Aadmi Ki Nabj (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk

आदमी की नब्ज (कहानी) : रामगोपाल भावुक

अखबार हाथ में आते ही उसने हाथ की चाय झटके से टेविल पर रखदी और अखबार फैला लिया। मुख्य पृष्ठ पर नजर पड़ते ही वह लगभग चौक सी उठी, सबसे ऊपर उसका आदमकद फोटो छपा था। खुद को पहली बार ध्यान से देखा उसने। कल रात मत गणना पूरी होने के बाद उसे विधायक पद पर निर्वाचित होने के प्रमाण पत्र के तत्काल बाद की फोटो है यह। तमाम लोगों द्वारा घुमा फिराकर कही गई बात फिर उसके कान में गूंजी-‘अमृता तो गजब की सुन्दर है, जाने कीचड़़ में कैसे कमल खिल गया?’

उसने अखबार में छपे अपने फोटो के इर्द-गिर्द निगाहें फैलाईं। जहाँ बस्ती के उच्च वर्ग के लोग जय जयकार कर रहे थे। अमृता देवी,भले ही आज विधायक बन चुकी है, लेकिन उसे पता है कि मन ही मन लोग उसके अतीत को याद कर रहे होंगे। उसका अतीत आज उनके अहम् को संतुष्टि दे रहा होगा। वे यह मानते हैं कि उसकी चमड़ी की सुन्दरता सामन्तवाद की देन है। गौरे रंग पर ब्राह्मण-क्षत्रिय एवं वैश्य सभी अपना अधिकार समझते हैं। वे मानते हैं-यदि प्रकृति ने किसी को सुन्दरता प्रदान कर दी है तो इसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनका हाथ रहा है और यह भी निसंकोच कहते हैं-‘यह तो हमारा ही खून है।’

ऐसा कहकर वे उसकी माँ के चरित्र पर लांछन लगाने में संकोच नहीं करते।

जब कि चरित्र को लेकर उसका अपना सोच यह है कि ...इन लोगों ने इसे अपनी तरह से परिभाषित किया है। ईश्वर और चरित्र भी उनकी अपने मन की सर्जना है। उनकी इन संकल्पनाओं से मैं सहमत नहीं हूँ। हम जैसे खानाबदोष लोगों का कैसा ईश्वर और काहेका चरित्र! आखिर माँ का क्या दोष?

बताते हैं कि वनवासी गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या अति सुन्दरी थी। जिसकी चर्चा धरती से इन्द्र लोक तक होती थी। ऐशो-आराम के उपकरणों से सुसज्जित इन्द्र जैसा महाबली राजा, इस ऋषि पत्नी पर मोहित हो गया। उसके यहाँ तो एक से बढ़कर देवागंनायें थीं, फिर भी वह एक ऋषि पत्नी पर आकृष्ट हुआ। अहिल्या का दोष क्या था? सिर्फ इतना कि वह असली-नकली गौतम की पहचान नहीं कर पाई। इन्द्र ने गौतम ऋषि का वेष बनाकर उसे घोखा दिया। इससे अहिल्या को पत्थर की शिला की तरह पूरा जीवन व्यतीत करना पड़ा।

इस तरह जाने क्या-क्या सोचते रहने उसे याद हो आई उस चमेली देवी की, जिसे वह आज भी भूल नहीं पा रही है। खूबसूरत, गौरी-चिट्टी सलौनी आदिवासी बालिका शहड़ोल जिले़ में अमरकन्टक की तलहटी में बसे फुलेरा गाँव की रहने वाली थी। उस गाँव में कृषि भूमि कुछ लोगों के पास सिमटती जा रही थी। धीरे-धीरे भूमिहीन लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी। उस गाँव के मजदूरों के मोहल्ले में उसकी कच्ची मिट्टी के घर पर खपरैलें थीं। कुछ गरीब मजदूर सरपते की छान ड़ालकर अपना समय गुजार रहे थे। चमेली देवी के पिता मनटोला ने मेहनत करके घर की खपरैल बनाली थी। उनकी पुत्री चमेली का पढ़ने में खूब मन लगता था। वे अपनी पुत्री को पढ़ा -लिखाकर बड़ा आदमी बनाने की इच्छा व्यक्त करते रहते थे। घर गृहस्थी अच्छी तरह से चल रही थी कि अचानक नक्सली विस्फोट में पिताजी चल बसे। घर में अन्धेरा छा गया।

