उल्लू का पट्ठा (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Ullu Ka Pattha (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरह चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उस के दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहे। बस सिर्फ़ एक बार ग़ुस्से में या तंज़िया अंदाज़ में किसी को उल्लु का पट्ठा कह दे।
क़ासिम के दिल में इस से पहले कई बार बड़ी बड़ी अनोखी ख्वाहिशें पैदा हो चुकी थीं मगर ये ख़्वाहिश सब से निराली थी। वो बहुत ख़ुश था। रात उसको बड़ी प्यारी नींद आई थी। वो ख़ुद को बहुत तर-ओ-ताज़ा महसूस कर रहा था। लेकिन फिर ये ख़्वाहिश कैसे इस के दिल में दाख़िल होगई। दाँत साफ़ करते वक़्त उस ने ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त सर्फ़ किया जिस के बाइस उस के मसूड़े छिल गए। दरअसल वो सोचता रहा कि ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश क्यों पैदा हूई। मगर वो किसी नतीजा पर न पहुंच सका।
बीवी से वो बहुत ख़ुश था। उन में कभी लड़ाई न हुई थी, नौकरों पर भी वो नाराज़ नहीं था। इस लिए कि ग़ुलाम मुहम्मद और नबी बख़्श दोनों ख़ामोशी से काम करने वाले मुस्तइद नौकर थे। मौसम भी निहायत ख़ुश-गवार था। फरवरी के सुहाने दिन थे जिन में कुंवार-पने की ताज़गी थी। हवा ख़ुनुक और हल्की। दिन छोटे न रातें लंबी। नेचर का तवाज़ुन बिलकुल ठीक था और क़ासिम की सेहत भी ख़ूब थी समझ में नहीं आता था कि किसी को बग़ैर वजह के उल्लू का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश उसके दिल में क्योंकर पैदा होगई।
क़ासिम ने अपनी ज़िंदगी के अट्ठाईस बरसों में मुतअद्दिद लोगों को उल्लु का पट्ठा कहा होगा और बहुत मुम्किन है कि इस से भी कड़े लफ़्ज़ उस ने बाअज़ मौक़ों पर इस्तिमाल किए हों और गंदी गालियां भी दी हूँ मगर उसे अच्छी तरह याद था कि ऐसे मौक़ों पर ख़्वाहिश बहुत पहले उस के दिल में पैदा नहीं हुई थी मगर अब अचानक तौर पर उस ने महसूस किया था कि वो किसी को उल्लु का पट्ठा कहना चाहता है और ये ख़्वाहिश लम्हा-ब-लम्हा शिद्दत इख़्तियार करती चली गई जैसे उस ने अगर किसी को उल्लू का पट्ठा न कहा तो बहुत बड़ा हर्ज हो जाएगा।
दाँत साफ़ करने के बाद उस ने छिले हुए मसूड़ों को अपने कमरे में जा कर आईने में देखा। मगर देर तक उन को देखते रहने से भी वो ख़्वाहिश न दबी जो इका इकी उस के दिल में पैदा होगई थी।
क़ासिम मंतक़ी क़िस्म का आदमी था। वो बात के तमाम पहलूओं पर ग़ौर करने का आदी था। आईना मेज़ पर रख कर वह आराम कुर्सी पर बैठ गया और ठंडे दिमाग़ से सोचने लगा।
मान लिया कि मेरा किसी को उल्लू का पट्ठा कहने को जी चाहता है..... मगर ये कोई बात तो न हूई..... मैं किसी को उल्लु का पट्ठा क्यों कहूं?..... मैं किसी से नाराज़ भी तो नहीं हूँ.....
ये सोचते सोचते उस की नज़र सामने दरवाज़े के बीच में रखे हुए हुक्के पर पड़ी। एक दम उस के दिल में ये बातें पैदा हुईं, अजीब वाहीयात नौकर है। दरवाज़े के ऐन बीच में ये हुक़्क़ा टिका दिया है। में अभी इस दरवाज़े से अंदर आया हूँ, अगर ठोकर से भरी हुई चिलिम गिर पड़ती तो पअंदाज़ जोकि मूंज का बना हुआ है जलना शुरू हो जाता और साथ ही क़ालीन भी.....
