धूर्त बन्दर : नागा लोक-कथा

Dhoort Bandar : Naga Folktale

('अंगामी' नागा कथा)

एक बार एक जंगल में गीदड़ और बन्दर की भेंट हुई। बातों-बातों में गीदड़ ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा, 'काश मैं बन्दर होता, तो तुम्हारी तरह पेड़ों पर चढ़ता और स्वादिष्ट फल खाता।' बन्दर ने उत्तर दिया, 'काश मैं गीदड़ होता, तो तुम्हारी तरह् मानव के घर में घुस कर चावल, पक्षी और मांस खाता।' ऐसा बोल कर उसने गीदड़ के सामने यह सुझाव रखा, 'चलो मैं जो भी सर्वोत्तर भोजन आज प्राप्त करूँगा, तुम्हारे लिये लाऊँगा, और तुम अपना आज का सर्वोत्तर भोजन मेरे लिये लेकर आना; और फिर दोनों का स्वाद चख कर हम निर्णय करेंगे किस का भोजन सर्वोत्तम है।' 'ठीक है,' गीदड़ ने कहा और वे दोनों भोजन की खोज में चले गए।

भोजन लेकर लौटने पर बन्दर गीदड़ से आग्रह करते हुए बोला, 'कृप्या आप पहले मुझे भोजन प्रदान करें।' गीदड़ ने बन्दर को खाना दे दिया, जिसे पाते ही वह कूद कर वृक्ष पर चढ़ गया और सब भोजन समाप्त कर दिया, पर गीदड़ को कुछ नहीं दिया। गीदड़ क्रोध में बोला, 'ठीक है, मैं भी तुम्हें इसका दण्ड दूँगा।' ऐसा कहकर गीदड़ जंगल में चला गया।

गीदड़ ने जंगल मे जाकर जंगली विषाक्त 'टारो' को खोजा और वहीं बैठकर बन्दर की प्रतीक्षा करने लगा। 'टारो' काफ़ी मोटी और जंगली गन्ने के समान थी। बन्दर गीदड़ को खोजता हुआ उस स्थल पर पहुँचा और उसने गीदड़ से पूछा, 'तुम वहाँ क्या कर रहे हो?' गीदड़ ने कहा, 'मैं अपने स्वामी के गन्ने खा रहा हूँ।' बन्दर के मुँह में पानी भर आया, उसने तुरन्त आग्रह किया, 'थोड़े से मुझे भी दे दो न!' किन्तु गीदड़ ने यह कहते हुए गन्ने देने से मना कर दिया कि स्वामी क्रोधित होंगे। बन्दर ने उसे समझाया, 'नहीं वह नाराज़ नहीं होंगे।' तब गीदड़ ने यह दिखाते हुए कि बात उसकी समझ में आ रही है, कहा, 'आओ, आकर् स्वयं ले जाओ। इसे काटो और छाल उतार कर खाओ।' बन्दर ने गीदड़ के निर्देशों का पालन करते हुए जंगली 'टारो' खाना आरम्भ किया, पर खाते ही उसके गले में खुजली होने लगी। देखते ही देखते उसका मुँह इतना सूज गया कि वह बात भी नहीं कर सकता था।

बंदर अपनी दशा सुधरने पर गीदड़ को दण्ड देने के लिये मधुमक्खी के छत्ते के पास लेकर गया और गीदड़ से बोला, 'इसे तोड़ना नहीं' गीदड़ उत्सुकतावश उसे तोड़ने के लिये कहने लगा। बन्दर के भोला बनकर उससे कहा कि यदि उसकी यही इच्छा है तो वह छत्ता तोड़ सकता है मगर पहले उसे पहाड़ी के पीछे चले जाने दे, जिससे वह अपनी इच्छा का उल्लंघन होता न देख सके। गीदड़ ने उसकी बात मानकर ऐसा ही किया। बन्दर के पहाड़ी के पीछे जाते ही उसने मधुमक्खी का छत्ता तोड़ दिया। परिणामस्वरूप मधुमक्खियां उसको चिपट गयीं और इतनी बुरी तरह काटा कि वह गम्भीर रूप से घायल हो गया।

काफ़ी समय बाद, स्वस्थ होने पर गीदड़ ने बन्दर को उसकी धूर्तता का पाठ पढ़ाने की ठानकर वह एक ऐसे तालाब के पास पहुँचा जो बड़ी बड़ी झाड़ियों से ढका था। उसे देखकर यह अनुमान लगाना कठिन था कि वह स्थान तालाब हो सकता है। बन्दर भी उसका पीछ करते हुए, पेड़ों के मार्ग से, वहाँ पहुँचा। उसने गीदड़ को शान्त बैठे देखकर, पेड़ पर से ही पूछा, 'तुम वहां क्या कर रहे हो?' गीदड़ ने शान्त स्वर में कहा, 'स्वामी के वस्त्रों की रखवाली कर रहा हूँ।' पर बन्दर को संतोष नहीं हुआ, वह बोला, 'मैं तुम्हारी सहायता के लिये आना चाहता हूँ।' गीदड़ ने उत्तर दिया, ' तुम ऐसा नहीं कर सकोगे।' बन्दर पेड़ पर झूलता हुआ बोला, 'मैं कूद कर नीचे पहुँच जाऊँगा।'

गीदड़ तो यही चाहता था कि वह वृक्ष से नीचे कूद जाए, अतः तुरन्त बोला, 'ठीक है, अगर तुम् नीचे कूद सकते हो तो कूद कर आ जाओ।'

मूर्ख बन्दर ने छलाँग लगा दी, अगले ही पल गहरे तालाब में जा गिरा तथा डूब कर मर गया। इस प्रकार उसे धूर्तता का फल मिल गया।

(सीमा रिज़वी)

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