा, “मैं पहले इसी घर में रहता था।”

“अच्छा, हाँ!” वह आवाज़ को कुछ लटकाकर बोला, “हमने समझा आपकी इनके साथ रिश्तेदारी है!”

“एक तरह से रिश्तेदारी है भी।” मैंने माथे पर त्योरी डालते हुए कहा, “तुम बात करो।”

“बात कुछ भी नहीं।” वह डब्बी देकर पैसे गिनता हुआ बोला, “बेचारी ग़रीब हैं, घरों में जाकर बरतन-अरतन मलती हैं, इसलिए हमने कहा...।”

“क्या कहा...?”

“कुछ नहीं।” वह बोला, “ऐसे ही हम बात के लिए बात कर रहे थे...।”

मैं गली से बाहर आया, तो कोई चीज़ मुझे अन्दर से कोंच रही थी। मुझे लग रहा था कि वहाँ और भी कुछ था जिसकी मुझे तसवीर लेनी थी, मगर मैं नहीं ले सका था। लेकिन वह 'कुछ’ क्या था?

मैं लौटकर दफ़्तर पहुँचा, तो वहाँ हरबंस मेरा इन्तज़ार कर रहा था।

“तुम कब से आये हुए हो?” मैंने पूछा।

“अभी थोड़ी देर हुई आया था।” वह बोला, “मैं तुम्हें अपने साथ एक जगह ले जाने के लिए आया हूँ।”

मैंने उसे बताया कि मैं दिन-भर शहर में गलियों की ख़ाक छानता रहा हूँ, इसलिए बहुत थका हुआ हूँ।

“थके हुए होने से क्या होता है?” वह बोला, “थका हुआ आदमी चाय पीने तो चल ही सकता है।”

“मगर यह भी तो पता चले कि चलना कहाँ है?”

“उसी के घर चलना है...,” वह थोड़ा रुकता हुआ बोला, “पोलिटिकल सेक्रेटरी के। वह बहुत दिनों से घर पर आने के लिए कह रहा था। नीलिमा भी बहुत कह रही थी कि उसने इतनी बार बुलाया है, तो हमें ज़रूर चलना चाहिए। आज उसी ने उससे फ़ोन पर कह दिया था कि हम शाम को आएँगे।”

“तो तुम लोग चले जाओ।” मैंने कहा, “मुझे साथ में घसीटने की क्या ज़रूरत है? एक तो मैं बहुत थका हुआ हूँ और दूसरे उसने तुम्हीं को बुलाया है, इसलिए...।”

“मगर वह तुम्हारे बारे में भी तो पूछता रहता था। मैंने बाद में उससे फ़ोन पर कह दिया था कि तुम भी हमारे साथ आओगे...।”

“मगर मुझे साथ ले जाने की कोई ख़ास वजह है क्या?”

“एक छोटी-सी वजह भी है। वे लोग मुझे एक नौकरी आफ़र कर रहे हैं। हो सकता है वह आज उस बारे में कोई बात करना चाहे। मैं अपने मन में तय नहीं कर सका कि मुझे वह नौकरी ले लेनी चाहिए या नहीं, इसलिए अभी उस बारे में उससे बात नहीं करना चाहता। तुम साथ रहोगे, तो उस विषय में बात नहीं उठेगी।”

“मगर तुम मेरी हालत भी तो देखो कि मैं...।”

“तुम्हें मैंने कह दिया है कि तुम्हें मेरे साथ चलना है, बस! मेरी वजह से थोड़ी तकलीफ़ ही उठा लोगे, तो क्या है?”

मैंने और हील-हुज्जत नहीं की; अपनी डाक देखी, एक मिनट के लिए जाकर अपने सम्पादक से बात की और उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया।

पोलिटिकल सेक्रेटरी के घर की सीढिय़ाँ इतनी चिकनी थीं कि ऊपर जाते हुए पैर फिसल जाने से मेरे घुटने पर थोड़ी चोट आ गयी।

गैलरी में आकर हरबंस ने घंटी बजायी। एक चपरासी हमें बड़े कमरे में ले गया। पोलिटिकल सेक्रेटरी ने कमरे के दरवाज़े पर आकर हमारा स्वागत किया। “ओ, हरबंस! नीलिमा!” उसने उत्साह के साथ कहा, “और यह हमारा 'न्यू हैरल्ड’ वाला दोस्त है। इसके सम्पादक ने दो-एक बार इसकी बात की है। तुमने भी कई बार ज़िक्र किया है। मैं सिर्फ़ नाम भूल रहा हूँ। क्या नाम बताया था तुमने हरबंस?”

“मधुसूदन,” हरबंस ने कहा।

पोलिटिकल सेक्रेटरी ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर गरमजोशी के साथ हिलाया। “हाँ-हाँ, मडुसुडान,” उसने कहा, “मैं सुडान का ध्यान रखूँगा, तो मुझे याद रहेगा। इस नाम में भी एक रिदम है। मैं संगीत का बहुत शौक़ीन हूँ। हरबंस ने शायद तुम्हें बताया हो। या शायद न भी बताया हो। वह अपने सिवा किसी की तारीफ़ नहीं करता। सिर्फ़ तुम्हारी करता है। मैं कह नहीं सकता क्यों। नीलिमा कहीं तुमसे ईर्ष्या न करने लगे। आओ,आओ। कुछ कलाकार आये हुए हैं। मैं पहले तुम लोगों का उनसे परिचय करा दूँ। बहुत युवा कलाकार हैं। मगर मैं कहा करता हूँ कि यौवन ही वास्तविक कला को जन्म दे सकता है। कला एक सृष्टि है और यौवन का सृष्टि के साथ गहरा सम्बन्ध है। आओ...!”

