खुद फ़रेब (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Khud Fareb (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

हम न्यू पैरिस स्टोर के प्राईवेट कमरे में बैठे थे। बाहर टेलीफ़ोन की घंटी बजी तो इस का मालिक ग़यास उठ कर दौड़ा। मेरे साथ मसऊद बैठा था इस से कुछ दूर हट कर जलील दाँतों से अपनी छोटी छोटी उंगलीयों के नाख़ुन काट रहा था उस के कान बड़े ग़ौर से ग़यास की बातें सुन रहे थे वो टेलीफ़ोन पर किसी से कह रहा था।
“तुम झूट बोलती हो....... अच्छा ख़ैर आज देख लेंगे....... तो ये क्या कहा, तुम्हारे लिए तो हमारी जान हाज़िर है....... अच्छा तो ठीक पाँच बजे....... ख़ुदा हाफ़िज़....... क्या कहा?....... भई कह तो दिया कि तुम्हें मिल जाएगी....... ”
जलील ने मेरी तरफ़ देखा। “मंटो साहब ऐश करता है ये ग़यास!”
मैं जवाब में मुस्कुरा दिया।
जलील उंगलीयों के नाख़ुन अब तेज़ी से काटने लगा। “कई लड़कियों के साथ उस का टांका मिला हुआ है....... मैं तो सोचता हूँ एक स्टोर खोल लूं....... लेडीज़ स्टोर....... ख़्वाह-मख़्वाह प्रैस के चक्कर में पड़ा हूँ....... औरत का साया तक भी वहां नहीं आता। सारा दिन गड़गड़ाहटें सुनो। उल्लो के पट्ठे क़िस्म के ग्राहकों से मग़्ज़ मारी करो....... ये ज़िंदगी है?”
मैं फिर मुस्कुरा दिया। इतने में ग़यास आगया। जलील ने ज़ोर से उस के चूतड़ों पर धप्पा मारा और कहा। “सुनाईए, कौन थी ये जिस के लिए तू अपनी जान हाज़िर कर रहा था।”
ग़यास बैठ गया और कहने लगा। “मंटो साहब के सामने ऐसी बातें न किया करो।”
जलील ने अपनी ऐनक के मोटे शीशों में से घूर कर ग़यास की तरफ़ देखा और कहा। “मंटो साहब को सब मालूम है....... तुम बताओ कौन थी?”
ग़यास ने अपनी नीले शीशे वाली ऐनक उतार कर उस की कमानी ठीक करनी शुरू की। “एक नई है....... परसों आई थी, टेलीफ़ोन करने....... किसी से हंस हंस के बातें कर रही थी। फ़ोन कर चुकी तो मैं ने उस से कहा, जनाब फ़ीस अदा कीजीए। ये सुन कर मुस्किरने लगी। पर्स में हाथ डालकर उस ने दस रुपय का नोट निकाला और कहा। “हाज़िर है....... ” मैंने कहा “शुक्रिया....... आप का मुस्कुरा देना ही काफ़ी है....... बस दोस्ती होगई। एक घंटे तक यहां बैठी रही, जाते हुए दस रूमाल ले गई।”
मसऊद जो बिलकुल ख़ामोश था ग़ालिबन अपनी बेकारी के मुतअल्लिक़ सोच रहा था। उठा। “बकवास है....... महज़ ख़ुद फ़रेबी है” ये कह कर उस ने मुझे सलाम किया और चला गया।
ग़यास अपनी बातों से बहुत ख़ुश था। मसऊद जब यक-लख़्त बोला तो उस का चेहरा किसी क़दर मुरझा गया। जलील थोड़ी देर के बाद ग़यास से मुख़ातब हुआ। “क्या मांग रही थी?”
ग़यास चौंका “क्या कहा?”
जलील ने फिर पूछा। “क्या मांग रही थी?”
ग़यास ने कुछ तवक्कुफ़ के बाद कहा “मैडन फ़ोर्म बिरिसटर”
जलील की आँखें ऐनक के मोटे शीशों के अक़ब से चमकीं।
“साइज़ क्या है।”
ग़यास ने जवाब दिया “थर्टी फ़ौर!”
