मैंने उस लड़की का खून किया (कन्नड़ कहानी) : आनन्द

Maine Us Ladki Ka Khoon Kiya (Kannada Story) : Aanand

छह-सात साल पुरानी बात। गर्मी की छुट्टियों में अपने मैसूर राज्य में घूम आने की इच्छा से निकला। मुझे अपने राज्य के प्रसिद्ध शिला-शिल्प की विशिष्टताओं को चित्र रूप में संग्रहीत करने का नशा चढ़ा था। सोमनाथपुर, बेलूर, हकेबोड आदि स्थानों के देवालयों का वर्णन जब पुस्तकों में पढ़ता। सोचता यदि जिन्दा रहा तो कभी-न-कभी उन आंखों से देख आऊंगा। इसलिए जब मैं घूमने निकला, अपना सपना सच होते देख बहुत खुश हुआ। अब आगे मैं जो कहने जा रहा हूं वह मेरा कोई यात्रा-सम्बन्धी भाषण नहीं, वरन् मेरी यात्रा के दौरान एक गांव में एक दिन की घटी घटना से सम्बन्धित है।

उस गांव का नाम है नागवल्ली। वहां पहुंचने तक मेरी तीन चौथाई यात्रा पूरी हो चुकी थी। तब तक मैं सौ-डेढ़ सौ चित्र संग्रहीत कर चुका था। सारे फोटो मैंने स्वयं खींचे थे।
नागवल्ली में करियप्पा गण्यमान्य व्यक्ति थे। सारे गांव के वह प्रमुख व्यक्ति थे। मैं उनके घर ही ठहरा था। कहानी का आरम्भ हम यहीं से मान सकते हैं।

मैं जब उस गांव में पहुंचा, तब रात के करीब नौ बज रहे थे। मैं अपना सब सामान हाट वाली एक गाड़ी में डालकर, स्वयं उसके पीछे चलता आया था। रात भर उस बैलगाड़ी में सफर करना मुझे पसन्द नहीं था। उस रात वहीं गांव में ठहरने का मन हुआ।

‘‘यहां ठहरने के लिए कोई अच्छी जगह है?’’ मैंने गाड़ीवान से पूछा। उसने करियप्पा का नाम लेकर कहा, ‘‘सरकार, यदि आपकी आज्ञा होगी, तो मैं उनसे जाकर कहूंगा। वह आपको सारी सुविधाएं देंगे।’’ मैंने हामी भरी। हम अभी दस गज भी न चले होंगे कि उनका घर आ गया। मैं गाड़ी के पास ही खड़ा रह गया। गाड़ीवान उतरकर घर की ओर गया और एक-दो मिनट में ही एक आदमी के साथ वापस आया, ‘‘सरकार, ये ही करियप्पा जी हैं।’’ करियप्पा जी मेरे पास आकर अति विनम्रता से हाथ जोड़कर बोले, ‘‘जी, पधारिये, इसे अपना ही घर समझिये।’’ मैं भी हाथ जोड़कर उनसे बोला, ‘‘आपको कष्ट हुआ।’’ उस पर ‘‘नहीं, आप यह क्या कहते हैं, कष्ट कैसा, आपने मेहरबानी करके मेरे घर आना स्वीकार किया, यह मेरा अहोभाग्य है, कष्ट की क्या बात है। आइये, आइये।’’? कहते हुए उन्होंने अपने घर की ओर संकेत कर, गाड़ी वाले को बुलाया- ‘‘रे तिम्मा, साहब के सब सामान लाकर चबूतरे पर रख दे।’’

मैं जाकर उनके घर के चबूतरे पर बिछी चटाई पर बैठ गया। करियप्पा जी का बड़ा परिवार था-एक भरा-पूरा घर। मेरे वहां बैठेते ही तीन-चार छोटे-छोटे बच्चे बाहर दौड़ आये और कुतूहल से हमारे चारों ओर खड़े हो गये। मेरे हैट-बूट से उन्हें दिलचस्पी हुई होगी।

चबूतरे के एक ओर एक कमरा था। घर के नौकर ने उसका दरवाजा खोलकर उसमें झाड़ू लगाई, चटाई बिछाई और एक दिया लाकर रख दिया। गाड़ीवाला मेरा सब सामान उस कमरे में रख आया। मैंने उसका किराया देकर भेज दिया। करियप्पा ने कहा, ‘‘अब आप कपड़े बदल लीजिए।’’ मैं कमरे में जाकर, अपने सब कपड़े उतार, धोती और कमीज पहन आया। तब तक किसी ने भीतर से गरम पानी ला दिया। मैंने हाथ-पांव, मुख धोया और

आधे घंटे के भीतर खाना भी खा लिया। फिर बाहर चबूतरे पर बैठकर पान खाकर हम बात करने लगे। अपनी यात्रा के बारे में उनको विस्तार से बताया। मुझे अपने घर ठहरा कर वे बहुत खुश हुए थे, यह उनके व्यवहार से मालूम हो रहा था। बातचीत के दौरान उनके बारे में भी मैंने बहुत कुछ जान लिया था। वे बहुत तृप्त व्यक्ति थे। चार सौ रुपये टैक्स भरते थे। घर लोगों से भरा था। गाय, बछड़े किसी की कमी नहीं थी। घर बहुत बड़ा बनवाया था। गांव भर में उनका घर सबसे बड़ा था। उनकी निष्कपट नम्रता से मैं बहुत प्रभावित हुआ। यह उनका सहज स्वभाव था। उनके घर, मेरा बहुत अच्छा आतिथ्य होगा, यह मैं समझ गया था।
भोजन के बाद ज्यादा देर बातचीत नहीं हुई। रास्ते की थकान की बात कहकर, कमरे में गया और बत्ती बुझा कर सो गया।

सुबह जब जगा, तब साढ़े छः या सात बज रहे थे। तब तक मेरे नहाने के लिए गरम पानी तैयार था। हाथ-मुंह धोकर मैं कमरे में ही बैठा था। करियप्पा स्वयं एक गिलास दूध लेकर आये। उनके घर कॉफी पीने की प्रथा नहीं थी और मुझे दूध की आदत नहीं थी। किसी तरह, चूंकि वे बहुत आदर के साथ लाए थे, उसे इनकार नहीं कर पाया। दूध पी गया। फिर उन्हें बैठाकर अपनी यात्रा से संबंधित सभी चित्र दिखाये और उनके बारे में जो भी जानता था, उन्हें बताया। मेरी बातें सुनकर वे बहुत आनंदित और विस्मित हुए। उन्होंने मुझे बताया कि यदि मेरी इच्छा हो तो यहां पास ही एक मंदिर है। रंगप्पा का मंदिर-बहुत पुराना है, बहुत दूर भी नहीं, मैं उत्साहित हो गया।

