कबीर का स्मारक बनेगा (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Kabir Ka Smarak Banega (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

साधो, हिन्दू और मुसलमान एक ही सार्वजनिक संडास में जा सकते हें, दस्त के मामले में भाई-भाई होते हैं। मगर कबीरदास की मुसलमानो ने मजार बना ली थी और हिन्दुओं ने समाधि बना ली थी । और दोनों के बीच में एक दीवार खडी कर ली थी जिससे मजार और समाधि पर एक-दुसरे की नजर न पडे। कबीर जब जिन्दा थे तब समूचे थे, एक थे, मगर मरने के बाद उनके दो टुकडे कर दिये गये- हिन्दू कबीर और मुसलमान कबीर। कबीरदास हिन्दू और मुसलमान दोनों के ढोंग की पिटाई करते थे। मरने के बाद ढोंगियों ने कबीरदास के सत्य की पिटाई कर दी। सत्य को हिन्दू और मुसलमान दो टुकडों में तोड़कर समाधि और मजार में गाड़ दिया। बीच में दीवार खडी कर दी अपनी मूर्खता के ईंट गारे की।

साधो, काशी के पास मगहर में समाधि और मजार बनाये गए थे । जिंदगी भर कबीर काशी में रहे और ठाठ से रहे । पण्डितों और मुल्लाओं के बीच रहकर दोनों के पाखण्ड को ठेठ गाली देते रहे। उस ज़माने में, जब किसी को मार डालना बहुत आसान था, कबीर पाखंडी ब्राह्मणत्व की राजधानी में जिन्दा कैसे रहे। उन्मादी मुल्लाओ और उतने ही रूढिवादी पण्डितों ने मरवा क्यों नहीं डाला। ऐसा मालूम होता है कि नीची जातियों के लड़ाकू भक्त कबीर की रक्षा करते होंगे। ये नीची जाति के महा चमार, भंगी आदि जिन्होंने कबीर के उपदेश से वर्ण व्यवस्था तोड़ दी थी, इन पर ब्राह्मणो का अनुशासन नहीं चलता था । इन्होंने मनु के विधान को कूड़े में फेक दिया था। ये निर्भय हो गये थे । वरना मनुस्मृति में तो यह लिखा है -"यदि कोई द्विज किसी शूद्र की हत्या कर दे, तो उसे उतना हीं पश्चाताप करना चाहिए, जितना कुत्ता और सूअर को मारने पर करना होता है। 'मनु ने जिन शुद्रो को कुता और सूअर बना दिया था, वही मुक्त होकर कबीर के चेले हो गए थे इसी तरह वहुत-से गरीब मुसलमान भी मुल्लाओ के चक्कर से छूट गए थे। उन्हें कबीर की यह बात पट गयी थी कि भगवान तो जगह है, आदमी के भीतर भी हैं, उसे मुल्ला मस्जिद पर चढ़कर पुकारता है, जैसे खुदा बहरा हो गया हो । कबीर- दास के शब्द हैं- 'ता चढ़ मुल्ला बाँग दे ।' बाँग मुर्गा देता है । कबीर ने मुल्ला को मुर्गा बना दिया । तो नीची जाति के हिन्दू और गरीब मुसलमान जो लडाकू थे, कबीर की फ़ौज थी । ये कहते होंगे-हमारे गुरु कों छुआ तो गर्दन काट लेंगे । यानी कबीरदास गुंडों के सरदार भी रहे होंगे, उनका संगठन होगा लड़ने के लिए । वे कोरे जुलाहे सन्त नहीं थे।

साधो, कबीरदास मरने के लिए मगहर क्यरें गये ? कबीरदास ने जीवन में तो विद्रोह किया ही, मृत्यु में भी विद्रोह किया । ब्रक्रहाणगें ने अन्धविश्वास फैला रखा था कि काशी में मरने से स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने से नर्क मिलता है तो कबीर ने कहा-हंम मगहर में मरेंगे । वे मगहर में जाकर मरे । उन्होंने कहा

ज्यों काशी त्यों ऊसर मगहर राम बसै हिय मोरा,
जो कबीर काशी मरै रामहिं कौन निहोरा

जीवन -भर तो "राम की बहुरिया' रहा । अब काशी मे मरकर हराम में स्वर्ग तो राम का क्या अहसान । मैं मगहर में मरूंगा और राम में सचाई और प्रताप हो तो मुझे स्वर्ग दे।

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