मिला था (मणिपुरी कहानी) : एल. प्रेमचाँद

Mila Tha (Manipuri Story) : L. Premchand

आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह मुझको गौर से देख रही थी। मैं मनोवैज्ञानिक तो नहीं हूँ, फिर भी उस दिन मैंने सोचा था कि उस औरत की आँखों में एक असह्य दर्द और पीड़ा घुली थी। जानने का इच्छुक था कि वह कौन थी? उसके बारे में ज्यादा ध्यान देने का कारण यह था कि वह मुझको गौर से ताकतेताकते, सिपाहियों से भरी एक गाड़ी को आते देखकर, अपनी आँखें मुझसे हटाकर सिपाहियों की ओर कटु दृष्टि से देखते हुए खूब जोर से चिल्लाने लगी थी। उसके बाद, उसने अपनी गर्दन लटकाकर, बिलख-बिलखकर रोना शुरू कर दिया।

मेरे इस जीवन में अनेक प्रश्न उठ रहे हैं। कई अनुत्तरित भी हैं और कुछ के उत्तर भुला भी चुका हूँ। किसी एक विशेष सवाल पर विशेष ध्यान नहीं टिकाया जा सकता। कई प्रश्न सन्दर्भवश आते हैं-'वह औरत कौन थी? कौन थी वह?' जब से उस औरत को देखा, तब से यह प्रश्न उठा। किसका जीवन किसी के जीवन के लिए कितनी गहराई से सोच सकता है? वह औरत मेरी ही भाँति इस बड़ी पृथ्वी का एक छोटा-सा धूल-कण थी। थोड़ी देर के लिए सोचा था, कुछ क्षणों के बाद आ जाते हैं अन्य कई प्रश्न।

मैंने ऑफिस आते-जाते समय उस औरत को देखा। अक्सर वह नित्याइपात के कोने या इम्फाल पुलिस-चौकी के सामने दिखाई देती थी। क्या वह सचमुच पगली थी? यह प्रश्न अनुत्तरित था। पगला या पगली? ध्यान से सोचा जाए तो बताना मुश्किल है कि कब से किसी व्यक्ति को पागल कहा जाए। कभी ज्यादा सोचने से अपने-आप के बारे में प्रश्न उठता था कि क्या मैं भी पागल हो गया हूँ? सामान्यतः पगला या पगली उसी को माना जाता है जो मैला-कुचैला हो, चीखता-चिल्लाता हो, बीड़ी के टुकड़े और फालतू चीजें आदि उठाता हो, पहनने-ओढ़ने का ज्ञान न हो, अनाप-शनाप बोलता हो। पागल कई प्रकार के होते हैं-किसी का पागलपन सीटी बजाने में होता है, कोई ट्रेफिक-पुलिस बनकर, हाथ दिखानेवाला पागल होता है, कोई अपने शरीर पर कालिख पोतकर बड़बड़ाता हुआ चलता है। वह औरत तो ऐसी नहीं थी और न ही उतनी मैली-कुचैली थी। हाँ, निराश होकर बीच-बीच में बड़बड़ाती जरूर थी। एक दिन जब मैं कङ्ला पार्क के एक पत्थर पर बैठकर विश्राम कर रहा था, तब उसने पास ही घास पर बैठकर एक अप्रकट पीड़ा-भरी दृष्टि से मुझे देखा। फिर पुलिस की गाड़ी देखकर वह चिल्लाई,"राक्षसो राक्षसो!" उसके बाद गर्दन झुकाकर बिलखने लगी, बस।

मैं उस औरत से अवसर पाकर बात करना चाहता था। किन्तु उससे कब और कहाँ बात करूँ? लोगों के सामने अगर उसने बुरी तरह गाली दी तो मैं ही लज्जित हो जाऊँगा। जीवन स्वप्न है। प्रत्येक जीवन दुःस्वप्न की भाँति जिया जा रहा है। सब अविश्वसनीय ही थे, जो जीवन में घटित होते हैं। शायद वह औरत भी किसी दुःस्वप्न की शिकार हो !

