देहाती समाज (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Dehati Samaj (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

अध्याय 5

केवल मधुपाल की ही एक दुकान है, इस पूरे गाँव में। जिस रास्ते से नदी की तरफ जाते हैं, उसी पर बाजार के पास पड़ती है। रमेश से अपने बाकी दस रुपए लेने वह दस-बारह दिन तक नहीं आया, तब रमेश स्वयं ही उसकी दुकान पर सवेरे-ही-सवेरे पहुँचा। मधुपाल ने बड़ी आवभगत के साथ उनके बैठने को एक मूढ़ा दिया। उसकी इतनी उमर बीत गई थी - सपने में भी उसने कभी किसी को, उधार रुपया अपनी दुकान पर आ कर चुकाते नहीं देखा था। बल्कि हजार बार माँगने पर भी लोग टाल बताते हैं। रमेश बाकी रुपया देने आया है, सुन कर वह दंग रह गया। बातों-ही-बातों में उसने कहा - 'भैया, यहाँ तो लोग उधार लेकर देना नहीं जानते। यही दो-दो आने, चार-चार आने करके पचास-साठ लोगों पर चाहिए। किसी-किसी पर तो रुपया-डेढ़ रुपया तक हो गया है, पर देने के नाम पर कोई मसकते भी नहीं। तो भला आप ही बताइए - यह दुकान कैसे चल सकती है! सौदा लेते समय कह जाते हैं - 'अभी भिजवाया!' और उसके बाद, दो-दो महीने तक उनकी धूल का भी पता नहीं...बनर्जी हैं क्या? प्रणाम! कब आना हुआ आपका?'

बनर्जी महाशय के बाएँ हाथ में लोटा और दाएँ में अरबी के पत्तों में लिपटी हुई चार छोटी-छोटी चिंगड़ी मछलियाँ थीं। कान पर जनेऊ चढ़ा था और पैरों में कीचड़ लगी थी। दीर्घ निश्‍वास लेकर बोले - मधु, हुक्का तो भर जरा! कल रात को आया हूँ।' और हाथ से लोटा और मछलियाँ एक तरफ रख कर वे बोले - 'क्या बताऊँ, जमाना तो देखते-देखते ऐसा बदल गया कि कुछ कहा नहीं जाता! उस लखिया कहारिन की अकल तो देखो - ब्राह्मण को ठगने चली है! कितने दिन जिएगी, इस तरह ठगकर? नाश हो जाएगा उसका। एक पैसे की मछली के लिए मेरा हाथ पकड़ लिया ससुरी ने।'

मधु ने विस्मित हो कहा - 'हाथ पकड़ लिया उसने, आपका?'

बनर्जी ने गुस्से से मुँह बिचका कर, इधर-उधर देख कर कहा - 'उसके ढाई पैसे चाहिए, तो क्या उसके लिए हाथ पकड़ेगी तेरा, सबके सामने! टट्टी-फरागत हो कर नदी से लौटा, तो सोचा कि हाथ धोता चलूँ! वह डलिया में मछली लिए बैठी थी। मेरे पूछने पर साफ मना कर दिया कि सब बिक गईं। पर मुझे अंधा थोड़े ही बना सकती थी! मैंने डलिया में जैसे हाथ डाला कि उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। भला बताओ तो सही, क्या मैं उसके पहले के ढाई पैसे और आज का मिला कर साढ़े तीन पैसे के लिए गाँव छोड़ कर चला जाऊँगा?'

'भला कहीं गाँव छोड़ा जा सकता है, उसके पैसों के लिए!'

'अब इस गाँव में कुछ दबदबा भी रहा है क्या? इसी बात पर उसके यहाँ का सारा काम...धोबी -हज्जाम सब बंद करा दिए जाते, घर उजाड़ दिया जाता, तो उसकी अकल ठिकाने आ जाती!'

तब एकाएक रमेश पर नजर पड़ते ही मधु से उन्होंने पूछा कि ये कौन हैं!

'छोटे बाबू के लड़के हैं! उस दिन सौदे के दस रुपए बाकी रह गए थे, सो खुद ही देने चले आए हैं।'

'रमेश भैया हैं क्या? बड़ी उमर हो तुम्हारी! भैया, आते ही सुना कि छोटे बाबू का ऐसे ठाठ से श्राद्ध किया कि इधर किसी ने कभी देखा-सुना भी नहीं! पर मैंने आँख से न देखा, यही दुख है। मैं तो किस्मत का मारा, साले दो-चार आदमियों के बहकाने में आ कर, नौकरी करने कलकत्ता चला गया था। सो, यह हालत हो गई है। यहाँ क्या किसी भले आदमी का गुजारा है भला?'

रमेश ने कोई उत्तर न दिया और बैठा रहा। दुकान पर और भी जो लोग बैठे थे, उनकी कलकत्ता की बातें सुनने के लिए वे व्यग्र हो उठे।

मधु ने चिलम भर कर, बनर्जी के हाथ में हुक्का दे कर कहा - 'हाँ, तो फिर कोई काम-धंधा लगा या नहीं!'

'लगता क्यों नहीं! भाड़ तो झोंका ही नहीं मैंने। पढ़ना-लिखना भी जानता हूँ। पर भैया, घर से बाहर निकलते ही, घोड़ागाड़ी के नीचे दबने से बचकर घर लौट आओ तो समझो कि बुजुर्गों की और अपनी बड़ी किस्मत है!'

मधु अपना गाँव छोड़ कर सिर्फ एक बार गवाही देने के लिए मेदिनीपुर तक जरूर गया था, वरना गाँव के बाहर उसने कभी कुछ देखा ही नहीं था। तभी उसे बनर्जी की बातों पर घोर निश्‍चय मालूम हुआ। बोला - 'कहते क्या हैं आप?'

बनर्जी ने थोड़ा मुस्करा कर कहा - 'झूठ है या सच, अपने रमेश बाबू से ही पूछ देखो! और अब तो कोई लाख क्यों न कहे, चाहे यहाँ भूखों मरना पड़े, पर अब गाँव छोड़ कर बाहर नहीं जाने का! वहाँ तो साग-पात, धानिया-मिर्च, सभी खरीद कर ही खाने को मिलते हैं। खा सकते हो भला तुम उन्हें खरीद कर? मैं नहीं खा सका, तभी एक महीने में ही बीमार डाँगर की तरह हो गया हूँ। पेट में रात-दिन गुड़-गुड़ होती ही रहती है, कलेजे में भी एक जलन-सी मची रहती है। जैसे-तैसे जान बचाई है, यहाँ आ कर! यहाँ मुझे भीख माँग कर भी बच्चों का पेट भरना मंजूर है, पर वहाँ वापस जाना नहीं! ब्राह्मणों को भीख माँगने में कोई दोष भी नहीं है!'

अपनी कहानी और उसे कहने के ढंग से सुनने वालों को चकित कर, बनर्जी महाशय उठ कर तेल के बर्तन के पास पहुँचे, और परी से कोई छ्टाँक भर तेल निकाल, नाक-कान में डाल और शेष सिर पर मलकर बोले - 'अब नहा-धो कर घर चलूँ, अबेर हो रही है। मधु, जरा नमक तो देना एक पैसे का। पैसा अभी नहीं है। तीसरे पहर दूँगा।' मधु ने नमक देने के लिए उठते हुए कहा - 'वही फिर देने की बात टाल बताई!'

बनर्जी ने आगे को गरदन झुका कर कहा - 'आखिर मामला क्या है? किसी से जबरदस्ती पैसा लेना है यह तो! जरा देखूँ तो।' उसने बढ़ कर खुद एक मुट्ठी नमक निकाल कर पुड़िया में रख लिया और लोटा उठा कर, रमेश की तरफ देख कर हँसते हुए कहा - 'चलिए, बातचीत होती चलेगी! रास्ता एक ही है, हमारा -आपका।'

रमेश भी चलने को उठ गया और जब दोनों चलने लगे, तब मधु ने एक ओर उतरे-से मुँह से कहा - 'वे आटे के पैसे क्या बनर्जी महाशय...?'

बीच में बनर्जी ने नाराजगी के स्वर में, पीछे को मुड़ कर कहा - 'उन ससुरों के चक्कर में पड़ कर तो कलकत्ता जाने-आने में मेरे पाँच रुपए का खून हो गया, फिर भी तुम्हें अपने तकाजे की पड़ी है! इसी को कहते हैं कि किसी का तो सब लुटा और किसी को अपनी पड़ी है! रमेश भैया! देखा, इन लोगों का रवैया। अरे भाई, जब आ ही गया हूँ, तो अब सवेरे-शाम मिलते रहेंगे, फिर बड़बोंग काहे की है?'

मधु सहम गया, धीरे से बोला - 'काफी दिन तो...।'

'तो क्या? यों पीछे पड़ कर तो तुम सब जने, मेरा गाँव में रहना ही मुहाल कर दोगे!' कह कर मुँह फुलाते हुए, बनर्जी अपना सामान उठा कर चलते बने।

और रमेश वहाँ से चल कर सीधे अपने मकान पर पहुँचा। वहाँ उसने एक भद्र पुरुष को हुक्का पीते बैठा देखा, जो उन्हें देखते ही हुक्का रख कर खड़ा हो गया और झुक कर प्रणाम कर बोला - 'मैं आपके स्कूल में हेडमास्टर हूँ और बनमाली पांडे मेरा नाम है! दो बार पहले भी आपके दर्शन को आ चुका हूँ, पर दर्शन न मिल सके थे।'

रमेश के सम्मान से बैठाने पर भी वे अड़कर खड़े ही रहे, बोले - 'मैं तो सेवक हूँ आपका!'

