दूदा पहलवान (कहानी) : सआदत हसन मंटो

Dooda Pahalwan (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto

स्कूल में पढ़ता था तो शहर का हसीन तरीन लड़का मुतसव्वर होता था। उस पर बड़े बड़े अमर्द परस्तों के दरमियान बड़ी ख़ूँख़्वार लड़ाईयां हुईं। एक दो इसी सिलसिले में मारे भी गए।
वो वाक़ई हसीन था। बड़े मालदार घराने का चश्म ओ चराग़ था इस लिए उस को किसी चीज़ की कमी नहीं थी। मगर जिस मैदान वो कूद पड़ा था उस को एक मुहाफ़िज़ की ज़रूरत थी जो वक़्त पर उस के काम आसके। शहर में यूं तो सैंकड़ों बदमआश और गुंडे मौजूद थे जो हसीन ओ जमील सलाहू के एक इशारे पर कट मरने को तय्यार थे, मगर दूदे पहलवान में एक निराली बात थी। वो बहुत मुफ़लिस था, बहुत बद-मिज़ाज और अख्खड़ तबीयत का था, मगर इस के बावजूद उस में ऐसा बांकपन था कि सलाहू ने उस को देखते ही पसंद कर लिया और उन की दोस्ती होगई।
सलाहू को दूदे पहलवान की रिफ़ाक़त से बहुत फ़ायदे हुए। शहर के दूसरे गुंडे जो सलाहू के रास्ते में रुकावटें पैदा करने का मूजिब होसकते थे, दूदे की वजह से ख़ामोश रहे। स्कूल से निकल कर सलाहू कॉलेज में दाख़िल हुआ तो उस ने ऊपर पर पुर्जे़ निकाले और थोड़े ही अर्से में उस की सरगर्मीयां नया रुख़ इख़्तियार कर गईं। इस के बाद ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि सलाहू का बाप मर गया। अब वो उस की तमाम जायदाद, इम्लाक का वाहिद मालिक था। पहले तो उस ने नक़दी पर हाथ साफ़ किया। फिर मकान गिरवी रखने शुरू किए। जब दो मकान बिक गए तो हीरा मंडी की तमाम तवाइफ़ें सलाहू के नाम से वाक़िफ़ थीं। मालूम नहीं इस में कहाँ तक सदाक़त है लेकिन लोग कहते हैं कि हीरा मंडी में बूढ़ी नाइकाएं अपनी जवान बेटीयों को सलाहू की नज़रों से छपा छुपा कर रखती थीं। मबादा वो उस के हुस्न के चक्कर में फंस जाएं। लेकिन इन एहतियाती तदाबीर के बावजूद जैसा कि सुनने में आया है, कई कुंवारी तवाइफ़ ज़ादियाँ उस के इश्क़ में गिरफ़्तार हुईं और उल्टे रस्ते पर चल कर अपनी ज़िंदगी के सुनहरे अय्याम उस के तलव्वुन की नज़र कर बैठीं।
सलाहू खेल खेल रहा था। दूदे को मालूम था कि ये खेल देर तक जारी नहीं रहेगा। वो उम्र में सलाहू से दुगुना बड़ा था। उस ने हीरा मंडी में बड़े बड़े सेठों की ख़ाक उड़ते देखी थी। वो जानता था कि हीरा मंडी एक ऐसा अंधा कुँआं है जिस को दुनिया भर के सेठ मिल कर भी अपनी दौलत से नहीं भर सकते। मगर वो उस को कोई नसीहत नहीं देता था। शायद इस लिए कि वो जहांदीदा होने के बाइस अच्छी तरह समझता था कि जो भूत उस के हसीन ओ जमील बाबू के सर पर सवार है, उसे कोई टोना टोटका उतार नहीं सकता।
दूदा पहलवान हर वक़्त सलाहू के साथ होता था। शुरू शुरू में जब सलाहू ने हीरा मंडी का रुख़ किया तो उस का ख़याल था कि दूदा भी उस के ऐश में शरीक होगा मगर आहिस्ता आहिस्ता उसे मालूम हुआ कि उस को इस क़िस्म के ऐश से कोई दिलचस्पी नहीं थी जिस में वो दिन रात ग़र्क़ रहता था। वो गाना सुनता था, शराब पीता था। तवाइफ़ों से फ़हश मज़ाक़ भी करता था। मगर इस से आगे कभी नहीं गया था। इस का बाबू रात रात भर अंदर किसी माशूक़ को बग़ल में दबाये पड़ा रहता और वो बाहर किसी पहरेदार की तरह जागता रहता।
