आवारा-गर्द (कहानी) : कुर्रतुलऐन हैदर

Aawara-Gard (Story in Hindi) : Qurratulain Hyder

पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गयी। एक लंबा तड़ंगा यूरोपीयन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाये सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में सँभाल रखा था और पैरों में ख़ाकआलूद पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियाँ ज़रा सी जोड़ कर सर ख़म किया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया। “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है।” उसने कहा।

“अंदर आ जाओ।” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। ये अल्लन मामूं का ख़त था और उन्होंने लिखा था... “हम लोग कराची से हैदराबाद सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अँगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आये। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिन्दोस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है मैंने इसे हिन्दोस्तान में अ’ज़ीज़ों के नाम ख़त दे दिये हैं। और उनके पास ठहरेगा। तुम भी इस की मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।

लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिये और अब आँखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका बच्चों का सा चेहरा था, जिस पर हल्की हल्की सुनहरी दाढ़ी मूंछ बहुत अजीब सी लग रही थी।

एक और हिच हाईकर (Hitch Hiker) मैंने ज़रा कोफ़्त से सोचा। अल्लन मामूं बेचारे फ़िरिश्ता सिफ़त आदमी इसकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गए होंगे क्योंकि ये बैन-उल-अक़वामी आवारागर्द अपनी मतलब बरारी के लिए राह चलतों से दोस्ती कर लेने का फ़न ख़ूब जानते हैं। “शाहिदा ने भी आपको सलाम कहा है।” उसने मेरी तरफ़ मुड़कर बड़ी अपनाईयत से कहा।

“शाहिदा?”

“आपकी कज़न शाहिदा। मैं बनारस में उनके हाँ मुक़ीम था और लखनऊ में आपकी फूफी के हाँ। और चाटगाम में अंकल अनवर के हाँ रहूँगा और अगर दार्जिलिंग जा सका तो कज़न मुतह्हरा के घर पर ठहरूँगा।” उसने जेब में से मज़ीद लिफ़ाफ़े निकाले।

“बैठ जाओ... ओटो... चाय पियो...” मैंने एक लंबा सांस लेकर कहा। मुझे वो दो डच हिच हाईकर याद आये, जिन्हों ने कराची में लड्डन मामूं के घर पर डेरे डाल दिये थे, क्योंकि उनके पास पैसे ख़त्म हो गये थे।

“मैं तुर्की और ईरान होता हुआ आया हूँ और जर्मनी से यहां तक मैंने मोटरों और लारियों में लिफ़्ट लिए हैं। अब लंका जाऊंगा। फिर थाईलैंड वग़ैरा। वहां से कारगो बोट के ज़रिये जापान, अमरीका और इसके बाद घर वापस। इस वक़्त तो मैं औरंगाबाद से एक ट्रक पर आ रहा हूँ।”

“बेहद ऐडवेंचर रहे होंगे तुम्हारे सफ़र में।”

“हाँ, इस्तांबुल में मैं तीन रातें ग़लता के पुल के नीचे सोया। और ईरान में...” फिर उसने मुख़्तलिफ़ छोटे-छोटे ऐडवेंचर सुनाए। “मैं कोलोन यूनीवर्सिटी में पढ़ता हूँ।” उसने मज़ीद इत्तिला दी।

“पाकिस्तान और हिन्दोस्तान में तुमने क्या फ़र्क़ पाया।” खाने की मेज़ पर मैंने उससे पूछा।

“वहां सब लोग मुझसे मसअला-ए-कश्मीर पर बड़े जोशो-ख़रोश से बातें करते थे। यहां कश्मीर और पाकिस्तान का ज़िक्र बहुत कम किया जाता है। यहां के मसाइल...” फिर उसने हिन्दोस्तान के मसाइल पर एक जामेअ’ तक़रीर की। कुछ देर बाद उसने कहा, “मैं दौलतमंद सय्याहों और आ’म यूरोपियनों और अमरीकनों की मानिंद महज़ ताजमहल देखने नहीं आया हूँ। मैं रात-भर दूकानों के बर आमदों में सोता हूँ। किसानों की झोंपड़ियों में रहता हूँ। मज़दूरों से दोस्ती करता हूँ। हालाँकि उनकी ज़बान नहीं समझ सकता।”

खाने के बाद उसने बंबई का नक़्शा निकाल कर फ़र्श पर फैलाया। बेचारे अंग्रेज़ बंबई के तर्ज़-ए-तामीर को विक्टोरियन गोथिक कहते थे। यहां क्या-क्या चीज़ें काबिल-ए-दीद हैं?

