ऊँट की करवट (कहानी) : रांगेय राघव

Oont Ki Karwat (Hindi Story) : Rangeya Raghav

एक
गंगापुत्रों की उस छोटी-सी बस्ती में किसी को भी हैसियत वाला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी की भी खास आमदनी नहीं थी। रामदीन पांडे ही के पास थोड़ा-बहुत धन था, और वह भी इसलिए कि उनके पास कुछ खेत थे, जिनमें वे काश्त करवा लिया करते थे और पैसा दाँतों में भींचकर रखने से उनकी थैलियाँ तनिक बड़ी हो गई थीं।

जब से नए दरोगाजी आए, उन्होंने उस गाँव में एक नई हलचल पैदा कर दी। चारों तरफ दबदबा छा गया। गाँव के मशहूर गुंडों का उन्होंने ऐसे रातों-रात दमन कर दिया कि उनके छक्के छूट गए और दरोगाजी के विरोधी होने की जगह वे उनके गुर्गों का स्थान पा गए। दरोगाजी युवक थे। छह फुट लंबे और गोरे आदमी थे। उनके चेहरे पर एक कठोरता थी। बड़ी-बड़ी मस्ती-भरी कंजी आँखों पर तनी हुई भौं थी और गर्दन ठोस थी, गठीली थी; जिसके नीचे उनका स्वस्थ और फैला हुआ वक्षस्थल देखकर आँखें तृप्त-सी हो जाती थीं। वह एक आकर्षक व्यक्तित्व था। उनकी मूँछें लंबी थीं और पतली होने पर भी ऊपर की ओर तनी रहती थीं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर उनका विभिन्न प्रभाव पड़ा। बनिया उन्हें जो निपनिया दूध भेजता, उसे देख एक बार वह स्वयं रो देता।

और पंडागीरी करने वाले वे पुराने बाशिंदे, जो गंगापुत्रों के नाम से विख्यात थे, हवा के झोंके के सामने झुकने वाली खड़ी फसल की तरह उन्होंने भी सिर झुकाया। इसी तरह तूफान आते रहे थे, वे झुककर राह देते थे और फिर खड़े हो जाते थे। पुराने अंग्रेजों का यह कथन उन पर पूरी तरह लागू होता था। उनकी आकृतियाँ अधिकांश अच्छी थीं और उनकी स्त्रियों के यौवन की चर्चा प्रायः सभी जातियाँ किया करती थीं।

सुबह और शाम को सूरज गंगा पर उदय होता और डूब जाता। एक बार समस्त धारा स्वर्ण की भाँति चमचमाती, दूसरी बार वही वक्ष फैलाए बहने वाली धारा रक्त की तरह लाल-लाल होकर बहने लगती, जिसमें उन घरों की छाया रात की उँगली पकड़कर काँपा करती और धीरे-धीरे बढ़ती जाती। सारा जल काला हो जाता, गहरा अंधकार-भरा। गंगा की पवित्रता के प्रार्थी दूर-दूर से वहाँ तीर्थ के लिए आया करते। पंडे अपनी पुरानी बहियाँ खोलकर बैठ जाते और वंशवृक्ष के पत्ते-पत्ते को गिना देते, फिर धर्म के नाम पर लूटते और बात-बात में तुलसीदास की ‘रामायण’ की चौपाइयाँ सुनाया करते।

दो
गंगापुत्रों के सरयू के घर सदा ठाठ रहते थे, क्योंकि पंडा गिरिजाकुमार की वह स्त्री ही आगंतुकों का अतिथि-सत्कार करती थी। कोई भी जिजमान अप्रसन्न होकर नहीं लौटता था। उसका व्यवहार, बोलचाल, हाव-भाव, सब ही बहुत आकर्षक थे। गिरिजाकुमार के अतिथि सदैव ही एक-दो दिन अधिक रहते और धीरे-धीरे सरयू के शरीर पर सोना लदने लगा, जिसने उसे और भी सुंदर बना दिया।

उसकी बढ़ती को सब जानते थे, क्योंकि वह अटारी में जलते दीपक के समान थी। गिरिजाकुमार ढूँढ़-ढूँढ़कर लाते। जब औरों के यहाँ दो-दो तीन-तीन दिन कोई नहीं आता, सरयू का द्वार धर्म का प्रशस्त पंथ बन जाता, जैसे पुण्यतोया भागीरथी उस घर के अंदर होकर बहती थीं।

