इंतज़ार (कहानी) : कमलेश्वर

Intezar (Hindi Story) : Kamleshwar

रात अँधेरी थी और डरावनी भी। झाड़ियों में से अँधेरा झर रहा था और पथरीली ज़मीन में जगह-जगह गढ़े हुए पत्थर मेंढ़कों की तरह बैठे हुए थे। बिजिलांते के बूटों की आवाज़ से दहशत और बढ़ जाती थी। हवा हमेशा की तरह वीतराग थी…लोगों में सनसनी या दहशत दौड़ जाती है पर हवा उसी तरह खामोश आवाज़ में गाती, सरसराती रहती है। हवा की आवाज़ तभी टूटती है जब बिजलांते टीम के बूट रेत या धूल के कार्पेंट पर सप्-सप् करते हैं या मेंढ़कनुमा बैठे छोटे-छोटे पत्थरों से टकरा जाते हैं…

पेरीज़ शहर के फ्रीटाउन इलाके के बाहर तुमाहोल की बस्ती जाग रही थी। लेकिन घरों में रोशनी नहीं थी। बिजिलांते के बूट रोशनी से बहुत घबराते हैं…जहाँ भी कोई रोशनी टिमटिमाती है तो वे उसे बुझाने के लिए, उस पर धावा करने के लिए दौड़ते हैं, लेकिन वे पत्थरों से घबराते हैं…या तो पत्थरों से उनके बूट टकराते हैं या पत्थर आकर उनकी कनपटी पर पड़ते हैं।

मेंढकों की तरह ज़मीन पर बैठे हुए पत्थर रात में कैसे उड़ने लगते हैं, यह रहस्य बिजिलांते की गश्ती टुकड़ियों की समझ में नहीं आता था।

इसीलिए गश्त वाले एक सिपाही ने पादरी के सामने कहा था–रात में यह पत्थर उड़ते हैं…होली फादर! यह दैवी आपदा है…हमें जब फ्री टाउन इलाके के बाहर तुमाहोल की इस बस्ती में भेजा गया तो यह नहीं बताया गया था कि यहाँ भूत-प्रेत रहते हैं…हमसे कहा गया था–तुमाहोल में निगर्स रहते हैं…लेकिन यहाँ तो पत्थर उड़ते हैं…

झोंपड़ीनुमा चर्च में जलती मोमबत्तियों की रोशनी में काला पादरी मुस्कराया था–माई सन! तुमाहोल भूत-प्रेतों की बस्ती नहीं है…शैतान ने कहीं और जन्म लिया है…शैतान को पहचानो…तुम्हें शांति मिलेगी!

सिपाही अपनी सूजी आँख और कनपटी सहला रहा था। उसने अपनी नाक साफ की तो खून के कतरे देखकर वह घबरा गया था।

अस्पताल के डॉक्टर ने रिपोर्ट दी थी कि कैडिट थ्री-ज़ीरो-वन दिमागी रूप से कमज़ोर है। ताज्जुब है कि इस जैसे कायर को बिजिलांते में चुना गया। इसके दिमाग में भूत-प्रेत भर गए हैं और इसे पत्थर उड़ते हुए दिखाई देते हैं…अगर रानी के राज्य और गोरी सभ्यता की हमें रक्षा करनी है तो थ्री-ज़ीरो-वन जैसे कायरों और अंधविश्वासियों से भी हमें अपनी रक्षा करनी होगी!
चीफ वह रिपोर्ट देखकर भड़क उठा–इज़ इट ए ब्लडी मेडिलक रिपोर्ट? डॉक्टर तक हमें राजनीतिक रिपोर्ट देने लगे हैं…तुम घायलों की रक्षा करो…गोरी सभ्यता की रक्षा के लिए हम तैनात किए गए हैं!
लेकिन यह तो बहुत बाद की बात है। वह रात तो बहुत अँधेरी थी जिसमें स्तोम्पी सीपी ने तुमाहोल की बस्ती में पहला पत्थर उठाया था। हुआ यह था कि घर पर दो कमरों की फूस की झोंपड़ी को अगर कहा जा सके तो उस घर पर सौतेले बाप ने उसकी माँ को बहुत मारा था। इल्ज़ाम यह था कि स्तोम्पी सोवेतो में चल रहे विप्लव में शामिल हुआ था। सौतेला बाप उसकी माँ को पीटते हुए चीख रहा था–आज़ादी और बराबरी में भी चाहता हूँ…पर उसके लिए यह ज़रूरी नहीं कि जान खतरे में डाली जाए! तू कितना ईधन चूल्हे मे डालती है? बता! ज़रूरी है कि सारा ईधन एक बार ही डाल दिया जाए? बता और तेरा यह स्तोम्पी! बारह बरस का छोकरा स्तोम्पी–वहाँ–सोवेतो के विप्लव में शामिल होने गया था…खुद ही नहीं, छोटे भाई को भी साथ ले गया था।

