प्रतिफल (सिंधी कहानी) : बंसी खूबचंदानी

Pratiphal (Sindhi Story) : Bansi Khubchandani

''नर्स अभी और कितनी गोली खिलाओगी? मैं तो तंग आ गया हूँ गोली खाते खाते।'' ''अंकल, गोली डाक्टर ने दी है, जल्दी अच्छा होने के लिये। गोली बराबर लोगे, तो जल्द ठीक हो जाओगे।'' ''अब मुँह खोलो।''

केरल की नर्स ने अपने साँवले चेहरे पर दूध जैसे चमकते दाँतों के साथ किशनलाल को मीठी डाँट लगाई और पूरी सात गोलियाँ एक के बाद एक लेने पर विवश कर दिया। किशनलाल मजबूर था। वो सामने वाले पलंग पर बैठी अपनी पत्नी - सुंदरी को निहारने लगा - मानो वो मदद के लिए पुकार रहा हो। सुंदरी चुपचाप देखती रही। वो कर भी क्या सकती थी।

मुम्बई के बांद्रा उपनगर में लीलावती अस्पताल में दाखिल हुए किशनलाल को आज पूरे नौ दिन हो गए हैं। बाई पास सर्जरी कराये, उसे एक सप्ताह बीत चुका है। तीन दिन तो आपरेशन के पश्चात इन्टेन्सिव केयर यूनिट में था। कल से अस्पताल की सातवीं मंज़िल पर एक कोने वाले कमरे में हैं। अस्पताल के इस कमरे से बांद्रा क्षेत्र में फैले समंदर को साफ़-साफ़ देखा जा सकता था।

किशनलाल को जल्दी थकावट होने, पसीना आने और छाती में दर्द की शिकायतें तो चार-पाँच साल से हो रही थीं।


जब तकलीफ़ बढ़ी, तो अपने फैमिली डाक्टर के कहने पर इस अस्पताल में उसने एन्जियोग्राफी कराई थी। इसकी फिल्म देखकर डाक्टर ने उसे शीघ्र बाईपास सर्जरी की सलाह दी थी, क्योंकि किशनलाल के हृदय की रक्त वाहनियाँ सही कार्य नहीं कर रही थीं।

किशनलाल की सर्जरी कराने की कतई इच्छा न थी। न जाने क्यों उसे लगता था कि इस आपरेशन के बाद वह बच नहीं सकेगा। पत्नी सुन्दरी ने उसे समझाया था - ''ईश्वर पर भरोसा रखें, सब ठीक हो जाएगा। आजकल हृदयरोगों का इलाज आम हो गया है। हमारी मुम्बई में तो वैसे भी दक्ष चिकित्सा विशेषज्ञ हैं। आप हिम्मत रखे और सर्जरी के लिए मना न करें, सब ठीक से हो जाएगा।'' किशनलाल के अभिन्न मित्र जयराम ने भी हिम्मत दिलायी और वह आपरेशन के लिए सहमत हो गया था। आपरेशन सफल रहा है और डाक्टर के मुताबिक वह दो-तीन दिन में अंधेरी स्थित अपने घर जा सकेगा। हाँ, वह दो महीने अपने दफ्तर नहीं जा सकेगा और कम-से-कम छह महीने काफी ध्यान से परहेज करते रहना होगा।

नर्स तो गोलियाँ देकर चली गई थी। सुंदरी ने भी दूसरे पलंग पर लेटकर आँखें बंद कर ली थी। दूसरा कोई चारा न देखकर किशनलाल भी आँखें मूँदकर सोने का प्रयास करने लगा।
लगभग एक घंटे बाद वह चौंककर उठा और अपनी पत्नी को बुलाने लगा। सुंदरी गहरी नींद से जागकर उठी और पति के पलंग के सिरहाने आकर कहने लगी, ''क्यों क्या बात है? डाक्टर को बुलाऊँ?''