रमेश उनके इस व्यवहार से क्षुब्ध हो गया। एक तो उनकी उमर आदर के योग्य और फिर शिक्षक! फिर भी इस प्रकार दबना और डरना देख, रमेश ताज्जुब में पड़ गए।

खड़े-खड़े ही उन्होंने कहा - 'इस स्कूल की नींव मुकर्जी और घोषाल बाबू की कोशिश से रक्खी गई थी। आसपास में यही एक छोटा-सा स्कूल है। करीब तीस-चालीस विद्यार्थी हैं इसमें। कुछ तो दो-तीन कोस दूर के गाँव से पढ़ने आते हैं। थोड़ी-सी सरकारी सहायता मिलने के कारण स्कूल चल नहीं पा रहा है। अगर अभी से छप्पर छाने का इंतजाम नहीं हुआ, तो बरसात में तो वहाँ बैठा ही नहीं जा सकता! खैर, बरसात के दिन अभी दूर हैं, और तब तक छप्पर तो बाद में छवाया जा सकता है। अभी तो विकट समस्या है कि सभी शिक्षकों की तीन-तीन महीने की तनख्वाह बाकी है। अब भला कहाँ तक कोई अपनी गाँठ का खा कर, काम कर सकता है?'

स्कूल की दशा का वर्णन सुन कर रमेश खड़ा हो गया। उसे दुख हुआ कि कभी उसने प्राथमिक शिक्षा वहीं पाई थी। उन्हें बैठक में ले जा कर उसने विस्तार से हाल पूछा।

स्कूल में चार शिक्षक कार्य करते हैं, जिनकी अथक मेहनत के फलस्वरूप ही हर वर्ष दो विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो सके हैं। विद्यार्थियों के नाम, गाँव का पता वगैरह वे इस तरह कह गए, मानो सब याद रखा हो। लड़कों से प्राप्त फीस से नीचे के दो मास्टरों का वेतन तो चल जाता है, और सरकारी सहायता से एक तीसरे मास्टर का वेतन निकल आता है। अब रहा चौथा, सिर्फ उसी के लिए आस-पास के गाँव से चंदा उगाहना होता है, जिसे भी मास्टरों को ही करना होता है। मगर पिछले चार महीने से द्वार-द्वार भटक कर, कुल सवा सात रुपए वसूल कर पाए हैं।

स्कूल की रामकहानी सुन कर रमेश स्तब्ध रह गया। उन्हें सबसे बड़ा ताज्जुब इस बात पर था कि इतने गाँवो के बीच एक स्कूल होते हुए भी, चार महीनों की दौड़-धूप में वसूल हो पाए तो कुल सवा सात रुपए! पूछा उसने - 'आपका वेतन क्या है?'

'कागज पर तो मिलते हैं छब्बीस रुपए; हाथ पड़ते हैं कुल तेरह रुपए पंद्रह आने ही!'

कुछ न समझ सकने के कारण रमेश उनके मुँह की तरफ ताकने लगा। मास्टर साहब भी समझ गए कि बाबू समझ नहीं पाए। तभी विस्तार से बोले - 'लिखा-पढ़ी में तो छब्बीस ही वेतन दिखाया जाता है, क्योंकि वह कागजात डिप्टी साहब को दिखाने होते हैं। और सरकारी हुक्म भी है कि वेतन छब्बीस रुपया होना चाहिए! ऐसा न करें, तो सरकारी सहायता बंद हो जाएगी, यह बात तो जग जाहिर है! विद्यार्थी जानते हैं, किसी से पूछ देखिएगा!'

कुछ देर चुप रहने के बाद रमेश ने पूछा - 'तो इस तरह विद्यार्थियों के सामने आपकी क्या इज्जत रहती होगी?'

मास्टर साहब ने शरमाते हुए कहा - 'पर वेणी बाबू तो इतना भी देने में अलकसाते हैं।'

'तो स्कूल के कर्ता-धर्ता वे ही जान पड़ते हैं।'

मास्टर साहब ने सकुचाते हुए दबी जबान में कहा - 'वेणी बाबू मंत्री तो हैं, पर पैसा कभी नहीं देते! स्कूल चल रहा है, तो बस यह मुकर्जी की कन्या की कृपा से। पहले तो उन्होंने भी कहा था कि इस वर्ष छप्पर छवा देंगे, पर अब उन्होंने हाथ खींच-सा लिया है, न जाने क्यों?'

रमेश ने रमा के संबंध में और भी अनेक प्रश्‍न कर डाले। अंत में उन्होंने पूछा - 'उनका एक छोटा भाई भी तो स्कूल में पढ़ता है?'

'जी! यतीन!'

'अब आज तो आप जाइए, आपके स्कूल का भी समय हो रहा है। कल मैं ही जाऊँगा आपके स्कूल में!'

'जैसी आपकी आज्ञा' - कह प्रणाम कर और जबरन उनके पैरों को स्पर्श करके वे चले गए।

अध्याय 6

श्राद्धवाले दिन विश्‍वेश्‍वरी के व्यवहार की चर्चा, आस-पास के दस-पाँच गाँव तक में फैल गई। वेणी की हिम्मत नहीं थी कि उसके लिए वह उनसे कुछ कहे। तभी वह जा कर मौसी को बुला लाया और वास्तव में उन्होंने विश्‍वेश्‍वरी को वह खरी-खोटी सुनाई, कि जिस तरह सुना जाता है कि पहले कभी तक्षक नाग ने अपना एक दाँत गड़ाकर ही, पीपल के पेड़ को जला कर राख कर दिया था; उसी तरह उनका शरीर जल कर राख तो नहीं हुआ, पर उसकी जलन से वे तिलमिला जरूर गईं। उन्होंने समझ तो लिया कि उनके सुपुत्र के ही षडयंत्र से उनका यह अपमान हुआ है, तभी उसका खयाल कर, उसे चुपचाप पी गईं, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर उन्होंने किसी भी बात का उत्तर दिया, तो पुत्र की पोल खुल जाएगी और रमेश भी उसे सुनेगा। इस विचार-मात्र ने ही उन्हें शर्म से पानी-पानी कर दिया था।

पर रमेश के कानों तक बात पहुँच ही गई थी। रमेश को यहाँ तक तो खतरा था कि ताई जी और वेणी भैया में उसे लेकर काफी कहासुनी होगी; पर उन्हें स्वप्न में भी वेणी से यह आशा नहीं थी कि वह इतनी नीचता तक भी पहुँच सकता है कि एक अन्य घर की स्त्री को बुला कर अपनी माता का ही अपमान कराए! इसका विचार करते ही रमेश के गुस्से की सीमा न रही और उनके मन में आया कि अभी, इसी समय वेणी के घर जा कर, जो भी कटु वचन कहा जा सके जी खोल कर सुना आए। लेकिन उससे तो ताई जी का ही और अधिक अपमान होगा - यही सोच कर वे नहीं गए। पिछले दिन मास्टर साहब तथा दीनू भट्टाचार्य जी से रमा के संबंध में सुन कर, उसके प्रति उनकी भावना काफी उच्च बन चुकी थी। ताई जी के अलावा, इस अंधकार के साम्राज्य में उन्हें दूसरी प्रकाश-किरण मुकर्जी के परिवार से ही दीख रही थी। इससे उन्हें प्रसन्नता बड़ी हुई थी, लेकिन ताई जी के अपमान की घटना ने उनके मन में रमा के प्रति एक अजीब घृणा भर दी और अब तक जहाँ उसे प्रकाश दिखाई देता था, वहाँ उसे घृणित घोर अंधकार दिखाई पड़ने लगा। उन्हें पूरा विश्‍वास हो गया था कि रमा और उनकी मौसी ने मिल कर, वेणी का पक्ष लेकर उनके संबंध में ही ताई जी का अपमान किया है; पर चाह कर भी उन्हें अंत तक यह न समझ में आया कि आखिर वह इस अपमान का बदला उससे ले, तो कैसे ले!

अभी तक ऐसी भी बहुत-सी जायदाद मौजूद थी - जो मुखर्जी और घोषाल - दोनों घरानों के साझे में ही थी। भैरव आचार्य के घर के पीछे गढ़नाम का तालाब तीनों के साझे में ही था। एक जमाना था जब तालाब काफी बड़ा था -लेकिन साझे में, मरम्मत की जिम्मेदारी किसी ने न लेने पर, वह बेचारा निराशा से मर-मिटा और अब एक मामूली गड़ही के आकार का ही रह गया था। अच्छी मछलियाँ कभी उनमें तो होती ही नहीं थीं और न बाहर से ही मँगा कर उसमें छोड़ी जाती थीं। बस दो-एक तरह की साधारण-सी मछलियाँ ही उसमें होती थीं। उस दिन वेणी उसमें से मछलियाँ पकड़वा रहे थे और रमेश को इसका पता भी नहीं था - तभी भैरव ने दौड़ कर इस घटना की उनको सूचना दी।

'गढ़ की सारी मछलियाँ पकड़ी जा रही हैं, सरकार महाशय! अपने आदमी नहीं भेजे, अपना हिस्सा लाने को!'

सरकार ने हाथ की कलम कान में खोंस ली - पकड़वा कौन रहा है?'

'भला और हिम्मत किसकी हो सकती है! मुकर्जी का पछैया दरबान है और वेणी बाबू का एक नौकर है। आपका कोई आदमी वहाँ नहीं देखा, तभी कहने आया हूँ कि जल्दी भेजिए वहाँ किसी को!'

'ले जाने दो, हमारे बाबू को मांस-मछली से घृणा है।'

'उन्हें घृणा है, तो इसमें अपना हिस्सा भी छोड़ बैठेंगे?'

'चाहते तो हम भी सभी हैं, उसमें से हिस्सा लेना - और अगर बड़े बाबू मौजूद होते, तो वे लेकर ही रहते। लेकिन हमारे छोटे बाबू तो इस प्रवृत्ति के नहीं हैं!'