पहले उसने अपनी पत्नी से परिचय कराया। वह हाथ मिलाते ही यह कहकर चली गयी कि वह अरुण को बच्चों के पास छोड़ आये, नहीं तो वह बेचारा बड़ों के बीच बहुत अकेला और खोया-खोया महसूस करेगा। “मैं अभी आ रही हूँ।” उसने चलते-चलते नीलिमा से कहा, “मैं तुमसे बात करने के लिए बहुत उत्सुक हूँ।”

कमरे में चार व्यक्ति और थे। एक अधेड़ दम्पती थे, मिस्टर और मिसेज़ गुलाटी, जो शायद सोशल कॉल के लिए आये थे। दो युवा चित्रकार थे जिन्होंने हाल ही में फ़ाइन आर्ट का डिप्लोमा लिया था। एक का नाम था रणधीर और दूसरे का सुभाष। रणधीर बाल और दाढ़ी दोनों बढ़ाये हुए था। कुरता-पाजामा पहने था। सुभाष नीली कॉर्डराय की पतलून के साथ पीली जैकेट पहने था। उन दोनों ने अतिशय नम्रता के साथ हम सबसे हाथ मिलाया, जैसे हम सब भी पोलिटिकल सेक्रेटरी के रुतबे के ही लोग हों।

“हम लोग इनके बनाये हुए कुछ चित्र देख रहे थे।” पोलिटिकल सेक्रेटरी बोला, “ये लोग बहुत अच्छी रचनाएँ कर रहे हैं। मिस्टर और मिसेज़ गुलाटी कला के बहुत शौक़ीन हैं। मेरा ख़याल है आप सबको भी इसमें दिलचस्पी होगी। क्यों हरबंस? अरे, मैं यह किससे पूछ रहा हूँ! मिस्टर गुलाटी, मेरा दोस्त हरबंस इतिहास का पंडित है, मगर कला का भी बहुत बड़ा पारखी है। इसकी पत्नी, या लड़की नीलिमा, यह भारतीय नृत्य की...क्या कहूँ क्या है! हरबंस, मुझे बताओ ठीक शब्द क्या है? मगर तुम नहीं बताओगे। तुम उससे ईर्ष्या करते हो, मैं जानता हूँ। हमारा दोस्त...मैं फिर तुम्हारा नाम भूल गया। मैं तुम्हें 'न्यू हैरल्ड’ ही कहूँगा। हाँ तो 'न्यू हैरल्ड’, इसे भारतीय नृत्य की क्या कहना चाहिए...!” वह चुटकी बजाने लगा। “मुझे ठीक शब्द मालूम है, मगर वह मेरे दिमाग़ में आ नहीं रहा। वह है...क्या है...अच्छा हम अपने दोस्त 'न्यू हैरल्ड’ को सोचने देते हैं और तब तक ये चित्र देखते हैं।”

इस बीच उसकी पत्नी अरुण को छोड़कर आ गयी। उसे देखते ही वह बोला, “आओ डियर, आओ। मैं सोच रहा था कि तुम आ जाओ, तभी हम चित्र देखें। इसीलिए इन लोगों को बातों में लगाये हुए था। तुम यहाँ आकर मेरे पास बैठो। तुम जाने हमेशा मुझसे दूर-दूर क्यों रहती हो! तुम जानती हो मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ, फिर भी...।”

“मैं यहाँ अपने पत्रकार मित्र के पास बैठ रही हूँ।” उसकी पत्नी ने कहा, “मैं तुम्हारी वही रोज़-रोज़ की बातें सुनकर और नहीं ऊबना चाहती। अपने इस नये मित्र से तो मैं इन चित्रों के बारे में कुछ समझ भी सकूँगी, तुम तो बस शोर ही मचाते रहोगे और देखने-समझने कुछ नहीं दोगे।”

वह मेरे पास की कुरसी पर आ बैठी। पोलिटिकल सेक्रेटरी घूरकर देखने की मुद्रा बनाकर मुझसे बोला, “देखो मिस्टर 'न्यू हैरल्ड’, मैं तुमसे ही मित्रतापूर्ण व्यवहार की आशा करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि तुम अपने पहले समीक्षक की तरह ख़तरनाक आदमी नहीं हो।”

“तुम बस अपना नाटक ही करना चाहते हो, या चित्र भी देखना चाहते हो?” उसकी पत्नी ने उसे झाड़ दिया। वह डाँट खाये हुए बच्चे की तरह बिल्कुल सीधा होकर बैठ गया और बोला, “मैं चित्र देखना चाहता हूँ, डार्लिंग! मगर मुझे शेक्सपीयर की वह पंक्ति हमेशा याद रहती है—फ्रेल्टी दाई नेम इज़...।”

“प्लीज़!” उसकी पत्नी गम्भीर होकर बोली। वह भी सहसा गम्भीर हो गया।

“तो मिस्टर सुभाष, अब अगला चित्र!”