‘‘कहां?’’ मैंने पूछा।
‘‘यहां से करीब तीन मील दूर, वह दिख रहा है, वह मरडी पहाड़, उसके नीचे है।’’
बेलूर में खींचे कुछ चित्रों पर मुझे टिप्पणी लिखनी थी। साथ ही लक्ष्मी को भी पत्र लिखना था।
‘‘ठीक है, कल सुबह वहां जाऊंगा, आज कुछ लिखने का काम है।’’ मैंने कहा।
‘‘आपकी जो इच्छा।’’ उन्होंने कहा।

उस दिन टिप्पणी लिखने में ही बारह बज गये। खाना खाकर लक्ष्मी को पत्र लिखने बैठा। अपनी यात्रा के बीच जब भी फुरसत मिलती, मैं उसे पत्र लिखता था। सभी में विशेषकर अपनी यात्रा, मंदिर, बगीचे आदि का वर्णन लिखा करता था। यात्रा में लक्ष्मी की याद मुझे बराबर बनी रहती थी। कई बार लगता, ओह! यह सारी सुंदरता देखने के लिए मेरी लक्ष्मी मेरे पास नहीं है, वह होती हो सुंदरता और अधिक सुंदर दिखती। उस दिन मैं जागवल्ली कैसे पहुंचा, वहां करियप्पा के आदरपूर्ण आतिथ्य, सेवा, उनके बाल-बच्चों आदि के बारे में लिखकर, फिर मरडी पहाड़ जाने की बात लिखी और इस तरह पत्र पूरा किया।

उस गांव में डाकखाना नहीं था। एक डाक-पेटी थी। हफ्ते में दो या तीन बार डाकिया बेलूर से आकर सभी पत्र ले जाता था। कोई नौकर मिल जाए तो उसके साथ पत्र डाक-पेटी में भेज सकूंगा। मैं यह सोचकर कमरे से बाहर निकला कि कोई नौकर मिल जाय तो पत्र उसके हाथ डाक-पेटी में डालने के लिए भेज दूं।

बाहर चबूतरे के खंभे के सहारे एक जवान लड़की बैठी थी। लगा वह गृह-स्वामी की बेटी है। मैं बाहर आया, वहां कोई नौकर दिखाई न दिया, क्या करूं, यह सोचता मैं असमंजस में खड़ा रहा। वह लड़की उठकर मेरे पास आई और बोली, ‘‘आपको क्या चाहिए, आदेश दीजिए?’’ कहकर मुस्कराई। गांव की उस लड़की की विनम्रता और सरलता से मुझे खुशी मिली। मैंने कहा ‘‘कुछ नहीं, यह पत्र डाक-पेटी में डालना था। वह स्थान कहां है, मैं जानता नहीं?’’

उसने हंसकर मेरी ओर हाथ बढ़ाया।
‘‘आप क्यों इतनी तकलीफ उठाते हैं मालिक! मुझे दीजिए वह पत्र मालिक, मैं जाकर पोस्ट कर आऊंगी।’’
उसकी बातें सुनकर, उससे दो-चार बातें और करने की इच्छा हुई।
‘‘तुम्हें कष्ट तो न होगा?’’ मैंने पूछा।
‘‘अरे मालिक, कष्ट किस बात का, आप बड़े आदमी हैं।’’
इस तरह कहकर उसने हाथ आगे बढ़ाये। मैंने पत्र उसके हाथ में दे दिया और पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘मेरा नाम चेन्नी है।’’ उसने शरमाकर कहा और चली गई।

‘कितना सुन्दर नाम है।’ मैंने मन ही मन सोचा। चेन्नी की सुन्दर बोली, उसकी नम्रता, आंखों में निश्छल हृदय की निर्मल छाया और बातचीत में ग्रामीण लालित्य से मैं बहुत प्रभावित हुआ।

उस दिन दोपहर में खाना खाकर मैं थोड़ी देर सोया। जब नींद खुली तो करीब चार बज रहे थे। हाथ-मुंह धोने के लिए कमरे से बाहर निकला। फिर वही लड़की, मैंने पहले उसे जहां देखा था, वहीं खम्भे के सहारे बैठी थी। जैसे ही मुझे बाहर आते देखा, अपने पैर समेटकर, अपना आंचल संभालने लगी। मुझे पानी की जरूरत थी। वहां कोई दूसरा न था। पहले उससे एक बार बोल चुका था, इस बार सहज भाव से बोला, ‘‘चेन्नम्मा, थोड़ा पानी चाहिये, हाथ-मुंह धोना चाहता हूं।’’ ‘‘लीजिये मेरे मालिक!’’ कह, मुस्करा कर संकोच के साथ वह अन्दर गई। चेन्नमा की यह मुस्कराहट शायद उसके स्वभाव में थी। मैंने उसे जब भी देखा, उसका अबोध चेहरा मुस्कराहट से चमकता ही पाया। मैंने शहर में जवान लड़कियों की हंसी प्रायः देखी है। लगता है, वह बड़े-बड़े पेड़ों को गिराने वाली धूल भरी आंधी की तरह, मन में शोर मचाने वाली लहरें उठाकर, डावांडोल कर देने वाली होती है। चेन्नमा की वैसी मुस्कराहट न थी। वह मृदुलता से बहती हुई कोंपलों से होकर फूलों के गुच्छों से गुजर कर सुगन्ध ले आने वाली ठण्डी हवा की तरह, हृदय में छोटी-मोटी तरंग-मालाओं को जगाने वाली मुस्कराहट थी। आंधी में फंसने से आंखों में धूल, मिट्टी ही भरती है। उसमें सौरभ कहां? गांव की इस लड़की की मुस्कराहट में तो...ओह, चमेली के फूलों-सी स्वच्छता, सीमातीत सुगन्ध, भरी हुई है। चेन्नमा पानी लेकर आयी। हाथ-मुंह धोकर कमरे में जा रहा था कि चेन्नमा थोड़ा नाश्ता और एक गिलास दूध रख गई। नाश्ता कर कहीं घूम आने के लिए मैं अपनी बांसुरी और एक छोटा कैमरा लेकर कमरे से बाहर निकला। चेन्नमा उसी स्थान पर बैठी थी। मैं घर से निकलकर यह सोचते हुए कि कहां जाऊं, दो-चार कदम चला होगा कि मुझे घर के पिछवाड़े के बगीचे का ध्यान आया। मैंने वही जाने का निश्चय किया। रास्ता नहीं जानता था। क्या करूं, यह सोचकर चेन्नमा से पूछा, ‘‘सुना है कि तुम लोगों का एक बगीचा है, उसे देखना चाहता हूं, रास्ता बताओगी?’‘ वह, ‘‘जी, मालिक, वह है हमारे बगीचे का रास्ता।’’ ‘‘अच्छी बात है, अब चलता हूं।’’ कहकर मैं निकल पड़ा। वह पगडण्डी पिछवाड़े तरकारी के बगीचे से होकर बड़े भाग तक गई थी। उस रास्ते पर करीब बीस गज चला ही था कि हवा से मेरे उत्तरीय का आंचल तरकारी के बगीचे की बाड़ से उलझ गया। उसको छुड़ाने के लिए मुड़ा तो देखा चेन्नमा वहीं खड़ी थी। मुझे लगा कि शायद उसे शंका हो कि मैं रास्ता भूल जाऊंगा।

