अकेली (नाटक) : सआदत हसन मंटो

Akeli (Play) : Saadat Hasan Manto

पात्र/अफ़राद
सुशीला: (एक नौजवान औरत जिसकी आवाज़ में रतजगे की ख़रख़राहट है)
किशवर: (एक दौलतमंद आदमी। आवाज़ में बांकपन है)
मोती: (एक जज़बाती नौजवान)
चपला: (एक आम कुँवारी लड़की)
मुदुन: (किशवर का दोस्त)
क़ुली:
और चार पाँच आरकैस्टरा:
(रेल-गाड़ी के चलने की आवाज़।इस आवाज़ पर जे़ल की इबारत सुपरइम्पोज़ की जाये)
(तमहीद: ये ज़िंदगी की गाड़ी चली जा रही है। दनदनाती हुई। किसे मालूम है कि इस के भारी भरकम पहीयों के नीचे कितने पत्थर पिस जाते हैं। कितनी जानदार चीज़ें उस के सदा घूमने वाले चक्कर की लपेट में आ जाती हैं। ज़िंदगी की गाड़ी यों ही चलती रहेगी। दनदनाती हुई। बच्चे घुटनों चलते रहेंगे। जवान ऊंची ऊंची फ़िज़ाओं में उड़ते और गिरते रहेंगे। बुढ़ापा रोता रहेगा। जवानी चलाती रहेगी और। ।ज़िंदगी की अनथक गाड़ी चलती रहेगी। दनदनाती हुई। तदबीर तक़दीर से टकराती रहेगी। उम्मीद और यास बाहम दस्त-ओ-गरीबां होती रहेंगी।।हुस्न अपना दस्तर ख़वान बिछाए इशक़ को ख़ुराक देता रहेगा। और ज़िंदगी की गाड़ी दनदनाती रहेगी।
एक औरत और एक मर्द। दो औरतें और एक मर्द। दो मर्द और एक औरत ये गर्दान अज़ल से जारी है और अबद तक जारी रहेगी। क़िस्सा आदम रंगीन तर होता जाएगा और।ज़िंदगी की आहनी गाड़ी पेच खाती हुई चलती रहेगी।
गाड़ी की आवाज़ चंद लमहात तक जारी रहेगी। फिर उसी गाड़ी के ठहरने की आवाज़ आए। याद रहे कि रात का वक़्त है। ख़्वांचे वालों की उदास थकी हुई आवाज़ कभी कभी सुनाई दे। इस दौरान में इंजन की शाईं शाईं बराबर आती रहे। जे़ल का टुकड़ा इन आवाज़ों पर सुपरइम्पोज़ किया जाये।)
सुशीला: (घबराए हुए लहजे में) क़ुली ! क़ुली ! (ज़ोर से) क़ुली!
एक आदमी: क्यों भई कोई क़ुली है।?
सुशीला: मोहन!मोहन कहाँ गया?
वही आदमी: मोहन?
सुशीला: कुछ नहीं।क़ुली!क़ुली!
क़ुली: जी हुज़ूर!
सुशीला: (घबराहट में ये मेरा सामान बाहर निकालो।कौन सा स्टेशन है।
क़ुली: ये एक सूटकेस और बिस्तरा ही है या कुछ और भी है!
सुशीला: (अपने आपसे) मोहन कहाँ गया?। ये कौन सा स्टेशन है।ठहरो क़ुली।अस्बाब अभी ना उतारो। उनका बिस्तर और ट्रंक कहाँ है।
क़ुली: (अपने ध्यान में) एक आना फेरे का मेमसाहब।आपसे ज्यादा थोड़े लूँगा।
सुशीला: इसाब बाहर निकाल दिया। लेकिन।लेकिन। ये कौन सा स्टेशन है मोहन कहाँ है।मेरे सूटकेस का ताला किस ने खोला है।
क़ुली: ऐसे ही खुला पड़ा था।
(ट्रंक खोलने की आवाज़।फिर दबी दबी चीख़)
सुशीला: मेरे ज़ेवर।मैं लुट गई।
क़ुली: किया हुआ मेम साहब।
सुशीला: (परेशानी के आलम में) कुछ नहीं।तुम जाओ। मेरा अस्बाब यहीं पड़ा रहने दो
(चंद लमहात तक इंजन की शाईं शाईं। फिर सीटी की आवाज़। इंजन की चीख़। फिर गाड़ी चलने की आवाज़।आहिस्ता-आहिस्ता ये आवाज़ धीमी होती जाये)
किशवर: मैं समझता हूँ आप किसी का इंतिज़ार कर रही हैं।
सुशीला: (चौंक कर) मोहन तुम (फिर फ़ौरन ही नाउम्मीद हो कर) नहीं! मोहन कहाँ है?
किशवर: (बड़े बांके अंदाज़ में) मैं समझता हूँ आपको किसी का इंतिज़ार है।
सुशीला: (घुट्टी घुट्टी आवाज़ में)।जी नहीं। मैं अकेली हूँ।
किशवर: (मुस्कुरा कर)। आप अकेली नहीं हैं।क़ुली उनका अस्बाब उठाओ।
(दूर से गाड़ी की चीख़ मद्धम में आवाज़ आए और थोड़ी देर थरथरा कर डूब जाये)
(नाचने की आवाज़।सुशीला तोड़ा लेती है)
किशवर: भई सुशीला ख़ूब नाचती हो। ऐसा मालूम होता है हवा में सिगरेट का धुआँ परेशान हो रहा है। आँखों के सामने ख़ूबसूरत अदाओं और लचकीले ख़यालों का एक भंवर सा बन जाता है। एक अजीब चक्कर में आदमी फंस जाता है। समझ में नहीं आता तुम कहाँ से शुरू होती और कहाँ ख़त्म हो जाती हो।
(नाच बंद हो जाता है। ज़मीन पर घुंगरुओं के साथ सुशीला के चलने की आवाज़ आती है)
सुशीला: एक सिर्फ आपने दाद दी तो क्या हवा में कुछ और भी चाहती हूँ।
किशवर: क्या चाहती हो तुम। तुम्हें और किस चीज़ की ज़रूरत है?