माँ सिसक रही थी…बाद में उठकर वह खाना परोसने लगी थी। उसने दोनों बेटों को आवाज़ लगाई…पर स्तोम्पी का मन उचट चुका था। सिवा कुछ बर्तनों की आवाज़ के और कोई आवाज़ उस रात के पहले पहर में नहीं थी।
बस, रात बहुत अँधेरी थी और माँ के मार खाने के बाद डरावनी भी हो गई थी। झाड़ियाँ और झुरमुट सुस्ताते हाथियों की तरह अँधेरे में हाँफ रहे थे कि तभी बाज़ार के कॉफे से मिरियम मकेबा की आवाज़ आई थी…मिरियम मकेबा के गीत के शब्द वीतराग हवा पर तैरते आए थे…ज्यूकबॉक्स में किसी ने सिक्का डाला होगा। स्तोम्पी सीपी को मिरियम मकेबा की आवाज़ और गीत बहुत पसंद हैं। जब भी कोई लड़का सिक्का हाथ में लेकर अपनी पसंद का गीत ढूँढ़ता तो स्तोम्पी सीपी उसे मिरियम मकेबा का गीत सुनने के लिए प्रेरित करता…उसके पास तो पैसे होने का सवाल ही नहीं उठता था। मिरियम मकेबा के गीत पर वह दिल खोलकर नाचता था…कॉफे के लोग भी उसके नाच में रम जाते थे और कभी-कभी खुद उठकर भी नाचने लगते थे।
उस रात कॉफे से गीत की आवाज़ आई तो स्तोम्पी चुपचाप बाज़ार की ओर निकल गया। वह गीत उसे खींच रहा था। रास्ते तो उसके लिए जाने-पहचाने थे। और फिर वे इतने ऊबड़-खाबड़ भी नहीं। वह तो तुमाहोल में ही पैदा हुआ था पर दूसरे मोहल्ले में रहता था। जब उसका बाप मरा तो वह पाँच साल का था। फिर माँ ने दूसरी शादी कर ली तो वह इस मोहल्ले में चला आया।
कॉफे में पहुँचकर स्तोम्पी ने देखा–कोई सात-आठ लोग जमा थे। उनमें से दो को उसने पहचाना। वे सोवेतो के विप्लवी दिनों में उसे दिखाई दिए थे। वह तो यूँ ही घूमता-घामता वहाँ पहुँचा था…उसे पता भी नहीं था कि विप्लव क्या होता है…लेकिन भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। वैसे तो दुकानें बंद थीं पर जो खुली थीं, वे तड़ातड़ बंद होती जा रही थीं…लोग घरों से निकलकर नदी की तरह मेन स्ट्रीट पर उमड़ रहे थे…और विजिलांते के दस्ते बंदूके ताने शिकारियों की तरह तैयार खड़े थे, स्तोम्पी की समझ में तब कुछ-कुछ आने लगा था। उसका सौतेला बाप डरी-डरी आवाज़ में इन्हीं दस्तों की बात किया करता था…माँ को मारने के बाद वह खुद रोया करता था और बाद में उसे समझाता था कि डर के कारण उसके भीतर गुस्से का भूत जागता है…
‘‘तुम्हें खदानों से डर लगता है?’’ माँ तब पूछती थी–‘‘खदानों के अंदर के अँधेरे से डर लगता है?
‘‘नहीं…खदान में किस बात का डर! वहाँ तो बहुत आराम है, लेकिन धरती पर आते-आते जब बूटों की या गालियों की आवाज़ सुनाई देती है, तब डर लगता है।’’ सौतेला पिता तब बताता था।
‘‘गालियाँ कौन देता है? ठेकेदार?’’ माँ आगे पूछती।

