आषाढ़ की बाढ़ (कहानी) : न. पिच्चमूर्ति

Aashadh Ki Baadh (Tamil Story in Hindi) : N. Pichamoorthi

नदी के इस पार घाट की सीढ़ियाँ दिखाई नहीं दे रही थीं। उस पार की घास मानो जलधारा में बार-बार डुबकी लगाती हो और किनारे तीव्र प्रवाह में जैसे डूब गए हों। कहीं पत्तियाँ, कहीं फेन, कहीं फूलों की मुरझाई मालाएँ तैर रही थीं। यह दृश्य कावेरी में होनेवाली आषाढ़ की बाढ़ का है।

तमिल की जनता अत्यंत भावुक और कविहृदय है। नहीं तो कोई कैसे कावेरी को गर्भिणी स्त्री की उपमा दे सकता है। कावेरी की धारा बाढ़ से लाई हुई मिट्टी को चारों ओर बिछाकर भूमि को कांचन बनाती जाती है। उसकी यह गति गर्भिणी की मंद गति के समान ही तो है। सड़क के उस दुमंजिले मकान से उत्तर दिशा की ओर देखें तो कावेरी का मनोरम दृश्य दिखाई देगा। पूरब की ओर देखें तो नदी के घाट से मिलती हुई सड़क दिखाई देगी। कैसी है वह सड़क। साँप की जिह्वा के समान लंबी होती हुई दाहिनी ओर मुड़कर ओझल हो जाती है। नदी की प्रवाहमयी धारा के समान यह सड़क हमेशा भीड़ से भरी रहती है। मेलों के दिनों में होनेवाली भीड़ का तो कहना ही क्या है?

उस दिन आषाढ़ मास का 18वाँ दिन था। काली मणियाँ और ताड़ की रंगीन कोपलें (जो कावेरी के कर्णाभूषण बनती हैं) बेचनेवाले, रास्ते में आने-जानेवालों से टकरा-टकराकर 'फूल लोगे', 'फूल लोगे' की पुकार लगानेवाली स्त्रियाँ, तरकारियाँ खरीदने को जानेवाली जन-मंडली, इन सबसे सड़क भर गई थी।

एकांत की बात लोग बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं। उसका आस्वादन सभी नहीं कर सकते। इने-गिने लोगों के बस की बात भी नहीं है। साधारण मनुष्य के लिए तो एकांत वास भयंकर होता है। तन या मन किसी पर नियंत्रण के बिना कोई घोड़ा 'कार्ट
को खींचकर ले चले तो कैसा लगेगा। चार लोगों के बीच में रहने पर ही आदमी नेक और भलामानस बनकर रह सकता है। एकांत में मन कितना चंचल रहता है, वह आपने कभी अनुभव किया है? पल भर में छलाँग मारकर वह ब्रह्मांड के पार पहुँच जाता है। दूसरे पल किनारे पर लगी नाव के समान मानस-सागर के तट पर जा पहुँचता है। कभी निष्कामी। राजमार्ग पर अपने चरण बढ़ाता है तो कभी पशुता के नशे में मदांध होकर दौड़ पड़ता है। कभी साँड़ की तरह स्वच्छंद होकर भाग निकलता है। कभी पारे की तरह इधर-उधर बिखरकर परेशान करता है। प्राणों का आवेश समा नहीं पाता। एकांत का उपयोग करना यदि कोई जानता है तो वह योगी या ज्ञानी है।

वह न योगी था न ज्ञानी। अत्यंत साधारण मनुष्य था। वेदांतियों के शब्दों में वह अज्ञानी जीव था। मानव सुलभ सभी दुर्बलताओं से भरा हुआ। आषाढ़ी 18 के दिन छुट्टी थी। घर पर कोई नहीं था। उसकी पत्नी चार महीने से मायके गई हुई थी। सवेरे होटल में कॉफी पीने के बाद वह घर के बरामदे में आकर बैठ गया। समय अजगर की गति से सरक रहा था। दो-चार बच्चे काठ के छोटे से रथ को खींचकर लिये जा रहे थे। उनका शोर उसे व्यथित करने लगा। वह भीतर चला आया और दरवाजा बंद करके छत पर जाकर टहलने लगा। उसने कावेरी की वेगवती धारा को देखा। उसी के प्रवाह के साथ उसका मन भी बहने लगा।...

