मैं अहम हूं : मंगला रामचंद्रन

Main Ahm Hoon : Mangala Ramachandran

इंदु की बातें और उस के घर के ठाटबाट देख कर शशि को कमतरी का एहसास होने लगा था। सुखसुविधाओं और ऐशोआराम के लिए उस ने भी नौकरी कर ली…

शशि ने बबलू की ओर देखा। उस का चेहरा कितना भोला मालूम होता है। बहुत ही प्यारा बच्चा है। हर मांबाप को अपने बच्चे प्यारे ही लगते हैं। बबलू गोराचिट्टा बच्चा था, जिस को देख कर सभी का उसे प्यार करने को मन होता। फिर शशि तो उस की मां थी। सारे दिन उस की शरारतें देख कर खुश होती। बबलू को पा कर तो उसे ऐसा लगता कि बस, अब और कुछ नहीं चाहिए। बबलू से बड़ी 7-8 साल की बेटी नीलू भी कम प्यारी नहीं थी। दोनों बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहने वाली शशि उन के प्रति लापरवाह कैसे हो गई?

आज तो हद हो गई। सुबह जब वह आटो पर बैठने लगी तो बबलू उस के पांवों से लिपट गया। प्यार से मनाने पर नहीं माना तो शशि ने उसे डांटा। देर तो हो ही रही थी, उस ने आव देखा न ताव, उस के गाल पर एक चांटा जड़ दिया। चांटा कुछ जोर से पड़ गया था, उंगलियों के निशान गाल पर उभर आए थे। उस के रोने की आवाज सुन कर उस के दादाजी बाहर आ गए और बबलू को गोद में ले कर मनाने लगे। सास ने जो आंखें तरेर कर शशि की ओर देखा तो वह सहम गई। आटो में बैठते हुए ससुरजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘जब करते नहीं बनता तो क्यों करती है नौकरी। यहां क्या खाने के लाले पड़ रहे हैं?’’

स्कूल में उस दिन किसी काम में मन नहीं लगा। इच्छा तो हो रही थी छुट्टी ले कर घर जाए पर अभी नौकरी लगे दोढाई महीने ही हुए थे। प्रधान अध्यापिका वैसे भी कहती रहती थीं, ‘‘भई, नौकरी तो बच्चों वाली को करनी ही नहीं चाहिए। रहेंगी स्कूल में और ध्यान रहेगा पप्पू, लल्ली में,’’ यह कह कर वे एक तिरस्कारपूर्ण हंसी हंसतीं। वे खुद 45 वर्ष की आयु में भी कुंआरी थीं। स्कूल का समय समाप्त होते ही शशि आटो के लिए ऐसे दौड़ी कि सामने से आती हुई प्रधान अध्यापिका व अन्य 2 अध्यापिकाओं को अभिवादन करना तक भूल गई। आटो में आ कर बैठने के बाद उसे इस बात का खयाल आया। दोनों अध्यापिकाओं की प्रधान अध्यापिका के साथ बनती भी अच्छी थी, और वे उस से वरिष्ठ भी थीं। खैर, जो भी हुआ अब क्या हो सकता था।
आटो वाले से उतावलापन दिखाते हुए कहा, ‘‘जल्दी चलो।’’
कुछ दूर जा कर आटो वाले ने पूछा, ‘‘साहब क्या करते हैं?’’
‘‘बहुत बड़े वकील हैं,’’ शशि ने सगर्व कहा।

आटो वाले ने मुंह से कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक हलकी सी मुसकान के साथ पीछे मुड़ कर उसे देख लिया। उस की इस मुसकान से उसे सुबह की घटना फिर याद आ गई। जैसेजैसे घर करीब आता गया, शशि का संकोच बढ़ता गया। सासससुर से कैसे आंख मिलाए। सुबह तो पति अजय घर पर नहीं थे, पर अब अजय को भी मालूम हो गया होगा। बच्चों को वे कितना चाहते हैं। जहां तक हो सके वे प्यार से ही उन्हें समझाते हैं। बच्चे भी अपने पिता से बहुत हिलेमिले थे। घर के आगे आटो रुका। बबलू रोज की तरह दौड़ कर नहीं आया। नीलू भी सिर्फ एक बार झांक कर भीतर चली गई। अंदर जा कर उस ने धीरे से बबलू को आवाज दी। वह दूर से ही बोला, ‘‘अम नहीं आते। आप मालती हैं। आप से अमाली कुट्टी हो गई।’’