लोग समझते थे कि दूदे ने अपना घर भर लिया है। दौलत की लूट मची है। इस में उस ने यक़ीनन अपने हाथ रंगे हैं। इस में कोई शक नहीं कि जब सलाहू दाद-ए-ऐश देने को निकलता था हज़ारों नोट दूदे ही की तहवील में होते थे। मगर ये सिर्फ़ उसी को मालूम था कि पहलवान ने इन में से एक पाई भी कभी इधर उधर नहीं की। उस को सिर्फ़ सलाहू से दिलचस्पी थी, जिस को अपना आक़ा समझता था और ये लोग भी जानते थे कि दूदा किस हद तक उस का ग़ुलाम है। सलाहू उस को डांट डपट लेता था। बअज़ औक़ात शराब के नशे में उसे मार पीट भी लेता था मगर वो ख़ामोश रहता। हसीन ओ जमील सलाहू उस का माबूद था। वो उस के हुज़ूर कोई गुस्ताख़ी नहीं कर सकता था।
एक दिन इत्तिफ़ाक़ से दूदा बीमार था। सलाहू रात को हस्ब-ए-मामूल ऐश करने के लिए हीरा मंडी पहुंचा। वहां किसी तवाइफ़ के कोठे पर गाना सुनने के दौरान में उस की झड़प एक तमाश-बीन से होगई और हाथापाई में उस के माथे पर हल्की सी ख़राश आगई। दूदे को जब इस का इल्म हुआ तो उस ने दीवार के साथ टक्कर मार मार कर अपना सारा सर ज़ख़्मी कर लिया। ख़ुद को बेशुमार गालियां दीं। बहुत बुरा भला कहा। उस को इतना अफ़सोस हुआ कि दस पंद्रह दिन तक सलाहू के सामने उस का सर झुका रहा। एक लफ़्ज़ भी उस के मुँह से न निकला। उस को ये महसूस होता था कि उस से कोई बहुत बड़ा गुनाह सरज़द हो गया है। चुनांचे लोगों का बयान है कि वो बहुत देर तक नमाज़ें पढ़ पढ़ कर अपने दिल का बोझ हल्का करता रहा।
सलाहू की वो इस तरह ख़िदमत करता था जिस तरह पुराने क़िस्से कहानीयों के वफ़ादार नौकर करते हैं। वो उस के जूते पालिश करता था। उस के पांव दाबता था। उस के चमकीले बदन पर मालिश करता था। उस के हर आराम और आसाइश का ख़याल रखता था जैसे उस के बतन से पैदा हुआ है।
कभी कभी सलाहू नाराज़ हो जाता। ये वक़्त दूदे पहलवान के लिए बड़ी आज़माईश का वक़्त होता था। दुनिया से बेज़ार हो जाता। फ़क़ीरों के पास जा कर तावीज़ गंडे ले लेता। ख़ुद को तरह तरह की जिस्मानी तकलीफ़ पहुंचाता। आख़िर जब सलाहू मौज में आकर उसे बुलाता तो उसे ऐसा महसूस होता कि दोनों जहान मिल गए हैं। दूदे को अपनी ताक़त पर नाज़ नहीं था, उसे ये भी घमंड नहीं था कि वो छुरी मारने के फ़न में यकता है। उस को अपनी ईमानदारी और अपने ख़ुलूस पर भी कोई फ़ख़्र नहीं था। लेकिन वो अपनी इस बात पर बहुत नाज़ां था कि लंगोट का पक्का है। वो अपने दोस्तों, यारों को बड़े फ़ख़्र ओ इम्तियाज़ से बताया करता था कि उस की जवानी में सैंकड़ों मर्द औरतें आएं, चलतरों के बड़े बड़े मंत्र उस पर फूंके मगर वो......शाबाश है उस के उस्ताद को, लंगोट का पक्का रहा।
ये बड़ नहीं थी। उन लोगों को जो दूदे पहलवान के लंगोटीए थे, अच्छी तरह मालूम था कि उस का दामन औरत की तमाम आलाईशों से पाक है। मुतअद्दिद बार कोशिश की गई कि वो गुमराह हो जाए मगर नाकामी हुई। वो साबित क़दम रहा।
ख़ुद सलाहू ने कई बार उस का इम्तिहान लिया। अजमेर के उर्स पर उस ने मेरठ की एक काफ़िर अदा तवाइफ़ अनवरी को इस बात पर आमादा कर लिया कि वो दूदे पहलवान पर डोरे डाले। उस ने अपने तमाम गुर इस्तिमाल कर डाले मगर दूदे पर कोई असर न हुआ। उर्स ख़त्म होने पर जब वो लाहौर रवाना हुई तो गाड़ी में उस ने सलाहू से कहा। बाऊ! “बस अब मेरा कोई इम्तिहान न लेना। ये साली अनवरी बहुत आगे बढ़ गई थी। तुम्हारा ख़याल था वर्ना गला घूँट देता हराम-ज़ादी का”।
