सीख़चे (कहानी) : कमलेश्वर

Seekhche (Hindi Story) : Kamleshwar

जिन्दगी के दूसरे पहर में यदि सूरज न चमका तो दोपहरी कैसी ? बादल आते हैं, फट जाते हैं, परन्तु ये भूरे धुँधले बादल तो उसे हटते नजर ही नहीं आते। अगर उसका अपना दूसरा सूरज हो तो कैसा रहे ?

इस मुहल्ले में अधिकतर ऐसे लोग रहते हैं, जो दिन-भर दूसरों का काम-काज देखते हैं, दिन में एक बार खाना खाकर फिर चले जाते हैं तो रात को लौटते हैं। यही छोटे पेशेवर लोग हैं-लोहे वाले, बढ़ई, पीतल के बरतन जोड़ने वाले आदि। ऊँचे और मध्यवर्ग तथा अछूतों की न्यारी बस्ती के बीच का यह मुहल्ला एक कड़ी है, यद्यपि अछूतों से कुछ दूर-सा।

इसी मुहल्ले में उसका मकान है और वह टूटे सीख़चों से गली की ओर देख रही है। मँगरू लोहार का लड़का चमन सामने खड़ा है; पूरा आदमी है, बदन और आयु दोनों से। बाप तो लोहे और आग का खेल खेलते-खेलते जलकर काला पड़ गया है, पर इसके बदन पर चिकनापन है और माँस में चमक। रोज़ राजासाहब के बाग में जाकर कसरत भी तो करता है। सुबह हाथ में कसरती जवानों की भाँति पीतल की बाल्टी और खास तौर से गरदन और सिर में मिट्टी लपेटे जब आता है तो आँखों में कितना शौर्य, चाल में कितनी मर्दानगी होती है-यह केवल उसी की आँखें परख पाती हैं, क्योंकि वह अनायास ही उस समय न जाने क्‍यों गली के छोर की ओर देखने लगती है।

वह नहीं चाहती कि उनकी नजरों को कोई और देख सके, यहाँ तक कि चमन भी। वह देखती जरूर है, पर उसमें कुछ ऐसा नहीं जिसका कोई मतलब निकाले। वह स्वयं अपने दिल को यही समझाती है कि यह देखना व्यर्थ है और उसका कोई विशेष प्रयोजन भी तो नहीं। परन्तु ऐसा क्‍यों होता है कि जब चमन के आने का समय होता है तो उसके पैर अनजाने में आकर सीख़चों के पास रुक जाते हैं, नज़रें राह पर टिक जाती हैं ? हाँ, उसे चमन का बदन देखकर कुछ ईर्ष्या अवश्य होती है, उसके मतवालेपन पर वह कुछ रीझती है, पर चमन की इस बेफिक्र चाल को वह गुण्डा चाल का ही नाम देती है। यह क्‍यों ? यह नहीं जानती, पर वह देखती है, आदती-सी पड़ती जा रही है। वह इसे रोकना चाहती है पर इसमें बुरा क्या है ? दुनिया में सब ही सबको देखते हैं, पर उसमें कुछ बुराई तो नहीं। वह यूँ ही देख लेती है। यह कोई ऐसा विषय नहीं जिस पर बहुत सोचा-विचारा जाए। अच्छे और बुरे का भेद किए बगैर भी तो बहुत-से काम मनुष्य रोज़ ही किया करता है।

वह रोज काम करती है, सुबह से शाम तक। यदि इस समय आकर कुछ देर इस गली की चहल-पहल देख लेती है तो बुरा क्या है ? और फिर इसे बुरा बताया ही किसने ? गली में एकाध ख़ोमचेवाले चले जा रहे हैं, टन्‌-टन्‌ करते रिक्शेवाले भी भाग रहे हैं, और यह इक्का पुराना खच्चड़-सा! लोहे की पत्तियों की टेढ़ी-मेढ़ी छत, टूटे-फूटे पटरे और फटी-फटाई, मैली-सी गद्दियाँ; सूखट बुड्ढा हाँकने वाला, पर ये घोड़ा कितना अच्छा है नया-नया-सा सफेद। क्‍या जोड़ा बैठाया है किसी ने, बोरे में मखमल का पैबन्द।
किसी के खाँसने की आवाज़ आयी।