सौ गज और चलने पर उनका बाग मिला। वह बहुत सुन्दर था। उसमें विशेष रूप से सुपारी, नारियल और कुछ फलों के पेड़ थे। सहज ही सुन्दर उस मनमोहक बाग का सौंदर्य उस दिन

सन्ध्या के सूर्य की सुनहली कान्ति में सौ गुना बढ़ गया था। बाग में प्रवेश कर दस-पन्द्रह कदम चलने के बाद एक बड़ा कुआं मिला। वह ढेकली का कुआं था। एक ओर पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां लगी थीं। कुएं के चारों ओर दो फुट ऊंची दीवार थी। मैं दीवार पर बैठ गया और बाग के सौन्दर्य-पान का आनन्द लेने लगा।

थोड़ी देर तक उस बाग के सौन्दर्य का आनन्द लेने से मेरा मन खुशी से भर गया था। बाग की ठण्डक हवा में मिलकर बह-बह कर आती थी। कुएं के चारों ओर कई तरह के फूलों के पौधे थे। उनकी सुगन्ध ठण्डी हवा में बह रही थी। कई तरह के पक्षियों की चहचहाहट, आकाश, पेड़-पौधे, हर कहीं सुनाई दे रही थी। मेरा हृदय आनन्द से उमड़ पड़ा। उसी उत्साह में मैं बांसुरी बजाने लगा। बांसुरी का सुर सौ सुरों में बंटकर बगीचे में भर गया। अपनी बांसुरी के गान से मैं खुद विभोर हो उठा। एक-दो धुनें बजाकर मैं गाने लगा। पूरे बाग में मैं अकेला हूं, इस कारण मैं खुलकर गाने लगा। अचानक मेरे पीछे कुछ आवाज हुई। मैंने गाना रोककर, पीछे देखा तो वही लड़की चेन्नी, सीढ़ियों से नीचे उतरकर घड़े में पानी भर रही थी। वह सिर उठाकर मेरी ओर देख रही थी। मैं शरमा गया। मुझे शहर का सभ्य व्यक्ति समझकर इसने सम्मान दिया था, मैं ग्वाल-बाल की तरह बांसुरी बजा रहा था, गा रहा था, ठीक ही हुआ। मैं सीढ़ियों की ओर पीठ किये बैठा था, इसी कारण मुझे उसका आना मालूम नहीं हुआ। संगीत की आवाज के कारण उसकी चूड़ियों या नूपुरों की ध्वनि सुनाई नहीं पड़ी। जो भी हो, तब की अपनी हालत पर मुझे बहुत लज्जा आई। एक बार मैंने यों ही कहा, ‘‘क्या हुआ, छोड़ो भी।’’ लेकिन मन को चैन नहीं मिला। हंसी आने लगी। बांसुरी बगल में रखकर कैमरा उठाया, उसे देखने वाले की तरह बैठ गया। लगा वह घड़े में पानी भरकर सीढ़ियों पर चढ़कर आ रही है। सारी सीढ़ियां चढ़ जाने के बाद उसके चलने की आवाज बंद हो गयी। पांवों की आवाज के बदले उसकी चूड़ियों की आवाज सुनाई पड़ी। फिर उसका चेहरा देखने में शर्म महसूस हुई। तब भी मुड़कर देखा। वह खूब मजे में दो पीतल के घड़ों में पानी भरकर सीढ़ियां चढ़ चुकी थी और उसे कुएं की चौकी पर रखकर खड़ी थी। मैंने उसे फिर देखा, मेरे विचित्र संगीत से उमड़ी हंसी अभी तक उसके चेहरे पर दिखाई दे रही थी। लगा वह कुछ बोल रही है। अपने मन के कोलाहल में कुछ समझ नहीं पाया। उसकी ओर मुड़कर पूछा, ‘‘क्या कह रही हो?’’ ‘‘गाना क्यों रोक दिया, मालिक?’’ उसने पूछा। इस प्रश्न से मेरे मन में कितनी तड़पन हुई, यह भगवान् ही जानता है। क्या जवाब दूं, इस कारण कुछ बोल कर रह गया। उसके प्रश्न में मुझे उपहास की ध्वनि मिली थी, तब भी मेरे मन में चिढ़ नहीं पैदा हुई। मैंने मूर्खता की थी, साथ ही मेरी उस की मनःस्थिति में वह सब मुझे उपहासात्मक लग रहा था। गांव की वह मुग्धा मुझ पर व्यंग्य कसने का उद्देश्य शायद ही रखती होगी। जो हुआ सो हुआ। वह जगह छोड़ अपनी बांसुरी, कैमरा दोनों लिए दो कदम आगे बढ़ा। इतने में ही उसने मालिक कह कर पुकारा। वह एक भरी गगरी उठाकर सिर पर रख रही थी। दूसरी चौकी पर रखी थी। मुझे मुड़ता देखकर, उसने घड़ा दिखाया और कहा, ‘‘वह घड़ा जरा उठा देंगे।’’ उसने शरम और संकोच से पूछा। मैंने बांसुरी और कैमरा नीचे रखा, घड़े को उठाकर उसकी कमर पर रख दिया। उसे शायद यह बहुत बड़े उपकार-सा लगा। उसके चेहरे पर बहुत खुशी दिखी। भरे घड़े के बोझ से इठलाती जाने वाली वह पूर्ण यौवना उस संध्या के सूर्य के सुनहले प्रकाश में बहुत मनोहर लग रही थी। तुरंत मेरे मन में उसकी इस स्थिति का एक फोटो खींच लेने की इच्छा हुई। कैमरे को ठोक कर, यह सोचे बिना कि लड़की क्या समझेगी, मैंने उसे आवाज दी। वह बोझ के साथ धीरे से मुड़ी, ‘‘आपने बुलाया मालिक!’’ मैंने हां कहा और उसके पास जाकर बोला, ‘‘तुम एक मिनट इसी तरह रुक सकती हो।’’ उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ होगा। अलसाई धूप की ओर मुंह कर वह इठलाती खड़ी हो गयी। उसके चेहरे का निर्दोष बाल-हास अभी-अभी ओझल होने वाली सोने की किरणों में सुख से मिल रहा था। मैंने फोटो खींचा, ‘‘अब, तुम जाओ।’’ उसने कुतूहल से पूछा, ‘‘यह क्या किया मालिक?’’ उसे कैसे बताऊं? ‘‘कल बताऊं?’ कल बताऊंगा।’’ वह मुड़कर धीरे-धीरे घर की ओर चली गयी।

उस रात खाना खाकर कमरे में जा बिस्तर पर लेटा। जल्दी नींद नहीं आयी। शाम को वह बाग की घटना अभी मन में छायी रही। मैं हंसा। लक्ष्मी से जब यह सब कहूंगा तो पता नहीं वह क्या कहेगी, कितना हंसेगी? आदि सोचता रहा।

