रंगम पेटी (तेलुगु कहानी) : जयंती पापाराव

Rangam Peti (Telugu Story) : Jayanti Paparao

दादाजी का कर्मकांड समाप्त हुआ। कर्मकांड की समाप्ति के बाद रंगून की पेटी सबकी आँखो के सम्मुख चम-चम चमकती हुई, कलात्मक रूप से विराजमान थी। मन में अतीव उत्सुकता के बावजूद हर कोई उस पेटी के बारे में, मुँह खोलने से सकुचा रहा था। दादाजी के बारे में बारे में बातचीत करते हुए, सभी लोगों की दृष्टि बार-बार उस पेटी पर जा टिकती थी।

मेरे पिता सबके चेहरों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर रहे थे। फिर कुछ देर निहार कर, अपने छोटे भाई की ओर उन्मुख हुए- भाई! उस रंगम पेटी को खोलो। उन्होंने चाबी का गुच्छा चाचाजी की ओर बढ़ा दिया। मेघों से आच्छादित आकाश में जिस तरह चन्द्रमा झाँक उठता है उसी तरह सबके चेहरे प्रसन्नता से दमक उठे थे।

दादाजी के एक मित्र ‘रंगून साहब’ ने उस पेटी को हमें सौंपा था । वे हमारे ही गाँव के रहने वाले थे। बर्मा में खूब पैसा मिलता था। यह कहकर, उनके रिश्तेदार उन्हें अपने साथ रंगून ले गए थे। उनका शरीर बलिष्ट था अत: बडे आराम से उन्हें आरा मशीन में काम मिल गया। चार वर्ष में वे गाँव एक बार अवश्य आते थे। खाकी निकर, लाल रंग की बनियान और रबर के जूते पहनकर बडे ठाठ से घूमा करते। उनकी छोटी सी दाढ़ी बड़ी मनमोहक थी। यदि कोई उनसे उनका नाम पूछता तो ‘रंगून साहब’ कहकर ही अपना परिचय देते और जब काम का जिक्र करते तब वे अपने आपको आरा-मशीन का मालिक बताते। गाँव के लोग यह जानकर उन्हे बड़ा आदर देते थे कि वे अपनी मेहनत के बलबूते पर ही इतने बडे आदमी बने हैं।

जब भी वे गाँव आते तब दादाजी की छत्रछाया में ही रहते क्योंकि दादाजी से उनकी बहुत पटती थी।
ऐसे रंगून साहब ने जब सुना कि बर्मा में युद्ध छिड़ने वाला है तो घबराकर, उस खूबसूरत पेटी के संग गाँव आ पहुँचे।
हमारे गाँव में उनकी तीन एकड़ भूमि थी किंतु जब वे रंगून में थे तब आस-पड़ोस की जमीन वालों ने उनके खेत को कुतरते-कुतरते, ढाई एकड़ में बदल दिया था। आरा मशीन लगाने के लिए रूपयों की आवश्यकता है कहकर रंगून साहब ने अपनी जमीन को बिना किसी दूसरे को बताये, अनेक लोगों के पास गिरवी रख दिया।
इस तरह उन्होंने दस वर्ष बिता दिये।

जब उनके पास फूटी कौड़ी भी न बची, तब वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। एक-एक दिन बिताना मुश्किल हो रहा था। आरा मशीन लगाने वाला ‘साहब’ मजदूरी तो नहीं कर सकता था न? और तो और जो धोखाधड़ी की थी, उसके कारण भी उनकी जान साँसत में थी। उन्हे भय सताया करता था कि कहीं भी, कोई भी व्यक्ति, किसी भी क्षण उनको चाकू भोंक सकता है। इन्हीं मुश्किल भरे क्षणों में, एक दिन जब दादाजी किसी काम से बाहर गये थे। तब उन्होंने उस खूबसूरत रंगमपेटी को हमारे घर भिजवा दिया था। गाँव के लोग कहते हैं कि उन्होंने दादाजी से इतना पैसा उधार लिया था जिसका कोई हिसाब नहीं था। अन्तत: उन्होंने आत्महत्या कर ली।