सुशीला: ये मकान।इस के आठ बड़े बड़े सुनसान कमरों। एक छोटे से बाग़ और तीन चार नौकरों की झुक्की हुई कमर के आगे क्या और कुछ भी नहीं। मैं चाहती हूँ, जाने मैं क्या चाहती हूँ।
किशवर: (हंसकर) कुछ ना चाह कर ना चाहना ही औरत की सबसे बड़ी चाह है। लेकिन मैं पूछता हूँ आज कल तुम सोचती क्या रहती हो।
सुशीला: (मुज़्तरिब लहजे में)।मैं ये सोचती रहती हूँ इस ख़ाली घर में एक ख़ूबसूरत तिपाई हो जिसको आप अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ सजाते रहते हैं।
किशवर: इस लिए कि तिपाई और औरत में कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं।तिपाई पर से अगर कपड़ा सरक जाये तो बड़े बड़े क़ीमती फूलदान गिर कर चकना-चूर हो जाया करते हैं और।
सुशीला: बस-बस परमात्मा के लिए इस से आगे ना कहीएगा। किशवर साहिब आप औरत को बिलकुल नहीं जानते। वो मर्द औरत को क्या जाने जिसे प्लेटफार्म पर खोए हुए टिकट की तरह एक औरत मिल गई हो। मैं जो कुछ चाहती हूँ मुझे मालूम है। आज से दो बरस पहले मैं घर से भाग कर सोने और चांदी के चोर मोहन के साथ एक रेल-गाड़ी में सवार हुई थी उस वक़्त मेरे दिल में जिस बात की चाह थी मुझे अब भी याद है। और सच्च पूछिए तो वो ना-मुकम्मल चाह। वही प्यासी ख़ाहिश मेरे अंदर तड़प रही है। वो अलफ़ाज़ जो मेरी ज़बान की नोक पर आकर जम गए थे पिघल कर बाहर निकलने के लिए बेताब हैं।मैं अकेली हूँ। किशवर साहिब मैं अकेली हूँ। दो बरस से मैं इस ख़ौफ़नाक तौर पर सुनसान मकान में इन घुंगरओं की उदास झनझनाहटें सुना करती हूँ। मैं कुछ और भी सुनना चाहती हूँ।दुनिया में घुंगरूंओं की झनझनाहट के इलावा और बहुत सी आवाज़ें मौजूद हैं। मैं सबकी सब सुनना चाहती हूँ।मैं चाहती हूँ। मेरे इर्दगिर्द हुजूम हों। मैं इन हुजूमों के अंदर घर जाना चाहती हूँ। आवाज़ के समुंद्र में डुबकियां लगाना चाहती हूँ। मैं बहुत कुछ चाहती हूँ।
(हुजूम का शोर। जे़ल के टुकड़े इस पर सुपरइम्पोज़ किए जाएं)

अलिफ़-वार फ़ंड के सिलसिले में मिस सुशीला का नाच।
ब: मिस सुशीला पहली मर्तबा स्टेज पर।
ज: टाउन हाल में एक शानदार इजतिमा।
द: राय बहादुर लाला किशवर चंद की मसाई जमीला।

(हुजूम का शोर बड़ी सफ़ाई से रक़्स के एक टुकड़े में तहलील किया जाये)
(रक़्स परे और आरकैस्टरा के साथ हो। तोड़े वग़ैरा लिए जाएं।जब रक़्स ख़त्म हो जाये तो दाद के नारे बुलंद हों। तालियाँ पीटी जाएं। आहिस्ता-आहिस्ता ये शोर तहलील हो जाये)

सुशीला: (सख़्त घबराहट में।लहजा लर्ज़ां हो जैसे जज़बात से भरपूर है) मैं ! मैं ! मैं ! आप लोगों की क़दरदानी। मैं आप लोगों की क़दरदानी का शुक्रिया अदा करती हूँ (हलक़ में जैसे कुछ फंस जाता है।) मैं पहली मर्तबा स्टेज पर आई हूँ। इस लिए। मैं इस लिए (हँसने की कोशिश करते हुए) कुछ घबरा सी गई हूँ।मैंने इतना हुजूम पहले कभी नहीं देखा। मैं मैं एक (जल्दी से) बार फिर आपका शुक्रिया अदा करती हूँ।
(हुजूम का शोर और तालियों की आवाज़)
(नोट: ये शोर आहिस्ता-आहिस्ता तहलील कर दिया जाये।)
किशवर: तुमने मेरी ताली की आवाज़ सुनी थी सुशीला।
सुशीला: (हुजूम का असर अभी तक इस पर क़ायम है) नहीं। मैंने किसी की ताली की आवाज़ नहीं सुनी। मुझे तो ऐसा महसूस होता था कि तक़दीर के दो बड़े बड़े हाथ मेरे कानों के पास एक ना ख़त्म होने वाली ताली बजा रहे हैं। उफ़ ये आवाज़ कितनी भयानक थी।
किशवर: दो बरस की तन्हाई ख़त्म हो चुकी। इन आठ सुनसान कमरों, नौकरों की झुकी हुई कमर और छोटे बाग़ीचे के आगे बहुत कुछ पड़ा है जिसकी सयाहत तुमने अब शुरू कर दी है। घबराओ नहीं दुनिया इतनी बड़ी नहीं जितनी कि तुम समझे बैठी हो । (हंसकर) अब क्या सोच रही हो!