“एलीफ़नटा और अपालो बंदर। और...”

“ये सब गाईड बुक में भी मौजूद है।” उसने ज़रा बेसब्री से मेरी बात काटी। और हिन्दोस्तान की मआ’शियात और इ’मरानियात पर निहायत सक़ील और मुदल्लिल गुफ़्तगु से मुझे नवाज़ा।

“ओटो... तुम्हारी उम्र कितनी है।” मैंने मुस्कुरा कर पूछा।

“मैं इक्कीस साल का हूँ।” उसने बड़े वक़ार से जवाब दिया। “और जब जर्मनी वापस पहुँचूँगा तो बाईस साल का हो जाऊंगा। और उसके अगले साल मुझे डॉक्टरेट मिल जाएगा। मैं यूनीवर्सिटी में जर्मन गिनाइया शायरी का मुता’ला कर रहा हूँ। जर्मनी में सिर्फ डॉक्टरेट मिलता है। जिस तरह आपके बी.ए., एम.ए.।” बाद अज़ां वो देर तक जर्मन गिनाइया शायरी, आलमगीर सियासत और हिन्दुस्तानी आर्ट पर रौशनी डालता रहा। वो तस्वीरें भी बनाता था। किस क़दर बुकरात लड़का है। मैंने दिल में सोचा।

बेशतर जर्मनों की तरह इंतिहाई संजीदा, धुन का पक्का और हिस-ए-मिज़ाह से तक़रीबन आ’री।

“मैं रात को सोने से पहले आपकी किताबें देख सकता हूँ?”

“यक़ीनन।”

रात गये तक नशिस्त के कमरे में रौशनी जलती रही। सुबह तीन बजे ग़ुस्लख़ाने में पानी गिरने की आवाज़ आई, तो मेरी आँख खुल गई। वो रातों रात नहा-धोकर फ़ारिग़ हो चुका था ताकि सुब्ह को उसकी वजह से घरवालों को ज़हमत न हो। नाशते के वक़्त उसने हिन्दोस्तान के मुता’ल्लिक़ इस किताब पर तबादला-ए-ख़यालात किया जो उसने रात-भर में पढ़ कर ख़त्म कर डाली थी। फिर उसने बंबई का नक़्शा उठाया और सय्याही के लिए निकल गया। वो अपने थैले में पाँच किताबें लेकर चला था जिन पर कमरा ठीक करते वक़्त मेरी नज़र पड़ी। गोयटे की फाउस्ट, हाईने की नज़्में, रिल्के, ब्रेख़्त और इंजील मुक़द्दस। शाम को जब वो थका हारा मगर बेहद बश्शाश वापस आया तो मैंने उससे कहा, “ओटो! कल रात तुम ख़ुदा से मुनकिर थे, मगर इंजील साथ लेकर घूमते हो!” इस पर ओटो ने ख़ुदा के तसव्वुर में एक जज़्बाती सहारे की इन्सानी हाजत पर मुख़्तसर तक़रीर की,

“ओटो तुम एलीफ़नटा गये थे? वहां की त्रिमूर्ती और देवता...”

“मैं कहीं भी नहीं गया। विक्टोरिया गार्डन में दिन-भर बैठा अ’वाम के हुजूम का मुता’ला करता रहा। इन्सान, इन्सान सबसे बड़ा देवता है।”

“हाँ हाँ... ये तो बिल्कुल ठीक है। मगर तुमने खाना कहाँ खाया?”

