शब्द (तेलुगु कहानी) : मान्यम रमेश कुमार

Shabd (Telugu Story) : Manyam Ramesh Kumar

खामोशी की तो वहाँ जगह ही नहीं होती। समंदर के तट पर हलचल की क्या कभी कमी होती है? कुछ बच्चे जमा होकर शोर मचा रहे हैं। जब लहरें पीछे जाती हैं तो, बच्चे आगे बढ़ते हैं और जब लहरें आगे बढ़ती हैं, तो बच्चे पीछे। पास में एक छोटी लड़की को उसका पिता समंदर की ओर ले जाना चाहता है, पर वह डरती है और पापा को भी पीछे खींचती है। ''कुछ नहीं होगा बेटा, मैं हूँ ना...'' कहते हुए बाप बेटी को दिलासा दे रहा है।

पीछे अलग-अलग खाद्य पदार्थ बेचनेवालों का हंगामा...पाव-भाजी, मसाला पूरी, भुट्टा आदि। सारे तट पर शोरगुल, चीख़ें, शोरगुल। मुझे ये सब सुनाई नहीं देते। खामोशी...सब जगह घनघोर सन्नाटा। जैसे सामने एक मौन चलचित्र को देख रहा हूँ, टी.वी. की आवाज़ बंद करके सिनेमा देख रहा हूँ। खामोशी... कहीं कोई आवाज़ नहीं...।

ऊँचा सुनने वालों को तो ज़ोर से बोलने पर सुनाई दे जाता है,  लेकिन पिछले कुछ दिनों से मेरी सुनने की शक्ति घटती जा रही है। मैं सन्नाटे में जी रहा हूँ। कान की मशीन का भी कुछ फ़ायदा नही है। बेटे से कहा, ''बच्चू, आजकल बिलकुल सुनाई नहीं देता।'' उस के बोलने से मैंने अंदाज़ लगाया, ''आप को तो पहले से ही ऊँचा सुनाई देता है, तो फिर मशीन क्यों निकाल देते हैं? उसे लगाकर रहिए।''
''नहीं बेटा, मशीन को लगाने पर भी कुछ सुनाई नहीं देता।'' मैंने कहा।
उसने इशारे से बात की। उसके इशारे का अर्थ है- ''अच्छा डाक्टर साब के पास जाएँगे।''
दस दिन बीत चुके हैं, लेकिन उसे समय नहीं मिला। बीच में और एक बार याद दिलाया। उसने सर हिलाया। वह नहीं समझेगा कि एक सेवानिवृत्त आदमी के लिए बहरापन कितना नारकीय होता है। एक बार बहू को भी बताया। बहू तो इसे समस्या तक नहीं मानती। ''अब आप को सुनाई नहीं देता तो क्या हुआ?'' - शायद यही वह मन में सोच रही होगी।

मेरी पत्नी मेरी बेटी के घर में रहती है। बेटी और दामाद दोनों काम करते हैं। दामाद की माँ नहीं रही। मेरी पत्नी उनके कामकाज में मदद करने के लिए वहाँ चली गई है। उसे एक खत लिखना है, क्योंकि फोन पर बातचीत नहीं हो सकती। उसे बताने से कुछ लाभ तो नहीं, फिर भी एक ढाढ़स...

समंदर के तट पर लोगों की संख्या कम होती जा रही है। धीरे-धीरे रोशनी भी घट रही है। घर की ओर चलने लगा। आते जाते वाहन को सावधानी से देखता हुआ चल रहा हूँ। पीछे वाले वाहन की आवाज़ को मैं सुन नहीं सकता। आहिस्ता-आहिस्ता घर पहुँचा तो मैंने देखा कि पोता और पोती आपस में झगड़ रहे हैं। बहू उन्हें समझाने की कोशिश कर रही है। पहले उनके लड़ाई का कारण जानकर, उसे दूर करता था। अब तो ऐसा नहीं कर सकता ना, ''बेटे लड़ना नहीं'' कह कर चुप हो गया।

साढ़े सात होते ही घरवाले टी.वी. के सामने बैठ गए। मुझे धारावाहिक अच्छे नहीं लगते। लेकिन बहू तो कुछ धारावाहिक छोड़ती ही नहीं। जब वह सीरियल देखती है, तो कोई चैनल बदलने की कोशिश नहीं करता। बच्चे भी जब उनकी माँ नहीं होती तभी कार्टून नेटवर्क देखते हैं। मेरा बेटा इस वक्त भी कुछ फ़ाइलें देख रहा है।