उसके बाद तो जीवन घिसट-घिसट कर चलने लगा। वो पाई-पाई को तरसने लगे। उस वर्ष बरसात भी कम हुई। धान की फसल नाम मात्र की हुई। गाँव के लोग मजदूरी के लिये उत्तर भारत की ओर भागने लगे। चमेली भी अपनी माँ के साथ उत्कल एक्सप्रेस में लदकर चल पड़ी थी और दूसरे मजदूरों के साथ ग्वालियर जिले के एक रेल्वे स्टेशन पर उतरीं।

वहाँ मजदूरों की प्रतिक्षा में खड़े लोगों में सरदार अमीरसिंह समझ गया कि ये मजदूरी के लिये आये हैं, इसीलिये आगे बढ़कर उनका सामान रेल में से उतरवाते हुये बोला-‘ आराम से उतरें, आप लोगों का कोई सामान न छूट जाये। सभी अपना-अपना सामान देख लें। समझलें आप अपने घर में आ गये हैं। मेरे होते अब आपको कोई तकलीफ नहीं होगी।’

यों मीठी-मीठी बातें करके उसने सबसे पहले मजदूरों को अपने कब्जे में कर लिया। दूसरे लोग जो मजदूरों के लिये आये थे, वे अपना सा मुँह लिये खड़े रह गये। सरदार अमीरसिंह अपने टेक्टर में लगी ट्रोली में बैठाकर उन्हें अपने डेरे पर ले आया।

चमेली की सुन्दरता देखकर सरदार अमीरसिंह ने सभी को सुनाकर कहा-‘ये लड़की तो हमारे परिवार से मेल खाती है। ये तो हममें एकदम मिल गई, इससे हम मजदूरी नहीं करायेंगे। ये तो हमारे घर में बीजी को मदद करेगी। क्यों पुत्तर, ठीक है ना?’

बात सुनकर वह शरमाकर रह गई थी। दूसरे दिन से उसकी माँ खेत में धान काटने जाती किन्तु वह घर के कामकाज में हँसते-मुस्कराते बीजी को मदद करने लगी। उसने कुछ ही दिनों में अपनी मुस्कराहट से सभी का दिल जीत लिया। जब धान कटाई का काम निबट गया और सारे मजदूर वापस जाने लगे तो सरदार अमीरसिंह की पत्नी चमेली की माँ कोंसा से बोली-‘चमेली की माँ, अब इसे हम यहीं रखेंगे, इसे पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। इसे अपने घर की सदस्य बनाकर रखेंगे। तुम चाहो तो तुम भी इसके साथ यहाँ रह सकती हो।’

शेष सभी मजदूर वापस लौट गये। सरदारनी की बात सुनकर कोंसा को अपनी बेटी के साथ यहीं रहना पढ़ा पड़ा। वह खेती-किसानी के और गाय-भेंस को चारा- पानी के काम में व्यस्त हो गई, किन्तु चमेली उनके लड़कों के साथ खेल में मस्त हो गई। मेहमानों के चाय-पानी के समय इसे चाय प्रस्तुत करने जाना पड़ता। उस समय आने वाले उससे उसका नाम पता जरूर पूछते। इससे सरदार अमीरसिंह गर्व से तन जाते।

अगले ही वर्ष उसका कक्षा पाँच का प्रायवेट फार्म भरवा दिया। फार्म भरवाते समय सरदार अमीरसिंह को उसका यह नाम अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अमृतसर से उसका नाम जोड़ने के लिये फार्म में अमृता देवी लिख दिया। अक्षर ज्ञान तो वह अपने फुलेरा गाँव से ही सीखकर आई थी। सरदार जी का क्षेत्र में ऐसा दबदबा था कि वह नकल करके कक्षा पाँच पास कर गई। इससे इस परिवार पर उसे और अधिक विश्वास जाग गया। वह मन लगाकर घर के काम के साथ पढ़ाई में भी जुट गई। घर के लोग टीवी देख रहे होते तो वह देश-विदेश के समाचारों को सुनने में विशेष ध्यान देती। जब-जब संसद-विधान सभाओं के अधिवेशन का प्रसारण होता तो वह घर के लोगों से कहती-देखने दो ना, इसे।’