रंगम पेटी छ: फुट लम्बी, तीन फुट चौड़ी और तीन फुट ऊँची थी। बाहर से वह एक ही पेटी दिखाई पड़ती थी किंतु भीतर से, दो पेटियाँ एक जोड़ी के रूप में स्थित थीं। पेटी के सामने उड़ते हुए पक्षी और आसमान का चित्र था, कलात्मक अलंकरण। भव्यता और सुंदरता में उसके कोई मिसाल न थी। भीतर ही भीतर, अनेक अलमारियों से युक्त वह कलाकृति सहसा मन को मोह लेती थी। ‘चोर अलमारी’ इस तरह धँसी थी कि उसका पता केवल पेटी के मालिक को ही होता था। जिसमें आभूषण, रूपयों की गड्डियाँ और दस्तावेज आदि आसानी से छिपाये जा सकते थे। उस पेटी का ढक्कन उठाने पर, उसमें तीन आईने दिखाई पड़ते थे ओर उसकी बगल में पक्षियों के चित्र जो बर्मी शैली से नक्काशी किये गए थे, उफ... क्या कहना! सचमुच अत्यंत सुंदर कलाकृति थी।

जब से पेटी हमारे घर आई, तब से हमारे घर की सुन्दरता में चार चाँद लग गए थे और दूर - सुदूर गाँव के लोग उस पेटी के दर्शन करने आया करते थे। जिसने भी देखा, उसने उसकी भव्यता को सराहा और जिस किसी से भी मिलता ‘रंगम पेटी’ का बखान करता। उसकी विशालता, उसकी कलात्मकता की चर्चा लोग, मुक्त कंठ से किया करते थे। तब मेरा ह्रुदय प्रफुल्लित हो उठता। इस प्रकार हमारा घर, उस क्षेत्र के लोगों के लिए प्रदर्शनशाला बना रहा।

काफी दिन बीत गए।
दादाजी के बारे में, गाँव के लोग बढ़ा-चढ़ाकर बातें किया करते थे, उनकी इज्जत किया करते थे। लोग कहा करते थे कि खेती-बाड़ी में उनका कोई जवाब नहीं, सोना पैदा होता है सोना। पशु सम्पदा तो गिनते नहीं बनती। सोना, चाँदी, नोटों की गड्डियाँ, सम्पत्ति के कागजातों को उस रंगम पेटी में रखकर, उस पर सोकर सर्पराज के मानिंद उसकी रक्षा किया करते हैं। हजार लोगों की हजार बातें। रंगम पेटी अब स्वर्ण की पेटी बन चुकी थी। दादाजी हमेशा अपने में लीन रहते थे जिसके कारण, ये बातें उनके कानों तक नही पहुँचीं।

घर पर मेरे पिता की कोई खास भूमिका नहीं थी क्योंकि सारा काम-काज, सारी खेती बाड़ी दादाजी की देख-रेख में होती थी। पिता को इससे कुछ लेना-देना नहीं था। यहाँ तक कि दादजी ने क्या-कुछ छिपा रखा है? उन्हें इसका भी कुछ पता नही। पिताजी को शहर में अच्छी नौकरी मिली, किन्तु दादाजी की इच्छा उन्हें भेजने की न थी, अतंत: वे रुक गए और गाँव में ही शिक्षक बनकर, गाँव के बच्चों को पढ़ाने लगे। वे बड़े आज्ञाकारी थे और दादाजी का बताया हुआ हर कार्य बड़ी लगन से कर दिया करते । इस प्रकार बिना किसी चिंता के उनका जीवन अपनी गति से बीत रहा था।

मेरे चाचा अच्छी नौकरी पाकर शहर चल दिये थे तथा साल में एक-दो बार आते और मौज करते हुए, कुछ दिन बिताया करते थे। रंगम पेटी के बारे में लोगों की धारणाओं को सुनकर, अब वे अक्सर आने लगे थे। लेकिन रंगमपेटी में आखिर क्या-कुछ सँजोया गया है। यह पूछने की उनकी हिम्मत न थी।
लेकिन आज उनके मरणोपरांत सारे काम हो जाने पर, चाचाजी ने चाबियों का गुच्छा हाथ में लेकर दादाजी की आत्मा को मन ही मन प्रणाम किया। खुशी के मारे उनके हाथ काँप रहे थे। उन काँपते हाथों से उन्होंने रंगम पेटी को खोला। पेटी में सामने की ओर लगे छोटे-छोटे आईनों में मेरी चाचियाँ अपना –अपना मुँह देखकर किलक रही थीं और अपने चेहरे पर छाई आतुरता को दबाने का असफल प्रयत्न कर रही थीं।