उस के जी में आई कि ग़ुलाम मुहम्मद को आवाज़ दे। जब वो भागा हुआ उस के सामने आजाए तो वो भरे हुए हुक़्क़े की तरफ़ इशारा करके इस से सिर्फ़ इतना कहे ख़ाहिश “तुम निरे उल्लु के पट्ठे हो।” मगर उस ने तअम्मुल किया और सोचा यूं बिगड़ना अच्छा मालूम नहीं होता। अगर ग़ुलाम मुहम्मद को अब बुला कर उल्लु का पट्ठा कह भी दिया तो वो बात पैदा न होगी और फिर..... और फिर उस बिचारे का कोई क़ुसूर भी तो नहीं है। मैं दरवाज़े के पास बैठ कर ही तोहर रोज़ हुक्का पीता हूँ।
चुनांचे वो ख़ुशी जो एक लम्हा के लिए क़ासिम के दिल में पैदा हूई थी कि उस ने उल्लु का पट्ठा कहने के लिए एक अच्छा मौक़ा तलाश कर लिया, ग़ायब होगई।
दफ़्तर के वक़्त में अभी काफ़ी देर थी। पूरे दो घंटे पड़े थे, दरवाज़े के पास कुर्सी रख कर क़ासिम अपने मामूल के मुताबिक़ बैठ गया और हुक़्क़ा नोशी में मसरूफ़ होगया।
कुछ देर तक वो सोच बिचार किए बग़ैर हुक़्क़े का धूवां पीता रहा और धोएँ के इंतिशार को देखता रहा। लेकिन जूंही वो हुक़्क़े को छोड़कर कपड़े तबदील करने के लिए साथ वाले कमरे में गया तो उस के दिल में वही ख़्वाहिश नई ताज़गी के साथ पैदा हुई।
क़ासिम घबरा गया। भई हद होगई.......... उल्लु का पट्ठा..... मैं किसी को उल्लु का पट्ठा क्यों कहूं और ब-फर्ज़-ए-मुहाल मैंने किसी को उल्लु का पट्ठा कह भी दिया तो क्या होगा.....
क़ासिम दिल ही दिल में हंसा। वो सहीहुद्दिमाग़ आदमी था। उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये ख़्वाहिश जो उस के दिल में पैदा हूई है बिलकुल बेहूदा और बेसर-ओ-पा है लेकिन इस का क्या ईलाज था कि दबाने पर वो और भी ज़्यादा उभर आती थी।
क़ासिम अच्छी तरह जानता था कि वो बग़ैर किसी वजह के उल्लु का पट्ठा न कहेगा। ख़ाह ये ख़्वाहिश सदियों तक उस के दिल में तिलमिलाती रहे, शायद इसी एहसास के बाइस ये ख़्वाहिश जो भटकी हुई चमगादड़ की तरह उस के रोशन दिल में चली आई थी। इस क़दर तड़प रही थी।
पतलून के बटन बंद करते वक़्त जब उस ने दिमाग़ी परेशानी के बाइस ऊपर का बटन निचले काज में दाख़िल कर दिया तो वो झल्ला उठा। भई होगा..... ये क्या बेहूदगी है.......... दीवाना पन नहीं तो और किया है..... उल्लु का पट्ठा कहो.....उल्लु का पट्ठा कहो और ये पतलून के सारे बटन मुझे फिर से बंद करने पड़ेंगे। लिबास पहन कर वो मेज़ पर आ बैठा। उस की बीवी ने चाय बना कर प्याली इस के सामने रख दी और तोस पर मक्खन लगाना शुरू कर दिया। रोज़ाना मामूल की तरह हर चीज़ ठीक ठाक थी, तोस इतने अच्छे सेंके हूए थे कि बिस्कुट की तरह कुरकुरे थे और डबल रोटी भी आला क़िस्म की थी। ख़मीर में से ख़ुशबू आरही थी। मक्खन भी साफ़ था, चाय की केतली बेदाग़ थी। उस की हथ्थी के एक कोने पर क़ासिम हर रोज़ मेल देखा करता था। मगर आज वो धब्बा भी नहीं था।
