मुबीना या सकीना (पंजाबी कहानी) : गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी

Mubina Ya Sakina (Punjabi Story) : Gurbaksh Singh Preetlari

गाँव के एकमात्र पक्के मकान के पिछवाडे से एक मर्द और औरत चोरों की तरह आगे पीछे देखते हुये निकले. सामने सूरज ढल रहा था .उसकी सीधी किरणें उनके मुँह पर पड़ रही थीं। मर्द देखने में युवा और बलवान था, औरत सुन्दर और पतली पर दोनों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। एक-दो क्षण वे दूसरी ओर से आ रही आवाजों को सुनने के लिए रुक गये। फिर वे सर-सर करते ईख के खेत में घुस गये। इस खेत के एक ओर मुँडेर पर लसूड़े का पेड़ था।

ये जैलदार हासम अली का बेटा कासम और उसकी बहू जीनत थे। जैलदार हासम, उसका कबीला और गाँव के बहुत-से लोग लगभग दो घंटे पहले गाँव खाली कर गये थे।

आज तक जैलदार ने बड़े हौसले से काम लिया था। अफवाहें उड़ रही थीं कि उस गाँव पर हमला हो गया है और इस गाँव पर हमला होने की आशंका है। एक घोड़ी वाला उस कुएँ पर कह रहा था कि लुहारों की सभी झुग्गियाँ जल गयी हैं। जैलदार कहतासब अफवाहें हैं, हौसला रखो, नए नगर का बड़ा सरदार मेरा दोस्त है। वह हमारे बच्चे-बच्चे गाँव में सुलाने के लिए तैयार है।

पर आज सुबह जब जैलदार उससे तसल्ली लेने के लिए गया तो सरदार कुछ चिन्तित नंजर आया। उसके पास बैठे सरदार को कुछ सिख उठाकर परे ले गये। उसके कान में भी कुछ भनक-सी पड़ गयी :
''सरदार जी धोखा नहीं खाना .भसीनो आया ने जत्था बना लिया है और वह किसी की नहीं सुनता।''

गाँव वापस लौटकर जैलदार ने बड़ी मस्जिद में एक सभा की और गाँव खाली कर देने का निर्णय लिया। सारे गाँव में विलाप होने लगा। रोते-धोते लोगों ने गठड़ियाँ बाँधीं, सिख बच्चों के साथ खेलते बच्चों को डरा-धमकाकर घर वापस लाया गया। किहरू ने शराज की बाँह पकड़ ली, ''नहीं ताई, इसको मैं नहीं जाने दूँगा।'' शराज की माँ ने यह कहते हुए कि इस गाँव से हमारा दाना-पानी उठ गया है, बेटे की बाँह छुड़ा ली।

अफरा-तफरी में चीजें उठा-पटककर, कुछ अपने हम-साये के सुपुर्द कर, दरवाजों को ताले लगा, पशुओं की पीठ पर पुरानी रजाइयों को फेंक, सभी लोग अपने घरों से निकल गलियों में इकट्ठे हो गये। गाँव की आत्मा अपना शरीर छोड़ रही थी। अपने मकानों की दीवारों की ओर देख-देख बूढ़े विलाप कर रहे थे। हासम जैलदार की आँखें भी भर आयी थीं। वह अपने बेटे को पीछे रहने से मना कर रहा था।

''आप बिलकुल चिन्ता न करें,'' कासम ने कहा था, ''जीनत कुछ बीमार है और बहुत घबरायी हुई है ,मुबीना को उठाकर उससे चला नहीं जाएगा। साथ ही मैं सारी खबर लेकर आऊँगा। दूर से जत्था आता हुआ देखकर मैं जीनत को घोड़ी पर बैठा, नदी पार करके आपसे आ मिलूँगा।''
कई और जवान भी पीछे रह गये थे। क्या पता जत्था न ही आये। नए नगर का सरदार जत्थे को रोक ही ले। ऐसी स्थिति में वे सारे गाँव को वापस ले आएँगे।

