Jhansi Ki Rani-Luxmi Bai : (Hindi Novel) Vrindavan Lal Verma

झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई : वृंदावनलाल वर्मा (उपन्यास)

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए। लक्ष्मीबाई साथ थीं। उनको किले में बंद रहना पड़ता था; इस यात्रा में भी तामझाम इत्यादि बंद सवारियों में चलना पड़ा, परंतु नए-नए स्थान देखने के अवसर मिले। इस कारण बंधनों का क्लेश न अखरा। काशी-यात्रा में उनको देव-दर्शान जन्मगृह दर्शन प्राप्त हुए।

गंगाधरराव का क्रोध समय-कुसमय न देखता था। एक दिन काशी नगर में सैर के लिए निकले। मार्ग में एक बेचारा राजेंद्र बाबू पड़ गया। उसने प्रणाम तो किया, परंतु खड़े होकर ताजीम नहीं दी। शामत आ गईं। गंगाधरराव ने उसको बेहद पिटवाया। उसने कंपनी सरकार में फरियाद की।
जवाब मिला, 'गंगाधरराव एक बड़े राजा हैं। यदि तुमको खड़े होकर ताजीम देना पसंद न था तो अपने घर पर बैठे रहते!'
रानी को यह सब देख-सुनकर काफी क्लेश हुआ था।

तीर्थयात्रा के लिए झाँसी छोड़ने के पहले गंगाधरराव को कंपनी सरकार ने शासन के अधिकार वापस किए तब, पहले का जमा किया हुआ तीस लाख रुपया उसको लौटाया था। उसका उन्होंने अपव्यय किया। अपने अनेक हाथियों में उनको सिद्धबकस नामक हाथी बहुत प्यारा था। उसका सारा सामान सोने का बनवाया। और भी अनेक हाथी-घोड़ों का सामान अंबरी, हौदा, जीन, झूले इत्यादि सोने के बनवाए। काशी से एक तामझाम, जिस पर बढ़िया नक्काशी का काम था, बहुत कीमत देकर मँगवाया। और भी काफी राजसी-ठाठ इकट्ठा किया। राजा प्रदर्शन के बहुत प्रेमी थे। रानी को प्रदर्शन बहुत कम पसंद था। परंतु उनको राजा की एक बात अच्छी लगी-उन्होंने पाँच हजार के लगभग सेना कर ली, लगभग दो सहस्र गोल पुलिस, पाँच सौ घोड़ों का रिसाला, सौ खास पायगा के सिपाही और चार तोपखाने।

झाँसी राज्य में और बुंदेललंड में लगभग हर जगह आततायी और डाकू-बटमार बड़ा उपद्रव कर रहे थे। गंगाधरराव ने अपने कठोर शासन से उनका दमन किया। इस कार्य में उनको अपने प्रधानमंत्री राघव रामचंद्र पंत, दरबार वकील नरसिंहराव और न्यायाधीश वृद्ध नाना भोपटकर से बहुत सहायता मिली। राजा के शासन से अंग्रेज संतुष्ट थे, क्योंकि उपद्रवों को शांत करना ही राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य समझा जाता था।

राजा गंगाधरराव ने कई मौकों पर अंग्रेजों की बहुत सहायता की। एक बार अपने विश्वस्त साथी और फौजी अफसर दीवान रघुनाथसिह को कुछ सिपाहियों के साथ मुहिम पर भेज दिया। दीवान रघुनाथरसिह आज्ञाकारी योद्धा था। उसने बड़ी वीरता के साथ अपना कर्तव्य-पालन किया। राजा गंगाधरराव को अंग्रेजों की मैत्री और भी बढ़ी हुई मात्रा में मिली और दीवान रघुनाथसिह को इंग्लैंड और कंपनी सरकार की रानी विक्टोरिया की ओर से एक प्रशंसा-पत्र तथा खड़ग मिला।

परंतु रानी लक्ष्मीबाई को अपने पति के इस यज्ञ पर हर्ष नहीं हुआ और न संतोष। अभी उनकी आयु लगभग १५ वर्ष की होगी, परंतु उनका आचार-विचार आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली परिपक्वता का-सा प्रतीत होता था। उस युग की लड़कियाँ जिस आयु में खेलना-खाना, पहनना-ओढ़ना ही सब कुछ समझती होंगी, उस आयु में लक्ष्मीबाई गंभीर और गंभीरतर होती चली गई।
छुटपन की छबीली मनू, लक्ष्मीबाई के विशाल आदर्शों में विलीन हो गई।

18

राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नहीं कर सकते थे, यह भी उनको मालूम था। जनता की स्त्रियाँ मुँह उघाड़े फिरें, चाहे घूँघट डाले फिरें, इस विषय में उनकी उपेक्षा थी। परंतु अपने महल में काफी परदा बरतने के दृढ़ पक्षपाती थे।

इसलिए लक्ष्मीबाई किले के बाहर घोड़े पर नहीं जा सकती थीं।
किले में भी उनकी स्वतंत्रता पर काफी बंधन था। तीर्थयात्रा से लौटने पर किले-भीतरवाले महल के मैदान के चारों ओर ऊँची-ऊँची कनातें लगवा दी गईं, जिससे उनको घोड़े की सवारी इत्यादि में बहुत अड़चन होने लगी। मलखंब और कुश्ती का प्रबंध उनको अपने कक्ष के भीतर ही मोटे और नरम कालीनों की पर्तों पर करना पड़ा। उन्होंने अभ्यास छोड़ा नहीं। गंगाधरराव ने उनकी सहेलियों को बदलने का प्रयत्न किया, परंतु सुंदर, मुंदर और काशीबाई को वे नहीं हटा सके।