शशि वैसे ही बिस्तर पर पड़ गई। रोतेरोते उस के सिर में दर्द होने लगा। वह चुपचाप वैसे ही आंख बंद किए पड़ी रही। किसी ने बत्ती जलाई। सास ही थीं। उस के करीब आ कर बोलीं, ‘‘चलो बहू, हाथमुंह धो कर कुछ खापी लो।’’ सास की हमदर्दी अच्छी भी लगी और साथ ही शर्म भी आई। रात का खानपीना खत्म हुआ तो सब बिस्तर पर चले गए थे। अजय खाना खा कर दूसरे कमरे में चला गया, जरूरी केस देखने। शशि को उन का बाहर जाना भी उस दिन राहत ही दे रहा था। बबलू करवट बदलते हुए नींद में कुछ बड़बड़ाया। शशि ने उस को चादर ओढ़ाई, फिर नीलू की ओर देखा। आज नीलू भी उस से घर आने के बाद ज्यादा बोली नहीं। और दिनों तो स्कूल की छोटी से छोटी बात बताती, तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती। साथ में खाना खाने की जिद करती। फिर सोते समय जब तक एकाध कहानी न सुन ले, उसे नींद न आती। पर आज शशि को लग रहा था, मानो बच्चे पराए, उस से दूर हो रहे थे। ढाई साल के बच्चे में अपनापराया की क्या समझ हो सकती है। वह तो मां को ही सबकुछ समझता है। मां भी तो उस से बिछुड़ कर कहां रहना चाहती है।
वह दिन भी कितना बुरा था जब वह पहली बार इंदु से मिली थी, शशि सोचने लगी…

कैसी सजीधजी थी इंदु, बातबात पर उस का हंसना। शशि को उस दिन वह जीवन से परिपूर्ण, एकदम जीवंत लगी। अजय और मनोज साथ ही पढ़े थे। आजकल मनोज उसी शहर में ला कालेज में लैक्चरार से तरक्की पा कर प्रोफैसर बन गया था। उस दिन रास्ते में जो मुलाकात हुई तो मनोज ने अजय व शशि को अपने घर आने का निमंत्रण दिया। वहां जाने पर शशि भौचक्की सी रह गई। ड्राइंगरूम था या कोई म्यूजियम। महंगी क्रौकरी में नाश्ता आया। अच्छी नईनई डिशेज। शशि तो नाश्ते के दौरान कुछ अधिक न बोली, पर इंदु चहकती रही। शायद भौतिक सुख से परिपूर्ण होने पर आदमी वाचाल हो जाता है। इंदु किसी काम से अंदर चली गई। अजय और मनोज बीते दिनों की यादों में खोए हुए थे। शशि सोचने लगी, उस का पति भी वकालत में इतना तो कमा ही लेता है जिस से आराम से रहा जा सके। खानेपहनने को है, बच्चों को घीदूध की कमी नहीं। बचत भी ठीक है। सुखशांति से भरापूरा परिवार है। पर मनोज के यहां की रौनक देख कर उसे अपना रहनसहन बड़ा तुच्छ लगा।

इंदु की आवाज से शशि इतनी बुरी तरह चौंकी कि अजय और मनोज दोनों उस की ओर देखने लगे। मनोज ने कहा, ‘शायद भाभी को घर में छोड़े हुए बच्चों की याद आ रही है। भाभी, इतना मोह भी ठीक नहीं। अब देखिए, हमारी श्रीमतीजी को, लेदे के एक तो लाल है, सो उस को भी छात्रावास में भेज दिया। मुश्किल से 8-10 साल का है। कहती हैं, ‘वहां शुरू से रहेगा तो तहजीब सीख लेगा।’ भाभी, आप ही बताइए, क्या घर पर बच्चे शिष्टाचार नहीं सीखते हैं?’ मनोज शायद आगे भी कुछ कहता पर इंदु शशि का हाथ पकड़ कर यह कहते हुए अंदर ले गई, ‘अजी, इन की तो यह आदत है। कोई भी आए तो शुरू हो जाते हैं। भई, हम को तो ऐसी भावुकता पसंद नहीं। आदमी को व्यावहारिक होना चाहिए।’