उसकी आँखें सामने खड़े चमन पर टिक गयीं, वही खाँसा था। एक क्षण को उसकी दृष्टि चमन से मिली। आज उसकी आँखों में नया रंग उभर रहा था, पिछले दिनों की धूर्तता और पाजीपन उसमें न था। वह मुस्करा भी रहा है...कुछ अपनापन है मुस्कराहट में, कुछ-कुछ जान पहचान की परछाईं भी! वह देखती रहे या नहीं ? उसने अपनी दृष्टि हटा ही ली। कुछ क्षणों बाद ही फिर उसने देखा। चमन अब भी ताक रहा था, लेकिन उसने नज़र हटाते हुए न देखने का उपक्रम किया।

शाम होने को थी, उसे भूख लग रही है, आज दिन-भर बिना खाए हो गया, क्योंकि 'वो' दुकान यूँ ही चले गए। उसका क्‍या कुसूर था, अगर अपनी बास्कट की जेब से दस रुपए का नोट गिरा आए तो वह क्या करे, खुद तो नोट बन नहीं सकती और उसके पास भी तो दस रुपए नहीं जो देकर उनका दिल भर दे। गलती अपनी, गुस्सा घरवाली पर। जरा-सी मिर्च ज़्यादा हो गई, चल दिए। ऐसे में कोई बड़ा-बूढ़ा होता तो इंसाफ की कहता। बस, जरा-सी बात पर बिगड़ जाते हैं। खाना पकाने में देर हो जाए तो जमीन सिर पर, दूकान की चाबी देना भूल जाओ तो वह झिड़कियाँ और फटकार कि तबीयत हरी हो जाए। इतना मिजाज भी किस काम का। घर की परचूनी की दुकान और चार दाने दाल के लिए, दो बूँद तेल के लिए पड़ोस का मुँह देखना पड़ता है! उन्हें मतलब भी क्‍या, घर न खाया बाज़ार में लेकर खा लिया, फिर फिक्र किसकी ? उसे तो रेगिस्तानी ऊँट समझ लिया है। क्या कद्र है उसकी घर में ? यही न कि दीवारें सहमी-सी खड़ी रहती हैं, फटे-चिथड़े साँस रोके तार पर चमगादड़ों की भाँति लटके रहते हैं। सब सामान स्थिर रहकर उसके महान्‌ किन्तु व्यर्थ सम्मान की घोषणा मूक शब्दों में करता रहता है। बेजबान अलमारियों, घर के बरतनों और मसाले की दो-चार शीशियों पर उसका राजसी अधिकार है-शेष पर...वह यही सोच रही थी कि...

'आलू मसालेदार' की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, उसे ध्यान आया कि सीख़चे की छड़ें पकड़े वह देर से खड़ी है। चमन ने आलूवाले को रोका, उसने आलू लिए और जंगलियों की भांति उँगली चाट-चाटकर खाने लगा। उसका दिल हुआ कि चार पैसे के आलू लेकर वह भी रोटी के साथ खा लेती, क्योंकि सब्जी सब उन्होंने फेंक दी है। पर वह घर से निकल नहीं सकती, बाहर के दरवाज़े तक जा नहीं सकती। अगर गई तो माखन की बूढ़ी माँ, जो हर समय बाहर चौखट पर बैठी रहती है, रात को ही उन्हें ख़बर दे देगी। वह इन अर्ध-सभ्य गली के परिवारों में अपने खंडहर घर की पुरानी परम्पराओं की प्रतीक प्रतिमा है। गली के सभी परिवारों का काला इतिहास है, पर उसके घर की बातें इन लोगों के लिए आदर्श हैं, और यही कारण है कि उसके घर का नाम भी है और सम्मान भी। मँगरू लोहार की बीवी एक बार भाग चुकी है, दीना स्वयं किसी को अपने घर ले आया है। केवल इसका विवाह नन्‍दलाल बनिये से अधकचरे सनातनी रिवाजों से हुआ है, जिसकी साक्षी अग्नि थी और मन्त्रों के तानेबाने में उसके जवान हौसलों, नयी उमंगों को कस दिया गया था। वह जैसा भी था, उसका सब कुछ था।

यह प्रतिदिन का व्यवहार वह कैसे सहन करेगी, एक दिन हो तो ध्यान न भी दे, लेकिन रोज ही तो ये छोटे-छोटे, पर गम्भीर झगड़ों की समस्याएँ सामने अड़ी रहती हैं। दो-दो पैसे के लिए वह तरसती है। सीख़चे की छड़ें उसके हाथ में थीं और मस्तिष्क कुछ पुरानी बातों के हाथ में...