अन्तर्द्वन्द्व के कारण गंगाधरराव के मन में क्रोध की मात्रा बढ़ गई और अपराधियों को दंड देने के लिए बिलकुल नए-नए साधन काम में लाने लगे।

मृच्छकटिक नाटक के खेल का दिन आया। मोतीबाई ने वसंतसेना का अभिनय किया और जूही ने उसकी सखी का। राजा ने उस दिन नाटकशाला को खूब सजवाया। कप्तान गार्डन भी निमंत्रित हुआ। खेल अच्छा हुआ। नृत्य, गायन, अभिनय सभी की गार्डन ने प्रशंसा की।

खेल की समाप्ति पर गार्डन के मुँह से निकल पड़ा, 'महाराजा साहब, एक बात समझ में नहीं आती। आपकी संस्कृति में वेश्याओं को इतने आदर का स्थान क्‍यों दिया गया है?'
राजा ने हँसकर उत्तर दिया, 'क्योंकि हमारे पुरखे बहुत समझदार थे।'

गार्डन को अपने देश के क्रामवैल के समय का कठमुल्लावाद (puritanism) और उसके तुरंत ही बाद का चार्ल्स द्वितीय के समय का मनमौज-वाद याद आ गया। बोला, 'नहीं महाराज, कुछ और बात है। असल में हिंदुस्थान कई बातों में बहुत गिरा हुआ है।'
गंगाधरराव ने कहा, 'फिर कभी बात करूँगा।'
गार्डन चलने को हुआ कि राजा ने एक कोने में खुदाबख्श को देख लिया। तूरंत अपने अंगरक्षक से पूछा, 'यह कौन है?'
उसने उत्तर दिया, 'खुदाबख्श।'
'यहाँ कैसे आया?' राजा ने प्रश्न किया।
अंगरक्षक उत्तर नहीं दे पाया। खुदाबख्श ने समझ लिया। और वह तुरंत भीड़ में विलीन होकर निकल गया।
गार्डन ने पूछा, 'क्या बात है महाराज साहब?'
राजा ने कहा, 'कुछ नहीं, यों ही। एक आदमी को आज बहुत दिनों के बाद नाटकशाला में देखा है।'
गार्डन चला गया। राजा ने नाटकशाला के प्रहरी को कैद में डलवा दिया और सवेरे पेश किए जाने की आज्ञा दी।
खुदाबख्श को बहतेरा ढुँढ़वाया, परंतु पता नहीं लगा।

दूसरे दिन मोतीबाई नाटकशाला से बरखास्त कर दी गई। नाटकशाला के पात्रों को कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। वे लोग आशा कर रहे थे कि इतना अच्छा अभिनय इत्यादि करने के उपलक्ष्य में बधाई और पुरस्कार मिलेंगे, परंतु हुआ उलटा। उनकी सबसे अच्छी अभिनेत्री निकाल दी गई। झाँसी में जिन लोगों ने मोतीबाई के नृत्य को देखा था अथवा उसका गायन सुना था, सब क्षुब्ध थे।
सवेरे नाटकशाला के प्रहरी की पेशी हुई। राजा ने स्वयं मुकद्दमा सुना।
राजा ने खिसियाकर पूछा, क्यों रे नमकहराम, यह खुदाबख्श नाटकशाला में कैसे आ गया?'
उसने घिघियाकर उत्तर दिया, 'श्रीमंत सरकार, मैं भूल गया। मुझको याद नहीं रहा।'
'तू यह भूल गया कि मैं उसको देश-निकाला दे चुका हूँ?' राजा ने कड़ककर कहा।

प्रहरी अत्यंत विनीत भाव से बोला, 'इस बात को श्रीमंत सरकार, बहुत दिन हो गए, इसलिए मुझको सुध नहीं रही और सरकार ने उस दिन तीर्थयात्रा से लौटने की खुशी में बहुत लोगों को माफी बख्शी, सो मैंने सोचा कि खुदाबख्श को माफी मिल गई होगी।'
इस उत्तर से राजा का क्रोध घटा नहीं, जरा और बढ़ गया। रोते हुए प्रहरी को सजा दी गई बिच्छू से डँसवाने की।

गंगाधरराव ने एक विशेष वर्ग के अपराधों के लिए बिच्छू से कटवाने का विधान कर रखा था। कट्ठे में पैरों का डालना-भाँजना एक साधारण बात थी। गहन अपराधों में हाथ-पाँव कटवा डालने की जनसम्मत प्रथा जारी थी। परंतु दबे-दबे और थोड़ी-थोड़ी। दहकते अंगारों से डाकुओं के अंग जलवाना इस विधान में शामिल था, परंतु बिच्छुओं से कटवाना जन-वृत्ति की सहन-शक्ति से बाहर हो गया था।

बिच्छू से कई जगह कटवाए जाने के कारण प्रहरी बेहद संतप्त हुआ। अंत में बेहोश हो गया। राजा समझे मर गया तब उनका क्रोध ठंडा पड़ा। प्रहरी वहाँ से हटवा दिया गया।

19

कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदेश-प्रेमी और भारतवर्ष को घृणा या अवहेलना की वृत्ति से देखनेवाला! परंतु भारतवर्ष के राजाओं को सहलाने-फुसलाने की क्रिया का अभ्यासी-अपने कर्तव्य के पालन में दृढ़।

राजा से मिलने गार्डन कभी घोड़े पर और कभी तामझाम में बैठकर आता था। . नवाबों को दबाते-दबाते थोड़ी नवाबी भी अंग्रेजों में आ गई थी। हुकका, सुरा, रंडियों का नाच, होली-फाग, दशहरा, दीवाली, ईद, उत्सव इत्यादि नवाबों, राजाओं और जनता में हेलमेल बनाए रखने के लिए बरते जाते थे। परंतु वे उनमें दूध-पानी नहीं हुए थे-उनकी सतर्क दृष्टि इंग्लैंड की ओर बराबर मुड़ी रहती थी।