पिछली रात शायद बहुत देर से सोया था। सुबह जब जगा, आठ बज गये थे। जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह धोकर नाश्ता किया और मरडी पहाड़ जाने को तैयार हो गया। घर के मालिक ने एक नौकर तय कर दिया था। उसके साथ सब आवश्यक वस्तुएं उठवाकर मैं चल पड़ा। मरडी पहाड़ से सब काम पूरा कर लौटने तक करीब बारह बज गये। लौटते समय पगडंडी से थोड़ी दूर, हरियाली में गाय-बछड़े चर रहे थे। कहीं-कहीं किसान खेतों पर काम कर रहे थे। अचानक एक ग्वाल बालक ने एक गाथा गीत-गाना शुरू किया। उसे किसका डर? बहुत मजे में जोर से गाने लगा। बहुत मजा आ रहा था। थोड़ी देर रुककर सुनना चाहा, किंतु साथ में नौकर था। संकोच हुआ कि वह हंसेगा। पिछले दिन शाम की बात याद आयी, इसलिए रुका नहीं। चेन्नम्मा की याद आयी। उस ग्रामीण युवती की सहज मुस्कुराहट मेरे सामने नाचने लगी। चमकते भरे घड़ों को उठाये, उनके बोझ से झुका उसका वह थिरकता दृश्य-चित्र आंखों में भर गया। मैंने कल्पना ही की थी कि चेन्नम्मा घर के मालिक की बेटी है। इसे जानने के कुतूहल से उस नौकर से पूछा, ‘‘तुम्हारे मालिक के घर वह लड़की कौन है?’’

नौकर ने मेरी ओर मुड़कर पूछा, ‘‘कौन लड़की सरकार?’’ वह समझ नहीं पाया कि मैं किसके बारे में पूछ रहा हूं। मैंने कहा, ‘‘वही चेन्नम्मा।’’ नौकर मेरी ओर एकटक देख रहा था। मेरे प्रश्न पर हंसा, मुंह घुमा कर बोला, ‘‘क्यों पूछ रहे हैं?’’ मैं अपमान का अनुभव करने लगा। शरम लगी। यह सोचकर कि मेरे प्रश्न से यह कुछ गलत अर्थ निकालने लगा है। सिवा लक्ष्मी के मेरा जीवन ही नहीं, इसे वह मूर्ख क्या समझे? मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं भाई, वैसे ही पूछा, क्या पूछा नहीं चाहिए।’’

दूसरा प्रश्न पूछते-पूछते रुक गया, ‘‘इसमें कोई बात नहीं सरकार! वह मालिक की बेटी है। शादी शुदा है।’’ पूछूं तो पता नहीं, वह क्या समझेगा।
घर लौटते ही नहाया, खाना खाया, कल शाम के खींचे चेन्नम्मा के फोटो की तीन-चार कापी बनायी। तस्वीर बहुत अच्छी बनी थी। घर के सभी सदस्य उसे देखकर बहुत खुश हुए।

दोपहर खाना देर से खाया था। रात भूख नहीं लगी। घरवाली से कह दिया कि रात में खाना नहीं खाऊंगा। लगा जल्दी नींद नहीं आयेगी। क्या करूं, कुछ सूझा नहीं, इससे थोड़ी देर घूमने निकल पड़ा। जब लौटा तो नौ बज गये थे। बत्ती जलाकर बिस्तर बिछाया, लेटकर एक उपन्यास पढ़ने लगा। करीब दस मिनट बीता होगा कि कमरे के दरवाजे की ओर से कुछ आवाज आयी। सोचा, हवा होगी। फिर आवाज हुई। इस बार धीमे से दस्तक सुनाई दी। सोते ही पूछा, ‘‘कौन है?’’ जवाब नहीं मिला। एक मिनट बाद फिर दस्तक हुई। बैठकर पूछा, ‘‘कौन है?’’ चूड़ियों की आवाज हुई। साथ ही धीमी आवाज में ‘‘मैं हूं चेन्नी’’ सुनाई पड़ा। मुझे आश्चर्य हुआ। इस समय, इसका यहां क्या काम है? जो हो पूछ तो लें, यही सोचकर आधा दरवाजा खोलकर मुंह बाहर निकाला, ‘‘क्या बहिन?’’ मेरे कमरे से धीमा प्रकाश उसकी देह पर पड़ रहा था। उसके हाथ में एक थाली, उसमें चार-पांच केले, थोड़ी शक्कर, एक गिलास में थोड़ा-सा दूध था। ‘‘मालिक, आज आपने खाना नहीं खाया। इससे यह ले आई हूं।’’ मुझे जरा सी भूख लगने लगी थी, ‘‘बहुत अच्छा बहिन’’ कहकर उसके हाथ से वह थाली लेकर बिस्तर के पास रखने गया। चेन्नम्मा पीछे से कमरे के अंदर आ गयी। मेरी छाती धड़कने लगी। मैंने थाली बिस्तर के बगल में रख दी, फिर मुड़कर बोला, ‘‘अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए, तुम जा सकती हो।’’ उसने हंसकर कहा, ‘‘मेरे रहने से क्या होता है मालिक? क्या आप मेरे सामने नहीं खायेंगे?’’ ‘‘क्यों नहीं, खा सकता। मैंने उस कारण नहीं कहा था। लेकिन अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए और इस समय तुम अकेली यहां...’’ मेरी बात अभी पूरी भी न होने पायी थी कि उसने दरवाजा बंद कर चिटकनी लगा दी। जब वह मेरे कमरे में आयी थी, तब मेरे मन में जो हल्की भावना उठी थी, वह स्पष्ट होने लगी। उसने जैसे ही दरवाजा बंद किया, मेरा शरीर कांप कर गर्म हो गया। चेहरा पसीने से तर हो गया। कष्ट से बोला, ‘‘क्यों, दरवाजा क्यों लगाया?’’ और खोलने के लिए दो पग आगे बढ़ा कि चेन्नम्मा जल्दी से जाकर दरवाजे के बीच खड़ी होकर मुस्कराने लगी, मुझे लगा, मेरे पैर जम गये हैं। अब और कुछ संदेह नहीं रह गया, उसका उद्देश्य मेरे हृदय पर अंकित हो गया, मैंने मन में सोचा, ‘‘यह है, गांव की मुग्ध जवान लड़की।’’
मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। लौटकर बिस्तर पर बैठ गया, दोनों हाथों से सिर पकड़कर सोचने लगा।

आगे की बात कहने से पहले आपसे कुछ बातें कहना चाहता हूं। उस दिन रात पाप के जाल से मुझे लक्ष्मी ने बचाया। उसके प्रेम के दुर्ग से मैं पूरी तरह आरक्षित था। हम दोनों जब से एक हुए उसने मुझे इस तरह बना दिया था कि उसमें मुझे वह सब कुछ प्राप्त था। रूप, गुण, प्रेम किसी के लिए उसे छोड़कर कुछ सोच पाना मेरे लिए असंभव था। मैं आज भी सोचता हूं, लक्ष्मी मेरे जीवन में न होती तो उस रात के वातावरण में मेरा मन, उस गांव की अबोध युवती की ओर झुक जाता, इसमें जरा भी आश्चर्य की बात न थी।

