अमलतास : केरल की लोक-कथा

Amaltas : Lok-Katha (Kerala)

(अमलतास केरल का राज्य पुष्प है)

कहते हैं कि बहुत समय पहले घने जंगलों के मध्य आदिवासियों की एक बस्ती थी। यहाँ के आदिवासी बहुत सीधे-साधे, नेक और ईमानदार थे तथा जंगल के फल-फूल आदि से अपना गुजारा करते थे। ये लोग छोटे-छोटे समूह बनाकर जंगल की तरफ निकल जाते और दोपहर तक जंगली फल-फूल आदि बीनकर एकत्रित करते और तेज धूप होने के पहले अपनी बस्ती में लौट आते। कुछ लोग चीतल, साँभर खरगोश आदि जंगली जीवों का शिकार भी करते थे। आदिवासियों को जब कभी कोई बड़ा शिकार मिल जाता तो पूरी बस्ती में खुशी मनाई जाती थी और रात भर नाच-गाने का कार्यक्रम चलता था।

बस्ती के आदिवासी वैसे तो प्रायः सामूहिक भोज और नाच-गाने का आनन्द लेते थे, किन्तु बसन्‍त के मौसम में वे एक बड़ा उत्सव मनाते थे। इस उत्सव की तैयारी महीना भर पहले से आरम्भ हो जाती थी। इस उत्सव के अवसर पर कई बड़े शिकार मारे जाते थे और कई दिन तक सामूहिक भोज तथा नाच-गाने का कार्यक्रम चलता था | पूरा उत्सव बड़े शानदार ढंग से मनाया जाता था। आदिवासियों की बस्ती में इस उत्सव के समय नए युवकों और युवतियों की शादियाँ भी होती थीं। अतः बस्ती के नए आदिवासी लड़के-लड़कियाँ बहुत पहले से इसकी प्रतीक्षा करने लगते थे।

आदिवासियों की बस्ती में प्रतिवर्ष बसन्‍त के मौसम में आयोजित किए जानेवाले इस रंगारंग उत्सव में रात भर अविवाहित युवक-युवतियाँ नृत्य करते थे। एक बार इस नृत्य के उत्सव में बस्ती की एक सुन्दर युवती वासन्ती ने भाग लिया। वासन्ती अद्वितीय सुन्दरी थी। अपने गोरे रंग और तीखे नाक-नक्श के कारण वह पूरी बस्ती की चहेती बनी हुई धी। बस्ती के सभी युवक उससे विवाह करना चाहते थे।

वासन्ती को बच्चे, बूढ़े, युवा सभी प्यार से वासी कहते थे। वासी जितनी सुन्दर थी, उतनी ही नियम-धरम वाली भी थी। वह प्रातःकाल उठ जाती और स्नान-ध्यान करके सबसे पहले वन देवता को जल चढ़ाती। इसके बाद अपने घर के काम निपटाती। वासी पूरी बस्ती का भी ध्यान रखती। बस्ती में किसी की तबियत खराब हो, तो वासी वैद्य को बुलाकर लाती, वैद्य के साथ मिलकर ताजी जड़ी-बूटियों की दवा तैयार करती और रोगी की सेवा करती। एक बार तो बस्ती के मुखिया की माँ गम्भीर रूप से बीमार हो गई। मुखिया के घर पर कोई काम करनेवाला नहीं था। ऐसे में वासी ने सारी-सारी रात मुखिया की माँ के पास रहकर उसकी देखभाल की। अपने इन्हीं गुणों के कारण वासी पूरे गाँव की चहेती बन गई थी।

वासी पूरे सोलह साल की हो चुकी थी। इस आदिवासी बस्ती की लड़कियाँ तेरह-चौदह वर्ष की होते ही किसी न किसी लड़के को पसन्द कर लेती थीं और बसन्‍त उत्सव आते ही उसके साथ विवाह कर लेती थीं। लेकिन वासी ने अभी तक कोई लड़का पसन्द नहीं किया था| बस्ती के लोगों को आशा थी कि वह इस वर्ष अवश्य कोई लड़का पसन्द कर लेगी और बसन्‍त उत्सव के समय उसका विवाह हो जाएगा। बस्ती के कुछ लड़कों ने आगे बढ़कर वासी से बात करने की कोशिश की और उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन वासी ने उन्हें स्पष्ट इनकार कर दिया। वासी के बापू और बस्ती के मुखिया ने भी एक बार उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन वासी उन्हें भी टाल गई। वासी बहुत नेक और भली लड़की थी। अतः बस्ती के किसी भी बुजुर्ग ने उसके साथ जबरदस्ती नहीं की।