उसकी यह बात सुनकर घर के सभी लोग खिलखिलाकर हँसते हुये कहते-‘तू इसे क्या समझ पायेगी? जब तू विधायक बने, तब तू वहीं बैठ कर इसे देखना। अभी तो पापाजी के लिये जल्दी से चाय बनाकर ले आ।’

वह रसोईघर में तो चली जाती किन्तु उसके कान टीवी पर चिपके होते। उसे जब भी समय मिलता वह किताबें उठा लेती और उन्हें पढ़ती रहती।

उन दिनों उनका छोटा लड़का बेबू कक्षा आठ में पढ़ता था। अमृता भी कक्षा पाँच पास किये तीन साल हो गये। इसलिये सरदारनी ने उसका कक्षा आठ का प्रायवेट फार्म भरवा दिया। पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में अधिकांश समय वह बेबू के साथ व्यतीत करती। बेबू के बडे भाई बलजीत को लगने लगा- कहीं ये लड़की बेबू पर तो नहीं मरने लगी। जब वह बेबू के साथ होती तो बलजीत को यह अच्छा नहीं लगता और वह उन दोनों के बीच पहुँच जाता।

एक दिन वह रसोईघर में थी। बलजीत रसोईघर में पहुँच गया और उससे आँखें लड़ाते हुये बोला-‘तेरी सुन्दरता इन आँखों में बस गई है। लगता है तुझे जीवनभर देखता रहूँ। लेकिन एक बात कहता हूँ, तू बेबू से दूर रहाकर, समझी।’

यह कहकर उसने उसके गालों पर अपना सुअर सा थोवड़ा रख उसका चुम्मा ले लिया। उसके सीने को वेरहमी से मसल डाला। चमेली ने चिल्लाना चाहा लेकिन यह सोचकर रह गई-ऐसा करके उसे यह घर तत्काल छोड़ना पड़ेगा। फिर वह और उसकी माँ कहाँ जायेंगी? उसका चुप रहना बे-बसी हो गया। तत्काल घर छोड़ देने की समस्या के कारण उसे यह सहना सस्ता लगा। इस मजबूरी ने अपमान को स्वीकार कर लिया।

अब तो बलजीत हर घड़ी इसी तुकतान में रहने लगा कि कब उसका चुम्मा ले और कब उसके सीने को मसले। धीरे-धीरे बात छुपी न रही। बात बीजी के कानों तक पहुँच गई। वे चौकन्नी रहने लगीं। उन्हें इस लड़की के प्रति अपने दोनों लड़कों का आकर्षण खटकने लगा। कहीं ये लड़की इस घर में दोनों लड़कों के बीच विवाद का कारण न बन जाये। यह सोचकर वे इस लड़की को घर से दूर भगाने की सोचने लगीं।

इन दिनों इनके छोटे लड़के को गाँव के स्कूल का शिक्षक सुनील जाटव कक्षा आठ का टयूशन पढ़ाने आ रहा था। टयूशन पढ़ाते समय वह भी अपनी कक्षा आठ की किताबें लेकर पढ़ने बैठ जाती। वह सोचती- मैं कोई टयूशन तो देती नहीं, फिर ये मास्टर मुझे इतने प्यार से क्यों पढ़ा रहा है? मैं क्यों नहीं हँस बोल कर इसको खुश रखूँ।

सुनील सोचता-इसकी सुन्दरता प्रभू ने रच-रच कर बनाई है! मैं ठहरा बदसूरत इन्सान, चेचक की बीमारी ने मेरे चहरे पर बड़े-बडे दाग़ छोड़े हैं। कितना बदसूरत दिखता हूँ मैं। पता नहीं इसको मुझ मैं ऐसा क्या दिखता है जिससे यह मेरी ओर देख कर मुस्कराती रहती है। काश! जीवन में कोई ऐसा सुन्दर साथी मिल जाये....मैं धन्य हो जाऊँगा! पर मेरा ऐसा भाग्य कहाँ?