''नहीं प्रिया, डाक्टर की ज़रूरत नहीं, मैंने अभी एक सपना देखा है कि मनोज अमेरिका से हवाई जहाज़ में रवाना हुआ है और कल मुम्बई पहुँच जाएगा। कल शाम को वह मुझे देखने ज़रूर आएगा। सच बताओ, सुंदरी क्या तुम्हें अपने बेटे की याद नहीं आती, मैं तो उसका चेहरा देखने को तरस रहा हूँ।''

''देखिये, आप बार-बार वही बात कर रहे हैं। यह सपना आप तीन दिन से निरंतर देख रहे हैं। आप जानते ही हैं कि मनोज ने टेलीफोन पर कहा है कि वह इस वक्त मुम्बई नहीं आ सकेगा, क्योंकि इस वक्त अमेरिका छोड़ने पर उसे ग्रीन कार्ड मिलने में कठिनाई आ जाएगी। उसने पाँच हज़ार डालर भी भेजे हैं, ताकि आपके उपचार में कोई कमी न रहे। बच्चों की खुशी में ही खुश रहो। मनोज के अमेरिका जाने पर खुशी से सबसे अधिक आप ही तो उछले थे। क्या आपको नारियल पानी दूँ?''

किशनलाल कुछ क्षण चुप रहा और छत की ओर एकटक निहारने लगा। सुंदरी जब बाथरूम से बाहर आयी, तो पति की आँखों से आँसू बहते देख वह खुद भी दुखी हो गई। उसने देखा कि पति के आँसुओं से अस्पताल के बिस्तर का तकिया भी गीला हो गया है।

सुंदरी की आँखों में भी आँसू तैर आये थे, वह मुँह फेरकर खिड़की से बाहर समंदर की लहरों को देखने लगी। उसे लगा, मानो यह समंदर सुंदरी और किशनलाल जैसे लोगों के आसुँओं से भरा है। तभी तो खारा है।

अपने आपको समझाते हुए, दुपट्टे के कोने से अपने आँसू पोंछकर और नारियल का पानी प्लास्टिक की थैली से निकालकर, गिलास में भरकर, पति के पास वाली मेज पर रख दिया।

किशनलाल पलंग पर तकिये को अपनी सुविधा से टिकाकर लेट गया। उसकी आँखें अभी भी बेटे की याद में नम थीं। सुंदरी ने स्नेहपूर्वक रूमाल से पति के आँसुओं को पोछा और उसे नारियल का पानी पिलाने लगी।

किशनलाल फिर बतियाने लगे - ''सुंदरी ये तो बताओ क्या ग्रीन कार्ड पिता से बड़ी वस्तु है? यदि मैं मर जाऊँ, तो शायद मेरा बेटा मुझे कंधा देने भी नहीं आएगा। ऐसा कहकर कि ग्रीनकार्ड मिलने में दिक्कत होगी। क्या यही है हमारे प्यार और परवरिश का प्रतिफल?''

सुंदरी ने पति को कोई जवाब नहीं दिया। फिर वह स्टूल को पलंग के पास सरकाकर बैठ गई और पैरों को हिलाने लगी। उसे याद आया मनोज जब छोटा था - तो वह उसे कैसे सी कराती थीं। अपने पैरों का झूला बनाकर जब मनोज को झुलाती, तो वह खिलखिलाकर अपनी छोटी-छोटी बाहें माँ के गले में डालकर चिपक जाता। और अब वह माँ-बाप से हज़ारों मील दूर अमेरिका में ग्रीनकार्ड मिलने का इंतज़ार कर रहा है। जिससे हमेशा-हमेशा के लिए माँ-बाप से दूर रह सके। सुंदरी के चेहरे पर थोड़ी देर के लिए आई मुस्कान अब गायब हो चुकी थी। उसने पैरों का झूला झुलाना बंद कर दिया। वह पति की ओर देखने लगी, जो छत से आँखें गडाये जाने क्या सोच रहे थे?

''सुंदरी सुनो तो'' किशनलाल ने सुंदरी की ओर मुखातिब होकर कहा - ''तुम्हें याद है, जब मनोज दस साल का था और उसे पीलिया हो गया था, तब मैंने पूरे दो महीने छुट्टी ली थी। ऑफिस से बर्खास्तगी की चेतावनी का नोटिस तक आ गया था। लेकिन मैंने नौकरी की कोई परवाह नहीं की थी और जब तक मनोज ठीक होकर स्कूल नहीं जाने लगा था, तब तक ऑफिस नहीं गया था। फिर दो महीने बाद हम वैष्णो देवी गए थे, तब भी ऑफिस में झगड़ा करके उसने छुट्टी दी थी। क्या मनोज वह सब भी भूल गया है?