वासी रूपवती, गुणवती और भरे-पूरे शरीर की युवती थी। ऐसा नहीं था कि वह विवाह करना नहीं चाहती थी। वासी विवाह करना चाहती थी, लेकिन बस्ती का कोई भी लड़का उसे पसन्द नहीं था। अतः बस्ती के किसी लड़के से वह विवाह नहीं करना चाहती थी। वासी किसी सुन्दर, सजीले युवक से विवाह करना चाहती थी। वह तीनों लोकों में सबसे सुन्दर युवक से विवाह करना चाहती थी। वासी ने अपने मन की यह बात किसी को नहीं बताई थी। वह जानती थी कि अगर यह बात वह किसी को बताएगी तो वह उसकी हँसी उड़ाएगा और उसे पगली कहेगा। लेकिन वासी ने मन-ही-मन यह निश्चित कर लिया था कि वह तीनों लोकों के सबसे सुन्दर युवक से विवाह करेगी।

वासी के मन में तीनों लोकों के सबसे सुन्दर युवक से विवाह करने की बात नई नहीं आई थी। जब वह पाँच वर्ष की थी और विवाह का मतलब भी नहीं समझती थी तभी उसने एक सपना देखा था। उसे एक साधु ने सपने में दर्शन दिए थे और कहा था कि वह चाहे तो उसका विवाह तीनों लोकों के सबसे सुन्दर, दिव्य, अलौकिक, प्रतिभाशाली युवक से हो सकता है। साधु ने वासी से यह भी कहा था कि उसका यह कार्य वन देवता कर सकते हैं। इसके लिए उसे अभी से प्रतिदिन नियमित रूप से प्रात:काल वन देवता को जल चढ़ाना होगा। अपनी बात पूरी करने के बाद साधु महाराज अन्तर्धान हो गए।

वासी सपना देखने के बाद सो नहीं सकी। वह उठकर बैठ गई। और सोच-विचार करने लगी। पाँच साल की वासी इस सपने का अर्थ नहीं समझ पा रही थी। उसकी समझ में बस इतना आ रहा था कि वन देवता को जल चढ़ाएगी तो उसे बहुत सुन्दर दूल्हा मिल जाएगा।

अगले दिन प्रातःकाल वासी ने बड़ी देर तक स्नान किया और फिर साफ-धुले कपड़े पहनकर एक बर्तन में जल लेकर वन देवता के मन्दिर की ओर चल पड़ी। उसके माता-पिता ने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रही है? लेकिन वासी कुछ भी नहीं बोली। वह सीधी वन देवता के मन्दिर पहुँची और वन देवता पर जल चढ़ाकर वापस आ गई।

धीरे-धीरे वासी का यह नियम बन गया। वह प्रतिदिन प्रातःकाल उठती, स्नान करती, साफ-धुले कपड़े पहनती और जल लेकर वन देवता के मन्दिर पहुँच जाती तथा जल चढ़ाकर वापस लौट आती। उसके घरवालों ने उससे इस बारे में कई बार पूछा, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। कुछ समय बाद घरवालों ने उससे इस सम्बन्ध में पूछना बन्द कर दिया। वासी ने घरवालों के समान ही बस्तीवालों को भी कभी कुछ नहीं बताया।

इस मध्य वासी में बहुत से परिवर्तन आ गए। वासी जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उसकी बहुत बोलने की आदत कम होती गई। बारह-तेरह वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते तो उसने चुप रहना आरम्भ कर दिया। अब वह बहुत कम बोलती थी और केवल काम की बातें करती थी। उसमें अपनी आयु की अन्य लड़कियों के समान न चुलबुलापन था और न लड़कों से छेड़छाड़ की आदत | लेकिन वासी जो कुछ करती थी, अच्छा करती थी और जितना बोलती थी, मीठा बोलती थी। जब वह बोलती थी तो ऐसा लगता था, मानो उसके मुँह से फूल झर रहे हों। वह पूरी बस्ती के लोगों के काम करती थी और सभी बड़े बुजुर्गों की निःस्वार्थ सेवा करती थी। इसीलिए पूरी आदिवासी बस्ती उसके गुण गाती थी और उसकी प्रशंसा करते नहीं थकती थी।