उस के व्यावहारिक होने का थोड़ा अंदाजा तो बाहर से ही मिल रहा था। जब अंदर जा कर देखा तो एलईडी टैलीविजन, कंप्यूटर, चमचमाता महंगा फर्नीचर ओह, क्याक्या गिनाए। शशि की हैरानी को इंदुशायद भांप गई थी। बड़े गर्व से, गर्व के बजाय घमंड कहना ही उचित होगा, बोली, ‘यह सब मेरी मेहनत का फल है। यदि विकी को छात्रावास में न रखती तो इतने आराम से नौकरी थोड़े ही की जा सकती थी। उस को देखने के लिए आया, नौकर रखो, फिर उन नौकरों की निगरानी करो, अच्छा सिरदर्द ही समझो। अब मुझे कोई फिक्र नहीं। हर महीने 70 हजार रुपए कमा लेती हूं। काम भी अच्छा ही है। एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंसल्टैंट के तौर पर काम करती हूं। जरा ढंग से संवर के रहना, लोगों से मिलना और मुसकान बिखेरते रहना। संवर के रहना किस औरत को अच्छा नहीं लगेगा। अरे, मैं तो बोले ही जा रही हूं। आप भी कहेंगी, अच्छी मिली। आइए, मैं आप को पूरा घर दिखाऊं।’

शयनकक्ष तो बिलकुल फिल्मी था। बढि़या सुंदर डबलबैड और उस पर बिछी चादर इतनी सुंदर कि हाय, शशि कल्पना में अपनेआप को उस पर अजय के साथ देखने लगी। सिर को झटक कर उस विचार को तुरंत निकाल देने की कोशिश की। बाहर के कमरे में आने पर अजय बोला, ‘चलो शशि, क्या यहीं रहने का इरादा है?’

इंदु ने अजय से कहा, ‘आप इन्हें कभीकभी यहां ले आया करिए। इन का मन भी बहला करेगा। आप को समय न हो तो मनोज को फोन कर दिया कीजिए, हम खुद ही इन्हें ले आएंगे।’ शशि की इच्छा तो हुई कि कहे, जब आप लेने आएंगी तो वहीं, मेरे घर पर बातचीत हो सकती है। पर उस का मन इतना भारी हो रहा था कि लग रहा था कि अगर एक बोल भी मुंह से निकला तो वह रो देगी। वह समझ रही थी कि इंदु सिर्फ अपने धन का दिखावा भर दिखाना चाहती थी। घर लौटते हुए आधे रास्ते तक दोनों चुप रहे। फिर अजय एकदम बोला, ‘मनोज की पत्नी भी खूब है।’ वह आगे कुछ बोले, इस से पहले शशि ने टोक दिया, ‘हां, मुझ जैसी बेवकूफ थोड़ी है।’

उस की आवाज रोंआसी थी। अजय ने आश्चर्य से उस की ओर देखा और प्यार से बोला, ‘शशि, कैसी बेवकूफों सी बातें करती हो?’ फिर उस ने एकदम दांतों तले जीभ दबा ली। यह वह अनजाने में क्या बोल गया, मानो शशि की कही हुई बात का समर्थन कर दिया हो। एकदम बात बदलते हुए बोला, ‘बहुत देर हो गई, बच्चे शायद सो भी गए होंगे।’ पर शशि की आग्नेय दृष्टि देख कर फिर वह रास्ते भर चुप ही रहा।

घर पहुंचने पर शशि सिरदर्द का बहाना कर के बिना कुछ खाएपिए लेट गई। पर रातभर उसे इंदु के बैडरूम के ही सपने आते रहे। इंदु की अलमारी में सजी साडि़योें की इंद्रधनुषी छटा रहरह कर आंखों के सामने नाच रही थी। ओह, कितनी साडि़यां, रोज एकएक पहने तो साल में उसे 3 या 4 बार से अधिक पहनने का मौका न आए। अब तो उन की दूसरी कार भी आने को है। वैसे तो कई लोगों के अच्छे व बड़े घर, कार सब देख चुकी है। खुद उस के भाईसाहब के पास कार है पर वे बहुत बड़े इंजीनियर हैं। अपने पति की बराबरी में तो जो भी हैं, सब का रहनसहन करीबकरीब एकसा ही है। शशि ने यह नहीं सोचा था कि उस की बेचैनी एक दिन उसे नौकरी करने पर मजबूर कर देगी। आवेदन देने के पहले कई दिन तक ऊहापेह में पड़ी रही। ढाई साल का बबलू, उसे कौन संभालेगा? सासूमां बूढ़ी हैं। अजय से जब राय मांगी तो उन्होंने भी यही कहा, ‘भई, परिस्थितिवश नौकरी करना बुरी बात नहीं, पर तुम्हें नौकरी की क्या जरूरत पड़ गई? कम से कम बबलू ही कुछ बड़ा हो कर स्कूल जाने लगे तो ठीक है। फिर आगे तुम्हारी इच्छा।’