इसी सोच में डूबा सुनील उस दिन पढ़ाने जरा जल्दी ही पहुँच गया। उसे आया देख, वह बोली-‘सर जी, आज बेबू अपनी बीजी के साथ एक नातेदार के यहाँ चला गया है। वह आज नहीं पढ़ेगा।’

सुनील को लगा- यह तो सोने में सुहागा हुआ। इससे कितने ही दिनों से अकेले में बात करने की सोच रहा था। आज मौका मिल पाया है, यह सोचकर बोला -‘चलो, कोई बात नहीं है। मैं आ ही गया हूँ ,चाहें तो आज आप ही पढ़ लें।’

यह सुनकर वह बोली-‘आप हमें अकेले पढ़ा पायेंगे।’

‘क्यों नहीं पढ़ा पाऊँगा?’ उसने झट से उत्तर दिया।

‘कहीं, लड़की को पढ़ाने में डर तो नहीं लगता?’ उसने सुनील के साहस को टटोला।

‘मैं क्यों डरने लगा?’

‘सर जी, लड़की वाला मामला है ना!’

‘मेरे लिये तो तुम मेरी विद्यार्थी हो।’

‘सर जी, यहाँ कोई किसी का कुछ नहीं है। ये जो बेबू और बलजीत हैं, क्या सोचते है, आप इन दोनों के बारे में ? ये इस मजदूर की लड़की को बहन मानते हैं? अरे! एक दोस्त बना रहा है। दूसरा मेरा चुम्मा लेने और मुझे मसलने हर पल खड़ा रहता है। मुझे दोनों ही ठीक नहीं लगते।’

सुनील बोला-‘आपके साथ उनका यह व्यवहार ठीक नहीं है।’

वह बोली-‘ सर जी, आप तो बुद्धू हैं। कुछ नहीं जानते।’

उसके इस कथन को समझते हुये भी वह उसे पढ़ाता रहा। वह गुरु के आसन पर जो बैठा था। यही मर्यादा उसे आगे बढ़़ने से रोकती रही। जब चलने को हुआ तो चमेली को शरारत सूझी, रास्ते में पैर अड़ाकर बैठ गई। बोली-‘आज आप यहीं बैठें। हम तुम्हें जाने नहीं देंगे।’

मर्यादा का खिलौना ध्वस्त हो गया। उसके हाथ न चाहते हुये उसके चिकने गालों की ओर लपके। प्यार से उन पर हाथ फेरते हुये बोला-‘तेरे इस रूप पर सभी फिदा हो जाते हैं। इसे सम्हाल कर रख।’

वह बोली-‘सर जी, आप इसमें मेरी मदद कर सकते हैं। मेरे पास इस रूप के शिवा कुछ और है भी तो नहीं! मुझे अपनी नैया इसी रूप के सहारे पार लगाना है। मैं समझ गई हूँ, इससे क्या कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता? किन्तु लता को बढ़ने के लिये दरख्त की जरुरत है। जिसके सहारे वह खूब पल्लवित हो सके। बीजी, आपके साथ मेरे ब्याह की बात करने वाली हैं। मेरी माँ इसके लिये तैयार हैं।’

सुनील बोला-‘बात इतनी बढ़ गई है और मुझे पता भी नहीं है।’

‘झूठे कहीं के, बीजी ने तुमसे कुछ नहीं कहा?’

‘कहा तो है किन्तु मैंने इस बात को इस तरह नहीं लिया। मुझ जैसे से तुम विवाह करने तैयार होगी, विश्वास ही नहीं हुआ!’

‘तुम मुझे अन्दर से बहुत अच्छे लगे हो, भोले-भाले। मुझे ऐसे ही इन्सान की जरूरत है।’

‘तुम गलत सोचती हो, मैं इतना भोला-भाला भी नहीं हूँ।’

‘तुम कैसे हो? खूब जानती हूँ। शिक्षक हो, पढ़ाते हो, इसलिये मैं बच्ची दिखती हूँ। इसका अर्थ है तुम एक अच्छे इन्सान हो।’

‘आश्चर्य! तुम्हें, बलजीत पसन्द नहीं आया!’

‘उसके साथ तो मैं चौके-चूल्हे तक सीमित रह जाऊँगी। मेरे जीवन का लक्ष्य यह नहीं है।’

‘तुम्हारा लक्ष्य क्या है?’