वतन छूट रहा था, कुएँ-खेत छूट रहे थे। मैदान छूट रहे थे। जहाँ की मिट्टी में बचपन के साथियों के साथ खेतों में काम करते-करते कन्धे छिल गये थे, अविस्मरणीय यादें बन गयीं। बेर के पेड़ छूट रहे थे। बचपन में चोरी से खाये बेरों की मिठास अब कहाँ मिलेगी!
अपने कुएँ के पास से निकलते हुए इब्राहीम की बहू की सिसकी निकल गयी:
''अभी नई रेहट की बाल्टियाँ लगवायी थीं। बीस रुपये लगाकर नई शहतीर लगवायी थीं।''

वे बार-बार घूमकर अपने गाँव को, खेतों की मुँडेरों को, बाड़ों को देख रहे थे। उनकी नंजर इन पर थमकर रह जाती। पलक झपकते ही सब कुछ लुप्त हो गया। परदेश की ओर बढ़ता शोकग्रस्त काफिला गाँव की सीमा पर बैठ गया।

उधर नए नगर से खेतों में से आकर कोई उन्हें बता गया कि जत्था भट्टे तक पहुँच गया है। कासम अपने अस्तबल की ओर भागकर गया, पर घोड़ी वहाँ नहीं थी। और दूर से काफी दूरी से चमकती तलवारें उसे नजर आ रही थीं।
''जीनत-जीनत उठाओ मुबीना को कोई घोड़ी खोलकर ले गया है जल्दी करो घर के पिछवाड़े ईख के खेत में छिपने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं।''
ईख के खेत में घुसे थे कि जत्था गाँव में पहुँच गया। मुँडेर के पास से भागते-निकलते कई लोगों की आवांज आयी।
''ये अपने ही होंगे , नदी की ओर भागकर जा रहे हैं।'' कासम ने कहा।

इतने में गाँव से ऐसे शोर आने लगा जैसे वहाँ आसमान टूट पड़ा हो। शोर उनके पास आता जा रहा था। ईख के खेत में बहुत उमस थी। मुबीना अभी उठी नहीं थी, पर करवटें लेने लगी थी।
''बड़ी मुसीबत है, यह रो पड़ेगी और जत्था अब हमारे घर पहुँचा कि पहुँचा।''

धड़धड़ाते हुए दो घुड़सवार मुँडेर के पास से निकल गये, जैसे कि किसी के पीछे भाग रहे हों।
''जीनत जागने से पहले ला मैं मुबीना को लसूड़े के नीचे लिटा आऊँ वहाँ वह सोयी रहेगी और जब जत्था निकल जाएगा, तो उसे उठा लाऊँगा।''
''मन नहीं मानता हड्डी की तरह इसे कैसे फेंक दूँ।''
''जल्दी करो इसका और हमारा भला इसी बात में है यह अगर जाग गयी तो हम सब मारे जाएँगे।''
गाँव में गोली चलने की ठाँय-ठाँय आवाज आयी।
''मुझे दे दो एक मिनट भी न सोचो।''

जीनत ने मुबीना का मुँह चूमा और कासम ने जल्दी से उसके हाथों से लड़की को उठा लिया और खेत से बाहर आकर उसे लसूड़े के नीचे लिटा दिया। कासम का ध्यान सोने की जंजीर की तरफ गया जो कासम की माँ ने मुबीना के गले में डाली थी। पहले उसने सोचा कि जंजीर को उतार ले, फिर खयाल आया कि यदि मुबीना को छोड़ना पड़ा तो जिसे जंजीर सहित मुबीना मिलेगी उसके सिर पर भार नहीं बनेगी और वह उसका अच्छी तरह खयाल रखेगा।
''खुदा हांफिंज''और कासम जीनत के पास आ गया।
उसी समय उनके घर में से आवाजें आने लगीं।
''मेरे पीछे-पीछे पौधों को बचाकर जरा भी आवाज न हो जीनत तुम चली आओ।''
आवाजों से घबराकर वे खेत के दूसरी ओर चले गये।
''हाय! बुबीना रो पड़ी होगी''जीनत रुक गयी।
''मुबीना अल्लाह को सौंपो .चलो, आओ रुकने का समय नहीं।''
वे पौधों से बचते खेत के दूसरे किनारे पर पहुँच गये। उमस से जीनत के प्राण मुँह को आ रहे थे।
''तुम जरा यहाँ रुको मैं मुँडेर से देख आऊँ।''

