माता-विमाता (कहानी) : भीष्म साहनी

Mata-Vimata (Hindi Story) : Bhisham Sahni

पंद्रह डाउनलोड गाड़ी के छूटने में दो-एक मिनट की देर थी। हरी बत्ती दी जा चुकी थी और सिगनल डाउनलोड हो चुका था। मुसाफिर अपने-अपने डिब्‍बों में जाकर बैठ चुके थे, जब सहसा दो फटेहाल औरतों में हाथापाई होने लगी। एक औरत, दूसरी की गोद में से बच्‍चा छीनने की कोशिश करने लगी और बच्‍चेवाली औरत एक हाथ से बच्‍चे को छाती से चिपकाए, दूसरे से उस औरत के साथ जूझती हुई, गाड़ी में चढ़ जाने की कोशिश करने लगी।
"छोड़, तुझे मौत खाए, छोड़, गाड़ी छूट रही है...।"
"नहीं दूँगी, मर जाऊँगी तो भी नहीं दूँगी..." दूसरी ने बच्‍चे के लिए फिर से झपटते हुए कहा।
कुछ देर पहले दोनों औरतें आपस में खड़ी बातें कर रही थीं, अभी दोनों छीना-झपटी करने लगी थीं। आस-पास के लोग देखकर हैरान हुए। तमाशबीन इकट्ठे होने लगे। प्‍लेटफार्म का बावर्दी हवलदार, जो नल पर पानी पीने के लिए जा रहा था, झगड़ा देखकर, छड़ी हिलाता हुआ आगे बढ़ आया।
"क्‍या बात है? क्‍या हल्‍ला मचा रही हो?" उसने दबदबे के साथ कहा।
हवलदार को देखकर दोनों औरतें ठिठक गईं। दोनों हाँफ रही थीं और जानवरों की तरह एक-दूसरी को घूरे जा रही थीं।
दो-एक मुसाफि़रों को गाड़ी पर चढ़ते देखकर बच्‍चेवाली औरत फिर गाड़ी की ओर लपकी, लेकिन दूसरी ने झपटकर उसे पकड़ लिया और उसे खींचती हुई फिर प्‍लेटफार्म के बीचोंबीच ले आई। लटकते-से अंगोंवाला, काला, दुबला-सा बच्‍चा, औरत के कंधे से लगकर सो रहा था। औरतों की हाथापाई में उसकी पतली लंबूतरी-सी गर्दन, कभी झटका खाकर एक ओर को लुढ़क जाती, कभी दूसरी ओर को। लेकिन फिर भी उसकी नींद नहीं टूट रही थी।
"मत हल्‍ला करो, क्‍या बात है?" हवलदार ने छड़ी हिलाते हुए चिल्‍लाकर कहा और अपनी पतली बेंत की छड़ी दोनों औरतों के बीच खोंसकर उन्‍हें छुड़ाने की कोशिश करने लगा।
जो औरत बच्‍चा छीनने की कोशिश कर रही थी, उसने अपनी बड़ी-बड़ी कातर आँखों से हवलदार की ओर देखा और तड़पकर बोली, "मेरा बच्‍चा लिए जा रही है, नहीं दूँगी मैं बच्‍चा...।" और फिर एक बार वह बच्‍चा छीनने के लिए लपकी।
"गाड़ी छूट रही है नासपिट्टी, छोड़ मुझे!" बच्‍चेवाली औरत ने चिल्‍लाकर कहा और फिर गाड़ी के डिब्‍बे की ओर जाने लगी। हवलदार ने आगे बढ़कर उसका रास्‍ता रोक लिया।
"इसका बच्‍चा क्‍यों लिए जा रही है?" हवलदार ने कड़ककर कहा।
"इसका कहाँ है! बच्‍चा मेरा है।"
"वह कहती है मेरा है, बोलो किसका बच्‍चा है?"