‘तुम शादी की हाँ करो। मैं अपना लक्ष्य पा लूंगी।’

‘तुम्हें पाकर मैं धन्य हो जाऊँगा।’ यह कह कर उसने इधर-उधर झाँका और उसका चुम्मा ले लिया।

इसी समय वहाँ बलजीत आ गया। उसने उसे यह करते देख लिया। बोला-‘ गुरुजी, क्या चमेली के साथ प्रेमालाप चल रहा है? ऐसा है तो कल से आप अब पढ़ाने न आया करें। मैं बीजी को समझा दूँगा। समझे। अब तू मेरे सामने से हट जा।’

सुनील वहाँ से उठकर बेबसी में चला गया।

वह समझ गई, इसे यह अच्छा नहीं लगा। वह उसे सफाई देते हुए बोली-‘ये हमारी ही जाति जैसा है ना इसलिये....।’

उसकी यह बात सुनकर बलजीत झुझला गया- सुसरी यह तो इससे स्वयं ही फंस रही है। उसने इधर-उधर झाँका, घर सूना था ही। उसने चमेली का हाथ पकड़ा और अन्दर के कमरे में पड़े पलंग पर खीच ले गया। बेबस सी खिचती वह चिल्लाई-‘बलजीत भैया यह क्या करते हो?’

उसने चमेली पलंग पर पटक लिया, और जैसे आटा माड़ते हैं वैसे उसके अंग प्रतिअंगों को मसलने लगा। ज्यों-ज्यों वह छूटने का प्रयास करती रही त्यों-त्यों वह और कड़क पड़ता गया। उसने उसके वस्त्र उतार कर अलग फैंक दिये। अब वह पिल पड़ा था भूखे भेड़िये की तरह। कुछ ही क्षणों में बलजीत ने उसका वजूद मिटा लिया।

वह उसे छोड़कर अलग खड़ा हो गया किन्तु वह निढ़ाल पलंग पर पड़ी रही। यह देखकर वह बोला-‘अरे उठ! अब तू सरदारणी बन गई। अब तू शान से सीना तान कर यहीं रह।’

यह सुनकर उसमें चेतना आ गई, साहस करके बोली-‘तेरी, सगाई जो हो गई है, उसे कहाँ ले जायेगा?’

उसने उत्तर दिया-‘दोनों साथ-साथ प्रेम से रहना। इतनी बड़ी जमीन जायदाद जो है।’

खिसियाते हुये चमेली ने उसको हिदायत दी-‘बेबू भी तो मुझसे प्यार करता है। उसका मन भी बहला दिया करुँगी। तुम दोनों मुझे इसी तरह चींथते रहना। अच्छा है किसी दिन मेरे पीछे तुम दोनों लड़ मरोगे। बाद में मुझे दोष न देना, समझे।’

‘मैं बेबू को समझा दूंगा, ये तेरी भाभी है।’ यह कहते हुये वह उस कमरे से बाहर चला गया। वह उठी, उसने अपने वस्त्र पहने और अपनी कोठरी में माँ के पास पहुँच गई। अस्त-व्यस्त हालत देखकर माँ बोली-‘बिटूना क्या बात है? आज तू कैसी दिख रही है?’

माँ की बात सुनकर वह फफक-फफक कर रो पड़ी, बोली-‘जब खेत ही फसल खाने लगे तब कैसी दिखा करुँगी? बलजीत ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।’

यह सुनकर उसकी माँ क्रोध में फुंफकार उठी तो चमेली ही बोली-‘माँ, अब हम यहाँ नहीं रहेंगे।’

‘बेटी,अब हम एक क्षण भी यहाँ नहीं रहना चाहते किन्तु अब हम इस कीचड़ भरे रास्ते से कैसे निकल भागें? समझ से काम लेना होगा।’

यह सुनते हुये उसने अपना सिर माँ के आँचल में छिपा लिया। उसे लगा- अब वह पूरी तरह सुरक्षित हो गई है।

बलजीत उसका पीछा करते हुये कोठरी में आ गया। उसे देख माँ क्रोध में गुर्राई। माँ ने गन्ना काटने की गडासी उठा ली। यह देख उसे लगा-माँ इसकी हत्या कर डालेगी। बलजीत ने भी उसकी माँ को गड़ासी उठाते हुये देख लिया था। इसीलिये बोला- ‘चाची जी, यदि मुझे मार कर तुम्हारा गुस्सा शान्त होता है, तो कर लो अपना गुस्सा शान्त।’