इस के बाद सलाहू ने उस का और कोई इम्तिहान न लिया। दूदे के ये तंबीही अलफ़ाज़ काफ़ी थे जो उस ने बड़े संगीन लहजे में अदा किए थे।
सलाहू ऐश ओ इशरत में ब-दस्तूर ग़र्क़ था। इस लिए कि अभी तीन चार मकान बाक़ी थे। हीरा मंडी की तमाम क़ाबिल-ए-ज़िक्र तवाइफ़ें एक एक करके उस के पहलू में आचुकी थीं। अब उस ने छोटे जामों का दौर शुरू कर दिया था। उसी दौरान में एक दम कहीं से एक तवाइफ़ अलमास पैदा होगई जो एक दम सारी हीरा मंडी पर छा गई। हाथ लगाए मैली होती है। पानी पीती है तो उस के शफ़्फ़ाफ़ हल्क़ में से नज़र आता है। हिरनी की सी आँखें हैं जिन में ख़ुदा ने अपने हाथ से सुर्मा लगाया है। बदन ऐसा मुलाइम है कि निगाहें फिसल फिसल जाती हैं। सलाहू जहां भी जाता है, उस परी चेहरा और हूर शमाइल माशूक़ा के हुस्न ओ जमाल की बातें सुनता था।
दूदे पहलवान ने फ़ौरन पता लगाया और अपने बाबू को बताया कि ये अलमास कश्मीर से आई है। वाक़ई ख़ूबसूरत है, अधेड़ उम्र की माँ उस के साथ है जो उस पर बहुत कड़ी निगरानी रखती है। इस लिए कि वो लाखों के ख़ाब देख रही है।
जब अलमास का मुजरा शुरू हुआ तो उस के कोठे पर सिर्फ़ वही साहब-ए-सर्वत जाते थे जिन का लाखों का कारोबार था। सलाहू के पास अब इतनी दौलत नहीं थी कि वो इन तकड़े दौलतमंद अय्याशों का मुक़ाबला ख़म ठोंक के कर सके। आठ दस मुजरों ही में उस की हजामत होजाती। चुनांचे वो इसी ख़याल के तहत ख़ामोश रहा और पेच-ओ-ताब खाता रहा। दूदा पहलवान अपने बाबू की ये बेचारगी देखता तो उसे बहुत दुख होता। मगर वो क्या कर सकता था। उस के पास था ही क्या। एक सिर्फ़ उस की जान थी मगर वो इस मुआमले में क्या काम दे सकती थी। बहुत सोच बिचार के बाद आख़िर दूदे ने एक तरकीब सूची जो ये थी कि सलाहू, अलमास की माँ इक़बाल से राबिता पैदा करे। उस पर ये ज़ाहिर है कि वो उस के इश्क़ में गिरफ़्तार होगया है। इस तरह जब मौक़ा मिले तो अलमास को अपने क़ब्ज़े में करले।
सलाहू को ये तरकीब पसंद आई। चुनांचे फ़ौरन इस पर अम्ल दर आमद शुरू होगया। इक़बाल बहुत ख़ुश हुई कि इस ढलती उम्र में उसे सलाहू जैसा ख़ूबरू चाहने वाला मिल गया। ये सिलसिला देर तक जारी रहा । इस दौरान सैंकड़ों मर्तबा अलमास सलाहू के सामने आई। बअज़ औक़ात उस के पास बैठ कर बातें भी करती रही और उस के हुस्न से काफ़ी मुतअस्सिर हुई। उस को हैरत थी कि वो उस की माँ से क्यूं दिलचस्पी ले रहा है जब कि वो उस की आँखों के सामने मौजूद है। लेकिन उस की ये हैरत बहुत देर तक क़ायम न रही। जब उस को सलाहू की हरकात ओ सकनात से मालूम होगया है कि वो चाल चल रहा है, इस इन्किशाफ़ से उसे ख़ुशी हुई। अंदरूनी तौर पर उस के एहसास जवानी को बड़ी ठेस पहुंच रही थी।
बातों बातों में एक दिन सलाहू का ज़िक्र आया तो अलमास ने उस की ख़ूबसूरती की तारीफ़ ज़रा चटख़ारे के साथ बयान की जो उस की माँ इक़बाल को बहुत नागवार मालूम हुई। चुनांचे इन दोनों में ख़ूब चख़ चख़ हुई। अलमास ने अपनी माँ से साफ़ साफ़ कह दिया कि सलाहू उसे बेवक़ूफ़ बना रहा है। इक़बाल को बहुत दुख हुआ। यहां अब बेटी का सवाल नहीं था बल्कि रक़ीब का या मौत का। चुनांचे दूसरे रोज़ जब सलाहू आया तो उस ने सब से पहले उस से पूछा। “आप किसे पसंद करते हैं, मुझे या मेरी बेटी अलमास को”?