उस ईर्ष्या के बढ़ने के साथ उसका यश भी बढ़ता जा रहा था। गाँव के अन्य पंड़े उसे खुलेआम बदनाम करने का साहस नहीं रखते थे, क्योंकि एक-दूसरे की धोती का छोर एक-दूसरे के पैर के नीचे मजबूती से दबा हुआ था। कपड़े का एक ओर से फटने का मतलब था कि वह फट जाता, उसकी धज्जियाँ उड़ जातीं। अतः वे सब चुप थे और उसे भाग्य कहते थे।

दरोगाजी का सैलानीपन आत्म-प्रसिद्ध तो था, किंतु अभी वे अपने को नई बस्ती के खजानों से अपरिचित समझते थे। उनके मातहत सदैव नई-नई चीजें तलाश किया करते थे, जिन्हें दरोग़ाजी सूँघते और फेंक देते। उस दिन शाम हो गई थी। नाव पर दरोगाजी गाँव की सर्वोत्तम तवायफ को लिए नौकाविहार में मग्न थे। उनके सामने शराब की बोतल थी, जिसमें से ढाल-ढालकर सोडा मिला-मिलाकर वेश्या हुस्ना उन्हें पिला रही थी। उनके बड़े-बड़े नयनों के कोनों पर गुलाबी डोरे झलक आए थे और पलकें झपकने लगी थीं। आकाश में एक सुनहला बादल डूबते सूरज की किरणों में खेल रहा था। नदी चमचमा रही थी। समीरण की झूमती हुई गाथा अब पेड़-पत्तों को फरफराने लगी थी। गंगा का विशाल प्रवाह जगमगा रहा था।

हुस्ना का सौंदर्य उस चमक ने द्विगुणित कर दिया था। थी गाँव की, पर बड़े-बड़े ताल्लुरकेदारों के यहाँ नाच आई थी। दूर-दूर तक उसके मादक शरीर का यश प्रसिद्ध था। हज़ारों काले-काले गरीब किसानों की भीड़ एक गंदी फसल थी। उनके बीच में वह गुलाब का पौधा थी, जिस पर बड़े-बड़े लोग भी हाथ डालने से नहीं हिचकिचाते थे। उसकी पूर्वी पोशाक, नाक में सोने की बड़ी नथ, जिसे कान के पास बाँध दिया जाता, उसके बाएँ गाल का वह जहर-बुझा काला तिल और फिर फरेबी आँखों में अविश्वास के धुँधलके में चलते नारी-सुलभ कटाक्षों के धोखे मनुष्य को व्याकुल कर देने के लिए काफी थे।

नाव बहाव से लौटने लगी थी। अब माँझियों की पेशियाँ धार काटने में बार-बार फूलती थीं, गिरती थीं। नदी के किनारे घाटों पर लोगों की चहल-पहल थी। किसी ने भी उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।

उधर सरयू नदी में स्नान करके जब उठी, वह अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही थी। उसका नियम था कि नित्य प्रातः-सायं वह गंगास्नान के लिए घर से कुछ देर चलकर इधर एकांत में स्नान करने आती। कभी-कभी गंगा की धार पर प्रवाहित उसका दीपदान विस्तृत जलराशि के फेनोच्छ्वसित विलास गांभीर्य पर लगे संध्या तारे की भाँति टिमटिमा उठता था।

हठात् दरोगाजी ने देखा। उन्हें लगा, वे स्वप्न देख रहे थे। उनकी भूल थी कि वे तृप्त हो गए थे। सामने वह नारी, जिसके वस्त्र भीगकर उसके अंगों से चिपककर प्रायः स्पष्ट थे, खड़ी सूर्य को नमस्कार कर रही थी। डूबते हुए सूर्य ने जैसे अपनी उपासना के प्रति प्रसन्न होकर जो पराग उस पर फेंका था, वह अब नदी के कुंकुम जल पर छिटक गया था। लगता था, वह स्त्री नहीं थी, जल पर उगा कमल थी। दरोगाजी ने आज तक वह रंग, सफाई और वह रूप नहीं देखा था। वे उसे विभोर देखते रहे। हुस्ना ने मुस्कराकर कहा, ‘‘गिरिजाकुमार की बहू है। क्या उसे निगल जाओगे?’’
दरोगाजी ने पूछा, ‘‘तुम कैसे जानती हो?’’
‘‘पड़ोस के गाँव की लड़की है। मैं यहाँ किसे नहीं जानती?’’
दरोगाजी ने सुना और देखा। सरयू नाव की ओर ही आ रही थी। मन में आशा का संचार हुआ।