पता नहीं, उस औरत के प्रति मेरे मन में कब और किस क्षण सहानुभूति जागृत हुई थी। पिघलते हुए हृदय ने चुपचाप अपने-आप से पूछा-यह औरत कौन थी? जब वह बहुत दुःखी होकर सिपाहियों पर 'राक्षसो, राक्षसो' कहकर चिल्लाई, तो मेरा हृदय भर आया। अपनी आँखों से तो नहीं देखा, फिर भी मैंने लोगों के मुँह से उल्टीसीधी कई कथाएँ सुनी-देश की रक्षा करनेवाले जवानों द्वारा कॉम्बिंग ऑपरेशन के दौरान दरिन्दे बनकर अनेकों कोमलांगियों को लहू-लुहान किए जाने की कथाएँ। किसी समय वियतनाम में, बंगला देश में, और अब मणिपुर में। उनका आचरण निरी पशुता थी। उनके चेहरे पर मुँह भर-भरकर थूकने से भी मन को कभी सन्तोष नहीं होगा। कहीं वह औरत भी उन दरिन्दों का शिकार तो नहीं थी?
एक दिन मैं एक मित्र के साथ जा रहा था, तब उसे देखा। मैंने मित्र से पूछा, "इस औरत को पहचानते हो?

मित्र ने उस औरत को गौर से देखने के बाद कहा, "नहीं पहचानता। इस पगली को पहचानकर तुम क्या करोगे? हाँ, अच्छी तरह मना ली जाए तो एक दिन काम आएगी।"
मित्र की बात सुनकर मेरे क्रोध की सीमा न रही। फिर भी मैं चुप ही रहा।
उसने आगे कहा, "इस औरत की आयु ज्यादा-से-ज्यादा चालीस वर्ष ही होगी। शक्ल-सूरत भी बुरी नहीं है।"

वह मेरा मित्र था, किन्तु उसकी बातों से मुझे घृणा होती थी। माँ-जैसी एक औरत के लिए उसका ऐसा विचार ! अजीब है ! निष्ठुरता प्रकट करना ही सज्जनता का प्रतीक हो गया है ! स्वार्थी को ज्ञानी माना जाने लगा है ! मित्र से बात तो विचारविमर्श के लिए शुरू की थी, लेकिन अब चुप रह जाना पड़ा।

लगातार तीन दिन ऑफिस बन्द होने और दो दिन अस्वस्थ होने की वजह से अवकाश पर रहने के कारण, पाँच-छह दिन तक उस औरत को नहीं देख पाया। ऑफिस में बहुत-से काम अटके पड़े होंगे, यह सोचकर मैं अपनी गाड़ी तेज चलाते हुए जल्दी जा रहा था। डाकखाने के पास एक जगह भीड़ देखी। जल्दी ऑफिस पहुँचने की इच्छा से मैं हॉर्न बजाकर उस जगह को पार करने का प्रयास कर रहा था, तभी अचानक उसकी आवाज सुनाई पड़ी
"राक्षसो राक्षसो ! मेरा बेटा वापस करो, राक्षसो !"

मैं घबराया। रोंगटे खड़े हो गए। वह दृश्य भी देखा। आँखों से एक-दो बूंदें गिर पड़ी। सेना की एक जीप में उस औरत को उठाने का प्रयास किया जा रहा था। जीप के पीछे थे मुख्य मंत्री और उनकी कन्टेसा कार, उसके पीछे एस्कोर्ट की अन्य गाड़ियाँ। रायफल और स्टेनगन पकड़े हुए सिपाही भीड़ को दूर हटाकर गाड़ियों के चारों ओर उनकी रक्षा कर रहे थे। मैंने अपनी गाड़ी एक किनारे खड़ी करके पास खड़े एक आदमी से पूछा-"क्या हुआ? क्यों ऐसा हो रहा है?"