वासी का सोलहवाँ साल आधा बीत चुका था। इस समय उसका रूप और सौन्दर्य देखते ही बनता था। वह स्वर्ग की अप्सराओं से भी अधिक सुन्दर दिखाई देने लगी थी। उसके शरीर का अंग-अंग ऐसा लगता था, मानो साँचे में ढालकर बनाया गया हो।

सर्दियों का मौसम समाप्त हो रहा था और बसन्‍त उत्सव की तैयारियाँ आरम्भ हो गई थीं। अचानक एक रात वासी को सपने में वही साधु दिखाई दिया। वासी ने इतने लम्बे समय बाद भी साधु को पहचान लिया। साधु के चेहरे पर अलौकिक तेज था। उसके दिव्य तेज से वासी का घर भर गया। वासी ने साधु को प्रणाम किया और उसे बताया कि वह उसकी आज्ञा के अनुसार वन देवता को नियमित जल चढ़ा रही है।

साधु ने वासी की यह बात बड़े ध्यान से सुनी और उसकी ओर मुस्कराकर देखा। साधु ने उसे बताया कि उसे सब मालूम है। उसे यह भी मालूम है कि वह नियमित रूप से बड़े पवित्र भाव से वन देवता को जल चढ़ा रही है। इतनी बात कहने के बाद साधु कुछ पल के लिए रुका और फिर उसने बताया कि अब उसकी साधना पूरी हुई। इस बार वह बसन्त उत्सव में बड़ी हँसी-खुशी से भाग ले। इसी बसन्त उत्सव पर उसे तीनों लोकों का सबसे सुन्दर युवक मिलेगा और उससे विवाह करके उसे अपनी दुल्हन बनाएगा। इतना कहकर साधु ने दाहिना हाथ वासी के सिर पर रखकर उसे आशीर्वाद दिया और अन्तर्धान हो गया।

साधु को सपने में देखने के बाद इस बार वासी की नींद नहीं टूटी। वह रातभर मीठी नींद सोती रही और मधुर सपने देखती रही।

अगले दिन प्रातःकाल जब वह सोकर उठी तो बहुत खुश थी। उसके होंठों पर बार-बार मुस्कराहट-सी आ रही थी। उसे जैसे ही साधु की बात याद आती, आँखों में एक अजीब-सा नशा छा जाता। इस वर्ष का बसन्त उत्सव उसके लिए नई बहारें लेकर आ रहा था। वासी बार-बार अपने होनेवाले पति के बारे में सोच रही थी। साधु के आशीर्वाद से उसे तीनों लोकों में सबसे सुन्दर पति मिलनेवाला था। वासी के सुन्दर खिले हुए मुस्कराते चेहरे को उसके घरवालों ने भी देखा। उन्हें बहुत अच्छा लगा। लेकिन उन्होंने इस बार उससे कुछ पूछा नहीं।

वासी बहुत खुश थी। लेकिन उसकी दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया। उसने हमेशा की तरह स्नान किया और साफ-धुले कपड़े पहनकर एक बर्तन में जल लेकर वन देवता के मन्दिर की ओर चल पड़ी। वासी यूँ तो सामान्य बनी हुई थी, लेकिन आज उसकी चाल में हिरनी-सी चंचलता साफ दिखाई दे रही थी। उसके खिले हुए चेहरे और हिरनी जैसी चाल को बस्ती वालों ने भी देखा। उन्होंने यह अनुमान लगाया कि वासी को बस्ती का कोई लड़का पसन्द आ गया है। इसीलिए वह खुश दिखाई दे रही है।

वासी ने बस्तीवालों पर कोई ध्यान नहीं दिया और सीधी वन देवता के मन्दिर आ पहुँची । उसने बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ वन देवता पर जल चढ़ाया और वहीं दोनों हाथ जोड़कर बैठ गई । न जाने क्यों आज उसका मन, वन देवता से बहुत-सी बातें करने का हो रहा था। वह वन देवता से कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शरम के कारण कुछ कह नहीं पा रही थी। वासी बड़ी देर तक वन देवता के सामने बैठी रही और फिर अपने घर आ गई।