आखिर उसे सागर में मिल जाना है। क्यों? क्या यही नियम है? क्या यही आनंद का रहस्य है? हो सकता है, कावेरी का सागर से विवाह होनेवाला है। तभी उसकी गति में इतना उल्लास है। तभी तो घास, बेंत और वृक्षों की भेंट फूलों को वहन करती हुई वह चली जा रही है। किंतु सागर से मिलने का वह दिन कब आएगा?

दूसरी ओर जन—प्रवाह था। नदी सागर से मिलने के लिए आत्म–विस्मृत सी दौड़ी जा रही है और जनप्रवाह देवी कावेरी की वंदना करता हुआ अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहा है। इस जन-प्रवाह के बारे में न जाने कितने विचार उसके मन से उठ रहे हैं। इस भीड़ में फँसकर कुचले जाने का भय है। किंतु उसके बिना भीड़ का आनंद भी नहीं उठाया जा सकता। नहीं, तटस्थ रहकर वह आनंद नहीं पा सकेगा। लहरों के समान इस भीड़ में किसी एक व्यक्ति का मुख हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाता। अनुपम सुंदरियाँ भी भीड़ के बीच में भस्मावृत्त अग्नि के समान तेजहीन हो जाती हैं। हाँ, एकांत जहाँ मिट जाता है, उस अखंडता का नाम ही तो भीड़ है। वहाँ पत्नी भी अपना अलग अस्तित्व खोकर भीड़ का एक अंश मात्र बन जाती है।...

इस प्रकार कावेरी का प्रवाह और जन-प्रवाह, दोनों उसे व्यथित करने लगे। एकांत और वेदना मानो उसके अंतर में आँखमिचौली खेलने लगे हों। थककर जैसे वह जड़वत् हो उठा। उसने फर्श पर अंगोछा बिछाया और लेट गया। नीलगगन पर भटके बगुले की तरह बादल का एक टुकड़ा एकाकी चला जा रहा था। उसका मन करुणा से भर उठा—'बाप रे! इसकी भी यही दशा है।'

और उसने करवट बदल ली। अब आँखों के आगे दीवार थी। उस पर चूना ठीक तरह से नहीं पुता हुआ था। इसलिए जगह-जगह विचित्र पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और लहरें चित्रित हो गई थीं। थोड़ी देर वह उन्हीं में उलझा रहा। अचानक एक गिलहरी कहीं से दौड़ती हुई आई। उसकी आँखों में चोरी, चुप्पी और मादकता भरी हुई थी। उसी समय एक और गिलहरी छत के ऊपर की की' की आवाज करने लगी। उसकी आवाज में ऐसा दैन्य ध्वनित हुआ, मानो वह अपना सबकुछ गँवा बैठी हो। अपनी पूँछ ऊपर उठाकर इधर-उधर देख रही थी। एक क्षण देखती, फिर 'की—की' की आवाज करने लगती। फिर अचानक मौन होकर बिजली की गति से वह उस गिलहरी का पीछा करने लगी, जो अभी-अभी दौड़कर दीवार के पास आ पहुंची थी। एक -दूसरी का पीछा करती हुई दोनों पास आ गई। फिर क्या था; यह प्रेम लीला थी। पहली गिलहरी की आँखें आनंद से मुँद गई। लेकिन यह सब पल भर के लिए था। इतने में तीसरी गिलहरी ने इस नाटक को देखा। दोनों एक-दूसरे से लिपटी हुई लुढ़क रही थीं। एक ने तुरंत अपना मुख ऊपर उठाया मानो पूछ रही हो कि जीत किसकी है। नई गिलहरी तब तक भाग निकली थी। प्रेमी गिलहरी के शरीर में चोट लग गई थी। खून की दोचार बूंदें भी टपक पड़ीं। लेकिन उसे इस बात की चिंता नहीं थी। वह बड़ी शान से अपनी प्रेयसी गिलहरी के पास सरक आई। उस बेचारी का मन न जाने किस गहराई में डूबने उतराने लगा। इसी समय 'माँजी', 'माँजी' पुकारता हुआ एक मधुर स्वर उसके कानों में पड़ा। छज्जे के पास आकर उसने पूछा, 'कौन है?' वह मधुर स्वर फिर उठा, "मैं हूँ।"
"मैं हूँ, यानी..."