सुन कर भैरव विस्मयान्वित नेत्रों से सरकार जी के मुँह की तरफ देखता रहा। उसे इस तरह देखता देख, सरकार ने आगे जरा व्यंग्यभरी मुस्कान से कहा - आचार्य जी, आँखें क्यों फाड़ रहे हो? उस दिन वह हाट की उत्तर तरफ वाला, बड़ा-सा एक इमली का पेड़ कटवा कर, उन दोनों ही घरों ने आपस में बाँट लिया। मैंने आ कर बाबू से कहा, तो वे किताब पढ़ते हुए जरा देर को सिर उठा कर थोड़ा-सा मुस्करा दिए और फिर किताब पढ़ने लगे, बिना एक शब्द भी मुँह से निकाले! हमें उस पेड़ का पत्ता तक भी न मिला। जब मैंने कई बार कहा, तब उन्होंने एक लंबी-सी उसाँस लेकर कहा कि क्या हमारे यहाँ इमली के और पेड़ नहीं? मैंने कहा भी कि पेड़ तो अपने पास बहुत हैं, पर अपना हिस्सा है, उसे तो लेना ही चाहिए! पाँचेक मिनट मौन रह कर, उन्होंने मुस्करा कर कह दिया - 'यह सब कुछ ठीक होते हुए भी, दो -चार लकड़ियों के पीछे झगड़ा क्यों किया जाए!'

भैरव की विस्मित आँखें और चकित हो कर फट गईं, बोले - 'कहते क्या हैं आप यह?'

'मैंने तो सच ही कहा है। उसी दिन समझ पाया और समझ लिया कि ऐसी बातों के लिए इनसे कुछ भी कहना धूल में लट्ठ मारना है। सच तो यह है आचार्य जी, कि इस घर की लक्ष्मी तो चली गई तारिणी बाबू के साथ ही!'

भैरव कुछ देर मौन रह बोले - 'मेरा तो फर्ज था कहने का, क्योंकि वह ताल मेरे घर के पीछे ही पड़ता है।'

'कहीं किताबों में ही हरदम आँखें गड़ाए रहने से जमींदारी चली है! यह मुकर्जी की लड़की भी इन सब बातों को सुन, खूब मखौल उड़ाती है और उसी दिन उसने गोविंद को बुला कर खिल्ली उड़ाते हुए ही कहा था, कि रमेश बाबू को तो चाहिए कि वे अपनी सारी जमींदारी हमें दे दें, और अपना महीने का खर्चा लिए जाएँ। भला आचार्य जी! एक औरत इस तरह एक पुरुष की खिल्ली उड़ाए? इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है?' यह कह, सरकार महाशय मुँह लटका कर, फिर कलम कान पर से हटा कर घिसने लगे।

घर में स्त्री न होने के कारण सब खुला चौपट्ट मैदान था। भैरव धड़धड़ाते अंदर पहुँच गए। रमेश एक बरामदे में, एक टूटी-सी आराम कुर्सी पर लेटे पुस्तकावलोकन कर रहा था। भैरव ने पहले तो उन्हें जमींदारी की रक्षा तथा उसे चलाने के लिए उनके कर्तव्यों का एक लेक्चर पिला कर, अपने फर्ज को निभाने के लिए उत्तेजित किया और तब असल मकसदवाली बात कही। सुनते ही रमेश गरज कर कुर्सी से उछल पड़ा - 'भजुआ! रोज की ये चालाकियाँ यों चलती रहेंगी क्या?'

उनके उस अग्र रूप को देख कर भैरव भी सिहर उठे और उनकी समझ में ही न आया कि चालाकियों से रमेश का इशारा किस तरफ है।

भजुआ का शहर गोरखपुर था। लाठी खूब भाँजता था और शरीर भी काफी बलवान था। लाठी में रमेश को वह गुरु मानता था, अपना नाम सुनते ही वह रमेश के सम्मुख आ उपस्थित हुआ।

उसे आता देख रमेश ने आज्ञा दी कि जा कर सारी मछलियाँ बीन लो। अगर कोई रोकने की गुस्ताखी करे, तो उसे घसीट कर मेरे सामने ले आओ, और नहीं तो उसके दाँत तो तोड़ ही आना!

भजुआ को तो मन की मुराद मिल गई, आज्ञा पाते ही अपनी तेल-पिलाई लाठी लेने अंदर लपका। भैरव और भी सिहर कर काँप उठे। उनकी हिम्मत तो बस बातों से ही झगड़ा करने भर की थी और जब भजुआ रमेश की आज्ञा पर चला गया, तब दुर्घटना की चिंता ने उन्हें व्याकुल कर दिया और उन्हें खयाल हो आया कि जो बादल गरजते नहीं, वे बरसते जरूर हैं! वे रमेश के हितैषी जरूर थे, तभी तो सूचना देने आए थे। पर चाहते यही थे कि बातों से ही, चीख -पुकार कर काम बन जाए। लेकिन यहाँ तो बानक ही दूसरा बना जा रहा था। भैरव फौजदारी की साँसत से कोसों दूर भागना चाहते थे। थोड़ी देर बाद, भजुआ तेल से तर मोटी लाठी लेकर अंदर से आया और माथे से लाठी लगा रमेश को प्रणाम कर जाने लगा। तभी भैरव ने एकाएक रोना शुरू कर दिया और रमेश के दोनों हाथ पकड़ कर कहा - 'रुक जाओ भज्जू भैया। क्षमा करो भैया रमेश! जान साँसत में पड़ जाएगी। गरीब आदमी ठहरा!'

भजुआ रुक गया था। रमेश ने भैरव से हाथ छुड़ा लिए और दंग हो कर उनकी तरफ देखने लगा। भैरव ने रोते हुए ही कहा - 'वेणी बाबू ने कहीं सुन पाया कि मैंने ही इत्तला दी थी, तो बस मेरी खैर नहीं! घर-बार तक उजड़ जाएगा। फिर तो देवी-देवता भी रक्षा नहीं कर सकते मेरी!'

रमेश स्तंभित बैठे रहा। शोर सुन कर सरकार महाशय भी तशरीफ ले लाए। सुन कर वे भी बोले - 'भैयाजी, आचार्य का कहना ठीक ही है!'

रमेश ने किसी बात का उत्तर न दिया। हाथ से ही भजुआ को जाने का संकेत कर दिया और स्वयं उठ कर, बिना किसी से कुछ कहे-सुने अंदर चला गया। भैरव के इस अत्यधिक डर ने उसे और भी उत्तेजित कर दिया, जिसके कारण उनका सारा शरीर उत्तेजना से जल रहा था।

अध्याय 7

'यतीन! स्कूल नहीं जाना क्या जो अभी खेल ही रहा है?'

'हमारे स्कूल में आज और कल की छुट्टी है।'

मौसी के कानों में इस सूचना के पड़ते ही उनका मुँह बिचक गया। वह बोली -' जब देखो तब छुट्टी, महीने में पंद्रह दिन तो इसी तरह निकल जाते हैं। चूल्हे में जाए ऐसा स्कूल! तुम हो कि उस पर फिजूल में ही सारा रुपया खर्च कर देती हो। मैं तो चूल्हे में झोंक दूँ ऐसे स्कूल को!' इतना कह कर वे अपने काम से चली गईं।

स्कूल को चूल्हे में झोंकने की बात तो उन्होंने सच कही थी, कि अगर उनकी चलती, तो वे निश्‍चय ही ऐसा करतीं। और बातों में चाहे झूठ भी बोल जाएँ, पर ऐसे मौकों पर वे झूठ नहीं कहती थीं।

उनके चले जाने पर रमा ने यतीन को और भी पास घसीट कर, अपने से चिपटा कर पूछा - 'आज काहे की छुट्टी है रे यतीन?'

यतींद्र ने उसी अवस्था में रह कर कहा -'नया छप्पर छाया जा रहा है। सफेदी होगी। चार-पाँच कुरसियाँ, मेज, अलमारी, घड़ी आई हैं, बहुत सारी किताबें भी, बड़ी अच्छी-अच्छी तथा नई आनेवाली हैं। तुम चल कर देखो न एक दिन, दीदी!'

रमा को निश्‍चय हुआ, पूछा -' सच है क्या यह सब?'

'दीदी, मैं सच ही कह रहा हूँ। रमेश बाबू की ही तरफ से तो यह सब कुछ हो रहा है।'

यतीन आगे और भी कुछ कहने को था, पर तभी मौसी वहाँ आ पहुँची। रमा उसे अपनी गोद में उठा कर अपनी कोठरी में ले गई, और उसे प्यार से और भी अपने से चिपटा कर, रमेश की और स्कूल संबंधी अनेक बातें पूछ लीं उससे। उसने यह भी जाना कि रमेश स्वयं आ कर दो घण्टे पढ़ाते हैं। रमा ने मुस्करा कर पूछा - 'तुम्हें वे पहचानते हैं भला?'

यतींद्र ने सिर हिला कर कहा - 'हाँ!'

'तू कहता क्या है उनसे?'

अभी तक यतींद्र की रमेश से इतनी समीपता नहीं हुई थी कि यह उन्हें कुछ कह कर पुकराने का अवसर पाता। रमेश के स्कूल में आते ही लड़के तो क्या, हमेशा रोब झाड़नेवाले हेडमास्टर साहब भी भीगी बिल्ली की तरह चुपचाप खड़े हो जाते हैं। छात्रों में से रमेश से कुछ कह कर पुकारना तो दूर रहा, उनकी तरफ मुँह भी उठाने का किसी को साहस नहीं होता। लेकिन अपनी कमजोरी कैसे जाहिर करे, दीदी के सामने! तभी मास्टर साहब के मुँह से उन्हें जिस नाम से पुकारते सुना था, वही कह दिया -'छोटे बाबू कहते हैं हम सब!'