"मेरा है," दूसरी छोटी उम्र की औरत बोली और कहते ही रो पड़ी। रूखे, अस्‍त-व्‍यस्‍त बोलों के बीच उसका चेहरा तमतमा रहा था, लेकिन आँखों में अब भी डर समाया हुआ था। बदहवास और व्‍याकुल वह फिर बच्‍चे की ओर बढ़ी।
हवलदार जल्‍दी-से-जल्‍दी झगड़ा निबटाना चाहता था। बच्‍चेवाली औरत से बोला, "बच्‍चा इसके हवाले कर दो।"
"क्‍यों दे दूँ, बचचा मेरा है...।"
"तेरे पेट से पैदा हुआ था?"
बच्‍चेवाली औरत चुप हो गई और घूर-घूरकर दूसरी औरत को देखने लगी।
"बोल, तेरे पेट से पैदा हुआ था?" हवलदार ने फिर गुस्‍से से पूछा।
"पेट से पैदा नहीं हुआ तो क्‍या, दूध तो मैंने पिलाया है। पिछले सात महीने से पिला रही हूँ।"
"दूध पिलाया है तो इससे बच्‍चा तेरा हो गया? बच्‍चे को जबरदस्‍ती लिए जा रही है?"
"जबरदस्‍ती क्‍यों ले जाऊँगी, मेरे अपने बच्‍चे सलामत रहें। इसी से पूछ लो, डायन सामने खड़ी है।" फिर दूसरी औरत को मुखातिब करके बोली, "कलमुँही बोलती क्‍यों नहीं? मैं तेरे से छीन के ले जा रही हूँ? हवलदारजी, इसने खुद बच्‍चे को मेरी गोद में डाला है। यह तो इसे जनकर घूरे पर फेंकने जा रही थी, मैंने कहा कि ला मुझे दे दे, मैं इसे पाल लूँगी। तब से मैं इसे पाल रही हूँ। यह मुझे यहाँ छोड़ने आई थी। यहाँ आकर मुकर गई।"
हवलदार दूसरी औरत की ओर मुड़ा, "तूने इसे खुद दिया था बच्‍चा?"
युवा औरत की बड़ी-बड़ी उद्भ्रांत आँखें कुछ देर तक दूसरी औरत की ओर देखती रहीं, फिर झुक गईं।
"दिया था, पर बच्‍चा मेरा है, मैं क्‍यों दूँ, मैं नहीं दूँगी।"
और निस्‍सहाय-सी फिर दूसरी औरत की ओर देखने लगी। पहले जो आँसू आँखों में फूट पड़े थे, घबराहट के कारण फौरन ही सूख गए।
"तूने दिया था तो अब क्‍यों वापस लेना चाहती है?"
कातर नेत्र फिर एक बार ऊपर को उठे और उसका सारा बदन काँप गया।
"यह इसे परदेस लिए जा रही है...।" और कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।
"मैं सदा तेरे पास पड़ी रहूँ?" बच्‍चेवाली औरत बाँहें पसार-पसारकर आसपास के लोगों को सुनाती हुई बोलने लगी, "मेरे डेरेवाले सभी लोग चले गए हैं। यह मुझे छोड़ती नहीं थी। कहती थी दस दिन और रुक जा, फिर चली जाना। पाँच दिन और रुक जा, चली जाना। करते-करते महीना हो गया। मैं यहाँ कैसे पड़ी रहूँ? आज गाड़ी चलने लगी तो कलमुँही मुकर गई है।"
"यह तेरे रिश्‍ते की है?" हवलदार ने पूछा।
"रिश्‍ते की क्‍यों होगी जी, यह काठियावाड़ की है, हम बनजारे हैं।"
"तू गाड़ी में कहाँ जा रही है?"
"‍फीरोजपुर, जी!"
"वहाँ क्‍या है?"