अँधेरा फैलने लगा था . न जीव न जन्तु, पक्षी घोंसलों की ओर लौट रहे थे। जिस रास्ते से वह पिछले आठ सालों से दूसरे गाँव पाठशाला जाएा करता था, वह आज उसे मौत-सा भयानक लग रहा था। जिस कुएँ पर जीनत की डोली पिछले साल उतरी थी, आज खाने को आ रहा था।

ऊपर से बादल गरजने लगे। भीनी-भीनी फुहार हवा से उड़ती उसके अधरों पर पड़ी। प्यास लगी तो उसे एहसास हुआ कि मुबीना सारी रात भूखी रोती रहेगी।

जब अँधेरा गहरा गया, जीनत और कासम नदी की ओर चल दिये। मुबीना को लाना कठिन हो गया था। पाँच बीघे की जमीन पर उसने अपने खून-पसीने की मेहनत से फसल बोयी थी।

नदी पर बहुत भीड़ थी। नाव एक ही थी। मल्लाह जबकि मुसलमान थे पर पार जाने के बीस रुपयों से कम पर तैयार नहीं हो रहे थे। औरतें गहने उतार-उतार कर दे रही थीं। दो अपने पतियों से बिछड़ी औरतें गिड़गिड़ाकर हार गयी थीं। जीनत ने दो चूड़ियाँ बाँह से उतारकर कासम को दीं। कासम ने शेष दोनों भी उतरवाकर जेब में डाल लीं और मल्लाह को ताकते हुए कहा :
''ओ मियाँ कुछ तो खौफ करो आपको अच्छा लगेगा यदि ये जवान औरतें दुश्मनों के हाथ आ जाएँये दो चूड़ियाँ सौ रुपये से कम नहीं हैं।''
मल्लाह, कासम के रौब में आ गये और किश्ती को भरकर दूसरे किनारे ले गये। वहाँ से बॉडर सवा मील थाबीच में आबादी नहीं थी।

सारी रात बरसात कभी होती, कभी थम जाती। लसूड़े के चौड़े पत्तों पर बरसात की बूँदें इकट्ठी हो गयी थीं। हवा चलती तो बूँदें मुबीना के मुँह पर पड़तीं। रोते अधर'लिप-लिप' करने लग पड़ते। कई बूँदें छोटे-से मुँह में चली जातीं।

कभी रोती, कभी पानी की बूँदों से 'लिप-लिप' करती, कभी थककर सो जाती ,इसी तरह रात बीत गयी। सूरज की पहली सुनहरी किरण जब मुबीना के मुँह पर पड़ी, उस समय वह हाथ-पैर मार रही थी। उसकी आँखें खुली हुई थीं और उसके फिरोंजी कपड़ों पर सोने की जंजीर चमक रही थी।

रात को जत्था बड़ी और कीमती चीजें उठाकर चला गया था। सुनसान गाँव की भयावहता लुटेरों को भी डरा रही थी। दिन होते ही वे फिर लौट आये। उजाड़ स्थान फिर बस गया, पर यह लोगों का बसना निराला था, सन्दूक तोड़े जा रहे थे, ताले टूट रहे थे, नरम स्थानों को खोदा जा रहा था।

जीनत के मकान की ईख के खेत की तरफ वाली खिड़की खुली, किसी ने खिड़की में से झाँककर देखा .सर-सर करती ईख, बरसात से नहाये लसूड़े के हरे पत्ते और यह क्या कोई बच्चा छोटा-सा चीखता-चिल्लाता। देखने वाला जल्दी-से कोठे से उतर लसूड़े के पास आ गया।
किसी को अपनी ओर देखता देख मुबीना एकदम चुप हो गयी, उसकी पलकों से आँसू टपक रहे थे और कपड़ों पर जंजीर लटक रही थी।