कहते समय उसके मुँह की जो दशा हो गई, उससे रमा सब समझ गई और उसे और भी प्यार से भींच कर कहा - 'बेटा, वे तेरे भइया लगते हैं! छोटे बाबू क्यों कहता है? वेणी बाबू को जैसे बड़े भइया कहता है, वैसे ही उन्हें छोटे भइया कहा कर!'

यतींद्र ने खुशी से उछल कर पूछा - 'सच, वे मेरे भइया होते हैं?'

'हाँ! सच ही तो कहती हूँ। वे तेरे भइया ही लगते हैं!'

अब यतींद्र के दिल में इस खबर को अपने सभी सहपाठियों से कहा देने का हुलास जोर मारने लगा, और उसके लिए वहाँ एक मिनट भी रुकना दूभर हो रहा था। जो दूर के विद्यार्थी थे, उन्हें तो खबर ही नहीं दी जा सकती; पर जो पास-पड़ोस के हैं, उनसे तो बिना कहे रहा भी नहीं जा सकता। तभी जाना चाहते हुए उनसे कहा - 'तो अब जाने दो न दीदी!'

पर रमा ने उसे जाने नहीं दिया और वह मुँह लटकाए बैठा रहा। फिर कुछ देर बाद उसने पूछा - 'दीदी, इतने दिन तक कहाँ थे वे?'

'परदेश में पढ़ाई कर रहे थे अब तक! जब तुम भी बड़े हो जाओगे, तब तुम्हें भी इस तरह बाहर जा कर रहना पड़ेगा। अच्छा यतींद्र, क्या तुम मुझसे अलग रह सकोगे?' -और उसने प्यार से यतींद्र को एक बार फिर कस कर चिपटा लिया।

यतींद्र बच्चा था तो क्या, उसने रमा के स्वर के कम्पन को अनुभव किया, और बालसुलभ उत्सुकता से रमा की ओर देखता रहा। आज यह पहला ही अवसर था यतींद्र के लिए, जब उसकी दीदी ने उसे इस तरह प्रेम से भींच रखा था। वैसे तो वह पहले भी प्यार करती थी, पर इस तरह का आवेश उसने कभी नहीं देखा था।

'क्या छोटे भइया सारी पढ़ाई पढ़ आए हैं?'

रमा ने शब्द से नहीं, दीर्घ नि:श्‍वास से और सिर हिला कर ही उसका उत्तर दे दिया। इस संबंध में सच तो यह था कि वह अनभिज्ञ थी, और सारा गाँव भी नहीं जानता था इसे; पर वह यह अवश्य समझती थी कि जो दूसरों की शिक्षा के संबंध में अभी से इतना जागरूक है कि स्वयं जा कर पढ़ाए, वह स्वयं भी काफी विद्वान होगा ही!

फिर यतींद्र ने इस संबंध में और कोई तर्क नहीं किया। उसने सहसा पूछा -'अच्छा दीदी, हमारे यहाँ क्यों नहीं आते छोटे भैया? बड़े भैया तो रोज ही आते रहते हैं!'

रमा इस प्रश्‍न की चोट से व्यथित हो उठी और उसका समस्त अंतर बिलख उठा। पर अपने को संयत कर मुस्कराते हुए उसने कहा - क्या तू उन्हें बुला कर नहीं ला सकता, अपने यहाँ?'

'अभी जाता हूँ, लाऊँ?' - कह कर यतींद्र तो तुरंत तैयार हो गया।

'तू तो बस पागल है पूरा!' - कह कर रमा ने व्यग्र हो, जोर से पकड़ कर, उसे अपने पास बैठा लिया और कहा - 'कभी ऐसा कर भी मत बैठना, यतीन!'

उसकी छाती से चिपटा होने के कारण, यतींद्र ने बच्चा होते हुए भी उसके हृदय की धड़कन का स्पष्ट अनुभव किया, जिससे वह मारे विस्मय के, विस्फरित नेत्रों से उसकी ओर देखता रह गया। यह उसका पहला अनुभव था। रमा ने उसे यह बता दिया था कि रमेश उसके अपने ही छोटे भैया हैं, और कहा भी - 'क्या तू बुला कर नहीं ला सकता उन्हें?' पर जब बुलाने को उद्यत हुआ, तो डर कर इस तरह रोक दिया। आखिर ये उनसे इस तरह डरती क्यों हैं? यतींद्र की समझ में ही नहीं आ रहा था कुछ। तभी मौसी की पुकार सुन कर, रमा ने उसे छोड़ दिया और उठ कर खड़ी हो गई। मौसी ने दरवाजे पर स्वयं आ कर कहा - 'अरे, अभी नहाने भी नहीं गई? मैं तो समझ रही थी कि रमा घाट पर नहा रही होगी! आज एकादशी है, फिर भी...इतना दिन चढ़ आया है और अभी तक न नहाई हो और न बालों में तेल ही डाला है! देखो तो जरा अपना मुँह, सूखकर स्याह हो रहा है।'

रमा ने जबरदस्ती की हँसी हँसकर कहा - 'अच्छा, तुम चलो, मैं अभी आती हूँ नहाने!'

'जाओगी कब? बाहर वेणी आया है, मछलियों का हिस्सा-बाँट करने की राह जोह रहा है।'

मछलियों का जिक्र सुनते ही, यतींद्र वहाँ से सिर पर पैर रख कर भागा। रमा भी धोती से मुँह पोंछ कर, जिससे किसी को आवेग के चिह्न भी न मिल जाएँ उसके चेहरे पर, मौसी के साथ बाहर निकली।

आँगन में हंगामा मचा था। एक बड़ी-सी डलिया में पकड़ी हुई मछलियाँ रखी थीं और वेणी स्वयं ही आए थे...उसका बँटवारा करने को। पास-पड़ोस के बच्चे जमा हो कर शोर मचा रहे थे।

पीछे से खाँसते हुए धर्मदास आँगन में घुसे और घुसने के साथ बोले -'मछलियाँ पकड़ी गई हैं क्या आज, वेणी?'

वेणी ने मुँह बना कर कहा -'हाँ, पकड़ी तो गई हैं; पर थोड़ी-सी ही तो हैं!' और कहार को बुला कर उससे बोले - 'जल्दी से दो हिस्सों में बाँट दे उन्हें, देख क्या रहा है खड़ा-खड़ा!'

कहार हिस्सा करने लगा। तभी गोविंद गांगुली ने भी आँगन में प्रवेश किया और बोले - 'कहो बेटी रमा, कुशल से तो हो ना! कई दिनों से आना नहीं हो सका, सोचा, चलूँ जरा बेटी की कुशल ही पूछता आऊँ!'

रमा ने मुस्करा कर कहा - 'आइए!'

गांगुली महाशय कहते हुए बढ़े - 'आज इतनी भीड़ क्यों लगी है?' और आगे बढ़ कर, मछलियों का ढेर देख कर विस्मय प्रकट करते हुए बोले - 'बड़ी मछलियाँ फँसी हैं आज जाल में। बड़े ताल में जाल पड़ा था क्या?'

सुन कर भी किसी ने उनका उत्तर नहीं दिया - हिस्सा करने में ही लगे रहे। हिस्सा जब हो चुका, तब वेणी ने अपने हिस्से की सभी मछलियाँ एक डलिया में रख कर कहार के सिर पर उठवा दीं और उसे आँख के इशारे से जाने को कह, स्वयं भी जाने को उद्यत हुए। रमा क्या करती, इतनी ढेर सारी मछलियों का! जो भी मौजूद थे, सभी ने अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक मछलियाँ हथिया लीं और फिर घर चलने को हुए ही थे कि रमेश का पछैया लठैत मनुआ अपने सिर से ऊँची लाठी लिए, बैल-सा, आँगन में आ कर खड़ा हो गया। उसके भीषण चेहरे से सभी डरने लगे थे। गाँव में अनेक प्रकार की झूठ -सच कहानियाँ भी फैल गई थीं उसके संबंध में। उसने अंदर आते ही रमा को दूर से ही 'माँ जी' कह कर अलग से एक लंबा सलाम किया, और आगे बढ़ कर खड़ा हो गया। रमा को पहले कभी न देख कर भी, इतनी भीड़ में कैसे उसने समझा कि ये मालकिन हैं - सो वही जाने! पास आ कर अपने कर्कश स्वर में, हिंदी और बंगला की खिचड़ी में उसने बतलाया कि वह रमेश बाबू का नौकर है, और मछलियों में से तीसरा हिस्सा लेने को ही आया है।

पता नहीं क्यों...शायद विस्मय में आ जाने के कारण उसके इस तरह आ जाने से, उसकी भीषण काया को देख कर जो डर उत्पन्न हो गया था; अथवा बात समझ न आने के कारण, रमा ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया।

मनुआ उत्तर की प्रतीक्षा में, निश्‍चय में मुँह बनाए खड़ा रहा। फिर सहसा घूम कर वेणी बाबू ने उससे कड़े स्वर में कहा - 'अभी रुक जा!'

मारे डर के, कहार भी और चार कदम पीछे आ कर खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक तो किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला। फिर साहस कर वेणी बाबू ने दूर से कहा - 'हिस्सा? कैसा हिस्सा?'

मनुआ ने उन्हें भी सलाम झुकाया और अदब से बोला -'आपसे तो बाबूजी, पूछा भी नहीं मैंने!'

मौसी, जो दूर दालान में थीं, वहीं से बोलीं - बाप रे बाप! मारेगा क्या?'

मौसी की तरफ पहले तो मनुआ ने एक नजर डाली और फिर कर्कश हँसी से सारे मकान को गुँजा कर, रमा को लक्ष्य कर बोला - 'माँ जी!'