उस ने चाय का एक घूँट पिया। उस की तबीयत ख़ुश होगई। ख़ालिस दार्जिलिंग की चाय थी। जिस की महक पानी में भी बरक़रार थी। दूध की मिक़दार भी सही थी।
क़ासिम ने ख़ुश हो कर अपनी बीवी से कहा। “आज चाय का रंग बहुत ही प्यारा है और बड़े सलीक़े से बनाई गई है।”
बीवी तारीफ़ सुन कर ख़ुश हूई। मगर उस ने मुँह बना कर एक अदा से कहा। “जी हाँ। बस आज इत्तिफ़ाक़ से अच्छी बन गई है वर्ना हर रोज़ तो आप को नीम घोल के पिलाई जाती है..... मुझे सलीक़ा कहाँ आता है..... सलीक़े वालियां तो वो मोय होटल की छोकरीया हैं जिन के आप हरवक़्त गुण गाया करते हैं।”
ये तक़रीर सुन कर क़ासिम की तबीयत मुकद्दर होगई। एक लम्हा के लिए उस के जी में आई कि चाय की प्याली मेज़ पर उलट दे और वो नीम जो उस ने अपने बच्चे की फुंसियां धोने के लिए ग़ुलाम मुहम्मद से मंगवाई थी और सामने बड़े ताक़चे में पड़ी थी घोल कर पी ले मगर उस ने बुर्दबारी से काम लिया। ये औरत मेरी बीवी है। इस में कोई शक नहीं कि उस की बात बहुत ही भोंडी है मगर हिंदूस्तान में सब लड़कियां बीवी बन कर ऐसी भोंडी बातें ही करती हैं। और बीवी बनने से पहले अपने घरों में वो अपनी माओं से कैसी बातें सुनती हैं? बिलकुल ऐसी अदना क़िस्म की बातें और उस की वजह सिर्फ़ ये है कि औरतों को उमूमी ज़िंदगी में अपनी हैसियत की ख़बर ही नहीं..... मेरी बीवी तो फिर भी ग़नीमत है यानी सिर्फ़ एक अदा के तौर पर ऐसी भोंडी बात कह देती है, उस की नीयत नेक होती है। बाअज़ औरतों का तो ये शिआर होता है कि हरवक़्त बकवास करती रहती हैं।
ये सोच कर क़ासिम ने अपनी निगाहें उस ताक़चे पर से हटा लीं जिस में नीम के पत्ते धूप में सूख रहे थे और बात का रुख़ बदल कर उस ने मुस्कुराते हुए कहा। “देखो, आज नीम के पानी से बच्चे की टांगें ज़रूर धो देना। नीम ज़ख़्मों के लिए बड़ी अच्छी होती है.......... और देखो, तुम मौसम्मियों का रस ज़रूर पिया करो..... मैं दफ़्तर से लौटते हुए एक दर्जन और ले आऊँगा। ये रस तुम्हारी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है।”
बीवी मुस्कुरा दी। “आप को तो बस हरवक़्त मेरी ही सेहत का ख़्याल रहता है। अच्छी भली तो हूँ, खाती हूँ, पीती हूँ, दौड़ती हूँ, भागती हूँ..... मैंने जो आप के लिए बादाम मंगवा के रखे हैं..... भई आज दस बीस आप की जेब में डाले बग़ैर न रहूंगी.......... लेकिन दफ़्तर में कहीं बांट न दीजीएगा।”