देखने वाला बहुत खुश हुआ। उसने झुककर बाँहें फैलायीं .मुबीना ने होंठ सिकोड़ लिए जैसे उसे आदमी पर भरोसा न हो रहा हो। आदमी ने उसके होंठों पर अपनी उँगलियों से प्यार किया मुबीना अब मुस्करा पड़ी। आदमी ने उसके गले से जंजीर उतारकर फैंटा से बाँध ली और उसे गोद में उठा वापस आ गया।
उसका साथी भी, जो कुछ उसे मिला था उससे खुश हो रहा था। हासम का घर भूरा-पूरा था।
''मुझे छुट्टी दे दो, सरदार जी मुझे बहुत कुछ मिल गया है।''
''क्या मिला है?'' उसने गोद में मुबीना को देख लिया, ''इससे तेरा पेट तो नहीं भरेगा मार ले दो हाथ अब समय है फिर पछताओगे।''
''नहीं सरदार जी, आप मुझे जाने ही दें अब किसी चीज को हाथ लगाने का मन नहीं कर रहायह पता नहीं कब की भूखी है।''
''लड़की है।''
''जी हाँ, लड़की है।''
''तब तेरी मौज हो गयीं. जरा दिखा ,कासम की होगी।''
''मैं फिर जाऊँ?''
''तेरी मर्जी समय अच्छा था चंगड़ी के लिए कुछ कपड़े ही ले जाते।''
''मेरी चंगड़ी को तो तुम जानते ही हो मुझे तो काटकर खाती है कि मेरे ही बुरे कर्मों के कारण उसके बच्चा नहीं हुआ। कपड़ों से वह इसको अधिक चाहेगी।''
''जाओ, इसे ले जाओ और घोड़ी हमारी हवेली में बाँध देना।''

वह चंगड़ मानाँवाल के एक जमींदार का साथी था। उसकी सहायता से जमींदार ने कई चोरियाँ की थीं और चार दिन पहले जब सब मुसलमान उसके गाँव से चले गये थे, उसने उसे जाने नहीं दिया था, ''कोई देखे तो सही तेरी तरफ।''
चंगड़ी ने दरवाजा खोला और बिना चंगड़ की तरफ देखे वह घूम गयी। साँकल लगाकर चंगड़ ने कहा :
''पूछती नहीं, मैं क्या लाया हँ।''
''लाया होगा कोई बड़ा खंजाना, जिसके साथ तेरी सारी उमर गुजर जाएगी।'' चंगड़ी ने अब भी बिना उसकी ओर देखते हुए कहा।
''ऐसे ही बड़-बड़कर रही हो देख तो सही।'' और उसने मुबीना के मुँह से कपड़ा हटा दिया।
''हाय! मैं मर जाऊँ।'' चंगड़ी ने दोनों हाथ मलते हुए कहा, ''इसकी गरीब माँ को किसी अत्याचारी ने मार दिया है?''

''मुझे कुछ पता नहीं . जैलदार के घर के पिछवाड़े लसूड़े के पेड़ तले पड़ी थी।'' फिर फैंटा से जंजीर निकालकर बोला, ''यह इसके गले में पड़ी थी देखकर कोई जले नहीं, इसलिए इसे फैंटा में छिपा लिया था।''
चंगड़ी ने मुबीना को गोद में उठा लिया मुँह-सिर चूमा ,भगवान को लाख धन्यवाद दिया. जंजीर उसे भूल ही गयी।

''तू भूखी होगी बहुत भूखी .सारी रात तूने कुछ नहीं पिया .थोड़ा सब्र करो तेरे कारण ही गाय भी मिल गयी है. कल तो हाथ भी नहीं लगाने देती थी. तुम इसे जरा पकड़ो।''

चंगड़ी ने कपड़ा भिगोकर उसके मुँह में दूध डाला .वह काफी दूध पी गयी .अपने कपड़ों से उसका मुँह पोंछते हुए चंगड़ी ने कहा, ''नबी रसूल के मार्ग निराले हैं। मेरे पेट को फलता था... खुदा का लाख शुक्र...अब मेरे साथ ही रहना कहीं और न जाना।''

चंगड़ और चंगड़ी के कई दिन मुबीना को लाड़-प्यार करते बीत गये। खुदा की इस कृपा के सामने पुराने दु:ख वे भूल गये। चंगड़ी ने चंगड़ को राजी कर लिया कि वह अब कभी चोरी नहीं करेगा।
''दो पेट कोई भारी नहीं ,इतना तो मैं अकेली कर सकती हँ।''