सुभाष ने दीवार पर लगे हुए एक चित्र को उतार दिया और उसकी जगह दूसरा चित्र लगा दिया। नीचे उस दीवार के साथ छ:-आठ कैनवस रखे थे। जो चित्र लगाया गया था, उसे देखकर लगता था जैसे वह प्रागैतिहासिक युग का एक बड़ा-सा $गार हो। उसमें काले, हरे और भूरे रंगों का प्रयोग एक भय और नृशंसता का वातावरण पैदा करता प्रतीत होता था।

“इसका शीर्षक क्या है?” पोलिटिकल सेक्रेटरी ने कलाकार से पूछा।

“शीर्षक कुछ भी हो सकता है।” सुभाष ने कहा, “हर व्यक्ति इसे अपने मन से अलग शीर्षक दे सकता है।”

“मेरे ख़याल में इसका शीर्षक होना चाहिए...क्या होना चाहिए...क्यों मिस्टर गुलाटी, इसका शीर्षक क्या होना चाहिए...?”

मिस्टर गुलाटी बहुत उत्तरदायित्वपूर्ण काम करने के ढंग से चित्र को और ध्यान से देखने लगे। फिर सोचते हुए-से बोले, “इसका शीर्षक...इसका शीर्षक मेरे ख़याल में...होना चाहिए...अम्...म्...म्...”

“हाँ-हाँ, बताइए।”

“अँधेरा और उजाला नहीं हो सकता?”

“अँधेरा और उजाला!” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी चित्र का गम्भीर अध्ययन करती हुई बोली, “मगर मुझे तो इसमें अँधेरा ही अँधेरा नज़र आता है। उजाला इसमें कहाँ है?”

“मैं समझता हूँ शायद चित्र पर ठीक से लाइट नहीं पड़ रही।” मैंने धीरे से कहा।

“हाँ-हाँ, मैं भी यही सोच रहा था,” पोलिटिकल सेक्रेटरी बोला। उसने उठकर उस तरफ़ की खिड़की बन्द करके दो-एक बत्तियाँ और जला दी और कहा, “अब?”

“अब मुझे कुछ उजाला नज़र आ रहा है।” उसकी पत्नी ने कहा जिससे सब लोग हँस दिये और कलाकार कुछ झेंप गया।

“और तुम्हारा क्या शीर्षक है, हरबंस?”

हरबंस उस समय न जाने कहाँ खोया हुआ था। वह सहसा चौंक गया। तभी बैरा ट्रे में चाय लिये हुए आ गया। कुछ देर के लिए बात रुकी रही। तब तक हरबंस चित्र को देखता रहा। फिर अपनी चाय में चीनी हिलाता हुआ बोला, “मुझे तो यह एक गर्भाशय-सा लगता है।”

“गर्भाशय!” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी अपनी गम्भीरता में चौंक गयी।

“यह कैसे हो सकता है?”

“क्योंकि इसमें कुछ वैसी ही गोलाइयाँ हैं और...”

“जैसे कि तुमने गर्भाशय देख रखा है!” नीलिमा ने उस पर टिप्पणी कर दी तो हरबंस कुछ सकपका गया।

“ओ नीलिमा!” पोलिटिकल सेक्रेटरी हाथ पर हाथ मारकर बोला, “तुम क्या कहना चाहती हो कि वह...? नहीं-नहीं, ऐसी बात कहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं है। वह तुम्हारा पति है तो क्या हुआ? इसका यह मतलब नहीं कि तुम जो मुँह में आये, उससे कह सकती हो।”

“ठहरो, तुम मुझे समझने तो दो।” उसकी पत्नी ने फिर उसे डाँट दिया।

पोलिटिकल सेक्रेटरी फिर सीधा होकर बैठ गया, “अब मैं बिल्कुल चुप रहूँगा। लोगों के सामने मैं बार-बार डाँट नहीं खाना चाहता। सब लोग घर जाकर बात करेंगे कि पोलिटिकल सेक्रेटरी अपनी बीवी से दबता है। मैं इस बदनामी से बहुत डरता हूँ। अच्छा, मैं अपना शीर्षक बताऊँ? नहीं, पहले हरबंस तुम यह बताओ कि तुम्हें यह गर्भाशय कैसे लगता है?”

हरबंस तब तक फिर कहीं और खो गया था। उसने सिर्फ़ कन्धे हिला दिये और कहा, “ऐसे ही...मुझे ऐसा महसूस होता है।”

“अच्छा, माफ़ करना, मैं अपना शीर्षक बताने के लिए बहुत बेचैन हो रहा हूँ।” पोलिटिकल सेक्रेटरी बोला, “मेरा शीर्षक है...बता दूँ? मेरा शीर्षक है...देखो, तुम लोगों को ठीक न लगे, तो हँसना नहीं। मेरा शीर्षक है—'सपना’।”

“सपना?” उसकी पत्नी ने होंठ बिचका दिये, “असम्भव! यह सपना कैसे हो सकता है?”