आदिवासियों की बस्ती मे बसन्त उत्सव की तैयारियाँ आरम्भ हो चुकी थीं। वासी हमेशा चुपचाप उत्सव की तैयारी देखती रहती थी। लेकिन इस बार वह भी उत्सव की तैयारी में शामिल हो गई। उससे बस्ती के कई लड़के-लड़कियों ने पूछा कि क्या उसे कोई लड़का पसन्द आ गया है? लेकिन वासी कुछ नहीं बोलीं। उसने किसी को कुछ भी नहीं बताया और बड़े मनोयोग से बसन्त उत्सव की तैयारियों में लगी रही।

इस बार बसन्त उत्सव बड़ा उल्लास भरा था। यूँ तो इस आदिवासी बस्ती में हमेशा ही बसन्त उत्सव बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता था, लेकिन इस बार वासी के भाग लेने के कारण लोगों की खुशी बहुत बढ़ गई थी। लोगों को यह जानने की बड़ी उत्सुकता थी कि वह कौन-सा भाग्यशाली है, जिसे वासी ने पसन्द किया है और जिससे वह विवाह करेगी। सभी लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे।

धीरे-धीरे बसन्त उत्सव का दिन आ गया। बस्ती के युवकों ने जंगल जाकर कई हिरन मारे। दोपहर को सामूहिक भोज हुआ और शाम होते ही बस्ती के लड़के-लड़कियाँ सज-धजकर वन देवता के मन्दिर के सामने एकत्रित हो गए। वन देवता के मन्दिर के सामने का मैदान इस उत्सव के लिए विशेष रूप से सजाया गया था। मैदान के चारों ओर लताओं में रंग-बिरंगे, सुगन्धित फूल बाँधकर वन्दनवार लगाए गए थे और बीचोंबीच में अग्निकुंड तैयार किया गया था। परम्परा के अनुसार विवाह के इच्छुक नए लड़के-लड़कियाँ इसी अग्निकुंड के चारों ओर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते थे और सात फेरे होते ही विवाहित मान लिए जाते थे।

वासी की आज की दिनचर्या रोज जैसी नहीं धी। आज उसने पहले तो हमेशा की तरह वन देवता के मन्दिर में जाकर जल चढ़ाया । इसके बाद घर के काम-काज निपटाए और दोपहर होते-होते वन देवता के मन्दिर के सामने वाले मैदान में आ गई इस समय बस्ती के कई मनचले लड़के वहाँ घूम रहे थे। कुछ लड़कियाँ भी थीं। सभी वासी की पसन्द के लड़के के बारे में जानना चाहते थे, लेकिन वासी बसन्त उत्सव के काम में सबका हाथ बँटाती रही, पर बोली कुछ नहीं । वह थोड़ी-थोड़ी देर में वन देवता के मन्दिर के द्वार की ओर देख अवश्य लेती थी।

धीरे-धीरे शाम हो गई और रात का अँधेरा बढ़ने लगा। इसी समय मन्दिर के पुजारी ने अग्निकुंड में घी डाला और आग लगा दी। इसके साथ ही बड़े-बड़े ढोल बजने लगे।

आदिवासी लड़के-लड़कियों को इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उन्होंने अपने-अपने जोड़े बनाए और अग्निकुंड के निकट आकर थिरकने लगे। वे अपनी बोली में प्रेम और मादकता के गीत गा रहे थे और एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए नाच रहे थे। नाचते-नाचते कभी-कभी उनके शरीर एक-दूसरे से टकरा जाते थे। ऐसे में उनकी आँखों से मदिरा छलक पड़ती थी।

वासी ने आज अपने शरीर पर हल्दी और चन्दन का उबटन लगाया था और खूब सज-सँवरकर आई थी। उसके शरीर पर पीले कपड़े इतने अच्छे लग रहे थे, मानो पूरा बसन्‍त उसी पर छा गया हो। वासी बहुत खुश धी। आज उसे अपना जीवनसाथी मिलनेवाला था। लेकिन कभी-कभी वह उदास हों जाती थी। उसका जीवनसाथी अभी तक उसे दिखाई नहीं दिया था।

अग्निकुंड के चारों ओर लड़के-लड़कियाँ मोहक नृत्य कर रहे थे और वासी पास खड़ी उनका नृत्य देख रही थी। लेकिन नृत्य देखने में उसका मन नहीं लग रहा था। उसकी दृष्टि बार-बार वन देवता के मन्दिर की ओर उठ जाती थी। प्रतीक्षा का एक-एक पल उसके लिए कठिन होता जा रहा था।