“मैंने एक दर्जन केले ख़रीद लिए थे।” मुझे दफ़्अ’तन सख़्त निदामत हुई कि चलते वक़्त संड्विचेस उसके साथ करने मुझे क्यों न याद रहे और मुझे अल्लन मामूं के ख़त का ख़याल आया जिसमें उन्होंने लिखा था कि उसके पास पैसे तक़रीबन बिल्कुल नहीं हैं।

खाने की मेज़ पर उसने कहा, “मैं बहुत दिनों बाद पेट भरके खाना खा रहा हूँ।”

उससे जर्मनी के मुता’ल्लिक़ बातें करती रही। बर्लिन की दीवार का ज़िक्र करते हुए उसने मुझे इत्तिला दी कि वो बहुत सख़्त ऐन्टी कम्युनिस्ट है। “घर पर मेरी अम्मां भी मेरे लिए बहुत मज़ेदार खाने पकाती हैं। आप मेरी अम्मां से मिलकर बहुत ख़ुश होंगी। अब उनकी उम्र बयालिस साल की है। मसाइब ने उनको क़ब्ल अज़ वक़्त बूढ़ा कर दिया है, मगर वो अब भी दुनिया की हसीन तरीन औरत हैं।”

“तुम उनके इकलौते लड़के हो?”

“हाँ, मेरे अब्बा फ़ौजी अफ़्सर थे। अम्मां प्रशा की रहने वाली हैं। अम्मां सत्रह साल की थीं, जब उन्होंने अब्बा से शादी की। अब्बा पोलैंड के महाज़ पर मारे गये। उनके मरने के दूसरे महीने मैं पैदा हुआ। बमबारी से बचने के लिए मुझे कंधे से लगाए-लगाए अम्मां जाने कहाँ-कहाँ घूमती रहीं। वो मुझे गोद में उठाए, सिर पर रूमाल बाँधे, फ़ुल बूट पहने मुख़्तसर-सा सामान मेरी परियम्बो लेटर में ठुँसे गावं-गावं फिरती थीं और खेतों खलियानों में छुपती रहती थीं। अम्मां पोलैंड में एक गावं में छुपी हुई थीं जब पोलिश फ़ौजी उस रात उस मकान में घुस आये। मैं उस वक़्त पूरे चार साल का था। मेरे बचपन की वाज़िह तरीन याद उस क़हरनाक रात की है... मैं डर कर पलंग के नीचे घुस गया। जब अफ़िसरों ने मेरी अम्मां को पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचा तो मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। वो अम्मां को घसीट कर बाहर खेतों में ले गये। अम्मां कई दिन बाद वापस आईं। वो फ़ौजियों से बचने के लिए इतने अ’र्से तक एक खलियान में छुपी रही थीं और मैं उस ख़ाली मकान में अकेला था और बाहर गोलीयां चलने की आवाज़ पर सहम-सहम कर कोनों खद्दरों में छुपता फिरता था और नेअ’मत ख़ाने और बावर्चीख़ाने की अलमारियां खोल-खोल कर खाने की चीज़ें तलाश करता था और जो कुछ पड़ा मिल जाता था भूक के मारे मुँह में रख लेता था। मगर वो अलमारियां सब ऊंची-ऊंची थीं जिनमें खाने-पीने का सामान रखा था।” वो चुप हो गया और ख़ामोशी से खाना खाने में मसरूफ़ हो गया। “ये चावल बहुत मज़े के हैं।” उसने चंद मिनट बाद आहिस्ता से कहा।

इसी वजह से मैं जंग का तकलीफ़-दह ज़िक्र उससे न छेड़ना चाहती थी। मैं जंग के बाद बड़ी होने वाली नस्ल से इस तरह के लर्ज़ा ख़ेज़ वाक़िआ’त सुन चुकी थी। मुझे वो फ़्रांसीसी लड़की याद आई जिसने ज़वाल फ़्रांस के बाद इसी ओटो के हमक़ौम जर्मनों की दरिंदगी के क़िस्से सुनाए थे। उसी पोलैंड में जहां ओटो और उसकी माँ पर ये सब बीती, उसी ज़माने में वो नात्सी गैस चैंबर भी दिन-रात काम कर रहे थे जहां रोज़ाना हज़ारों यहूदियों को मौत के भेंट चढ़ाया जाता था और... मुझे उस रूसी लड़की का क़िस्सा याद आया। अपने सारे ख़ानदान को अपने सामने जर्मन मशीनगन की नज़र होते देखकर पल की पल में सदमे की शिद्दत से उस रूसी लड़की के बाल सफ़ेद हो गये थे।