जब हुस्ना चली गई, दरोगाजी सरयू को पत्र लिखने लगे। उन्होंने एक बार लिखा और वही लिखा, जो वे इससे पहले इक्कीस बार लिख चुके थे। छोटी जगह हाथ रखते थे और इसी से जोर-दबाव से आज तक सफल होकर जो उनमें अपने सौंदर्य, शक्ति और वैभव के प्रति दुर्दमनीय अभिमान था, वह फिर जाग उठा।

तीन
दीवान जी अपने फन में कम न थे। एक बुढ़िया को ढूँढ़ लाए। काम चल निकला। सरयू को पत्र मिलता। वह पढ़ती और उसके मन में तरह-तरह के विचार उठते। घर की दहलीज एक पहाड़ थी जिसे लाँघ जाना उसके लिए असंभव था। दरोगा के अधिकार को वह जानती थी। लोग कहते थे, सब उससे डरते हैं। मन की स्पर्धा जाग उठी। उसने कुछ दिन चुप रहकर अंत में पत्र लिखा। यह आमंत्रण-पत्र था, ‘आप मेरे घर किसी दिन स्वयं आइए। मैं कहीं नहीं आ सकती।’ पत्र लिखने के साथ ही फाड़ दिया। एक सादा-सा लिखा, ‘आपका लिखा पत्र मिला। राजी-खुशी हूँ।’

और उसके पत्रों की गिरिजाकुमार को कुछ भी खबर नहीं रहती। धीरे-धीरे दोनों ओर से दस-दस पत्र, प्रश्न और उत्तर के रूप में, हाथों में बदल गए, फिर भी आग कोयले में ढकी रहती। सरयू का स्नान नदी-तीर पर अधिक होने लगा। दरोगाजी उसे अनेक बार वहाँ आकर अकेले देख गए, किंतु बोला कोई नहीं।

लेकिन वह मद-भरी साँझ थी। दरोगा की आँखों में अजीब सुरूर था। सरयू के होंठ पर मुस्कराहट काँपकर उसको पराजित कर गई। वही पहले झुकी।
उसी दिन बुढ़िया ने कहा, ‘‘सरयू बेटी, रात को चलेगी?’’
‘‘कहाँ?’’ उसने आशंका से पूछा।
‘‘आज तेरे पति की दावत है न?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम।’’
‘‘सुना है, दीवान जी ब्राह्मण हैं। उसी के घर। तू घर में अकेली रहेगी?’’ सरयू के हाथ दारोगाजी का पत्र खोलने लगे।

रात हो गई थी। चाँदनी फैली हुई थी। वह चाँदनी जो आसमान से उतकर फिर आसमान में समा जाती है। जिसके उजाले में दूधिया हिलोरें उठती हैं। जो छूती हैं, पर दिखाई नहीं देतीं। सरयू एकांत में घर के द्वार से सटी बैठी थी। किसी ने धीरे से द्वार धपथपाया। सरयू ने काँपते हाथ से दरवाजा खोल दिया।

दरोगा जी चुपचाप आए और चुपचाप चले गए। आधी रात का समय था। चारों ओर वहीं निःस्तब्धता थी। वही शांति। सब लोग सो रहे थे। सरयू उदासमना चाँद देख रही थी। अभी तक उसके अंगों में एक अतृप्त दाह थी। जैसे ओक लगाकर बैठे प्यासे का गला भी तर नहीं हुआ था। जिस समय गिरिजाकुमार ने प्रवेश किया, वह करवट बदलकर उठ बैठी। वह डटकर खा आया था। कपड़े बदलकर पलंग पर लेट गया और थोड़ी ही देर में सो गया। सरयू देर तक जागती रही।

उधर दरोगा जी जब सरयू के घर से निकले, लपटें धू-धू कर जल रही थीं। यह मात्र वासना थी। वे विलास चाहते थे। हुस्ना का द्वार खटखटाया। शराब की तृष्णा अभी पूरी नहीं हुई थी। हुस्ना उन्हें ढाल-ढालकर पिलाने लगी। दरोगा नशे में झूमने लगा। उसने मदहोश होकर हुस्ना के गले में हाथ डालकर आँखें मीचे हुए कहा, ‘‘सरयू! तुम बहुत अच्छी हो। आज तक मैंने तुम जैसी स्त्री नहीं देखी।’’