उसके स्वर और व्यवहार में अदब का पुट होने पर भी कठोरता भी और उद्दंडता भी; जिसका खयाल करके रमा को बुरा मालूम हुआ। बोली - 'क्या चाहते हैं, तुम्हारे बाबू?'

मनुआ ने रमा के स्वर में भी नाराजगी का भाव पाया, जिससे जरा और नर्म हो कर अपनी बात उसने फिर दोहरा दी। पर मछलियाँ तो बँट-बँटाकर किनारे भी लग चुकी थीं। इतने आदमियों के समाने वह नीचा भी नहीं देखना चाहती थी। उसने कठोर स्वर में कहा - 'इन मछलियों में तुम्हारे बाबू का हिस्सा-विस्सा कुछ नहीं है! कह देना जा कर उनसे...जो करते बने कर लें!'

मनुआ ने फिर अदब से लंबा-सा सलाम झाड़ा और कहा - 'अच्छी बात है माँ जी!'

वेणी बाबू ने भी मौका पा कर कहार को मछलियाँ ले जाने का आँख से ही इशारा किया; बिना कुछ बोले-चाले वे स्वयं भी जाने लगे। मनुआ भी चला गया था, और पीछे लोग उसके व्यवहार से विस्मयान्वित हो, हतबुद्धि-से बैठे थे कि वह लौट आया। रमा को लक्ष्य कर अपने स्वर को और कोमल कर, बाँग्ला-हिंदी की खिचड़ी में बोला -'माँ जी, पहले तो बाबू ने जब लोगों के मुँह से खबर पाई, तो गुस्सा हो मुझे हुक्म दिया कि जा कर तालाब पर से ही मछलियाँ छीन लाऊँ! वैसे तो, न बाबू ही खाते हैं मांस-मछली और न मैं ही!' पर अपने चौड़े सीने पर हाथ रख कर आगे बोला - 'उनका हुक्म बजा लाने में, जान भले भी चली जाती, मगर ताल पर से पैर पीछे न हटाता। वह तो बड़ी खैर थी कि उनका गुस्सा शांत हो गया, और फिर उन्होंने मुझे आपसे पूछ आने को कहा कि हमारा हिस्सा तालाब में है कि नहीं?' और फिर बड़े अदब से दोनों हथेलियों के बीच में लाठी ले, माथ से लगा कर रमा हो नमस्कार कर कहा - 'बाबूजी ने कहा था कि और कोई चाहे कुछ भी कहे, पर माँ जी कभी झूठ न बोलेंगी और न दूसरे का हिस्सा ही मारेंगी!' और फिर आदर से नमस्कार कर चला गया।

जैसे ही वह गया, वैसे ही वेणी ने जनानी आवाज में उछल कर कहा - 'बस, इसी तरह जमींदारी चलाएँगे, भैया जी! रमा, आज कहे देता हूँ तुम्हारे सामने और तुम पक्का ही जानो कि आज से अब वह ले तो ले तालाब में से एक घोंघा भी, तो मैं जानूँ!'

अपनी बात पर स्वयं ही प्रसन्न हो कर हँसने भी लगे वे। पर रमा ने एक शब्द भी न सुना उनका। उसके कानों से तो रह-रह कर मनुआ के ही शब्द टकरा रहे थे कि 'माँ जी झूठ नहीं बोल सकतीं' और फिर आरक्त हो उठा उनका मुँह। और क्षण भर बाद ही वह फक्क सफेद भी हो गया। किसी की नजर न पड़ जाए, उसके इस रक्तहीन चेहरे पर, इसलिए उसने सिर की धोती थोड़ी माथे पर खींच ली और हट गई वहाँ से।

अध्याय 8

'ताई जी!'

'रमेश बेटा! चले आओ भीतर!'

विश्‍वेश्‍वरी ने झटपट, उसके बैठने को एक चटाई बिछा दी। अंदर पैर रखते ही, वहीं पर बैठी एक दूसरी स्त्री पर उसकी नजर पड़ी, जिसके मुँह पर नजर पड़ते ही वह समझ गया कि वह रमा है! उसे देख कर वह चकित रहा गया। तुरंत ही मौसी द्वारा ताई जी के अपमान की बात याद आते ही, गुस्से से भर उठा वह।

रमेश के इस तरह एकाएक आ जाने से, रमा भी अजीब संकट में फँस गई थी। अन्य कारणों के अलावा एक यह भी कारण था उसके इस तरह संकोच करने का कि रमेश से उसका एक दूसरा ही संबंध होनेवाला था। उस कारण से, एक बिलकुल अपरिचित की तरह पर्दा करने में भी उसे संकोच होता था, और न करते ही बनता था। मछलियों का झगड़ा अभी थोड़े ही दिन पहले हो चुका था। रमेश भी उसकी ओर बिना धयान दिए, चटाई पर ही एक तरफ बैठ गया और बोला - 'ताई जी!'

'दोपहर में कैसे भूल पड़े इधर?'

'दोपहर को न आऊँ तो कब आऊँ? और तो जब कभी आता हूँ, तो काम में लगी रहती हो, एक मिनट बैठने भी नहीं पाता तुम्हारे पास!'

विश्‍वेश्‍वरी ने जरा हँसकर, उसके इस वाक्य की सत्यता को स्वीकार कर लिया।

रमेश ने मुस्कराते हुए कहा - 'ताई जी! एक बार छोटेपन में, यहाँ से जाते समय तुमसे विदाई लेने आया था; वैसे ही आज भी विदा लेने ही आया हूँ, और संभवतः यही अंतिम विदाई भी हो!'

चेहरे पर उसके मुस्कराहट जरूर खेल रही थी, पर स्वर से स्पष्ट होता था कि उसका अंत:करण कितनी व्यथा से भरा है। रमा और विश्‍वेश्‍वरी - दोनों ही निश्‍चय में पड़ कर उद्विग्न हो उठीं।

'बड़ी उमर हो तुम्हारी, रमेश बेटा! ऐसी बात मुँह से नहीं निकालते!' - कहते--कहते उन दोनों की आँखें भर आईं। उन्होंने भरे गले से पूछा -'क्या यहाँ तबियत ठीक नहीं रहती तुम्हारी?'

अपने बलिष्ठ शरीर पर नजर डाल कर रमेश ने कहा - 'शरीर तो परिश्रम की दाल-रोटी से बना है! इतनी आसानी से खराब होने वाला नहीं है! मेरी तबियत तो भली-चंगी है; लेकिन यहाँ रहना मुहाल हो रहा है, एक क्षण को भी। यहाँ हर घड़ी दम निकलता-सा है।'

उसकी तबीयत तो अच्छी है, जान कर विश्वेश्‍वरी के जी में जी आया और निश्‍चिंतता की लंबी साँस खींच, हँसकर बोलीं - 'तुम यहाँ पैदा हुए; यहाँ की माटी में ही खेल-कूदकर पले-पुसे, बड़े हुए। यही तुम्हारी जन्मभूमि है, फिर क्यों नहीं रहा जाता?'

'तुम जानती तो हो सब कुछ! मैं अपने मुँह से सब बातें नहीं कहना चाहता।'

थोड़ी देर तक सभी मौन रहे, फिर विश्वेश्‍वरी बोलीं - 'जानती हूँ जरूर; पर सब नहीं, थोड़ा-सा ही! और तभी कहती हूँ कि और कहीं जाने से भी काम नहीं बनने का!'

'पर यहाँ तो मैं किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाता!'

'इसीलिए तो तुम्हें यहाँ और भी जमना चाहिए! और फिर अपने इस हट्टे-कट्टे शरीर की तारीफ के पुल बाँध रहे थे सो क्या यों मुश्किलों से भागने के लिए बनाया है?'

रमेश का रोआँ-रोआँ गाँव के विरुद्ध बोल रहा था और आज तो वह पराकाष्ठा तक पहुँच गया। गाँव से स्टेशन को जाने वाला रास्ता आठ-दस वर्ष पहले की बरसात से टूट गया था, और तब से आज तक किसी ने उनकी बात तक न पूछी थी। हर साल बरसात में उसका आकार बढ़ता ही गया। वहाँ सदैव ही थोड़ा-बहुत पानी जमा होने लगा, जिसके कारण स्टेशन से आने-जानेवाले लोगों को हरदम खतरा रहता, और बड़ी मुश्किल से उसे पार करना होता। कभी लोग उसमें बाँस डाल देते और कभी ताड़ की छोटी नाव ही औंधी डालकर उस पर से पार होते। पर किसी गाँववाले ने कष्ट सहते हुए भी यह न सोचा कि इसे ठीक ही करा लिया जाए! रमेश ने उसकी मरम्मत कराने में पहल की, और मरम्मत के लिए चंदा उगाहने की बात सोची। पर आठ-दस दिन की दौड़-धूप के बाद भी उसे नाकामयाबी ही मिली। यहीं तक बात रहती, तो भी गनीमत थी; किंतु वहाँ तो लोगों में काना-फूसी चल रही थी। आज सबेरे वह जब टहलकर लौट रहा था, तब उन्होंने वह सुनार की दुकान के अंदर इसी बारे में काना-फूसी सुनी। एक ने हँसते हुए कहा था - 'एक धोला मत देना तुम लोग! उन्हें ही सबसे ज्यादा गरज है, सड़क बनाने की। ऐसे में भला चमकते जूते पहनकर उसे कैसे पार कर सकते हैं? तुम लोग दो चाहे न दो, मरम्मत तो वह आप कराएगा ही...तो फिर नाहक में हम दें ही क्यों भला? रही हम लोगों की बात, तो अब तक आते-जाते ही थे स्टेशन, काम तो रुका नहीं था, सो अब भी न रुका रहेगा!'