‘‘नहीं…ठेकेदार तो पैसा और शाबाशी देता है…अगर दिन-भर में पच्चीस ट्रॉली बजरी हमने काट ली तो वह साथ बैठकर कॉफी भी पिलाता है…गालियाँ तो विजिलांते के सिपाही देते हैं।’’ पिता बताता था।
‘‘लेकिन तुम्हारा ठेकेदार तो गोरा है!’’
‘‘तो उससे क्या हुआ। हर गोरा तो कामचोर या बदमाश नहीं होता…हमारा ठेकेदार हमसे काम लेना और हमें खुश रखना जानता है।’’
‘‘तो सिपाही गालियाँ क्यों देते हैं?’’
‘‘उन्हें शक है कि हमारी खदानों में विद्रोही शरण पाते हैं…वे विजिलांते से बचने के लिए खदानों में छुप जाते हैं और हम मज़दूर लोग उन्हें पनाह देते हैं!’’
‘‘लेकिन तुम्हारे पास तो मज़दूर होने के परिचय-पत्र रहते हैं। क्या वे सिपाही तुम्हें नहीं पहचानते?’’
‘‘हमें सिर्फ नंबर से पहचाना जाता है…अगर नंबर एकदम न बोला, या याद करने में देर लगी तो च्यूइंगम खाते विजलांते का बट हमारे…’’
‘‘धीरे बोलो…जगह बताने की क्या ज़रूरत है कि बूट कहाँ पड़ता है…कुछ तो लिहाज करो…बच्चे जाग रहे हैं!’’
‘‘क्या बोली!’’ पिता गुर्राया था।
‘‘कहा न, धीरे बोलो!’’
‘‘हरामज़ादी! यहाँ भी धीरे बोलने को कहती है। तेरे एक लात लगाऊँ वहाँ पर…वहीं पर…जहाँ…जहाँ मेरे पड़ी थी।’’
और पिता ने दो-तीन लातें माँ के मार दी थी…माँ एकदम चीखकर कराहने लगी थी…और फिर पिता बिलख-बिलखकर रोने लगा था…माँ को सँभालने लगा था…फिर माँ ने खाना परोसा था। रेती के केकड़ों का शोरबा और जौ की रोटी जो वह तीन दिन पहले नानबाई की दुकान से लाई थी।
रेती के केकड़े पकड़ने में स्तोम्पी माहिर था। अगर हवा न चल रही हो तो रेती पर उनके चलने के निशान कुछ देर बने रहते हैं। और फिर वे छेद तो दिखाई ही पड़ जाते हैं जिनमें वे टेढ़े होकर घुस जाते हैं…वे सागर के केकड़ों की तरह काले नहीं होते, वे रेत की तरह ही शर्बती होते हैं…कभी-कभी तो किसी छेद को खोदने से केकड़ों की पूरी बस्ती ही मिल जाती है…भयातुर केकड़े तब भागते हैं…कुछ रह जाते हैं, कुछ रेत में रास्ते बनाकर भीतर छुप जाते हैं।
उस रात खाने के बाद पिता ने माँ को सीधा लिटा लिया था और उसकी दोनों टाँगों को फैलाकर वह उस जगह को सेंकता रहा था–जहाँ उसने माँ को मारा था। और खुद भी अपनी उस जगह को सेंकता रहा था जहाँ उसे विजिलांते ने मारा था। सेंकने के लिए पिता ने लैंप की लौ बहुत ऊँची कर ली थी, इसी से लैंप का शीशा चटक गया था तो माँ ने उसे कोसा था–‘‘दर्द तो ठीक हो जाएगा लेकिन यह शीशा कहाँ से आएगा?’’
लंबी लौ के कारण शीशा तो उनके शरीर की तरह काला पड़ गया था, लेकिन उसकी चटकन ब्लेड की धार की तरह चमकने लगी थी।