नीचे द्वार के पास छत की ओर देखती हुई एक नारी खड़ी थी। वह कुछ समझ न सका। नीचे उतर आया और दरवाजा खोल दिया। वह एक नवयुवती थी। गेहुँआ रंग, अरबी घोड़ी की तरह गठीला और चमकता हुआ शरीर, रानी की सी सुंदरता और शान। किंतु उसके वस्त्र इस बात की स्पष्ट घोषणा कर रहे थे कि वह निर्धन है। उसने उसे ध्यान से देखा। चेहरा कुछ परिचित सा जान पड़ा। लेकिन वह याद नहीं कर सका कि उसे कहाँ देखा था। उसने पूछा, तुम कौन हो?"

"पहचाना नहीं। पिछले वर्ष मार्गसिर
में मैंने रंगवल्लियों में सजाने के लिए विलायती फूल दिए थे।...माँजी कहाँ है?"
उसे सबकुछ याद आ गया। उस समय वह छोटी सी थी। अब यौवन खिला हुआ है। बिल्कुल बदल गई है। उसने उसे एक बार और देखा, 'हाँ, वही तो है।'
और यौवन की मदमाती बाढ़ जैसे उसके शरीर में उमड़ पड़ी। स्त्री ने फिर पूछा, "माँजी नहीं हैं क्या?"
मन चाहे जितना भी व्याकुल हो, प्रश्न का उत्तर तो उसे देना ही होगा। बोला, "नहीं, वे गाँव गई हैं।"
"क्यों?"
"भगवान् उस पर कृपा करनेवाले हैं। समझी? हाँ, तुम इधर कैसे आई?"
“यों ही।"
"यों ही कैसे?"
"आषाढ़ी प्रवाह का उत्सव जो है। सोचा कि माँजी से चावल ले लूँ। लेकिन माँजी तो हैं नहीं।"
"नहीं हैं तो क्या हुआ?"

यह शब्द सुनकर वह भावार्द्र हो आई। सिर उठाकर उसने उसकी ओर देखा। उसने भी देखा। पलभर के लिए मानो वहाँ स्तब्धता छा गई हो। दूसरे क्षण वह भीतर गया। सेर भर चावल और एक चवन्नी लाकर उसे दे दिए। उसने उनको अपने आँचल में बाँध लिया। एक क्षण वह धरती की ओर देखती खड़ी रही। वह भी व्यर्थ ही घर की दीवार को देखता रहा। एक बड़ी मकड़ी बिना हिले-डुले वहाँ पर थी। थोड़ी दूर पर एक और मकड़ी उसे घूर रही थी।

"तो मैं फिर आऊँगी।" अनायास ही उसके मुँह से कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ये शब्द निकल पड़े। उसने शायद उन शब्दों को नहीं सुना। फिर भी अनजाने ही उसने पूछ लिया, "कब?" "पाँच बजे के बाद।"
उसने कहा और वह भीड़ में जा मिली।
वह चली गई तो वह एक भयंकर विस्मय से भर उठा। शेर को उसने वासना के वन में भटकते हुए पाया। मन की दलदल में फँसकर प्रसन्न होती हुई मछली को उसने पाया। छिह! उसने संकल्प किया कि मैं इस घटना को 'छिह!' समझूगा और नेक बनूँगा।