एक और आदमी ने कहा- 'अरे, अभी देखते तो चलो! उस दिन चटर्जी महाशय कह रहे थे - अभी तो रमेश से शीतला का मंदिर ठीक कराना है! बस, 'बाबू' कह कर दो-चार खुशामदी बातें कही नहीं कि काम बना नहीं!'

यही दो बातें थीं जो सबेरे से उसके सारे अंत:करण को विदीर्ण कर, उसे गाँव के प्रति विद्रोही बना रही थीं।

विश्‍वेश्‍वरी ने भी उसी काटे पर चोट कर पूछा -'बेटा, उस सड़क के ठीक कराने की बात थी न, सो क्या हुआ?'

रमेश तो जला-भुना बैठा ही था उस बात से, और तुनक कर बोले -'अब नहीं ठीक होती वह सड़क! न कोई एक धेला खर्च करेगा और न सड़क ही बनेगी!'

'और कोई न देगा, पर तुम तो अपने पास से खर्च कर ठीक करा ही सकते हो! बाबूजी जो बहुत सारा पैसा छोड़ गए हैं, उसी में से लगा देना, थोड़ा-सा!' रमेश के कटे में नमक लग गया। बोला - 'मुझे क्या गरज, जो मैं दूँ! बिना सोचे-समझे; स्कूल में ही इतने रुपए बहा दिए, उसी का सोच हो रहा है मुझे तो! यहाँवालों के लिए कुछ करना तो बिलकुल पाप है!' रमा की तरफ हाथ आगे करके बोला - 'यहाँवालों की कुछ भलाई करो, तो समझते हैं कि खूब बेवकूफ फँसा है - लूट सको तो लूट लो! और समझते हैं जैसे मेरी गरज है, हर काम में! किसी को क्षमा कर दो, तो सोचते हैं - डर गया, तभी छोड़ दिया!'

विश्‍वेश्‍वरी ठहाका मार कर हँस दीं, पर रमा मारे लज्जा के गड़ी जा रही थी। उसकी आँखें चेहरा एकदम से आरक्त हो उठीं।

रमेश उनके हँसने से और जल उठा। नाराज हो कर बोला - 'हँसी क्यों, ताई जी?'

'न हँसूँ तो क्या करूँ बेटा?' एक दीर्घ नि:श्‍वास लेकर वे बोलीं - 'रमेश, क्या तुम समझते हो कि इन पर नाराज हो कर भी कुछ असर डाला जा सकता है? ये हैं भी इस योग्य कि इन पर नाराज हुआ जा सके?' फिर एक ठण्डी आह भर कर बोलीं - 'अगर तुम जानते कि कितने गरीब, जाहिल, निर्बल हैं ये लोग, तो शायद तुम कभी यहाँ से जाने की बात न कहते! तुम इन्हें छोड़ कर जाना चाहते हो! मैं तो कहती हूँ कि जब तुम यहाँ आ ही गए हो, तो इन्हीं के बीच में रहो, बेटा!'

'पर मैं उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाता।'

'तुम्हें अपना ही समझने की तमीज इनमें होती, तो फिर क्या बात थी? क्या अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आता कि ये इस काबिल भी नहीं हैं कि इन पर तुम गुस्सा भी दिखा सको। और यही गाँव ऐसी हो, सो बात नहीं - यहाँ तो सभी गाँवो की यही दशा है, बेटा!' फिर सहसा रमा की तरफ नजर डाल कर बोलीं - 'अरे वाह बेटी, तुम तो बस सिर गड़ाकर ही बैठी हो, जैसे कोई मूर्ति हो! तुम दोनों भाई-बहनों में बोलचाल नहीं है क्या, रमेश?...नहीं, नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए, बेटी! बाप के साथ झगड़ा था, सो उन्हीं के साथ चला भी गया वह, अब उसे भूल जाना चाहिए!'

रमा ने उसी तरह से सिर झूका, आहिस्ता से कहा - 'मेरे मन में तो कोई मैल नहीं, ताई जी! रमेश भैया...।'

तभी रमेश कर्कश स्वर में बोल उठा और रमा का नम्र स्वर खो गया - 'तुम इस मामले में दखल मत दो, ताई जी! अभी इनकी मौसी से जाने कैसे जान बची है; और यदि आज फिर इन्हें भेज दिया, जो बिना कच्चा खाए न छोड़ेंगी!' और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए वे बाहर चले गए।

'अरे, एक बात तो सुनता जा, बेटा! जरा रुक तो सही!'

रमेश ने दरवाजे के बाहर ही रुक कर कहा - 'ताई जी! मारे घमंड के जो तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोलना चाहते हैं, उनकी तरफदारी मत करो!' और जब तक विश्‍वेश्‍वरी फिर कुछ कहें, वह वहाँ से जल्दी-जल्दी चला गया।

रमा बिलख पड़ी और विश्‍वेश्‍वरी की तरफ भरी आँखों से देख कर बोली -'मैं तो मौसी को सिखा कर भेजती नहीं ताई जी! फिर मेरे माथे पर यह दोष क्यों? क्यों इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराया, कलंक थोपा गया मेरे ऊपर?'

विश्‍वेश्‍वरी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर और स्नेह से अपने अंक में आबद्ध कर कोमल, स्नेह-सिक्त स्वर में कहा - 'नहीं सिखाती हो तो क्या, पर गेहूँ के साथ घुन पिसता ही है!'

रमा ने आँसू पोंछ कर, क्रुद्ध पर दृढ़ता के स्वर में कहा - 'मौसी की बातों की जिम्मेदारी मुझ पर नहीं है! सच सकती हूँ ताई जी - मुझे उसका तनिक भी ज्ञान नहीं! फिर इस तरह झूठा दोष लगा कर क्यों मुझे अपमानित कर गए?'

इस बात को आगे बढ़ाना विश्‍वेश्‍वरी ने अच्छा नहीं समझा, सो उत्तेजना को कम करने के लिए कहा - 'बेटी, यह क्या जाने तुम्हारे घर के भीतर का हाल? उसकी नजर में तो, सब तुम्हारे इशारे से ही होता है! पर यह मैं पूरे विश्‍वास से कहती हूँ कि वह कभी तुम्हारा सिर नीचा नहीं देखना चाहेगा। गोपाल सरकार से मुझ पता चला है कि वह तुम्हें कितनी श्रद्धा और स्नेह की दृष्टि से देखता है - उसका तुम्हें पता भी नहीं! जब उस दिन इमली का पेड़ कटवा कर, तुम दोनों ने उसे किसी तरह का हिस्सा न दे, आपस में ही बाँट-बूँट लिया, तो लोगों के लाख कहने पर भी उसने यही कहा कि रमा ऐसी नहीं कि वह दूसरों के माल पर नजर डाले। जब तक वह है, मुझे किसी बात की चिंता नहीं! लाख लड़ाई-झगड़ा हो, पर मैं अच्छी तरह जानती हूँ बेटी, कि वह पहले की तरह तुमसे स्नेह करता है। और वैसा ही विश्‍वास भी। यदि उस दिन ताल की मछलियाँ...।'

और सहसा रमा के रक्तहीन चेहरे पर नजर पड़ते ही उनकी जुबान रुक गई और आँखें वहीं जम गईं। थोड़ी देर बाद स्वर में गंभीरता ला कर बोलीं - 'बेटी, रमेश के जीवन की कीमत, तुम्हारी सारी जमीन-जायदाद से कहीं ज्यादा है! कभी किसी लोभ में पड़ कर उसे खो मत बैठना! उसे खो देने से हुई हानि की फिर पूर्ति होना असंभव है!'

रमा निरुत्तर रही। विश्‍वेश्‍वरी भी मौन रहीं। थोड़ी देर बाद रमा ने ही कहा - 'अब घर चलूँ ताई जी! अबेर हो गई है।' और वह प्रणाम कर वहाँ से चली गई।

अध्याय 9

ताई जी के घर से लौटते-लौटते रमेश का सारा गुस्सा पानी हो गया। वह अपने मन में सोचने लगा - कितनी आसान बात थी! आखिर मैं गुस्सा करूँ भी, तो किस पर करूँ? जो अपनी जहालत में अपना-पराया, अपनी भलाई-बुराई का भी ज्ञान नहीं कर सकते, जो भलाई में बुराई का संशय करते हैं, जो अपने घरवाले, अपने पड़ोसी से ही लड़ने में अपनी बहादुरी समझते हैं, चाहे बाहरवाले के सामने भीगी बिल्ली ही बने रहें - और यह वे जान-बूझ कर नहीं करते, बल्कि उनका ऐसा स्वभाव ही बन गया है, तो फिर ऐसे लोगों पर भी क्या गुस्सा होना! किताबों में कितना गलत वर्णन होता है - गाँव की स्वच्छता का, आपसी भाईचारे का! पड़ोसी का दुख देख कर पड़ोसी दौड़ आता है, इस तरह से उसकी सहायता में तत्पर रहता है; किसी के घर में खुशी होती है तो सारा गाँव खुशी में फूला नहीं समाता। पर उसने जो कुछ किताबों में पढ़ा था, उसका नितांत उलटा पाया इन गाँवों में! जितना आपसी द्वेष-वैमनस्य गाँवों में उसे मिला, उतना शहरों में नहीं। इन्हीं सारी बातों को सोच-सोच, उनका सारा शरीर अजीब सिहरन से भर उठा। किताबों में पढ़ी धारणा के बल पर ही, जब कभी शहर के कोलाहलपूर्ण भागों में उसे बुराई दीख पड़ती, तभी उसका दिल अपने गाँव भाग चलने को व्याकुल हो उठता। पर अब जब नियति ने उसे गाँव में ला कर पटक दिया, तो उसकी सारी धारणा एक दिन में धूल में मिल गई; और आज गाँव का जो स्वरूप उसके सामने आया, वह अपने घोर विकृत रूप में - जो निरंतर पतन के गङ्ढे की तरफ ही अग्रसर होता जा रहा है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि अपने धर्म और समाज के इसी स्वरूप को ये सर्वांगीण सुंदर मानते हैं, और शहर के धर्म और समाज को निकृष्ट! उसी में वे परम संतुष्ट हैं।