उस आदमी ने उत्तर दिया, "मुख्य मंत्री इधर आ रहे थे, यह पगली एस्कोर्ट गाड़ी के सामने दौड़कर तेजी से चिल्लाने लगी। बार-बार हॉर्न बजाने पर भी हटने के बजाय इस पगली ने एक सिपाही को हाथ से पकड़कर गाड़ी से नीचे खींचने का प्रयास किया। इसी कारण इस पगली को गाड़ी पर उठाकर ले जाने का प्रयास किया जा रहा है।"

भीड़ एक मजेदार तमाशे की भाँति उसे देख रही थी। क्या जानूँ, किन-किनके मन में क्या-क्या विचार उठते होंगे ! मैं भी उन तमाशबीनों में ही था। इसके सिवा मेरे पास क्या उपाय था?

उस औरत को जीप में डालने के बाद सिपाही बहुत जल्दी अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। औरत चुपचाप नहीं बैठी। छुटकारा पाने का प्रयास कर रही थी। चिल्ला रही थी, अपने वही शब्द दोहराकर। गाड़ियों की पंक्ति सायरन बजाती हुई फिर तेज गति से चली गई।

तमाशा खत्म हो जाने के बाद भीड़ के लोग अपने-अपने काम पर जाने लगे। वहाँ खड़े लोगों से मैंने पूछा, "वह औरत कौन थी? उसे पहचानते हो?" उत्तर समान नहीं थे। किसी ने लापरवाही से कहा, "क्या मालूम !" दूसरे ने कहा, "पगली है।"
एक वृद्ध व्यक्ति जा रहा था, उससे भी पूछा, "चाचाजी, आप इस औरत को जानते हैं?"
उस वृद्ध ने दुःखी होकर उत्तर दिया, "बेटे, बड़े अफसोस की बात है। वह हमारे ही मुहल्ले की है।"
"चाचा जी, आप किस मुहल्ले से हैं?"

"नाओरेम लैकाइ से हूँ बेटे ! मनुष्य की दुर्दशा को कौन बता सकता है? वह औरत खूबसूरत तो थी ही, परिवार भी ठीक-ठाक था। चैन से रहती थी। उसका ड्राइवर पति बहुत पहले गाड़ी की एक दुर्घटना में मर गया था।"

उसके बाद उस वृद्ध व्यक्ति ने अगल-बगल नजर बचाकर देखा, फिर पहले से थोड़ी धीमी आवाज में बोला, "एक बेटा था, वह भी खराब पारिवारिक स्थिति तथा मार्गदर्शन के अभाव के कारण बन्दूकधारी युवकों के दल में शामिल हो गया। एक दिन रात को कुछ सिपाही आए और माँ के सामने ही बेटे को बुरी तरह मारते हुए पकड़कर ले गए।"

बीच में मैंने पूछा, "चाचाजी, क्या अभी भी उसका बेटा जेल में है?" ___ "वह कहाँ है, इसका पता नहीं चल पाया, बेटे ! क्या जाने, मार खाते-खाते मर भी गया हो !"

दो-एक पल बाद वृद्ध व्यक्ति ने आगे कहा, "उसके बेटे का शारीरिक गठन तुम्हारे-जैसा था, शक्ल-सूरत भी तुमसे काफी मिलती थी। अन्तर इतना है कि वह लड़का ऐनक नहीं पहनता था। केवल वही लड़का नहीं, उसी तरह हमारे मुहल्ले के चार-पाँच और युवक लापता हो गए।"

वृद्ध व्यक्ति चला गया। अब मैं पहले से बँधी गाँठ खोल सकता हूँ। उस औरत के मुझे गौर से देखने के अर्थ को, समझ गया हूँ। अब भी उसके चिल्लाने की दुःखभरी आवाज मेरे कानों को स्पष्ट सुनाई पड़ रही है- . 'राक्षसो राक्षसो ! मेरा बेटा वापस कर दो, राक्षसो !'

(अनुवाद-डॉ. इबोहल सिंह काङ्जम)

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