ये 1945 के बाद के यूरोप की नौजवान नस्ल थी।

“अब तुम्हारी माँ कुछ काम करती हैं?” मैंने पूछा।

“नहीं, वो महज़ एक ‘हाऊस फ़रा’ हैं। उनको फ़ौजी बेवा की हैसियत से पेंशन मिलती है। हमारा छोटा सा दो कमरों का मकान है। मैं शाम की शिफ़्ट में एक फ़ैक्ट्री में काम करता हूँ। मेरी अम्मां बहुत भोली-भाली हैं। एस्ट्रोलोजी में यक़ीन रखती हैं और पाबंदी से गिरजा जाती हैं। पिछले साल मैंने साईकल पर सारे जर्मनी का चक्कर लगाया था... जर्मनी दुनिया का हसीन तरीन मुल्क है।”

“हर मुल़्क उसके बाशिंदों के लिए दुनिया का हसीन तरीन मुल्क होना चाहिए। मगर तुम ‘नये नात्सी’न बन जाना।”

“नहीं। मैं ‘नया नात्सी’ नहीं बनूँगा। मुझे यहूदियों से बहुत ज़्यादा नफ़रत नहीं है।” उसने सादगी से कहा। मुझे हंसी आ गई।

“मेरे नाना और नानी अब भी मशरिक़ी जर्मनी में हैं। मगर हम उनसे नहीं मिल सकते... जिस तरह आपका आधा ख़ानदान यहां है, और आधा पाकिस्तान में।” उसने कांटा उठाकर मुझे समझाया।

दूसरे रोज़ उसने वा’दा किया कि शहर की काबिल-ए-दीद जगहें ज़रूर देखकर आएगा। मगर वो उस रोज़ भी दिन-भर रानी बाग़ में बैठा रहा। चौथा दिन उसने वार्डन रोड पर भोला भाई देसाई इंस्टिट्यूट के बर आमदे में बैठ कर लाओस की जंग के मुता’ल्लिक़ मज़ामीन पढ़ने में गुज़ारा। अंदर लड़कियां रक़्स सीख रही थीं और हाल में हुसैन की नई तसावीर की नुमाइश हो रही थी। “लिहाज़ा मैं साथ-साथ आर्ट व कल्चर से भी बहरावर होता रहा।” उसने वापस आ कर कहा।

बंबई में वो सारे फ़ासले पैदल तय करता था और वार्डन रोड से फ्लोरा फाउंटेन तक पैदल जाता था।

“मैं आठ आने से एक रुपया रोज़ तक ख़र्च करता हूँ और ज़्यादा-तर केले खाता हूँ। हर जगह बेहद मेहमान नवाज़ लोग मिल जाते हैं। क्या ये अजीब बात नहीं कि इन्सान इन्फ़िरादी तौर पर इस क़दर सीधा सादा और नेक है और इज्तिमाई हैसियत में दरिन्दा बन जाता है?” ये सवाल करने के बाद वो मुँह लटका कर बैठ गया। उस दिन वो एक ट्रक कंपनी से तय कर आया था बैंगलोर तक उनके ट्रक पर जाएगा।

सुब्ह-सवेरे उसने अपने थैले में किताबें और कपड़े ठूंसे, दूसरा थैला, जो उसका सफ़री ख़ेमा और बिस्तर था, लपेट कर कंधे पर रखा, ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और ट्रांसपोर्ट कंपनी के दफ़्तर फ्लोरा फाउंटेन पैदल रवाना हो गया।

ओटो को गये कई महीने गुज़र गये। अल्लन मामूं का ख़त आया तो मैंने उन्हें शिकायत्न लिखा कि आपके बेटे ओटो ने यहां से जा कर ये भी इत्तिला न दी कि कमबख़्त अब कहाँ की ख़ाक छान रहा है। मैंने ये ख़त पोस्ट किया ही था कि शाम की डाक से ओटो का लिफ़ाफ़ा आ गया। उसके टिकटों पर लाओस के बादशाह की तस्वीर बनी थी और ख़त में लिखा था, “वो जर्मन लड़का जो आपके घर पर ठहरा था आपको भूला नहीं है। आप मेरे साथ बहुत मेहरबान थीं। (मेरी अंग्रेज़ी कमज़ोर है ग़लतियां माफ़ कीजिएगा) आप मेरे साथ बड़ी बहन की सी शफ़क़त से पेश आईं और मैं मोहब्बत पर बहुत यक़ीन रखता हूँ। इसकी वजह शायद ये है कि अभी बहुत कम उ’म्र हूँ, लेकिन आपने ठीक कहा था, दुनिया में सिर्फ़ वही लोग ख़ुश रह सकते हैं जो ज़िंदगी को बग़ैर किसी पस-व-पेश के और बग़ैर सवालात किए मंज़ूर करलें। हम जितने ज़्यादा सवालात करते हैं उतना ही ज़्यादा इन्किशाफ़ होता है कि ज़िंदगी काफ़ी मुहमल है।