जलील मुझ से मुख़ातब हुआ “मंटो साहब ये क्या बात है अंगया देखते ही मेरे अंदर हैजान सा पैदा हो जाता है।”
मैंने मुस्कुरा कर उस से कहा “आप की क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला बहुत तेज़ है।”
जलील कुछ न समझा और न वो समझना चाहता था। उस के दिमाग़ में खुदबुद हो रही थी वो उस लड़की के मुतअल्लिक़ बातें करना चाहता था जिस के साथ ग़यास ने टेलीफ़ोन पर बातें की थीं। चुनांचे मेरा जवाब सुन कर उस ने ग़यास से कहा। “यार हम से भी तो मिलाओ उसे”
ग़यास ने कमानी ठीक करके ऐनक लगाई “कभी यहां आएगी तो मिल लेना” “कुछ नहीं यार तुम हमेशा यही गच्चा देते रहते हो....... पिछले दिनों जब वो यहां आई थी....... क्या नाम था उस का?....... जमीला....... मैंने आगे बढ़ कर उस से बात करनी चाही तो तुम ने हाथ जोड़ कर मुझे मना कर दिया....... मैं उसे खा तो न जाता” ये कह कर जमील ने ऐनक के मोटे शीशों के पीछे अपनी आँखें सिकोड़ लीं।
जलील और ग़यास दोनों में बचपना था। दोनों हरवक़्त लड़कियों के मुतअल्लिक़ सोचते रहते थे, ख़ूबसूरत, मोटी, दुबली, भद्दी लड़कियों के मुताल्लिक़....... टांगे में बैठी हुई लड़कियों के मुताल्लिक़। पैदल चलती और साईकल सवार लड़कियों के मुतअल्लिक़। जलील इस मुआमले में ग़यास से बाज़ी ले गया था। दफ़्तर से किसी ज़रूरी काम पर मोटर में निकलता, रास्ते में कोई टांगे में बैठी या मोटर में सवार लड़की नज़र आजाती तो उस के पीछे अपनी मोटर लगा देता। ये उस का महबूब तरीन शगल था लेकिन उस ने कभी बदतमीज़ी न की थी। छेड़छाड़ से उसे डर लगता था। जहां तक गुफ़तार का तअल्लुक़ है उसे ग़ाज़ी कहना चाहिए। बड़े बड़े मज़बूत क़िले सर कर चुका था।
प्राईवेट कमरे में जब बाहर स्टोर से कोई निसवानी आवाज़ आती तो ग़यास उछल पड़ता और पर्दा हटा कर एक दम बाहर निकल जाता। मर्द ग्राहकों से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी इन से उस का मुलाज़िम निबटता था।
दोनों अपने काम में होशयार थे। स्टोर किस तरह चलाये जाता है उस को क्यों कर मक़बूल बनाया जाता है, इस का ग़यास को बड़ा अच्छा सलीक़ा था इसी तरह जलील को प्रैस के तमाम शोबों पर कामिल उबूर था लेकिन फ़ुर्सत के औक़ात में वो सिर्फ़ लड़कियों के मुतअल्लिक़ सोचते थे। ख़्याली और असली लड़कियों के मुतअल्लिक़।
स्टोर में किसी दिन जब कोई भी लड़की न आती तो ग़यास उदास हो जाता। ये उदासी वो जलील से टेलीफ़ोन पर उन लड़कियों के मुतअल्लिक़ बातें करके दूर करता जो बक़ौल उसके जाल में फंसी हुई थीं। जलील उसे अपने मार्के सुनाता। दोनों कुछ देर बातें करते। स्टोर में कोई गाहक आता या उधर प्रैस में किसी को जलील की ज़रूरत होती तो ये दिलचस्प सिलसिल-ए-गुफ़्तुगू मुनक़ते हो जाता।
इस लिहाज़ से न्यू पैरिस स्टोर बड़ी दिलचस्प जगह थी। जलील दिन में दो तीन मर्तबा ज़रूर आता। प्रैस से किसी काम के लिए निकलता तो चंद मिनटों ही के लिए स्टोर से हो जाता। ग़यास से किसी लड़की के बारे में छेड़छाड़ करता और उंगली में मोटर की चाबी घुमाता चला जाता।
जलील को ग़यास से ये गिला था कि वो अपनी लड़कीयों के मुतअल्लिक़ इंतिहाई राज़दारी से काम लेता है उन का नाम तक नहीं बताता। छुपछुप कर उन से मिलता है उन को तोहफ़े तहाइफ़ देता है और अकेले अकेले ऐश करता है यही गिला ग़यास को जलील से था। लेकिन दोनों के दोस्ताना तअल्लुक़ात वैसे के वैसे क़ायम थे।
एक रोज़ स्टोर में एक स्याह बुर्के वाली औरत आई। नक़ाब उल्टा हुआ था। चेहरा पसीने से शराबोर था आते ही स्टूल पर बैठ गई। ग़यास जब उसकी तरफ़ बढ़ा तो उस ने बुर्क़ा से पसीना पोंछ कर इस से कहा। “पानी पिलाईए एक गिलास”
ग़यास ने फ़ौरन नौकर को भेजा एक ठंडा लेमन ले आए। औरत ने छत के साकन पंखों को देखा और ग़यास से पूछा “पंखा क्यों नहीं चलाते आप?”