उत्तरीय और धोतियों के ऊपर, दादाजी का पत्र, जो कि हरडे की स्याही से लिखा था, उस पत्र को उठाकर चाचाजी ने पढ़ा-‘मेरी सुशील और सुगृहिणी बड़ी बहू को, तुम्हारी माँ द्वारा सँभालकर रखी रेशम की साड़ी दे दी जाये। छोटी बहुओं को मेरा आशीर्वाद। 'यह सुनकर चाचियों का चेहरा उतर गया। उस के बाद दूसरा कागज मिला। जिस में लिखा था। “वर्षा नहीं हो रही है । फसल नहीं पकी। इस बार तो लागत भी वसूल नहीं हुई। बंडा वेंकन्ना से तीन सौ रूपये उधार लिये थे उन्हें चुका देना।"

उधार के अन्य कागज निकलेंगे-यह सोचकर सब लोगों के दिल धड़क रहे थे। लेकिन रंगम पेटी की चोर अलमारी में सोने के आभूषण, माल-असबाब के कागजात अवश्य मिलेंगे। इस आशा के भाव, सबके मुख पर ऐसे चमक रहे थे, जैसे अँधेरी रात में नक्षत्र।

चोर अलमारी से छोटे से बंडल को निकाला गया। वे कागज बांड पेपरों की भाँति मोटे थे। चाचाजी ने उन कागजों को मन ही मन पढ़ा। यह देखकर सब लोग खुशी से चहकने लगे और उन कागजों को पढ़कर सुनाने की याचना करने लगे। चाचाजी सब लोगों की ओर देख-देख कर ऐसे उछल रहे थे जैसे उनके हाथ कुबेर का धन लग गया हो। उनकी इस हरकत को देखकर चाचियाँ आग बबूला हुई जा रही थीं। उन्होनें पढ़ना आरंभ किया।

‘बंधुओं! धन के मद से या जातिभेद के अंहकार से यदि तुम्हें कोई एक वचन से बुलाये तो तुम भी उसे एक वचन में ही सम्बोधित करना। यदि शब्द के अंत में ‘रे’ का प्रयोग करे तो तुम भी वैसा ही करना। धन की शक्ति और उच्च कुल का अहंकार यदि तुम्हें छोटा बनाने का यत्न करे तब तुम यह अधिकार उन्हें कभी न देना। ऐसे वर्चस्व के लिये, उसके उन्मूलन के लिये-मेहनत और संघर्ष के साथ प्रतिशोध के नये नये तरीके ईजाद करना और उस चुनौती का सामना करना।'

'अरे मित्र! सम्बोधित करने के लिए तू, तुम, आप जैसे अनेक शब्द प्रचलित हैं। इन शब्दों को भूलकर एक नये शब्द का आविष्कार करना जिसमें समानता और अपनत्व की भावना हो। सम्बोधित करने के लिए हमारे समाज में यदि धन-दौलत की ‘बू’ आती हो तो ऐसी भाषा को सुधारने के लिए जमकर संघर्ष करना।'

‘बस बस’-हमारी चाचिओं ने गगनभेदी निनाद किया। मेरी दृष्टि चारों ओर घूम रही थी। जिस चेहरे पर भी मेरी नजर जाती, उस चेहरे का रंग उड़ा हुआ पाती।

सोने के आभूषण, रुपयों की गड्डियाँ, जमीन-जायदाद के कागज होंगे- आशा से भरे ऐसे चेहरे, कुम्हला गये थे। जग-मग, चम-चम चमकती हुई, कला और नक्काशी से विभूषित- कितने ही वर्षों से कितने ही लोगों को आकर्षित करती हुई वह रंगम पेटी अब शवपेटिका का रूप धारण कर चुकी थी। लेकिन आज भी दादाजी की रेखांकित करती हुई वे शुभ पंक्तियाँ मेरे मन में हिलोरें लेती हैं।

(अनुवाद : सत्यनारायण राव)

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