पर अभी दो हफ्ते भी नहीं बीत पाये थे कि गाँव में उनके बारे में बातें होने लगीं। पाकिस्तान से उजड़कर आये कई लोगों ने गाँव में पनाह ली। वे किसी मुसलमान को देखना क्या उसका नाम तक सुनने को तैयार नहीं थे।
एक दिन उनका सरदार घर आकर कहने लगा :
''मोलुआ इस बात की मुझे बहुत खुशी है...पर मेरा वश नहीं रहा आपकी जान को खतरा बढ़ता जा रहा है .अच्छा यही है कि तुम तैयार हो जाओ .रात-रात में मैं आपको सीमा पार करा दूँगा।''
''जैसा आप कहें...आपके आसरे ही बचे हुए हैं।''
''पानी गले से उतरता जा रहा देखकर ही मैंने ऐसा कहा है नहीं तो मोलू को क्या मैं भेज देता...!''
''हमारे माई-बाप हैं आप।''
''आज ही चले जाओ . कल पता नहीं क्या हो जाएे .रात अँधेरी है ,नाला भी सूखा है उसमें चलते हुए किसी को दिखेंगे भी नहीं पर यह लड़की आपको यहाँ छोड़नी पड़ेगी।''
चंगड़ी ने मुबीना को छाती से लगा लिया। जैसे चंगड़ी की साँस रुक गयी हो, बोली :
''न सरदार जी ऐसा न कहें जो सुगंध इसके छोटे-छोटे हाथों में है वह मेरे प्राणों में समा गयी है।''
''आपके भले के लिए ही ऐसा कहा था .छ: मील चलना होगा किसी जगह भी अगर यह रो पड़ी ,बच्चा है सभी मारे जाओगे. मेरी तो कोई सुनेगा नहीं .लुटेरे तो राह ही देख रहे हैं।''
''जो भी हो...मर गये तो मर गये .लड़की को मैं नहीं छोड़ सकती।''
''जैसी आपकी मर्जी .मैं अपनी तरफ से कोई कसर नहीं रखूँगा।''

खाने-पीने के बाद गाँव में सन्नाटा छा जाता थाकोई बाहर की तरफ देखता भी नहीं था। सरदार और मोलू ने ठाठे बाँध लिए और लाठियाँ हाथों में ले लीं। चंगड़ी ने मुबीना के लिए दूध बोतल में डाल लिया। नाले में वे चलते जा रहे थे। राबी के कुछ इधर ही मुबीना रो पड़ी। उसी समय उस पार से आ रही घोड़ों की टापों की आवांज सुनाई दी। जैसे मौत आ रही हो। मोलू और चंगड़ी घबराकर एक-दूसरे के कन्धे से लग गये। सरदार को कुछ सूझा ,उसने झट मुबीना को चंगड़ी से ले लिया और उन दोनों को इशारे से बैठ जाने के लिए कहा तथा खुद नाले के ऊपर चढ़ गया।

घोड़ेवालों ने ललकारा। ठाठा खोलकर सरदार ने कहा :
''कोई पराया नहीं , मैं ही हँ।''
''कौन जैलसिंह यह क्या उठाया हुआ है?''
''आया तो था किसी शिकार के पीछे .सुना था कोई मोटी आसामी भाग रही है।''
''यही सुनकर तो हम आये थे पर सीमा तक तो हमें कोई मिला नहीं।''
''गये तो जरूर हैं यह बच्चा...इसके रोने से डरते हुए फेंक गये हैं।''
घोड़ेवाले गाँव की ओर चले गये सरदार ने चंगड़ चंगड़ी को दिलासा दिया और कुशलता से उन्हें सीमा पार करा दी।

दूसरे दिन वे लाहौर पहुँच गये .धक्के खाते वे शरणार्थी कैम्प पहुँच गये। चारों तरफ सिसकियाँ और आँसू थेपर चंगड़ी खुश थी कि खतरा टल गया। लड़की के माँ-बाप बचे नहीं होंगे जीते-जी कौन माँ लड़की को इस तरह फेंकेगी।
पर उनके कैम्प से सिर्फ चार घर दूर मुबीना की माँ पागल हो रही थी। कोई डाक्टर उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहा था। वह अपना गला दबाती और कहती:

''माँ नहीं, मैं डायन हूँ .कहीं रो न पड़े हम मारे न जाएँ मैं उसे जिन्दा फेंक आयी .गीदड़ खा गये होंगे .घोड़ों के पैरों के नीचे आ गयी होगी .छोटे-छोटे खुशबूदार हाथ कुचले गये होंगे वह भूखी मर गयी होगी उसे किसने दफनाया होगा?''