सुशीला: ये सोच रही हूँ । मैं पूछती हूँ आप मुझसे मुहब्बत क्यों नहीं करते । (जज़बाती अंदाज़ में) दो साल हो गए हैं मुझे यहां आए हुए। आपने एक-बार भी मुझे मुहब्बत की नज़रों से नहीं देखा। मैं औरत हूँ। एक ना-मुकम्मल औरत हूँ।कुर्सी नहीं हूँ।एक-बार भी आपने मुहब्बत भरा कलिमा मुँह से नहीं निकाला। क्या मैं ख़ूबसूरत नहीं, किया मुझमें वो खूबियां नहीं जो मर्द के दिल में मुहब्बत पैदा करती हैं। मुझमें क्या नुक़्स है जो आपने मुझे उन निगाहों से देखना गवारा नहीं किया जो औरत के अंदर निस्वानियत बेदार करती हैं। जो औरत को बताती हैं कि वो औरत है मिट्टी की ढेरी नहीं। दो बरस तक मैं सोचा कीए हूँ। दो बरस तक मैं आपकी निगाहों में मुहब्बत की उदासी ढूंढ रही हूँ मगर । मैं पूछती हूँ मुझे यहां लाने से आपका मतलब किया था। आपने कोई हाथी ख़रीद लिया होता कोई बंदर पाल लिया होता। कोई मीना पिंजरे में डाल ली होती।
किशवर: (मुस्कुरा कर) आहिस्ता-आहिस्ता (वक़फ़ा) लो अब पूछो क्या चाहती हो।
सुशीला: (थक कर) मैं कुछ पूछना नहीं चाहती हूँ।
किशवर: तो मैं तुमसे इक बात पूछना चाहता हूँ। मैंने इन दो बरसों में एक मर्तबा भी तुम्हें मुहब्बत भरी नज़रों से नहीं देखा। दरुस्त है। अब तुम ये बताओ क्या तुम मुझसे मुहब्बत करती हो। मुझसे मुहब्बत कर सकती हो।
(चंद लमहात ख़ामोशी तारी रहे)
किशवर: बोलो। क्या तुम मुझसे मुहब्बत करती हो । क्या तुम मुझसे मुहब्बत कर सकती हो।
सुशीला: (वक़फ़ा) नहीं । मैं आपसे मुहब्बत नहीं करती । मैं आपसे मुहब्बत।नहीं मैं इस के मुताल्लिक़ इस वक़्त वसूक़ से कुछ नहीं कह सकती। लेकिन मेरा ख़्याल है मैं आपसे कभी मुहब्बत नहीं कर सकूंगी। इस लिए कि आप औरत से कोसों दूर हैं।
किशवर: तुम ठीक कहती हो । मैं औरत से इतना ही दूर हूँ जितना कि मिर्रीख़ हमारे इसकरा ज़मीन से दूर है।लेकिन इस में मेरा कोई क़सूर नहीं। तुम ग़ौर करो तो ये सारा क़सूर इस दूरी का है। मैं, तुम जानती ही हो कि मैं एक दौलतमंद आदमी हूँ।चीज़ें ख़रीदने का आदी। मैंने सिर्फ तुम्हारे मुँह से मुहब्बत मुहब्बत नहीं सुनी। ये लफ़्ज़ में इस से पेशतर कई मर्तबा सुन चुका हूँ। मैं चाहता हूँ कि इस से मुझे दिलचस्पी पैदा हो जाये मगर।अफ़सोस है कि तुम दौलतमंद नहीं हो। तुम मेरी बातों का मतलब कैसे समझोगी। मुहब्बत (हंसकर)। यक़ीनन ये कोई दिलचस्प चीज़ होगी। मगर मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि या तो कोई चीज़ पसंद की जाती है या नापसंद। मैं तुम्हें पसंद करता हूँ। इस के बावजूद तुम्हें पसंद करता हूँ कि तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करतीं।मेरा मतलब ये है कि मुझे पसंद नहीं करतीं।
सुशीला: मैं आप को पसंद ज़रूर करती हूँ इस लिए नहीं कि आप मुझसे मुहब्बत नहीं करते बल्कि इस लिए कि आप अच्छे आदमी हैं । अगर आप मुहब्बत करना भी चाहें तो ना कर सकेंगे। और मैं और मैं ऐसे नुक़्ते पर पहुंच चुकी हूँ जहां एक ऐसा ख़तरनाक मोड़ आता है कि पिछली ज़िंदगी के तमाम वाक़ियात ओझल हो जाते हैं।
किशवर: मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया (हंसकर) सुशीला तुम्हारी बातें समझने के लिए मुझे ज़रूर किसी से मुहब्बत करना पड़ेगी । अच्छा भला ये तो बताओ मुहब्बत करने के लिए पहले क्या कुछ करना पड़ता है। मेरा मतलब है मुहब्बत मेरे दिल में किस तरीक़े से पैदा हो सकती है।क्या तुम मेरे अंदर मुहब्बत पैदा कर सकती हो?