क़ासिम ख़ुश होगया कि चलो मौसंबियों के रस और बादामों ने उसकी बीवी के मस्नूई ग़ुस्से को दूर कर दिया और ये मरहला आसानी से तय होगया। दरअसल क़ासिम ऐसे मरहलों को आसानी के साथ इन तरीक़ों ही से तय किया करता था। जो उस ने पड़ोस के पुराने शौहरों से सीखे थे। और अपने घर के माहौल के मुताबिक़ इन में थोड़ा बहुत रद्दोबदल कर लिया था।
चाय से फ़ारिग़ होकर उस ने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाया और उठ कर दफ़्तर जाने की तैय्यारी करने ही वाला था कि फिर वही ख़्वाहिश नमूदार होगई। इस मर्तबा उस ने सोचा। अगर मैं किसी को उल्लु का पट्ठा कह दूं तो क्या हर्ज है। ज़ेर-ए-लब बिलकुल हौले से कह दूं, उल्लु..... का..... पट्ठा..... तो मेरा ख़याल है कि मुझे दिली तसकीन हो जाएगी। ये ख़्वाहिश मेरे सीने में बोझ बन कर बैठ गई है। क्यों न उस को हल्का कर दूँ..... दफ़्तर में।
उस को सहन में बच्चे का कमोड नज़र आया। यूं सहन में कमोड रखना सख़्त बदतमीज़ी थी और ख़ुसूसन उस वक़्त जब कि वो नाश्ता कर चुका था और ख़ुशबूदार कुरकुरे तोस और तले हूए अंडों का ज़ायक़ा अभी तक उसके मुँह में था..... उस ने ज़ोर से आवाज़ दी “ग़ुलाम मुहम्मद।”
क़ासिम की बीवी जो अभी तक नाश्ता कर रही थी बोली। “ग़ुलाम मुहम्मद बाहर गोश्त लेने गया है..... कोई काम था आप को उस से?”
एक सैकेण्ड के अंदर अंदर क़ासिम के दिमाग़ में बहुत सी बातें आएं कह दूं, ये ग़ुलाम मुहम्मद उल्लु का पट्ठा है..... और ये कह कर जल्दी से बाहर निकल जाऊं..... नहीं..... वो ख़ुद तो मौजूद ही नहीं, फिर..... बिलकुल बेकार है..... लेकिन सवाल ये है कि बिचारे ग़ुलाम मुहम्मद ही को क्यों निशाना बनाया जाये। उस को तो मैं हरवक़्त उल्लु का पट्ठा कह सकता हूँ.....
क़ासिम ने अध जला सिगरेट गिरा दिया और बीवी से कहा। “कुछ नहीं मैं उस से ये कहना चाहता था कि दफ़्तर में मेरा खाना बेशक डेढ़ बजे ले आया करे..... तुम्हें खाना जल्दी भेजने में बहुत तकलीफ़ करना पड़ती है।” ये कहते हुए उस ने बीवी की तरफ़ देखा। जो फ़र्श पर इस के गिराए हुए सिगरेट को देख रही थी। क़ासिम को फ़ौरन अपनी ग़लती का एहसास हुआ। ये सिगरेट अगर बुझ गया और यहां पड़ा रहा तो इस का बच्चा रेंगता रेंगता आएगा और उसे उठा कर मुँह में डाल लेगा। जिस का नतीजा ये होगा कि इस के पेट में गड़बड़ मच जाएगी। क़ासिम ने सिगरेट का टुकड़ा उठा कर ग़ुसलख़ाने की मोरी में फेंक दिया। ये भी अच्छा हुआ कि मैंने जज़्बात से मग़्लूब हो कर ग़ुलाम मुहम्मद को उल्लु का पट्ठा नहीं कह दिया। उस से अगर एक ग़लती हुई है तो अभी अभी मुझ से भी तो हूई थी और मैं समझता हूँ कि मेरी ग़लती ज़्यादा शदीद थी.....