मैं वहीं दलान में बैठकर मार्क ट्वेन की 'हकलबेरी फिन' पढ़ने लगा। मुझे यह किताब बहुत पसंद है। वास्तव में यह पुस्तक बच्चों के लिए है। मैं तो बचपन से अब तक अनेक बार पढ़ चुका हूँ। ठीक तो है - बच्चे और बूढ़े एक से है ना। इसीलिए आज भी यह किताब पढ़ने को मन करता है। पास में दोनों बच्चे बहस कर रहे हैं, फिर भी बातें तो मेरी कानों में घुसती नहीं, इसलिए आराम से पढ़ रहा हूँ।

लगता है बहरेपन के भी कुछ लाभ हैं। लेकिन मेरी पसंद के गाने वॉकमैन में सुन नहीं पाना मेरे लिए बड़ी कमी है। रात में जब चारपाई पर लेटता हूँ, तब मन में बहुत सारी चिंताएँ घेर लेती हैं। क्या इस उम्र मे चिंताएँ बढ़ जाती हैं? नहीं तो क्या इस बहरेपन के कारण अन्य शब्द मेरे ध्यान को नहीं फेर पाते उसकी वजह से मैं ज़्यादा चिंतित हूँ?

ना घड़ी की टिक टिक, ना पंखे की ध्वनि, कोई नहीं है। खामोशी में सिर्फ़ चिंताएँ शोरगुल मचाती हैं। पहले जब बिजली बंद होती थी और अकस्मात नींद उड़ जाती थी तब भी तो, पंखे का शब्द नहीं होता था। वह सुनसान-सा बड़ा अजीब लगता था। अब आदत बन गई है क्योंकि आजकल सब कुछ मौन ही मौन है।

कुछ दिन पहले एक कहानी पढ़ी। लेखक बताता है कि दिनभर में लोगों को ज़रूरत न होने वाले अनेक शब्द, बातचीत... वगैरह सुनने पड़ते हैं, जिससे उन्हें कष्ट सहना पड़ता है। जैसे आँखों के लिए पलक हैं, वैसे ही कानों के लिए भी पलक होने चाहिए ताकि लोग अवांछित गड़बड़ी से बच सकें।

क्या भगवान ने मुझे न खुलने वाले पलकें दी हैं? मैं हँसने लगा। आखिर बहरेपन के क्या क्या लाभ हैं? सोचने लगा - चारों ओर कितना भी शोरगुल हो, बिना घबराए किताब पढ़ सकता हूँ। किसी से विवाद नहीं होता। अगर किसी ने मुझे डांटा, तो भी मुझे सुनाई नहीं देता। पंखे का शब्द, दूसरों के खर्राटे से मुझे कोई दिक्कत नहीं। सुबह-सुबह घर में कितनी ही आवाज़ें हों, फिर भी मुझे कोई परेशानी नहीं। नज़दीक में कोई माइक लगाकर हंगामा करे फिर भी मुझे फिक्र नहीं। दीवाली के अवसर पर बंब फोड़ते समय मैं पास से बिना डरे गुज़र सकता हूँ। और क्या है? सोचता हूँ तो सारे लाभ याद आते हैं।