सुबह अपने पिता को बिना बताए स्तोम्पी खदानों के इलाके में गया था…यूँ ही घूमता हुआ, पास जाने की हिम्मत तो नहीं थी…खदानों के इलाके में गया था…यूँ ही घूमता हुआ, पास जाने की हिम्मत तो नहीं थी…खदानों के अलग-अलग इलाके चहारदीवारियों या कँटीले तारों से घिरे हुए थे…गेट पर नए मज़दूर भर्ती के लिए खड़े थे…अपने-अपने सिटिज़न पास लिए हुए। संतरी उनको रोके हुए थे।
स्तोम्पी पास तक तो नहीं जा सका इसलिए वह एक टीले पर चढ़कर देखता रहा था…खदानों के मुहाने छोटे-छोटे छेदों की तरह दिखाई दे रहे थे और उनमें उतरने वाले मज़दूर केकड़ों की तरह ही गायब होते जा रहे थे। कटी हुई बजरी लेकर आने वाली ट्रालियाँ तो बहुत बाद में ऊपर आती हैं। मज़दूर तो केकड़ों की तरह नीचे ही छिपे रहते हैं।
लेकिन उस दिन स्तोम्पी ने मेन स्ट्रीट में लोगों को धरती के ऊपर देखा था। तब वह कुछ-कुछ समझ सका था और तभी अपने सौतेले पिता के प्रति उसके मन में कुछ अपनापन-सा उभरा था…
और तब स्तोम्पी ने विजिलांते के शिकारी सिपाहियों को आँख उठाकर देखा था…और दौड़कर भीड़ के आगे खड़ा हो गया था। उसे देखकर तमाशबीन बच्चे भी धीरे-धीरे भीड़ के आगे आ गए थे और उमड़ती नदी की पहली लहर की तरह विजिलांते के दस्तों के सामने खड़े हो गए थे।
विप्लवी आंदोलन के नेता ने चीखकर कहा था–‘‘बच्चों को पीछे हटाओ! यह कहाँ से आ गए?’’
तो उसी ने बुजुर्ग साथी से कहा था–‘‘नही! ये दस-दस, बारह-बारह बरस के बच्चे हमसे ज़्यादा साहसी हैं। इनके पास केवल भविष्य है…इन्हें सिर्फ पाना है, कुछ खोना नहीं। हमारा वर्तमान हमें कायर बना सकता है…इन्हें नहीं…इनके पास केवल भविष्य है!’’
और उसके बाद क्या हुआ यह तो स्तोम्पी को भी नहीं मालूम…उसे तो होश तब आया जब उसने अपने को डिटेंशन लॉकअप में पाया। मारकाट के बाद उसकी मरहमपट्टी कर दी गई थी, लेकिन उसके शरीर में जगह-जगह दर्द था। तब उसे घर का लैंप बहुत याद आया था और सपने में उसने देखा था–उसका सौतेला पिता उसे जगह-जगह उसी तरह सेंक रहा था जैसे उसने माँ को सेंका था। आँख खुली तो देखा–डिटेंशन वार्ड में अँधेरा था। वहाँ कोई लैंप नहीं था, और न कोई लौ…