क़ासिम बड़ा सहीहुद्दिमाग़ आदमी था उसे इस बात का एहसास था कि वो सही ख़ुतूत पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करने वाला इंसान है। मगर इस एहसास ने उस के अंदर बरतरी का ख़याल कभी पैदा नहीं किया था। यहां पर फिर उसकी सहीहुद्दिमाग़ी को दख़ल था कि वो एहसास-ए-बरतरी को अपने अंदर दबा दिया करता था।
मोरी में सिगरेट का टुकड़ा फेंकने के बाद उस ने बिला ज़रूरत सहन में टहलना शुरू कर दिया। वो दरअसल कुछ देर के लिए बिलकुल ख़ालीउज़्ज़ेहन होगया था।
उस की बीवी नाश्ता का आख़िरी तोस खा चुकी थी। क़ासिम को यूं टहलते देख कर वो उस के पास आई और कहने लगी। “क्या सोच रहे हैं आप।”
क़ासिम चौंक पड़ा। “कुछ नहीं.......... कुछ नहीं.......... दफ़्तर का वक़्त होगया क्या?” ये लफ़्ज़ उस की ज़बान से निकले और दिमाग़ में वही उल्लु का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश तड़पने लगी।
उस के जी में आई कि बीवी से साफ़ साफ़ कह दे कि ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश उस के दिल में पैदा होगई है जिस का सर है न पैर, बीवी ज़रूर सुनेगी और ये भी ज़ाहिर है कि उस को बीवी का साथ देना पड़ेगा, चुनांचे यूं हंसी हंसी में उल्लु का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश इस के दिमाग़ से निकल जाएगी। मगर उस ने ग़ौर किया। इस में कोई शक नहीं कि बीवी हंसेगी और मैं ख़ुद भी हंसूंगा। लेकिन ऐसा न हो कि ये बात मुस्तक़िल मज़ाक़ बन जाये.......... ऐसा हो सकता है..... हो सकता है क्या, ज़रूर हो जाएगा। और बहुत मुम्किन है कि अंजाम कार ना-ख़ुश-गवारी पैदा हो, चुनांचे उस ने अपनी बीवी से कुछ न कहा और एक लम्हा तक उस की तरफ़ यूंही देखता रहा।
बीवी ने बच्चे का कमोड उठा कर कोने में रख दिया और कहा। “आज सुबह आप के बरखु़र्दार ने वो सताया है कि अल्लाह की पनाह.......... बड़ी मुश्किलों के बाद मैंने उसे कमोड पर बिठाया। उस की मर्ज़ी ये थी कि बिस्तर ही को ख़राब करे..... आख़िर लड़का किस का है?..... ”
क़ासिम को इस क़िस्म की चख़ पसंद थी। ऐसी बातों में वो तीखे मज़ाह की झलक देखता था। मुस्कुरा कर उस ने बीवी से कहा। “लड़का मेरा ही है मगर.......... मैंने तो आज तक कभी बिस्तर ख़राब नहीं किया। ये आदत उस की अपनी होगी।”
बीवी ने उस की बात का मतलब न समझा। क़ासिम को मुतलक़न अफ़सोस न हुआ, इस लिए कि ऐसी बातें वो सिर्फ़ अपने मुँह का ज़ायक़ा दुरसत रखने के लिए किया करता था। वो और भी ख़ुश हुआ जब उस की बीवी ने जवाब ना दिया और ख़ामोश होगई।
“अच्छा, भई मैं अब चलता हूँ। ख़ुदा हाफ़िज़!”