"हम बनजारे हैं, हवलदारजी, पहले हमारे लोगों ने यहाँ जमीन ली थी, पूरे दो साल हलवाही की है। अब हमें फीरोजपुर में जमीन मिली है। हमारे सभी लोग चले गए हैं, पर यह मुझे छोड़ती नहीं थी।"
हवलदार दुविधा में पड़ गया। एक ने जनकर फेंक दिया, दूसरी ने दूध पिलाकर बड़ा किया। बच्‍चा किसका हुआ?
"तेरा घर-घाट कोई नहीं है, जो अपना बच्‍चा इसे दे दिया? तू रहती कहाँ है?" हवलदार ने बच्‍चे की माँ से पूछा।
"यह कहाँ रहेगी जी, पुल के पास फूस के झोंपड़े हैं, यह वहीं पर रहती है। हम भी वहीं पर रहते थे। यह मेरी पड़ोसिन है जी, मजूरी करती है। इसकी तो नाल भी मैंने काटी थी।" बच्‍चे की माँ उद्भ्रांत-सी अपने बच्‍चे की ओर देखे जा रही थी। लगता जैसे वह कुछ भी सुन नहीं रही है।
"इसका घरवाला कहाँ है?..."
"इसका घरवाला कोई नहीं जी। यह तो मरदों के पीछे भागती फिरती है, कोई इसे बसाता नहीं। इसका घरबार होता तो यह बच्‍चे को जनकर फेंकने क्‍यों जाती?"
इतने में गार्ड ने सीटी दी।
भीड़ में से छँटकर लोग अपने-अपने डिब्‍बों की ओर जाने लगे। बनजारन भी डिब्‍बे की ओर घूमी। बच्‍चे की माँ ने आगे बढ़कर उसके पाँव पकड़ लिए।
"मत जा, मत ले जा मेरे बच्‍चे को, मत ले जा!"
कुछेक लोगों को तरस आया। हवलदार ने दृढ़ता से आगे बढ़कर बनजारन से कहा, "बच्‍चा वापस दे दे। अगर माँ बच्‍चा नहीं देना चाहती तो तू उसे नहीं ले जा सकती।"
हवलदार की आवाज में दृढ़ता थी। बनजारन को इस निर्णय की आशा नहीं थी। वह छटपटा गई, "मैं क्‍यों दे दूँ जी, अपने बच्‍चे को भी कोई देता है? किसको दे दूँ। इसका घर है, न घाट..."
"गाड़ी छूटनेवाली है, जल्‍दी करो, बच्‍चा माँ के हवाले करो वरना हवालात में दे दूँगा।" हवलदार ने अबकी बार कड़ककर कहा।
औरत घबरा गई और किंकर्तव्‍यविमूढ़-सी आसपास खड़े लोगों की ओर देखने लगी। फिर अपनी साथिन की ओर देखते हुए चिल्‍लाकर बोली, "हरामजादी! कुतिया! यहाँ आकर मुकर गई। ले बेगैरत, ले सँभाल, फिर कहना दूध पिलाने को, जहर पिलाऊँगी, इसे भी और तुझे भी। सात महीने तक अपने बच्‍चे का पेट काटकर इसे दूध पिलाया है...।" और झटककर बच्‍चा उसके हाथ में दे दिया और फूट-फूटकर रोने लगी।
माँ ने बच्‍चा छाती से लगा लिया। बच्‍चे के मिलते ही वह भी ममता की मारी रोने लगी।
अजीब तमाशा था। दोनों औरतें रोए जा रही थीं। दोनों एक-दूसरी की दुश्‍मन, दोनों एक ही बच्‍चे की माताएँ। बेघर लोगों को न हँसने की तमीज होती है, न रोने की। ओर कलह का कारण, दुबला-पतला, पित्त का मारा बच्‍चा, अब भी मुट्ठियाँ भींचे सो रहा था।
बनजारन गालियाँ बकती, रोती, बड़बड़ाती गाड़ी में चढ़ गई।
"तुम्‍हें तुम्‍हारा बच्‍चा मिल गया है। यहाँ से चली जाओ फौरन..."
हवलदार ने सोए बच्‍चे की पीठ पर छड़ी की नोंक रखते हुए, धमकाकर कहा, "फौरन चली जाओ यहाँ से!"