ग़यास ने सर-ता-पा माज़रत बन कर कहा “दोनों ख़राब होगए हैं। मालूम नहीं क्या हुआ मैं ने आदमी भेजा हुआ है”
औरत स्टूल पर से उठी “मैं तो यहां एक मिनट नहीं बैठ सकती” ये कह कर वो शोकेसों को देखने लगी “आदमी ख़ाक शोपिंग कर सकता है इस दोज़ख़ में।”
ग़यास ने अटक अटक कर कहा “मुझे अफ़सोस है....... आप उन्दर तशरीफ़ ले चलीए....... जिस चीज़ की आप को ज़रूरत होगी मैं ला कर दूंगा।”
औरत ने ग़यास की तरफ़ देखा “चलिए”
ग़यास तेज़ क़दमी से आगे बढ़ा। पर्दा हटाया और उस औरत से कहा “तशरीफ़ लाईए।”
औरत अंदर कमरे में दाख़िल हो गई और एक कुर्सी पर बैठ गई। ग़यास ने पर्दा छोड़ दिया। दोनों मेरी नज़रों से ओझल होगए। चंद लमहात के बाद ग़यास निकला। मेरे पास आकर उस ने हौले से कहा “मंटो साहब क्या ख़्याल है आप का इस लड़की के बारे में?”
मैं मुस्कुरा दिया।
ग़यास ने एक ख़ाने से मुख़्तलिफ़ अक़साम की लिप स्टिकें निकालीं और अन्दर कमरे में ले गया। इतने में जलील की मोटर का हॉर्न बजा और वो उंगली पर चाबी घुमाता नुमूदार हुआ। आते ही उस ने पुकारा “ग़यास....... ग़यास, आओ भई सुनो वो कल वाला मुआमला मैंने सब ठीक कर दिया है।” फिर उस ने मेरी तरफ़ देखा। “ओह मंटो साहब, आदाब अर्ज़....... ग़यास कहाँ है?”
मैंने जवाब दिया “अंदर कमरे में”
“वो मैंने सब ठीक कर दिया मंटो साहब....... अभी अभी पैट्रोल पंप के पास मिली। पैदल जा रही थी मैंने मोटर रोकी और कहा जनाब ये मोटर आख़िर किस मर्ज़ की दवा है उसे मज़नग छोड़कर आरहा हूँ....... ” फिर उइस ने कमरे के पर्दे की तरफ़ मुँह करके आवाज़ दी....... “ग़यास बाहर निकल बे!”
जलील ने उंगली पर ज़ोर से चाबी घुमाई “मसरूफ़ है....... अब उस ने अंदर मसरूफ़ होना शुरू कर दिया है” कह कर उस ने आगे बढ़ कर पर्दा उठाया। एक दम उस के जैसे ब्रेक सी लग गई। पर्दा उसके हाथ से छूट गया। “सोरी” कह कर वो उल्टे क़दम वापस आया और घबराए हुए लहजा में उस ने मुझ से पूछा “मंटो साहब कौन है?”
मैंने दरयाफ़्त क्या “कहाँ कौन?”
“ये....... ये जो अंदर बैठी लबों पर लिप स्टिक लगा रही है”
मैंने जवाब दिया “मालूम नहीं गाहक है!”