एक हफ्ता बीत गया। बेटे को और एक बार अपनी समस्या के विषय में याद दिलाया। उसने इशारा किया, ''मैं पूछताछ कर रहा हूँ।'' अचानक एक दिन मेरा बेटा मुझे इ. एन. टी. डाक्टर के पास ले गया। मुझ पर कुछ परीक्षाएँ करने के बाद बेटे से उनकी कुछ बातचीत हुई। उनके हाव-भाव से मैं कुछ समझ गया। डाक्टर साब कहते होंगे कि मुझे 'आपरेशन' करवाना होगा।
बाहर आने के बाद, पुत्र से पूछा, ''क्या शल्यचिकित्सा की ज़रूरत है? बेटे ने सकारात्मक सर हिलाया।
''कितने रुपए होंगे?''
पुत्र ने उत्तर नहीं दिया। रात में फिर पूछा कि ऑपरेशन के लिए कितने रुपए चाहिए। बेटे ने तीन उँगलियाँ दिखाई।
''तीन हज़ार?''
उस ने नकारात्मक सर हिलाया और '३०' लिख दिया।
मैं हैरान हो गया। कान की शल्यचिकित्सा के लिए तीस हज़ार? शायद आजकल के ज़माने में तो तीस हज़ार बड़ी रकम नहीं। लेकिन घर के हालात मुझे पता है। बेटी की शादी के लिए भविष्य निधि के सारे पैसे खर्च कर चुका हूँ। नौकरी से निवृत्त होने के बाद अपना घर बनाने के कारण कुछ बचा नहीं। घर अच्छी तरह बनाने के लिए उधार माँगना पड़ा। मेरी सारी पेंशन बैंक की क़िस्तें भरने में ही खर्च होती है। बेटे की प्राइवेट नौकरी है। उसकी कमाई से ही घर की खर्चा चलता हैं। बहू घर का काम सँभालती है।

बेटे की अब तक कोई विशेष बचत नहीं है। इस घर के अलावा मैंने उसे कुछ नहीं दिया।
''कान की शल्य चिकित्सा के लिए इतने रुपए क्यों?'' मैंने अपनी शंका व्यक्त की।
बेटे ने काग़ज़ पर लिखा, ''इस डाक्टर साहब से नहीं होगा। और एक विशेषज्ञ सर्जन को बुलाना है और कान के अंदर कुछ गढ़ना होगा। इसलिए इतनी बड़ी रकम लगेगी।''
मैं चुप हो गया। अब तो बेटे पर ये बड़ा बोझ होगा। लेकिन बाकी सारी ज़िंदगी इसी तरह पूरे सन्नाटे में बिताना... मुश्किल है।
और एक सप्ताह बीत गया। बेटे ने शल्य चिकित्सा की कोई बात नहीं की। मैंने भी कुछ नहीं पूछा।
कभी-कभी मेरे बेटे और बहू के बीच में गंभीर चर्चा हो रही है। वे मेरे सामने ही बात कर रहे हैं क्यों कि उन्हें पता है कि मुझे सुनाई नहीं देता। लेकिन मैं समझ गया। मेरी शल्य चिकित्सा को लेकर वे दोनों झगड़ रहे हैं। शायद बहू कह रही होगी - ''इस हालात में इस बूढ़े पर इतने रुपए खर्च करना बेकार है।'' सोचें तो उसकी राय सही ही है।
इन दिनों मन में विचार ज़्यादा होने लगे हैं। न उन में स्पष्टता है, और न उनका अंत।

चार दिनों के बाद बेटे ने मेरे पास आकर एक काग़ज़ दिखाया, 'डाक्टर साब से मिला। ऑपरेशन के लिए अगले रविवार का दिन पक्का हो गया है।'
''लेकिन पैसे?'' मैंने पूछा।
उस ने संकेत दिया की पैसे का इंतज़ाम हो गया।
एक बात मेरी समझ में नहीं आई - क्या उसने कहीं से उधार लिया? नहीं तो शायद दफ्तर से लोन लिया होगा।
अगले दिन आकर फिर एक काग़ज़ दिखाया।
''ऑपरेशन के एक दिन पहले रक्तचाप और मधुमेह की जाँच करवानी होगी। इन चार दिनों में हमें सचेत होना होगा कि उनमें बढ़ाव न हो।''
''पहले ये बताओ कि पैसे का इंतज़ाम कैसा हुआ?''
बेटा खामोश रह गया। मैंने फिर पूछा। वह कुछ इशारे करने लगा, झट से मन बदला और काग़ज़ पर लिख दिया।
''दफ्तर के सहकर्मियों ने कुछ मदद की।''
यह पढ़ने पर मैं निश्चिंत हो गया। हर महीने कुछ पैसे उनको चुका सकते हैं।
लेकिन दो दिन बाद शाम को समंदर के तट पर मुझे एक विशेष जानकारी मिली। हमारे बाजू गली में सूद पर उधार देनेवाले रंगस्वामी से मुलाक़ात हुई। उसने इशारा करके पूछा, ''क्या आप का ऑपरेशन हो गया?''