राजा ने और मनोरंजन समक्ष न देखकर, एक दिन गार्डन को बुलवाया। वह तामझाम में नगरवाले महल पर आया। वहाँ से राजा उसको किलेवाले महल पर ले गए। राजा अपने तामझाम में बैठे। उत्तरी फाटक से जाना चाहते थे। बड़ी हथसार (इसी हथसार की जगह अब सदर अस्पताल है।) के नीचे से मार्ग था। एक हाथी पागल हो गया। इन तामझामों की ओर दौड़ा! वाहकों ने तामझाम कंधों पर से उतार दिए। परंतु भागे नहीं। उनकी कमर में तलवारें थीं। म्यानों से बाहर निकाल लीं। गार्डन के पास कोई हथियार न था। वह हक्का-बक्का-सा इन मजदूरों के पास आ गया। राजा के पास तलवार थी। उन्होंने नहीं छुई। तामझाम से बाहर निकलकर, दौड़ते हुए प्रमत्त हाथी को, अपनी ओर आती हुई गति को देखने लगे।

गार्डन ने कहा, 'बचो।'
मजदूरों ने कहा, 'बचो।'
राजा के मूँह से भी निकला, 'बचो।'
परंतु तलवारें उस मस्त हाथी की गति का विरोध नहीं कर सकती थीं।
इतने में एक ओर से बरछा लिए एक सिपाही हाथी पर दौड़ पड़ा और उसने बरछे के प्रहार से हाथी की प्रगति को लौटा दिया।
राजा को उस सिपाही ने प्रणाम किया।
राजा ने नाम पूछा।
उसने बतलाया, 'इमामअली। काजी हूँ सरकार, और साँटमारी भी करता हूँ।'
राजा ने कहा, 'शाबाश काजी। इनाम मिलेगा।'
इमामअली बोला, 'सरकार के चरणों में बना रहूँ और बाल-बच्चों का पालन-पोषण होता जावे, यही सेवक के लिए गनीमत है।'
राजा ने पारितोषक में कुछ जमीन लगाने की घोषणा की और वह गार्डन के साथ किले के महल में चले गए।
जब दोनों दीवानखाने में बैठ गए तब भी गार्डन के मन में वह हाथीवाली घटना झूल रही थी।
वह बोला, सरकार, इनाम रुपए की शकल में दिया जाना चाहिए। इस तरह भूमि लगाते चले जाने से राज्य में चप्पा-भर भी न बचेगी!'
राजा ने कहा 'तब झाँसी राज्य में बहादुर ही बहादुर नजर आवेंगे।'

गार्डन को इस असंगत उत्तर से संतोष नहीं हुआ। बोला, इस देश में जो देखता हूँ सब अति के दर्जे पर। थोड़े-से बहुत धनवान और बहुत-से निर्धन। बिरला ही अत्यंत धर्मनिष्ठ, और बहुत से कीड़ों-मकोड़ों से ज्यादा सड़ी जिदगी बितानेवाले! किसी को जमीनें और जागीरें छोटे-बड़े सब तरह के कामों के लिए, और बहुतेरों को हलके-से-हलके अपराधों के लिए अंगहीन करने की सजा! बिच्छुओं से कटवाने का दंड!

राजा का चेहरा तमतमा गया। परंतु उन्होंने अपने को संयत करके कहा, 'जब जैसा अपराध और अपराधी सामने आवे, वैसा उसको दंड देना चाहिए।'

गार्डन ने भाँप लिया कि राजा ने अपने उठे हुए क्रोध को भीतर-का-भीतर ही धसा दिया है। बोला, 'सरकार को शायद मालूम होगा, हमारे यहाँ के एक बहुत बड़े विद्वान्‌ ने हिंदुस्थान-भर के लिए एक ही दंड-विधान (लार्ड मैकाले का इंडियन पीनल कोड (भारतीय दंड विधान)।) प्रस्तुत कर दिया है। वह बहुत विशद्‌ और न्यायपूर्ण है। जितने दंड रखे गए हैं, कोई भी अमानुषिक नहीं।

'क्या रियासतों में भी उस विधान को जारी किया जावेगा?'
गार्डन ने तत्काल उत्तर दिया, 'नहीं सरकार। रियासतों को अपना निज का प्रबंध अपनी व्यवस्था के अनुसार करने का अधिकार है।'
राजा एक क्षण सोचकर बोले, 'हमारी संधियों में यह अधिकार सुरक्षित है।'

संधि के शब्द पर गार्डन के मन में तुरंत खटपटी उठी, परंतु उसने खुशामद के ढंग को अधिक अच्छा समझकर कहा, परंतु सरकार, हमारे सम्राट और भारत के गर्वनर-जनरल को उस दिन बहुत अचछा लगेगा, जब सब रियासतों में एक ही प्रकार का न्याय, एक ही कानून और एक ही तरह की अदालतों की स्थापना हो जाए। इसमें सरकार का कोई हर्ज भी नहीं है, नरेशों का बोझ भी बहुत हलका हो जाएगा। और जनता ज्यादा चैन की साँस लेने लग जाएगी।'

राजा ने प्रश्न किया, 'आपके राजाधिराज को भी बहुत अधिकार होंगे?'
गार्डन असमंजस में पड़ गया। परंतु उससे अपने को उबारकर बोला, 'हमारे राजाधिराज ने अपना अधिकार पंचायत को दे दिया है। वह पंचायत कानून बनाती है। शासन करती है।'

राजा-'पंचायतें तो हमारे यहाँ गाँव-गाँव में हैं। इन पंचायतों के फैसले को रद्द करने की कोई भी राजा बात नहीं सोचता। ये पंचायतें अपने-अपने गाँव का सभी तरह का प्रबंध भी करती हैं। हमारे कर्मचारी उसमें कोई दखल नहीं देते। केवल बड़े-बड़े मामले मुकद्दमे मेरे सामने आते हैं। उनको नाना भोपटकर शास्त्री की सलाह से निबटाता हूँ।'

गार्डन-'इसमें, सरकार, सहूलियत होने पर भी तरतीब, नियम-संयम जाब्ते-कायदे की कमी है और अन्याय होने की ज्यादा गुंजाइश है।'
राजा- 'आपके देश में क्या पंचायत नहीं है?'