जलील ने ऐनक के मोटे शीशों के पीछे आँखें सुकेड़ीं और पर्दे की तरफ़ देखने लगा। ग़यास बाहर निकला। जलील से “हलो जलील” कहा और आईना उठा कर वापस कमरे में चला गया। दोनों दफ़ा जब पर्दा उठा तो जलील को उस औरत की हल्की सी झलक नज़र आई। मेरी तरफ़ मुड़ कर उस ने कहा। “ऐश करता है पट्ठा,” फिर इज़्तिराब की हालत में इधर उधर टहलने लगा। थोड़ी देर के बाद वो पर्दा उठा। औरत होंटों को चूसती हुई निकली। जलील की निगाहों ने उसको स्टोर के बाहर तक पहुंचाया फिर इस ने पलट कर कमरे का रुख़ किया। ग़यास बाहर निकला। रूमाल से होंट साफ़ करता। दोनों एक दूसरे से क़रीब क़रीब टकरा गए। जलील ने तेज़ लहजे में उस से पूछा “ये क्या क़िस्सा था भई”
ग़यास मुस्कुराया “कुछ नहीं” ये कह कर उस ने रूमाल से होंट साफ़ किए।
जलील ने ग़यास के चुटकी भरी “कौन थी?”
“यार तुम ऐसी बातें न पूछा करो” ग़यास ने अपना रूमाल हवा में लहराया। जलील ने छीन लिया ग़यास ने झपटा मार कर वापस लेना चाहा।
जलील पैंतरा बदल कर एक तरफ़ हट गया। रूमाल खोल कर उस ने ग़ौर से देखा जगह जगह सुर्ख़ निशान थे। ऐनक के मोटे शीशों के पीछे अपनी आँखें सुकेड़ कर उस ने ग़यास को घूरा। “ये बात है।”
ग़यास ऐसा चोर बन गया। जिस को किसी ने चोरी करते करते पकड़ लिया है “जाने दो यार.......इधर लाओ रूमाल।”
जलील ने रूमाल वापस कर दिया। “बताओ तो सही कौन थी”
इतने में नौकर लेमन लेकर आगया। ग़यास ने उसको इतनी देर लगाने पर झिड़का “कोई मेहमान आए तो तुम हमेशा ऐसा ही किया करते हो।”
ग़यास ने जलील से पूछा। “ये लेमन उसी के लिए मंगवाया गया था।”
“हाँ यार....... इतनी देर में आया है कमबख़्त....... दिल में कहती होगी प्यासा ही भेज दिया।”
ग़यास ने रूमाल जेब में रख लिया।
जलील ने शोकेस पर से लेमन का गिलास उठाया और गटागट पी गया। “हमारी प्यास तो बुझ गई....... लेकिन यार बताओना थी कौन?....... पहली ही मुलाक़ात में तुम ने हाथ साफ़ कर दिया।”
ग़यास ने रूमाल निकाल कर अपने होंट साफ़ किए और आँखें चमका कर कहा। “चिमट ही गई....... मैंने कहा देखो ठीक नहीं....... दुकान है....... ज़बरदस्ती मेरे होंटों का चुम्मा ले गई।”
एक दम मसऊद की आवाज़ आई “सब बकवास है....... महज़ ख़ुद फ़रेबी है।”
ग़यास चौंक पड़ा। मसऊद स्टोर के बाहर खड़ा था उस ने मुझे सलाम किया और चल दिया।
जलील फ़ौरन ही ग़यास से मुख़ातब हुआ। “छोड़ो यार तुम ये बताओ फिर क्या हुआ?....... यार चीज़ अच्छी थी....... क्या नाम है?”