यह कहते हुये वह उनके सामने सिर नीचा करके बैठ गया। उसका समर्पण देख माँ बोली-‘ज्यादा नाटक मत कर। भैया होकर राक्षस बन बैठा। तू मेरी आँखों के सामने से हट जा। इसी में तू अपनी खैर समझ। हट......यहाँ....... से।’

उनकी ललकार सुनकर भी वह वहीं बैठा रहा तो माँ ही फिर से बोलीं-‘हमने तुम्हारे पिता की शरण ली है, इसका अर्थ यह नहीं कि तुम हमें खा ही जाओगे। हिम्मत है तो उड़ा दे हम दोनों को गोली से। मैं आदिवासिन हूँ, डरती नहीं हूँ।’

माँ की निडरता देखकर वह वहाँ से चला आया था। दूसरे दिन माँ ने बीजी को सारी कहानी बतला दी। बीजी ने घोषणा कर दी कि चमेली का ब्याह सुनील मास्टर से करा देते हैं, न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। यों बीजी के आदेश से उसका व्याह सुनील के साथ हो गया। ब्याह में हिन्दू रीति- रिवाज की प्रधानता रही। उसका चित्त आदिवासी परम्पराओं की स्मृति में खोया रहा। अब उसकी पहचान सुनील की पत्नी के रूप में थी।

फिर से वह अपने सोच में खो गई .... मैं अमृता देवी, मैंने अपने सपनों को फैलाया। दिन रात विधायक बनने का सपना दिखने लगा। इसके लिये मैंने अपनी योग्यता बढ़ाना चाही। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के लिये ओपन से हाई स्कूल की परीक्षा का फार्म भर दिया। ओपन का अर्थ खुली नकल से लगा लिया। परीक्षा भवन में नकल की सामग्री लेकर पहुँच गई। जब शिक्षकों ने मुझे नकल नहीं करनें दी तो मैंने अपना प्रभाव जमाने के लिये उनसे रोब में कहा-‘मैं कैसे भी पढ़ लिखकर विधायक बनना चाहती हूँ।’

इस बात को उन्होंने हल्के से लिया होगा और मुझे नकल नहीं करने दी, फिर भी मैंने छिप-छिपा कर नकल करने का प्रयास किया था। यों मैं हाई स्कूल की परीक्षा पास कर गई।

मेरे सामने बात पार्टी के चयन की थी। मैं सोचने लगी किस पार्टी का पल्लू पकड़कर मैं विधान सभा में पहुँचू।

मैं तो अपना तन-मन बेचकर अपने लक्ष्य को पाना चाहती हूँ। इस कुर्सी के लिये कौन क्या नहीं बेचता? धन-बल ,बाहु-बल ,जाति-बल एवं सम्प्रदाय के उपयोग से लोग सत्ता पा जाते हैं। उसके बाद तो सभी धर्मेश्वरी बन आदर्श की बातें करने लगते हैं। मैंने मन माफिक एक पार्टी का चयन कर अपना लक्ष्य बनाया। यह रास्ता मुझे जरा आसान लगा। मेरे पास खोने के लिये कुछ था ही नहीं। साम -दाम-दन्ड -भेद से जो कुछ प्राप्त किया जा सकता था, उसे मैं प्राप्त करने में लग गई। हँस-बोल कर बड़े-बड़े नेताओं को मैंने अपना बना लिया।

इसी समय जनपद पंचायत के चुनाव में सदस्य के निर्वाचन हेतु जन जाति की सुरक्षित सीट से मैंने अपना फार्म डाल दिया। आदिवासी समाज मुझे जिताने के लिये एक जुट हो गया। मैं जाटव समाज में ब्याही हूँ, इस नाते उन्होंने भी मेरा स्वागत किया। अब मैं सिक्ख जाति के बोटों को अपना बनाने के लिये, अपनी गाड़ी लेकर बलजीत से मिलने निकल पड़ी। उसने मेरा एक प्रेमिका की तरह स्वागत किया। मैंने उसके कान के पास जाकर घीरे से कहा-‘ अब तूं अपनी सरदारणी को इस चुनाव में जिता।’