गार्डन-'युग बीत गए, जब थीं। उनका रूप बदल गया है। न्यायाधीश को सम्मति देने और मामले का निर्धार न्याय कराने में पंचायत सहयोग देती हैं। इस पंचायत के सहयोग के बिना मुकद्दमा नहीं होता।'
राजा-'हमारे देश की पंचायतें तो इससे भी बढ़कर समर्थ हैं। राज्य लौट-पौट जाते हैं; परंत्‌ पंचायतें रहती हैं।'
गार्डन को हिंदुस्थानी पंचायतों का यह वर्णन बहुत खटका।

अपने क्षोभ को थोड़ा दबाकर उसने कहा, 'अपढ़-कुपढ़ लोगों की पंचायतों के ढंग मैले-कुचैले ही हो सकते हैं, सरकार। अदालतों की सफाई और निखार को पंचायतें कैसे पा सकती हैं?'
'बंगाल, मदरास में आपकी अदालतें पंचायतों के सहयोग से न्याय-निर्णय करती हैं या यों ही?' राजा ने प्रश्न किया।

गार्डन का मन जरा सिटपिटाया। परंतु उसने बेधड़की से हठ के साथ उत्तर दिया, 'पंचायतों की मदद तो नहीं ली जाती है, परंतु हिंदू-मुसलमानों के दीवानी झगड़ों को सुलझाने के लिए पंडितों और मौलवियों की सलाह ली जाती है। अपराधों के मामले अदालत के अफसर स्वयं ही निर्धार करते हैं।'
'स्वयं!' राजा ने आश्चर्य के साथ कहा, 'स्वयं! सो कैसे ?'
गार्डन ने जवाब दिया, 'गवाही और वकीलों की मदद से।'
राजा ने पूछा, 'हर अदालत में एक-एक वकील रहता होगा?'

गार्डन को राजा की सिधाई पर मन में हँसी आई। उत्तर दिया, 'नहीं तो सरकार। वादी-प्रतिवादी अपने-अपने गवाह वकीलों द्वारा पेश करते हैं। वकील लोग कानून जानते हैं। वे अपने कानूनी ज्ञान द्वारा अदालत की सहायता, ठीक निर्णय पर पहुँचने में, करते हैं! यह हमारे देश की संस्था है।'

राजा को हँसी आ रही थी। होंठों तक आई परंतु उन्होंने उसको प्रकट नहीं होने दिया। बोले, 'वकील क्‍या गवाहों को पेश करने का काम मुफ्त में करते हैं?'

गार्डन ने अभिमान के साथ कहा, 'हमारे देश में पहले वकील लोग मुफ्त में यह काम करते थे, परंतु अब पारिश्रमिक लेने लगे हैं। और इस देश में तो वे लोग करारी रकमें लेते हैं।'

'तब कहीं लोग न्याय प्राप्त करने की आशा कर पाते हैं,' राजा खूब हँसकर बोले, 'भाड़े के लोगों को बढ़ाने की यह संस्था आप लोग इस देश में किस प्रयोजन से ले आए?'

हिंदुस्थान के प्रति गार्डन के भीतरी मन में दबी हुई घृणा उभर पड़ी । बोला, 'आपके देश की न्याय-प्रणाली की विषमता मुझको भी मालूम है। उसी अपराध के लिए ब्राह्मण पर एक रुपया दंड, ठाकुर पर पचास, बनिए पर पाँच सौ और गरीब शूद्र का हाथ-पैर कट! सरकार, कानून सबके लिए एक-सा होना चाहिए।'

राजा को इस तर्क ने जरा जोर दिया। परंतु उनको एक व्यंग्य सुझा। बोले, 'इस कानून जाब्ते के द्वारा आपके इलाकों में जनता को न्याय कितने समय में मिल जाता है?'

गार्डन ने शीघ्र उत्तर दिया, 'अपराधवाले मामलों में दो-एक महीने लग जाते हैं और दीवानी मामलों में एकाध साल।'

राजा फिर हँसे। कहा, 'हमारे यहाँ तो तुरंत न्याय होता है। मैं तो दो-एक दिन से ज्यादा नहीं लगाता। दीवानी और अपराधी मामलों का कोई भेद नहीं करता। पंचायतों के निर्णय को सर्वमान्य मानता हूँ। आपके इलाकों में यदि पुलिस की गफलत या लापरवाही से चोरी इत्यादि हो जावे तो आप पुलिस को कोई दंड देते हैं?'
'हाँ सरकार, गार्डन ने उत्तर दिया, 'बरखास्त कर देते हैं, तनज्जुल कर देते हैं।'

राजा ने उत्तेजित होकर कहा, 'इससे जनता का क्या लाभ होता होगा? मैं तो ऐसे मामलों में गफलत करनेवाली पुलिस से चोरी का नुकसान भरवाता हूँ।'