स्त्रियों के समूह-के-समूह नदी में नहाकर लौट रहे थे। उनके तन से लिपटी हुई भीगी साड़ियाँ 'तड़तड़' का शब्द कर रही थीं। उनके हाथ-पैरों में मेहँदी की अरुणिमा चमक रही थी। उनके मुख पर हलदी और गले में चंदन का लेप था। वे मैना और गौरैयों की तरह कलकल करती हुई निर्भीक मन से हँसती जा रही थीं। ये चित्र उसके मस्तिष्क पर अंकित हो रहे थे। जैसे वह उस स्त्री की याद भुलाना चाहता हो। लेकिन यह न तो उसे किसी प्रकार का आनंद दे सके और न उसके मन को ही आकृष्ट कर पाए! वे दृश्य उसके मन को प्रभावित किए बिना इस प्रकार मिट गए, जिस प्रकार वायु के मृदु झोंके बड़े से झुरमुट में फँसकर व्यर्थ हो जाते हैं। पुष्पित कानन को छोड़कर फूलों की दुकान की ओर भागनेवाले भौरे की तरह उसका मन उसी 'एक' में लगा रहा। उसकी बुद्धि ने उसे चेतावनी दी। परंतु उसकी याद से उसे आनंद ही मिला।

दोपहर तक यह आह्लादकारिणी अशांति मिटी नहीं। दुःख सहा जा सकता है, किंतु ऐसी मधुर यातनाएँ नहीं। बीच-बीच में बुद्धि का विद्रोह उसे और भी परेशान कर रहा था। दोपहर बीत गई। तब कहीं जाकर उसके मन को आराम मिला। इसका श्रेय ताश के खेल को ही दिया जा सकता है। उस खेल में उसने अपने को भुला दिया। फिर भी वह ठीक-ठीक नहीं खेल पा रहा था। बीच-बीच में कुछ-का-कुछ कह बैठता। उसके साथी विस्मित हो उठते।

संध्या हो चली। नदी से निकलती सद्य:स्नाता का सा वह मनहर रूप फिर उसके मानस पर छा गया। खेल में उसका मन नहीं लगा। वह व्याकुल होकर सोचने लगा, 'क्या वह आएगी?'

वह कावेरी की ओर निकल गया। रात घिरती आ रही थी। घाट की सीढ़ियों पर पत्ते और अन्न के कण बिखरे हुए थे। उस अंधकार में असिधारा के समान नदी की तेज धारा चमक रही थी। दोनों किनारों के वृक्षों के झुरमुट में जुगनू टिमटिमा रहे थे और तारों से सजा आकाश किसी बेगम की जरीदार पोशाक सा दमक रहा था। एक विचार विद्युत् की तरह उसके मन में कौंध गया–हाँ, कावेरी भी तो अपने प्रेमी से बिछड़ी उसी की खोज में अंधकार में आगे बढ़ी चली जा रही है। यह सागर तक पहुँचेगी या बीच में थक जाएगी।

इस प्रकार अनेक भाव उसके मन में आकर उसे व्याकुल करने लगे। यह प्रकृति की प्रेरणा है। उसकी पुकार को सुनना बुरा नहीं यह सोचता हुआ भोजन करने के बाद वह घर लौटा। दरवाजा बंद करके वह बरामदे में ही लेट गया। क्षण भर में अनेकानेक सपने उसे आह्लादित करने लगे। तभी बाहर 'टक' की आवाज सुनाई दी। शायद वह आ गई। आनंद से उछलकर उसने दरवाजा खोला। परंतु वहाँ कोई नहीं था। उसकी आकुलता ने उसे धोखा दिया। दरवाजा बंद करके वह फिर लेट गया। क्षण भर बाद फिर उसने एक आवाज सुनी। वह उठा तो पता लगा कि उसने कुंडी ठीक तरह से नहीं लगाई थी। यह उसके हिलने की आवाज थी। फिर भी उसने दरवाजा खोलकर देखा और चंचल मन फिर बिस्तर पर जा लेटा। "एक इच्छा ने मुझे कैसा पागल बना दिया है। अंधाधुंध बढ़ती हुई बाढ़ की तरह दलदल और कँटीली झाड़ियों में वह मुझे खींचे ले जा रही है। क्या मैं जानवर हूँ?...अब क्या होगा। अभी आधे घंटे में वह आ जाएगी। एकांत में उससे मिलने पर न जाने क्या हो जाए?...'