हुस्ना समझी नहीं। दरोगा बड़बड़ाता रहा, ‘‘आज की रात कितनी अच्छी है। ऐसे ही आया करूँगा चुपके से, ऐसे ही चला जाया करूँगा। किसी को कानों-कान खबर नहीं होगी। अगर किसी ने तुमसे कुछ कहा तो साले की चमड़ी उधेड़ दूँगा। हरामजादा!’’
दरोगा जाने क्या कह रहा था? कुछ-कुछ समझ में आ रहा था। हुस्ना ने सुना और आश्चर्य से देखती रही। दरोगा उसकी गोदी में सो गया था। वह हँसी। ठीक है।

दूसरे दिन उसने देखा, दरोगा, और भी ज्यादा पीकर आया था। उसके मुँह से टूटे-फूटे बोल निकल रहे थे। उसे स्वयं आश्चर्य हुआ। कैसी है यह स्त्री सरयू, जिसके पास जाकर इस पशु की तृष्णा भी बुझने के बजाय दिन-दिन अधिक भड़कती जाती है? उसे उसके स्त्रीत्व से ईर्ष्या हुई।

चार
कई दिन बीत गए थे। दरोगा दिन-दिन बदनाम होता जा रहा था। एक दिन वह पीकर नशे में धुत्त नाली में पड़ा पाया गया। एक बार एक इक्के में तवायफों के गलों में हाथ डाले बीच बाजार जाते देखा गया। कई आदमी उसने व्यर्थ ही पिटवा दिए थे। दिन-रात चौबीसों घंटे नशे में डूबा रहता था।

उस दिन बुढ़िया ने सरयू से चलने को कहा। सुनते ही हृदय काँप गया। वह नहीं गई। दरोगाजी उस समय नशे में चूर बैठे थे। दीवान उनके पैरों के पास बैठा गाँव के लोगों की इधर-उधर की शिकायत कर रहा था। बुढ़िया की बात सुनते ही उन्हें तीर-सा लगा। बोले, ‘‘साली! पारसा बनती है! देखूँ तो इसे।’’

बुढ़िया रोकती रह गई। पिस्तौल लगाकर एकदम सरयू के मकान पर पहुँचे और धड़ाधड़ चढ़ते चले गए। किसी से पूछने की भी आवश्यकता नहीं समझी। उस समय राह पर लोग चल रहे थे। पचास गज दूरी पर पान वाले की दुकान भी खुली थी। सरयू ने देखा तो चिल्ला उठी, जैसे घर में कोई चोर घुस आया था। वह इतनी आगे नहीं बढ़ी थी। दरोगा उस समय पशु की तरह उसे घूर रहा था। उसने पिस्तौल तानकर कहा, ‘‘खामोश! गोली मार दूँगा।’’
सरयू हँसी और उसने हाथ फैला दिए। दरोगा उसके अंक में समा गया। सरयू ने उसके हाथों को बाँध लिया और भयानक स्वर से चिल्लाने लगी।

सरयू की पुकार सुनकर इधर-उधर के लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा। वे सब इधर ही भाग चले। दरोगा उसके आलिंगन से छूटने का प्रयत्न कर रहा था। गालियाँ दे रहा था। उस धक्कामुक्की में सरयू गिरी। लेकिन साथ ही दरोगा भी गिरा। पिस्तौल छिटककर अंधकार में दूर जा गिरी। लोग ऊपर चढ़ने वाले थे। दरोगा ने भय से काँपकर कहा, ‘‘सरयू, मुझे माफ कर...बीच में...मैं नशे में था...’’ सरयू हँस दी।

दरोगाजी भाग गए थे। सरयू ने उन्हें खिड़की की एक दूसरी छत पर कुदा दिया था। जिस समय लोग कमरे में घुसे, वह डर के मारे बेहोश पड़ी थी। गिरिजाकुमार को घर आने से पहले ही पान वाले की दुकान पर सब घटना सुना दी गई।

मुकदमा बनने लगा। इस तानाशाही के विरुद्ध पंडे लोग एकाएक उठने लगे। उन्होंने मकान में घुसना और बुरी नीयत से घुसना, औरत पर हमला करना, उसकी आबरू लेने की चेष्टा करना, न जाने क्या-क्या कानून मढ़ डाला।