“अच्छा, तुम बताओ कि यह सपना क्यों नहीं हो सकता? मुझे पता था कि तुम्हें मेरा बताया हुआ शीर्षक कभी पसन्द नहीं आएगा।” पोलिटिकल सेक्रेटरी ने कुहनियाँ समेटकर पीछे को टेक लगा ली, “मैं कई बार रात को इस तरह का सपना देखता हूँ। इन्हीं रंगों में और ठीक इसी तरह की गोलाइयों में। अगर मैं कलाकार होता, तो मैं उसका ठीक इसी तरह का चित्र बनाता।”

“अच्छा, हम कलाकार से ही पूछते हैं कि उसके ख़याल में इसका कौन-सा शीर्षक ज़्यादा ठीक है।” उसकी पत्नी पहले जिस गम्भीरता के साथ चित्र को देख रही थी, अब उसी गम्भीरता के साथ कलाकार के चेहरे को देखने लगी। दोनों कलाकारों ने एक बार एक-दूसरे की तरफ देखा। फिर रणधीर बोला, “देखिए शीर्षक तो कुछ भी हो सकता है। वैसे 'सपना’ शीर्षक में कुछ कोमलता है, इसलिए व्यक्तिगत रूप से मुझे यह ज़्यादा अच्छा लगता है। मगर किसी भी चित्र का कोई एक ही शीर्षक नहीं होता।”

“देखा!” पोलिटिकल सेक्रेटरी कुछ चमककर बोला, “मैं कलाकार नहीं हूँ, मगर शीर्षकों का रहस्य मैं थोड़ा-बहुत जानता हूँ। जिन चित्रों के लिए और कोई शीर्षक न सूझता हो, उन पर इन तीन-चार शीर्षकों में से कोई एक शीर्षक ज़रूर ठीक बैठ जाता है—सपना, समय, अन्तरमन और खोज। जहाँ इनमें से भी कोई न चल सकता हो, वहाँ मैं उसे सिर्फ़ एब्स्ट्रेक्ट कह देता हूँ।”

“वैसे 'माँ और बेटा’ भी इसी तरह का एक शीर्षक है।” मिस्टर गुलाटी ने सुझाव दिया।

“यह शीर्षक अब पुराना हो गया है।” पोलिटिकल सेक्रेटरी बोला, “अब 'माँ और बेटा’ शीर्षक सुनकर कुछ अजीब-सा लगता है। हाँ, ये दोनों शब्द अलग-अलग शीर्षक के रूप में दिये जा सकते हैं। तुम्हारा क्या शीर्षक है, 'न्यू हैरल्ड’?”

मेरा उत्तर देने को मन नहीं हो रहा था। फिर भी मैंने कहा, “मुझे तो यह आदिम गुफ़ा जैसी लगती है।”

“इसका मतलब है कि तुम्हारा और हरबंस का शीर्षक एक ही है।” पोलिटिकल सेक्रेटरी फिर हँसा, “तभी तुम दोनों में इतनी दोस्ती है। तुम दोनों बिल्कुल एक ही तरह सोचते हो।”

कलाकार ने उस चित्र को हटाकर एक नया चित्र लगा दिया—खिड़की के परदे के पास रखे हुए गुलदस्ते का। पोलिटिकल सेक्रेटरी एकदम बोल उठा, “इसका शीर्षक मैं बताता हूँ—स्टिल लाइफ़। क्यों?” और वह हँसता रहा जैसे उसने यह बहुत बड़ी मज़ाक की बात कही हो।

“क्यों, यह शीर्षक पुराना नहीं है?” उसकी पत्नी अपनी उसी गम्भीरता के साथ बोली।

“यह पुराना होनेवाला शीर्षक नहीं है। दुनिया में बने एक-तिहाई चित्रों का शीर्षक यही होगा। क्यों हरबंस?”

“आज तुम बहुत मूड में हो!” हरबंस ने जैसे बला टालने के लिए कहा।

“सुन लिया?” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी बोली, “तुमसे कितनी बार कहती हूँ कि जितनी बरदाश्त हो, उससे ज़्यादा न पिया करो।”

“देखो मेरी बीवी को।” पोलिटिकल सेक्रेटरी ने सिर खुजलाते हुए कहा, “कोई मेरी तारीफ़ भी करे, तो यह उसमें से दूसरा ही मतलब निकाल लेती है। मैं चाहे अपने गले को रेगिस्तान की तरह खुश्क रखूँ, फिर भी यह कहे बिना नहीं मानेगी।”