सलाहू हो अजब मख़्मसे में गिरफ़्तार होगया। सवाल बड़ा टेढ़ा था। थोड़ी देर सोचने के बाद उस को बिल-आख़िर यही कहना पड़ा “तुम्हें, मैं तो सिर्फ़ तुम्हें पसंद करता हूँ” और फिर उसे इक़बाल को मज़ीद यक़ीन दिलाने के लिए और बहुत सी बातें घड़ना पड़ें। इक़बाल यूं तो बहुत चालाक थी मगर उस को किसी हद तक यक़ीन आ ही गया। शायद इस लिए कि वो अपनी उम्र के ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी थी जहां उसे चंद झूटी बातों को भी सच्चा समझना ही पड़ता था।
जब ये बात अलमास तक पहुंची तो वो बहुत जज़-बज़ हुई। जूंही उसे मौक़ा मिला, उस ने सलाहू को पकड़ लिया और उस से सच्च उगलवाने की कोशिश की। सलाहू ज़्यादा देर तक उस की जरह बर्दाश्त न कर सका। आख़िर उसे मानना ही पड़ा कि उसे इक़बाल से कोई दिलचस्पी नहीं। अस्ल में तो अलमास का हुसूल ही उस के पेश-ए-नज़र है।
ये क़ुबूलवाने पर अलमास की तसल्ली हुई, मगर वो लगाओ जो उस के दिल ओ दिमाग़ में सलाहू के मुतअल्लिक़ पैदा हुआ था, ग़ायब होगया और उस ने ठेट तवाइफ़ बन कर अपनी माँ को समझाया कि बचपना छोड़ दो और इस से मेरे दाम वसूल करो, तुम्हें वो क्या देगा। अपनी लड़की की ये अक़्ल वाली बात इक़बाल की समझ में आगई और वो सलाहू को दूसरी नज़र से देखने लगी।
सलाहू भी समझ गया कि इस का वार ख़ाली गया है। अब इस के सिवा और कोई चारा नहीं था कि वो नीलाम में अलमास की सब से बढ़ कर बोली दे। दूदे पहलवान ने इधर उधर से कुरेद कर मालूम किया कि अलमास की नथुनी उतर सकती है अगर सलाहू हो पचीस हज़ार रुपये उस की माँ के क़दमों में ढेर करदे।
सलाहू अब पूरी तरह जकड़ा जा चुका था। जाए रफ़्तन न पाए माँदन वाला मुआमला था। उस ने दो मकान बेचे और पचीस हज़ार रुपये हासिल करके इक़बाल के पास पहुंचा। उस का ख़याल था कि वो इतनी रक़म पैदा नहीं कर सकेगा। जब वो ले आया, तो वो बौखला सी गई। अलमास से मश्वरा किया तो उस ने कहा इतनी जल्दी कोई फ़ैसला नहीं करना चाहिए। पहले उस से कहो कि हमारे साथ क्लियर शरीफ़ के उर्स पर चले। सलाहू को जाना पड़ा और नतीजा इस का ये हुआ कि पूरे पंद्रह हज़ार रुपये मुजरो में उड़ गए। उस की इन तमाशबीनों पर जो उर्स में शरीक हुए थे, धाक तो बैठ गई मगर उस के पचीस हज़ार रूपयों को दीमक लग गई। वापस आए तो बाक़ी का रुपया आहिस्ता आहिस्ता अलमास की फ़रमाइशों की नज़र होगया। दूदा अंदर ही अंदर ग़ुस्से से खौल रहा था। उस का जी चाहता था कि इक़बाल और अलमास, दोनों का सर उड़ा दे। मगर उसे अपने बाबू का ख़याल था। उस के दिल में बहुत सी बातें थीं जो वो सलाहू को बताना चाहता था, मगर बता नहीं सकता था। उस से उसे और भी झुंझलाहट होती। सलाहू बहुत बुरी तरह अलमास पर लट्टू था। पचीस हज़ार रुपये ठिकाने लग चुके थे। अब वो दस हज़ार रुपये उस मकान को गिरवी रख कर उजाड़ रहा था जिस में उस की नेक सीरत माँ रहती थी। ये रुपया कब तक उस का साथ देता। इक़बाल और अलमास दोनों जोंक की तरह चिम्टी हुई थी। आख़िर वो दिन भी आगया जब उस पर नालिश हुई और अदालत ने उसे क़ुरक़ी का हुक्म दे दिया।