सुशीला: (वक़फ़ा) किशवर साहिब आपने बड़ी सख़्त ग़लती की जो मुझे सजा बना कर इस दुनिया में ले गए जो ख़्वाहिशों से भरी हुई है। मैं अकेली अच्छी थी।अब मुझे हुजूम से डर लगता है।किशवर साहिब मैं तन्हा रहना चाहती हूँ।मुझे डर है।मुझे डर है। अगर मेरे गूँगे जज़बात एहसास की शिद्दत से बोल उठे तो मेरे कान बहरे हो जाऐंगे।मुझे कोई आवाज़ सुनाई ना देगी। आपकी आवाज़ भी सुनाई ना देगी।
किशवर: (हँसता है) तुम दीवानी हो । (हँसता है)
(धीमे धीमे सुरों में वाइलन बजाई जाये।जे़ल का मुकालमा जब तक जारी रहे उस के अक़ब में वाइलन बजती रहे)

मोती: (सरगोशियों में) सुशीला तुम सच-मुच दीवानी हो।
सुशीला: नहीं तुम नहीं समझते मोती। तुम्हारी बातें ऐसी हैं कि मैं बहक जाती हूँ।
मोती: तुम कितनी सुन्दर हो।
(साँसों की आवाज़)
मोती: चांद की रोशनी में तुम्हारी गर्दन देखता हूँ तो ऐसा मालूम होता है मेरा ही कोई हसीन ख़्याल मुंजमिद हो गया है।
(साँसों की आवाज़)
मोती: तुम्हारे सांस मेरे साँसों में घुल मिल रहे हैं। आज की रात कितनी पुरअसरार है।
(सुशीला तेज़ी से सांस लेती है)
मोती: तुम इस रात स्टेज पर रक़्स कर रही थीं और मैं एक कोने में बैठा तुम्हारी हर लचक को अपने दिल में जज़ब कर रहा था।
सुशीला: (बे-ख़ुद हो कर) मोती (आवाज़ भेंच जाती है) मोती । आओ। यहां से भाग जाएं। लेकिन कहाँ जाऐंगे? ठहरो । चलो ऐसी जगह चलीं जो बड़ी वसीअ हो। लेकिन जिसकी वुसअतें उठा कर हम जब चाहें अपने अंदर छुपा सकें।
मोती: चलो!
सुशीला: चलो। मुझे ऐसी जगह ले चलो जहां मैं एक-बार खुल कर नाच सकूं। जहां मेरे टख़ने घुंगरूओं की तमाम झनझनाहटें निचोड़ दें। जहां मैं हरकत की आख़िरी हद को पहुंच कर साकित हो जाऊं।
मोती: जहां ज़िंदगी के आग़ाज़ और अंजाम का कुछ पता ही ना चले।
सुशीला: हाँ ऐसी ही जगह हो । (वक़फ़ा) मोती। ये दुनिया बड़ी सुन्दर है।
मोती: आज रात के दो बजे बालकनी के नीचे मैं तुम्हारा इंतिज़ार करूँगा। आज ही रात हमें यहां से भाग जाना चाहीए।
सुशीला: दो बजे।
(क्लाक दो बजाता है। टन-टन। आख़िरी टन की गूंज थोड़ी देर तक सुनाई दे)
मोती: (आवाज़ दूर से आए ।सरगोशी की सूरत में) सुशीला!सुशीला!
(सुशीला के टहलने की आवाज़)
सुशीला: आगया।आगया।अब मैं क्या करूँ। (वक़फ़ा।सरगोशियों में) मोती!मोती!
मोती: सुशीला।हाँ मैं हूँ मोती। आओ।जल्दी नीचे चली आओ।सब सामान तैयार है।
सुशीला: आहिस्ता बोलो।आहिस्ता बोलो। देखो बाहर का दरवाज़ा बंद है। अब मैं कैसे नीचे आऊँ। बालकनी से उतर आती मगर मेरे पास कोई रस्सी भी तो नहीं।
(दरवाज़े पर दस्तक होती है)।ये कौन?। तुम परे हट जाओ मोती।
(वक़फ़ा।फिर दरवाज़ा खोलने की आवाज़)
सुशीला: (सख़्त घबरा कर) आप। किशवर साहिब आप?
किशवर: (हंसकर) अरे।अभी तक तुम सोई नहीं । मैं समझा।कल तुम्हारी सालगिरा जो है। इसी ख़ुशी में नींद तो नहीं आती होगी।नए साल और नए क़दम में कोई ख़ास फ़र्क़ तो नहीं होता।
सुशीला: मैं! मैं ! हाँ सालगिरा।बैठिए।मैं ! मैं !
किशवर: तुम्हारे लिए आज मैंने एक तोहफ़ा ख़रीदा था। ये लो। साड़ी है उमीद है तुम पसंद करोगी। ठहरो।मैं तुम्हें खोल कर दिखाता हूँ।साड़ियां खोलने का ये तरीक़ा मुझे कभी ना आएगा। देखो तूर सा बना दिया है।
सुशीला: रसा?
किशवर: सुबह तुम्हें ऐसे कई तोहफ़े मिलेंगे। मैं चाहता था कि सालगिरा पर सबसे पहला तोहफ़ा तुम मेरी तरफ़ से क़बूल करो।
सुशीला: शुक्रिया।
किशवर: अच्छा अब मैं जाता हूँ। तुम सो जाओ और अच्छे अच्छे ख़ाब देखो।ये साड़ी सँभाल लो। मुझे उमीद है तुम उसे पसंद करोगी (जमाई लेता है) भई मुझे तो सख़्त नींद आ रही है। मैं चला।
(वक़फ़ा। फिर दरवाज़ा बंद करने की आवाज़)
(कपड़ों की तेज़ सरसराहाट)
सुशीला: (भिंचे हुए लहजे में) मोती ! मोती !
मोती: क्या है।तुम कहाँ चली गई थीं।नीचे उतरने के लिए कोई सामान पैदा किया?