लगभग डेढ़ साल बीतता जा रहा है, वह जो कुछ चाहती है उसे न मिल सका। एक बार कितने प्रेममय और अधिकाएपूर्ण शब्दों में उसने कहा था कि एक छींट की साड़ी उसके पास भी होती। दीना कलईगर की धोबिन औरत अगर पहन सकती है तो वह क्‍यों नहीं ? वह तो नन्‍दलाल महाजन की पत्नी है, जिसकी दुकान में सैकड़ों का माल भरा पड़ा है और रोज का मुनाफा भी तो दो-तीन रुपए से कम नहीं। माखन की बूढ़ी माँ अगर दो आने रोज के पान चबा सकती है तो क्‍या वह दो पैसे के पान चबाकर अपने होंठों को लाल नहीं रख सकती ? उसका चौड़ा माथा सूना है। बाल सँवारने की सींग की कंघी को टूटे पूरे तीन महीने हो चुके। नाक में लौंग के स्थान पर झाड़ की सींक है...पैरों में महावर लगाने के लिए गुलाबी रंग भी तो नहीं...और कान ! खैर वे तो बालों और धोती में छिप जाते हैं। पर यह सब भी वह किसके लिए करना चाहती है? उन्हें इन सब बातों का शौक ही नहीं। जब भी कभी कहो तो पिछली दो पत्नियों की मिसालें सामने रखने लगते हैं। अगर ऐसा ही था तो दूसरी आग लगाकर मर ही क्‍यों जाती। उफ, चाचा ने क्या समझकर व्याह दिया-काश ! बाबू जिन्दा होते तो इस उथले पानी में हाथ-पैर बाँधकर न डाल देते। इस पानी में न तो तैरा ही जा सकता है और न डूबा ही जा सकता है। दिन-भर वह घर की रखवालिन के रूप में और उसके बाद लँगड़ाती, दम तोड़ती वासना की पूर्ति के लिए।

रात को जब लौटते हैं तो कैसी बदबू मुँह से आती है, अपनी तमाम पुरुषोचित शक्तियों को उभारने के लिए दारू भी तो पीने लगे हैं। बस एक आदत जो पड़ गई है उसी की ख़ातिर जवान ज़िन्दगियों से खेल खेला गया है। यह जीवन बेकार है...यह जीना नरक से बदतर है, इन अभावों और यातनाओं के बीच से यदि वह उठ जाए तो कैसा रहे, कितना अच्छा हो।

'दाता एक पैसा...बूढ़ी मोहताज को कोई एक पैसा'-एक जर्जर बूढ़ी भिखारिन की आवाज उसके कानों से टकरायी। स्थिति का ज्ञान होते ही उसके शरीर में एकबारगी भीषण गरमी-सी दौड़ गई। सीख़चे की छड़ें कठोर होती गईं और उसका उद्भ्रान्त मन पसीजकर पसीने के रूप में बाहर निकल पड़ा। एक गहरी साँस छूटकर हवा में मिल गई।
“ले बूढ़ी पैसा !” तभी चमन ने बूढ़ी से कहा।
“भगवान भला करे बेटा !” कहते हुए बूढ़ी ने अपने काँपते गन्दे हाथ उसके सामने बढ़ा दिए।
“एक काम अगर तू करे तो तुझे एक चवन्नी दूँ।” चमन ने बड़े अन्दाज़ से ऊँचे लहजे में अपनी दरियादिली दिखाते हुए कहा।
“अरे क्‍या काम है बेटा, जो यह साठ बरस की बुढ़िया तेरी ख़ातिर कर दे,” बूढ़ी ने कृतज्ञता दिखाते हुए कहा।
“यह कि रात में तू चवन्नी की संखिया खाकर लेट जा,” चमन ने घूरते हुए कहा।