दो महीने बाद स्तोम्पी को दो झापड़ मारकर छोड़ा गया। डिटेंशन कैंप का जेलर राउंड पर आया तो स्तोम्पी और दूसरे सात बच्चों को देखकर चीखा था–अबे गधो! नाबालिगों को बंद करके रखा है, ब्रिटिश कानून ग्रेट-ब्रिटेन में चाहे नेस्तनाबूद हो चुका हो लेकिन प्रीटोरिया की सरकार मानव-अधिकार और आधारभूत कानूनों की अभी भी रक्षा करती है…नाबालिगों को हम अदालत की आज्ञा बिना डिटेंशन में नहीं रख सकते! इन्हें इसी वक्त रिहा करो…नहीं तो मानव-अधिकारों के हनन का कलंक हम पर लग जाएगा। इन्हें छोड़ों…आज़ाद करो…सफर के पैसे देकर इन्हें घर भेजो…अभी…फौरन…
और तह स्तोम्पी छोड़ा गया था। वह नहीं जानता था कि अब क्या करे? घर जाए या यहीं रुक जाए? उसे अंदाज था कि छोटे भाई ने घर लौटकर बता दिया होगा कि वह कहाँ है…
और यह बात दोनों को पता हो गई थी–माँ को भी और सौतेले पिता को भी, लेकिन दोनों एक-दूसरे से इस बात को छुपाते रहे थे–और स्तोम्पी के इस तरह गायब होने को उसके आवारा हो जाने का नाम देते रहे थे और यही उन्होंने विजिलांते के दस्ते से भी कहा था, जो स्तोम्पी को पूछते हुए आया था।
‘‘जी! उसका नाम स्तोम्पी सीपी है…उम्र बारह साल। वो मेरा सौतेला बेटा और मेरी पत्नी का बेटा है…वह शुरू में ही आवारा लग रहा है…घर से चीज़ें चुराकर भागता रहा है…जब भूखा मरने लगता है तो लौट आता है। इस वक्त हमें उसके बारे में कुछ भी पता नहीं कि वो कहाँ है! लौटकर अगर आया तो हम आपके पास रिपोर्ट करेंगे। उसे आपके सामने हाज़िर करेंगे। उसने हमें बहुत परेशान कर रखा है…और साब! हम तो वैसे ही बहुत परेशान लोग हैं…’’

विजिलांते बहुत संतुष्ट होकर लौट गए–ही नोज़ हिज़ पास्ट। प्रेज़ेंट एंड फ्यूचर। हमने इन निगर्स को सभ्य बनाया, रोज़गार दिया और चर्च दिया। इन्हें इनका ईश्वर दिया।
और स्तोम्पी जब तुमाहोल में लौटकर आया तो वह पहले सीधे चर्च गया। काले पादरी ने उसे पहचाना और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा–‘‘माई सन! जो मन और तन से आज़ाद नहीं है वो किसी भी धर्म का बंदा नहीं है।’’
काले पादरी की बात स्तोम्पी समझ ही नहीं पाया। उसने उसी तरह आंखें फाड़कर काले पादरी को देखा जैसे उसने मेन स्ट्रीट में विजिलांते के दस्तों को देखा था।
वह झोंपड़ीनुमा चर्च से बाहर निकल आया था…मोमबत्तियों की रोशनी में काला पादरी बहुत संतुष्ट-सा मुस्करा रहा था।
दूर कॉफे से तभी मिरियम मकेबा की पुकारती आवाज़ आई थी और स्तोम्पी उस तरफ खिंचा चला गया था। ज्यूकबॉक्स में किसी ने सिक्का डाला था और मिरियम मकेबा की आवाज एकदम फूट पड़ी थी–

‘‘आओ प्यार करो…
तन के क्षणिक अनुराग से नहीं…
वह भी ज़रूरी है…
लेकिन पहले धरती से प्यार करो…
इसके जंगलों, कछारों और हवा से प्यार करो…
जब तक जंगल, पहाड़ और हवा आज़ाद नहीं हैं
तब तक तुम्हारा तन भी आज़ाद नहीं है
नश्वर तन को आज़ाद करो…
आओ प्यार करो।…आओ प्यार करो!’’