सुशीला: नहीं तो।मोती अब मैं एक मिनट यहां नहीं ठहरना चाहती।ठहरो एक चीज़ मिल गई।मेरे पास साड़ी है। उसे जंगले से बांध कर नीचे उतर आऊँगी। तुम यहां ठहरो।
(वक़फ़ा)
सुशीला: यहां बांध देती हूँ।
मोती: मज़बूती से। सँभल के । सँभल के। अभी नहीं।अभी नहीं।बस अब ठीक है।कूद जाओ।
(कूदने की आवाज़)
सुशीला: (मरहला तै करने के बाद) उफ़।अ ब चलो। तुम्हारी मोटर कहाँ है (वक़फ़ा।फिर मोटर चलने की आवाज़)
(किशवर हँसता है)
किशवर: चली गई। और साड़ी भी काम आ ही गई। चलो भई अब सोते हैं। सख़्त नींद आ रही है। (जमाई लेता है)
(नाच की गति शुरू हो।पहले बिल्कुल धीमी हो फिर आहिस्ता-आहिस्ता बहुत तेज़ हो जाये।इस के साथ साथ सुशीला के नाचने की आवाज़ भी आए। फिर आहिस्ता-आहिस्ता लै धीमी हो जाये और मौसीक़ी और नाच की आवाज़ अक़ब में चली जाये। जे़ल का मुकालमा इस पर सपरामपोज़ किया जाये)
मोती: ऐसा मालूम होता है आसमान से घुंगरूओं की बारिश हो रही है। कितने सुहाने दिन हैं और कैसी प्यारी रातें हैं।
सुशीला: मैं ख़ुश हूँ। मैं बहुत ख़ुश हूँ। इन खुली खुली फ़िज़ाओं में ऐसा मालूम होता है मैं फैलती जा रही हूँ ।मोती मैं ये चांद उठा कर अपने सर के नीचे तकिया बना कर रख लूं।
मोती: मेरे बाज़ू पर सर रखकर सो जाओ। ये चांद से ज़्यादा आरामदेह होगा।
सुशीला: मेरी नींदें। कहाँ गईं मेरी नींदें?
मोती: सो जाओ।सो जाओ।
(धीमे धीमे सुरों में एक धुन शुरू हो जिसमें जे़ल का गीत मोती गाय)

गीत:
तारों से अलबेली परियाँ छमछम करती आएं
मीठी मीठी लोरी देकर मन तेरा बहलाएँ
मूंदी पलकों पर आकाश की खूशबूएं बरसाएँ
बीती बातें हल्के फुल्के सपने से बन जाएं
नींदें सुंदरता का गहना
स्वर्ग से नींद नगर में रहना
किरनों की सीढ़ी से उतरें टिम टिम करते तारे
पौ फटने तक हौले हौले नाचें हर के द्वारे
मन-सागर में डुबकी मारें सपने प्यारे प्यारे
छट जाएं सब ग़म के बादल कट जाएं दुख सारे
सुशीला और मोती:
नींद सुंदरता का गहना
स्वर्ग है नींद नगर में रहना
सुशीला: (एक दम) नहीं।नहीं। मैं नहीं सोना चाहती। मैं नहीं सो सकती। मैं जागती रहूंगी।
(नाच की गति शुरू हो। रक़्स का एक तेज़ सा चक्कर शुरू हो।चंद लमहात की तेज़ गर्दिशों के बाद एक दम आरकैस्टरा बंद हो जाये और ऐसा मालूम हो कि बहुत से घुंघरु फ़र्श पर बिखर गए हैं। इस के बाद एक दम ख़ामोशी तारी हो जाये)
मोती: (घबराए हुए अंदाज़ में) घर से तार आया है कि जल्दी पहुँचो। मुझे अभी अभी जाना होगा।तुम्हें यहां अकेली छोड़कर मैं जा रहा हूँ। मैं। (गुम अफ़्ज़ा मौसीक़ी का टुकड़ा।जे़ल का मुकालमा इस पर सपरामपोज़ किया जाये)

सुशीला: तशरीफ़ रखीए।मेरा ही नाम सुशीला है।
चपला: तार मैंने भेजा था। इस लिए कि मैं तुमसे अकेले मैं बात करना चाहती थी। (जज़बात की शिद्दत के साथ) तुम ख़ूबसूरत हो।
सुशीला: आपकी निगाहें जो ख़ूबसूरत हैं। बैठ जाईए। आप थकी थकी मालूम होती हैं।
चपला: मैं इस घर में नहीं बैठूँगी जहां दूसरे घरों को तबाह करने वाली औरत रहती है।
सुशीला: मैं आपका मतलब नहीं समझी।
चपला: तो मुझे साफ़ लफ़्ज़ों में कहना पड़ेगा कि मैं इस आदमी की मंगेतर हूँ जिसको तुम क़रीब क़रीब तबाह कर चुकी हो। मेरी जुर्रत की शायद तुम दाद ना दे सको। मैं रस्म-ओ-रिवाज के तमाम बंधन तोड़ कर यहां तुम्हारे पास पहुंची हूँ। मुझे मेरा मंगेतर वापिस दे दो। मुझे तुमसे नफ़रत है। इस लिए कि तुम डसने वाली नागिन हो। मगर मैं । तुम जानती हो तुम्हारी वजह से एक सिर्फ मैं तबाही के ग़ार में नहीं गिरूंगी बल्कि वो भी बर्बाद हो जाएगा। इस का बाप उस को आक़ करने वाला है।
सुशीला: इस में मेरा क़सूर? मैं इस के बाप से जायदाद नहीं माँगती। मैं किसी से कुछ भी नहीं माँगती। इस के मिलने के बाद मैं और किसी चीज़ की ख़ाहिश नहीं कर सकती हूँ।
चपला: तुम बहुत ख़ुद-ग़रज़ हो।
सुशीला: हर आदमी ख़ुद-ग़रज़ होता है। क्या आप नहीं हैं। अच्छा भला ये तो बताईए क्या आपको मोती से मुहब्बत है?
चपला: (ख़ामोश रहती है)
सुशीला: क्या आपको मोती से मुहब्बत है?