बैरा एक के बाद एक सैंडविच और पैटीज़ की प्लेटें लिये हुए सामने आ जाता था। कलाकार एक चित्र दीवार से उतारता और उसकी जगह दूसरा चित्र लगा देता था। उसके अधिकांश चित्र पहले चित्र की तरह एब्स्ट्रेक्ट के प्रयोग थे। उनमें स्याह रंग का प्रयेाग बहुत खुलकर किया गया था जो पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी को पसन्द नहीं आ रहा था। वह अपनी अरुचि को खामोश रहकर छिपाने का प्रयत्न कर रही थी। सुभाष अपने सब चित्र दिखा चुका, तो रणधीर अपने चित्र दिखाने लगा। उनमें ज़्यादातर मानवीय आकृतियों के चित्र थे और कुछ लैंडस्केप थे। उनके रंग भी काफ़ी भड़कीले थे। उन चित्रों को देखते हुए पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी काफ़ी उत्साहित हो उठी। मैं बार-बार कमरे के नीले परदों को देखता था, फिर कॉफ़ी की प्यालियों और सैंडविच की प्लेटों को देखता था। मन हो रहा था कि किसी तरह वह सिलसिला समाप्त हो, तो वहाँ से उठकर चलूँ। कमरे की सजावट काफ़ी अच्छी थी। भूरे रंग का मोटा गलीचा तो बहुत ही अच्छा था। कुरसी पर बैठे हुए पैर उसमें धँस-धँस जाता था। दीवारों पर तसवीरों के बड़े-बड़े फ्रेम लगे थे। आँखें उन पर अटकती नहीं थीं, उनमें खो जाती थीं। सोफ़े काफ़ी बड़े और खुले थे। मगर वह सब कुछ मुझे अपने से बहुत दूर का लग रहा था, शायद छोटे घरों में रहने के अभ्यास के कारण। रणधीर अपने एक लैंडस्केप के विषय में कुछ बता रहा था और मैं सोच रहा था कि वह सजावट उस घर के व्यक्तित्व को प्रकट करती है, या उस घर में रहनेवाले लोगों के? या उन दोनों से अलग किसी और ही व्यक्तित्व को? बार-बार मेरा मन अपनी घड़ी की तरफ़ देखने को होता था, मगर सभ्यता के तकाज़े से मैं अपनी आँखों को कलाई की तरफ़ नहीं जाने देता था।

रणधीर अपने हर चित्र को दीवार पर लगाने से पहले एक छोटी-सी भूमिका बाँधता था, और उसे उतारने के बाद भी उसके बारे में कुछ न कुछ बताता रहता था। वह अपने हर चित्र की प्रेरणा के स्रोत के सम्बन्ध में लोगों को पूरी जानकारी दे देना चाहता था। मैंने अपनी घड़ी पर हाथ रख लिया था कि ग़लती से मेरी आँखें उस तरफ़ न चली जाएँ। सब लोग शीर्षकों का खेल उसी तरह खेल रहे थे। एक अपना शीर्षक रखता था, तो दूसरा उसे हटाकर अपना शीर्षक रखना चाहता था। पोलिटिकल सेक्रेटरी उस खेल का नायक था। वह किसी-किसी समय इतना शोर करता था कि मेरा ध्यान भी घड़ी से हटकर उसकी बात की तरफ़ चला जाता था।

सब चित्र दिखाकर रणधीर चेहरे पर एक उत्सुकता का भाव लिये हुए सोफ़े पर आ बैठा। सुभाष के चेहरे पर भी वैसी ही उत्सुकता नज़र आ रही थी कि शायद लोग अब उनके चित्रों पर कुछ टीका-टिप्पणी करें। मगर जब किसी ने कुछ नहीं कहा तो रणधीर बोला, “देखिए, हम अपने चित्रों के सम्बन्ध में आप लोगों की सही राय जानना चाहते हैं। आप जानते हैं कि आप लोगों की राय हमारे लिए कितनी मूल्यवान हो सकती है।”

“मेरे ख़याल में तो सभी चित्र बहुत अच्छे थे।” पोलिटिकल सेक्रेटरी ने कहा।

“हम सब आपके आभारी हैं कि आप लोगों ने यहाँ आकर हमें अपनी कला से परिचित होने का अवसर दिया।”

“फिर भी कोई चीज़ जो आपको ज़्यादा पसन्द आयी हो...।”

“मैंने कहा है न, मुझे सभी चित्र एक से पसन्द आये हैं। सब के सब बहुत अच्छे हैं। बाकी मिस्टर गुलाटी और हमारा 'न्यू हैरल्ड’ का दोस्त आपको ज़्यादा बता सकते हैं। आपको पता है हमारा यह 'न्यू हैरल्ड’ का आर्ट और ड्रामा क्रिटिक है! इसकी राय आपके लिए सबसे मूल्यवान हो सकती है। आप लोग अब कुछ देर आपस में बातचीत करें। मैं उतनी देर हरबंस को अपना घर दिखा दूँ। मैं बहुत दिनों से इस शख्स को अपने घर पर आने के लिए कह रहा था, मगर आज यह पहली बार आया है। आओ हरबंस, तुम्हें उधर के हिस्से दिखा दूँ।” कहता हुआ पोलिटिकल सेक्रेटरी उठ खड़ा हुआ, “मैं अपनी स्टडी तुम्हें खास तौर पर दिखाना चाहता हूँ। मैंने इधर कुछ नयी किताबें मँगवायी हैं जिन्हें देखकर तुम्हें खुशी होगी। आओ, तुम्हें चुपचाप बैठे देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा।”

हरबंस ने एक नज़र मेरी तरफ़ देखा और उठ खड़ा हुआ, “मैं अभी आ रहा हूँ।” उसने बिना वजह मुझसे कहा और पोलिटिकल सेक्रेटरी के साथ चला गया।

“आपका वह जो एब्स्ट्रेक्ट था।” उनके चले जाने के बाद मिस्टर गुलाटी कहने लगे, “जिसका शीर्षक मिस्टर मधुसूदन ने 'हिरोशिमा’ बतलाया था, मैं उसके बारे में एक बात पूछना चाहता हूँ...।”

“नीलिमा, तुमने भी तो मेरा घर नहीं देखा है।” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी नीलिमा से बोली, “आओ, मैं तुम्हें ऊपर चलकर अपना टैरेस दिखलाऊँ। मैंने यह घर उस टैरेस की वजह से ही पसन्द किया था। तुम देखना पसन्द करोगी?”