शब्द और अर्थ स्तोम्पी की समझ में नहीं आते थे पर मिरियम मकेबा की आवाज़ के अर्थों में एक कशिश थी…वह पुकारती आवाज़ उसे खींचती थी…
मिरियम मकेबा की आवाज़ के बीच उसे विजिलांते के दस्ते और काले पादरी के राहत देते वचन एक-से लगते थे। काले पादरी के वे वचन आज़ादी का आसरा देते हुए सहने और सहते जाने की सीख देते थे।
लेकिन यह उसके सौतेले पिता ने नहीं किया। उसने स्तोम्पी को बाँहों में लेते हुए इतना ही कहा–‘‘स्तोम्पी बेटे! मैं वही चाहता हूँ जो तुम चाहते हो…लेकिन मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता! तुम्हारी माँ भी तुम्हें खोना नहीं चाहती…जिस दिन तुम खो जाओगे…हम दोनों अजनबी हो जाएँगे! हम तुम्हारा खो जाना…तुम्हारा समाप्त हो जाना बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे! तुम बच्चों की विप्लवी सेना में सबसे आगे हो…लेकिन…’’
इस लेकिन का उत्तर किसी के पास नहीं था। स्तोम्पी ने अपने सौतेले पिता से पूछा, ‘‘लेकिन?’’
‘‘लेकिन…यही कि तुम विप्लव…इस क्रांति के पीछे रहो। तुम अभी बारह साल के हो…बहुत बड़ी उम्र है तुम्हारे पास।’’
‘‘वे मुझे इसी उम्र पर रोके रखना चाहते हैं। वे मुझे इस उम्र से आगे बढ़ने नहीं देंगे।’’
‘‘स्तोम्पी! तुम अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ी बात कर रहे हो।’’ पिता चीखा था।
‘‘अत्याचार और अन्याय सहने वालों की उम्र हमेशा बराबर होती है।’’ स्तोम्पी ने बुजुर्गो की तरह चीखकर कहा था–‘‘मैं ज़्यादा नहीं जानता, पर जब आप मां को मारते हैं तो मैं जानता हूँ वह मार कहाँ से आती है…’’

और यही वह रात थी जो अँधेरी और डरावनी थी जब विजिलांते टीम के बूट रेत या धूल के कार्पेट पर सप्-सप् कर रहे थे और कभी-कभी मेंढ़कनुमा बैठे हुए छोटे-छोटे पत्थरों से टकरा जाते थे।

मेंढ़कों की तरह ज़मीन पर बैठे हुए यह पत्थर रात में कैसे उड़ने लगे थे, यह रहस्य विजिलांते के गश्ती दस्तों की समझ में नहीं आया था।
स्तोम्मी तो तब मिरियम मकेबा का गीत सुन रहा था…तभी एक आदमी दौड़ता आया था और उसने कॉफे के मालिक से हाँफते हुए कहा था–‘‘बत्ती बुझा दो…वे आ रहे हैं!’’ कॉफे की बत्ती फौरन गुल हो गई थी और उसे अँधेरे में कुछ लोग इधर-उधर निकल गए थे। ज्यूक बॉक्स से थोड़ी-सी हलकी रोशनी आ रही थी। आखिर वह रोशनी भी बंद कर दी गई और गीत की आवाज़ भी एकाएक बीच में टूट गई।
स्तोम्पी की समझ में कुछ नहीं आया कि वह क्या करे। अँधेरे में पड़ी एक बेंच पर वह बैठ गया था। तभी विजिलांते का एक दस्ता आया था…

उनके हाथों में खदानों की टार्चे थीं और वे कॉफे में लोगों को ऐसे तलाश रहे थे जैसे खदान में केकड़ों को तलाश रहे हों। अपनी जल्दबाज़ी में उन्होंने बाहर बैठे स्तोम्पी को नहीं देखा था। लेकिन कॉफे का मालिक उन्हें मिल गया था। यही बहुत था। उन्होंने कॉफे के मालिक को बुरी तरह पीटा था…बिजली के तार काट दिए थे, सारे बर्तन फोड़ दिए थे और ज्यूकबॉक्स तोड़ दिया था।
जब वे लौट रहे थे तो एक उड़ता हुआ पत्थर आया था…फिर बहुत-से पत्थर उड़ते हुए आए थे और कैडिट थ्री-ज़ीरो-वन की कनपटी से खून बहने लगा था। आँखें सूज गई थीं।
उनके पास जानकारियाँ थीं…कैडिट थ्री-वन को चौकी पर जमा करके वे स्तोम्पी के घर पहुँचे थे। उन्होंने बूटों से दस्तक देकर उसके पिता और माँ को जगाया था। छोटा भाई अँधेरे में दुबक गया था। एक ने आगे बढ़कर कहा था :
‘‘स्तोम्पी को बाहर निकालो!’’
खदान की टार्च हाथ में देखकर उसका पिता तो पहले यही समझा था कि ठेकेदार आया है…लेकिन इस वक्त तो वह कभी नहीं आता। पिता समझ गया था।
‘‘स्तोम्पी तो घर में नहीं है! वह खाने के वक्त भी नहीं था। पता नहीं कब कहाँ भाग जाता है…एकदम आवारा हो गया है।’’
‘‘वो आवारा ही नहीं, खतरनाक हो गया है…उसने डेढ़ हज़ार बच्चों को पत्थर मारना सिखाया है।’’ विजिलांते का मुखिया चीखा था।
‘‘यह तो वह बचपन से करता था।’’ पीछे खड़ी माँ ने दबी आवाज़ में कहा था–‘‘बचपन में वह मेंढकों को पत्थर मारा करता था…तब भी वो बहुत शैतान था…’’
‘‘अब वो पूरा शैतान हो गया…डेविल! वो जब भी घर आए, हमारे हवाले कर दिया जाए। तुम रोज़ चौकी पर आकर हाज़िरी दिया करो…शाम होते ही!’’
आदेश देकर विजिलांते लौट गए थे।
लेकिन उस दिन से स्तोम्पी घर नहीं लौटा। माँ कभी-कभी रोती थी–‘‘उसे माँ की याद भी नहीं आती….सौतेला पिता भी पछताता था–वो कभी छुपकर मुझसे मिलने ही चला आता…’’