आँगन में पैर रखते ही, रमेश ने एक अधेड़ स्त्री को, एक दस-ग्यारह वर्ष के लड़के के साथ, सहमी-सी एक कोने में बैठे देखा। रमेश को आया देख, वह उठ कर खड़ी हो गई। उस लड़के की दयनीय दशा देख कर, बिना कुछ जाने ही रमेश का दिल रो उठा। गोपाल सरकार चंड़ी मंडप के बरामदे में बैठे, लिखा-पढ़ी में लगे थे। उन्होंने वहाँ से उठ कर रमेश के पास आ कर कहा - 'दक्षिणी मुहाल में इसका घर है। पिता का नाम द्वारिका पण्डित है, आपसे कुछ विनती करने आई है।'

रमेश ने समझ लिया कि विनती का मतलब भिक्षा है! और तभी उसे फिर गुस्सा हो आया। झुँझला कर बोला - 'सारे गाँव में मैं ही दानी बचा हूँ? और कोई घर में नहीं है क्या?'

'बात भी ऐसी ही है, बाबू! बड़े बाबू के समय में, द्वार पर आया व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं लौटा। उसी आस में आज भी लोग यहीं दौड़ कर आते हैं।' बेचारी स्त्री को देख कर उसने कहा - 'कामिनी की माँ! जब वह जीता था, तब उसका प्रायश्‍चित क्यों नहीं कराया? भला यह गलती नहीं है लोगों की? अब लगे दौड़ने! घर में मुर्दा पड़ा है। क्या कुछ बरतन-भाँडे नहीं हैं इसके पास?'

कामिनी की माँ उस लड़के की पड़ोसिन थी, उसने उत्तर दिया - 'जो विश्‍वास न आता हो मेरी बात का, तो आप खुद ही चल कर देख लें। होता, तो क्या मरे बाप को घर में छोड़ कर, इस तरह भीख माँगने आता? क्या तुमने नहीं देखा कि जो कुछ मेरे पास था, सब कुछ खर्च कर दिया मैंने इन्हीं लोगों पर, पिछले छह महीनों में ही। सोचा था कि ब्राह्मण है, वहीं इसके बच्चे भूखों न मरने लगें।'

रमेश की समझ में अब कुछ-कुछ आया। गोपाल सरकार ने सारी बात विस्तार से कही - 'इस लड़के के बाप द्वारिका चक्रवर्ती को छह महीने से दमा हो गया था। आज सवेरे उनके प्राण निकल गए। बंगाल में दमा और इसी प्रकार के कई रोगों के संबंध में प्रायश्‍चित करना पड़ता है। मगर जो होना चाहिए था, वह नहीं हुआ; तभी लाश घर में पड़ी है, उसे कंधा लगाने कोई भी नहीं गया। अब भी प्रायश्‍चित नहीं होगा तो लाश यों ही पड़ी रहेगी। कामिनी की माँ ने ही छह माह से इसकी सहायता की थी और उसी में अपना भी सब कुछ लगा बैठी - अब इसके पास भी कुछ नहीं रहा। तभी लड़के को लेकर, आपके पास विनती करने आई है।'

थोड़ी देर मौन रह कर रमेश ने कहा - 'इस समय दो बजे हैं। प्रायश्‍चित न करने पर, क्या वास्तव में लाश वैसे ही पड़ी रहेगी?'

'जी! यह शास्त्र का नियम जो ठहरा! मुर्दा न पड़ा रहे, इसलिए बेचारी भीख माँगने निकली है। क्यों कामिनी की माँ, कहीं और भी गई थी क्या?'

लड़के ने अपनी मुट्ठी में बँधे पाँच आने पैसे दिखा दिए और कामिनी की माँ बोली - 'मुकर्जी के घर से चवन्नी मिली है, और हवलदार ने दिए हैं चार पैसे। पर प्रायश्‍चित में तो लगेंगे सवा दो रुपए! इससे कम में तो हो ही नहीं सकता! यदि बाबू की कृपा हो जाए तो...।'

'और अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं, घर जाओ! मैं आदमी भेज कर सारा प्रबंध करा दूँगा।'

वे लोग चले गए। गोपाल सरकार की तरफ अत्यंत दु:खित नेत्रों से देख कर रमेश बोला - 'क्यों सरकार जी, इस गाँव में भला कितने घर इस तरह के गरीब होगें?'

'दो-तीन होंगे। ये लोग भी खाते-पीते थे। पर एक पेड़ के पीछे सनातन हजारी से उन्हें द्वारिका का मुकदमा चला, और नौबत यहाँ तक आ गई कि बस उजड़ ही गए! दाने-दाने को मोहताज हो गए! यहाँ तक हालत न भी बिगड़ती।' - वह स्वर धीमा करके बोले - 'हमारे वेणी बाबू और गोविंद गांगुली ने बढ़ावा दे-दे कर, इस दशा को पहुँचा दिया इन बेचारों को!'

रमेश बोला - 'और वेणी बाबू के ही यहाँ इनकी मिलकियत गिरवी होती चली गई, और पिछले साल मूल में सूद मिला कर, कौड़ी के दाम सारी जायदाद उन्होंने खरीद ली! धन्य है यह कामिनी की माँ, जो इस बेचारे की दीनावस्था में सहायता करके, मानवता का सही धर्म निभाया!'

फिर रमेश ने एक दीर्घ निःश्‍वास, गोपाल सरकार को उसका सब प्रबंध करने को भेज दिया और मन-ही-कहा - 'ताई जी, आपकी आज्ञा मेरे सिर-माथे पर! अब मेरे प्राण भी यहाँ निकल जाएँ तो मुझे दु:ख न होगा; पर इस गाँव को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाने का!'

अध्याय 10

उस दिन से तीन महीने बाद, एक दिन रमेश सवेरे-सवेरे तारकेश्‍वर के तालाब पर, जिसे दुग्ध सागर भी कहते हैं, गया था। वहीं पर सहसा एक स्त्री से उसकी भेंट हो गई, नितांत एकांत में। वह बेसुध हो उसकी ओर घूरता रहा। वह स्त्री स्नान करके गीली धोती पहने, सीढ़ी चढ़ कर ऊपर आ रही थी। पानी से भीगे उसके केश, पीठ पर मस्ती से पड़े अलसा रहे थे। उसकी उम्र बीस वर्ष की होगी। पानी के भार से, धोती शरीर से सट गई थी, यौवन उससे बाहर फूट रहा था। चौंक कर, पानी का कलश जमीन पर रख, तुरंत अपने दोनों से अपने यौवन-कलश छिपा, अपने ही में सिमटती-सकुचाती वह बोली -'यहाँ कैसे आए आप?'

रमेश दंग रह गया, यह देख कर कि वह इसे पहचानती है। चौंक कर एक तरह हट कर बोला - 'क्या मुझे पहचानती हैं आप?'

'जी! पर आप आए कब यहाँ?'

'आया तो आज ही सवेरे हूँ। मामा के घर से और भी औरतें आनेवाली थीं; पर वे तो आई नहीं दीखतीं!'

'ठहरे कहाँ हैं यहाँ पर?'

'कहीं भी नहीं! यही आने का यह मेरा पहला ही मौका है। अब तो आज की रात बिताने को कहीं स्थान तलाश करना ही होगा।'

'नौकर तो होगा साथ में?'

'नौकर तो नहीं है, अकेला हूँ।'

'हूँ!' और मुस्कराते हुए उसने अपनी आँखें ऊपर कीं, फिर चारों आँखें आपस में लड़ गईं। पर उसने तुरंत ही आँखें नीची कर लीं, और थोड़ी देर कुछ सोचती -सी रह कर बोली - 'तो चलिए फिर, साथ!'

और उसने अपना पानी का कलश उठा कर चलना शुरू कर दिया। रमेश अजीब असमंजस में पड़ गया। बोला - 'अगर मेरे चलने से किसी प्रकार की हानि हो, तो आप इस तरह चलने को कहती भी नहीं, इसी विश्‍वास पर मैं चलता हूँ आपके साथ! याद तो मुझे भी आ रही है कि मैंने आपको कहीं देखा है। सूरत पहचानी-सी पड़ती है, पर यह नहीं याद आ रहा कि कहाँ और कब देखा है। कृपया अपना परिचय तो दे देतीं आप!'

'आप यहाँ प्रतीक्षा कीजिए थोड़ी देर, मैं पूजन कर अभी आई। फिर साथ चलते-चलते, रास्ते में परिचय भी दूँगी आपको!'

और वह मंदिर में चली गई। रमेश उसकी तरफ विमोहित दृष्टि से देखता रहा कि निश्‍चय ही यह यौवन ही है, जो उसकी धोती में से छन-छन कर उसके अंतर को घायल कर रहा है। उसका अंग-अंग रमेश को पहचाना-सा लगने लगा, पर पूरी तरह से उसे अंत तक याद न कर सका। आधा घण्टे बाद पूजा समाप्त कर जब वह मंदिर से बाहर निकली तब फिर पहचान पाने के लिए उसने एक गहरी नजर उसके चेहरे पर डाली, पर फिर भी न पहचान सका।

रास्ते में चलते समय रमेश ने पूछा - 'क्या आप यहाँ अकेली ही रहती हैं?'