“हाँ ज़रूर।” नीलिमा बोली, “मैं जब से आयी हूँ, तब से इस घर की एक-एक चीज़ को ध्यान से देख रही हूँ। यहाँ की छोटी से छोटी चीज़ से भी आपके टेस्ट का पता चलता है।”

“तो आओ। मैं तुम्हें अपना टैरेस ज़रूर दिखाना चाहूँगी।” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी अपनी जगह से उठ खड़ी हुई, “आप लोगों की कला-सम्बन्धी बातचीत में हम लोग क्या हिस्सा ले सकेंगी? मैं तो इस मामले में बिल्कुल नासमझ हूँ। थोड़ी देर के लिए आप हमें क्षमा करेंगे? आओ नीलिमा!”

“तुम भी हमारे साथ ही क्यों नहीं चलते?” नीलिमा उठती हुई मुझसे बोली, “अभी थोड़ी देर में हम लोग लौट आएँगे।”

मैं भी कला-सम्बन्धी बातचीत से बचना चाहता था, इसलिए मैंने मन में नीलिमा को इस सुझाव के लिए धन्यवाद दिया और झट ही उसके साथ चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। “क्षमा कीजिएगा, हम लोग अभी वापस आ जाएँगे,” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी ने फिर कहा और हम लोग कमरे से बाहर निकल आये।

ऊपर का टैरेस काफी खुला था और उसकी सबसे बड़ी विशेषता उसकी सादगी थी। वहाँ रखे हुए बेंत के मोढ़े और कुरसियाँ नीचे के कमरे की सजावट से बहुत भिन्न थे। नीचे बैठे हुए उस बहुमूल्य सजावट में अपना आप बहुत छोटा लगता था, मगर वहाँ आकर उस तुच्छता की अनुभूति से बहुत कुछ छुटकारा मिल सकता था। मैं कुछ खुलेपन का अनुभव करता हुआ वहाँ एक कुरसी पर बैठ गया। मगर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ जब पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी ने भी वहाँ आकर यही कहा, “नीचे के कमरे में बैठे हुए तो कई बार मेरा दम घुटने लगता है। वहाँ रात-दिन लोग आते रहते हैं और उनसे एक ही तरह की बातें करनी होती हैं। मैं अपने पति की प्रशंसा करती हूँ जो इन बातों से थकता नहीं। इन बातों के साथ-साथ वह अपना काम भी करता जाता है। मगर मैं बहुत थक जाती हूँ। मुझे अपने घर में यह टैरेस ही एक ऐसी जगह लगती है जहाँ आकर मेरे मन को कुछ शान्ति मिलती है। पीछे हमारे अपने घर में भी एक ऐसा ही टैरेस है और मैं यहाँ बैठकर कई बार अपने को वहीं बैठी हुई महसूस करती हूँ। सचमुच अपने घर के वातावरण के साथ आदमी का मन किस तरह जुड़ा रहता है!”

और वह हमें अपने वहाँ के घर के बारे में बहुत कुछ बतलाती रही कि वह इमारत किस तरह की बनी है, उसमें छोटा-सा बा$गीचा कितना अच्छा है और उसमें उसने किस-किस तरह के फूल लगा रखे हैं। “मैं बहुत उत्सुकता से अपने घर वापस जाने की राह देख रही हूँ।” उसने कहा, “यहाँ हमारी टर्म का अब एक ही साल रहता है, उसके बाद शायद हम वापस चले जाएँगे। मैं तो कई बार सोचती हूँ कि मैं बच्चों को लेकर पहले ही चली जाऊँ।”

नीलिमा कुछ देर टैरेस पर घूमती रही और वहाँ रखे गमलों में लगे हुए फूलों की प्रशंसा करती रही। “तुम्हें सचमुच मेरा टैरेस अच्छा लगा?” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी ने उससे पूछा।

“सचमुच यह बहुत अच्छी जगह है।” नीलिमा बोली, “यहाँ आकर तो मन होता है कि एक कुरसी पर ढीले होकर पड़े रहें और आसपास की तरफ़ देखते रहें।”

“मैंने सोचा कि तुम भी वहाँ बैठी-बैठी ऊब गयी होगी, इसलिए तुम्हें कुछ देर खुली हवा में ले आऊँ।” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी ने कहा, “अब नीचे चलें?”