यह घटना मेरे यौवन के आरंभिक दिनों की है। मैं स्वस्थ था। मैं अपनी सुरूपता के बारे में यदि कहूं तो यह तो जरूर कह सकता हूं कि कुरूप नहीं था। विषय को ठीक तरह से समझने के लिए चेन्नम्मा का वर्णन भी अनिवार्य है। उसकी उम्र बीस से

अधिक न थी। न बहुत ऊंची, ना नाटी थी वह। रंग पिंगल वर्ण का, नाक-नक्शा सुंदर ही कहे जा सकते थे। भरे यौवन का गठा बदन। जब भी मैंने उसे देखा, उसके होंठों पर सहज बाल मुस्कुराहट खेलती रहती थी। आंखों में कभी नटखटपन की हल्की बिजली की चमक खेलती रहती थी। बाल मुस्कुराहट और हल्की बिजली के परस्पर मिलन से एक अपूर्व मधुर परिणाम निकलता था। मन चुराने के आवश्यक सभी साधन उसमें थे, इतना अवश्य कहा जा सकता है। उस पर उस रात को उसका बर्ताव गांव की अबोध युवती से बिल्कुल परे का था।

बिस्तर पर बैठते ही मेरे मन में विचारों की भीड़ लग गयी। मुझे लगा जैसे मेरा सिर कोल्हू में पिस गया है। मुझे लगा, जैसे मेरा मन अंधकार के समुद्र में फंस गया है। गला सूख गया, थूक निकलने में भी कष्ट होने लगा। मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस युवती की कामवासना को मैंने छेड़ा है? यदि वह लड़की मेरी ओर आकर्षित हुई भी थी, तो उसे मैंने किसी भी तरह प्रोत्साहित नहीं किया था। यह बात मैं कहीं भी खड़े होकर,

सौगंध खाकर कह सकता हूं। वह अबोध नहीं थी, यह उसने प्रदर्शित कर दिया था। जान-बूझकर वह ऐसे काम के लिए आगे बढ़ी थी। वह कैसा पागलपन है। घर वालों को पता चले तो मेरा क्या हाल होगा? मैं एक सभ्य पुरुष की तरह इनके घर का अतिथि हूं, इतनी रात गये यह और मैं एक साथ एक कमरे में...मुझे लगा कि मेरा सम्मान नहीं बचेगा। लेकिन यह आयी कैसे? चोरी-छिपे आयी होगी, यह शादी शुदा नहीं है। मेरे मन में बहुत जुगुप्सा उपजी। अब मुझे एक के बाद एक पिछली शाम के उसके सारे व्यवहार समझ में आने लगे। वह उस समय मेरे पीछे बाग में क्यों आयी? पानी भरने के लिए-वह सिर्फ एक बहाना था...पानी का घड़ा मुझसे क्यों उठवाया?...ठीक है, मैंने जब पानी का घड़ा उठाकर दिया, तब उसने मेरे हाथ से अपने हाथ का स्पर्श क्यों करवाया? मैंने इसे एक संयोग समझा था। एक बात और, पहले वह घड़ा उठाने के लिए झुकी, तो उसका आंचल खिसक गया। मैंने जब उसे उस अवस्था में देखा, तो उसमें लज्जा के चिह्न भी दिखाई न दिये। घड़ा सिर पर रखकर धीरे से आंचल ऊपर खींचा। मैं इस सबको उसकी मुग्धता के रूप में देख रहा था। लेकिन यह मेरे ऊपर इन सब बातों से जाल फैला रही थी। उस समय यह सब मैं समझ नहीं पाया।

इन चिंताओं से अस्त-व्यस्त होने के विपरीत संयमित होकर दुविधा से पार होने का मैं रास्ता ढूंढ़ने लगा। गुस्से से काम नहीं चलेगा, डर लगा कि उसमें कुछ प्रमाद घटित हो। किसी दूसरे उपाय से उसे बाहर धकेलने की बात सोचने लगा। किंतु उपाय क्या है? बात कैसे शुरू की जाये या सीधे चादर ओढ़कर सो जाऊं- लेकिन यह भी नहीं हो सकता। यह जब तक यहां रहेगी, मेरी छाती पर एक चट्टान पड़ी रहेगी। एक और बात सूझी। किसी तरह उसे समझाकर कहूं कि वह जो काम कर रही है, बहुत बुरा है-बहुत ही नीच है, बहुत पाप का काम है और इसी युक्ति से उसे यहां से भेज दूं। भगवान् ने, मुझ नगरवासी को, इस गांव की लड़की के सामने पतिव्रता धर्म पर भाषण देने का अवसर ला दिया था। इस पर मुझे खुद हंसी आ रही थी।

सिर उठाकर चेन्नम्मा की ओर देखा। चेन्नम्मा अभी तक दरवाजे से सटकर खड़ी थी। मेरे चेहरे पर हंसी देखकर वह भी हंसी। मुझे भय हुआ कि संभव है उसने मेरी हंसी में कुछ प्रोत्साहन पाया हो, इसीलिए तुरंत मैंने अपनी हंसी रोक ली और धीमे से बोला, ‘‘चेन्नम्मा! चेन्नम्मा!’’ ‘‘क्या मेरे ईश्वर?’’ कह दो पग आगे बढ़कर, मुझसे थोड़ी दूर पर खड़ी हो गयी। मैंने कहा, ‘‘बैठो।’’ वह मेरे बिस्तर पर ही बैठ गई। मैंने थोड़ी दूर हटकर गले का थूक निगला, फिर बोला, ‘‘चेन्नम्मा!’’

‘‘क्या, मेरे मालिक!’’ उसने धीमे से पूछा। इतने विपरीत व्यवहार पर भी उसकी ध्वनि से मुग्धता का बोध हो रहा था। मैंने कहा, ‘‘चेन्नम्मा देखो, तुम्हारे लिए ऐसा करना क्या उचित है?’’
‘‘कैसे मालिक?’’
‘‘इस तरह आधी रात चोरी से आना!’’
मेरी बात पूरी भी न हुई थी कि उसने कहा, ‘‘चोरी से नहीं आयी, मेरे भगवान्!’’
‘‘तब?’’
वह कुछ भी बोल नहीं पाई। मैंने कहा, ‘‘देखो, तुम्हारे घर वालों को पता चल गया तो तुम्हारी भी इज्जत जायेगी, मेरी भी।’’
‘‘वे कुछ नहीं बोलेंगे भगवान!’’
मुझे आश्चर्य हुआ। पूछा, ‘‘क्या कहा?’’
‘‘वे कुछ नहीं कहेंगे।’’
‘‘देखो, वे कुछ कहें या न कहें। इसे मैं अच्छा नहीं मानता। चेन्नम्मा, मैं शादीशुदा आदमी हूं, मैं दूसरों की बीबी को...’’
‘‘हाय मालिक, ऐसा क्यों कहते हैं, मेरी शादी कभी नहीं होगी मेरे मालिक? मैं बस्वी हूं।’’
‘‘क्या, क्या कहा?’’
‘‘मुझे बस्वी बना दिया है, मेरे मालिक!’’
‘‘बस्वी, बस्वी! यानी!’’
‘‘भगवान् के लिए छोड़ दिया है।’’