दरोगाजी ने सुना तो हुस्ना की ओर देखकर कहा, ‘‘आबरू? आबरू तो कभी की चली गई। तुम लोगों की कोई आबरू होती है? बुलाने से गया था। जेब में देखो मेरी। खत रखे हैं उसके हाथ के।’’

हुस्ना इस कठोर व्यंग्य को सुनकर चिढ़ गई। उसने कुछ नहीं कहा। सिर झुका लिया। गाँव की उड़ती हुई खबरें उस तक आ चुकी थीं। उठी और दरोगा की जेब से खतों का एक मुट्ठा निकाल लिया। फिर आकर चुपचाप वहीं बैठ गई। फिर शराब ढालने लगी।

दरोगाजी जैसे निश्चिंत थे। उन्हें कुछ भी याद नहीं था। हुस्सा के यहाँ से घर आकर उन्होंने और शराब पी। एक बोतल पी जाने के बाद दूसरी बोतल खोल डाली और गिलास से ढालने लगे। कुछ देर बाद सोडा खत्म हो गया तो पानी मिलाकर पीने लगे। आधी रात बीत गई थी। कल की हलचलों के बारे में मूढ़े के पास बैठकर चौकीदार गाँव की खबरें सुनाने लगा। वह एक-एक पत्ते की नसें गिनने वाला आदमी था। अफसरान की खुशामद करने में उससे बढ़कर शायद कोई नहीं था। बहुत दिन से गाँव में कोई बात न होने से वह ऊब गया था। मन ही मन दरोगा से घृणा थी, क्योंकि उसका एक नाइन से नाजायज ताल्लुक था। दरोगा अकसर उस सिलसिले में उस पर बेहूदी फब्तियाँ कसता था। इस समय उसे मौका मिल गया। उसने कहा, ‘‘हुजूर! आपकी हुस्ना बीवी हैं न? कहती थीं, दरोगाजी तो पिस्तौल भूल आए हैं वहाँ, नशे में थे। उन्हें क्या होश था? भला यह भी भलमनसाहत है कि एक औरत को बदनाम करने की कोशिश करें। खतों का मुट्ठा बताते हैं। माना कि उसने खत लिखे थे, पर उन्हें दिखाना तो निहायत अदना और कमीनी बात है।’’

दरोगा को जैसे किसी ने जलती सिगरेट छुआ दी। तमक उठे, ‘‘क्या कहा चौकीदार?’’ उन्होंने आतुरता से पूछा, ‘‘क्या कहती थी? मैं नशे में था? अच्छा! यह दिमाग है?’’ फिर अचानक ही उनका हाथ कोट की जेब पर गया और जेब खाली देखकर वे भयानक स्वर से चिल्ला उठे, ‘‘अच्छा! यह मजाल! दीवान! जमादार! बुला सालों को। लगा दो हरामजादी के घर में आग।’’

सिपाही इत्यादि सब एकत्र हो गए थे। इस आश्चर्य-भरी आज्ञा को सुनकर भी वे कुछ समझ नहीं पाए थे। शायद ज्यादा चढ़ गई थी। ऐसा लगा कि दरोगाजी अब इस विरोध को अधिक नहीं सह पाएँगे।

तभी चौकीदार काँप गया-सा बोला, ‘‘हुजूर! यों न कीजिए। इससे तो हाकिमों तक खबर पहुँच जाएगी। बड़ा तूफान उठ खड़ा होगा।’’

आग में घी पड़ा। दरोगा के आत्मसम्मान को ठेस लगी। वह क्रुद्घ हो उठा। आज्ञा आकाश के सूर्य के समान टँगकर चमकने लगी। चौकीदार मन ही मन मुस्कराया। थाने के बूढ़े पानी भरने वाले ने भय से देखा और पीछे हट गया।
दरोगा ने चिल्लाकर कहा, ‘‘दीवान जी! यह हुक्म है। लगा दो उसके घर में आग! अभी जाओ! मुझसे दगा? मेरे नाम से आसपास के हल्के थर्राते हैं।’’
दीवान ने सुना और पुकार उठा, ‘‘खानसिंह!’’
सिपाही ने कहा, ‘‘हुजूर!’’
यह आज्ञा थी।