“ओरे बेटा, हम बूढ़ी से मखौल...जे जोनि न जाने कैसे मिलत है...दाता सबै बनाए रहें !” कहती हुई बुढ़िया खिसियाई-सी चल दी। और चमन उसकी झुकी पीठ को देखकर ऊँची हँसी में हँस रहा था।

वह कुछ क्षणों को चमन की इस विस्तृत-आज़ाद हँसी में खो-सी गई। यह वह जवान हँसी थी जो उसने अपने जीवन में शायद पहली बार सुनी थी। आवाज की वह मधुर तीक्ष्णता, जिसमें यौवन के गर्म रक्त की गरमाहट थी, उसके सारे शरीर में एक नशीली गुदगुदी-सी पैदा करती चली गई। उसने एक बार नयनों के विस्तार से परे चमन को देखने की कोशिश की -और उसने देखा । चमन की आँखें भी मिलीं। एक बार उसका हृदय नवीन आकांक्षाओं से धड़क उठा...चमन उसे देख रहा है...और वह आज खड़ी है...वह देख रहा है...पर वह खड़ी रहेगी।

चमन के विषय में जो बातें उसने सुन रखी हैं, आज इस समय वह उन्हें एक बार सहानुभूतिपूर्ण वातावरण में दोबारा दोहरा लेना चाहती है। वह एक मिल में कामदारों का जमादार है, अच्छा कमाता है. अच्छा पहनता-खाता है। बाप के लोहे के कारबार से उसे चिढ़ है। कुछ ही दिनों बाद शायद मिल की ओर से मिलने वाली कोठरी में भी चला जाएगा। गृहस्थी के झंझटों से अभी तो दूर है। कितना बेफिक्र...स्वतंत्र...चमकदार आँखें और साथ ही साथ कितना सहृदय और प्रसन्‍नचित्त। क्या वह चमन को कभी और पास से देख सकेगी ...यह गली का व्यवधान और सीख़चे ! एक बार ज़ोर से उसने छड़ों को झकझोर डाला, कमज़ोर लकड़ी में फँसी होने के कारण छड़ें खड़खड़ा उठीं, एकदम जोर का शोर मच उठा।

चमन की आँखें सीख़चे पर टिक गई और मुँह की आभा के साथ-साथ होंठों पर मुस्कान नाच उठी। उसने सीख़चों के इस पार कुछ गहरी-सी चीज़ महसूस की, पर अनजान बनी खड़ी रही। हृदय की सीमित स्थिर झील एकबारगी कांप गई।

उसके शरीर में नवीन स्फूर्ति आ रही थी और उसका ध्यान पारिवारिक बोझिल विचारों से उन्‍मुक्त हो, यौवन की आशाओं और अरमानों की घाटियों के चढ़ाव-उत्तार पर फिसलने लगा। अगर वह ऐसा करे...इन लोहे की छड़ों को तोड़ सके...अपनी साँसों की गति बदल सके...अपने पिछले पदचिह्नों को मिटाकर नए कदम बढ़ाए...अगर वह जीवन के लक्ष्य तक दूसरी पगडण्डी से जाए, दुनिया की गति में थोड़ी-सी देर के लिए गतिहीन होकर, कुछ क्षण पथ के एक किनारे खड़े होकर नवीन दिशा की ओर देखे। लेकिन दुनिया क्‍या कहेगी ? यही न कि वह भटक गई...वह दौड़ में पीछे रह गई, तभी उसका हृदय तिलमिला उठा, बेबसी की साँस गरम वायु बनकर गले में अटककर रह गई और पेट में अंगार-से दहक उठे, आँखें नम होकर उबली-उबली-सी हो गईं।

तभी उसके कानों में करुण रुदन का तीव्र स्वर टकराया, एक बार फिर उसने महसूस किया कि वह सीख़चा पकड़े खड़ी है, सामने गली है और चमन खड़ा है। रोने की आवाज निरन्तर बढ़ती गई और कई स्वर मिलकर उसे तीव्रता प्रदान करते गए। मकानों से और औरतें निकल-निकलकर उस ओर चल दीं। तभी एक स्त्री ने सूचना दी, 'हीरालाल काका मर गए।”