धीरे-धीरे अर्धरात्रि का समय आ गया। वासी को लगा कि उसकी जीवनभर की तपस्या व्यर्थ गई। साधु का कथन सत्य नहीं था। उसका विश्वास डगमगाने लगा। अचानक उसके मन में एक विचार आया। अब वह जीवित नहीं रहेगी। इसी अग्निकुंड में कूदकर अपनी जान दे देगी।

प्राणों के उत्सर्ग का विचार आते ही वासी के मुख-मंडल पर अलौकिक आभा छा गई। उसने एक बार पुनः वन देवता के मन्दिर की ओर देखा और मन-ही-मन वन देवता को प्रणाम कर अग्निकुंड की ओर बढ़ी।

इसी समय वन देवता के मन्दिर से एक सुन्दर, सजीला युवक निकला और उसने तेजी से आगे बढ़कर, अग्निकुंड की ओर बढ़ती हुई वासी का हाथ पकड़ लिया।

वासी ने अपना हाथ पकड़नेवाले युवक की ओर देखा। वह बस्ती का कोई युवक नहीं था। वह तीनों लोकों का सबसे सुन्दर युवक था। वह कामदेव था। अग्निकुंड के चारों ओर नृत्य करते हुए युवक-युवतियों के पैर थम गए। उन्होंने वासी और उसके पास खड़े युवक को देखा तो देखते ही रह गए। बस्तीवालों ने इतनी अच्छी जोड़ी पहले कभी नहीं देखी थी।

वासी ने एक बार पुनः वन देवता को प्रणाम किया और इसके बाद उसके पैर थिरकने लगे। उसके साथ उसका साथी भी नृत्य कर रहा था। दोनों का नृत्य अदभुत और अलौकिक था। दोनों बड़ी देर तक नृत्य करते रहे। उन्होंने नृत्य करते-करते अग्निकुंड के सात फेरे लगाए और प्रातःकाल होते-होते घर आ गए।

वासी के घरवालों ने सुन्दर, सजीले युवक को देखा तो उनके मन भी खिल उठे। उन्होंने वासी के लिए ऐसे ही पति की कल्पना की थी। वासी के घरवालों ने दोनों के रहने के लिए एक अलग घर की व्यवस्था कर दी और वे दोनों साथ-साथ रहने लगे।

धीरे-धीरे दो माह बीत गए। वासी के विवाह के बाद आसपास के जंगल में ढेर सारे फूल खिल गए थे। इतने फूल पहले कभी नहीं खिले थे। ऐसा लग रहा था, मानो वासी के विवाह की खुशी में पूरा जंगल प्रसन्‍न हो रहा हो।

वासी बहुत खुश थी। उसकी तपस्या सफल हो गई थी। उसे अपनी पसन्द का, तीनों लोकों का सबसे सुन्दर पुरुष पति रूप में मिल गया था। अब उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रह गई थी। वह अपने सुन्दर, सजीले पति के साथ आराम से अपना जीवन व्यतीत करना चाहती थी।

वासी की यह इच्छा पूरी न हो सकी। उसका सुखी जीवन अधिक समय तक स्थायी नहीं रह सका। उसका पति और कोई नहीं, कामदेव था। कामदेवी ने अपने पति की कुछ समय तक प्रतीक्षा की, लेकिन जब वह लम्बे समय तक वापस नहीं आया तो वह स्वयं उसकी खोज में धरती पर आ पहुँची।

कामदेवी को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा। उसने शीघ्र ही कामदेव को ढूँढ़ निकाला और एक दिन प्रातःकाल वासी के घर आकर खड़ी हो गई।

वासी वन देवता को जल चढ़ाकर लौट रही थी। उसने कामदेवी को देखा तो उसे प्रणाम किया। कामदेवी उसे अपना ही प्रतिरूप दिख रही थी।

कामदेवी क्रोध में थी। उसने बड़ी क्रोधित नजरों से वासी को देखा और कुछ बुदबुदाई।

अचानक एक चमत्कार हुआ । वासी अदृश्य हो गई और जहाँ वासी खड़ी थी, वहाँ सुन्दर गहरे पीले रंग का फूलोंवाला एक वृक्ष प्रकट हो गया।

कामदेवी का क्रोध अब शान्त हो चुका था। उसने कामदेव का हाथ पकड़ा और देवलोक की ओर चल पड़ी।

(डॉ. परशुराम शुक्ल की पुस्तक 'भारत का राष्ट्रीय
पुष्प और राज्यों के राज्य पुष्प' से साभार)

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