यह सोचते हुए वह उठा। उसने घर का ताला लगाया और बाहर निकल गया। लेकिन तभी एक स्त्री का स्वर कानों में पड़ा, "मालिक!"
सुनकर वह काँप उठा-मैं सीधी राह चलना चाहता हूँ, नेक बनना चाहता हूँ। लेकिन विधि जैसे मुझे चलने नहीं देती। तब मैं यहीं रहूँगा, पूरा आनंद उठाऊँगा।...
यह विचारते हुए उसने उस ओर मुड़कर देखा, जिधर से आवाज आई थी। वह आवाज वहाँ से नहीं, दूसरे घर से आ रही थी। छिह, उसका मन इतना काँपता क्यों है?...

इस प्रकार घबराता हुआ वह रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा। रास्ते में पेड़ों की छाया हिलती तो उसे लगता, जैसे वह उसका पीछा कर रही है। यह मन की भ्रांति थी। फिर भी वह मुड़कर देखता और इसी प्रकार वह 'अय्यनार' के मंदिर तक पहुँच गया। उनके वाहन पत्थर के हाथी-घोड़े ऐसे खड़े थे, मानो रात के समय पहरा देने के लिए बस्ती में जाने को तैयार हों। वैसे तो वह सदा उनके बीच में से होकर मंदिर में जाया करता था, परंतु उस दिन उनके पीछे से घूमकर गया। उनकी लंबी छाया पीछे की ओर पड़ रही थी। रास्ते में अंधकार था। अँधेरे में जाना और परिचितों से बचकर जाना, न जाने क्यों उसे यह अच्छा लगा। उसकी वेदना भी जरा कम हुई। अंधकार में प्रवेश करते समय अचानक वह मधुर स्वर सुनाई पड़ा, "मालिक।"

'उसी की आवाज है।' वह काँप उठा। उसका सारा शरीर रोमांचित हो आया। मार्गसिर की चाँदनी रात में पेड़ों के झुरमुट से आती हुई आवाज मन में अवर्णनीय अकुलाहट पैदा कर देती है। उसकी स्थिति भी वैसी ही है। उसने रेलगाड़ी तक जाने का विचार छोड़ दिया और घर की ओर लौट चला।

द्वार तक पहुँचकर उसे कुछ भी नहीं सूझा। छलाँगें मारती हुई मनोवृत्तियों को रोककर उसने जो विजय प्राप्त की, उससे मिलनेवाला आनंद क्या श्रेष्ठ नहीं है-उसके मन में इस प्रकार का तात्त्विक संघर्ष उठा और दरवाजा बिना खोले वह बाहर ही खड़ा-खड़ा सोचने लगा। तब तक वह आ ही गई। लेकिन उसने देखा कि उसका सुबह जैसा वह रूप नहीं है। अरबी घोड़ी की सी शान भी नहीं है। सहमती, सकुचाती, डरती-डरती अंधकार से चिपकी छाया की तरह वह दिखाई दी। वह स्वयं भी सहम गया। उसके इस सकुचाते रूप और सहमते स्वभाव ने उसके दिल को चूर-चूर कर दिया। उसकी पुरानी वृत्तियाँ न जाने कहाँ जाकर विलीन हो गई।

दूसरे ही क्षण वह अंदर गया और एक रुपया लाकर उसे दे दिया। वह अवाक् देखती रह गई। वह उस ओर दृष्टि उठाए बिना छत पर चला गया। स्तब्ध-मौन वह भी लौट गई। उसकी लंबी छाया सड़क पर हिलती-डुलती जा रही थी। उस रूप और उस छाया को वह तब तक छत से देखता रहा, जब तक वह आँखों से ओझल न हो गई। फिर इधर-उधर टहलने लगा।...

अकेली कावेरी ही बिना किसी चिंता के, फेनिल कुसुमों को वहन करती हुई, प्रेम की खोज में चली जा रही थी।