“चलो करनी सुधर गई...अस्सी-पचासी की उमर, ऊपर से कोढ़ का रोग।” एक ने सन्‍तोष प्रकट करते हुए कहा।

“बेचारी बुढ़िया काकी तो अब उनकी बीमारी से परेशान आ गई थीं...बूढ़े हाड़... कहाँ तक सेवा करतीं ।” दूसरी ने बात और बढ़ाते हुए कहा।

उसके नेत्रों के सामने हीरालाल का चित्र उभर आया और पृष्ठभूमि का रुदन उसके मन की गहराइयों में समाता गया। एक चित्र उभरा-जब काकी सामने वाले घर में रहती थी। शादी के बाद ही हीरालाल काका ने उसे छोड़ दिया था। माखन की माँ बताती थी कि इसी सामने वाली कोठरी में काका ने काकी को चार-चार दिनों तक भूखा बन्द रखा, खूब पीटा । चाँदी के सब जेवर ताड़ी में गवाँ दिए। यौवन की बहारें ग्रीष्म की शुष्क उसाँसें बनते देर न लगी और हीरालाल का माँस कोढ़ से गल-गलकर गिरने लगा। काकी ने सारी ज़्यादतियों और पशु-समान व्यवहारों को भुलाकर सेवा की...और परेशान आ गईं...पर आज जब कि उसकी बूढ़ी पीठ का भारी पत्थर लुढ़ककर गिर गया तो वह रो रही है...क्या ये करुण आवाजें उसकी आत्मा की हैं ! आज तो उसे सुखी होना चाहिए था...जीवन का वजन हल्का हो गया है, बुढ़ापे की परेशानियाँ छूट रही हैं...पर वह है कि रो रही है। उसे दुःख है, अथाह दुःख, पति की मृत्यु का। उस पति का, जिसने दुलार और प्यार के स्थान पर दुत्कार और ठोकर से काम लिया, जिसने मांसल शरीर की गुदाजगी का जंगली पशु के समान उपभोग किया, जिसने केवल हड्डियों को अपनी लौह भुजाओं में कसकर तोड़ना-मरोड़ना जाना...जिसने बुढ़ापे में भी चैन न लेने दिया। उसके लिए वह रो रही है...उस पति के लिए संसार की करुणा केन्द्रीभूत कर रही है, पति के लिए तो पति में ऐसी क्या विशेषता है ? वह बूढ़ी काकी क्‍यों चीख-चीख़कर गला फाड़े डाल रही है। क्योंकि उसका सुहाग लुट गया ? वह कोढ़ी सुहाग, जिसे उसने धो-धोकर मरहम-पट्टी से सँजोया था। वह सुहाग, जो गल-गलकर टपक रहा था !'

और जब लड़ाई से ख़बर आई थी कि सोहन गोली लगने से मर गया तो उसकी जवान पत्नी ने पूरे तीन महीने मातम मनाया था। खाना-पीना छोड़ दिया था...रातों सिसकी, दिन-भर गंगा-जमुना बहायी...जबकि पति की आवश्यकता उसे कभी न पड़ी...पर वह रोई, गला फाड़-फाड़कर रोयी...पूरा मातम मनाया। सिर का सिन्दूर, हाथों की चूड़ियाँ और पैरों के बिछुए, सब ही तो स्वयं छोड़ दिए थे। और तब उसके दिमाग ने कुछ विचित्र-से प्रश्न किए...

उन सात फेरों में क्या विशेषता है ? क्या शक्ति है ? पण्डित लोग मन्त्र पढ़ने के बहाने कुछ जादू-टोना तो नहीं करते ? यह लगाव कैसे हो जाता है ? इन चक्करों में क्‍या करामात है? बूढ़ी काकी क्‍यों रो रही है, सोहन की औरत ने क्‍यों उसाँसें भरी थीं ? संभवतः यह कोई ऐसा रहस्य है, जिसे स्त्री ऐसी दुःख़द घटना के बाद ही जान पाती है, क्योंकि इसमें गहराई तो अवश्य है। तभी तो बूढ़ी काकी उन समस्त ज़्यादतियों को भुलाकर आज ही समझ पाई है। सोहन की पत्नी ने सब सुखों को चखने के बाद भी इस स्वाद के अभाव में गंगा-जमुना बहायी थी।