उसका विलाप किसी से सुना नहीं जा रहा था। उसका भाई सरकारी अफसर था। उसने डिप्टी कमिश्नर से एक फौंजी ट्रक का परमिट लिया और खुद हिन्दुस्तान जीनत के ससुराल के गाँव गया। वहाँ से इतना ही पता लगा कि मोलू चंगड़ मुबीना को मानाँवाल ले गया था। मानाँवाल से खबर मिली कि वह शेखूपुरा अपने साढ़ू के पास जाने की सोच रहा था।

लाहौर लौटकर उन्होंने शेखूपुरा जाने की सलाह बनायी। जीनत ने पागलों की तरह जिद की कि वह भी साथ चलेगी। समझाने पर भी वह न समझी। आखिर उसे साथ ही ले जाना पड़ा।

मोलू ठीक शेखूपुरा सादक के पास ही गया था। पता तो मिल गया, पर न तो चंगड़ी और न ही मुबीना उसके घर में मिले। उसने कहावे कहीं बाहर गये हुए हैं। मोलू को थाने में पकड़कर लाया गया। उसने इतना ही बताया कि लड़की को वे लाये जरूर थे पर भूखी होने और दूध न मिलने के कारण वह हिन्दुस्तान से आते हुए रास्ते में ही मर गयी। जल्दी में वे जितनी कब्र खोद सके खोदकर उसे दफना आये। न मार और न लालच उससे कुछ बकवा सके।

दूसरे दिन पुलिस चंगड़ी को भी पकड़कर ले आयी। चंगड़ी के चेहरे पर जरा भी घबराहट नहीं थी। उसने भी चंगड़ वाली कहानी दुहरा दी।

चंगड़ की कहानी सुनकर जीनत का दिल टूट गया .चंगड़ी ने जबकि बात वही कही थी, पर उसका मुँह देखकर जीनत बिलकुल निराश नहीं हुई। उसने कहा वह चंगड़ी से अकेले में कुछ पूछना चाहती है।

कमरे में अकेले जब जीनत ने चंगड़ी के चेहरे के हाव-भाव देखे तो उसके मन में भी वह समय याद आ गया जब मानाँवाल के सरदार ने उन्हें लड़की छोड़ जाने के लिए कहा था। 'शायद उसके छोटे-छोटे हाथों की खुशबू इसके प्राणों में बसी हो' चंगड़ी ने सोचा, पर अपनी कमंजोरी पर काबू पाकर वह जीनत के सवालों के झूठे उत्तर देती गयी।

''तू सच कहती है उसे तूने अपने हाथों से दफनाया था?''
''हाँ बीबी मैंने इन्हीं पापी हाथों से उस पर मिट्टी डाली थी।''
''उसके गले में एक सोने की जंजीर थी।'' जीनत ने काँपती आवांज में पूछा।
चंगड़ी ने जेब से जंजीर निकालकर जीनत को पकड़ा दी।
''यह आपकी अमानत है बीबी।''
जंजीर देखकर जीनत दहाड़ मारकर रोने लगी। सभी अन्दर आ गये। जंजीर जीनत के होंठों से लगी हुई थी और वह बेहोश पड़ी थी।
अब थानेदार को भी यकीन हो गया कि चंगड़ सच्चे हैं। सोने की जंजीर से पाँच महीने की लड़की उनके लिए कीमती नहीं थी।
दोनों को छोड़ दिया गया पर वे वहीं खड़े रहे। और सभी जीनत को होश में लाने की कोशिश कर रहे थे।
डाक्टर भी पहुँच गया। उसे सारी कहानी सुनायी गयी। चंगड़ी का जिक्र आते ही उसने चंगड़ी को देखना चाहा। पर चंगड़ और चंगड़ी हरेक को अपने रास्ते का काँटा समझ चुपचाप चले गये थे।
डाक्टर ने देखा-भाला। साँस ठीक थी, नब्ज ठीक थी।
''दंदल की चिन्ता नहीं है इसी तरह कुछ देर लेटी रहने दो ,शायद अपने आप यह कुछ बोले. उससे इलाज के लिए संकेत मिल सकता है।''