पाँच
और सचमुच उस रात में अचानक ही सिपाहियों ने हुस्ना का घर उसके सोते समय जाकर घेर लिया। तब धीरे-धीरे सुलगकर अंत में हुस्ना का घर धू-धू करके जलने लगा। आग की लपटें धान पर लौटतीं, हवा की चोट से जीभ लंबी करके हाँफती और फिर उनके हृदय का गुबार धुआँ-धुआँ बनकर कोठ के भीतर-बाहर घुटन पैदा करता, जिससे आँखें बंद हो जातीं और फिर अर्राती हुई आवाज करके लपटों की रोशनी हवा के पैर पकड़कर अँधेरे का पीछा करती और चारों ओर फैलती चली जाती।

गाँव वाले इधर से उधर दौड़ रहे थे। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया था। उन्हें भय था कि यदि आग नहीं बुझी तो औरों के घर जलने लगेंगे, बच्चे रोने लगे। औरतें चिल्लाने लगीं। मर्दों का कुएँ पर ताँता लग गया। हुस्ना बाहर खड़ी चुपचाप देख रही थी। उसकी आँखें स्थिर और निश्चल थीं। हाथ में एक छोटा-सा बक्स था, जिसे वह लेकर भाग आई थी।
हुस्ना की माँ रो-रोकर चिल्ला रही थी। उसकी तथा बेटी की सारी कमाई आज उसके सामने ही राख हुई जाती थी। देख-देखकर उसकी छाती फट रही थी।

इसी समय आग का कारण प्रकट होने लगा। चौकीदार ने चुपचाप खबर फैला दी। आग लगाने वालों को लोगों में से एक बूढ़े ने जाते देखा था। दरोगा पर सबको क्रोध आ रहा था। क्या वह इतना निरंकुश है?
‘‘क्यों पांडेजी, इस पर भी चुप जाएँगे? ऐसे कोई लाट साहब का बच्चा नहीं है।’’

पांडे रामदीन सिर झुकाकर सोच रहे थे। उन्होंने उस पर राय न देना ही अधिक उचित समझा था। पर अब उन्हें कहना ही पड़ा, ‘‘तो यह कैसे तय कर लिया कि सरकार ने आग लगवाई है? कोई दुश्मनी थी?’’
गिरिजाकुमार मन ही मन क्रुद्ध थे। उन्होंने कहा, ‘‘कल इस पर गाँव में पूछताछ करके कुछ निश्चित करना चाहिए। यों तो काम कैसे चलेगा?’’

गाँव वालों के विभिन्न मत थे। गिरिजाकुमार को आज देखकर लोगों में साहस हुआ। हुस्ना ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘मैं कोई हूँ। पर मेरी सात पुश्तों को गाँव ने पाला है। सारा गाँव गवाह है, मेरे घर में दरोगाजी ने आग लगवाई है।’’

रात के अँधेरे में जब गिरिजाकुमार घर पहुँचा तो देखा, सरयू घर पर नहीं थी। वह हतबुद्धि-सा बैठा रहा। इस समय उसका हृदय क्रोध और विक्षोभ से जलने लगा था। एक अज्ञात आशंका ने उसे भीतर ही भीतर बता दिया था कि वह कहाँ गई थी। घर का द्वार ऐसा उढ़का दिया था! चाहे भले कोई चोर ही भीतर न आ जाता।

हठात वह चौंक उठा। सामने ही सूरय खड़ी थी। दोनों में से कोई भी कुछ नहीं बोला। सरयू छत पर बैठ गई, जैसे वह थक गई थी। गिरिजाकुमार चुपचाप सोचता रहा।

सुबह की पहली किरन फूटने से पहले उसने देखा, सरयू हाथ में स्नान के कपड़े लेकर नदी की ओर जाने की तैयारी कर रही थी। गिरिजाकुमार वेग से उसके सामने जा खड़ा हुआ धीमे परंतु तीखे स्वर से पूछा, ‘‘कहीं जा रही हो?’’
‘‘हाँ।’’ छोटा-सा उत्तर उसके कानों में गूँज उठा।
‘‘मैं आजकल यह सब क्या सुन रहा हूँ?’’ उसने फिर पूछा।
सरयू ने धीरे से कहा, ‘‘मैं जानती हूँ, तुम मुझसे नाराज हो। उनका पिस्तौल छूट गया था। उसे वापिस देने जाना पड़ा।’’
गिरिजाकुमार को लगा, पाँवों के नीचे से छत खिसक जाएगी। सरयू कहती रही, ‘‘बाकी तुम्हारे जिजमान थे, मेरा एक वही तो था।’’