तो पति में ऐसी क्‍या विशेषता है ? वह स्त्री के लिए कैसा वरदान है ? इस गुत्थी को वह सुलझाना चाहती है। उसकी साँस तेज होती गई, आँखों के सामने काले बादल छाते गए और उसका सूरज छिपता गया, दिशाएँ लापता होती गईं। कालिख ने चीख-चीखकर कहा, 'वह जैसा भी है, तेरा सब कुछ है...कुछ ही नहीं बहुत कुछ है ।' और डगमगाती परम्पराओं, लड़खड़ाती मान्यताओं और काँपते विश्वास के भारी-भारी पत्थर उसके रुई-से हलके हृदय पर गिर-गिरकर जमते गए।

वह इन पिछले कुछ क्षणों को भुला देना चाहती है। यन्त्र की भाँति वह ठीक पीछे सरकी। आँखें उठीं और मुरदा पुतलियाँ चमन पर टिक गईं, गरम उसाँस का झोंका प्राणवायु के समान निकलकर हवा में मिल गया। धीरे-धीरे उसने टीन की खिड़कियों को बन्द कर दिया, चटखनी चढ़ा ही रही थी कि खट से कोई वजनी चीज़ टीन से टकराकर लड़खड़ाती नीचे गिर पड़ी। उसने एक बार फिर दरवाज़ा खोला; देखा, चमन हाथ में ईंट का टुकड़ा लिए उस ओर फेंकने को ही था कि उसे देखकर ठिठक गया। उसने जोर से खिड़की बन्द करके चट से चटखनी चढ़ा दी। गरदन आपसे-आप मुड़ गई और मुख पर कुछ सरल घृणा के चिह्न उभर गए।

“खट्‌...खट्‌...खट्‌..” किसी ने दरवाज़ा खटखटाया, वह कुछ सोचकर चली ही गई। देखा-रामू था, उसने ख़बर दी-'ननकू चाचा ने कहा है कि आज रात को घर नहीं आएंगे हमसे कहा था कि घर की तरफ जाओ तो कहते जाना।' इतना कहकर वह चल दिया, उसने जब प्रश्न किया क्‍यों ? तो उत्तर लापता था।

उसके पैर आपसे-आप जाकर सीख़चों के पास रुक गए, उन्हें खोला...गली में इक्के थे, रिक्शे थे, खोमचेवाले भी थे, पर चमन...चमन नहीं था। भावनाओं का उफान, शक्ति क्षीण होने के कारण सीमा में सिमटकर रह गया-पलकों में उमस-सी भर गई, नजरें झुक गईं। एक बार जोर से उसने छड़ों को दबोचा, वे कठोर थीं, उसे लगा मानो वे कह रही हों, 'पुरानी और जर्जर होते हुए भी तुमसे अधिक मजबूत हूँ !...तुम...तुम मुझे तोड़ोगी ?'

आँखों में उमस बढ़ती गई, पेट में गरम वायु के बवण्डर उठे और उसे एकबारगी झकझोर गए। उसने सीख़चे बन्द कर दिए। सामने निर्जीव कपड़े उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे, निष्प्राण बरतन और मसाले की शीशियाँ स्तब्ध उसे ताक रही थीं, मुँदी अलमारियाँ शब्दहीन खड़ी थीं, जिन पर उसका पूर्ण अधिकार था, पूरा आधिपत्य था...पर...उसकी नजरें झुकती गईं और अधखुली नजरों से उसने देखा-कमरे की कालिख बढ़ती जा रही थी, हवा बन्द हो रही थी, धुएँ से भरे-भरे धुँधले बादल कमरे में भरते जा रहे थे और कमरे की दीवारें चारों ओर से सीमा को छोटा करती मानो उसकी ओर खिसकती आ रही थीं, वे भारी-भारी चूने और ईंट की दीवारें, उसके नन्‍हें रुई-से हल्के हृदय को दबोच कर जकड़ने के लिए।

(इलाहाबाद, 1950)

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