''अब छोड़ो, पुरानी बातों को, क्यों मन को दुखी करते हो?'' सुंदरी ने पति को तो पुरानी बातें याद न करने को कहा, लेकिन खुद भूतकाल के भँवर में अभी भी फँसी हुई थी। उसे याद आया कि जब मनोज पाँच साल का था, उसे तेज़ बुखार हो गया था, उस समय किशनलाल भी ऑफिस के कार्य से बाहर गए हुए थे। मनोज को रात में ही कंबल ओढकर वह डॉक्टर के पास ले गई थी।

उस वक्त उसके पास पर्याप्त पैसे तक नहीं थे, किसी तरह जोड़-तोड़कर उसने मनोज की एक हफ्ते तक दवा करायी थी। मनोज के ठीक होने के बाद स्वयं उसे मलेरिया हो गया था। किशनलाल ने टूर से लौटकर सब कुछ सँभाल लिया था। परन्तु उस बीमारी के दौरान मनोज जिस तरह उसकी छाती से चिपका रहता था, वह दुख और हाँ, वह सुख, अभी भी दिल के किसी कोने में छिपा बैठा है।

''कैसे हो किशन सेठ, क्या हालचाल हैं? क्यों, अभी तक अस्पताल से चिपके बैठे हो। क्या यहीं घर बसाने की इच्छा है?'' जयराम की कडकदार आवाज़ उस छोटे कमरे में गूँज उठी। ''आओ दोस्त, आओ। तुम्हारे आने से शायद मन कुछ अच्छा हो जाएगा।''

किशनलाल ने आँसू पोंछते हुए मित्र का स्वागत किया। जयराम उसका बचपन का दोस्त है। स्कूल, कालेज साथ जाने के अलावा उनकी नौकरी भी एक ही विभाग में लगी थी, लेकिन कुछ ही वक्त में जयराम का मन नौकरी से भर गया था। उसने अपने मामा के साथ रेडीमेड वस्त्रों का व्यवसाय शुरू कर दिया और अब वह एक बड़ा सेठ बन गया है, लेकिन किशनलाल उसे हमेशा जयराम कहकर ही संबोधित करता है और जयराम उसे सेठ किशनलाल कहकर पुकारता है।

सुंदरी ने दुपट्टे से अपने आधे सूखे आँसुओं को ठीक से पोंछा और जयराम को स्टूल पर बैठने को कहकर, स्वयं सामने वाले पलंग पर बैठ गई। जयराम ने अपने मित्र को आँसू पोछते और सुंदरी के चेहरे के उदासी भरे हाव-भाव देखकर अनुमान लगाया कि वातावरण कुछ बोझिल रहा है। वह दोस्त के निकट बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहने लगा, ''किशन सेठ, क्या बात है। क्या फिर भाभी से किसी बात पर झगड़ा हो गया है?''
कुछ क्षण खामोश रहने के बाद, किशनलाल बोले - ''नहीं यार, झगड़ा करने के दिन गए। अब तो एक दूसरे को दिलासे देकर ही दिन काटने हैं।''

दोनों दोस्तों की बातों में हिस्सा लेते हुए सुंदरी ने कहा - ''मनोज अमेरिका से नहीं आ पा रहा है, क्योंकि इस समय अमेरिका छोड़ने पर उसे ग्रीनकार्ड मिलने में दिक्कत हो सकती है। अब आप ही बताइये, क्या यही है हमारे प्यार का प्रतिफल।'' किशन ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - ''आपको याद है जब मनोज को इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश दिलाया था। मैं किस तरह तीन हफ्ते तक उसे लेकर या अकेले इधर-उधार भटकता रहा था। कालेज के प्रवेश के लिए मेरे पास पैसे ही नहीं थे और तुम्हारे पास मैं राशि लेने आया था। तुमने तो मदद की थी, लेकिन वह मैं जानता हूँ कि तुमसे पैसे माँगने में मुझे कितनी वेदना हुई थी। उस वक्त मनोज के लिये मैं कुछ भी करने को तैयार था।'' यह कहते हुए किशनलाल अपनी आँखों से बह निकली अश्रुधारा को पोंछने लगे।