चपला: ये कैसा बेढब सवाल है। मैं उस से मुहब्बत करूँगी। मुझे उस से मुहब्बत करनी पड़ेगी इस लिए कि वो मेरा होने वाला पति है।वो मुझे अज़ीज़ ना होता तो मैं यहां तुम्हारे पास क्यों आती।
सुशीला: (हँसती है) आपको अभी उस से मुहब्बत पैदा होगी। मगर मैं तो उस से मुहब्बत कर रही हूँ। किस का हक़ उस पर ज़्यादा हुआ। आपका या मेरा?
चपला: मुझे ज़्यादा बातें बनाना नहीं आतीं। मैंने सच्ची सच्ची बात तुमसे कह दी है। ये मुझे मालूम ही था कि तुम मेरे जज़बात की क़दर ना करोगी। सच्च है एक नाचने गाने वाली औरत।
सुशीला: (बात काट कर) ये फ़रमाईए आप चाहती क्या हैं?
चपला: (रोना शुरू कर देती है)। मैं कुछ नहीं चाहती। तुम अपनी हिट से बाज़ ना आओगी तो वो तबाह हो जाएगा। और।और। मैं बर्बाद हो जाऊँगी।
सुशीला: मेरे मुताल्लिक़ भी आपने कुछ सोचा!
चपला: मैं तुम्हारे मुताल्लिक़ क्या सोच सकती हूँ।तुम मुझसे बेहतर अपने मुताल्लिक़ सोच सकती हो । तुमने दुनिया देखी है। मैंने तो आज पहली मर्तबा घर से बाहर क़दम निकाला है (रोती है)
सुशीला: रोईये नहीं। मुझे आपसे हमदर्दी है। जाईए मैंने आपका होने वाला मोती आपको दे दिया।(ग़मगीं हंसी के साथ) मैं इस को आपकी और उस की अपनी बेहतरी के लिए छोड़ती हूँ। मगर मैं उस की मुहब्बत अपने दिल से नहीं निकाल सकूँगी।काश। मैं आपके लिए ये भी कर सकती।मेरी दुआ है कि आप उस से मुहब्बत कर सकें।मोती तो मुहब्बत करने में माहिर है।
(झाँझ की आवाज़)

किशवर: (झुँझला कर) ये मुहब्बत मुहब्बत की रट तुमने क्या लगा रखी है। मैं तुमसे हज़ार मर्तबा कह चुका हूँ सुशीला से मुझे मुहब्बत नहीं है। नहीं है। नहीं है(वक़फ़ा) मुझे उस की गैरहाज़िरी ज़रूर महसूस होती है इस लिए कि मैं इन्सान हूँ पत्थर नहीं हूँ। इस कमरे में जब उस की बिखरी हुई चीज़ें देखता हूँ तो मुझे उस की याद ज़रूर सताती है इस लिए कि दो ढाई बरस तक मैं इस दिलचस्प औरत को मुतवातिर देखता रहा हूँ। यही वजह है कि आज मैंने उस की तमाम चीज़ें आग में झोंक देने का इरादा कर लिया है।आहिस्ता-आहिस्ता उस की याद ज़रूर महव हो जाएगी।
मुदुन: भई अजब इन्सान हो।तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आती। मुहब्बत नहीं करते हो और करते भी हो। अब ये तुम्हारा नया फ़लसफ़ा सुन रहा हूँ। लगाओ आग इन चीज़ों को। चलो।झोंको उनको अँगीठी में।कुछ देर ये भी तमाशा रहे।
किशवर: लो (चीज़ें आग में फेंकने की आवाज़)।ये लो और(आवाज़)।
मुदुन: और ये जनाब ने मदारियों की तरह सुशीला का रेशमी रूमाल अपने कोट की आसतीन में क्यों छिपा लिया है।?
किशवर: (लाजवाब हो कर) कौन।कौन कहता है। रूमाल।आसतीन।तुम।तुम झूट कहते हो।
मुदुन: (हँसता है) मैं झूट कह सकता हूँ मगर तुम्हारी घबराहट झूट नहीं बोलती।
किशवर: मैंने। मैंने अगर उस का रूमाल अपनी आसतीन में रख लिया है तो क्या बुरा किया है। मुझे क्या उस के एक छोटे से रूमाल पर भी हक़ नहीं।
ये रूमाल मेरा अपना ही तो है।(वक़फ़ा।फिर दरवाज़ा खुलने की आवाज़)
किशवर: (एक दम हैरत-ज़दा हो कर)। सुशीला! तुम आ गईं।
सुशीला: (अफ़्सुर्दगी आमेज़ मितानत से) हाँ आ गई। बेखटके अन्दर चली आई। इस लिए कि आप मुझसे मुहब्बत नहीं करते। सिर्फ पसंद करते हैं।
किशवर: (फिर पहली सी शान के साथ) छोड़ो इन बातों को। मुझे मालूम था कि तुम ज़रूर वापिस आओगी। ये दुनिया बहुत छोटी है सुशीला। मुदुन देखा मैंने तुमसे क्या कहा था। सुशीला आ गई। सुशीला तुम किधर देख रही हो तुम्हारी ये चीज़ें पुरानी हो गई थीं। मुदुन तुम बेवक़ूफ़ों की तरह मेरी तरफ़ क्या देख रहे हो।(नाच की गति शर-ओ-ए हो)। सुशीला अब फिर वही दिलचस्पियाँ रहेंगी।
(रक़्स का टुकड़ा।हुजूम और तालियों का शोर।चंद लमहात के बाद ये ख़त्म हो जाये)

सुशीला: फ़रमाईए। मुझसे मिलने की आपने क्यों तकलीफ़ की?
मोती: (गु़स्सा दबा कर) जैसे तुम मुझे जानती ही नहीं। मैं तुम्हारे लिए बिलकुल अजनबी हूँ।देखो सुशीला। मैं ज़्यादा गुफ़्तगु नहीं करना चाहता। मैं तुमसे सिर्फ एक बात पूछने आया हूँ।
सुशीला: पूछिए!