गिरिजाकुमार ने बात के वजन को समझा। वह खिसियाकर सामने से हट गया। सरयू खड़ी रही। उसने अपने बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखों से उसे घूरते हुए कहा, ‘‘उनके पास मेरे खत थे। वे हुस्ना रंडी ने उड़ा लिए। तभी उसके घर में आग लगवा दी थी। समझे? इस समय रोता छोड़ आई हूँ। तुम गवाही न देना।’’

गिरिजाकुमार ने सुना और उसे लगा, आकाश और धरती मिलते चले जा रहे हैं। वह चक्कर खाकर बैठ गया। सरयू उसे होश में लाने लगी। गिरिजाकुमार ने आँखें मीचे ही कहा, ‘‘सब कसूर मेरा है सरयू, सब कसूर मेरा है!’’
‘‘न तुम्हारा, न मेरा। मौके की बात है और कुछ नहीं।’’ सरयू ने फुसफुसाकर उत्तर दिया।

छह
दूसरे दिन गाँव वालों ने अचरज से सुना कि हुस्ना ने दरोगाजी पर दावा दायर कर दिया। उसने कुछ गवाह भी तैयार कर लिए। शिकायत ऊपर पहुँची। जुर्म काफी बड़ा था। दरोगाजी की जमानत हो गई और मुकदमे का फैसला होने की प्रतीक्षा किए जाने का हुक्म हो गया और साथ ही तब तक के लिए दरोगा मुअत्तिल कर दिए गए। हेठी तो उनकी हुई, पर दबदबा नहीं गया। लोग कहते, ‘अजी, हुस्ना उसका क्या कर लेगी? वह एक बदमाश है। उसकी बड़ी-बड़ी ऊँची जगहों पर पहुँच है। देखिए, वह क्या-क्या करता है?’

दोनों ओर से कार्रवाइयाँ चलने लगीं। दोनों ओर से हड्डी चबाकर खाने में उस्ताद कुत्तों के-से वकील अपनी-अपनी राय देकर आग को भड़काने लगे।

नए दरोगाजी अधेड़ उम्र के आदमी थे। पुलिसवाला ठीक हो या गलत, उसकी इज्जत रखना अपनी शान समझते थे। उन्होंने पुलिस के सब मामलों को जहाँ का तहाँ दबा दिया। कचहरी के अमले-मुंशी रुपए की कटारी से जख्मी हो गए और कुछ ही देर में उनका अधमरा ईमान दम तोड़ गया। उनके आने पर गिरिजाकुमार और पुराने दरोगाजी उनके घर पहुँचे। नए दरोगाजी ने सब सुना और हुस्ना के सतीत्व को नष्ट करने वाली कुछ भारी-भारी गालियाँ दीं, जो किसी भी सधवा को आग में परीक्षा दे डालने को विवश कर सकती थीं। उन्होंने मन ही मन बातों को तराशा और असल को अपने दिमाग में नक्श कर लिया। गिरिजाकुमार जब घर पहुँचा, सरयू सामने आ बैठी। पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘ठीक है। मैंने कहा, हुस्ना के यारों की नजर मेरी बीवी पर पड़ गई थी। फुसलाना चाहते थे, सो उनसे नहीं हो सका, तभी बदनामी उड़ाने लगे।’’
सरयू ने पति को घूरकर देखा। ऐसे कि अनजाने ही वह पुरुष सरपका-सा गया।
‘‘मुझे पहले ही से आस थी कि बात बन जाएगी।’’ सरयू ने दृढ़ता से कहा।