मैंने 'ना' कहा और उससे पूछा कि उसको कैसे पता है। मैं तो सोच रहा था कि शल्य चिकित्सा की बात मुहल्ले के लोगों को मालूम नहीं है। रंगस्वामी ने कुछ संकेत किया लेकिन मैं समझ नही सका। अब मुझे जेब में काग़ज़ कलम रखने की आदत हो गई है। झट से काग़ज़ बाहर निकाला और उसे दे दिया।
उसकी लिखी बात पढ़कर मुझे एकदम धक्का लगा। बेटे ने बहू के मायके वालों द्वारा दिए गए गहने और पोती के सोने की हँसली गिरवी रखकर रंगस्वामी से पैसे लिया है। यह उपाय बहू का है। उन्होंने रंगस्वामी से वादा लिया था कि इसके बारे में किसी से कुछ न कहे। रंगस्वामी सोच रहा है कि ये सब मुझे मालूम है। कुछ भी हो, मैंने बहू को गलत समझा। इस गहने गिरवी रखने की बात ने तो मुझे हिला दिया।

शनिवार का दिन आ गया। रक्तचाप और मधुमेह आदि रिपोर्ट लेकर हम इ. एन. टी डाक्टर से मिले। रिपोर्ट देखकर उन्होंने कुछ देर बेटे से बात की। मुझे सुनाई नहीं दिया, फिर भी मैं कुछ समझ सका। घर पहुँचते ही उससे पूछा कि क्या बात है। बेटे ने एक काग़ज़ पर लिख दिया, ''डाक्टर साब की बात सर्जन से कल हुई। लेकिन सर्जन साब अब इतना आश्वस्त नहीं है, जो पहले थे। सारी रिपोर्ट की जाँच करने के बाद बोले कि ऑपरेशन के बाद भी सुनने की शक्ति वापस पाने की संभावना बहुत कम है। क्योंकि आप बड़े उम्र के हैं। इसलिए और एक बार सोचने की डाक्टर साहब ने सलाह दी है। कुछ भी हो, ऑपरेशन करवा लीजिए। अगर थोड़ा भी सुनने की शक्ति मिल गई तो बेहतर है ना।''

काग़ज़ पढ़ने के बाद मैंने आश्वस्त होकर बेटे से कहा,
''अब ऑपरेशन की बात छोड़ो। आजकल मुझे बहरेपन की ज़िंदगी की आदत हो गई है। मुझे कुछ परेशानी नहीं है। जब ऑपरेशन के नतीजे की गारंटी नहीं है तो क्यों इतने पैसे व्यर्थ करें और अनावश्यक तनाव में पड़ें? मेरे मन में भी यही बात है जो डाक्टर साहब ने तुमसे कही।''
बेटा कुछ बोलने लगा, तो मैं धीरे-धीरे उसे मनाया और ऑपरेशन की बात टाल दी गई।
रात पलंग पर लेट गया तो फिर विचार-
पिछले दिन डाक्टर साब से अकेले मिलकर, जो बात मैंने कहा, उन्हें याद कर रहा हूँ,
''डाक्टर साब, मेरी बात पर जरा ध्यान दीजिए। अब तो मुझे सुनने की शक्ति वापस पाने की कोई इच्छा नहीं है। अगर मैं बोलता हूँ तो बेटा नहीं सुनेगा। उधार लेकर ऑपरेशन का इंतज़ाम किया है उसने। अगर मैंने खुद इन्कार कर दिया तो उसे दुख होगा कि पैसे की वजह से ऑपरेशन नहीं करा पाए। इसलिए आप उससे कह दीजिएगा कि इस ऑपरेशन से कुछ फ़ायदा नहीं होगा। उसे किसी न किसी तरह समझाएँ। तब उसे दुख नहीं सहना पड़ेगा। मैं तो इस ऑपरेशन के बिलकुल विरुद्ध हूँ। कृपया मेरी बात समझिए और मेरी मदद कीजिए।''

मेरा अनुरोध उन्होंने मान लिया। वही हुआ जैसा मैं चाहता था। मैंने शब्द से बिदा ली... शाश्वत रूप से और सन्नाटे से निपट रहा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ - बधिर होने के लाभ और क्या-क्या हैं?

रूपांतरकार : कोल्लूरि सोम शंकर

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