गार्डन बोला, 'तब जनता पर पुलिस की धाक नहीं रह सकती। लोग उसकी बिलकुल परवाह नहीं करते होंगे। ऐसा शासन बहुत दिनों नहीं टिक सकता, सरकार।'

राजा और भी उत्तेजित हुए। उन्होंने कहा, 'साहब, जनता पर मेरी धाक होनी चाहिए, न कि मेरे अफसरों की। वह राज्य भी बहुत समय तक नहीं टिक सकता जो कर्मचारियों और पुलिस की धाक पर आश्रित हो। मैं तो अपने अपराधी कर्मचारियों को लोहे की मछली के कोड़े से ठोकता हूँ।'

गार्डन खिसिया गया। बोला, 'सरकार, अनियमित सत्ता बहुत बुरी चीज है। इस परिपाटी के माननेवाले चाहे जो कुछ मनमाना कर बैठते हैं। आपने बनारस में एक बिचारे राजेंद्र बाबू को अकारण पिटवा दिया। हमारे पॉलिटिकल विभाग को जवाब देते मुसीबत आई।'

राजा को बनारसवाली घटना की स्मृति के साथ-साथ यह भी याद आ गया कि इसी पॉलिटिकल विभाग की इजाजत मिलने पर झाँसी राज्य के बाहर कदम रख पाया था।

'अशिष्टता को दंडित करने में मैं कभी नहीं चूकता,' राजा ने कहा, 'फिर चाहे मैं कहीं होऊँ- अपने राज्य में होऊँ चाहे राज्य के बाहर।' उसी समय उनको खुदाबख्श और उसके संबंधवाला प्रसंग याद आ गया।

गार्डन को भी वही प्रसंग याद आया। बोला, 'यह नहीं हो सकता, चाहे कोई भी राजा या नवाब हो, गवर्नर जनरल साहब किसी को इस तरह का उद्दंड व्यवहार नहीं करने देंगे। आपका गौरव रखने के लिए ही बनारसवाले उस पीड़ित को वैसा जवाब दिया गया था, आगे ऐसा न हो सकेगा।'

गंगाधरराव के हृदय में शिवराव भाऊ का खून खलबला उठा। कुछ क्षण चुप रहे। बिजली की कौंध के समान दो-एक उत्तर मन में उठे, परंतु उनको वे क्रोध के कारण प्रकट न कर सके।

अंत में वे केवल यह कह पाए, 'साहब, मैं तो एक छोटा-सा संस्थापक हूँ। तो भी चाहूँ तो बहुत कुछ कर सकता हूँ। लेकिन सभी राजाओं ने चूड़ियाँ पहन रखी हैं। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि अपने ही देश में हम कैद हैं। सवा सौ वर्ष पहले की बात याद कीजिए। आप लोगों की क्या शान थी, जब दिल्ली के बादशाह और पूना के पंत प्रधान के दरबार में साष्टांग प्रणाम कर-करके अर्जियाँ पेश करते थे।'
राजा थर्राहट के मारे कांप उठे। गार्डन की व्यापार-कुशल बुद्धि तुरंत सजग हुई।

उसने मिन्नत-सी करते हुए कहा, 'सरकार बुरा न मानें। मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। मैंने जो कुछ निवेदन किया, वह गवर्नर जनरल और कंपनी सरकार की नीति का आभास मात्र है। पंचायतों के बनाए रखने के ही विषय को लीजिए। अनेक अंग्रेज अफसर उनको सुरक्षित रखना चाहते हैं, परंतु अधिकांश मत कानून और जाब्ते के बेलन द्वारा हिदुस्थान की सारी समतल और ऊबड़-खाबड़ संस्थाओं को चौरस कर डालने के पक्ष में हैं। मेरे ऊपर सरकार की वही कृपा बनी रहे जो सदा से चली आई है।'
गार्डन का यह भी खयाल था कि यदि राजा ने इस विवाद की सूचना कुछ बढ़ाकर गवर्नर जनरल के पास भेज दी तो अवश्य और नाहक डाँट-फटकार पड़ेगी।

राजा ठंडे पड़ गए। गार्डन के तामझाम से उसका हुक्‍का मँगवाया गया। उसने पिया। फिर राजा ने उसको पान दिया। वह पान खाकर चला गया।
रानी के पास इस विवाद का सारांश पहुँच गया।
बड़ी प्रसन्‍न हुई।

अपनी सब सहेलियों के सामने कहा, 'आज मैं जितनी खुश हूँ उतनी कदाचित्‌ ही पहले कभी हुई होऊँ। मुझको शिवराव भाऊ की बहू होने का बहुत घमंड है। मुझको अपने राजा का, अपनी झाँसी का अभिमान है। मन को केवल एक कसर खटक रही है-मुझसे और उस गार्डन से बात हुई होती तो मैं ऐसी करकरी सुनाती कि उसको अपने पुरखे याद आ जाते। मुझको दादा पेशवा ने बतलाया है कि सौ-सवा सौ वर्ष पहले इस अंग्रेज कौम ने हमारे देश में किन-किन उपायों से क्या-क्या किया । मेरा बस चले तो...।'
रानी ने दाँत पीसे और विशाल नेत्र तरेरे।

काशीबाई ने धीरे से कहा, 'सरकार ने कहा था कि बिठूर से बाला गुरु को कुश्ती सीखने के लिए बुलाया जावेगा।'
रानी ने तत्क्षण अपनी सहज मुसकराहट पा ली। बोलीं, 'हाँ री, उनको शीघ्र बुलाऊँगी।'

20

वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी की प्रतिमा आभूषणों और फूलों के श्रृंगार से लद गई और धूप-दीप तथा नैवेद्य ने कोलाहल-सा मचा दिया। हरदी- कूँकूँ (हलदी-कुंकुम) के उत्सव में सारे नगर की नारियाँ व्यग्र, व्यस्त हो गईं।