इसी प्रकार चार महीने बीत गए। शहर दौड़ते-दौड़ते दोनों तरफ के लोगों के पाँव छिल गए। हुस्ना के वकील ने मामले को इस प्रकार पेश किया : दरोगाजी अकसर हुस्ना तवायफ के यहाँ आकर शराब पीते थे। इतनी पीकर आते थे कि बेहोश रहते थे, घर जाकर फिर पीते थे। अकसर नालियों में पाए गए। हुस्ना उन्हें हमेशा समझाती थी, लेकिन वे अफसर थे और वह बेचारी दबती थी। एक रोज नदी में नहाती गिरिजाकुमार पांडे की बीवी सरयू को देखकर दरोगाजी ने हुस्ना से कहा कि किसी तरह सरयू उनके हाथ लगे, हुस्ना कोई ऐसा काम करे। हुस्ना ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। दरोगाजी की नाखुशी वहीं से शुरू हुई। लेकिन उनका आना-जाना जारी रहा। उधर किसी तरह से सरयू को उन्होंने फाँस लिया और एक दिन जाग रहते ही रात में उसके घर चढ़ गए, जिस पर वह नाराज हुई। उसने इज्जत बचाने को शोर किया। आप भाग आए। उसी तरह हुस्ना के घर शराब पी और उसे छेड़ा। मगर वह महीने से थी। उसने इनकार किया। दूसरे दिन और नशा किया और उन्होंने हुस्ना के घर पर उससे जिना बिल जब्र किया और वहीं सरयू के खत गिरा आए। रात को खत मँगाने पर हुस्ना घर नहीं थी। उसकी माँ ने इस विषय में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। दरोगाजी ने सुना तो नशे में क्रुद्ध हो उठे। उसको मार डालने के इरादे से आधी रात को उसके घर में आग लगवा दी और उसका माल फुँकवा दिया।
गवाहों की लंबी कतार लग गई। हुस्ना का काम सुबह-शाम खुशामद हो गया और उसके शरीर पर वे लोग हाथ रखने लगे जो कल तक उसे ऊँचा समझते थे।

लेकिन बहस में ही सफाई के वकील ने ऐसा काटा कि मामला कुछ भी नहीं बन सका। हुस्ना का वेश्या होकर अच्छी नसीहतें देना, गिरिजाकुमार पांडे की पत्नी के हाथ के पत्रों का पेश होना, जिसे लिखना छोड़ पढ़ना तक नहीं आता था, जिसकी गवाही रामदीन पांडे जैसे गाँव में मुअज्जित आदमी ने दी है; तथा हुस्ना वेश्या, जो पेशा करती है, उसका बलात्कार का हल्ला मचाना, जैसे वह कोई इज्जतदार औरत थी, एक के बाद एक ऐसी बातें थीं जिन पर उपस्थित भीड़ कई बार हँसी। हुस्ना के गवाहों की हैसियत देखी गई। कोई भी भला आदमी न था। उधर बदमाशों ने इक इज्जतदार पर्दानशीन औरत को बदनाम करने का मौका ढूँढ़ निकाला। आग खुद लगाई। सिपाही तो पहरा हमेशा हर वक्त घूमकर देते ही हैं। यह तो कोई बड़ी बात नहीं है। वे तो आग लगी देखकर भागे-भागे आए थे। बातें सब ठोस थीं। डिप्टी साहब ने मुकदमा खारिज कर दिया।

दूसरे ही दिन हुस्ना पर हतक इज्जत, झूठी रिपोर्ट, झूठा मुकदमा, झूठी शहादत पेश करना इत्यादि अनेक जुर्म लगाकर दरोगा ने मुकदमा दायर कर दिया। उधर गिरिजाकुमार ने भी बदनामी का केस बनाकर उस पर इस्तगासा ठोंक दिया।

हुस्ना ने सुना और उसके होंठ काँप उठे। सरयू का उसने भला करना चाहा था, वही उसके विरुद्ध हो गई थी। पर क्या वह अपनी बदनामी के मोल पर हुस्ना का भला कर सकती थी? वह पर्दानशीन जो थी। हुस्ना रो पड़ी। उसका सब रुपया समाप्त हो चला था।

शाम धुँधली हो चली थी। जीत की खुशी में गंगा के पवित्र तीर पर रामदीन और गिरिजाकुमार भंग छान रहे थे, लेकिन सरयू घर पर नहीं थी। गिरिजाकुमार भंग के नशे में था। खाट पर जाकर घर में पड़ते ही उसका मन उड़ने लगा। आधी रात के समय जब सरयू लौटी, उसके पाँव लड़खड़ा-से रहे थे। वह मुखर और प्रसन्न थी। आते ही बिना हिचकिचाए गिरिजाकुमार की खाट पर बैठ गई। पति ने देखा, वह झूम रही थी। वह नशे में थी। आज उसके मुख से हलकी-हलकी शराब की गंध आ रही थी। ऊँट करवट बदल चुका था...वह दरोगा के पास से आ रही थी...

(१९५१ से पूर्व)

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