मैंने कहीं ऐसा नहीं देखा था। भगवान के लिए छोड़ना, बस्वी आदि बस सुना था, किंतु इसका अर्थ नहीं जानता था। मेरा पहले वाला डर दूर हो गया। कुतूहल बढ़ गया। जानने की इच्छा से पूछा, ‘‘भगवान् के लिए किसने छोड़ा?’’
‘‘मेरे माता-पिता ने।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘आठ साल पहले मैं बहुत बीमार पड़ गयी थी। मेरे मां-बाप ने मरडी भगवान् की मनौती मानी। अगर मैं चंगी हो गयी तो भगवान् के नाम पर मुझे बस्वी दे देंगे। मैं ठीक हो गई, मालिक!’’
‘‘तब तुम्हारी शादी ही नहीं होगी।’’
‘‘नहीं, मालिक!’’
‘‘ऐसे ही रहोगी?’’
‘‘जी, मेरे मालिक!’’
‘‘वेश्या की तरह!’’

मेरी यह बात उसके सीने में छुरा भोंकने जैसी लगी होगी। एक क्षण में उसकी भौंहें तन गईं। नथुने और होंठ फड़कने लगे। क्रोधित स्त्री के मुख पर जो एक प्रकार की भीषणता होती है, उसके मुख पर वही भीषणता तिरने लगी। क्रूर दृष्टि से मुझे देखते हुए उसने कहा, ‘‘मालिक, आपको यह बात नहीं करनी चाहिए थी?’’
उसमें यह परिवर्तन देखकर मैं दिग्भ्रमित हो गया। थूक निगलकर बोला, ‘‘कौन-सी बात?’’
‘‘मैं वेश्या नहीं हूं, यह खूब समझ लीजिए।’’
मुझे आश्चर्य हुआ। शादी नहीं और विपरीत व्यवहार कर रही है। उस पर कहती है मैं वेश्या नहीं हूं।
मुझे भी थोड़ा गुस्सा आया, मैंने पूछा, ‘‘तुम भी सब लोगों की तरह शादी करके सती की तरह रहो। इस तरह आधी रात को मुझे पकड़ने क्यों आई हो?’’
‘‘मालिक, आप अभी तक नहीं समझे। बस्वी शादी नहीं कर सकती है।’’
‘‘क्यों नहीं?’’
‘‘मनौती पूरी करनी है मालिक! नहीं तो बुरा होगा न?’’
‘‘शादी करके मनौती पूरी नहीं होगी?’’
‘‘नहीं, मेरे मालिक! एक आदमी से शादी करने पर आप लोगों की सेवा कैसे करूंगी, इज्जत कैसे बचेगी?’’
‘‘ठीक है, लेकिन दूसरों की सेवा क्यों करनी चाहिए?’’
‘‘भगवान् की मनौती जो भरनी है।’’
‘‘इस तरह भगवान् का नाम लेकर वेश्या का काम किया जाता है?’’
उसने भौंह सिकोड़कर तुरंत कहा, ‘‘मालिक, ऐसा मुझे नहीं कहिए, नहीं कहिए?’’
‘‘मैं तुम्हारा पति नहीं हूं, तुम रात के इस समय मेरे पास क्यों आयी हो? यह काम कौन करता है? ऊपर से कहती हो, तुम वेश्या नहीं हो?’’
‘‘हम वेश्या नहीं हैं मालिक, हम वेश्या नहीं है। वेश्याओं को पैसे का मोह होता है, वे आदमी नहीं देखतीं। उनके पास मनौती नहीं होती, वह धंधा ही उनका जीवन होता है।’’
‘‘तुम लोग?’’

‘‘हम पैसे आदि नहीं छूते, मेरे मालिक! ऐसे-वैसे लोगों को पास भी नहीं आने देते। आप जैसे कुलीन जब आते हैं, तो उनकी सेवा कर मनौती भरते हैं, हमें वेश्या नहीं कहिए, मेरे भगवान!’’
‘‘तो तुम्हारी यह सेवा तुम्हारे माता-पिता को मालूम है।’’
‘‘क्यों नहीं मालिक, उन्होंने ही तो मनौती मानी है-वे क्यों नहीं जानेंगे?’’
‘‘ठीक है, तो उन्होंने तुम्हें भेजा है, किंतु मैं इसे नहीं मानता। किस हिम्मत से उन्होंने तुम्हें मेरे पास भेजा?’’
इस प्रश्न का तुरंत जवाब नहीं मिला। मुस्कराकर, गला एक तरफ झुका कर तिरछी नजर से देखते हुए वह बोली-
‘‘आपने शायद हमारे नौकर से, मैं कौन हूं, क्या हूं आदि पूछा था?’’ उसने थोड़ा शरमाकर बताया।
अब मेरी समझ में बात आई। मैंने जब इसके बारे में नौकर से पूछा था तो उसने व्यंग्य से हंसकर ‘‘क्यों सरकार?’’ कहा था।
‘‘हां, चेन्नम्मा!’’ मैंने पूछा था, ‘‘तुम्हारे बारे में सिर्फ जानना चाहता था। मैं लक्ष्मी की सौगन्ध खाकर कहता हूं, इसमें मेरी कोई दूसरी मंशा नहीं थी।’’
‘‘अब वह रहने भी दीजिए भगवान्, इस सबके लिए आपको सौगन्ध नहीं खानी चाहिए।’’
‘‘उस तरह नहीं चेन्नम्मा, मरने के बाद कहीं प्राण फिर वापस लौटता है?’’ चेन्नम्मा चुप थी।
‘‘कहो?’’
‘‘नहीं, मेरे मालिक!’’

‘‘तब सुनो, औरत के लिए इज्जत ही उसका प्राण है। इज्जत खोकर औरत कुत्ते से बदतर हो जाती है। तुम लोगों के लिए इज्जत ही सबकुछ है। तुम्हें उसे इस तरह बेचना नहीं चाहिए। हमारे यहां बड़े-बूढ़े कहते हैं कि इज्जत खोकर औरत नरक में भी जगह नहीं पाती।’’

‘‘मालिक, आपकी बात शादी कर पति के साथ रहने वाली औरतों के लिए ठीक होगी। हमारी तरह रहेंगे, तब उन्हें जात से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। हमारी बात वैसी नहीं, भगवान! हमें तो भगवान के लिए ही दे दिया गया है। हमें आप जैसे कुलीनों की सेवा में ही जीवन बिताना है।’’

‘‘चेन्नम्मा, तुम नहीं जानती। सुनो, भगवान् के नाम पर औरत की इज्जत लुटाने से भगवान् को कैसे अच्छा लगेगा? भगवान् की मनौती है तो उसकी सेवा कर। कौन मना करता है?’’
‘‘मालिक, आप जैसे कुलीन ही मेरे लिए भगवान् हैं। आपकी सेवा करके ही हमें पुण्य मिलता है।’’
उसकी बातें सुनकर मेरे हृदय से निकला, ‘‘हे भगवान्, तुम्हारे नाम से, तुम्हें संतुष्ट करने के लिए कैसा अन्याय, कैसा पाप हो रहा है?’’

