तीन सिद्धान्त : इतालवी लोक-कथा

Teen Siddhant : Italian/Roman Folk Tale

बहुत दिन पहले रोम में डोमीटियन नामक एक सम्राट्‌ हुआ था। वह बहुत बुद्धिमान तथा न्यायप्रिय सम्राट था। उसके राज्यकाल में कोई भी अपराधी अथवा अन्यायी पनपने न पाता था। दण्ड के भय से सब कोई अपराध करने से घबराते थे।

एक दिन जब वह अपने कमरे में बैठा था तो एक सौदागर ने आकर उसके द्वार को खटखटाया। द्वारपाल ने द्वार खोला और उससे द्वार पर दस्तक देने का कारण पूछा, तो वह सौदागर बोला, “मैं कुछ ऐसी चीजें बेचने आया हूं जो हितकर तथा लाभदायक हैं।”

उसकी बात सुनकर द्वारपाल उसे अन्दर ले गया और सम्राट्‌ के सामने हाज़िर किया। सौदागर ने सम्राट्‌ के सामने बड़ी नम्रता से झुककर अभिवादन किया तो सम्राट्‌ ने पूछा, “कहो, तुम्हारे पास बेचने के लिए क्‍या सौगात है?”
सौदागर बोला, “राजन्! मैं ऐसी तीन बातें बेचना चाहता हूं जो तर्क तथा ज्ञान से भरी हैं।”
“अच्छा, यह बात है। बताओ, उनका मूल्य क्या लोगे?”
“केवल एक हजार फ्लोटिन ।”

इस पर सम्राट्‌ बोला, “और यदि वे बातें किसी काम की न हुईं तो क्या मेरा धन फोकट में जायेगा?”
सौदागर ने कहा, “राजन, यदि वे वातें हितकर सिद्ध न हों, तो मैं सारा लिया हुआ धन लौटा दूंगा।"
सम्राट्‌ ने कहा, “तो सुनाओ वे बातें। हमें यह सौदा स्वीकार है ।"

“राजन्‌! पहली बात यह कि जो कुछ करो वह बुद्धि से विचारकर तथा उसका परिणाम सोचकर करो। दूसरी बात यह कि मुख्य सड़क या राजमार्ग को त्यागकर छोटे रास्ते या पगडंडी पर न जाओ। तीसरी बात यह कि उस घर में कभी भी रात-भर मेहमान न रहो जहां पति बूढ़ा हो और पत्नी युवती। इन तीन स्वयंसिद्ध बातों पर यदि आप अमल करेंगे तो ये बहुत लाभदायक सिद्ध होंगी ।'

सम्राट को भी ये बातें बहुत शिक्षाप्रद तथा ठीक लगीं। उसने सौदागर को एक हजार फ्लोटिन देकर विदा किया।

सौदागर चला गया और सम्राट्‌ उसकी इन तीनों बातों को मन-ही-मन तोलता रहा। सौदागर की पहली बात तो उसे इतनी सुन्दर लगी कि उसने आज्ञा दी कि उसे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखकर दरबार में सोने के कमरे में तथा महल के हरेक स्थान में लगा दिया जाय। इतना ही नहीं, उसने अपने प्रयोग में आने वाले हर एक कपड़े, जैसे बिस्तर की चादरों, तकिये के गिलाफों, तौलियों तथा अन्य चीज़ों पर भी यह बोल कढ़वा दिया।

सम्राट के न्‍यायप्रिय होने के कारण कई गुण्डे और बदमाश उसके शत्रु हो गये थे। उन्होंने षड्यंत्र रचा कि जिस तरह भी हो किसी छल-कपट से सम्राट्‌ को मौत के घाट उतार दिया जाय। उन्होंने काफी धन देकर राजा के नाई को फुसला लिया। उसने यह स्वीकार किया कि जब वह सम्राट्‌ की हजामत करने जायेगा तो मौका ताड़कर सम्राट्‌ का गला काट देगा।