सासससुर ने भी कहा, ‘बहू, बबलू को तो हम संभाल लेंगे। हमारा और है ही कौन। पर तुम्हारा शरीर भी तो दोनों भार को सहन कर सके तब न। जो भी करो, सोचसमझ कर करो।’’ पर उस के सिर पर तो जैसे जनून सवार था। 6-7 दिन तक तो स्कूल में बबलू की खूब याद आती थी, फिर ठीक लगने लगा। पर रोज स्कूल से लौट कर जब घर में कदम रखती तो घर की कुछ अव्यवस्थता मन को खटकती। एक दिन जब वह स्कूल से लौटी तो घर में कोई मेहमान आए हुए थे। कामवाली घर पर नहीं थी तो नीलू उन को पानी दे रही थी। नीलू को देखते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर आ पहुंचा। बाल बिखरे हुए, फ्रौक की तुरपन उधड़ी हुई, हाथ में पेंटिंग कलर लगे हुए थे, अजीब हाल बना रखा था। नीलू को बगल से पकड़ कर खींचते हुए वह अंदर ले गई। उस का तमतमाता चेहरा देख कर वहां का वातावरण एकदम बोझिल हो गया। नीलू सुबकती हुई एक कोने में खड़ी हो गई। उस समय शशि को अपनी गलती का खयाल नहीं आया, बल्कि उसे सब पर गुस्सा आया कि सब उस से खार खाए बैठे हैं और जानबूझ कर उस का अपमान करना चाहते हैं। पर आज लगता है, वास्तव में उस ने अपनी नौकरी के आगे बाकी हर बात को गौण समझ लिया। पहले वह अजय के मोजे, रूमाल देख कर रख दिया करती थी, उस के कपड़ों पर प्रैस, बटन आदि का भी ध्यान रखती थी। दोपहर के समय बच्चों के पुराने कपड़ों को बड़ा करना, मरम्मत करना आदि काफी कुछ काम कर लेती थी। अब तो अजय अपने हाथ से बटन लगाना आदि छोटीमोटी मरम्मत कर लेता है, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता। बबलू भी इन 2 ही महीनों में कुछ दुबला हो गया है। दादी दूध दे सकती हैं, खिला सकती हैं, प्यार भी बहुत करती हैं, पर मां की ममता व आरंभिक शिक्षा और कोई थोड़े ही दे सकता है।

फिर उस के कमाने से क्या फायदा हुआ, सिवा इस के कि घर का खर्चा पहले से बढ़ गया। सब कपड़े धोबी को जाने लगे और कपड़ों का नुकसान भी ज्यादा होने लगा। अब महरी को भी काम बढ़ जाने से ज्यादा पैसे देने पड़ते थे। आटो का खर्च अलग, इस प्रकार मासिक खर्च बढ़ ही गया। इस के अलावा घर और बच्चे अव्यवस्थित हो गए सो अलग। सास बेचारी दिनभर काम में पिसती रहती। और जब नहीं कर पाती तो बड़बड़ाती रहती। इन्हीं 2 महीनों में घर की शांति भंग हो गई। जिस पर उस ने जो कल्पना की थी कि अपनी तनख्वाह से घर की सजावट के लिए कुछ खरीदेगी, उसे कार्यरूप से परिणत करना कितना मुश्किल है, यह उसे तुरंत पता लग गया। उसे कुछ कहने में ही झिझक हो रही थी। कहीं अजय यह न समझ ले कि उस ने सिर्फ इन दिखावे की चीजों के लिए ही नौकरी की है। अजय के मन में हीनभावना भी आ सकती है। पर यह सब उसे पहले क्यों नहीं सूझा? खैर, अब तो सुध आई। ‘बाज आई ऐसी नौकरी से,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘बच्चे जरा बड़े हो जाएं तो देखा जाएगा।’

अगले दिन उस ने अजय के चपरासी के हाथों एक महीने का नोटिस देते हुए अपना त्यागपत्र तथा एक दिन के आकस्मिक अवकाश की अरजी भेज दी। अजय ने यही समझा कि शायद तबीयत खराब होने से 1-2 दिन की छुट्टी ले रखी है। बादल उमड़घुमड़ रहे थे और बारिश की हलकीहलकी बूंदें भी पड़नी शुरू हो चुकी थीं। बहुत दिनों बाद उस रात को दोनों चहलकदमी को निकले। अजय ने पूछा, ‘‘क्यों, अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हो गया, तुम ने कितने दिन की छुट्टी ले ली है?’’