बच्‍चे को छाती से चिपकाए, माँ पीछे हट गई। भीड़ बिखर गई। डिब्‍बे के दरवाजे में खड़ी बनजारन अभी भी चिल्‍लाए जा रही थी, "कंजरी, हरामजादी, तूने इसे जनते ही क्‍यों नहीं मार डाला? जब भी मार डालेगी, तभी मेरे दिल को चैन मिलेगा, नासपिट्टी...!"
बच्‍चे ने गोद पहचान रखी थी या तो इस कारण रहा हो या हवलदार की बेंत की नोक लगने के कारण, बच्‍चा जाग गया और अपनी नन्‍हीं-नन्‍हीं मुट्ठियों से पहले तो अपनी नाक पीसने लगा, फिर आँखे, और थोड़ी देर के बाद अपनी मुट्ठी मुँह में ले जाकर चूसने लगा। औरत अभी भी उद्भ्रांत-सी पीछे हट गई और प्‍लेटफार्म की दीवार के साथ जा खड़ी हुई।
बच्‍चा दूध के धोखे में अपनी मुट्ठी चूसता रहा, पर दूध न मिलता देख बिल्‍कुल जग गया और दोनों टाँगें जोर-जोर से पटककर रोने लगा। माँ ने उसे दाएँ कंधे से हटाकर बाएँ कंधे के साथ सटा लिया। लेकिन बच्‍चा और भी जोर-जोर से रोने लगा।
माँ परेशान हो उठी। कभी बच्‍चे को एक करवट उठाती, कभी दूसरी; कभी दाएँ कंधे पर उसका सिर रखती, कभी बाएँ पर।
बच्‍चे का रोना सुनकर डिब्‍बे के दरवाजे में खड़ी बनजारन फिर चिल्‍लाने लगी, "मार डाल, तू इसे मार डाल! नासपिट्टी, इसे जहर क्‍यों नहीं दे देती! दोपहर से इसके मुँह में दूध की बूँद नहीं गई। बच्‍चा रोएगा नहीं?"
हवलदार छड़ी झुलाता वहाँ से जा चुका था। दो-एक कुलियों को छोड़कर डिब्‍बे के सामने कोई नहीं था। दूर, पीछे की ओर, नीली वर्दीवाला गार्ड हरी झंडी दिखा रहा था।
गाड़ी ने सीटी दी और चलने को हुई।
बच्‍चा रोए जा रहा था। माँ ने अपने फटे हुए कुरते की जेब में से मूँगफली के कुछेक दाने निकाले और बच्‍चे के मुँह में ठूँसने लगी।
"नासपिट्टी, यह क्‍या उसके मुँह में डाल रही है? मेरे बच्‍चे को मार डालेगी। कसाइन, कंजरी...!"
और घूमकर पहले एक छोटा-सा टीन का बक्‍सा और फिर छोटी-सी गठरी प्‍लेटफार्म पर फेंकी और बड़बड़ाती, गालियाँ बकती हुई गाड़ी पर से उतर आई, "हरामजादी, मेरी गाड़ी छुड़ा दी। मौत खाए तुझे! नासपिट्टी...!"
गाड़ी निकल गई। एक-एक करके कुली स्‍टेशन के बाहर चले गए। प्‍लेटफार्म पर मौन छा गया। हवलदार अपनी गश्‍त पर दूर प्‍लेटफार्म के दूसरे सिरे तक पहुँच चुका था। लेकिन जब छड़ी झुलाता हुआ वह वापस लौटा, तो प्‍लेटफार्म के एक कोने में दीवार के साथ सटकर वही दोनों औरतें बैठी थीं। बनजारन अपनी गोद में बच्‍चे को लिटाए, उसे अपने आँचल से ढके, दूध पिला रही थी और पास बैठी बच्‍चे की माँ धीरे-धीरे अपने लाड़ले के बाल सहला रही थी।

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