ग़यास ने जवाब न दिया। मसऊद की आवाज़ के अचानक हमले से वो बौखला सा गया था। जलील को एक दम याद आया कि वो तो एक बहुत ही ज़रूरी काम पर निकला है। उंगली पर चाबी घुमा कर उस ने ग़यास से कहा “लड़की के मुतअल्लिक़ फिर पूछूंगा....... अच्छा मंटो साहब अस्सलामु अलैकुम” और चला गया।
मैंने मुस्कुरा कर ग़यास से पूछा “ग़यास साहब इतनी जल्दी पहली ही मुलाक़ात में आप ने....... ”
ग़यास झेंप गया मेरी बात काट कर उस ने कहा “छोड़िए मंटो साहब....... आप हमारे बुज़ुर्ग हैं....... चलिए अंदर बैठें। यहां गर्मी है।”
हम अंदर कमरे की तरफ़ चलने लगे तो स्टोर के बाहर जलील की मोटर रुकी। उस ने ज़ोर ज़ोर से हॉर्न बजाया। ग़यास न गया तो वो ख़ुद अंदर आया। “ग़यास अन्दर आओ....... बस स्टैंड के पास एक बड़ी ख़ूबसूरत लड़की खड़ी है....... ”
ग़यास उस के साथ चला गया। में मुस्कराने लगा।
इस दौरान में जलील ने बड़ी मुश्किलों से अपने बाप को राज़ी करके एक क्रिस्चियन लड़की मुलाज़िम रख ली। उस को वो अपनी स्टेनो कहता था। कई बार मोटर में उसको अपने साथ लाया, लेकिन उस को मोटर ही में बिठाए रखा। ग़यास को इस बात का बहुत ग़ुस्सा था। एक बार इस स्टेनो के सामने ग़यास ने जलील को मज़ाक़ किया तो वो बहुत सट पटाया, उस के कान की लवें सुर्ख़ होगईं। नज़रें झुका कर उस ने गाड़ी स्टार्ट की और ये जा वो जा।
बक़ौल जलील के ये स्टेनो शुरू शुरू में तो बड़ी रिज़र्व रही। लेकिन आख़िर उस से खुल ही गई। “बस अब चंद दिनों ही में मुआमला पट्टा समझो।”
ग़यास अब ज़्यादा तर जलील से इस स्टेनो की बातें करता। जलील उस से उस लड़की के मुतअल्लिक़ पूछता जिस ने चिमट कर उस को चूम लिया था तो ग़यास उमूमन ये कहता कल उस का टेलीफ़ोन आया। “पूछने लगी आऊं?....... मैंने कहा यहां नहीं। तुम वक़्त निकालो तो मैं किसी और जगह का इंतिज़ाम करलूंगा।”
जलील उस से पूछता “क्या कहा उस ने?”
ग़यास जवाब देता। “तुम अपनी स्टेनो की सुनाओ”
स्टेनो की बातें शुरू हो जातीं।
एक दिन मैं और ग़यास दोनों जलील के प्रैस गए मुझे अपनी किताब के गुर्द-ओ-पोश के डिज़ाइन के बारे में दरयाफ़्त करना था। दफ़्तर में स्टेनो एक कोने में बैठी थी लेकिन जलील नहीं था। स्टेनो से पूछा तो मालूम हुआ कि वो अभी अभी बाहर निकला है। मैंने नौकर को भेजा कि उस को हमारी आमद की इत्तिला दे। थोड़ी ही देर के बाद जलील आगया। चक उठा कर उस ने मुझे सलाम किया और ग़यास से कहा। “इधर आओ ग़यास”
हम दोनों बाहर निकले ग़यास को एक कोने में ले जा कर जलील ने उछल कर ग़यास से कहा “मैदान मार लिया....... अभी अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले” ये कह कर वो रुक गया और मुझ से मुख़ातब हुआ “माफ़ कीजीएगा मंटो साहब” फिर उस ने ग़यास को ज़ोर से अपने साथ भींच लिया। “मैंने आज उस को पकड़ लिया....... बिलकुल इसी तरह....... और इसी जगह....... इस ट्रेडल के पास।”
ग़यास ने पूछा। “कैसे?”
जलील झुँझला गया “अबे अपनी स्टेनो को....... क़सम ख़ुदा की मज़ा आगया....... ये देखो”
उस ने अपना रूमाल पतलून की जेब से निकाल कर हवा में लहराया....... उस पर सुर्ख़ी के धब्बे थे। एक दम मसऊद की आवाज़ आई “बकवास है....... महज़ ख़ुद फ़रेबी है।”
जलील और ग़यास चौंक उठे....... मैं मुस्कुराया। ट्रेडल के तवे पर सुर्ख़ रोगन की पतली सी हमवार ता फैली हुई थी। एक जगह पोंछने के बाइस कुछ ख़राशें पड़ गई थीं।
(8 जून 1950-ई.)

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