शशि बोली, ‘‘हमेशा के लिए।’’ अजय परेशान सा उस की ओर देखने लगा, ‘‘सच, शशि, सच, अब तुम नहीं जाओगी स्कूल? चलो, अब कमीजपैंट में बटन नहीं टांकने पड़ेंगे। धोबी को डांटने का काम भी अब तुम संभाल लोगी। हां, अब रात को थके होने का बहाना भी नहीं कर सकतीं। पर यह तो बताओ, नौकरी छोड़ क्यों दी?’’

शशि उस के उतावलेपन को देख कर हंसते हुए मजा ले रही थी। उसे पति पर दया भी आई, बोली, ‘‘हां, मुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी, जनाब दरजी तो बन ही जाते। अजीब आदमी हो, कम से कम एक बार तो मुंह से कहा होता कि शशि, तुम्हारे स्कूल जाने से मुझे कितनी परेशानी होती है।’’ डियर, हम तो शुरू से कहना चाहते थे, पर हमारी बात आप को तब जंचती थोडे़ ही। हम ने भी सोचा कर लेने दो थोड़े मन की, अपनेआप सब हाल सामने आएगा तो जान जाएगी। पर यह उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी जल्दी नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाओगी। खैर, तुम ने अपनी परिस्थिति पहचान ली तो सब ठीक है,’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘हां, शशि सद्गृहिणी बनना कितना कठिन है। तुम जब अपने इस दायित्व को अच्छे से निभाती हो तो मुझे कितना गर्व होता है, मालूम है? यह मत सोचो कि मैं तुम्हें घर से बांधने की कोशिश कर रहा हूं। मेरी ओर से पूरी छूट है, तुम पढ़ोलिखो, कुछ नया सीखो, पर अपने दायित्व को समझ कर।’’

फिर कुछ दूर दोनों मौन चलते रहे। अजय को लग रहा था कि शशि कुछ पूछना चाह रही है, पर हिचक रही है। 2-3 बार उस ने शशि की ओर देखा, मानोे हिम्मत बंधा रहा हो। ‘‘इंदु को देख कर आप को यह नहीं लगता कि वह कितनी लायक औरत है, उस ने अपना घर कैसे सजा लिया है। तब आप को मुझ में कमी नहीं लगती?’’ आखिर शशि ने पूछ ही लिया। अजय इतना खुल कर हंसे कि राह के इक्कादुक्का लोग भी मुड़ कर उन की ओर देखने लगे। आखिर हंसने का यह कैसा और कौन सा मौका है, शशि समझ न पाई। जब उन की हंसी रुकी तो बोले, ‘‘तुम को क्या लगता है कि मनोज बहुत खुश है। वह क्या कह रहा था मालूम है? ‘यार, जबान का स्वाद ही चला गया। मनपसंद चीजें खाए अरसा हो गया। श्रीमतीजी दफ्तर से आ कर परांठे सेंक देती हैं, बस। इतवार के दिन वे छुट्टी के मूड में रहती हैं। देर से उठना, आराम से नहानाधोना, फिर होटल में खाना, पिक्चर, बस। यार, तू बड़ा सुखी है। यहां तो हर महीने मांबाप को रुपए भेजने पर टोका जाता है। आखिर मांबाप के प्रति कुछ फर्ज भी तो है कि नहीं?

‘‘और सुनोगी? उस दिन हमारे बच्चों को देख कर बोला, ‘यार, तुम्हारे बच्चे कितने सलीके से रहते हैं। इच्छा तो होती है कि इंदु को बताऊं कि देखो, इन बच्चों को शिष्टचार की कोई सीख कौन्वैंट या पब्लिक स्कूल से नहीं, बल्कि मां के सिखाने से मिली है।’

‘‘मैं ने यह सुन कर कैसा अनुभव किया होगा, तुम अनुमान लगा सकती हो, यही तुम्हारी जीत थी, और तुम्हारी जीत यानी मेरी जीत। इंदु की आधी तनख्वाह तो अपनी साडि़यों, मेकअप, होटल और सैरसपाटे में खर्च हो जाती है। बेटे को छात्रावास में रखने का खर्च अलग। उस में अहं की भावना है, और ‘मेरे’ की भावना से ग्रस्त वह यही समझती है कि उस के नौकरी करने से ही घर में इतनी चीजें आई हैं। जहां यह ‘मेरे’ की भावना आई, घर की सुखशांति नष्ट समझो।’’ कुछ रुक कर अजय बोले, ‘‘चलो, शशि, अब घर चलें, काफी दूर निकल आए हैं,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘आज के बाद रात को थकान का बहाना न चलेगा।’’
शशि को गुदगुदी सी हुई और बहुत दिनों बाद उस के मन में बसी बेचैनी दूर जाती लगी।

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