जयराम यह सुनकर कुछ क्षण चुप रहे, फिर अपने मित्र के हाथों को सहलाते हुए अपनी स्वाभाविक कड़कदार आवाज़ को सप्रयास नरम करते हुए बोले - ''हाँ मुझे अच्छी तरह याद है। मुझे यह भी याद है कि इतनी भागदौड़ के बाद जब गवर्नमेंट कालेज में प्रवेश मिला, तो तुम कितने खुश हुए थे। मिठाई का डिब्बा लेकर मेरे घर दौड़ आए थे। उस समय तुम्हारे चेहरे पर प्रसन्नता के जो अद्वितीय भाव थे, उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो तुम्हें अपनी परेशानियों का मुआवज़ा मिल गया हो। क्या तुम्हें वह खुशी याद नहीं है? कमरे में कुछ देर तक खामोशी छायी रही। नर्स ने एक बार झाँककर कमरे में देखा, शायद वह कमरे में छायी खामोशी के खौफ़ से अंदर नहीं आई थी।

जयराम ने फिर पीछे बैठी सुंदरी को देखा और कहने लगा - ''भाभी मैंने आपको और किशन सेठ को सबसे ज़्यादा खुश तब देखा है, जब मनोज छोटा था। तब आपके पास पैसे तो नहीं थे, लेकिन खुशियों का भंडार था। शायद पैसों और खुशियों का तालमेल प्राय: नहीं हो पाता है। वह खुशी आपके पास कहाँ से आती थी? मनोज के पास से ही ना?''

किशनलाल ने करवट बदली और मित्र की ओर चेहरा कर पलंग पर लेटा रहा। जयराम स्टूल दूर कर इस तरह बैठ गया, जिससे किशन और सुंदरी दोनों से मुखातिब हो सके। फिर ठुड्डी पर हाथ रखकर, पाँव आगे रखकर कहने लगा - ''यार एक बात बताओ, क्या हमारे बच्चों ने हमसे आकर कहा था कि आप हमें जन्म दों?''

हमने उन्हें अपनी खुशियों के लिए ही जन्म दिया था। बच्चे तो अपने साथ खुशियों का खज़ाना लेकर आते हैं माँ-बाप को देने के लिए। मनोज के जन्म पर आप कितने खुश थे। हमारी मीनू जब पैदा हुई तब हम भी बहुत उत्साहित थे। नन्हीं मीनू की ख़्वाहिशें पूरी करने में मुझे अपार प्रसन्नता मिलती थी।'' जयराम की बात सुनकर किशनलाल गहरे सोच में डूब गए। उन्हें याद आ रहा था, जाने-माने चित्रकार विन्सेन्ट वेनगी की जीवनी 'लस्ट फार लाइफ' में एक जगह कहा गया है -

''प्यार का आनंद प्यार करने में हैं, प्यार पाने में नहीं। हम जब अपने बच्चों को प्यार देते हैं, उनकी तकलीफ़ों को दूर कर उन्हें खुश देखते हैं, तो अपनी ज़िंदगी की अनमोल खुशियाँ हासिल करते हैं। हमारे बच्चों ने हमारे घर जन्म लेकर, हमें प्यार करने का सुख देकर, हमें काफी कुछ दे दिया है। उससे अधिक कीमती प्रतिफल हमें क्या मिल सकता है मेरे दोस्त?'' ऐसे कहते हुए जयराम अपने दोनों हाथों से दोस्त के हाथ अपने हाथों में लेकर थपकियाँ देने लगा।
जयराम के चेहरे पर मुस्कान थी। उसके चेहरे पर आ रहे आँसू रुक गए थे। कहा नहीं जा सकता, रुके हुए आँसू दुख के थे या खुशी के, या फिर अपनी बेटी मीनू की याद के, जो विवाह के पश्चात किसी और नगर में बस गई थी।

(रूपांतरकार : अशोक मनवानी)

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