यह लोगों की कैसी मूढ़ता है! संसार में ऐसी असह्य पद्धति भी है! भगवान को समर्पित करना ठीक है। सुना भी है, वह अपनी-अपनी भक्ति है। मगर ऐसा काम? इस तरह-ये लोग भगवान् की मनौती भरेंगे? भगवान् का दिव्य नाम लेकर ये लोग कैसा हीन कार्य कर रहे हैं, इनकी क्या गति होगी? यह लड़की सच ही गांव की मुग्ध युवती है। बुरी स्त्रियों के लक्षण और होते हैं, इसके लक्षण ही और हैं। लोगों की असह्य पद्धति पर इस

मुग्धा की बलि हुई है। इस कार्य से भगवान् की मनौती भरेगी, ऐसा इसका दृढ़ विश्वास है। हाय भगवान्! माता-पिता स्वयं अपने हाथ से बेटी का जीवन पाप से भर रहे हैं। उनका क्या होगा? इसकी क्या गति होगी? वह सोचते हैं कि उनकी मनौती से बेची बच गई। मगर, अब, उसके रोज के इस काम से उसके जीवन का आत्मरूप स्त्रीत्व ही मिट रहा है, इसे ये लोग कैसे समझेंगे? जब बच्ची थी तब एक क्षण में मरने की जगह, अब प्रतिदिन, हर क्षण थोड़ा-थोड़ा मर रही है, क्या यह जानती है? नहीं, यही तो आश्चर्य है। यह अपने काम को ठीक समझती है-भगवान् के लिए समर्पित काम। इस तरह जीवन बिताने से भगवान् की सेवा होगी-इस पर उसका दृढ़ विश्वास है। विवाहित स्त्री के लिए वह जिस कार्य को बुरा समझती है, उसी कृत्य को वह अपने जीवन का

धर्म समझकर उसका अनुसरण कर रही है। इसके लिए, इसके माता-पिता भी मदद करते हैं। बेचारे! वह भी क्या करें? वह भी अपनी जाति की पद्धति पर बलि चढ़ रहे हैं।

ऐसी ही दारुण चिंताओं से मेरी छाती जैसे फट गई थी, मैंने लंबी आह ली। चेन्नम्मा चुप बैठकर आंचल का कोर मरोड़ रही थी। मेरी आह सुनकर मेरी ओर मुड़कर उसने देखा। उसके चेहरे पर कुछ व्यथा प्रकट हो रही थी। अब तक कहीं शादी कर औरों की तरह खुद भी आराम से घर बसा सकती थी। सब कुछ छोड़कर यह मुग्धा अपनी असह्य पद्धति की बलि बन गई है- इस असहनीय वेदना से मेरी आंखों में आंसू भर आये।

‘‘चेन्नम्मा, तुम्हारे भाग्य देवता ही तुम्हारी रक्षा करें।’’ कहकर मैंने आंखें पोछ लीं। चेन्नम्मा, मेरे आंसू देखकर घबरा गई। वह मेरे पास सरक आई। मेरा दूर हटने का मन नहीं हुआ। वह मन से पापिष्ठ नहीं थी। अज्ञान के पाप के कारण उसकी देह पाप की भागी बनी थी। कमल दल पर जमे ओस की तरह चमकने वाले निर्मल आंसू के बिंदु की तरह, उसकी आत्मा परिशुद्ध थी। उसकी सरलता देखकर उस पर मुझे दया हो आई। उसे जैसे-जैसे देखता गया, उसके बारे में सोचता गया। मेरी आंखों में बार-बार आंसू छलके। अपने आंसुओं में उसकी कलुषित देह धोने की इच्छा हुई। मेरी देह और आत्मा उसके लिए अत्यंत स्नेहमय बन गई थी।

धीमे से उसका हाथ पकड़ा। मेरा शरीर थोड़ा कांपा। उसका हाथ वैसे ही पकड़, उसकी उंगलियां संवारकर धीमे से पुकारा, ‘‘चेन्नमा!’’ मैंने स्नेह और सहानुभूमि से जैसे ही उसका नाम लिया, वह मेरे पास आ गई और सिर झुकाकर बहुत कोमलता से, ‘‘क्या है मेरे भगवान्?’’ बोली। उसके चेहरे पर एक चिंता या व्यथा दिख रही थी। मैंने उसका चेहरा देखकर पूछा, ‘‘देख चेन्नमा, तुमने कहा तो कि मैं तेरा भगवान् हूं।’’
‘‘हां मालिक, आप मेरे भगवान् हैं।’’
‘‘तब तुम्हें मेरी बात माननी होगी।’’
‘‘मैं दासी हूं, कहिये मेरे भगवान्!’’
‘‘तुम आगे से यह पाप कर्म नहीं करोगी, समझी?’’
‘‘फिर भगवान् की मनौती?’’
‘‘हाय, वह मनौती पूरी हो गई। आज तुमने मुझे अपना भगवान् कहा। इससे पहले तुमने किसी दूसरे की सेवा नहीं की, बोली!’’
चेन्नम्मा बोली, ‘‘नहीं।’’ सिर झुका लिया।

‘‘देखो, इससे पहले तुमने कइयों की सेवा की है। आज मुझे भगवान् कहकर मेरी सेवा करने आई हो। कहीं जूठन दूसरों को दी जाती है? भगवान् इस जूठन की मनौती नहीं लेगा। चेन्ना, तुम नहीं जानती। यह काम पापों से भरा है। अगर जानती तो कभी इस तरह का काम नहीं करती। सोचकर देखो, तुममें और वेश्या में अंतर क्या है? उसके लिए वह जीवन है? तुम्हारे जीने के लिए साधन है, किंतु पाप वहीं है। भगवान् को यह पाप कभी अच्छा नहीं लगेगा।’’

चेन्नम्मा चुपचाप सब सुनती रही। पहले की चिंता और व्यथा के चिह्न उसके चेहरे पर कहीं न रहे। धीरे-धीरे उसका चेहरा फीका पड़ गया। शरीर झुक गया, आंखें जमीन देखने लगीं। धीमे से उसका हाथ हिलाकर पुकारा, ‘‘चेन्ना!’’ सिर उठाकर उसने मेरी ओर देखा। उसकी उन आंखों में राह भूले बच्चे जैसी असहाय छाया थी। उसे शायद मेरी बात सही लगी।