परंतु उनमें से बहुत थोड़ी गले में सुमन-मालाएँ डाले थीं, उनके पास हृदयेश की कविता और उसका फल दूसरे रूप में पहुँचा था-उनको भ्रम था कि राजा-रानी हम लोगों के श्रृंगार पसंद नहीं करते। इसलिए जब वे स्त्रियाँ-जो पूजन के लिए रनवास में आईं-चढ़ाने के लिए तो अवश्य फूल ले आईं परंतु गले में माला डाले कुछेक ही आईं।

किले में जाने की सब जातियों को आजादी थी। किले के उस भाग में जहाँ महादेव और गणेश का मंदिर है और उसको शंकर किला कहते थे, सब कोई जा सकते थे-अछूत कहलानेवाले चमार, बसोर और भंगी भी। जहाँ अपने कक्ष में रानी ने गौरी को स्थापित किया था, वहाँ इन जातियों की स्त्रियाँ नहीं जा सकती थीं। परंतु कोरियों और कुम्हारों की स्त्रियाँ जा सकती थीं। कोरी और कुम्हार कभी अछूत नहीं समझे गए थे।

सुंदर ललनाओं को आभूषणों से सजा हुआ देखकर रानी को हर्ष हुआ, परंतु अधिकांश के गलों में पुष्पमालाओं की त्रुटि उनको खटकी। उन्होंने स्त्रियों से कहा, 'तुम लोग हार पहनकर क्यों नहीं आईं? गौरी माता को क्या अधूरे श्रृंगार से प्रसन्‍न करोगी?'
स्त्रियों के मन में एक लहर उद्वेलित हुई।

लालाभाऊ बख्शी की पत्नी उन स्त्रियों की अगुआ बनकर आगे आई। वह यौवन की पूर्णता को पहुँच चुकी थी। सौंदर्य मुखमंडल पर छिटका हुआ था। बख्शिनजू कहलाती थीं। हाथ जोड़कर बोली, 'जब सरकार के गले में माला नहीं है तब हम लोग कैसे पहनें?'

रानी को असली कारण मालूम था। बख्शिनजू के बहाने पर उनको हँसी आई। पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और सबको सुनाकर कहने लगीं, 'बाहर मालिनें नाना प्रकार के हार गूँथे बैठी हुई हैं। एक मेरे लिए लाओ। मैं भी पहनूँगी। तुम सब पहनो और खूब गा-गाकर माता को रिझाओ। जो लोग नाचना जानती हों, नाचें। इसके उपरांत दूसरी रीति का कार्य होगा।'

स्त्रियाँ होड़ाहींसीं में मालिनों के पास दौड़ीं, परंतु मुंदर पहले माला ले आई। बख्शिन जरा पीछे आई। मुंदर माला पहनानेवाली थी कि रानी ने उसको मुसकराकर बरज दिया। मुंदर सिकड़-सी गई।

रानी ने कहा, मुंदर, एक तो तू अभी कुमारी है, दूसरे तेरे हाथ के फूल तो नित्य ही मिल जाते हैं। बख्शिनजू के फूलों का आशीर्वाद लेना चाहती हूँ।'

बख्शिनजू हर्षोत्फुल्ल हो गई। मुंदर को अपने दासीवर्ग की प्रथा का स्मरण हो आया-विवाह होते ही महल और किला छोड़ना पड़ेगा, उदास हो गई। रानी समझ गईं। बख्शिन ने पुष्पमाला उनके गले में डालकर पैर छुए। रानी ने उठकर अंक में भर लिया। फिर मुंदर का सिर पकड़कर अपने कंधे से चिपटाकर उसके कान में कहा, 'पगली, क्‍यों मन गिरा दिया? मेरे पास से कभी अलग न होगी।'

मुंदर उसी स्थिति में हाथ जोड़कर धीरे से बोली, 'सरकार, मैं सदा ऐसी ही रहूँगी और चरणों में अपनी देह को इसी दशा में छोड़ूँगी।'

फिर अन्य स्त्रियों ने भी रानी को हार पहनाए, इतने कि वे ढंक गईं और उनको साँस लेना दूभर हो गया। सहेलियाँ उनकें हार उतार-उतारकर रख देती थीं और वह पुनः-पुन: ढंक दी जाती थीं।

अंत में कोने में खड़ी हुई एक नववधू माला लिए बढ़ी। उसके कपड़े बहुत रंग-बिरंगे थे। चाँदी के जेवर पहने थी। सोने का एकाध ही था। सब ठाठ सोलह आना बुंदेलखंडी। पैर के पैजनों से लेकर सिर की दाउनी (दामिनी) तक सब आभूषण स्थानिक। रंग जरा साँवला। बाकी चेहरा रानी की आकृति, आँख-नाक से बहुत मिलता-जुलता! रानी को आश्चर्य हुआ और स्त्रियों के मन में काफी कुतूहल। वह डरते-डरते रानी के पास आई।
रानी ने मुसकराकर पूछा, 'कौन हो?'
उत्तर मिला, 'सरकार, हों तो कोरिन।'
'नाम?'
'सरकार, झलकारी दुलैया।'
'निःसंदेह जैसा नाम है वैसे ही लक्षण हैं! पहना दे अपनी माला।'
झलकारी ने माला पहना दी और रानी के पैर पकड़ लिए।
रानी के हठ करने पर झलकारी ने पैर छोड़े।
रानी ने उससे पूछा, 'क्या बात है झलकारी? कुछ कहना चाहती है क्या?'