इस षड्यंत्र का मुख्य पात्र बनकर नाई सम्राट्‌ की हजामत बनाने गया। उसने सम्राट्‌ की दाढ़ी में पानी लगाया और नर्म करने लगा। दाढ़ी को नर्माते-नर्माते नाई की आंखें उस तौलिए पर जम गई जो उसने सम्राट्‌ के गले में लपेट रखा था- 'जो कुछ करो, वह अपनी बुद्धि से विचारकर तथा उसका परिणाम सोचकर करो ।'

नाई ने उसे एक बार, दो बार, तीन बार और कई बार पढ़ा। वह पढ़ता गया और मनन करता गया। वह मन-ही-मन सोचने लगा-'यदि मैंने इसको मार डाला तो उसका परिणाम मेरे लिए विनाशकारी होगा। मुझे भी पकड़कर कुत्ते की मौत मार दिया जायेगा। अतः जो कुछ भी मैं करूंगा उसको सोच-समझकर और परिणाम को ध्यान में लाकर करूंगा। इस विचारधारा में नाई इतना मस्त हुआ तथा परिणाम को सोचकर इतना भयभीत हुआ कि उसके हाथ थर-थर कांपने लगे और उसके हाथ से उस्तरा छूटकर फर्श पर गिर गया।

सम्राट्‌ ने उसकी यह दशा देखी तो पूछा, “क्यों, आज क्या हो गया है तुम्हें? क्या तुम बीमार हो?”

सम्राट्‌ की बात सुनकर नाई होश में आया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की, “सरकार, मुझे क्षमा करें। मैं आज आपका वध करने के लिए आपके शत्रु द्वारा खरीदा गया था। परन्तु तौलिये के अक्षरों ने मुझे चौंका दिया और मेरी यह दशा हो गई। क्षमा करें, सरकार?”

सम्राट्‌ ने मन-ही-मन सोचा कि पहले सिद्धान्त ने आज मेरे प्राणों की रक्षा की है। इसके पश्चात् वह नाई से बोला, “क्षमा तुम्हें इस शर्त पर मिलेगी कि तुम अब सदा के लिए वफ़ादार रहने की प्रतिज्ञा करो।”

नाई ने ऐसा वचन देकर अपनी जान छूड़ाई। षड़्यन्त्रकारियों ने जब देखा कि उनका पहला वार खाली गया है, तो उन्होंने एक और षडयंत्र रचा कि जब सम्राट्‌ अमुक शहर की यात्रा को जाय तो वे लोग उस नगर में जाने वाली एक पगडंडी में छिप जायं। उनके आयोजन के अनुसार सम्राट्‌ अवश्य उसी छोटे रास्ते से जायेंगे और वे छिपकर आक्रमण करके उसकी हत्या करेंगे।

उनके सोचने के अनुसार सम्राट्‌ भी उस नगर को जाने के लिए निकले। यह देख उसके शत्रुओं ने भी अपना स्थान ले लिया और उसके आने की प्रतीक्षा में रहे। राजा जब उस छोटे मार्ग पर पहुंचा तो साथियों ने कहा, 'राजन्‌! चलिए, इस छोटे रास्ते से चलें। इस पर जाने से हम जल्दी उस नगर में पहुंच जायेंगे।”

राजा को सौदागर के बताये हुए दूसरे सिद्धान्त की एकदम याद आयी। उसने एक बार मन में दोहराया। सौदागर का दूसरा सिद्धान्त है-'राज-मार्ग को छोड़कर छोटे रास्ते पर न जाओ। मैं आज इसका पालन करूंगा ।' यह सोचकर सिपाहियों और साथियों से बोला, “मित्रो, मैं राज-मार्ग से ही जाऊंगा। आप में से यदि किसी की इच्छा छोटे पथ से ही जाने की हो तो जा सकते हो ।”

उसका उत्तर सुनकर कुछ सिपाही उसके साथ हो लिए और कुछ छोटे रास्ते से निकल गये । उन पर सम्राट के शत्रुओं ने आक्रमण किया। रात के समय और चोर की तरह आक्रमण करने से वे सब मारे गये। उधर सम्राट्‌ बिना किसी बाधा के शहर में पहुंचे। रात-भर भी वे सिपाही जब न आए तो उनकी ढूंढ़ हुई। उनके मारे जाने की सूचना जब सम्राट के पास पहुंची तो उन्होंने मन-ही-मन सौदागर को धन्यवाद देते हुए कहा-“'दूसरे सिद्धान्त ने भी मेरी जान बचाई है। हे भगवान ! तेरा लाख-लाख धन्यवाद!”