लंका में मैं नेवरा ईलिया से कनेडी एक टूरिस्ट बस के ज़रीये गया। बस में एक सिंघाली तालिब-इल्म से मेरी दोस्ती हो गयी। उसने रास्ते में मुझे अपने साथ खाना खिलाया। उसका नाम राजा था। उसने मेरे लिए फल भी ख़रीदे। बस में बहुत से ढोल रखे थे। राजा ख़ूब गाने गाता रहा। आबशार बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। राजा ने मुझसे कहा। चलो हम सब नहायें। चंद मिनट बाद वो मर चुका था। वो पानी में डूब गया था। दो घंटे की तलाश के बाद उसकी अकड़ी हुई लाश हमें एक चट्टान के नीचे मिली। ये सब क्या है। मैं सोचता रहा हूँ कि ये कैसे हुआ। हम में से कोई भी राजा को उस हादिसे से बचा न सकता था। क्या ये इत्तिफ़ाक़ था या इसी को क़िस्मत कहते हैं? राजा अपने वालदैन का इकलौता लड़का था। उसके बहन भाई पाँच और पंद्रह की उम्रों के दरमियान मर चुके थे। उसका बाप नाबीना है और माँ बहुत बीमार। राजा उन लोगों का कफ़ील था।

मदुराय में एक नौजवान शायर ने मुझसे कहा कि दुनिया की वजह से वो बहुत दुखी है। मद्रास में मैंने रेडियो इंटरव्यू से कुछ रुपये कमाए। फिर मैं पेनांग गया जो बड़ा ख़ूबसूरत जज़ीरा है और वहां बेशुमार चीनी रहते हैं।

एक मालगाड़ी के आख़िरी डिब्बे में बैठ कर में बंक काक पहुंचा और बुध ख़ानक़ाहों में मुक़ीम रहा और राहिबों के साथ खाना खाता रहा। दोपहर को ख़ूबसूरत लड़कियां, ख़ुश-लिबास ख़वातीन अपनी अपनी क़िस्मत और मुस्तक़बिल का हाल पूछने राहिबों के पास आती थीं।

ज़्यादा-तर भिक्षु मोहब्बत के भूके हैं और बे-तहाशा तंबाकू पीते हैं और कोई काम नहीं करते। बूढ़ी मज़हब परस्त ख़वातीन उन्हें खाना और पैसे देती रहती हैं। बहुत से भिक्षु ख़ानक़ाहों में इसलिए बैठे हैं कि उन्हें मेहनत करना अच्छा नहीं लगता। ये लोग सख़्त काहिल हैं, मगर उनके मज़हब में इस काहिली का एक मुक़द्दस जवाज़ मौजूद है... निर्वान की तलाश... बा’ज़े उनमें से वाक़ई संजीदगी से मराक़बे में मसरूफ़ हैं। लेकिन ज़्यादा-तर भिक्षु खाने और ख़वातीन से गप्प करने के इ’लावा सोते रहते हैं।

नॉन्ग काई में मैं मेकांग दरिया में नहाया उसके बाद लाओस आ गया।

दीन तीन एक बड़े से गावं की मानिंद है। धूप बहुत तेज़ है और सड़कें गर्द-आलूद। सिर्फ़ रातें ख़ुशगवार हैं क्योंकि अंधेरा सारी बद-सूरती, ज़ुल्म और तशद्दुद और ख़ूँरेज़ी को अपने अंदर छुपा लेता है मच्छर बहुत हैं।