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वही हुआ जो ऐसे में होता है। वह रात भी अँधेरी थी। विजिलांते के बूटों की आवाज़ से दहशत और बढ़ गई थी…फिर चर्च की झोंपड़ी के पीछे गोलियाँ चली थीं। काला पादरी घबराकर बाहर आया था। तुमाहोल की बस्ती को साँप सूँघ गया था।
बुरी तरह से घायल स्तोम्पी खून की मटमैली चादर पर तड़प रहा था।
डर से थरथर काँपती चर्च की बुढ़िया टीचर एक मोमबत्ती थामे पास आई थी और उसे देखते ही डरी आवाज़ में चीख पड़ी थी–‘‘यह तो स्तोम्पी है! इस बच्चे को उन्होंने क्यों मार डाला!’’
पादरी के चेहरे पर पूजा की उदासी थी।
बुढ़िया टीचर ने तब उसके पास बैठते हुए पादरी से कहा था–‘‘स्तोम्पी के घर वालों को खबर कर दो…यह सिर्फ पाँच-सात मिनट का मेहमान है…’’
‘‘नहीं! किसी को खबर मत करो…’’ कराहते हुए स्तोम्पी बोला था। तब तक पादरी पवित्र चल ले आया था।
‘‘खबर करना तो ज़रूरी है…’’ पादरी बोला था।
‘‘नहीं!’’ टूटती आवाज़ में स्तोम्पी ने कहा था–‘‘मेरी माँ सुनेगी तो रोएगी…उसे मत बताना कि मैं मारा गया हूँ। उससे यही कहना कि मैं…मैं डिटेंशन में हूँ…मुझे विजिलांते ने पकड़ लिया है…’’
‘‘माइ सन…’’ पादरी की आँखों में आँसू थे।
‘‘मुझे चुपचाप यहीं कहीं दफना देना…मगर मेरी माँ…मेरे पिता को मत बताना…उन्हें यही बताना–मैं डिटेंशन में हूँ…तब वे रोएँगे नहीं, मेरा इंतज़ार करेंगे…’’
‘‘यस माई सन! जीसस क्राइस्ट ने भी यही कहा है–मैं मनुष्य का शरीर धारण करके फिर धरती पर जाऊँगा…मेरा इंतज़ार करना…’’
‘‘मुझे जीसस क्राइस्ट का इंतज़ार नहीं है फादर…’’ कहते-कहते स्तोम्पी की आँखें पथरा गई थीं।
बुढ़िया टीचर ने मोमबत्ती की काँपती लौ में और पास जाकर देखा…और कसमसाकर वहीं बैठ गई।
काले पादरी ने अँधेरे में ही क्रास बनाया।
रक्त की चादर पर स्तोम्पी पड़ा था।

उसकी पलकें बंद करने से पहले पादरी ने एक बार उसकी आँखों में देखा…तो बुढ़िया टीचर ने मोमबत्ती और पास कर दी। फिर उसने धीरे से बुदबुदा कर पूछा–‘‘इसे किसका इंतज़ार था?’’
‘‘पता नहीं!’’

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