सलाहू बहुत परेशान हुआ, उसे कोई सूरत नज़र नहीं आती थी। कोई ऐसा आदमी जो उसे क़र्ज़ देता। ले दे कर एक मकान था, सो वो भी गिरवी था और क़ुरक़ी आई हुई थी, और बेल्फ सिर्फ़ दूदे पहलवान की वजह से रुके हुए थे जिस ने उन को यक़ीन दिलाया था कि वो बहुत जल्द रुपये का बंद-ओ-बस्त करदेगा।
सलाहू बहुत हँसा था कि दूदा कहाँ से रुपये का बंद-ओ-बस्त करेगा। सौ दो सौ रुपये की बात होती तो उसे यक़ीन आजाता। मगर सवाल पूरे दस हज़ार रुपये का था। चुनांचे उस ने पहलवान का बड़ी बेदर्दी से मज़ाक़ उड़ाया था कि वो उस को तिफ़्ल तसल्लियां दे रहा है। पहलवान ने ये लअन तअन ख़ामोशी से बर्दाश्त की और चला गया। दूसरे रोज़ आया तो उस का शिंगरफ़ ऐसा चेहरा ज़र्द था। ऐसा मालूम था कि वो बिस्तर-ए-अलालत पर से उठ कर आया है। सरनेवढ़ा कर उस ने अपने डब में से रूमाल निकाला जिस में सौ सौ के कई नोट थे और सलाहू से कहा “ले बाऊ...... ले आया हूँ”।
सलाहू ने नोट गिने। पूरे दस हज़ार थे। टुकुर टुकुर पहलवान का मुँह देखने लगा।
“ये रुपया कहाँ से पैदा क्या तुम ने”?
दूदे ने अफ़्सुर्दा लहजे में जवाब दिया। “हो गया पैदा कहीं से”।
सलाहू क़ुरक़ी को भूल गया। इतने सारे नोट देखे तो उस के क़दम फिर अलमास के कोठे की तरफ़ उठने लगा। मगर पहलवान ने उसे रोका।
“नहीं बाऊ......अलमास के पास न जाओ। ये रुपया क़ुरक़ी वालों को दो”।
सलाहू ने बिगड़े हुए बच्चे की मानिंद कहा। “क्यूं?...... मैं जाऊंगा अलमास के पास”।
दूदे ने कड़े लहजे में कहा। “तू नहीं जाएगा”!
सलाहू तैश में आगया। “तू कौन होता है मुझे रोकने वाला”!
दूदे की आवाज़ नर्म होगई। “मैं तेरा ग़ुलाम हूँ बाऊ...... पर अब अलमास के पास जाने का कोई फ़ायदा नहीं”।
दूदे की आवाज़ में लरज़िश पैदा होगई। “न पूछ बाऊ...... ये रुपया मुझे उसी ने दिया है”।
सलाहू क़रीब क़रीब चीख़ उठा। “ये रुपया अलमास ने दिया है...... तुम्हें दिया है”?
“हाँ बाऊ। उसी ने दिया है। मुझ पर बहुत देर से मरती थी साली, पर मैं उस के हाथ नहीं आता था। तुझ पर तकलीफ़ का वक़्त आया तो मेरे दिल ने कहा दूदे छोड़ अपनी क़सम को। तेरा बाऊ तुझ से क़ुर्बानी मांगता है। सो मैं कल रात उस के पास गया और...... और......और उस से ये सौदा कर लिया”।
दूदे की आँखों से टिप टिप आँसू गिरने लगे।

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