मोती: तुम मुझे छोड़कर क्यों चली आएं।तुमने मेरी वापसी का इंतिज़ार क्यों ना किया?
सुशीला: (रुहानी तकलीफ़ महसूस करते हुए) इस लिए कि किशवर तुम्हारे मुक़ाबले में कहीं दौलतमंद है। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं था। तुम अपने बाप के रहम-ओ-करम पर थे।
मोती: (हैरत-ज़दा हो कर) तुम मेरी हतक कर रही हो। मैं
सुशीला: अब आप तशरीफ़ ले जाईए।मेरे और मुलाक़ाती भी हैं।
(दरवाज़ा खुलने की आवाज़)
किशवर: सुशीला चेहरे से पेंट वेंट उतार लिया।ये...
सुशीला: ये मिस्टर मोती लाल हैं। मैं आपका तआरुफ़ कराना भूल गई। मिस्टर मोती, किशवर साहिब से मिलीए।किशवर साहिब ये मिस्टर मोती हैं।आपने अख़बारों में उनके पिता की देहांत की ख़बर पढ़ी होगी।
किशवर: दिल की हरकत बंद हो गई थी शायद।
मोती: (झुँझला कर)।मेरा दिल काफ़ी मज़बूत है किशवर साहिब आप मुतमइन रहें।सुशीला। यही वो साहिब हैं जिनके पास दौलत के अंबार मौजूद हैं। आप अच्छे ख़ासे कार्टून मालूम होते हैं (वक़फ़ा। फिर ज़ोर से दरवाज़ा बंद करने की आवाज़)
किशवर: (ज़ोर से हँसता है)। आदमी दिलचस्प है।
सुशीला: (अफ़्सुर्दा हंसी) हाँ। कुछ दिलचस्प ही है। चलीए। मैं बहुत थक गई हूँ।
(दरवाज़ा खुलने की आवाज़।वक़फ़ा।फिर मोटर स्टार्ट होती है।चलती है।
फेड आउट)

मोती: मेरे पास काफ़ी रुपये है। तुम बे फ़िकर रहो। मैं ये चाहता हूँ कि इस किशवर की सारी बिज़नस तबाह हो जाये।जगह जगह उस के मुक़ाबले में दफ़्तर क़ायम किए जाएं।कोशिश की जाये कि मार्कीट पर हमारा क़बज़ा हो जाये। समझे।इस में कोई शक नहीं कि ये जुआ है। लेकिन मैं उसे खेल जाना चाहता हूँ।या मैं तबाह हो जाऊँगा या उस को तबाह कर दूँगा।
एक आदमी: मैं समझ गया। आपके हुक्म की तामील बहुत जल्द हो जाएगी। मैंने इस काम के लिए बहुत से माहिर इकट्ठे कर लिए हैं।
मोती: ये सब अचानक हमले की सूरत में हो।इस तरह कि वो बौखला जाये।समझे। बस चंद दिनों ही में इस खेल का ख़ातमा हो जाना चाहीए।
(हुजूम का शोर जैसा कि आम तौर पर सट्टा खेलने वाली जगहों में होता है। इस शोर पर जे़ल के टुकड़े सिपर अमपोज़ क-ए-किए जाएं।)
अलिफ़: बाज़ार बड़ा तेज़ हो रहा है।
ब: ये कौन है जो धड़ धड़ शेयर ख़रीद रहा है।
ज: अगर कुछ रोज़ तेज़ी का यही हाल रहा तो अंधेर मच जाएगा।
द: ये है कौन जिसने मार्कीट में हुल्लड़ मचा दिया है।
मोती: (क़हक़हा बुलंद करता है) ख़रीदे जाओ। ख़रीदे जाओ।
किशवर: ख़रीदे जाओ।ख़रीदे जाओ।लेकिन पता चलाओ कि हमारे मुक़ाबले में कौन आदमी है।
(वक़फ़ा।शोर बराबर जारी है)
अलिफ़: अब उसने शेयर बेचने शुरू कर दिए हैं।
ब: बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बेच रहा है।
(शोर बंद हो जाये। इस के बाद टेलीफ़ोन की घंटी की आवाज़)
सुशीला: आप बैठिए। मैं देखती हूँ कौन है(टेलीफ़ोन की घंटी बजती रहे)
(वक़फ़ा।टेलीफ़ोन का चोंगा उठाने की आवाज़) हेलो। हेलो।
टेलीफ़ोन करने वाला:(आवाज़ टेलीफ़ोन में से आती मालूम हो)किशवर साहिब हैं।
सुशीला: फ़रमाईए।
टेलीफ़ोन करने वाला: (घबराई हुई आवाज़ में) देखिए। किशवर साहिब अगर नहीं हैं तो मेरा ये पैग़ाम फ़ौरन उन तक पहुंचा दीजिए। अच्छी तरह नोट कर लीजिए गा।हमें मालूम हो गया है कि उनके मुक़ाबले में आने वाला मोती है। मोती लाल सेठ गोबिंद प्रशाद जौहरी का लड़का। उसने अपने नए शेयर आहिस्ता-आहिस्ता बेचने शुरू कर दिए हैं।किशवर साहिब अगर चाहें तो ये मौक़ा है कि उसे चुटकियों में बर्बाद किया जा सकता है। लेकिन अगर ज़रा सी ग़फ़लत हो गई तो याद रहे किशवर साहिब को बहुत भारी नुक़्सान उठाना पड़ेगा। मैं उन के हुक्म का मुंतज़िर रहूँगा। आप जल्दी उनको मेरा ये पैग़ाम सुना दीजिए।
सुशीला: बहुत बेहतर।(टेलीफ़ोन का चोंगा रखने की आवाज़)
(वक़फ़ा)
किशवर: कौन था?