“मेरा अभी यहाँ से जाने को मन नहीं हो रहा।” नीलिमा बोली, “अगर मेरे घर में ऐसा टैरेस हो, तो मैं दिन का आधा वक़्त वहीं बैठी रहा करूँ।”

“मैं भी कई बार बहुत-बहुत देर तक यहाँ आकर बैठी रहती हूँ।” पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी बोली, “यहाँ आकर मन की सारी ऊब और थकान दूर हो जाती है। मगर...मेरा ख़याल है अब चला ही जाए, क्योंकि वे लोग यह न सोचें कि पति-पत्नी दोनों हमें अकेला छोड़कर चले गये हैं। एटिकेट की माँग है कि...।” और वह एक हल्की-सी हँसी हँस दी, “सचमुच एटिकेट की भी क्या-क्या माँग होती है!”

जब हम लोग लौटकर नीचे आये, तो वहाँ कमरे में अस्वाभाविक-सी खामोशी छायी थी। मिस्टर और मिसेज़ गुलाटी बिल्कुल ख़ामोश बैठे थे और दोनों कलाकार बहुत धीरे-धीरे आपस में ही कुछ बात कर रहे थे। पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी ने वहाँ आकर उन लोगों से फिर क्षमा माँगी और मुसकराकर कहा, “मैंने तो सोचा था कि आप लोगों में कला के मूल्यों के सम्बन्ध में खूब गरमागरम बहस हो रही होगी और आप लोग यहाँ बिल्कुल चुपचाप बैठे हैं। ठहरिए, मैं अभी अपने पति को बुला लाती हूँ। वही एक आदमी है जो इतनी बात कर सकता है कि किसी और के बात करने की ज़रूरत ही न रहे। वह और किसी को बात करने का मौका ही नहीं देता। क्यों मिस्टर गुलाटी?”

“उनके रहने से महफ़िल में बहुत रौनक रहती है।” मिस्टर गुलाटी बोले, “उन जैसा जानदार और ज़िन्दादिल आदमी मैंने बहुत कम देखा है।”

“तो मैं अभी उसे बुलाकर ला रही हूँ,” कहती हुई पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी फिर वहाँ से चली गयी। वह लौटकर आयी, तो उसके पीछे पोलिटिकल सेक्रेटरी भी वहाँ आ गया।

“मुझे बहुत-बहुत अफ़सोस है।” उसने आते ही कहा, “कि मेरे चले जाने से यहाँ कला-सम्बन्धी बातचीत रुक ही गयी। इसकी सारी ज़िम्मेदारी हमारे 'न्यू हैरल्ड’ वाले दोस्त पर है। मैंने तो सोचा था कि मैं आपको एक आर्ट क्रिटिक के भरोसे छोड़कर जा रहा हूँ, मगर ये आर्ट क्रिटिक के लोग जाने अपने को क्या समझते हैं कि आसानी से अपनी राय ही नहीं बताते! क़सूर मेरी पत्नी का भी है जो इस बेचारे को अपना टैरेस दिखाने ले गयी। यह अपने टैरेस को दुनिया-भर की कला से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण समझती है। मैं पहले आप लोगों को संगीत का एक डोज़ देता हूँ। मैं कहा करता हूँ कि संगीत ही वह चीज़ है जो इन्सान के अन्दर एक नयी रूह फूँक सकती है। संगीत और शराब! इन दोनों चीज़ों से अन्दर के सब जाले उतर जाते हैं। हम अभी दोनों का एक-एक डोज़ लेंगे। मगर पहले संगीत...।”

वह एक कवर खोलकर उसमें से रिकार्ड निकालने लगा, तो नीलिमा ने कहा, “मगर मेरे पति को आप कहाँ छोड़ आये?”

“मुझे अफ़सोस है नीलिमा।” पोलिटिकल सेक्रेटरी हँसकर बोला, “तुम्हारे पति को मैं तुमसे उधार माँगकर ले गया था, मगर वह मुझसे गुम हो गया है। मैं इसके लिए तुमसे बहुत-बहुत क्षमा-प्रार्थी हूँ।”

“वह अन्दर कुछ कागज़ देख रहा है।” उसकी पत्नी बोली, “अभी आ जाएगा।”

“तो तुम्हें वह मिल गया?” पोलिटिकल सेक्रेटरी रिकार्ड छाँटता हुआ अपनी पत्नी से बोला, “शुक्रिया! बहुत-बहुत शुक्रिया! तुमने मेरे सर से एक बोझ उतार दिया, नहीं तो मैं हमेशा के लिए नीलिमा के सामने शर्मिन्दा रहता।” और कुछ रिकार्ड छाँटकर उन्हें रेडियोग्राम में लगाते हुए उसने नीलिमा से कहा, “नीलिमा, तुमने देखा, मेरी पत्नी कितनी अच्छी है! मैं जब भी किसी के पति को गुम करता हूँ, यह फ़ौरन उसे ढूँढ़कर ले आती है। मैं कितनी ही बार इसका तजरबा कर चुका हूँ। यह लो, वह रहा तुम्हारा पति!”