झलकारी ने सिर नीचा किए हुए कहा, 'मोय जा विनती करने-मोय माफी मिल जाय तो कओं।'
रानी ने मुसकराकर अभयदान दिया।

झलकारी बोली, 'महाराज, मोरे घर में पुरिया पूरबे कौ और कपड़ा बुनवे कौ काम होत आओ है। पै उननैं अब कम कर दऔ है। मलखंब, कुश्ती और जाने का-का करन लगे। अब सरकार घर कैसैं चलै?'
रानी ने पूछा, 'तुम्हारी जाति में और कितने लोग मलखंब और कुश्ती में ध्यान देने लगे हैं?'
'काये मैं का घर-घर देखत फिरत? ' झलकारी ने बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें घुमाकर तीक्ष्ण उत्तर दिया।

रानी हँस पड़ीं, यह तो तुम्हारे पति बहुत अच्छा काम करते हैं। तुम भी मललंब, कुश्ती सीखो। इनाम दूँगी। घोड़े की सवारी भी सीखो।'
झलकारी लंबा घुँघट खींचकर नब गई। घूँघट में ही बेतरह हँसी। रानी भी हँसी और अन्य स्त्रियों में भी हँसी का स्रोत फूट पड़ा।
लगभग सभी उपस्थित स्त्रियों ने जरा चिंता के साथ सोचा-हम लोगों से भी मलबंब, कुश्ती के लिए कहा जाएगा। बड़ी मुश्किल आई।

उन स्त्रियों ने फूलों के ढेरों और आभूषणों में होकर अखाड़ों और कुश्तियों को झाँका तथा परंपरा की लज्जा और संकोच में वे ठिठुर-सी गईं। उनकी हँसी को एक जकड़-सी लग गई।

झलकारी बोली, 'महाराज, मैं चकिया पीसत हों, दो-दो तीन-तीन मटकन में पानी भर-भर ले आउत, राँटा (चरखा। चरखा चलाने की प्रथा बुंदेललंड में ऊँचे घरानों तक में, घर-घर थी।) कातत...।'
रानी ने कहा, 'तुम्हारे पति का क्या नाम है?'
झलकारी सिकुड़ गई।

बख्शिन ने तड़ाक से कहा, 'आज हम लोग आपस में कुंकम-रोरी लगाते समय एक-दूसरे से पति का नाम पूछेंगे ही। झलकारी को भी बतलाना पड़ेगा, उस समय। परंतु' वह नखरे के साथ दूसरी स्त्रियों की ओर देखने लगी।'
रानी ने हँसकर पूछा, परंतु क्या बख्शिन जू?'

बख्शिन ने उत्तर दिया, 'सरकार, बड़े काम पहले राजा से आरंभ होते हैं। आज के उत्सव की परिपाटी में रिवाज के अनुसार सबको अपने-अपने पति का नाम लेना पड़ेगा, परंतु प्रारंभ कौन करेगा? यह भी हम लोगों को बतलाना पड़ेगा?'

कुछ स्त्रियाँ हंस पड़ीं। कुछ ताली पीटकर थिरक गईं। रानी की सहेलियाँ मुसकरा-मुसकराकर उनका मुँह देखने लगीं। रानी के गौर मुख पर उषा की अरुण-स्वर्ण रेखाएँ-सी खिच गईं। वह मुसकराईं जैसे एक क्षण के लिए ज्योत्स्ना छिटक गई हो। जरा सिर हिलाया मानो मुक्तपवन ने फूलों से लदी फुलवारियों को लहरा दिया हो।
रानी ने बख्शिन से कहा, 'तुम मुझसे बड़ी हो, तुमको पहले बतलाना होगा।'

'सरकार हमारी महारानी हैं। पहले सरकार बतलावेंगी। पीछे हम लोग आज्ञा का पालन करेंगी।' बख्शिन ने घूँघट का एक भाग होंठों के पास दबाकर कहा।

हरदी-कूँकूँ के उत्सव पर सधवा स्त्रियाँ एक-दूसरे को रोरी (रोली) का टीका लगाती हैं और उनको किसी-न-किसी बहाने अपने पति का नाम लेना पड़ता है।
रानी ने कहा, 'बख्शिनजु, अपनी बात पर दृढ़ रहना। आज्ञापालन में आगा-पीछा नहीं देखा जाता।'
'परंतु धर्म की आज्ञा सबसे ऊपर होती है, सरकार।' बख्शिन हठ पूर्वक बोली।

रानी के गोरे मुखमंडल पर फिर एक क्षण के लिए रक्तिम आभा झाई-सी दे गई। बोलीं, 'बख्शिनजू, याद रखना, मैं भी बहुत हैरान करूँगी। मेरी बारी आएगी तब मैं तुम्हें देखूँगी।'
बख्शिन ने प्रश्न किया, 'अभी तो मेरी बारी है, सरकार बतलाइए, महादेवजी के कितने नाम हैं?'
रानी ने अपने विशाल नेत्र जरा झुकाए, गला साफ किया। बोलीं-शिव, शंकर, भोलानाथ, शंभू, गिरिजापति।
'सरकार को तो पूरा कोष याद है। अब यह बतलाइए कि महादेवजी के जटा-जूट में से क्‍या निकला है?
'सर्प, रुद्राक्ष'

'जी नहीं सरकार-किसकी तपस्या करने पर, किसको महादेव बाबा ने अपनी जटाओं में छिपाया और कौन वहाँ से निकलकर, हिमाचल से बहकर इस देश को पवित्र करने के लिए आया? ब्रह्मावर्त के नीचे किसका महान्‌ सुहानापन है।'
'गंगा का,' यकायक लक्ष्मीबाई के मुँह से निकल पड़ा।