अपने दूसरे वार को भी खाली जाते देख सम्राट्‌ के शत्रु किसी नये मौके की खोज में लगे रहे। एक बार सम्राट्‌ को किसी गांव में जाना पड़ा । उन्होंने सोचा कि इस बार अवश्य इसका वध करेंगे। वे पहले से ही उस शहर में पहुंचे। वहां जिस घर में सम्राट के रहने का प्रबन्ध किया था उन्होंने उसका पता निकाला। उन्होंने अब की बार सम्राट्‌ का वध करने का अपनी ओर से पूरा-पूरा प्रबन्ध किया।

जब सम्राट्‌ उस नगर में पहुंचे और जब उन्हें उस घर में ले जाया गया तो उन्होंने आज्ञा दी कि मेज़बान यानी घर के मालिक को उपस्थित किया जाय। उनकी आज्ञा पर उसे सम्राट के सम्मुख हाज़िर किया गया। वह बूढ़ा था। ज्यों ही सम्राट्‌ ने उसे देखा तो बोले, “सज्जन पुरुष! क्या तुम्हारी पत्नी है?”
"हां, सरकार!”
“क्या आप कृपा करके उन्हें भी मेरे सम्मुख आने की आज्ञा देंगे?”

बूढ़े ने अपनी पत्नी को सम्राट्‌ के सामने बुलाया। वह अठारह वर्ष की एक नव-यौवना सुन्दरी थी। यह देख सम्राट्‌ को सौदागर का तीसरा सिद्धान्त याद आया और वह एकदम बोले, “नौकरो, जल्दी से मेरे रात-भर सोने का प्रबन्ध किसी दूसरे स्थान में करो। मैं अब यहां एक क्षण भी नहीं रहूंगा।”

नौकरों ने उत्तर दिया, “पर इन्होंने तो आपकी खातिर का सब प्रबन्ध उत्तम रीति से किया है। राजन! क्योंकि नगर भर में और कोई मकान ऐसा नहीं, यदि क्षमा प्रदान हो तो रात-भर यहीं रहा जाय ।”

इस पर सम्राट ने जोर देकर कहा, “नहीं, मैंने जो निश्चय किया है वह बदल नहीं सकता । मैं इस मकान के बदले किसी झोपड़ी में रहना पसन्द करूंगा। जाओ, प्रबन्ध करो!"

नौकरों ने जल्दी में एक और छोटे से मकान में उनके रहने का प्रबन्ध किया । जब वह उस दूसरे मकान में जाने लगे तो दरबारियों ने उधर न जाने की इच्छा प्रकट की। सम्राट्‌ ने उन्हें वहीं रहने की स्वीकृति देते हुए कहा, “अच्छा, कल प्रातःकाल मेरे पास आ जाना।”

सम्राट्‌ चुपके से दूसरे मकान में चले गये। रात के अंधेरे में बूढ़ा और उसकी बीवी आये और एक-एक करके उन्होंने दरबारियों को मार डाला। दूसरे दिन सुबह जब उनके मारे जाने की सूचना सम्राट्‌ को मिली तो उसने भगवान को धन्यवाद देते हुए कहा-“हे दयालु ईश्वर! यदि मैं भी उसी घर में रहता तो मेरी मौत हो जाती। सौदागर का तीसरा सिद्धान्त भी सत्य सिद्ध हुआ ।"

बूढ़े और उसके सारे परिवार को सम्राट्‌ की आज्ञा से कत्ल कर दिया गया। सम्राट ने इसके पश्चात्‌ सदा इन तीनों सिद्धान्तों को अपनाकर शान्तिपूर्वक राज्य किया।

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