बीस मिनट वह उसी तरह पड़ी रही . बेहोशी में वह कुछ नहीं बोली। अब डाक्टर सलाह कर रहा था कि कुछ सुँघाकर उसे होश में लाया जाएे। तभी एक तरफ से चंगड़ी ने चुपचाप प्रवेश किया और बच्चा जीनत की छाती पर लिटा दिया। कासम ने चीखते हुए कहा''मुबीना...।''
एकदम सन्नाटा छा गया।
मुबीना को कमर से अभी चंगड़ी ने पकड़ा हुआ था। और उसके दोनों हाथ जीनत के गालों पर रख दिये थे।
डाक्टर ने मुबीना को जीनत की छाती पर भार समझकर उठा लेने के लिए कहा।

''नहीं...मैंने ज्यादा भार अपने हाथों पर रखा हुआ है।'' चंगड़ी ने कहा, ''इसके हाथों की खुशबू उसके नाक में चली जाने दो. जंजीर में से उसके गले की खुशबू सूँघकर ही वह बेहोश हुई है।''

सचमुच जीनत ने आँखें खोल दीं और खुद पर कुछ प्यारा-सा महसूस करके वह नीम-बेहोशी में बुदबुदायी , 'कौन...कौन...यह किसी खुशबू...यह किसके हाथ...।'
''तेरी मुबीना।'' कासम बोला।
''नहीं यह मेरी सकीना'', चंगड़ी ने कहा।

जीनत ने मुबीना का मुँह बार-बार चूमा तो वह रो पड़ी . चंगड़ी ने उसे वापस लेकर प्यार किया और फिर वापस देते हुए कहा, ''तुम अपने आप कहो बीबी यह तेरी मुबीना है या मेरी सकीना...तुमने जन्म दिया है मैंने इसे बचाया है मैंने इसका नाम सकीना रखा है। यदि यह तेरी मुबीना है तो मैं इसकी मौसी बनूँगी यदि यह मेरी सकीना है तो तुम मौसी बन जाना मैं इसे दिन-रात एक करके जैसे कहोगी वैसे पालूँगी, जहाँ कहोगी वहाँ ही इसका विवाह करूँगी जो भी तुम कहोगी मैं मानूँगी।''

जीनत को चंगड़ी फरिश्ता लग रही थी। मुबीना पर उसका अधिकार उसे अपने अधिकार से अधिक लग रहा था। उसने मुबीना का मुँह चूमकर, हाथ आगे करके चंगड़ी की गोद में दे दिया

''यह तेरी ही सकीना रहेगी तुम माँ और मैं इसकी मौसी बनूँगी...पर एक बात तुम भी मान लो।''

चंगड़ी खुद को उस कमरे में समा नहीं पा रही थी। अब वह सकीना की माँ थी .सरकारी अफसर, लड़की का मामा, पिता और माँ उसके सामने थे।

''हाँ...मेरी बीबी बहिन आपके मुँह से निकली बात मैं कभी नहीं ठुकराऊँगी . तुम हुक्म करो मैं तो तुम्हारी बाँदी हँ।'' चंगड़ी ने अपने सारे जीवन में खुद को कभी इतना नम्र, इतना अच्छा और धनी अनुभव नहीं किया था।
''वह यह कि सकीना और उसके माता-पिता आज से मेरे घर में ही रहेंगे।'' जीनत ने चंगड़ी की तरफ अपनी बाँहें बढ़ाते हुए कहा।
चंगड़ी ने वह बाँहें अपने गले में डाल लीं। आलिंगन और आँसुओं की धारा में माँ-मौसी का भेद भी समाप्त हो गया।

(अनुवाद : कीर्ति केसर)

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