'अकेली तो नहीं, एक दासी साथ है, जो घर पर ही काम कर रही होगी! वैसे तो यहाँ का सभी कुछ भली प्रकार मुझसे परिचित है, जब-तब यहाँ आया ही करती हूँ।'

'पर मैं यह तो अब तक न समझ पाया, कि आप मुझे क्यों ले रही हैं अपने साथ?'

उसने रमेश के प्रश्‍न का तुरंत कोई उत्तर न दिया। थोड़ी देर तक तो दोनों ही चुपचाप चलते रहे, फिर उस स्त्री ने कहा - 'न चलने पर, यहाँ आपको खाने -पीने में बड़ा कष्ट होगा। मैं रमा हूँ।'

रमा ने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया और पान खिला कर, उसके आराम करने के लिए, अपने ही हाथों से दरी बिछा कर दूसरे कमरे में चली गई। रमेश आँखें बंद करके दरी पर आराम करने लगा। लेटे-लेटे उसे तेईस वर्ष का जीवन इस एक क्षण में ही नितांत बदला-बदला नजर आने लगा। बचपन से ही उसका सारा जीवन निर्देश में ही बीता था, और इस उमर तक, भूख का अनुभव उन्हें सिर्फ पेट भरने तक ही था। उन्हें यह मालूम न था कि उसमें भी एक तृप्ति का आनंद होता है, जिसे आज रमा के हाथ का, उसके सामने ही, उसके माधुर्य में पके भोजन कर उसने पाया था।

रमा को चिंता थी कि वह यहाँ पर रमेश के खाने के लिए कोई विशेष सामग्री न जुटा पाई थी। सभी चीजें बहुत साधारण-सी थीं। उसे यह चिंता कचोट रही थी कि वह कहीं भूखा न रह जाए और उसके मुँह से निंदा के शब्द उसे सुनने पड़ें। पर उसके भूखे रहने में, खुद के भूखे रहने की उसे कितनी चिंता थी? उसने आज सारी लज्जा और संकोच को परे रख, अपने अभिभूत अंत:करण से सारा खाना रमेश के सामने रख दिया था, और कमी को कहीं रमेश ताड़ न ले, इसलिए स्वयं उनके सामने आ कर बैठी थी। और जब रमेश ने भोजन समाप्त कर तृप्ति की साँस ली, तो उससे कहीं बढ़ कर तृप्ति का निःश्‍वास रमा के अंत:करण से निकला - जिसे चाहे और किसी ने न देखा हो, पर अंतर्यामी से वह किसी तरह छिपी नहीं रही।

रमेश दोपहर में कभी सोने का आदी नहीं रहा, इसलिए अपने सामने की खिड़की से बाहर वर्षा के बाद धूमिल बादलों से आच्छादित आकाश को वह टकटकी बाँधे देखता रहा। इस समय से अपनी आनेवाली रिश्तेदार स्त्रियों का बिलकुल खयाल ही न रहा। तभी सहसा उसे रमा का सुकोमल स्वर दरवाजे पर से सुनाई पड़ा - 'आज यहीं न रह जाए! घर तो आपको जाना नहीं है आज!'

रमेश उठ कर बैठता हुआ बोला - 'मकान मालिक से तो अभी मेरा परिचय हुआ नहीं, उनकी आज्ञा के बिना कैसे रह सकता हूँ।'

'मकान मालिक ही आपसे ठहरने का अनुरोध कर रहे हैं! मैं ही इस मकान की मालकिन हूँ।'

'भला यहाँ मकान क्यों ले रखा है?'

'यह स्थान मुझे बहुत रमणीक लगता है। जब तब यहीं आ कर दिन बिता जाती हूँ। आजकल तो यहाँ सूना-सा पड़ा है, वरना कभी-कभी तो तिल धरने तक की जगह नहीं मिलती!'

'तो फिर उसी समय आया करो न!'

रमा ने इसका उत्तर न दिया, केवल मुस्करा कर रह गई।

'तारकेश्‍वर बाबा के प्रति तुम्हारी बड़ी भक्ति जान पड़ती है, क्यों?'

'वैसे मेरे भाग्य कहाँ! पर जो कुछ बन पड़ता है, साँस रहते करने की कोशिश तो करनी ही चाहिए!'

रमेश ने इसके बाद कई सवाल किए। रमा भी वहीं चौखट पर बैठ गई और बात का रुख पलटती हुई बोली - 'क्या खाते हैं रात को आप?'

रमेश ने जरा मुस्करा कर कहा -'जो मिल जाए! खाने पर बैठने के बाद मैं कभी खाने के विषय में नहीं सोचता, और हमेशा अपने महाराज की अक्ल पर संतोष कर लेता हूँ।'

'आज यह उदासी कैसे है?'

रमेश न समझ सका कि रमा ने उसका मखौल उड़ाने के लिए यह वाक्य कहा है अथवा साधारण व्यंग्य में। उसने छोटा-सा उत्तर दिया-'कुछ नहीं, वैसे ही। जरा-सी सुस्ती है!'

'औरों के काम में तो सुस्ती दिखाते कभी नहीं देखा आपको!'

'अगर दूसरे के काम में सुस्ती की जाएगी, तो भगवान की अदालत में उसके प्रति उत्तरदायी होना पड़ेगा! हो सकता है, अपने काम में सुस्ती दिखाई पर भी उत्तर देना पड़ता हो, पर उतना नहीं - यह तो निश्‍चय ही है!'

थोड़ी देर मौन रह कर रमा बोली - 'इस उमर में आपको परलोक की चिंता कैसे लग गई? तीन ही वर्ष तो बड़े हैं आप मुझसे!'

रमेश ने मुस्कराते हुए कहा - 'तब तो तुम्हें मुझसे भी कम परलोक की चिंता रहनी चाहिए! ईश्‍वर की कृपा से तुम्हारी बड़ी उमर हो, पर मैंने अपने बारे में, अपना हर दिन जीवन का अंतिम दिन समझा है।' रमेश ने यह वाक्य अपनी व्यथा के दिग्दर्शन के लिए भी कहा था, और उसका असर भी ठीक ही बैठा। रमा के चेहरे पर काली छाया दौड़ गई। थोड़ी देर मौन रह कर उसने कहा - 'मैंने आपको कभी न मंदिर जाते देखा, न ध्यान करते ही! पर वह न सही, खाना खाते समय आचमन करना भी आपको याद नहीं रहा क्या?'

'याद तो है, पर यह खूब समझता हूँ कि उसका याद रहना-न-रहना एक-सा ही है! और यह सब तुम पूछ क्यों रही हो?'

'आपको परलोक की बड़ी चिंता है, इसलिए।'

रमेश निरुत्तर रहा। फिर थोड़ी देर तक दोनों ही मौन रहा। बाद में रमा बोली - 'हिंदू घर की किसी विधवा को, अपने किसी सगे द्वारा 'बड़ी उमर' का आशीर्वाद शाप देने के बराबर है!' थोड़ी देर मौन रह कर वह फिर बोली -'मैं यह भी नहीं कहती कि आज ही मरने को बैठी हूँ। पर यह जरूर सत्य है कि अधिक दिन तक जीने के विचार से ही मेरा सारा शरीर सिहर उठता है। परंतु आपके साथ यह बात लागू नहीं होती! वैसे तो मुझे कोई हक नहीं कि आपसे किसी बात के लिए जोर दे कर कहूँ, पर जब दूसरों के लिए मगज मारना आपको भी, दुनिया में आ जाने के बाद बचपना मालूम पड़े, तब मेरी बात याद कर लीजिएगा!'

रमेश ने इसका कोई भी उत्तर नहीं दिया। एक लंबी-सी, ठण्डी आह उसके अंदर से फूट निकली। थोड़ी देर बाद, अस्फुट स्वर में वह बोला-'जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, वहाँ तक तो मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं पड़ती! आज तो मेरा -तुम्हारा कोई नाता नहीं, बल्कि यों कहूँ तो अधिक सत्य होगा कि मैं तुम्हारे रास्ते का एक रोड़ा हूँ। फिर भी आज जितनी खातिर तुमने मेरी की है, उतनी खातिर जिसे रोज मिले, वह दूसरों के दु:ख और उनकी व्यथा देख, पागल हो कर इधर-उधर दौड़े बिना नहीं रह सकता! मैं अभी पड़ा-पड़ा यही सोच रहा था। किंतु तुमने जरा-सी देर में ही, मेरे जीवन-स्रोत में नवीनता की एक उमंग भर दी है। जीवन में यह पहला अवसर है, जब किसी ने मुझे इतने प्रेम और आदर के साथ अपने पास बैठा कर खिलाया है। और वह तुम हो, रमा! आज जीवन में पहली बार, तुम्हारे हाथ और प्रेम से परोसा खाना खा कर यह ज्ञात हुआ कि भोजन में भी महान आनंद है!'

रमा सुन-सुन कर मारे लज्जा के सिहर उठी। उसका सारा चेहरा आरक्त हो उठा। अपने को संयत कर उसने कहा - ' लेकिन इसे भी आप थोड़े दिनों में भूल जाएँगे; और फिर कभी याद भी आएगा, तो यों ही मामूली तौर पर!'

रमेश ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रमा ने ही फिर कहा - 'मैं अपना अहोभाग्य समझूँगी, अगर आप घर जा कर मेरी निंदा न करें!'

रमेश ने एक ठण्डी आह भर कर कहा - 'न मैं इसकी तारीफ करूँगा, न निंदा ही! मेरा आज का दिन तो इन दोनों से परे है!'

रमा निरुत्तर रही; थोड़ी देर तक दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। बाद में रमा वहाँ से उठ कर कमरे में चली गई, जहाँ उसकी आँखों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं।

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  • देहाती समाज अध्याय (1-4)
  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
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