यह सुनकर वह मेरे चेहरे के तरफ देखता रह गया। बोला-‘धोखा तो नहीं देगी।’

मैंने उत्तर दिया-‘भरोसा हो तो साथ दें।’

यों वह चुनाव में जी-जान से लग गया। उसका सिक्खों में अच्छा चलावा था। उसने उन्हें समझाया- इसका सिक्ख धर्म के अनुसार पालन पोषण हुआ है। वह हमारे ही परिवार की अंग है। हमारे धर्म में उसे पूरी आस्था है। उसने हमारे यहाँ के सारे संस्कार आत्मसात किये है। उसका ये नामकरण अमृतसर से जोड़ते हुये अमृता देवी मेरे पापाजी ने किया हैं। यों मीठी-मीठी बातें करके उसने सभी सिक्खों को मेरे नाम पर एक जुट कर लिया।

इन्हीं दिनों मैं एक संत जी के आश्रम में जा पहुँची। वहाँ पहुँचकर संत जी के चरणों में अपना पल्लू का छोर पकड़कर साष्टांग प्रणाम किया। मैंरे इस अभिनय ने उनके शिष्यों का दिल जीत लिया। लोगों की इस मनोवृति को समझकर, मैं क्षेत्र के अन्य संत-महात्माओं से मिली। सभी की कुछ न कुछ आकाँक्षायें थीं, उनको पूरा करने के वचन दे डाले। इससे सभी प्रसन्न हो गये। इन मुफ्त के वायदों से उनका समर्थन भी मिल गया। इससे मैं जनपद पंचायत के चुनाव में सदस्य का चुनाव जीत गई। यों मैंने पहला पड़ाव पार कर लिया।

इसी के तत्काल बाद विधानसभा के चुनाव आ गये। अनुसूचित जन जाति के लिये नई रिजर्वसीट बनने के कारण चुनाव जीतने वाला कोई प्रत्याशी पार्टी के पास नहीं था। मैंने इस नब्ज को समझकर अपने हाथ पैर चलाये। पार्टी कें बड़े-बड़े नेताओं से मिली। मेरी सुन्दरता देखकर अच्छे-अच्छों की लार टपकने लगी। यों इस पार्टी से टिकिट माँगने वाले सभी दावेदार प्रत्याशी मेरी मुस्कराहट के सामने फीके पड़ गये। मेरे वोट बैंक को देखकर इस पार्टी ने मुझे अपना प्रत्याशी बना लिया। मुझे पार्टी से टिकिट मिल गया। मेंरे उड़ने के पंख लग गये।

मुझे याद है टिकिट मिलने के वाद मैं भोपाल से लौटी। मुझे पता चल गया कि क्षेत्र का जन समूह मेरे स्वागत को बाबला हो रहा है। मैंने उनका आभार मानने की अपने तरह की योजना मन ही मन बना डाली। ट्रेन से उतरते ही मैंने कुछ बडे़ नेताओं के गले चिपक कर अपने सीने के सुखद स्पर्श से उन्हें बाग-बाग कर दिया। फिल्मी अन्दाज में कुछ युवाओं के कपोलों पर हाथ फेरते हुये भीड़ को चीर कर आगे बढ़ने लगी।

महिलाओं का झुण्ड मालायें लिये सामने खड़ा था। मैंने उनकी मालायें जबरदस्ती उन्हीं के गले में डालकर उन छोटी-बड़ी सभी के चरण छू लिये। आगे कुछ मन चलों का झुण्ड खड़ा था। मैं उनकी मनोवृति पहचानती थी। मैं आगे बढ़ते हुये एक- एक करके सभी के गले में अपनी बाँह डालकर उनके कान से मुँह अड़ाकर प्यार का इजहार करते हुये आगे बढ़ती रही। मंच पर पहुँच गई।

मैंने अपने भाषण में कहा-‘मैंने अपने अस्तित्व को मिटा कर आप सबको सौप दिया है। अब मेरा अपना कुछ नहीं है। मेरे तन-मन-धन पर आप सबका पूरा अधिकार है उसका जैसा चाहे उपयोग करें।’

भीड़ पागलों की तरह चिल्लाने लगी- ‘हमारा.... नेता.... कैसा... हो, अमृता देवी... जैसा... हो। हमारा.... नेता.... कैसा.... हो, अमृता देवी.... जैसा... हो। ‘