सुशीला: मेरी एक सहेली थी। चान की दावत दे रही थी। मैंने मंज़ूर नहीं की इस लिए कि आज मेरा बाहर घूमने को जी चाहता है। चलीए ज़रा बाग़ की सैर कर आएं।
किशवर: चलो। मगर जल्दी वापिस आजाऐंगे इस लिए कि मुझे बहुत से काम करने हैं।
(वक़फ़ा।मोटर की आवाज़। फेड आउट)
(टेलीफ़ोन की घंटियों का शोर। बेशुमार घंटियाँ बज रही हूँ। इन आवाज़ों के बीच बीच में हेलो। हेलो। हेलो किशवर साहिब। हेलो। हेलो।की आवाज़ आती रहे)
(मोटर के चलने की आवाज़।जे़ल का मुकालमा इस पर सपरामपोज़ किया जाये)
सुशीला: जी चाहता है आज यूँही मोटर चलती रहे। दरख़्त पीछे भागे चले जा रहे हैं जैसे बीती हुई घड़ियाँ। ज़माना उस मोटर से ज़्यादा तेज़ चलने वाला है।
किशवर: आज तुम फ़लसफ़ा छांट रही हो।
सुशीला: इन्सान जिसका दुनिया में कोई मक़सद ना रहे फ़लसफ़ी हो जाता है।
किशवर: (हंसकर) ये आज तुम क्या बहकी बहकी बातें कर रही हो।
सुशीला: इन्सान जिसने अपने ख़्याल के मुताबिक़ कोई अच्छा काम किया हो अक्सर बहक जाया करता है।
किशवर: तुमने कोई अच्छा काम कर दिया!
सुशीला: जी हाँ। बड़ा अच्छा काम किया है।
किशवर: किया?
सुशीला: टेलीफ़ोन आया था कि दौलत के खेल के मैदान में आपका मुक़ाबला मोती से है।इस अनाड़ी से। मैंने इस पर तरस खा कर आपको वो बात ना बताई जिसके बाइस अब आपको लाखों का नुक़्सान उठाना पड़ेगा।
किशवर: (हैरत-ज़दा हो कर) क्या कह रही हो तुम?।वो!वो!वो टेलीफ़ोन मेरे नाम आया था।और वो आदमी मोती था।
सुशीला: जी हाँ।मोती।याद है एक-बार आपने कहा था। औरत और तिपाई में कोई फ़र्क़ नहीं होता।तिपाई पर से अगर कपड़ा सरक जाये तो बड़े बड़े क़ीमती फूलदान गिर कर चकना-चूर हो जाया करते हैं।
किशवर: तुम मुझसे पहेलियां ना भिजवाओ।
सुशीला: (अफ़्सुर्दा हंसी के साथ) औरत आपकी निगाहों में तिपाई होगी। मगर यक़ीन जानीए वो क़ुदरत की सबसे बड़ी पहेली है। मैंने उस को बचा लिया। और आपको तबाह कर दिया।भला पूछिए तो क्यों।
किशवर: क्यों?
सुशीला: इस लिए कि मुझे इस से मुहब्बत थी।और मैं और मैं नहीं। आप आप मुझे सिर्फ पसंद करते थे। औरतें अक्लमंदी की हद तक अहमक़ होती हैं। आपका क्या ख़्याल है।
किशवर: बारीक रेशमी साड़ियां और औरतें हमेशा मेरी अक़ल से बालातर रही हैं तुम्हें उस से मुहब्बत थी तो फिर उसे छोड़कर क्यों आईं।
सुशीला: औरतों को ये भी शौक़ होता है कि वो अपनी साड़ियां दूसरों को तोहफ़े के तौर पर दे दें। दूसरों के जिस्म पर अपने दिए हुए कपड़े देखकर भी वो लज़्ज़त हासिल करलेती हैं। मैंने अपनी मुहब्बत उठा कर किसी और को पहना दी और ख़ुश हो गई। मेरा ख़्याल है मेरा तोहफ़ा लेकर उस को मुहब्बत करने का सलीक़ा आ गया होगा।
किशवर: एक तोहफ़ा तुमने मुझे भी दिया है।
सुशीला: मैं भूल गई हूँ।कौन सा तोहफ़ा?
किशवर: (हंसकर) कितनी ज़ूद-फ़रामोश हो। अपने इस अनाड़ी दोस्त को इतनी जल्दी भूल गईं। इस पर तुमने जो एहसान किया है मैंने तोहफ़े के तौर पर क़बूल कर लिया है। रसीद चाहीए।
सुशीला: मैं कुछ और ही सोच रही हूँ। ऐसा मालूम होता है मैंने फिर नए सिरे से अपना सफ़र शुरू किया है। वही गाड़ी है। वही प्लेटफार्म है।
(मोटर की आवाज़।रेल-गाड़ी की आवाज़ में तहलील हो जाये।इंजन की शाईं शाईं। सीटी की आवाज़। इंजन की चीख़।फिर गाड़ी चलने की आवाज़।आहिस्ता-आहिस्ता ये आवाज़ धीमी हो जाये)

किशवर: मैं समझता हूँ आप किसी का इंतिज़ार कर रही हैं।
सुशीला: (चौंक कर) मोहन तुम (फिर फ़ौरन ही नाउम्मीद हो कर) नहीं मोहन कहाँ!
किशवर: मैं समझता हूँ आपको किसी का इंतिज़ार है।
सुशीला: (घुट्टी घुट्टी आवाज़ में)।जी नहीं । मैं अकेली हूँ।
किशवर: (मुस्कुरा कर) आप अकेली नहीं हैं।
(मोटर की आवाज़ फिर ऊद कर आए। चंद लमहात के बाद ये आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता धीमी कर दी जाये)
(फेड आउट)

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