उपस्थित स्त्रियाँ हर्ष के मारे उन्मत्त हो उठीं। नाचने लगीं। झलकारी ने तो अपने बुंदेललंडी नृत्य में अपने को बिसरा-सा दिया। रानी उस प्रमोद में गौरी की प्रतिमा की ओर विनीत कृतज्ञता की दृष्टि से देखने लगीं। प्रमोद की उस थिरकन का वातावरण जब कुछ स्थिर हुआ, रानी ने आनंद-विभोर बख्शिन का हाथ पकड़ा। कहा, 'बख्शिनजू, सावधान हो जाओ। अब तुम्हारी बारी आई।'
बख्शिन के मुँह पर गुलाल-सा बिखर गया।

नतमस्तक होकर बोली, 'सरकार, अभी बड़े-बड़े मंत्रियों और दीवानों की स्त्रियाँ और बहुएँ हैं। हम लोग तो सरकार की सेना के केवल बख्शी ही हैं।'

रानी ने मुसकराते-मुसकराते दाँत पीसकर विशाल नेत्रों को तरेरकर, जिनमें होकर मुसकराहट विवश झरी पड़ रही थी, कहा, 'बख्शी सेना का आधार, तोपों का मालिक, प्रधान सेनापति के सिवाय और किसी से नीचे नहीं। राजा के दाहिने हाथ की पहली उँगली, और तुम यहाँ उपस्थित स्त्रियों में सबसे अधिक शरारतिन। मेरे सवालों का जवाब दो।'

बख्शिन ने अपनी मुखमुद्रा पर गंभीरता, क्षोम और अनमनेपन की छाप बिठलानी चाही। परंतु लाज से बिखेरी हुई चेहरे की गुलाली में से हँसी बरबस फूट पड़ रही थी। बख्शिन बोली, 'सरकार की कलाई इतनी प्रबल है कि मेरा हाथ टूटा जा रहा है।'

रानी ने कहा, तुम्हारी कलाई भी इतनी ही मजबूत बनवाऊँगी, बात न बनाओ, मेरे सवाल का जवाब दो। बोलो, मेरे पुरखों के नाम याद हैं?'

बख्शिन सँभल गई। उसने सोचा, मारके का प्रश्न अभी दूर है। बोली, 'हाँ सरकार। जिनकी सेवा में युग बीत गए उनके नाम हम लोग कैसे भूल सकते हैं?'
'बतलाओ मेरे ससुर का नाम।' रानी ने मुसकुराते हुए दृढ़तापूर्वक कहा।
चतुर बख्शिन गड़बड़ा गई। उसके मुँह से निकल गया-'भाऊ (शिवराव भाऊ गंगाधरराव के पिता थे।) साहब'।
बख्शिन के पति का नाम लाला भाऊ था।
रानी ने हँसकर बख्शिन का हाथ छोड़ दिया।

उपस्थित स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। बख्शिन को अपने पति का नाम बतलाना तो अवश्य था, परंतु वह रानी को थोड़ा परेशान करके ही बतलाना चाहती थी; लेकिन रानी ने अनायास ही बख्शिन को परास्त कर दिया।
इसके उपरांत रानी ने चुलबुली झलकारी को बुलाया। उसके पति का वहाँ किसी को नाम नहीं मालूम था। इसलिए बहानों की गुंजाइश न थी।
रानी ने सीधे ही पूछा, 'तुम्हारे पति का नाम?'

झलकारी के पति का नाम पूरन था। पति का नाम बतलाने के लिए व्यग्र थी परंतु उत्सव की रंगत बढ़ाने के लिए उसने जरा सोच-विचारकर एक ढंग निकाला।
बोली, 'सरकार, चंदा पूरनमासी को ही पूरी-पूरी दिखात है न?'
रानी ने हँसकर कहा, 'ओ हो! पहले ही अरसट्टे में फिसल गई! पूरन नाम है?'
झलकारी झेंप गई। चतुराई विफल हुई। हँस पड़ी।
इसी प्रकार हँसते-खेलते और नाचते-गाते स्त्रियों का उत्सव अपने समय पर समाप्त हुआ।

अंत में रानी ने स्त्रियों से एक भीख-सी माँगी, 'तुममें से कोई बहनों के बराबर हो, कोई काकी हो, कोई माई हो, कोई फूफी। फूल सदा नहीं खिलते। उनमें सुगंध भी सदा नहीं रहती। उनकी स्मृति ही मन में बसती है। नृत्यगान की भी स्मृति ही सुखदायक होती है। परंतु इन सब स्मृतियों का पोषक यह शरीर और उसके भीतर आत्मा है। उनको पुष्ट करो और प्रबल बनाओ। क्या मुझे ऐसा करने का वचन दोगी?'

उन स्त्रियों ने इस बात को समझा हो या न समझा हो परंतु उन्होंने हाँ-हाँ की। इन लोगों को डर लगा कि वहीं और तत्काल कहीं मलखंब और कुश्ती न शुरू कर देनी पड़े! इत्रपान के उपरांत वे चली गईं।

लेकिन एक बात स्पष्ट थी-जब वे चली गईं तब वे किसी एक अदृष्ट, अवर्ण्य तेज से ओत-प्रोत थीं।

उसके उपरांत फिर झाँसी नगर की स्त्रियाँ संध्या-समय थालों में दीपक सजा-सजाकर और गले में बेला, मोतिया, जाही, जूही इत्यादि की फूल-मालाएँ डाल-डालकर मंदिरों में जाने लगीं। स्त्रियों को ऐसा भास होने लगा जैसे उनका कोई सतत संरक्षण कर रहा हो, जैसे कोई संरक्षक सदा साथ ही रहता हो, जैसे वे अत्याचार का मुकाबला करने की शक्ति का अपने रक्‍त में संचार पा रही हों।

झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई अध्याय (21-26)

झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई अध्याय (14-16)