अब मैं चुनाव प्रचार के लिये गाँव-गाँव निकल पड़ी। मैंने लोगों को अपनी प्यार प्रदर्शित करने वाली नीति से अपना बनाना शुरू कर दिया।

इन दिनों बलजीत गाइड की तरह हर क्षण मेरे साथ रहने लगा। सुनील बलजीत के बारे में पहले से ही परिचित था। शायद यही सोचकर उसने मेरे चरित्र का सभी के सामने खुलकर विरोध करना शुरू कर दिया। बलजीत को उसकी यह बात पसन्द नहीं आई और मेरा अधिक हित चिन्तक बनने के लिये उसने सुनील के चाटें जड़ दिये। सुनील का आग-बबूला होना स्वाभविक था। मैंने उसे समझाया-‘चुनाव तक वह कैसे भी चुप रहे। इसी में हमारा हित है।’

वह पति परमेश्वर जो ठहरा, मेरी बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। विरोधियों ने उसके कान भर दिये होंगे। वह मेरे विरोध पर सीधे उतर आया। मैंने उसका हाथ पकड़़कर उसके आक्रोश को कम करना चाहा। वह नहीं माना, हाथ छुड़ाकर क्रोध व्यक्त करते हुये घर से निकल पड़ा।

घर के बाहर निकलते ही विरोधी पार्टी के नेताओं ने उसे घेर लिया। वे मेरे चरित्र के बारे में तरह-तरह से जहर उगलने लगे। रातों रात दीवारों पर पोस्टर चिपका दिये गये। मुझे हराने के लिये सुनील की अपील घर-घर पहुँचा दी गई। बलजीत ने उस अपील की एक प्रति मेरे हाथ पर लाकर रख दी। उसमें लिखा था- एक दुःखी पति की अपील-‘यदि आप अपना और देश का हित चाहते हैं तो इस अमृता देवी जैसी चरित्रहीन औरत को वोट न देकर समाज को पतित होने से बचा सकते हो तो बचा लो।’ आपका हित चिन्तक, सुनील जाटव, अमृता देवी का पति।

उसकी इस अपील ने मुझे हिला दिया किन्तु मैंने हार नहीं मानी। चुनाव के एक दिन पहले योजना अनुसार एकत्रित किये क्षेत्र के सभी युवाओं के मोबाइल नम्बरों पर मैंसेज भेजा- मैंने अपने अस्तित्व को मिटा कर आप सबको सौप दिया है। अब मेरा अपना कुछ नहीं है। मेरे तन-मन पर आप सबका पूरा अधिकार है उसका जैसा चाहे उपयोग करें।’

यों विरोधी प्रत्याशियों के विरोध के बावजूद मैं भारी बहुमत से विधान सभा की सदस्य चुन ली गई।

मैंने सुनील को जीत की बधाई देने के लिये फोन किया। वह शायद इसी की प्रतिक्षा कर रहा था। वह तत्काल घर लौट आया। मैंने मुस्कराकर उसका स्वागत किया और मैं जीत की खुशी में उससे लिपट गई। यों उसका सारा आक्रोश छू-मन्तर हो गया। वह बोला-‘मैं विरोधियों की बातों में आ गया। मैं जानता हूँ, चुनाव में सब वैध है, किसी बात का बुरा नहीं माना जाता।’ यह बात कहकर उसने अपनी गलती मेरे सामने खुलकर स्वीकार कर ली।

सारे नगर ने मेरा जोरदार स्वागत किया। मैं बाग-बाग हो गई। मैंने अपना लक्ष्य पा लिया। मैं जानती थी शक्ति प्राप्त होने पर सारे अपवादों पर धूल पड़ जाती है।

आदमी की कमजोरी की यह नब्ज जिसने पकड़ी, उसी ने हासिल करली सत्ता। चाहे वह सत्ता घर-आँगन-गाँव की हो अथवा देश-विदेश की।

अब मैं फूलों की दुकान पर बिकने वाली चमेली का फूल नहीं रही । अमृता देवी बन गई। अब तो मैं इस नाम की तरह, सारी व्यवस्थायें बदल देना चाहती हूँ।