हरबंस उधर से आया और आकर चुपचाप मेरे साथवाली कुरसी पर बैठ गया। वह कुछ घबराहट में था क्योंकि बैठते हुए उसका एक पैर मेरे जूते पर पड़ गया। बैठते ही उसने सिगरेट सुलगा ली और पीछे को टेक लगाकर थोड़ा लम्बा हो गया।

रेडियोग्राम पर ऑर्केस्ट्रा आरम्भ हो गया था। पोलिटिकल सेक्रेटरी ऑर्केस्ट्रा की धुन के साथ-साथ घुटने हिलाता हुआ रिकार्ड छाँट रहा था। उसकी पत्नी कुछ देर के लिए उठकर बाहर चली गयी और लौट आयी। कुछ देर में बैरा एक ट्रे में शराब की बोलतें और गिलास ले आया।

“नीलिमा, तुमने मेरी पत्नी के सामने हमारे टैरेस की कुछ प्रशंसा की कि नहीं?” पोलिटिकल सेक्रेटरी बोला, “एक चीज़ मैं तुम्हें बता दूँ। यह सिर्फ़ उन्हीं लोगों की प्रशंसा करती है जो इसके टैरेस की प्रशंसा करते हैं।”

“वह टैरेस है ही इतना अच्छा कि कोई उसकी प्रशंसा किये बिना रह नहीं सकता।” नीलिमा ने कहा।

“इसका मतलब है कि तुम मेरी पत्नी को पहली बार मिलने पर ही अच्छी तरह जान गयी हो।” पोलिटिकल सेक्रेटरी फिर हँसा, “तुम्हें इन्सान की खूब पहचान है, यह मैं मान गया।” और उसने अपने गिलास को ऊँचा उठाकर कहा, “टू द टैरेस!”

सब लोगों ने अपने-अपने गिलास होंठों से लगा लिये। पोलिटिकल सेक्रेटरी सहसा गिलास रखकर उठ खड़ा हुआ। “संगीत और शराब के साथ तीसरी चीज़ नृत्य।” वह बोला, “नीलिमा, तुम मेरी पार्टनर बनना स्वीकार करोगी? देखो, तुम मुझे इनकार नहीं कर सकतीं। आओ...!”

नीलिमा भी अपना गिलास रखकर उठ खड़ी हुई और वह उसे साथ लेकर नाचने लगा। उसकी पत्नी ने हरबंस के पास जाकर अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। “आओ हरबंस, मैं तुम्हारी पार्टनर बनकर तुम्हारे साथ नाचूँगी,” उसने कहा।

मगर हरबंस नहीं उठा। वह जिस तरह ढीला-सा बैठा था, उसी तरह बैठा रहा। “मैं नाचना नहीं जानता।” वह धीरे-से बोला।

“क्या?” पोलिटिकल सेक्रेटरी ने नीलिमा के साथ ग़लीचे पर चक्कर काटते हुए कहा, “तुमने इतने साल लन्दन में रहे और तुमने नाचना नहीं सीखा? नहीं, मैं यह बात नहीं मान सकता। नीलिमा इतना अच्छा नाचती है, तो यह कैसे हो सकता है कि तुम नाचना जानते ही नहीं? तुम्हारी यह बात मैं नहीं सुनूँगा। आज तुम्हें ज़रूर नाचना पड़ेगा। डार्लिंग, इसे हाथ से पकड़कर वहाँ ले आओ। देखें यह कैसे नहीं नाचता! और मिस्टर गुलाटी, आप भी उठिए। मिसेज़ गुलाटी नाचना जानती हैं, मुझे पता है। हमारा 'न्यू हैरल्ड’ का दोस्त और ये कलाकार, इन बेचारों के लिए यहाँ कोई पार्टनर नहीं हैं, इसलिए ये सिर्फ़ बैठकर देखेंगे। आइए मिस्टर गुलाटी, प्लीज़...”

मिस्टर गुलाटी मिसेज़ गुलाटी को लेकर उठ खड़े हुए और बहुत सावधानी से धीरे-धीरे हिलने लगे। पोलिटिकल सेक्रेटरी की पत्नी ने हरबंस को भी हाथ से पकड़कर उठा लिया। हरबंस उसके साथ पहले चक्कर में ही लडख़ड़ा गया। पोलिटिकल सेक्रेटरी ने सहसा नीलिमा का हाथ छोड़ दिया और हरबंस का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे जल्दी-जल्दी चक्कर देने लगा। हरबंस का चेहरा कानों तक सुर्ख हो रहा था और उसका एक भी पैर सीधा नहीं पड़ रहा था। पोलिटिकल सेक्रेटरी उसे जिस तरफ़ को भी चक्कर देता था, वह उसी तरफ़ को लुढ़क जाता था। आख़िर उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और कठिनाई से अपने को सँभाले हुए अपनी कुरसी पर लौट आया। पोलिटिकल सेक्रेटरी इस पर खिलखिलाकर हँसा और उसने फिर नीलिमा का हाथ थाम लिया। हरबंस का सुर्ख चेहरा कुरसी पर आकर भी काफ़ी देर ठीक नहीं हुआ और उसकी साँस काफ़ी तेज़-तेज़ चलती रही। पोलिटिकल सेक्रेटरी नीलिमा के साथ तेज़ क़दमों से नाचने लगा। मिस्टर और मिसेज़ गुलाटी तब भी मशीन के पुरजों की तरह लगभग एक ही जगह पर हिले जा रहे थे...।