सवाना तक एक तय्यारे में मुझे मुफ़्त की लिफ़्ट मिल गई और अब मैं पकसे में मौजूद हूँ। फिर कम्बोडिया जाऊंगा। मैं अंकल अनवर के पास चटागांग न जा सका क्योंकि बर्मा से मशरिक़ी पाकिस्तान दाख़िल होने में बड़ी दिक्कतें थीं। मैंने सुर्ख़ चीन और शुमाली वियतनाम के लिए वीज़ा की दरख़ास्त दी है। पिकिंग और हनोई से मुझे फोम पह्न्न में जवाब मिल जाएगा। कल मैं यहां से जुनूबी वियतनाम जा रहा हूँ।

इस ग़लत-सलत अंग्रेज़ी के लिए दोबारा माफ़ी चाहता हूँ। आपका बहुत शुक्रगुज़ार।

“ओटो क्रूगर”

फरवरी 1963 के एक ग़ैर मुल्की रिसाले में ‘वियतनाम की जंगल वार’ के उनवान से एक रंगीं तस्वीरों वाला मज़मून छपा है। उन तस्वीरों में गोरिल्ला सिपाहियों को बंदूक़ो का निशाना बनाया जा रहा है। कश्तियों में बैठे हुए गोरिल्ला क़ैदी मेकांग दरिया के पार ले जाये जा रहे हैं और किसान औरतें ये कश्तियां खे रही हैं। किनारे पर पहुंच कर उन क़ैदियों को गोली मार दी जाएगी। धान के खेतों के पानी में से जंगी क़ैदी गुज़र रहे हैं और मज़मून के आख़िर में दो सफ़हात पर फैली हुई एक तस्वीर है जिसमें धान के हरे खेत हैं और धान की बालियां हवा के झोंकों से झुकी जा रही हैं और लंबे पत्तों वाले दरख़्त हवा में लहरा रहे हैं। उफ़ुक़ पर दरख़्तों की क़तारें हैं और सब्ज़ा और पानी। ये ऐसा दिलफ़रेब मंज़र है। मुसव्विर जिसकी तस्वीरें बनाते हैं, शायर नज़्में कहते हैं और अफ़्साना निगार धरती की अ’ज़मत के मुता’ल्लिक़ कहानियां लिखते हैं। इन हरे-भरे दरख़्तों के पीछे किसानों के पुरअम्न झोंपड़े होंगे और इस गावं के बासी तिनकों से बनी हुई छज्जेदार नोकीली टोपियां ओढ़े दिन-भर पानी में खड़े रह कर धान बोते होंगे और गीत गाते होंगे और फ़सल तैयार होने के बाद मंडी में जा कर मेहनत से उगाया हुआ ये धान थोड़े से पैसों में फ़रोख़्त करके अपनी ज़िंदगियां गुज़ारते होंगे। इस नदी के किनारे लड़कियां अपने चाहने वालों से मिला करती होंगी और नौजवान माएं रंग बिरंगे सैरोइंग पहने, घड़े उठाए अपने बच्चों को नहलाने के लिए दरिया पर आती होंगी।

लेकिन इस तस्वीर में जो इस वक़्त मेरे सामने रखी है कटे फटे चेहरों वाली नीम उरियां और ख़ूनआलूद नौजवान लाशें पड़ी हैं दूर एक कोने में भूरे रंग का मुहीब जंगी तय्यारा खड़ा है और तस्वीर के नीचे लिखा है:

“मौत का खेत... वियत कांग गोरिल्ले जिनको मेकांग दरिया के धान के डेल्टा में मौत के घाट उतार दिया गया। उनके साथी एक दूसरे के साथ रस्सियों से बंधे सर झुकाए एक कोने में बैठे हैं। इस ख़ूँ-रेज़ दस्त-ब-दस्त लड़ाई में एक नौजवान हिच हाईकर भी जो मेकांग दरिया के किनारे से गुज़र कर शुमाली वियतनाम जा रहा था, एक इत्तिफ़ाक़ीया गोली का निशाना बन गया। इस ख़ूबसूरत मुल्क में ये भयानक ख़ाना-जंगी 1944 से जारी है और...”

ओटो क्रूगर ज़िंदगी का तजुर्बा हासिल करने दुनिया के सफ़र पे निकला था।