ये लफ़्ज़ जो हर रोज़ उस के मुँह से निकलते थे आज भी अपनी पुरानी आसानी के साथ निकले और क़ासिम दरवाज़ा खोल कर बाहर चल दिया।
कश्मीरी गेट से निकल कर जब वो निकल्सन पार्क के पास से गुज़र रहा था तो उसे एक दाढ़ी वाला आदमी नज़र आया। एक हाथ में खुली हुई शलवार थामे वो दूसरे हाथ से इस्तिंजा कर रहा था। उसको देख कर क़ासिम के दिल में फिर उल्लु का पट्ठा कहने की ख़्वाहिश पैदा हुई। लो भई, ये आदमी है जिस को उल्लु का पट्ठा कह देना चाहिए यानी जो सही माअनों में उल्लु का पट्ठा है.......... ज़रा अंदाज़ मुलाहिज़ा हो..... किस इन्हिमाक से ड्राई कलीन किए जा रहा है..... जैसे कोई बहुत अहम काम सरअंजाम पा रहा है..... लानत है।
लेकिन क़ासिम सहीहुद्दिमाग़ आदमी था। उस ने ताजील से काम न लिया और थोड़ी देर ग़ौर किया। मैं इस फुटपाथ पर जा रहा हूँ और वो दूसरे फुटपाथ पर, अगर मैंने बुलंद आवाज़ में भी उस को उल्लु का पट्ठा कहा तो वो चोंकेगा नहीं। इस लिए कि कमबख़्त अपने काम में बहुत बुरी तरह मसरूफ़ है। चाहिए तो ये कि उस के कान के पास ज़ोर से नारा बुलंद किया जाये और जब वो चौंक उठे तो उसे बड़े शरीफ़ाना तौर पर समझाया जाये, क़िबला आप उल्लु के पट्ठे हैं..... लेकिन इस तरह भी ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद न होगा।
चुनांचे क़ासिम ने अपना इरादा तर्क कर दिया।
इसी अस्ना में उस के पीछे से एक साईकल नुमूदार हूई। कॉलिज की एक लड़की इस पर सवार थी। इस लिए कि पीछे बस्ता बंधा था। आना फ़ानन उस लड़की की साड़ी फ़्री व्हेल के दाँतों में फंसी, लड़की ने घबरा कर अगले पहीए का ब्रेक दबाया। एक दम साईकल बेक़ाबू हूई और एक झटके के साथ लड़की साईकल समेत सड़क पर गिर पड़ी।
क़ासिम ने आगे बढ़ कर लड़की को उठाने में उजलत से काम न लिया। इस लिए कि उस ने हादिसा के रद्दे अमल पर ग़ौर करना शुरू कर दिया था मगर जब उस ने देखा कि लड़की की साड़ी फ़्री व्हील के दाँतों ने चबा डाली है और उस का बोर्डर बहुत बरी तरह उन में उलझ गया है तो वो तेज़ी से आगे बढ़ा। लड़की की तरफ़ देखे बग़ैर उस ने साईकल का पिछला पहिया ज़रा ऊंचा उठाया ताकि उसे घुमा कर साड़ी को व्हील के दाँतों में से निकाल ले। इत्तिफ़ाक़ ऐसा हुआ कि पहिया घुमाने से साड़ी कुछ इस तरह तारों की लपेट में आई कि इधर पेटीकोट की गिरिफ़त से बाहर निकल आई। क़ासिम बौखला गया। उस की इस बौखलाहट ने लड़की को बहुत ज़्यादा परेशान कर दिया। ज़ोर से उस ने साड़ी को अपनी तरफ़ खींचा। फ़्री व्हील के दाँतों में एक टुकड़ा उड़ा रह गया और साड़ी बाहर निकल आई।
लड़की का रंग लाल हो गया। क़ासिम की तरफ़ इस ने ग़ज़बनाक निगाहों से देखा और भिंचे हुए लहजा में कहा। “उल्लु का पट्ठा।”
मुम्किन है कुछ देर लगी हो मगर क़ासिम ने ऐसा महसूस किया कि लड़की ने झटपट न जाने अपनी साड़ी को क्या क्या। और एक दम साईकल पर सवार हो कर ये जा वो जा, नज़रों से ग़ायब होगई।
क़ासिम को लड़की की गाली सुन कर बहुत दुख हुआ ख़ासकर इस लिए कि वो यही गाली ख़ुद किसी को देना चाहता था। मगर वो बहुत सहीहुद्दिमाग़ आदमी था। ठंडे दिल से उस ने हादिसा पर ग़ौर किया और उस लड़की को माफ़ कर दिया। उस को माफ़ ही करना पड़ेगा। इस लिए कि इस के सिवा और कोई चारा ही नहीं। औरतों को समझना बहुत मुश्किल काम है और उन औरतों को समझना तो और भी मुश्किल हो जाता है जो साईकल पर से गिरी हूई हों लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि उस ने अपनी लंबी जुराब में ऊपर रान के पास तीन चार काग़ज़ क्यों उड़िस रखे थे
(1941)

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