चेन्नम्मा ने मुंह ने खोला। फिर सिर झुका लिया। मेरे सामने ही उसके गाल पर दो बूंद आंसू एक साथ लुढ़क पड़े। वही उसका मौन उत्तर था। उसकी शुभ आत्मा पर फैले अज्ञान के परदे को हटाना मेरे जिम्मे था। किसी साध्य पर पहुंचने के लिए एक रात चलकर, आगे बढ़ते-बढ़ते गंतव्य के समीप पहुंचे और इस तरह बहुत दूर चलने के बाद कोई रास्ते में मिले, कहे कि गंतव्य का यह मार्ग नहीं, इस रास्ते पर जितना भी आगे बढ़ोगे, गंतव्य उतना ही दूर होता जायेगा, तब क्या होगा? मैंने अपनी बातों से चेन्नम्मा के मन में कुछ इसी तरह की भावना उगाई थी।

चेन्नम्मा बहुत रोई। मैंने उसको सांत्वना देकर कहा, ‘‘देख चेन्ना, तुम्हारे प्रति क्रोध या बुरा भाव कुछ मेरे मन में नहीं है। तुम मुझसे गुस्सा हो?’’
बहुत व्यथा भरी आवाज में चेन्नम्मा बोली, ‘‘नहीं, मेरे भगवान्!’’
‘‘नहीं, तुम मुझसे नाराज हो?’’

‘‘हाय मेरे भगवान्! ऐसा न कहिये। आपको देखकर, मेरे मालिक, पांव तले गिरने की इच्छा होती है।’’ कहकर उसने मेरे पांव पकड़ कर, उसे अपने माथे से लगाने वाली थी, लेकिन मैंने उसे वह करने न दिया। उसे उठाकर बैठाया, ‘‘ठीक है, देखो, मेरे हाथ पर अपना हाथ धरकर सौगंध खाओ कि आगे से यह काम छोड़ दोगी।’’

चेन्नम्मा ने मेरी छाती पर हाथ रखा। उसकी मुग्ध व्यथित दृष्टि मेरी आंखों से हृदय में उतर गयी, व्यथित दृष्टि, व्यथित ध्वनि। कांपकर धीमे से कहा, ‘‘भगवान्, आगे यह काम नहीं करूंगी।’’
मुझे लगा, छाती से एक बड़ा बोझ उतर गया, मैंने लंबी आह भरी।

रात बहुत हो चुकी थी। तो भी नहीं लगा कि अब नींद आयेगी। मन में शांति फैलने लगी। चेन्नम्मा ने एक बार जम्हाई ली। मैंने उसी को बहाना बनाया, ‘‘चेन्ना, तुम अब जाकर सो जाओ।’’ मैं उठा। वह भी उठी। दरवाजे तक उसके साथ जाकर मैंने ही दरवाजा खोला। दरवाजे पर फिर उसका हाथ पकड़ा और उसे अपनी ओर मोड़कर बोला, ‘‘चेन्ना, भगवान् की कसम, मुझे तुम पर गुस्सा नहीं है।’’ अपने दोनों हाथों से उसका मुख उठाया और माथे पर एक बार चूम लिया। चेन्नम्मा चली गई।

अचानक आंखें खुलीं। देखा तो सामने करियप्पा थे। उन्होंने ही आवाज देकर मुझे जगाया था। वह अंदर कैसे आये, यह पता नहीं चला? लगा रात में दरवाजे की चिटकनी लगाना मैं भूल गया था।
‘‘क्या है करियप्पा जी?’’ आंख मलकर उठा।

‘‘क्या कहूं, हाय मेरी मुन्नी, मेरी चेन्ना!’’ बात पूरी न हुई करियप्पा जी की ओर जमीन पर गिरकर रोने लगे। किसी अप्रकट भय से मेरी छाती फटने लगी, खून फूटने-सा लगा। तब तक कोई और आया, ‘‘मालिक, चेन्नम्मा बाग के कुंए में गिरकर...’’

मेरा जी तड़पने लगा। बिस्तर से उठकर पागल की तरह बाग के कुएं की ओर भागा। कुएं के पास दस-बारह लोग झुंड बनाकर खड़े थे। एक झूठी इच्छा थी कि शायद अभी भी जिंदा हो। रात में ही वह जाकर गिरी होगी। पास जाकर खड़ा हुआ। सभी ने राह दी। देखा, हाय भगवान, कैसा दृश्य था? हृदय का खून आंखों में उतर आया। आंखों पर अंधेरा छाने लगा।

मुझे उतना ही याद है। फिर जब जागा तो वहां खड़े लोगों में से एक-दो लोग मेरे मुख और सिर पर ठंडा पानी डाल रहे थे। मेरी नाक से खून बह रहा था। किसी की ओर मेरा ध्यान नहीं था। शव के पास जाकर बहुत आशा से प्राणों के चिह्न ढूंढ़ने की कोशिश की। लेकिन वह मेरा भ्रम था। उसकी देह से वह अमल हिमकण कभी का उड़ चुका था। पुण्य पाप से दूर हो गया था। अमृत सूख गया था, विष शेष था।
अब और बहुत देर वहां रुक न सका। धीरे-धीरे घर की ओर लौट आया।
उसी दिन शाम को मैं उस गांव से निकल पड़ा। जाने से पहले चेन्नम्मा का फोटो मैं उनके घर छोड़ दिया। ऐसी लड़की को खोने के बाद, उन्हें वह तस्वीर शांति देगी?

रास्ते भर चिंता। पुलिस ने तो आत्महत्या रिकार्ड कर दिया, किंतु वास्तव में मैंने ही उसकी हत्या की थी, किसी तरह यह भावना मुझसे अलग होने वाली न थी। उसने जीने से मौत को बेहतर समझा होगा। मैंने जब उसे अपने कमरे से वापस भेजा, तब शायद उसका हृदय मृत्यु से भरा हुआ था। यह सोचते ही मुझे लगता, जैसे मेरी छाती पर गरम सीसा डाल दिया गया हो। उस समय यदि मैंने उसे बाहर न भेजा होता तो उसका मरने का निर्णय बदल सकता था। शायद वह जिंदा रहती, उसके मन में प्राण खोने की भावना मैंने ही पैदा की, इसमें जरा भी संदेह नहीं। मेरा क्या अधिकार था? उसके धर्म-अधर्म की तुलना करने वाला मैं कौन था? मेरी हर बात शायद उसे कुएं तक खींच ले गई थी। उसके बाद उसे कुएं में मेरी बातों ने ही धकेला-मैं ही, हाय, मैंने अपने हाथों उसकी हत्या की थी, भगवान् के सामने कभी मुझे इसका जवाब देना पड़ता। तब मैं क्या कहूंगा?’’
अंतहीन विचार-विचार...!
कल गांव पहुंचता हूं। यह सारी कहानी सुनकर लक्ष्मी क्या कहेगी, पता नहीं?

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